शनिवार, 31 दिसंबर 2016

= १८६ =

卐 सत्यराम सा 卐
गर्वै बहुत विनाश है, गर्वै बहुत विकार ।
दादू गर्व न कीजिये, सन्मुख सिरजनहार ॥ 
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((( श्रीहरि ने सुधारी देवेंद्र की बुद्धि )))
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इंद्र ने एक बार घमंड में भरकर ऐसा सभागार बनवाने का निर्णय लिया जैसा कभी किसी ने न बनवाया हो. तुरंत विश्वकर्मा को काम में लगा दिया गया. सभागार बनने लगा.
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विश्वकर्मा काम पूरा कर इंद्र को निरीक्षण के लिए बुलाते तो इंद्र कुछ न कुछ मीन मेख निकाल देते और फिर नए सिरे से काम करने का आदेश दे देते. इस कारण विश्वकर्मा का काम लगातार सौ साल तक चला लेकिन भवन पूरा ही न हो सका.
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भगवान विश्वकर्मा को इन सौ सालों से एक भी छुट्टी नहीं मिल सकी. विश्वकर्मा जी परेशान होकर ब्रह्माजी के पास पहुंचे और परेशानी बताई. विश्वकर्मा की यह दुर्गति देख ब्रह्माजी ने भगवान विष्णु से इसका समाधान निकालने को कहा.
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विष्णुजी ने सारी बात सुनने के बाद तय किया कि इंद्र का घमंड नष्ट किए बिना बात नहीं बनेगी. भगवान ने बटुक यानी छोटे ब्राह्मण बालक जो शिक्षा ग्रहण के लिए गुरूकुल जाते हैं. बटुक बनकर श्रीहरि इंद्र के पास गए.
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उन्होंने इंद्र से पूछा- मैं आपके अद्भुत भवन निर्माण की दूर-दूर तक फैली प्रशंसा सुनकर आया हूं. यह भवन कुल कितने विश्वकर्मा मिलकर तैयार कर रहे हैं और यह पूरी तरह बनकर कब तक तैयार हो जायेगा ?
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इंद्र ने उपहास की मुद्रा में कहा- यह भी कोई प्रश्न हुआ ? क्या विश्वकर्मा भी दो-चार हुआ करते हैं ? बटुक बोले- इतने से घबरा गए देवेंद्र ? न जाने कितने ब्रह्मांड हैं और उसमें न जाने कितनी तरह की सृष्टि. उस सृष्टि में न जाने कितने ब्रह्मा, विष्णु महेश.
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इंद्र के कुछ समझने से पूर्व बटुक ने कहा- देवराज आप धरती के धूलकण गिन सकते हैं पर इंद्र और विश्वकर्मा की गिनती नहीं हो सकती. जैसे नदी में नौकाएं तैरती हैं वैसे ही महाविष्णु के रोमकूप के बीच जो पानी है उसमें तमाम ब्रह्मांड तैरते हैं.
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बटुक रूपी भगवान का यह प्रवचन चल ही रह था कि तभी वहां कतार लगाए हुए चींटे गुजरे. बटुक और इंद्र ने भी उसे देखा. चींटों को देखकर बटुक हंसने लगे. इंद्र ने कहा- अब क्या हुआ, चींटों को देखकर क्यों हंस रहे हो ब्राह्मण कुमार ?
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बटुक ने कहा- आप जिन चींटों को देख रहे हैं कभी ये भी इंद्र हुआ करते थे परंतु आज कर्मों के हिसाब से इन्हें यह योनि भुगतनी पड़ रही है. कर्मों का भी खेल निराला है. ये भगवान को इंसान और इंसान को श्वान बना दें.
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बात आगे बढती कि तभी वहां एक बहुत बुजुर्ग मुनि सिर पर चटाई ओढे, माथे पर सफेद तिलक लगाए आ पहुंचे. शरीर तो जर्जर हो गया था लेकिन उनका मुख तेज के कारण चमक था. उनके सीने पर बालों का एक चक्राकार गुच्छा था.
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इंद्र ने मुनि को नमस्कार कर बैठने का स्थान दिया. बटुक ने पूछा- हे महामुने आप कौन हैं ? यह आपके सीने पर बालों का ऐसा विचित्र सा गुच्छा क्यों हैं ? आप जैसे तेजस्वी मुनि ने यह सिर पर चटाई क्यों ओढ रखी है ?
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मुनि बोले- बटुक, जीवन के असंख्य बरस बीत जाने पर भी मैंने न तो कोई रहने का ठिकाना बनाया, न विवाह कर के घर बसाया और न ही कोई आजीविका खोजी. अब मैं धूप, बारिश, सर्दी सब से बचने के लिए हमेशा ही यह चटाई ओढकर चलता हूं.
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मेरे सीने पर बालों का जो गुच्छा है इसके कारण मुझे लोमश कहते हैं.यही मेरी आयु का प्रमाण भी है. एक इंद्र के पतन होने पर सीने का एक रोआं गिर जाता है. दो कल्प समाप्त होने पर पिछले कल्प के जब सारे ब्रह्मा खत्म हो जाएंगे तब मेरा भी अंत हो जाएगा.
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लोमश कहते रहे- बटुक, सबको जाना है. असंख्य ब्रह्मा आए और गए फिर मैं घर, पत्नी, संतान, धन की इच्छा क्यों करुं ? भगवत प्राप्ति ही मेरे लिए संपत्ति और मोक्ष का मार्ग है. यह कहकर लोमश मुनि अंतर्धान हो गए. बटुक भी चले गए.
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इंद्र सन्नाटे में खड़े यह सोचते रहे कि जिसकी इतनी लंबी उम्र है वह एक घास फूस का घर भी नहीं बनाते, चटाई ओढे जीवन गुजारते हैं और मैं इतना बड़ा भवन बनवा रहा हूं. उन्हें अपने निर्णय पर पछतावा हुआ.
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इंद्र ने तत्काल विश्वकर्मा को बुलवाया. क्षमा प्रार्थना के साथ काफी धन देकर कार्य को रोकने का अनुरोध किया. बटुक और लोमश की बातें सुनकर इंद्र का मन विरक्त हो उठा. स्वर्ग के ऐश्वर्य से उन्हें घबराहट होने लगी. उन्हें अपना अगला जीवन चींटे का दिखने लगा.
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सोच विचार कर इंद्र ने वन में रहकर तप का निर्णय किया. वह अपने आलीशान महल से निकले ही थे कि देवताओं के गुरु वृहस्पति उन्हें मिल गए. वृहस्पति ने सारी बात सुनी फिर उन्हें समझा बुझा कर फिर से राज-काज में लगा दिया. (स्रोत: ब्रह्मवैवर्त पुराण)
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(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
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= १८५ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू मैं नाहीं तब एक है, मैं आई तब दोइ ।
मैं तैं पड़दा मिट गया, तब ज्यूं था त्यूं ही होइ ॥ 
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साभार ~ Chetna Kanchan Bhagat

