॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= माया का अंग १२ =*
"निशिवासर यहु मन चलै, सूक्ष्म जीव संहार." इस सूत्र के व्याख्यान स्वरूप वासनामय जगत को मायामय प्रतिबोधन कराने के लिए सूक्ष्म - जन्म के अंग के बाद माया के अंग का निरूपण करते हैं ।
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*मंगलाचरण*
*दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवतः ।*
*वंदनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः ॥१॥*
टीका - हरि, गुरु, संतों को हमारी बारम्बार नमस्कार है, जिनके आशीर्वाद एवं अमृत उपदेशों से मन के मायामय जगत - प्रपंच से पार होकर निर्वासनिक और मल - विक्षेप आवरण से शुद्ध होकर ‘गतः’ ब्रह्म को प्राप्त होते हैं ॥१॥
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अब स्वप्न - सुख की उपमा से माया - सुख की अनित्यता दिखाते हैं -
*साहिब है पर हम नहीं, सब जग आवै जाइ ।*
*दादू सपना देखिये, जागत गया बिलाइ ॥२॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! परमेश्वर सत्य स्वरूप एकरस तो है, पर हम नहीं । हम कहिए, स्थूल शरीर और अहंत्व आदि भाव करके हमारा यह व्यावहारिक स्वरूप सत्य नहीं है । क्योंकि प्रत्यक्ष दिखता है कि सब जगत् आवागमन करता अर्थात् जन्मता मरता है । इसमें सत्यभाव असम्भव है । दृष्टान्त से कहते हैं, जैसे स्वप्न - काल में राज्य, धन आदि पदार्थ सत्य दिखते हैं, परन्तु जाग्रत अवस्था में सब विलय हो जाते हैं । इसी प्रकार स्वस्वरूप का बोध होने पर माया प्रपंच मिथ्या दिखने लगता है ॥२॥
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*दादू माया का सुख पंच दिन, गर्व्यो कहा गँवार ।*
*सपने पायो राज धन, जात न लागे बार ॥३॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! माया का सुख "पंच दिन" कहिए अल्पकालीन व क्षणिक है । हे अज्ञानी ! ऐेसे नश्वर पदार्थों का क्या गर्व करते हो ? जैसे स्वप्न में राज और अपार धन प्राप्त होवे, तथापि जाग्रत अवस्था में उसके नाश होने में क्षण भर भी नहीं लगता है । ऐसे ही अज्ञान अवस्था में स्त्री, पुत्र, धन, जमीन, जायदाद आदिक जो माया के सुख प्रतीत होते हैं, इनके भी नाश होने में किंचित् समय भी नहीं लगता है । दार्ष्टान्त में जैसे - स्वप्न के पदार्थों से व्यावहारिक सिद्धि नहीं होती है, वैसे ही व्यावहारिक साधनों का भी परमार्थ में किंचित् भी उपयोग नहीं है ॥३॥
"मा कुरू धनजनयौवनगर्वं,
हरति निमेषात्काल: सर्वम् ।
मायामयमिदमखिलं हित्वा,
ब्रह्मपदं त्वं प्रविश विदित्वा ॥"
- शंकराचार्य
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"स्वप्नेन्द्रजालवत्पश्य दिनानि पंच वा त्रयम् ।
मित्रक्षेत्रधनागारादायादारादिसम्पदा ॥"
माया कनक न कामिनी, माया गढ है न गाँव ।
माया मन की वासना, माया इसका नांव ॥
(क्रमशः)
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