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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१२. विश्वास को अंग २३/२५*
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सुन्दर जाकैं जो रच्यौ, सोई पहुंचै आइ ।
कीरी कौं कन देत है, हाथी मन भरि खाइ ॥२३॥
श्रीसुन्दरदासजी का कथन है कि उस सिरजनहार ने जिस के प्रारब्ध में जितना लिख दिया है, वह उस को मिलेगा ही । तदनुसार, वह प्रभु 'चींटी को कण एवं हाथी को मण' जितनी खाद्य पदार्थ की मात्रा पहुँचाता ही रहता है । तथा वे प्राणी उसी से सन्तुष्ट रहते हैं ॥२३॥
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सुन्दर जल की बूंद तैं, जिनि यह रच्यौ सरीर ।
सोई प्रभु या कौ भरै, तूं जिनि होड़ अधीर ॥२४॥
जिस स्रष्टा ने एक शुक्रविन्दु से इतना बड़ा शरीर रच दिया है उसी का वह उत्तरदायित्व भी है कि वह इसका पालन पोषण भी करे । हे प्राणी ! इसके लिये तूँ क्यों अपना धैर्य त्याग रहा है ! ॥२४॥
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सुन्दर अब बिस्वास गहि, सदा रहै प्रभु साथ ।
तेरौ कियौ न होत है, सब कुछ हरि कै हाथ ॥२५॥
इति विश्वास को अंग ॥१२॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - अरे मूर्ख प्राणी ! मेरे इतना समझाने के बाद तो तूँ विश्वास कर ले कि वह सर्वव्यापक प्रभु सदा तेरे साथ रहता है । क्योंकि इसमें तेरा किया कुछ नहीं है, सब कुछ उसी की इच्छा से हो रहा है१ ॥२५॥
(१ ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन ! तिष्ठति ।
भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥
(भ. गी., अ. १८, श्लो. ६१))
इति विश्वास का अंग सम्पन्न ॥१२॥
(क्रमशः)

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