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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१२. विश्वास को अंग १७/१९*
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सुन्दर मच्छ समुद्र मैं, सौ जोजन बिसतार ।
ताहू कौं भूलै नहीं, प्रभु पहुंचावनहार ॥१७॥
इसी प्रकार, समुद्र में सौ सौ योजन लम्बे विशालकाय मच्छ कच्छ रहते हैं, उनको भी वह महाप्रभु कभी विस्मृत नहीं करता, उनकी खाद्य सामग्री भी यथास्थान पहुँचाता ही है; फिर तूँ अपने विषय में क्यों चिन्ता करता है ! ॥१७॥
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सुन्दर मनुषा देह मैं, धीरज धरत न मूरि ।
हाइ हाइ करतौ फिरै, नर तेरै सिर धूरि ॥१८॥
अरे ! तूँ ने तो मनुष्य देह प्राप्त किया है, फिर भी तुझ को कुछ भी धैर्य नहीं है कि तूँ अपनी खाद्य सामग्री के विषय में – हा ! यह कहाँ मिलेगी ! ? - ऐसे बिलखता हुआ दिन रात इधर उधर दौड़ रहा है । तुझे धिक्कार है !! ॥१८॥
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सुन्दर सिरजनहार कौं, क्यौं न गहै बिस्वास ।
जीव जंत पोखै सकल, कोउ न रहत निरास ॥१९॥
अरे प्राणी ! तूँ अपने उस सिरजनहार पर क्यों नहीं विश्वास करता, जब कि तूँ देख रहा है कि वह संसार के समस्त जीव जन्तुओं का यथोचित्त पालन पोषण कर रहा है । वह अपनी ओर से किसी को भी निराश नहीं कर रहा ! ॥१९॥
(क्रमशः)

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