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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१५. मन कौ अंग ५/८*
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घेरैं नैंकु न रहत है, ऐसौ मेरौ पूत ।
पकरें हाथ परै नहीं, सुन्दर मनुवा भूत ॥५॥
यह मन ऐसा ढीठ है कि इस पर आप कितना भी नियन्त्रण कीजिये, यह उससे निरुद्ध होने(रुकने) वाला नहीं है । इसको आप कितना भी बांधने का प्रयास कीजिये, यह आप के बन्धन के अधीन होने वाला नहीं है । अतः इस को आप एक प्रबल भूत के समान समझिये ॥५॥
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नीति अनीति न देखई, अति गत्ति मन कै बंक ।
सुन्दर गुरु की साधु की, नैंकु न मानै संक ॥६॥
यह किसी भी बात में उचित या अनुचित का विचार नहीं करता । न यह किसी अनुचित कार्य के पूर्ण करने में कोई असुविधा या अनौचित्य मानता है । श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं – यह उस को पूर्ण करते समय न गुरु के प्रतिकूल आदेश की परवाह करता है न सज्जनों का निषेध या विरोध ही उसको रोक पाता है ॥६॥
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सुन्दर क्यौं करि धीजिये, मन कौ बुरौ सुभाव ।
आइ बनै गुदरै नहीं, खेलै अपनौ दाव ॥७॥
इस मन के कुटिल स्वभाव पर कैसे विश्वास किया जाय ! यह प्रबल से प्रबल विरोध होने पर भी अपने आग्रह(जिद्द) से पीछे हटने को तय्यार नहीं होता । यह अवसर मिलते ही, अपना हठ पूर्ण कर ही लेता है ॥७॥
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सुन्दर या मन सारिखौ, अपराधी नहिं और ।
साख सगाई ना गिनै, लखै न ठौर कुठौर ॥८॥
महाराज कहते हैं - हमारे इस मन जैसा दुष्ट अपराधी अन्य कोई नहीं है । यह कोई भी(छोटा या बड़ा) अपराध करते समय, न अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा, न अपने कौटुम्बिक सम्बन्धों को ही महत्त्व देता है और न ऐसा करते समय उचित अनुचित स्थान(ठौर, कुठौर) पर ही ध्यान देता है ॥८॥
(क्रमशः)

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