शुक्रवार, 26 दिसंबर 2025

'शिकागो वक्तृता' से उधृत

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🌷 *#श्रीरामकृष्ण०वचनामृत* 🌷
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*अपना अपना कर लिया, भंजन माँही बाहि ।*
*दादू एकै कूप जल, मन का भ्रम उठाहि ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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स्वामीजी ने एक दूसरे भाषण में विज्ञान-शास्त्र से प्रमाण देकर समझाने की चेष्टा की कि सभी धर्म सत्य हैं –
"... यदि कोई महाशय यह आशा करें कि यह एकता इन धर्मों में से किसी एक की विजय और बाकी अन्य सब के नाश से स्थापित होगी, तो उनसे मैं कहता हूँ कि 'भाई, तुम्हारी यह आशा असम्भव है ।' क्या मैं चाहता हूँ कि ईसाई लोग हिन्दू हो जायँ ? - कदापि नहीं; ईश्वर ऐसा न करे ! क्या मेरी यह इच्छा है कि हिन्दू या बौद्ध लोग ईसाई हो जायँ ? ईश्वर इस इच्छा से बचावे !
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बीज भूमि में बो दिया गया है और मिट्टी, वायु तथा जल उसके चारों ओर रख दिये गये हैं । तो क्या वह बीज मिट्टी हो जाता है अथवा वायु या जल बन जाता है ? नहीं, वह तो वृक्ष ही होता है । वह अपने नियम से ही बढ़ता है और वायु, जल तथा मिट्टी को आत्मसात् कर, इन उपादानों से शाखाप्रशाखाओं की वृद्धि कर एक बड़ा वृक्ष हो जाता है ।
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"यही अवस्था धर्म के सम्बन्ध में भी है । न तो ईसाई को हिन्दू या बौद्ध होना पड़ेगा, और न हिन्दू अथवा बौद्ध को ईसाई ही । पर हाँ, प्रत्येक मत के लिए यह आवश्यक है कि वह अन्य मतों को आत्मसात् करके पुष्टि लाभ करे, और साथ ही अपने वैशिष्ट्य की रक्षा करता हुआ अपनी प्रकृति के अनुसार वृद्धि को प्राप्त हो ।..."
-'शिकागो वक्तृता' से उधृत
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अमरीका में स्वामीजी ने ब्रूक्लीन एथिकल सोसाइटी (Brooklyn Ethical Society) के सामने हिन्दू धर्म के सम्बन्ध में एक भाषण दिया था । प्रोफेसर डॉ. लीवि जेन्स (Dr. Lewis Janes) ने सभापति का आसन ग्रहण किया था । वहाँ पर भी वही बात थी, - सर्वधर्मसमन्वय की ।
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स्वामीजी ने कहा, "... सत्य सदा सार्वभौमिक रहा है । यदि केवल मेरे ही हाथ में छः उँगलियाँ हों और तुम सब के हाथ में पाँच, तो तुम यह न सोचोगे कि मेरा हाथ प्रकृति का सच्चा अभिप्राय है, प्रत्युत यह समझोगे कि वह अस्वाभाविक और एक रोगविशेष है । उसी प्रकार धर्म के सम्बन्ध में भी है ।
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यदि केवल एक ही धर्म सत्य होवे और बाकी सब असत्य, तो तुम्हें यह कहने का अधिकार है कि वह एक धर्म कोई रोगविशेष है; यदि एक धर्म सत्य है तो अन्य सभी धर्म सत्य होंगे ही । अतएव हिन्दू धर्म तुम्हारा उतना ही है जितना कि मेरा ।..."
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स्वामीजी ने शिकागो-धर्ममहासभा के सम्मुख जिस दिन पहले-पहल भाषण दिया, उस भाषण को सुनकर लगभग छः हजार व्यक्तियों ने मुग्ध होकर अपना-अपना आसन छोड़कर मुक्त कण्ठ से उनकी अभ्यर्थना की थी ।*
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(*"When Vivekanand addressed the audience as "Sisters and Brothers of America,” there arose a peal of applause that lasted for several minutes" -Dr. Barrow's Report. "But eloquent as were many of the brief speeches, no one expressed so well the spirit of the Parliament of Religions and its limitations as the Hindu monk. He is an orator by divine right."
-New York Critique, 1893)
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उस भाषण में भी इसी समन्वय का सन्देश था । स्वामीजी ने कहा था –
"... मुझको ऐसे धर्म का अवलम्बी होने का गौरव है, जिसने संसार को न केवल 'सहिष्णुता' की शिक्षा दी, बल्कि 'सब धर्मों को मानने' का पाठ भी सिखाया । हम केवल 'सब के प्रति सहिष्णुता' में ही विश्वास नहीं करते, वरन् यह भी दृढ़ विश्वास करते हैं कि सब धर्म सत्य हैं । मैं अभिमानपूर्वक आप लोगों से निवेदन करता हूँ कि मैं ऐसे धर्म का अनुयायी हूँ, जिसकी पवित्र भाषा संस्कृत में अंग्रेजी Meyo Exclusion का कोई पर्यायवाची शब्द है ही नहीं ।..."
- "शिकागो वक्तृता" से उद्धृत
(क्रमशः)

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