*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= मन का अंग १० =*
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*जागत जहँ जहँ मन रहै, सोवत तहँ तहँ जाइ ।*
*दादू जे जे मन बसै, सोइ सोइ देखै आइ ॥१०३॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जागृत अवस्था में जिन - जिन कामों में मन वर्तता है, स्वप्न अवस्था में भी फिर वही-वही काम करता है और देखता है । जो - जो संस्कार जागृत सृष्टि के इसके मन में बसते हैं, वही-वही स्वप्न अवस्था में सृष्टि बनाकर देखता है ॥१०३॥
जाग्रत में सौदा कियो, बनियौं एक बजाज ।
फाड़्यो चीर चटाक दे, बन्यो न स्वप्न समाज ॥
दृष्टान्त - एक बनिया बजाज था । सारे दिन कपड़े बेचता । एक रोज स्वप्न में ग्राहक आया । कहने लगा, यह कपड़ा क्या भाव है ? बनिया बोला - "अमुक भाव है ।" "दे दो पांच मीटर ।" बनिये ने स्वप्न में अपनी धोती पकड़ कर चटाक से फाड़ दी । आँख खुलने पर देखा तो, धोती फट गई । जागृत में जो करता है, वह स्वप्न में भी करता है ।
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*दादू जे जे चित बसै, सोई सोई आवै चीति ।*
*बाहर भीतर देखिये, जाही सेती प्रीति ॥१०४॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अज्ञानी मनुष्य के चित्त में जो - जो मायावी संस्कार जागृत अवस्था में हैं, पुनः पुनः वे ही संस्कार अन्तःकरण में फुरते रहते हैं । वैसे ही जो ब्रह्मवेत्ता मुक्तजन हैं, वे एक आत्म - विचार में मग्न रहते हैं, उनको बाहर - भीतर सर्व माया प्रपंच में व्यापक अद्वैत ब्रह्मस्वरूप ही प्रत्यक्ष होता है । इस प्रकार निरन्तर साधन द्वारा मुमुक्षुजनों का भ्रान्ति - ज्ञान निवृत्त हो जाता है ॥१०४॥
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*सावण हरिया देखिये, मन चित ध्यान लगाइ ।*
*दादू केते जुग गये, तो भी हर्या न जाइ ॥१०५॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जो कोई पुरुष सावन की हरियाली को देखता हुआ अंधा हो जाये तो, उसके अन्तःकरण में हरियाली का ही ध्यान बना रहता है । इसी प्रकार जो संसारीजन, माया प्रपंच के प्रलोभन में ही मन और चित्त का अभ्यास करके अज्ञानी बन रहे हैं, मायिक व्यवहार ही उनको सत्य भासता है । जैसे सावन के अंधे को सर्वत्र हरियाली ही प्रतीत होती है, ऐसे ही अज्ञानी जीव अपना स्वस्वरूप भी मायारूप शरीर आदिक को ही मानकर देहाध्यास में ही रत रहते हैं ॥१०५॥
गोपीचन्द सहस्राब्द में, गुरु संग आये गांव ।
मोह उदय भयो देख के, बाग आदिक सब ठांव ॥
दृष्टान्त - राजा गोपीचन्द जब जलन्धरनाथ जी के शिष्य होकर योगी बन गये । एक हजार वर्ष के बाद गुरु जलन्धरनाथ जी के साथ घूमते - घूमते धारानगरी में आए, तब गुरु जी से बोले - गुरुदेव ! यह मेरा बाग है, ये मेरे महल हैं, यह मेरा हाथीखाना है, यह मेरे घोड़ों की घुड़साल है, यह सम्पूर्ण मेरा राज है । तब जलन्धरनाथ जी बोलेः - हे गोपीचन्द ! इन मायावी संस्कारों की शक्ति देखी ! यहां आते ही ये सब अन्तःकरण में उदय हो गए । तेरा तो कुछ है भी नहीं, फिर भी तुझे अध्यास हो गया ।
ब्रह्मऋषि कहते हैं कि श्रावण की हरियाली के समान, यह माया की हरियाली है, त्यागने पर भी समय पाकर सत्य प्रतीत होने लगती है । इससे अलग रहना ही ठीक है ।
(क्रमशः)
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