बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

= मन का अंग १० =(९७/९९)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*मन की चपलता*
*दादू जीवै पलक में, मरतां कल्प बिहाइ ।*
*दादू यहु मन मसखरा, जनि कोई पतियाइ ॥९७॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह मन एक पलक में विषयों का संग करके चंचल हो जाता है और इसको विषयों की तरफ से मारने में व हटाने में कल्प के कल्प बीत जाते हैं । यह मन मखौल करने वाले मखौली की तरह है । इसका किसी को भी विश्‍वास नहीं करना चाहिए कि यह मन हमारे काबू में हो गया है ॥९७॥ 
मन मृतक को देखि करि, मति आनै विश्‍वास । 
साधु तब लग डर करैं, जब लग पिंजर श्‍वास ॥ 
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*दादू मूवां मन हम जीवित देख्या, जैसे मरघट भूत ।*
*मूवां पीछे उठ उठ लागै, ऐसा मेरा पूत ॥९८॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिनका मन मर गया है, अर्थात् विषियों से रहित हो गया, उस मन को फिर विषयों की चेष्टा करता और भोगता हुआ देखा है । जैसे मरने के बाद मसाण में भूत होकर लोगों को परेशान करता है, वैसे ही यह मन साधक लोगों को परेशान करता है । मरने के बाद भी अर्थात् निर्वासनिक होने के बाद में भी मायावी विषयों की हवा लगते ही संकल्प - विकल्पों के द्वारा यह साधक के पीछे पड़ा रहता है ॥९८॥ 
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*निश्‍चल करतां जुग गये, चंचल तब ही होहि ।*
*दादू पसरै पलक में, यहु मन मारै मोहि ॥९९॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! इस मन को संकल्प शून्य करने में तो जुग के जुग बीत जाते हैं और चंचल तो यह उसी समय हो जाता है, जबकि विषयों की हवा स्पर्श करती है अर्थात् बात सुनता है । इस प्रकार इस मन की हालत है कि यह एक पलक में त्रिलोकी में वासना द्वारा फैल जाता है । यह विषयासक्त मन साधकों को मारने के लिये सदा तत्पर बना रहता है ।
(क्रमशः)

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