शनिवार, 27 दिसंबर 2025

श्रीरामकृष्ण, नरेन्द्र, कर्मयोग और स्वदेश-प्रेम

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🌷 *#श्रीरामकृष्ण०वचनामृत* 🌷
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*दादू एकै आत्मा, साहिब है सब मांहि ।*
*साहिब के नाते मिले, भेष पंथ के नांहि ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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(४)श्रीरामकृष्ण, नरेन्द्र, कर्मयोग और स्वदेश-प्रेम
श्रीरामकृष्णदेव सदैव कहा करते थे, 'मैं और मेरा, यही अज्ञान है, 'तुम और तुम्हारा' यही ज्ञान है । एक दिन सुरेश मित्र के बगीचे में महोत्सव हो रहा था । रविवार, १५ जून, १८८४ ई. । श्रीरामकृष्णदेव तथा अनेक भक्त उपस्थित थे । ब्राह्मसमाज के कुछ भक्त भी आये थे ।
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श्रीरामकृष्णदेव ने प्रताप मजूमदार तथा अन्य भक्तों से कहा, "देखो, 'मैं और मेरा' - इसी का नाम अज्ञान है । 'काली-मन्दिर का निर्माण रासमणि ने किया है' - यही बात सब लोग कहते हैं । कोई नहीं कहता कि ईश्वर ने किया है । 'अमुक व्यक्ति ब्रह्मसमाज बना गये हैं' - यही लोग कहते है । यह कोई नहीं कहता कि ईश्वर की इच्छा से यह हुआ है । 'मैंने किया है' इसी का नाम अज्ञान है ।
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'हे ईश्वर मेरा कुछ भी नहीं है, यह मन्दिर मेरा नहीं है, यह कालीमन्दिर मेरा नहीं, समाज मेरा नहीं, सभी चीजें तुम्हारी हैं, स्त्री, पुत्र, परिवार – कुछ भी मेरा नहीं है, सब तुम्हारी चीजें हैं', - ये सब ज्ञानी की बातें हैं । " ‘मेरी चीज मेरी चीज' कहकर उन सब चीजों से प्यार करने का नाम है 'माया' ।
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सभी को प्यार करने का नाम है 'दया' । मैं केवल ब्राह्मसमाज के लोगों को प्यार करता हूँ, इसका नाम है माया । मैं केवल अपने देश के लोगों को प्यार करता हूँ, इसका नाम है माया । सभी देश के लोगों को प्यार करना, सभी धर्म के लोगों को प्यार करना - यह दया से होता है, भक्ति से होता है । माया से मनुष्य बद्ध हो जाता है, भगवान से विमुख हो जाता है । दया से ईश्वर-प्राप्ति होती है । शुकदेव, नारद - इन सब ने दया रखी थी ।"
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श्रीरामकृष्णदेव का कथन है - 'केवल स्वदेश के लोगो को प्यार करना – इसका नाम माया है । सभी देशों के लोगों से, सभी धर्म के लोगों से प्रेम रखना, यह हृदय में दया होने से होता है, भक्ति से होता है ।' तो फिर स्वामी विवेकानन्द स्वदेश के लिए उतने व्यस्त क्यों हुए थे ?
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स्वामीजी ने शिकागो-धर्ममहासभा में एक दिन कहा था, "... भारत में धर्म का अभाव नहीं है - वहाँ तो वैसे ही आवश्यकता से अधिक धर्म है, पर हाँ, हिन्दुस्थान के लाखों अकालपीड़ित लोग सूखे गले से 'अन्न-अन्न, रोटी-रोटी' चिल्ला रहे हैं । ... मैं अपने निर्धन स्वदेश निवासियों के लिए यहाँ पर धन की भिक्षा माँगने आया था, परन्तु आकर देखा बड़ा ही कठिन काम है, - ईसाइयों से उन लोगों के लिए, जो ईसाई नहीं हैं, धन एकत्रित करना टेढ़ी खीर है ।"
'शिकागो वक्तृता' से उधृत.....
(क्रमशः)

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