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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“षोडशी तरंग” ३१-३३)*
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सम्वत् चंद ॠतू जु पचासहिं,
शुक्ल द्वितीय मधू शुभ मासा ।
अम्बपुरी गुरु छाड़ि चले तब,
और रमे शिष्य संग पचासा ।
केतिक शिष्य रहे तिहिं ठाहर,
सो जगन्नाथहिं धाम निवासा ।
भूपति मान करे नित सेवन,
छाजन भोजन भेजि उपासा ॥३१॥
विक्रम संवत् १६५० में चैत्र शुक्ला द्वितीया को श्री दादूजी ने अम्बापुरी छोड़ दी, और पचास शिष्यों के साथ रम गये । कुछ शिष्य संत आमेर में ही जगन्नाथ जी के पास विराजते रहे । राजा द्वारा छाजन - भोजन की सेवा निरन्तर होती रही ॥३१॥
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*सात दिन आंधि ग्राम में निवाश*
अम्बपुरी जब तें गुरु छोड़त,
वासर सात लगे मग माँही ।
आंधि प्रवेश कियो तबहीं गुरु,
सेवक लोग सबै ढिंग आही ॥
दीन दयालु हिं संत पधारत,
पाँव पखालि लिये जल पाही ।
पूरणदास रू तारहिं चंद जु,
सेवक सेव करें चित लाही ॥३२॥
दास मनोहर खेम नारायण,
स्वामिजु - सेव करैं दिन राती ।
आवत लोग चहूं दिशि तें चलि,
दे उपदेस मिटावत भ्रांति ॥
या विधि संत कथा सतसंगजु,
सेवक हर्ष भये बहुभाँती ।
दीन गरीब सभी जन मानत,
दीन दयालुहिं आपनु नाती ॥३३॥
सात दिन की पथ यात्रा के बाद रमते - रमते स्वामीजी आंधी ग्राम में पधारे । संत आगमन से प्रसन्न सेठ पूरणदास और ताराचन्द अति प्रसन्न हुये, संतों के चरण धोकर आचमन लिया, चित लगाकर सेवा करने लगे । दामोदर दास खेमनारायण भी सेवक बन गये । संत दर्शन को आसपास के भक्तजन आने लगे, संत - उपदेश से उनकी भ्रान्तियाँ मिटने लगी । दयालु संत को सभी दीन दुखी अपना नाती रिश्तेदार जैसा मानने लगे ॥३२ - ३३॥
(क्रमशः)
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