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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१३. अथ देह मलिनता गर्ब प्रहार कौ अंग १/४*
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सुन्दर देह मलीन है, राख्यौ रूप संवारि ।
ऊपर तें कलई करी, भीतरि भरी भंगारि ॥१॥
देह की मलिनता : महाराज श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - रे मानव ! यद्यपि तेरा यह शरीर बाह्य दृष्टि से सर्वथा सुन्दर प्रतीत हो रहा है, क्योंकि तूं ने इसको स्वच्छ वस्त्रों एवं मनोरम आभूषणों से सजा कर इस पर गन्धद्रव्यों का लेप(कलई) कर रखा है; परन्तु इसके अन्तःप्रदेश में मल मूत्र आदि मलिन पदार्थ एवं कूड़ा कर्कट(त्याज्य वस्तुएँ) ही भरा हुआ है ॥१॥
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सुन्दर देह मलीन है, प्रकट नरक की खांनि ।
ऐसी याही भाकसी, तामैं दीनौ आंनि ॥२॥
तेरा यह देह इतना मलिन(गन्दा) लगता है कि मानो यह अतिशय मलिन वस्तुओं का ढेर ही हो । यह तो प्रत्यक्ष नरक ही दिखायी देता है और ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जैसे किसी भले आदमी को एक गन्दे गड्ढे(भाकरी) में डाल दिया गया हो ॥२॥
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सुन्दर देह मलीन अति, बुरी बस्तु को भौंन ।
हाड मांस को कौथरा, भली बस्तु कहि कौंन ॥३॥
तेरा यह शरीर ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोई घृणित वस्तुओं का भण्डार हो । यह तो एक प्रकार से अस्थि एवं मांस का थैला(कोथला) ही लगता है । इस में किसी के मन को प्रसन्न करने वाली कोई भी वस्तु दिखायी नहीं देती ॥३॥
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सुन्दर देह मलीन अति, नख शिख भरै बिकार ।
रक्त पीप मल मूत्र पुनि, सदा बहै नव द्वार ॥४॥
तेरे इस शरीर में नख से शिखा पर्यन्त विकार(दोष) ही भरे हुए हैं । इस के नौ द्वारों से रक्त, मवाद, मल, मूत्र आदि मलिन पदार्थ ही निरन्तर बहते रहते हैं ॥४॥
(क्रमशः)

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