मंगलवार, 5 मार्च 2013

= मन का अंग १० =(१३५/६)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*मन ही सन्मुख नूर है, मन ही सन्मुख तेज ।*
*मन ही सन्मुख ज्योति है, मन ही सन्मुख सेज ॥१३५॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अन्तर्मुख मन के सन्मुख ही परमेश्‍वर, नूररूप, तेजरूप, ज्योतिरूप से प्रत्यक्ष हैं । फिर यह मन, शुद्ध हृदय रूपी सेज सँवार कर परमेश्‍वर के सन्मुख ओत - प्रोत भाव से अभेद हो जाता है ॥१३५॥ 
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*मन ही सौं मन थिर भया, मन ही सौं मन लाइ ।*
*मन ही सौं मन मिल रह्या, दादू अनत न जाइ ॥१३६॥* 
इति मन का अंग सम्पूर्ण ॥अंग १०॥ साखी १३६॥ 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! विवेक वैराग्य आदि साधनों से व्यष्टि मनरूप चैतन्य, समष्टि मनरूप चैतन्य में लगाने से स्थिर होता है । इसलिए हे साधक पुरुषों ! अपने व्यष्टि मन को विचार द्वारा समष्टि चैतन्य में अभेद करो । सतगुरु महाराज कहते हैं कि जब व्यष्टि मन, समष्टि चैतन्य रूप मन से विचार द्वारा मिल कर अभेद होगा, तो फिर यह मन जन्म - मरण आदि क्लेश को प्राप्त नहीं होगा । परमेश्‍वर स्वरूप ही हो जाएगा ॥१३६॥ 
मनसैव मनश्छित्वा कुठारेणेव पादपम् । 
पदं पावनमासद्य सद्य एव स्थिरीभव ॥ 
इति मन का अंग टीका और दृष्टान्तों सहित सम्पूर्ण ॥अंग १०॥ साखी १३६॥
(क्रमशः)

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