बुधवार, 5 नवंबर 2014

= “त्रयो विं. त.” ३७/३८ =

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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“त्रयोविंशति तरंग” ३५/३६)*
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*इन्दव छन्द*
*श्री दादूजी ने स्वरूप धारण किया था ~*
संत स्वरूप धरयो बपु ईश्‍वर, साधुन को तन निर्मल धारा ।
दादु दयालु कपूर यथा रूप, क्यूं करि पावत भेद विचारा ।
अंजन छाड़ि निरंजन ह्वै कर, भेद लहें बिरला जन पारा ।
दादु दयालु कबीर तज्यो वपु, दिव्य स्वरूप मिले निरकारा ॥३७॥ 
संत श्री दादूजी ने तो ईश्‍वर आज्ञा से स्वरूप धारण किया था, निर्मल धारा के समान भक्तिधारा बहाकर वे विलुप्त हो गये । उनका स्वरूप कपूर के समान वायु में विलीन हो गया । साधारण जन इसका भेद कैसे पा सकता है । जो महात्मा माया रूपी अंजन को त्याग कर निरंजन स्वरूप को पहिचान लेते हैं, ऐसे कोई बिरला संत ही इस रहस्य को जान सकते है । श्री दादूजी का आकृति स्वरूप था पूर्वकालिक संत कबीर के समान ही कपूरवत् दिव्य स्वरूप निराकार निरंजन ब्रह्म में विलीन हो गया ।
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*गुरु दादू और कबीर की, काया भई कपूर*
*रज्ब अजब देखिया, सहगुण निरगुण रूप ॥३७॥* 
*श्री दादूजी ब्रह्म में विलिन हो गये ~*
हैं गुणातीत सदा सुखसागर, स्वामिजु ज्योति स्वरूप समाये ।
बादल होय करी बरषा नभ, बादल व्योमहिं लोप रहाये ।
यों हरि संतन को तन धारत, भक्ति बधाय निजानन्द पाये ।
ज्यों निधि माँहिं नदियां जल, भेद अभेद कछू न कहाये ॥३८॥ 
स्वामी श्री दादूजी तो गुणातीत थे, भक्तों के लिये सुख के सागर थे, उनका स्वरुप तो ज्योति रूप था, अत: अखण्ड ज्योति में ही समा गया । जिस तरह आकाश में बादल प्रकट होते हैं, वर्षा करके विलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार हरि प्रेरणा से संत शरीर धारण करते हैं, और भक्ति ज्ञान की वर्षा करके निजानन्द में विलीन हो जाते है । तथा जिस तरह नदियाँ धरती को सींचती हुई सागर में मिलकर सागर रूप ही हो जाती हैं, उसी तरह संत भी जीवोद्धार करते हुये परम ब्रह्म में मिलकर तद्रूप ही हो जाते हैं ॥३८॥ 
(क्रमशः)

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