शनिवार, 27 दिसंबर 2025

*१५. मन कौ अंग ९/१२*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१५. मन कौ अंग ९/१२*
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सुन्दर मन कामी कुटिल, क्रोधी अधिक अपार । 
लोभी तृप्त न होत है, मोह लग्यौ सैंवार ॥९॥
हमारा यह मन इतना अधिक काम एवं क्रोध की वासनाओं से भरा हुआ है कि इस की दुष्टता का पार नहीं पाया जा सकता । साथ ही, यह इतना बड़ा लोभी भी है कि इसको विषयभोगों से तृप्ति ही नहीं होती; क्योंकि यह उन भोगों के तात्कालिक सुख पर अतिशय मुग्ध हो गया है । साथ ही इस को मोह रूप शैवाल(कङ्काल) भी लगा हुआ है ॥९॥
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सुन्दर यहु मन अधम है, करै अधम ही कृत्य । 
चल्यौ अधोगति जात है, ऐसी मन की बृत्य ॥१०॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - हमारा यह मन स्वयं अधम(नीच) है, अतः इसके कर्म ही नीच ही होते हैं । इस की वृत्ति(चेष्टा या व्यवहार) भी ऐसी है कि इसके कारण यह भी निरन्तर अधोगति को ही प्राप्त होता रहता है ॥१०॥
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सुन्दर मन कै रिंदगी, होइ जात सैतान । 
काम लहरि जागै जबहिं, अपनी गनै न आन ॥११॥
हमारा यह मन, राक्षसी वृत्ति के कारण, स्वयं भी राक्षस ही जाता है । अतः जब इसमें कामभावना जाग्रत् होती है तो यह उस समय उस स्त्री के साथ अपने या आत्मीय जनों के सम्बन्ध भी ध्यान में नहीं रखता ॥११॥
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ठग बिद्या मन कै घनी, दगाबाज मन होइ । 
सुन्दर छल केता करै, जानि सकै नहिं कोइ ॥१२॥
हमारा यह मन दूसरों को ठगने की बहुत कलाएँ जानता है; क्योंकि यह स्वयं धोखेबाज है । अतः यह दूसरों के साथ कब, कितना अधिक धोखा(छल) कर जायगा - यह अन्य कोई नहीं जान सकता ॥१२॥
(क्रमशः) 

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