॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= मन का अंग १० =*
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*जहां सुरति तहँ जीव है, आदि अन्त इस्थान ।*
*माया ब्रह्म जहँ राखिये, दादू तहँ विश्राम ॥१०९॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जीवित अवस्था में जिन पदार्थों में वृत्ति रहती है, अन्त में वहां ही उसका स्थान होता है । चाहे माया के कार्य मोह - ममता में सुरति रहे, तो वहां कुटुम्ब में ही कर्मानुसार जन्मता है और जीवित काल में ब्रह्म में सुरति रहे, तो शरीर छोड़ कर ब्रह्मी अवस्था को प्राप्त होता है, अर्थात् ब्रह्म में स्थित होता है ॥१०९॥
ऊर्ध बाहुदो के बीचै, बनियों राखी मुहोर ।
लातन से दोऊ लड़े, आइ लई वही ठौर ॥
दृष्टान्त - एक जंगल में दो साधु आमने सामने दोनों हाथ ऊंचे करके खड़े - खड़े तपस्या कर रहे थे । एक बनिया संतों का सेवक था । वह भी उधर आ निकला । उसने दोनों महात्माओं के दर्शन किये और एक मोहर अपनी जेब से निकाल कर दोनों की तरफ झांका । दोनों के बीच में मोहर रख दी और चला गया । उनमें से एक तपस्वी मोहर के नजदीक आने लगा । दूसरा बोला - कहां आता है ? मोहर मेरी तरफ झांक कर चढाई है । वह बोला - मोहर तो मेरी तऱफ झांककर मुझको चढाई है ।
दोनों आपस में लातों से लड़ने लगे और मोहर को भी ठोकर मारते मारते बनिया के पास आ पहुँचे, और बोले - भक्त तैंने यह मोहर मेरे को चढाई थी । दूसरा बोला भक्त, तैंने यह मोहर मेरे को चढाई थी । बनिये ने विचार किया कि मैंने तो सेवा के लिये चढाई थी और साधुओं में झगड़ा हो गया । बनिया बोलाः - महाराज ! मैंने तो किसी को भी नहीं चढाई । निमटने जाता था, सो आप लोगों के बीच में रख दी कि आप लोग निगाह रखना, मैं आकर ले लूँगा । फिर मैं भूल गया । मोहर बनिया ने उठाकर जेब में रख ली । ब्रह्मऋषि कहते हैं कि जो सुरति माया में रहेगी, तो माया में ही विश्राम होगा, जैसे - दार्ष्टान्त में ऊर्ध्वबाहुओं का मन माया में ही था क्योंकि मन माया से विरक्त नहीं हुआ था ।
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*जहां सुरति तहँ जीव है, जीवन मरण जिस ठौर ।*
*विष अमृत तहँ राखिये, दादू नाहीं और ॥११०॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जीवित काल में जहां सुरति रहती है, मरने के बाद उसी स्थिति को जीव प्राप्त होता है । विष कहिए, शब्द आदि इन्द्रियों के विषयों में, अमृत कहिए - परमेश्वर के स्मरण में, जीवित काल में जहां स्थिति होगी, मरने के बाद उसी स्थिति को प्राप्त हो जाएँगे । दयाल जी कहते हैं, इन दोनों अवस्थाओं से अलग और कोई ठिकाना नहीं है ॥११०॥
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*जहां सुरति तहँ जीव है, जहँ जाणै तहँ जाइ ।*
*गम अगम जहँ राखिये, दादू तहां समाइ ॥१११॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जीवित काल में जिस पदार्थ को जानकर निश्चय कर लिया है, मरने के बाद उसी पद में जाकर स्थित होता है । गमरूप माया में अगमरूप कहिए, ब्रह्म में मरने के बाद में जीव वहीं जाकर समा जाता है ॥१११॥
(क्रमशः)
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