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*दादू जब प्राण पिछाणै आपको,*
*आत्म सब भाई ।*
*सिरजनहारा सबनि का, तासौं ल्यौ लाई ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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स्वामीजी की प्रधान शिष्या भगिनी निवेदिता(Miss Margaret Noble) कहती हैं कि स्वामीजी जिस समय शिकागो नगर में निवास करते थे, उस समय किसी भारतीय के साथ साक्षात्कार होने पर, वह चाहे किसी भी जाति का क्यों न हो - हिन्दू, मुसलमान या पारसी, उसका बहुत आदर-सत्कार करते थे ।
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वे स्वयं किसी सज्जन के घर पर अतिथि के रूप में निवास करते थे । वहीं पर अपने देश के लोगों को ले जाते थे । गृहस्वामी भी उन लोगों का काफी आदर-सत्कार करते थे और वे भलीभाँति जानते थे कि उन लोगों का आदर-सम्मान न करने पर स्वामीजी अवश्य ही उनका घर छोड़कर किसी दूसरी जगह चले जायेंगे ।
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अपने देश के लोगों की निर्धनता और उनका दुःख-निवारण, उनकी सत्शिक्षा तथा उनके धर्मपरायण होने के सम्बन्ध में स्वामीजी सदैव विचारशील रहते थे । परन्तु वे अपने देशवासियों के लिए जिस प्रकार दुःख का अनुभव करते थे, आफ्रिकानिवासी निग्रो के लिए भी उसी प्रकार दुःखी रहते थे ।
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भगिनी निवेदिता ने कहा है कि स्वामीजी जिस समय दक्षिणी संयुक्त राष्ट्रों में भ्रमण कर रहे थे, उस समय किसी किसी ने उन्हें आफ्रिकानिवासी(Coloured man) समझकर घर से लौटा दिया था; परन्तु जब उन्होंने सुना कि वे आफ्रिकानिवासी नहीं है, वे हिन्दू संन्यासी प्रसिद्ध स्वामी विवेकानन्द हैं, तब उन्होंने परम आदर के साथ उन्हें ले जाकर उनकी सेवा की ।
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उन्होंने कहा, "स्वामी, जब हमने आपसे पूछा, 'क्या आप आफ्रिका निवासी हैं ?' उस समय आप कुछ भी न कहकर चले क्यों गये थे ?" स्वामीजी बोले, "क्यों, आफ्रिका निवासी निग्रो क्या मेरे भाई नहीं हैं ?" निग्रो तथा स्वदेशवासियों की सेवा एक जैसी होनी चाहिए और चूँकि स्वदेशवासियों के बीच हमें रहना है इसलिए उनकी सेवा पहले ।
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इसी का नाम अनासक्त सेवा है । इसी का नाम कर्मयोग है । सभी लोग कर्म करते हैं, परन्तु कर्मयोग है बड़ा कठिन । सब छोड़कर बहुत दिनों तक एकान्त में ईश्वर का ध्यान-चिन्तन किये बिना स्वदेश का ऐसा उपकार नहीं किया जा सकता । 'मेरा देश' कहकर नहीं, क्योंकि तब तो माया में फँसना हुआ, पर 'ये लोग तुम्हारे(ईश्वर के) हैं' इसलिए इनकी सेवा करूँगा ।
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तुम्हारा निर्देश है, इसीलिए देश की सेवा करूँगा, तुम्हारा ही यह काम है - मैं तुम्हारा दास हूँ इसीलिए इस व्रत का पालन कर रहा हूँ, सफलता मिले या असफलता हो, यह तुम जानो, यह सब मेरे नाम के लिए नहीं, इससे तुम्हारी ही महिमा प्रकट होगी – इसीलिए ।
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वास्तविक स्वदेश-प्रेम(Ideal patriotism) इसे ही कहते हैं, इसीलिए लोक शिक्षा के उद्देश्य से स्वामीजी ने इतने कठिन व्रत का अवलम्बन किया था । जिनके घर-बार और परिवार हैं, कभी ईश्वर के लिए जो व्याकुल नहीं हुए, जो 'त्याग' शब्द को सुनकर मुस्कराते हैं, जिनका मन सदा कामिनी-कांचन और ऐहिक मान-सन्मान की ओर लगा रहता है, जो लोग 'ईश्वरदर्शन ही जीवन का उद्देश्य है' इस बात को सुनकर विस्मित हो उठते हैं, वे स्वदेश-प्रेम के इस महान् आदर्श को क्या जाने ?
(क्रमशः)

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