शुक्रवार, 8 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(४/६)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*दादू सपने सूता प्राणिया, किये भोग विलास ।* 
*जागत झूठा ह्वै गया, ताकी कैसी आस ॥४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे स्वप्न अवस्था में मनुष्य अनेक सुखों का उपभोग करता है, किन्तु जाग्रत अवस्था में वे सब मिथ्या प्रतीत होने लगते हैं । ऐसे स्वप्ने के सुखों की क्या आशा करिये कि ये स्थिर रहेंगे ! सांसारिक सुख तो आभास मात्र हैं । अतः नित्यानन्द स्वरूप परमेश्‍वर का स्मरण करना चाहिये ॥४॥ 
यथा स्वप्नमुहूर्ते स्यात्, संवत्सर सत भ्रमम् । 
तथा माया विलासोऽयं, जाग्रते जाग्रत भ्रमम् ॥ 
सपना केरी सुन्दरी, नाख्यो कुवा मांहि । 
‘जैमल’ प्रत्यक्ष भोगते, क्यों ना नरका गति जांहि ॥ 
दृष्टान्त - एक पुरुष कुए के किनारे सो रहा था । उसे स्वप्ना आया कि मेरी शादी हो गई और वह और धराणी बीर पलंग पर सो रहे हैं । बीर बोली - "जरा उधर सरको ।" ज्यों ही पलटी खाई, त्यों ही वह कुए में धड़ाम से गिरा । आँख खुली, तब रोने लगा । स्वप्ने वाली सुन्दरी ने ही कुए में धकेल दिया, तो जो प्रत्यक्ष में उपभोग में लाते हैं, उनकी क्या हालत होती होगी ?
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*यों माया का सुख मन करै, सेजां सुंदरी पास ।*
*अंत काल आया गया, दादू होहु उदास ॥५॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह मन चाहता रहता है कि रहने के लिए खूब सुन्दर बंगला होवे, घूमने को कार होवे, खान - पान के लिए नाना प्रकार के व्यंजन मिलें, अति सुन्दरी स्त्री होवे, उसके साथ अनेक प्रकार का रमण व्यवहार करूँ; ऐसे ही सोचते - सोचते और भोगते - भोगते अन्त समय आ जाता है और उनसे तृप्ति नहीं होती है । यमदूत गले में फाँसी डालकर ले जाते हैं । हे मानव ! इसलिए इनसे पहले ही उदासीन होकर परमेश्‍वर का भजन कर । इसी में जीवन की सफलता है । ।५॥ 
"अविद्या संपरिज्ञाता यदैव हि तदैव हि ।
सा परिक्षीयते भूय: स्वप्नेनेव हि भोगभू: ॥" 
– वाशिष्ठ
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*जे नांही सो देखिये, सूता सपने मांहि ।* 
*दादू झूठा ह्वै गया, जागे तो कुछ नांहि ॥६॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! मायिक सुख वास्तविक सत्य नहीं है, वह स्वप्न अवस्था में सत्य प्रतीत होता है, किन्तु सचेत होकर देखने से कुछ भी नहीं मिलता है । इसी भांति सांसारिक जनों को अज्ञान अवस्था में यह माया - सुख भी स्वप्नवत् सत्य भासता है, परन्तु जब विचार द्वारा देखें तो सब माया - प्रपंच स्वप्न - सुखवत् मिथ्या ही अनुभव होने लगता है ॥६॥ 
"संसार: स्वप्नतुल्यो हि रागद्वेषादिसंकुल: । 
स्वप्नकाले सत्यवद् भाति प्रबोधेऽसत्यवद् भवेत् ॥"
कोऊ जन पकवान के, स्वप्ने भरे भंडार । 
न्यौंत बुलायो नगर सब, सोई देखूं अबार ॥ 
दृष्टान्त - एक पुरुष ने स्वप्न में अनेक प्रकार के व्यंजन बनवाये । मधुर, अलोने, सलोने, चटपटे बनवा - बनवा कर दो - तीन कमरे भर दिये । सवेरे उठा तो बहुत प्रसन्न मुद्रा से दो चार आदमियों को बुलाया, जो गाँव के प्रधान थे और बोला - "सारे गाँव में ढिंढोरा पिटवा दो कि मेरे यहाँ सारा गाँव बाल - बच्चों सहित आकर भोजन करे ।" वैसा ही पंचों ने किया । भोजन के समय पर लोग - बाग आ गये । भोजन करने को सभी लोग बैठे । पंचों ने कहा कि लाओ, समान कहाँ है मिठाई वगैरा ? उसने कहा -"उस कमरे में है ।" खोल कर देखा तो उसमें कुछ नहीं था । बोले - भाई ! इसमें तो मिठाई वगैरा कुछ भी सामान नहीं है । वह बोला - दूसरे कमरे में देखो । इस प्रकार मकान के सारे कमरे खाली पड़े थे । लोगों ने कहा कि खाने का सामान कब लाया था ? वह बोला, रात को बनवाया था । "सोई देखूं अबार", अभी मैं सो करके देखता हूँ कि वह सामान कहाँ है ? फिर बताऊँगा ।" लोगों ने कहा - बड़ा बेवकूफ है । इसको सपना आया होगा । लोग बोले - "अरे ! सपना आया था क्या ?" वह बोला - "हाँ" । गाँव के सब लोग अपने - अपने लोटों का पानी गिरा - गिरा कर चले गये ।
ब्रह्मऋषि सतगुरु देव कहते हैं कि स्वप्न के पदार्थ जाग्रत काल में सत्य नहीं होते हैं ।
(क्रमशः)

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