गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

= मन का अंग १० =(१०६/१०८)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*जिसकी सुरति जहां रहै, तिसका तहँ विश्राम ।*
*भावै माया मोह में, भावै आतम राम ॥१०६॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! साधन अवस्था से लेकर शरीर छूटने पर्यन्त, जिस पुरुष की वृत्ति आत्माकार होवे या अनात्माकार होवे, जहां जिसकी धारणा है, उसी स्थिति को अन्त समय में प्राप्त होता है । अर्थात् माया और माया के कार्य मोह में रहै तो जन्म - मरण को प्राप्त होगा और आत्माराम में वृत्ति रहेगी, तो ब्रह्मस्वरूप हो जायेगा ॥१०६॥ 
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*जहँ मन राखै जीवतां, मरतां तिस घर जाइ ।*
*दादू वासा प्राण का, जहँ पहली रह्या समाइ ॥१०७॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे जाग्रत अवस्था में जिसके जो संस्कार प्रबल होते हैं एवं वासना होती है, देह विसर्जन होने पर भी वह प्राणी उन्हीं वासनाओं के अनुसार जन्म - जन्मान्तरों में भ्रमता फिरता है ॥१०७॥ 
जहां आसा तहां जाय जीव, भंग भये यह स्थूल । 
जन रज्जब दृष्टान्त कूं, कली कटै ज्यों फूल ॥ 
भेख लिया घर बार तज, जुदा जुदा मन मूठ । 
इक माया सन्मुख चले, एक ने दीन्ही पूठ ॥ 
गये द्वारका दोय जन, वस्तु नरेना राखि । 
एक मूवो एक आइयो, सांप हुवो कहँ भाखि ॥ 
दृष्टान्त - दो वैरागी साधु घूमते घूमते नरेना पहुँच गये । उस समय गद्दी पर महाराज गरीबदास जी विराजते थे । साधुओं ने आचार्य जी को दण्डवत करी और बोले - महाराज हम लोग द्वारका जा रहे हैं । ये हमारी पुस्तकें यहां रख जाते हैं, फिर आकर ले जावेंगे । महाराज बोले - राम जी ! अपना सामान अपने साथ ही अच्छा रहता है । साधु बोले - महाराज, वजन ज्यादा है । महाराज बोले - किसी कपड़े में बांधकर ऊँची जगह पर रख दो । साधु रखकर द्वारका चले गये । एक का शरीर वहीं वर्त गया, दूसरा घूमता घूमता नरेना आया । आचार्य जी को प्रणाम किया । आचार्य जी बोले - वह दूसरे संत कहां रह गये ? संत बोला - वह तो महाराज गुजर गये । वे हमारी पुस्तकें दिला दो । महाराज बोले - "जहां रखी थीं, वहीं से उतार लो, परन्तु हुशियारी से उतारना, वह संत तो आप से पहले ही यहां आ गये थे ।" ज्यों ही पुस्तकें खोल कर देखीं, अन्दर काले नाग बनकर बैठे हैं । महाराज ने कहा - राम जी ! जहां मन जीवित काल में रहता है, अन्त में वहीं जाता है ।
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*जहां सुरति तहँ जीव है, जहँ नांही तहँ नांहि ।*
*गुण निर्गुण जहँ राखिये, दादू घर वन मांहि ॥१०८॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अन्त समय में जिस प्राणी की जहां वृत्ति रहती है, वह शरीर छोड़ने के बाद जन्म कर उसी स्थिति को प्राप्त होता है । त्रिगुणी माया में वृत्ति रखे तो, वह माया के बंधनों में ही भ्रमते हैं और मुक्त - पुरुषों की वृत्ति ब्रह्म में रहती है, वे निष्काम ब्रह्मभाव अजर - अमर पद को प्राप्त होते हैं । "दादू घर वन मांहि" जो ब्रह्मवेत्ता घर में(प्रवृत्ति मार्ग में) रहते हुए भी, सर्व विषयों से उदासीन वृत्ति रखते हैं, उनको वनवासी ही जानो । और जो अज्ञानीजन वनवास में रहते हुए भी गृहस्थ आश्रम में प्रवृत्ति होने की वासना रखें, तिनको गृहस्थी ही जानों और वे ही संसार - बंधनों से बंधे हुए हैं ॥१०८॥
(क्रमशः)

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