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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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अथ अध्याय ८
१० आचार्य दिलेराम जी
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दिलेरामजी आचार्य निर्भयरामजी महाराज की सेवा में रहते थे । निर्भयरामजी महाराज ने जीवनदासजी को अपना उत्तराधिकारी बनाया था तब दिलेरामजी को जीवनदासजी की गोद में बैठा दिया था । उसका तात्पर्य यह था - कि जीवनदासजी के ब्रह्मलीन होने पर दिलेरामजी ही गद्दी के अधिकारी होगें ।
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यह बात समाज के मुख्य - मुख्य महानुभावों को ज्ञात थी ही । इससे जीवनदासजी महाराज के ब्रह्मलीन होने पर वि. सं. १८७७ मार्ग शुक्ला अष्टमी से दिलेरामजी ही आचार्य माने गये । मार्गशीर्ष शुक्ला ११ वि. सं. १८७७ को समाज ने दिलेरामजी को आचार्य पद पर अभिषिक्त किया ।
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उस समय जयपुर नरेश ने टीका के दस्तूर की अपनी परंपरा की रीति के अनुसार घोडा, शाल, शिरोपाव और भेंट के रुपये अपने मंत्री के द्वारा भेजे थे । उसने आचार्य दिलेरामजी की भेंट किये । इसी प्रकार अलवर नरेश ने - हाथी, शाल, सिरोपाव(सिर से पाव तक पहनने के वस्त्र), पारचा का थान(रेशमी कपडे का थान) पाग तथा भेंट के रुपये अपने मंत्री द्वारा भेजे ।
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बीकानेर नरेश ने भी घोडा, शाल और सिरोपाव मंत्री द्वारा भेजे । किशनगढ नरेश ने - शाल, सिरोपाव आदि भेजे । खेतडी नरेश ने शाल और भेंट के रुपये भेजे । उक्त प्रकार राजस्थान के अनेक बडे छोटे नरेशों की भेंट अपनी अपनी कुल परंपरा के अनुसार हो जाने के पश्चात् श्री दादूपंथ के महन्त, संतों की अपनी - अपनी मर्यादा के अनुसार भेंटें हुई ।
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फिर भेंटों का कार्य समाप्त हो जाने पर श्री स्वामी दादू दयालु महाराज की जय बोलकर आचार्य दिलेरामजी की जय बोली । फिर प्रसाद भेंटों वालों को बांट करके अन्य सबको बांटा गया । पश्चात् सभा विसर्जन कर दी गई । दिलेरामजी महाराज अपने से पूर्व के दो भजनानन्दी आचार्य निर्भयरामजी और जीवनदासजी की सेवा में रहे हुये थे ।
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सदा उनका सत्संग करते रहे थे और आप भी आचार्य पद से पूर्व अधिकतर भजन विचार और प्राप्ति के पश्चात् तो अपने साधन भजन के लिये बहुत अधिक समय मिलने लगा । व्यावहारिक कार्य तो अब आपको करने पडते ही नहीं थे ।
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व्यावहारिक कार्य पूर्व काल से ही भंडारी लोग करते आ रहे थे । अत: सब काम भंडारी ही करते कराते थे । आप तो ब्रह्म भजन और उपदेश ही करते थे । आचार्य दिलेराम जी अति दयालु और मिलनसार महात्मा थे । आप निज समाज के तथा अन्य समाज के प्रत्येक व्यक्ति के साथ प्रेम का व्यवहार करते थे ।
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दादूपंथी शिष्य मंडल तथा अन्य गृहस्थी सेवक सती आप में अटूट श्रद्धा रखते थे । आपके दयालु, उदार तथा सद् - व्यवहार को देखकर शिष्य मंडल के शिष्यों ने अपने - अपने स्थान में आपके अनेक चातुर्मास कराये थे । चातुर्मास के समय में आपके साथ १०० से अधिक ही साधु रहते थे । आपके चातुर्मास मर्यादा पूर्वक बहुत ही सुन्दर होते थे । सब को आनन्द ही आनन्द प्राप्त होता था ।
(क्रमशः)

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