*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= मन का अंग १० =*
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*दादू यहु मन मींडका, जल सौं जीवै सोइ ।*
*दादू यहु मन रिंद है, जनि रु पतीजै कोइ ॥१००॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह मन मेंढक की तरह है । जैसे मेंढ़क ग्रीष्म ऋतु में सूख जाते हैं और पुनः जल - वृष्टि होते ही बोलने लगते हैं अर्थात् जीवित हो जाते हैं, ऐसे ही यह मन मृतक होने के बाद भी, मायारूपी मेघ द्वारा विषयरूपी जल की वर्षा से, बाह्य संस्कारों की फुरणा फुरते ही विषयों में प्रवृत्त हो जाता है । अर्थात् यह मन महामलिन, छली, कपटी और दरिद्री है । इस मन का कदापि विश्वास नहीं करना कि यह अब मर चुका है । यह मरकर भी जीवित हो जाता है ॥१००॥
ध्यायतो विषयान् पुंस: संगस्तेषूपजायते ।
संगाज्जायते काम: कामात्क्रोधाऽभिजायते ॥
(गीता)
यह मन मृतक देखि करि, धीजे न कीजे नेह ।
रज्जब जीवै पलक में, ज्यूं मींडक जल मेह ॥
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*मांही सूक्ष्म ह्वै रहै, बाहरि पसारै अंग ।*
*पवन लाग पौढ़ा भया, काला नाग भुवंग ॥१०१॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे अति शीतकाल में विषधर काले नाग वृक्ष के खोखरे में मृतकवत् सूक्ष्म शरीर हुआ रहता है, किन्तु पूर्व की वायु का स्पर्श होते ही "पौढा"(प्रोढ) कहिए स्वस्वभाव भयंकर रूप का प्राप्त होकर अपने अंगों को बाहर पसारता है, वैसे ही यह सर्परूपी मन, गुरु उपदेश एवं सत् शास्त्रीय वाक्यों के श्रवण - काल में तो देहरूपी वृक्ष में सूक्ष्म होकर रहता है, किन्तु विषय - पवनरूप संस्कारों की स्फुरणा होते ही अज्ञानी, अति चंचल, बाह्यवृत्ति होकर अखिल ब्रह्माण्ड के विषयों में भ्रमता फिरता है । यह मन बाह्य - वृत्ति होकर जीवात्मा को जन्म - जन्मान्तरों में भ्रमाता है । इसलिए इससे सदैव सावधान रहो ॥१०१॥
"हृदय विलेकृत कुंडल उलवणकलनाविषो मनोभुजंग: ॥
(यह मन रुपी सर्प हृदयरुपी बिल में विष से भरा हुआ रहता है ।)
"मन: सर्प: शरीरस्थो यावत्तावन्महद्भयम् ।"
(वाशिष्ठ)
दो करसां हल जोत के, बैठे तरुतल आय ।
डसा एक को मूंदिया, वर्ण गये दरशाय ॥
दृष्टान्त - दो किसान प्रात: से हल चला रहे थे । मध्यो में खेत में बड़ के नीचे आकर बैठे कि एक को नींद आ गई और दूसरा जाग रहा था । उसी समय बड़ के कोटर से एक काला सर्प निकला और सोये हुये किसान को डस लिया । जो जाग रहा था, उसने सर्प के वापस कोटर में चले जाने पर कोटर का मुख बन्द कर दिया । काटे हुए किसान को इसका पता नहीं था, वह झाड़ा - फूंकी से ठीक हो गया । अगले वर्ष जब वे दोनों किसान उसी जगह मिले तो उसने बताया कि यहां गत वर्ष तुझको एक काले सर्प ने दंश मारा था, उसको मैंने बड़ के कोटर में बन्द कर दिया था । लेकिन उसने इस बात को सच नहीं माना तो उसने कोटर का मुख खोला तो उसमें एक मृत प्राय सर्प पड़ा मिला । उस सर्प को बाहर निकाल देखने लगे । उसी समय पुरवाई हवा चली और वह सर्प जिन्दा हो गया तथा उस व्यक्ति के शरीर में विष का जोर हो गया, जिसको उसने गत वर्ष काटा था ।
दार्ष्टान्त - मन भीतर तो सूक्ष्म रहता है और बर्हिमुख होते ही उक्त काले नाग के समान विषय - विकार से भर जाता है । अत: मन को अन्तर्मुख करके नियंत्रित रखना चाहिये ।
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*आशय विश्राम*
*सपना तब लग देखिये, जब लग चंचल होइ ।*
*जब निश्चल लागा नाम सौं, तब सपना नांही कोइ ॥१०२॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह मन जब तक चंचल है, तब तक नाना प्रकार के स्वप्न आते हैं । ऐसे ही जब तक अन्तःकरण की वृत्ति चंचल होकर जगत प्रपंच में रत हो रही है, तभी तक यह माया प्रपंच का पसारा, स्वप्न की भाँति सत्य भासता है । किन्तु दृष्टान्त पक्ष में तो, जब यह बेहोश निद्रा में मग्न हो जावे, तब स्वप्न की प्रतीति नहीं होती है । दार्ष्टान्त पक्ष में, जब यह अन्तःकरण की वृत्ति सर्व विषय व्यापार से आत्मपरायण होकर राम - नाम स्मरण में स्थिर हो जाय, तो माया प्रपंच का वाद अर्थात् नाश हो जाता है ॥१०२॥
सुमिरण से स्वप्नो मिटै, लै लागै इकतार ।
जगन्नाथ जन्मै नहीं, नहीं मारत जम मार ॥
शिष हरख्यो स्वप्नो निरख, मक्कै गयो मैं पीर ।
मूढ ! रोइ, आच्छ्यो नहीं, ले जासी विष तीर ॥
दृष्टान्त - एक मुसलमान फकीर था । उसके मुरीद ने स्वप्ने में मक्का शरीफ के दर्शन किये । सवेरे हँसने लगा । मुर्सिद ने पूछा - कैसे हँसता है ? बोला - मुर्सिद ! आज मैंने स्वप्ने में मक्का शरीफ के दर्शन किये । मुर्सिद बोले - "मूर्ख ! हँसे मत, रो । आज तो यह मन मक्का शरीफ ले गया है, कल तुझे विष(जहर) रूपी विषयों में ले जाकर डालेगा । इसका विश्वास मत किया कर । स्वप्न तब तक ही आते हैं, जब तक मन चंचल रहता है । अत: इस मन को खुदा के नाम स्मरण में लगा ।"
(क्रमशः)
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