सोमवार, 15 सितंबर 2014

= एक विं. त. १/२ =

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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“एकविंशति तरंग” १/२)*
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*इन्दव छन्द -*
*निजधाम बनाने की आकाशवाणी हुई -* 
याहि तरंग कथा बरणौं अब, 
स्वामि थपे निजधाम नराणे । 
व्योम गिरा सुनि साधु विचारत, 
क्यूं न थपे गुरु संत सुथाणे ॥ 
अन्तर की गुरु बात लखी सब, 
यों सुरती कर वृत्ति पिछाणे । 
धाम बनाय दिवै गुरु आसन, 
देश ढुंढार नरायण जाने ॥१॥ 
इस तरंग में स्वामी जी श्री दादूजी महाराज द्वारा नारायणपुर में निजधाम स्थापना का वर्णन होगा । आकाशवाणी द्वारा धाम स्थापना की आज्ञा सुनकर साधु संतों ने विचार किया कि गुरुदेव अब किस स्थान पर निजधाम की सपना करेंगे ? साधुओं के अन्तर्मन की बात को पहिचान कर श्री दादूजी ने ध्यान के समय ईश्‍वर में सुरति लगाई । अपनी शुद्धवृत्ति में ईश्‍वर आज्ञा को पहिचान कर गुरुदेव ने ढूंढार राज्य के अन्तर्गत नारायणपुर में निजधाम बनाया, जिसकी कथा अब आगे प्रस्तुत की जा रही है ॥१॥
*मोरड़े एक वर्ष विराजे -* 
जीव उद्धार रहे पुन मोरड़े, 
कीरति देश विदेश भये है । 
सम्वत् सोलह सौ जु अठावन, 
संत यहां इक वर्ष रह्य है ॥ 
दीन दयालु कहें सब सन्तन, 
सेवक भाव बधाय लये है । 
ज्यूं मन भाइ रहो तित ही तुम, 
दो उपदेश प्रचार भये है ॥२॥ 
गुरुदेव श्री दादूजी जीवों का उद्धार करते हुये मोरड़ा ग्राम में विराज रहे थे । उनकी कीर्ति देश - विदेश में फैल चुकी थी । विक्रम संवत् १६५८ में श्री दादूजी इस मोरड़ा ग्राम में एक वर्ष तक विराजे । तत्पश्‍चात् सभी साधु संतों को आदेश दिया कि - अब आप लोग अपनी इच्छानुसार विभिन्न क्षेत्रों में रम जाओ । सेवक भक्तों में ज्ञान और भक्ति का प्रचार करो ॥२॥
(क्रमशः)

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