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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१३. देह मलिनता गर्ब प्रहार कौ अंग १७/१९*
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सुन्दर बहुत बलाइ है, पेट पिटारी मांहिं ।
फूल्यौ माइ न खाल मैं, निरखत चालै छांहिं ॥१७॥
तेरे इस शरीर के पेटरूप पिटारी में मल मूत्र आदि बहुत सी गन्दी वस्तुएँ भरी पड़ी हैं । जब कि तूं इस की बाह्य सुन्दरता पर मुग्ध होकर अभिमानपूर्वक अपनी छाया देखता हुआ टेढा टेढा चल रहा है ! ॥१७॥
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सुन्दर रज बीरज मिलै, महा मलिन ये दोइ ।
जैसौ जाकौ मूल है, तैसौ ई फल होइ ॥१८॥
रे मानव ! तूँ जानता ही है कि तेरे इस शरीर की उत्पत्ति रज एवं वीर्य के मलिन संयोग से हुई है । तो भाई ! जिस का जैसा मूल(बीज) होगा वैसा ही उससे फल भी उत्पन्न होगा१ ॥१८॥ {१ इस साषी के विस्तृत अर्थज्ञान के लिये द्रष्टव्य - सवैया ग्रन्थ के इसी अंग का ५वाँ छन्द (पृ. ७८)}
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सुन्दर मलिन शरीर यह, ताहू मैं बहु ब्याधि ।
कबहूं सुख पावै नहीं, आठौ पहर उपाधि ॥१९॥
देह में विविध रोग : पहले तो तेरा यह ऐसा मलिन शरीर, ऊपर से इसमें समय समय पर विविध रोगों की उत्पत्ति; जिन के कारण तूँ कभी सुख से नहीं बैठ पाता । दिन रात(आठों पहर) किसी न किसी संकट से ही घिरा रहता है । ऐसे सङ्कट एवं दुःखों के आश्रयस्थल(देह) पर क्या गर्व करना ! ॥१९॥
(क्रमशः)

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