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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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इहिं करनी जन ऊधरैं, हरि हरि रांम पुकारि ।
कहि जगजीवन पंडित भूले, वांणी जग विस्तारि ॥१३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिस करणी से जन पार होते हैं वह तो स्मरण ही है । वाणी का विस्तार इतना है कि बड़े बड़े पंडित भूल जाते हैं ।
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संस्क्रिति बचन बिलास हरि, प्राक्रिति प्रेम निवास७ ।
जे हरि भावै ते भली, सु कहि जगजीवनदास ॥१४॥
(७. प्रेम निवास=प्रेममय उपदेश)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि संस्कृत वचनों का वैभव है व प्राकृत या प्रकृति में प्रेम निवसता है । संत कहते हैं कि जो भजन स्मरण प्रभु को अच्छा लगे वह ही भला है ।
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सकल पसारा१ की करै, मेरी मुझ में आइ ।
कहि जगजीवन तुम्हारी, साध कहैं सत भाइ ॥१५॥
(१. पसारा=जगद्विस्तार)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि संसारिक भोगों का अधिक क्या बढाना । जो मेरी लगन है वह तो मुझ में आयेगी ही । और प्रभु आपकी महिमा का तो संत वर्णन गाते ही हैं ।
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तुम सब करतां रांमजी, तुम ही अकरता मांहि ।
कहि जगजीवन तुम्हारी, कोई गति बूझै नांहि ॥१६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु जी आप ही कर्ता हैं और आप ही अकर्ता हैं । आपकी गति कोइ नहीं जान सकता है ।
(क्रमशः)

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