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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१४. दुष्ट को अंग १७/१९*
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बीछू काटे दुख नहीं, सर्प डसै पुनि आइ ।
सुन्दर जो दुख दुष्ट तें, सो दुख कह्यौ न जाइ ॥१७॥
सांप या विच्छू के काटने से जो कष्ट होता है वह सहन किया जा सकता है; परन्तु दुर्जन द्वारा दिये गये कष्ट का वर्णन वाणी से नहीं किया जा सकता ॥१७॥
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गज मारै तौ नांहिं दुख, सिंह करै तन भंग ।
सुन्दर ऐसौ नांहिं दुःख, जैसौ दुर्जन संग ॥१८॥
कोई हाथी पैरों तले रोंद दे, या कोई सिंह आकर खा जाय - यह कष्ट किसी प्रकार सह्य हो सकता है; परन्तु किसी दुष्ट की संगति से पाया जाने वाला कष्ट हमारे सहन करने की स्थिति में नहीं है ॥१८॥
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सुन्दर जरिये अग्नि महिं, जल बूडे नहिं हांनि ।
पर्वत ही तैं गिरि परौ, दुर्जन भलौ न जांनि ॥१९॥
अग्नि से जल जाने का या जल में डूब जाने का कष्ट सहा जा सकता है, पर्वत से लुढक जाने का असीम कष्ट भी सहन किया जा सकता है, परन्तु दुष्ट का संग किसी भी स्थिति में हितकर नहीं ॥९॥
(क्रमशः)

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