गुरुवार, 7 मार्च 2013

= सूक्ष्म जन्म का अंग ११ =(७/९)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= सूक्ष्म जन्म का अंग ११ =*
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*निशिवासर यहु मन चलै, सूक्ष्म जीव संहार ।*
*दादू मन थिर कीजिये, आतम लेहु उबारि ॥७॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! रात - दिन यह मन अनन्त विषय - मनोरथों में भ्रमता रहता है । यही इस चैतन्य रूप मन का सूक्ष्म जीवों का संहार करना ही संसार - बन्धन का कारण है । इसलिए हे साधक पुरुषों ! इस जीवरूप चैतन्य मन को स्वस्वरूप में स्थिर करके आत्मबोध प्राप्त करो ॥७॥
यह साखी चर्चा समय, ढूंढ्या के प्रति भाखि ।
गुरु दादू के वचन सुनि, मस्तक चरणों राखि ॥
दृष्टान्त - एक मुख - पट्टी वाले ढूँढ्या(जैन) संत ने ब्रह्मऋषि गुरुदेव के पास आकर नमस्कार किया और बोले - महाराज ! मुँह की भाप में सूक्ष्म जीव मरते हैं, इसलिए आप भी मुख पर पट्टी बांधो, तो इन जीवों का संहार नहीं होवे । इस हिंसा से आप बच जाओगे । तब उपरोक्त साखी से गुरुदेव ने उत्तर दिया । सन्त समझ गए और संत गुरुदेव के चरणों में मस्तक रख दिया और बोले, "आज सूक्ष्म जन्मों का सच्चा ज्ञान मुझे ज्ञात हुआ" । वे दादूजी के शिष्य बनकर चतुरदास नाम से कालाडेहरा में प्रसिद्घ सन्त हुए ।
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*कबहूँ पावक कबहूँ पाणी, धर अम्बर गुण बाइ ।*
*कबहूँ कुंजर कबहूँ कीड़ी, नर पशुवा ह्वै जाइ ॥८॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! इस मनरूप जीवात्मा में कभी तो पावक अग्निरूप गुण(क्रोध) व्याप्त होता है, कभी जल की शीतलतारूप गुण(शान्ति) व्याप्त होता है । कभी धरती का जड़ता रूप गुण(क्षमा) व्याप्त होता है । कभी आकाश का निर्लेपतारूप गुण(अनासक्त) व्याप्त होता है । कभी हाथी का कामवासना रूप गुण(काम) व्याप्त होता है । कभी चींटी का दूसरे के दुर्गुणों को खोजने रूप गुण(दुष्टता) व्याप्त होता है । इसी प्रकार सम्पूर्ण पशुओं के क्रम - क्रम से स्वभाव इसमें व्याप्त होते रहते हैं और कभी मनुष्य स्वभाव भी व्याप्त होता है । इस प्रकार संसारीजन इन्द्रिय - परायण होकर पशु की भांति नाना विषयों में भ्रमते हैं । अनन्त मानसिक सूक्ष्म शरीरों द्वारा जन्मते मरते रहते हैं ॥८॥
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*करणी बिना कथनी*
*शूकर स्वान सियाल सिंह, सर्प रहैं घट मांहि ।*
*कुंजर कीड़ी जीव सब, पांडे जाणै नांहि ॥९॥*
इति सूक्ष्म जन्म का अंग सम्पूर्ण ॥ अंग ११॥ साखी ९॥
टीका - हे जिज्ञासुओं ! संसारीजन सूअर, कुत्ता, गीदड़, शेर, सांप, चींटी, हाथी की भांति अनन्त विषय - वासनाओं में भ्रमते हैं तथापि पिण्डधारी देहधारी एवं वाचक पंडित आदि इस रहस्य को नहीं जानते हैं, इसलिये अब मन की सूक्ष्म वासनाओं का निग्रह करके आत्म - परायण रहो ।
चौ -
अशुचि ईर्षा कायर क्रोधा । 

संसै काम रु छिछर सोधा । 
इन जीवन की प्रकृति येहू । 
पिंड धर जीवन जानैं तेहू ॥
इति सूक्ष्म जन्म का अंग टीका और दृष्टांतों सहित सम्पूर्ण ॥अंग ११॥ साखी ९॥
(क्रमशः)

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