सोमवार, 4 मार्च 2013

= मन का अंग १० =(१३०/३२)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*जहँ के नवाये सब नवैं, सोई सिर कर जाण ।*
*जहँ के बुलाये बोलिये, सोई मुख परमाण ॥१३०॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिस स्थान में जिसको नमस्कार करने से सबको नमस्कार हो जाता है, वह स्थान अपना हृदय और सत्संग है, वहां अपने मस्तक को नवाओ, वही मस्तक श्रेष्ठ करके जानो । जहां परमेश्‍वर को हृदय में भक्त बुलावें, तो वहीं परमेश्‍वर प्रेरणा रूप से बोलतेहैं, वही मुख प्रामाणिक है ॥१३०॥ 
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*जहँ के सुणाये सब सुणैं, सोई श्रवण सयाण ।*
*जहँ के दिखाये देखिये, सोई नैन सुजाण ॥१३१॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जब हृदय - प्रदेश में परमेश्‍वर को अपनी पुकार सुनाओ, तब आपकी परमेश्‍वर सुनेगा । वही श्रवण कराने वाला सयाना है, चतुर है । हृदय में परमेश्‍वर को अपनी निऱभिमानता, शील, संतोंष, दया, धर्म, ज्ञान, ध्यान, भक्ति, वैराग्य दिखाओ, तो वही परमेश्‍वर आपका सब देखेंगे । वही सयाना द्रष्टा है, कहिये चतुर नेत्रवान् है, जो प्रभु को ही सर्वत्र देखता है ॥१३१॥ 
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*दादू मन ही सौं मल ऊपजै, मन ही सौं मल धोइ ।*
*सीख चली गुरु साध की, तो तूँ निर्मल होइ ॥१३२॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! ईश्‍वर - विमुखी मन से पाप कर्म बनते हैं और जब यह मन सतगुरु और संतों की शिक्षा में चलता है, तब अपने पापों को आप ही धो लेता है । इसलिए अब गुरु और संतों की शिक्षा में ही चलना चाहिये, जिससे तुम निर्मल हो जाओगे ॥१३२॥ 
"मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयो: ।"
(क्रमशः)

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