सोमवार, 4 मार्च 2013

= मन का अंग १० =(१२७/२९)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*जब मन मृतक ह्वै रहे, इंद्री बल भागा ।*
*काया के सब गुण तजे, निरंजन लागा ॥१२७॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जब यह मन गुणातीत होकर रहे, तो इंद्रियों की शक्ति भी नष्ट हो जाती है अर्थात् शब्द आदि विषयों में जाने की रुचि नहीं रहती और काया के शीत, उष्ण आदिक में भी अध्यास नहीं रहता, तब जानो कि अब हमारा मन, निरंजन ब्रह्म में स्थित हुआ है ॥१२७॥ 
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*आदि अंत मधि एक रस, टूटे नहीं धागा ।*
*दादू एकै रहि गया, तब जाणी जागा ॥१२८॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! आयु की आदि उस दिन से हैं जिस दिन गुरु उपदेश शुरु हुआ, पाप पुण्य को जाना तो मध्य अवस्था और प्राण पिण्ड का वियोग हुआ तो इस अन्तिम अवस्था तक, अपनी सुरति रूपी धागा, नाम स्मरण से "टूटै नहीं", कहिए अलग नहीं होवे, तब यह जानो कि हमारे अंतःकरण में एक परमेश्‍वर ही रह गया है । उस समय यह निश्‍चय करो कि हमारा मन अज्ञान - निद्रा से जाग कर कर्त्तव्य - परायण हो रहा है । ऐसा सतगुरु महाराज उपदेश करते हैं ॥१२८॥ 
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*दादू मन के शीश मुख, हस्त पांव है जीव ।*
*श्रवण नेत्र रसना रटै, दादू पाया पीव ॥१२९॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जो जीव का शीश है, हस्त हैं, पांव हैं, श्रवण हैं, नेत्र हैं, मुख है, रसना है, यही सब मन के अवयव हैं । जब मन अपनी इन सम्पूर्ण इन्द्रियों को परमेश्‍वर के व्यापार में लगा कर आप स्वयं परमेश्‍वर का नाम रटता है, तभी यह पीव को प्राप्त करता है ।
छप्यय
मन गयन्द बलवन्त, तासु के अंग दिखाऊँ । 
काम, क्रोध अरु लोभ, मोह चहुँ चरण सुनाऊँ ॥ 
मद मत्सर है शीश, सुंडि तृष्णा सु डुलाबै । 
द्वन्द्व दशन हैं प्रकट, कल्पना कान हिलावै ॥ 
पुनि दुविधा दृग देखत सदा, पूंछ प्रकृति पीछे फिरै । 
कह ‘सुन्दर’ अंकुश ज्ञान के पीलवान गुरु वश करै ॥ 
(क्रमशः)

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