रविवार, 4 फ़रवरी 2024

*३९. बिनती कौ अंग १४१/१४४*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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कहि जगजीवन रांमजी, औगण कोटि अनंत ।
गुण हरि नांम ह्रिदै धरत, सतगुरु बकसौ कन्त७ ॥१४१॥
(७. कंत=स्वामी)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे रामजी हमारे अंतर में अनंत कोटि अवगुण भरे हैं । आपकी कृपा से आपका नाम ह्रदय में हो यह ही हमारा गुण है, हे प्रभु आप हमारे सब अवगुण क्षमा करें ।
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कहि जगजीवन रांमजी, जीब महा मतिभ्रष्ट८ ।
दोइ करि देखै एक तन, चित चक्रित वपु कष्ट ॥१४२॥
{८. महा मतिभ्रष्ट=महान् भ्रान्तबुद्धि पुरुष(अकल का मारा)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु यह जीव बहुत मतिभ्रष्ट है । बुद्धिहीन है । इसने सब देखा है । जीव ब्रह्म एक हो ऐसा भी देखा है और जब संसारिक चक्र में पड़ता है तो जीव कष्ट ही पाता है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, जिय मंहि लालच एह ।
कलि मंहि दास कबीर ज्यूं, सतगुर राखौं देह ॥१४३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु मन में एक लालच आगया है कि प्रभु इस कलियुग में जैसी आपने कबीर जी की संभाल की है वैसी ही मेरी भी करना ।
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कहि जगजीवन रांमजी, देह चढ़ै जस भाइ ।
सेवा सुमिरन बंदगी, सतगुरु दीजै आइ ॥१४४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु जी मन में यह बात है कि यह शरीर यशस्वी हो । इसके लिये आप कृपा करें की हम आपकी सेवा रत हो, स्मरण में लगन हो और आज्ञा में रहें ।
(क्रमशः)

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