मंगलवार, 5 मार्च 2013

= मन का अंग १० =(१३३/४)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
.
.
*दादू मन ही माया ऊपजै, मन ही माया जाइ ।*
*मन ही राता राम सौं, मन ही रह्या समाइ ॥१३३॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! बहिर्मुख मन की अज्ञान अवस्था में यह सब माया - प्रपंच सत्य प्रतीत होता है । जब मन आत्मा के सन्मुख होता है, तब ज्ञान - विचार द्वारा नाशरूप माया के पसारे को मिथ्या जानकर स्वस्वरूप में लीन होकर समष्टि चैतन्य से अभेद होता है ॥१३३॥ 
मन हारे मन हारिये, मन जीते मन जीत । 
पारब्रह्म को पाइबो, मन ही की प्रतीत ॥ 
.
*दादू मन ही मरणा ऊपजै, मन ही मरणा खाइ ।*
*मन अविनासी ह्वै रह्या, साहिब सौं ल्यौ लाइ ॥१३४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! विषयाकार बहिरंग मन से ही संसार का बन्धन रूप मरणा उत्पन्न होता है । जब मन परमेश्‍वर के सम्मुख होकर नाम - स्मरण में दत्त - चित्त होता है, तब यह मन, प्राण - पिण्ड के वियोग रूप मरणे को खा लेता है, फिर यह मन अविनाशी परमात्मा से लय लगा कर स्वयं अविनाशी हो जाता है ॥१३४॥ 
एक एव मनो देवो ज्ञेय: सर्वार्थसिद्घिद: । 
अनेन विफल: क्लेश: सर्वेषां तत् जपं विना ॥
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें