शुक्रवार, 5 दिसंबर 2025

*१२. विश्वास को अंग ९/१२*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१२. विश्वास को अंग ९/१२*
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सुन्दर दौरै रिजक कौं, सौ तौ मूरष होइ । 
यौं जानै नहिं बावरौ, पहुंचावै प्रभु सोइ ॥९॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - उस पुरुष को इस संसार में मूर्ख ही समझना चाहिये जो भोजन-प्राप्ति के लिये इधर उधर दौड़ता है; क्योंकि वह अज्ञानी यह बात समझता ही नहीं कि उसका प्रभु उसके लिये नियत भोजन उस के पास स्वयं ही पहुँचा देगा ॥९॥
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सुन्दर समुझि बिचार करि, है प्रभू पूरनहार । 
तेरौ रिजक न मेटि है, जानत क्यौं न गवांर ॥१०॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - अरे प्राणी ! तूँ अच्छी तरह विचार कर यह समझ ले कि वह प्रभु ही सब के भोजन की पूर्ति करता है अतः वह प्रभु तेरे अंश का भोजन तुझे क्यों नहीं देगा – तूँ यह क्यों नहीं समझता ! ॥१०॥
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सुन्दर निस दिन रिजक कौं, बादि मरै नर झूरि । 
तुझे रिजक दे रामजी, जहां तहां भरपूरि ॥११॥
अरे मूर्ख ! तूँ दिन रात अपनी उपभोग्य सामग्री की खोज में क्या चिन्तित रहता है ! वह तो जितने तेरे भाग्य में लिखी हुई है उतनी वे प्रभु तेरे सम्मुख अवश्य पहुँचा देंगे ॥११॥
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सुन्दर जो मुख मूंदि कैं, बैठि रहै एकंत । 
आनि खवावै रामजी, पकरि उघारै दंत ॥१२॥
यदि तूं एकान्त में मौन बैठ कर केवल उस प्रभु का नाम स्मरण करता रहे तो वे सर्वसमर्थ प्रभु तेरे जीवननिर्वाह के लिये स्वयं सब कुछ देते रहेंगे ॥१२॥
(क्रमशः)  

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