साधारण जीवन में भी प्रेम तभी खुलता है जब तुम खो जाते हो। जब तुम डूब जाते हो। जब मैं की आवाज बंद हो जाती है। और जब मैं से भी महत्वपूर्ण तू हो जाता है और तू ही जब तुम्हारा जीवन हो जाता है। तुम अपने को मिटा सकते हो प्रेमी के लिए, प्रेयसी के लिए, आनंदभाव से तुम मृत्यु में उतर सकते हो, तभी प्रेम फलित होता है। जब साधारण जीवन में प्रेम फलित होता है, तब भी वही झलक आती है कि एक ही रह जाता है, दो मिट जाते हैं।

लेकिन जब उस परम प्रेम का उदय होता है, तब तो निश्चित ही तुम्हारी रूप-रेखा भी नहीं बचनी चाहिए। तुम्हारा नाम-ठिकाना भी नहीं बचना चाहिए। तुम तो बिलकुल ही मिटोगे तभी वह हो सकेगा। जीसस का वचन है, जो अपने को बचाएंगे वे खो जाएंगे, जो अपने को खो देंगे वे बच जाएंगे। वहां तो मिटने वाला सब कुछ पा लेता है और बचाने वाला सब कुछ खो देता है।

कहते हैं नानक, 'जो कोई अपने आप को कुछ समझता है, वह उसके आगे जा कर शोभा नहीं पाता।' सच तो यह है, वह उसके आगे पहुंच ही नहीं पाता। क्योंकि जिसकी आंखों में अकड़ है, उसकी आंखें अंधी हैं। और जिसके हृदय में यह खयाल है, मैं कुछ हूं, उसका व्यक्तित्व बहरा है, जड़ है, वह मरा ही हुआ है। वह परमात्मा के सामने आ ही नहीं सकता। परमात्मा तो सदा तुम्हारे सामने है। लेकिन जब तक तुम हो, तुम उसे न देख पाओगे। क्योंकि तुम ही बाधा हो। जैसे ही बाधा गिर जाती है, तुम्हारी आंखें निर्मल हो कर खुलती हैं बिना किसी भाव के कि मैं हूं। तुम बिलकुल ना-कुछ की तरह होते हो। एक शून्य ! उस शून्य में तत्क्षण वह प्रवेश कर जाता है।

कबीर ने कहा है, सूने घर का पाहुना।
जैसे ही तुम शून्य हुए, वह अतिथि आ जाता है। जब तक तुम अपने से भरे हो, तुम उसे चूकते रहोगे। जिस दिन तुम खाली होओगे, वह तुम्हें भर देता है।

= पंचेन्द्रियचरित्र(मी.च. ६५-६) =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🙏 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🙏
🌷 *#श्रीसुन्दर०ग्रंथावली* 🌷
रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
https://www.facebook.com/DADUVANI
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*(ग्रन्थ ३) पंचेन्द्रियचरित्र*
*मीनचरित्र(३)=(३) श्रृंगी ऋषि की कथा*
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*जौ रसना स्वाद न होऊ ।*
*तौ इन्द्री जगै न कोई ।*
*कहै सुन्दरदास सयानां ।*
*यह मीन चरित्र बखानां ॥६५॥* 
यदि जिह्वा के स्वाद के चक्कर में न पड़ता तो दूसरी इन्द्रियाँ भी अपने विषयों के प्रति जागृत न होती । प्रज्ञासम्पन्न महात्मा सुन्दरदासजी कहते हैं कि इस तरह भी न चरित्र के रूपक के सहारे जिह्वास्वाद के फन्दे में फँसने से प्राणी की क्या दुर्गति होती है - यह साफ-साफ बता दिया । अब इसमें किसी को कोई सन्देह की गुन्ज्जाइश नहीं है ॥६५॥  
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*= उपसंहार = दोहा =*
*मीन चरित्र बिचारि कैं, स्वाद सबैं तजि जीव ।*
*सुन्दर रसना राति दिन, राम नाम रस पीव ॥६६॥*
इति श्रीसुन्दरदासविरचिते पंचेन्द्रियचरित्रे मीनचरित्रे जिह्वा-इन्द्रिय प्रसंगस्तृतीयोपदेशः ॥३॥ 
अतः हे सन्त जन ! इस मीनचरित्र पर सूक्ष्म विचार करते हुये सावधान साधक के जिह्वा के सभी प्रकार के स्वाद अपना हित सोचते हुये छोड़ देने चाहिये । और इस लौकिक स्वाद के बदले में इस जिह्वा के द्वारा रात-दिन राम नाम के कीर्तनरूपी अमृतरस का पान करना चाहिये ॥६६॥  
श्रीस्वामी सुन्दरदासजी कृत पंचेन्द्रियचरित्र में मीनचरित्र द्वारा जिह्वेन्द्रियप्रसंग नामक तृतीय उपदेश समाप्त ॥   
(क्रमशः)

= विन्दु (२)८९ =

॥ दादूराम सत्यराम ॥
**श्री दादू चरितामृत(भाग-२)** 
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥

**= विन्दु ८९ =**

एक दिन उद्धवदास कुछ जिज्ञासा लेकर दादूजी के सामने बैठे थे उनको उस प्रकार बैठे देखकर दादूजी ने अपने मन को ही निमित्त बनाकर उद्धवदास को यह पद सुनाया - 
**= उद्धवदास को उपदेश =** 
"मन रे राम बिना तन छीजे, 
जब यहु जाय मिले माटी में, तब कहु कैसे कीजे ॥ टेक ॥ 
पारस परस कंचन कर लीजे, सहज सुरति सुख दाई । 
माया बेलि विषय फल लागे, ता पर भूल न भाई ॥ १ ॥ 
जब लग प्राण पिंड है नीका, तब लग ताहि जनि भूले । 
यहु संसार सेमल के सुख ज्यों, ता पर तू जनि फूले ॥ २ ॥ 
अवसर यही जान जग जीवन, समझ देख सचुपावे । 
अंग अनेक आन मत भूले, दादू जनि बहकावे ॥ ३ ॥ 
मन के ब्याज से उपदेश कर रहे हैं - हे मन ! राम भजन के बिना शरीर क्षीण हो रहा है, फिर जब यह नर शरीर मिट्टी में मिल जायगा तब बता तू अन्य शरीरों में कैसे राम - भजन कर सकेगा ? अतः शीघ्र ही ब्रह्माकार वृत्ति द्वारा सुख प्रद सहज - समाधि में जा और ब्रह्म रूप पारस से मिलकर अपने को निर्मल करले । हे भाई ! मायारूप बेलि के तो विषय रूप विष - फल ही लगे हैं, उस पर तू भूलकर भी मत जाना । जब तक स्थूल सूक्ष्म - शरीर अच्छे हैं, तब तक उस प्रभु का भजन करना मत भूल । शरीर रोगी या अति वृद्ध होने पर भजन होना कठिन है । यह संसार सेमल वृक्ष के समान प्रतीति मात्र ही सुख प्रद है । सेमल के लाल फूलों को देखकर मांस के लोभ से गिद्ध आते हैं और निराश होते हैं । शुक पक्षी उसके फलों को खाने के लिये उसके पास रहते हैं किंतु उनमें से रुई निकलने से वे निराश होते हैं । वैसे ही सांसारिक सुख से किसी की भी आशा पूर्ण नहीं होती है । उस सुख पर तू मत प्रसन्न हो । यह अच्छा अवसर है, जगजीवन परमात्मा को ही अपना जान कर विचार द्वारा उनका साक्षात्कार कर, तो तुझे परमानन्द प्राप्त होगा । परमात्मा से अन्य स्त्री पुत्रादि अनेक शरीरों को देखकर उनकी आसक्ति द्वारा प्रभु को मत भूल, स्त्री पुत्रादिक मायिक प्रपंच के बहकावे मत आ । 
एक दिन सत्संग के अन्त में चाटसू में कारू ने पूछा - भगवन् ! भगवान् का स्वरूप कैसा है ? आप कृपा करके बतायें । तब दादूजी ने यह साखी बोली -
**= कारू के प्रश्न का उत्तर =** 
"वार पार नहिं नूर का, दादू तेज अनन्त । 
कीमत नहिं करतार की, ऐसा है भगवन्त ॥" 
तेज स्वरूप ब्रह्म अनन्त है, ब्रह्म के स्वरूप प्रकाश का आदि अन्त नहीं ज्ञात होता है । विश्व का आदि कर्ता होने से उसकी महिमा रूप कीमत उसके कार्य से पूर्णतः नहीं हो सकती है । ऐसा विलक्षण ब्रह्म का स्वरूप है । 
(क्रमशः)

शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

= १८४ =

卐 सत्यराम सा 卐
जैसा है तैसा नाम तुम्हारा, ज्यों है त्यों कह सांई ।
तूं आपै जाणै आपको, तहँ मेरी गम नांहि ॥
जीव ब्रह्म सेवा करै, ब्रह्म बराबर होइ ।
दादू जाणै ब्रह्म को, ब्रह्म सरीखा सोइ ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya

अज्ञान बिलकुल स्वाभाविक है, पता हमें नहीं है, इसका एक पहलू तो यह है कि हमें पता नहीं है; इसका दूसरा पहलू यह है कि जीवन रहस्य है, पता हो ही नहीं सकता, इसका एक पहलू तो यह है कि मुझे पता नहीं है, इसका दूसरा पहलू यह है कि जीवन अज्ञात रहस्य है, पहेली है, इसलिए पता हो कैसे सकता है इसलिए जिसने जाना कि मैं नहीं जानता वही जानने में समर्थ हो जाता है, क्योंकि वह जान लेता है : जीवन परम गुह्य रहस्य है

परमात्मा रहस्य है, कोई सिद्धात नहीं, जो कहता है परमात्मा है, वह यह थोड़े ही कह रहा है कि परमात्मा कोई सिद्धात है; वह यह कह रहा है कि हम समझ नहीं पाये, समझ में आता नहीं, ज्ञात होता नहीं—अज्ञेय है, इस सारी बात को हम एक शब्द में रख रहे हैं कि परमात्मा है , परमात्मा शब्द में इतना ही अर्थ है कि सब रहस्य है और समझ में नहीं आता; सूझ—बूझ के पार है; बुद्धि के पार है; तर्क के अतीत है; जहां विचार थक कर गिर जाते हैं, वहां है, अवाक जहां हो जाती है चेतना, जहां आश्चर्यचकित हम खड़े रह जाते हैं…

कभी तुम किसी वृक्ष के पास आश्चर्यचकित हो कर खड़े हुए हो? जीवन कितने रहस्य से भरा है, लेकिन तुम्हारे ज्ञान के कारण तुम मरे जा रहे हो, रहस्य को तुम देख नहीं पाते, और जिसने रहस्य नहीं देखा, वह क्या खाक धर्म से संबंधित होगा.

एक छोटा—सा बीज वृक्ष बन जाता है और तुम नाचते नहीं, तुम रहस्य से नहीं भरते, रोज सुबह सूरज निकल आता है, आकाश में करोड़ों—करोड़ों अरबों तारे घूमते हैं, पक्षी हैं, पशु हैं, इतना विराट विस्तार है जीवन का—इसमें हर चीज रहस्यमय है, किसी का कुछ पता नहीं है, और जो—जो तुम्हें पता है वह कामचलाऊ है...

विज्ञान बहुत दावे करता है कि हमें पता है, पूछो कि पानी क्या है? तो वह कहता है हाइड्रोजन और आक्सीजन का मेल है लेकिन हाइड्रोजन क्या है? तो फिर अटक गये, फिर झिझक कर खड़े हो गये, तो वह कहता है : हाइड्रोजन क्या है, अब यह जरा मुश्किल है क्योंकि हाइड्रोजन तो तत्व है, दो का संयोग हो तो हम बता दें, पानी दो का संयोग है—हाइड्रोजन और आक्सीजन का जोड़, एच टू ओ, लेकिन हाइड्रोजन तो सिर्फ हाइड्रोजन है

अब कोई तुमसे पूछे, पीला रंग क्या है? तो अब क्या खाक कहोगे कि पीला रंग क्या है, पीला रंग यानी पीला रंग हाइड्रोजन यानी हाइड्रोजन, अब कहना क्या है? मगर यह कोई उत्तर हुआ कि हाइड्रोजन यानी हाइड्रोजन?

नहीं, विज्ञान भी कोई उत्तर देता नही; थोड़ी दूर जाता है, फिर ठिठक कर खड़ा हो जाता है, सब शास्त्र थोडी दूर जाते हैं, फिर ठिठक कर गिर जाते हैं, मनुष्य की क्षमता सीमित है और असीम है जीवन—जाना कैसे जा सकता है, इसलिए जिसने जान लिया कि नहीं जानता, वही ज्ञानी है...
osho

= १८३ =

卐 सत्यराम सा 卐
प्रेम कथा हरि की कहै, करै भक्ति ल्यौ लाइ ।
पीवै पिलावै राम रस, सो जन मिलियो आइ ॥ 
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(((((((( श्रीजगन्नाथ जी कथा ))))))))
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एक बार भगवान श्री कृष्ण सो रहे थे और निद्रावस्था में उनके मुख से राधा जी का नाम निकला. पटरानियों को लगा कि वह प्रभु की इतनी सेवा करती है परंतु प्रभु सबसे ज्यादा राधा जी का ही स्मरण रहता है.
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रुक्मिणी जी एवं अन्य रानियों ने रोहिणी जी से राधा रानी व श्री कृष्ण के प्रेम व ब्रज-लीलाओं का वर्णन करने की प्रार्थना की. माता ने कथा सुनाने की हामी तो भर दी लेकिन यह भी कहा कि श्री कृष्ण व बलराम को इसकी भनक न मिले.
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तय हुआ कि सभी रानियों को रोहिणी जी एक गुप्त स्थान पर कथा सुनाएंगी. वहां कोई और न आए इसके लिए सुभद्रा जी को पहरा देने के लिए मना लिया गया.
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सुभद्रा जी को आदेश हुआ कि स्वयं श्री कृष्ण या बलराम भी आएं तो उन्हें भी अंदर न आने देना. माता ने कथा सुनानी आरम्भ की. सुभद्रा द्वार पर तैनात थी. थोड़ी देर में श्री कृष्ण एवं बलराम वहां आ पहुंचे. सुभद्रा ने अन्दर जाने से रोक लिया.
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इससे भगवान श्री कृष्ण को कुछ संदेह हुआ. वह बाहर से ही अपनी सूक्ष्म शक्ति द्वारा अन्दर की माता द्वारा वर्णित ब्रज लीलाओं को आनंद लेकर सुनने लगे. बलराम जी भी कथा का आनंद लेने लगे.
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कथा सुनते-सुनते श्री कृष्ण, बलराम व सुभद्रा के हृदय में ब्रज के प्रति अद्भुत प्रेम भाव उत्पन्न हुआ. उस भाव में उनके पैर-हाथ सिकुड़ने लगे जैसे बाल्य काल में थे. तीनों राधा जी की कथा में ऐसे विभोर हुए कि मूर्ति के समान जड़ प्रतीत होने लगे.
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बड़े ध्यान पूर्वक देखने पर भी उनके हाथ-पैर दिखाई नहीं देते थे. सुदर्शन ने भी द्रवित होकर लंबा रूप धारण कर लिया. उसी समय देवमुनि नारद वहां आ पहुंचे. भगवान के इस रूप को देखकर आश्चर्यचकित हो गए और निहारते रहे.
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कुछ समय बाद जब तंद्रा भंग हुई तो नारद जी ने प्रणाम करके भगवान श्री कृष्ण से कहा- हे प्रभु ! मेरी इच्छा है कि मैंने आज जो रूप देखा है, वह रूप आपके भक्त जनों को पृथ्वी लोक पर चिर काल तक देखने को मिले. आप इस रूप में पृथ्वी पर वास करें.
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भगवान श्री कृष्ण नारद जी की बात से प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा कि ऐसा ही होगा. कलिकाल में मैं इसी रूप में नीलांचल क्षेत्र में अपना स्वरूप प्रकट करुंगा.
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कलियुग आगमन के उपरांत प्रभु की प्रेरणा से मालव राज इन्द्रद्युम्न ने भगवान श्री कृष्ण, बलभद्र जी और बहन सुभद्रा जी की ऐसी ही प्रतिमा जगन्नाथ मंदिर में स्थापित कराई. यह रोचक कथा आगे पड़े.
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राजा इन्द्रद्युम्न श्रेष्ठ प्रजा पालक राजा थे. प्रजा उन्हें बहुत प्रेम करती थी. प्रजा सुखी और संतुष्ट थी. राजा के मन में इच्छा थी कि वह कुछ ऐसा करे जिससे सभी उन्हें स्मरण रखें.
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दैवयोग से इंद्रद्युम्न के मन में एक अज्ञात कामना प्रगट हुई कि वह ऐसा मंदिर का निर्माण कराएं जैसा दुनिया में कहीं और न हो. इंद्रद्युम्न विचारने लगे कि आखिर उनके मंदिर में किस देवता की मूर्ति स्थापित करें.
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राजा के मन में यही इच्छा और चिंतन चलने लगा. एक रात इसी पर गंभीर चिंतन करते सो गए. नीद में राजा ने एक सपना देखा. सपने में उन्हें एक देव वाणी सुनाई पड़ी.
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इंद्रद्युम्न ने सुना- राजा तुम पहले नए मंदिर का निर्माण आरंभ करो. मूर्ति विग्रह की चिंता छोड़ दो. उचित समय आने पर तुम्हें स्वयं राह दिखाई पड़ेगी. राजा नीद से जाग उठे. सुबह होते ही उन्होंने अपने मंत्रियों को सपने की बात बताई.
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राज पुरोहित के सुझाव पर शुभ मुहूर्त में पूर्वी समुद्र तट पर एक विशाल मंदिर के निर्माण का निश्चय हुआ. वैदिक-मंत्रोचार के साथ मंदिर निर्माण का श्रीगणेश हुआ.
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राजा इंद्रद्युम्न के मंदिर बनवाने की सूचना शिल्पियों और कारीगरों को हुई. सभी इसमें योगदान देने पहुंचे. दिन रात मंदिर के निर्माण में जुट गए. कुछ ही वर्षों में मंदिर बनकर तैयार हुआ.
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सागर तट पर एक विशाल मंदिर का निर्माण तो हो गया परंतु मंदिर के भीतर भगवान की मूर्ति की समस्या जस की तस थी. राजा फिर से चिंतित होने लगे. एक दिन मंदिर के गर्भगृह में बैठकर इसी चिंतन में बैठे राजा की आंखों से आंसू निकल आए.
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राजा ने भगवान से विनती की- प्रभु आपके किस स्वरूप को इस मंदिर में स्थापित करूं इसकी चिंता से व्यग्र हूं. मार्ग दिखाइए. आपने स्वप्न में जो संकेत दिया था उसे पूरा होने का समय कब आएगा ? देव विग्रह विहीन मंदिर देख सभी मुझ पर हंसेंगे.
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राजा की आंखों से आंसू झर रहे थे और वह प्रभु से प्रार्थना करते जा रहे थे- प्रभु आपके आशीर्वाद से मेरा बड़ा सम्मान है. प्रजा समझेगी कि मैंने झूठ-मूठ में स्वप्न में आपके आदेश की बात कहकर इतना बड़ा श्रम कराया. हे प्रभु मार्ग दिखाइए.
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राजा दुखी मन से अपने महल में चले गए. उस रात को राजा ने फिर एक सपना देखा. सपने में उसे देव वाणी सुनाई दी- राजन ! यहां निकट में ही भगवान श्री कृष्ण का विग्रह रूप है. तुम उन्हें खोजने का प्रयास करो, तुम्हें दर्शन मिलेंगे.
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इन्द्रद्युम्न ने स्वप्न की बात पुनः पुरोहित और मंत्रियों को बताई. सभी यह निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्रभु की कृपा सहज प्राप्त नहीं होगी. उसके लिए हमें निर्मल मन से परिश्रम आरंभ करना होगा.
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भगवान के विग्रह का पता लगाने की जिम्मेदारी राजा इंद्रद्युम्न ने चार विद्वान पंडितों को सौंप दिया. प्रभु इच्छा से प्रेरित होकर चारों विद्वान चार दिशाओं में निकले.
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उन चारों में एक विद्वान थे विद्यापति. वह चारों में सबसे कम उम्र के थे. प्रभु के विग्रह की खोज के दौरान उनके साथ बहुत से अलौकिक घटनाएं हुई. प्रभु का विग्रह किसे मिला ? यह प्रसंग आगे पढ़ें.
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पंडित विद्यापति पूर्व दिशा की ओर चले. कुछ आगे चलने के बाद विद्यापति उत्तर की ओर मुडे तो उन्हें एक जंगल दिखाई दिया. वन भयावह था. विद्यापति श्री कृष्ण के उपासक थे. उन्होंने श्री कृष्ण का स्मरण किया और राह दिखाने की प्रार्थना की.
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भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा से उन्हें राह दिखने लगी. प्रभु का नाम लेते वह वन में चले जा रहे थे. जंगल के मध्य उन्हें एक पर्वत दिखाई दिया. पर्वत के वृक्षों से संगीत की ध्वनि सा सुरम्य गीत सुनाई पड़ रहा था.
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विद्यापति संगीत के जान कार थे. उन्हें वहां मृदंग, बंसी और करताल की मिश्रित ध्वनि सुनाई दे रही थी. यह संगीत उन्हें दिव्य लगा. संगीत की लहरियों को खोजते विद्यापति आगे बढ़ चले.
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वह जल्दी ही पहाड़ी की चोटी पर पहुंच गए. पहाड़ के दूसरी ओर उन्हें एक सुंदर घाटी दिखी जहां भील नृत्य कर रहे थे. विद्यापति उस दृश्य को देखकर मंत्र मुग्ध थे. सफर के कारण थके थे पर संगीत से थकान मिट गयी और उन्हें नींद आने लगी.
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अचानक एक बाघ की गर्जना सुनकर विद्यापति घबरा उठे. बाघ उनकी और दौड़ता आ रहा था. बाघ को देखकर विद्यापति घबरा गए और बेहोश होकर वहीं गिर पडे.
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बाघ विद्यापति पर आक्रमण करने ही वाला था कि तभी एक स्त्री ने बाघ को पुकारा- बाघा..!! उस आवाज को सुनकर बाघ मौन खडा हो गया. स्त्री ने उसे लौटने का आदेश दिया तो बाघ लौट पड़ा.
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बाघ उस स्त्री के पैरों के पास ऐसे लोटने लगा जैसे कोई बिल्ली पुचकार सुनकर खेलने लगती है. युवती बाघ की पीठ को प्यार से थपथपाने लगी और बाघ स्नेह से लोटता रहा.
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वह स्त्री वहां मौजूद स्त्रियों में सर्वाधिक सुंदर थी. वह भीलों के राजा विश्वावसु की इकलौती पुत्री ललिता थी. ललिता ने अपनी सेविकाओं को अचेत विद्यापति की देखभाल के लिए भेजा.
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सेविकाओं ने झरने से जल लेकर विद्यापति पर छिड़का. कुछ देर बाद विद्यापति की चेतना लौटी. उन्हें जल पिलाया गया. विद्यापति यह सब देख कर कुछ आश्चर्य में थे.
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ललिता विद्यापति के पास आई और पूछा- आप कौन हैं और भयानक जानवरों से भरे इस वन में आप कैसे पहुंचे. आपके आने का प्रयोजन बताइए ताकि मैं आपकी सहायता कर सकूं.
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विद्यापति के मन से बाघ का भय पूरी तरह गया नहीं था. ललिता ने यह बात भांप ली और उन्हें सांत्वना देते हुए कहा- विप्रवर आप मेरे साथ चलें. जब आप स्वस्थ हों तब अपने लक्ष्य की ओर प्रस्थान करें.
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विद्यापति ललिता के पीछे-पीछे उनकी बस्ती की तरफ चल दिए. विद्यापति भीलों के पाजा विश्वावसु से मिले और उन्हें अपना परिचय दिया. विश्वावसु विद्यापति जैसे विद्वान से मिलकर बड़े प्रसन्नता हुए.
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विश्वावसु के अनुरोध पर विद्यापति कुछ दिन वहां अतिथि बनकर रूके. वह भीलों को धर्म और ज्ञान का उपदेश देने लगे. उनके उपदेशों को विश्वावसु तथा ललिता बड़ी रूचि के साथ सुनते थे. ललिता के मन में विद्यापति के लिए अनुराग पैदा हो गया.
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विद्यापति ने भी भांप लिया कि ललिता जैसी सुंदरी को उनसे प्रेम हो गया है किंतु विद्यापति एक बड़े कार्य के लिए निकले थे. अचानक एक दिन विद्यापति बीमार हो गए. ललिता ने उसकी सेवा सुश्रुषा की.
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इससे विद्यापति के मन में भी ललिता के प्रति प्रेम भाव पैदा हो गया. विश्वावसु ने प्रस्ताव रखा की विद्यापति ललिता से विवाह कर ले. विद्यापति ने इसे स्वीकार कर लिया.
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कुछ दिन दोनों के सुखमय बीते. ललिता से विवाह करके विद्यापति प्रसन्न तो था पर जिस महत्व पूर्ण कार्य के लिए वह आए थे, वह अधूरा था. यही चिंता उन्हें बार बार सताती थी.
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इस बीच विद्यापति को एक विशेष बात पता चली. विश्वावसु हर रोज सवेरे उठ कर कहीं चला जाता था और सूर्योदय के बाद ही लौटता था. कितनी भी विकट स्थिति हो उसका यह नियम कभी नहीं टूटता था.
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विश्वावसु के इस व्रत पर विद्यापति को आश्चर्य हुआ. उनके मन में इस रहस्य को जानने की इच्छा हुई. आखिर विश्वावसु जाता कहां है. एक दिन विद्यापति ने ललिता से इस सम्बन्ध में पूछा. ललिता यह सुनकर सहम गई.
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आखिर वह क्या रहस्य था ? क्या वह रहस्य विद्यापति के कार्य में सहयोगी था या विद्यापति पत्नी के प्रेम में मार्ग भटक गए. यह प्रसंग आगे पढ़ें
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विद्यापति ने ललिता से उसके पिता द्वारा प्रतिदिन सुबह किसी अज्ञात स्थान पर जाने और सूर्योदय के पूर्व लौट आने का रहस्य पूछा. विश्ववासु का नियम किसी हाल में नहीं टूटता था चाहे कितनी भी विकट परिस्थिति हो.
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ललिता के सामने धर्म संकट आ गया. वह पति की बात को ठुकरा नहीं सकती थी लेकिन पति जो पूछ रहा था वह उसके वंश की गोपनीय परंपरा से जुड़ी बात थी जिसे खोलना संभव नहीं था.
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ललिता ने कहा- स्वामी ! यह हमारे कुल का रहस्य है जिसे किसी के सामने खोला नहीं जा सकता परंतु आप मेरे पति हैं और मैं आपको कुल का पुरुष मानते हुए जितना संभव है उतना बताती हूं.
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यहां से कुछ दूरी पर एक गुफा है जिसके अन्दर हमारे कुल देवता हैं. उनकी पूजा हमारे सभी पूर्वज करते आए हैं. यह पूजा निर्बाध चलनी चाहिए. उसी पूजा के लिए पिता जी रोज सुबह नियमित रूप से जाते हैं.
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विद्यापति ने ललिता से कहा कि वह भी उनके कुल देवता के दर्शन करना चाहते हैं. ललिता बोली- यह संभव नहीं. हमारे कुल देवता के बारे में किसी को जानने की इच्छा है, यह सुनकर मेरे पिता क्रोधित हो जाएंगे.
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विद्यापति की उत्सुक्ता बढ़ रही थी. वह तरह-तरह से ललिता के अपने प्रेम की शपथ देकर उसे मनाने लगे. आखिर कार ललिता ने कहा कि वह अपने पिता जी से विनती करेगी कि वह आपको देवता के दर्शन करा दें.
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ललिता ने पिता से सारी बात कही. वह क्रोधित हो गए. ललिता ने जब यह कहा कि मैं आपकी अकेली संतान हूं. आपके बाद देवता के पूजा का दायित्व मेरा होगा. इसलिए मेरे पति का यह अधिकार बनता है क्योंकि आगे उसे ही पूजना होगा.
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विश्वावसु इस तर्क के आगे झुक गए. वह बोले- गुफा के दर्शन किसी को तभी कराए जा सकते हैं जब वह भगवान की पूजा का दायित्व अपने हाथ में ले ले. विद्यापति ने दायित्व स्वीकार किया तो विश्वावसु देवता के दर्शन कराने को राजी हुए.
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दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व विद्यापति की आंखों पर पट्टी बांधकर विश्वावसु उनका दाहिना हाथ पकड़ कर गुफा की तरफ निकले. विद्यापति ने मुट्ठी में सरसों रख लिया था जिसे रास्ते में छोड़ते हुए गए.
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गुफा के पास पहुंचकर विश्वावसु रुके और गुफा के पास पहुंच गए. विश्वावसु ने विद्यापति के आँखों की काली पट्टी खोल दी. उस गुफा में नीले रंग का प्रकाश चमक उठा. हाथों में मुरली लिए भगवान श्री कृष्ण का रूप विद्यापति को दिखाई दिया.
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विद्यापति आनंद मग्न हो गए. उन्होंने भगवान के दर्शन किए. दर्शन के बाद तो जैसे विद्यापति जाना ही नहीं चाहते थे. पर विश्वावसु ने लौटने का आदेश दिया. फिर उनकी आंखों पर पट्टी बांधी और दोनों लौट पड़े.
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लौटने पर ललिता ने विद्यापति से पूछा. विद्यापति ने गुफा में दिखे अलौकिक दृश्य के बारे में पत्नी को बताना भी उसने उचित नहीं समझा. वह टाल गए. यह तो जानकारी हो चुकी थी कि विश्वावसु श्री कृष्ण की मूर्ति की पूजा करते हैं.
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विद्यापति को आभास हो गया कि महाराज ने स्वप्न में जिस प्रभु विग्रह के बारे में देव वाणी सुनी थी, वह इसी मूर्ति के बारे में थी. विद्यापति विचार करने लगे कि किसी तरह इसी मूर्ति को लेकर राजधानी पहुंचना होगा.
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वह एक तरफ तो गुफा से मूर्ति को लेकर जाने की सोच रहे थे दूसरी तरफ भील राज और पत्नी के साथ विश्वासघात के विचार से उनका मन व्यथित हो रहा था. विद्यापति धर्म-अधर्म के बारे में सोचता रहे.
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फिर विचार आया कि यदि विश्वावसु ने सचमुच उसपर विश्वास किया होता तो आंखों पर पट्टी बांधकर गुफा तक नहीं ले जाता. इसलिए उसके साथ विश्वास घात का प्रश्न नहीं उठता. उसने गुफा से मूर्ति चुराने का मन बना लिया.
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विद्यापति ने ललिता से कहा कि वह अपने माता-पिता के दर्शन करने के लिए जाना चाहता है. वे उसे लेकर परेशान होंगे. ललिता भी साथ चलने को तैयार हुई तो विद्यापति ने यह कह कर समझा लिया कि वह शीघ्र ही लौटेगा तो उसे लेकर जाएगा.
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ललिता मान गई. विश्वावसु ने उसके लिए घोड़े का प्रबंध किया. अब तक सरसों के दाने से पौधे निकल आए थे. उनको देखता विद्यापति गुफा तक पहुंच गया. उसने भगवान की स्तुति की और क्षमा प्रार्थना के बाद उनकी मूर्ति उठाकर झोले में रख ली.
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शाम तक वह राजधानी पहुंच गया और सीधा राजा के पास गया. उसने दिव्य प्रतिमा राजा को सौंप दी और पूरी कहानी सुनायी. राजा ने बताया कि उसने कल एक सपना देखा कि सुबह सागर में एक कुन्दा बहकर आएगा.
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उस कुंदे की नक्काशी करवाकर भगवान की मूर्ति बनवा लेना जिसका अंश तुम्हें प्राप्त होने वाला है. वह भगवान श्री विष्णु का स्वरूप होगा. तुम जिस मूर्ति को लाए हो वह भी भगवान विष्णु का अंश है. दोनों आश्वस्त थे कि उनकी तलाश पूरी हो गई है.
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राजा ने कहा कि जब भगवान द्वारा भेजी लकड़ी से हम इस प्रतिमा का वड़ा स्वरूप बनवा लेंगे तब तुम अपने ससुर से मिलकर उन्हें मूर्ति वापस कर देना. उनके कुल देवता का इतना बड़ा विग्रह एक भव्य मंदिर में स्थापित देखकर उन्हें खुशी ही होगी.
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दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व राजा विद्यापति तथा मंत्रियों को लेकर सागर तट पर पहुंचा. स्वप्न के अनुसार एक बड़ा कुंदा पानी में बहकर आ रहा था. सभी उसे देखकर प्रसन्न हुए. दस नावों पर बैठकर राजा के सेवक उस कुंदे को खींचने पहुंचे.
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मोटी-मोटी रस्सियों से कुंदे को बांधकर खींचा जाने लगा लेकिन कुंदा टस से मस नहीं हुआ. और लोग भेजे गए लेकिन सैकड़ों लोग और नावों का प्रयोग करके भी कुंदे को हिलाया तक नहीं जा सका.
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राजा का मन उदास हो गया. सेनापति ने एक लंबी सेना कुंदे को खींचने के लिए भेज दी. सारे सागर में सैनिक ही सैनिक नजर आने लगे लेकिन सभी मिल कर कुंदे को अपने स्थान से हिला तक न सके. सुबह से रात हो गई.
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अचानक राजा ने काम रोकने का आदेश दिया. उसने विद्यापति को अकेले में ले जाकर कहा कि वह समस्या का कारण जान गया है. राजा के चेहरे पर संतोष के भाव थे. राजा ने विद्यापति को गोपनीय रूप से कहीं चलने की बात कही.
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राजा इंद्रद्युम्न ने कहा कि अब भगवान का विग्रह बन जाएगा. बस एक काम करना होगा. भगवान श्री कृष्ण ने राजा को ऐसा क्या संकेत दे दिया था कि उसकी सारी परेशानी समाप्त हो गई. यह प्रसंग आगे पढ़ें.
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राजा इंद्रध्युम्न को भगवान की प्रेरणा से समझ में आने लगा कि आखिर प्रभु के विग्रह के लिए जो लकड़ी का कुंदा पानी में बह कर आया है वह हिल-डुल भी क्यों नहीं रहा.
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राजा ने विद्यापति को बुलाया और कहा- तुम जिस दिव्य मूर्ति को अपने साथ लाए हो उसकी अब तक जो पूजा करता आया था उससे तुरंत भेंट करके क्षमा मांगनी होगी. बिना उसके स्पर्श किए यह कुंदा आगे नहीं बढ सकेगा.
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राजा इंद्रद्युम्न और विद्यापति विश्वावसु से मिलने पहुंचे. राजा ने पर्वत की चोटी से जंगल को देखा तो उसकी सुंदरता को देखता ही रह गया. दोनों भीलों की बस्ती की ओर चुपचाप चलते रहे.
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इधर विश्वावसु अपने नियमित दिनचर्या के हिसाब से गुफा में अपने कुल देवता की पूजा के लिए चले. वहां प्रभु की मूर्ति गायब देखी तो वह समझ गए कि उनके दामाद ने ही यह छल किया है.
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विश्वावसु लौटे और ललिता को सारी बात सुना दी. विश्वावसु पीड़ा से भरा घर के आंगन में पछाड़ खाकर गिर गए. ललिता अपने पति द्वारा किए विश्वास घात से दुखी थी और स्वयं को इसका कारण मान रही थी. पिता-पुत्री दिन भर विलाप करते रहे.
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उन दोनों ने अन्न का एक दाना भी न छुआ. अगली सुबह विश्वावसु उठे और सदा की तरह अपनी दिनचर्या का पालन करते हुए गुफा की तरफ बढ़ निकले. वह जानते थे कि प्रभु का विग्रह वहां नहीं है फिर भी उनके पैर गुफा की ओर खींचे चले जाते थे.
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विश्वावसु के पीछे ललिता और रिश्तेदार भी चले. विश्वावसु गुफा के भीतर पहुंचे. जहां भगवान की मूर्ति होती थी उस चट्टान के पास खड़े होकर हाथ जोड़ कर खडे रहे. फिर उस ऊंची चट्टान पर गिर गए और बिलख–बिलख कर रोने लगे. उनके पीछे प्रजा भी रो रही थी.
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एक भील युवक भागता हुआ गुफा के पास आया और बताया कि उसने महाराज और उनके साथ विद्यापति को बस्ती की ओर से आते देखा है. यह सुन कर सब चौंक उठे. विश्वावसु राजा के स्वागत में गुफा से बाहर आए लेकिन उनकी आंखों में आंसू थे.
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राजा इंद्रद्युमन विश्वावसु के पास आए और उन्हें अपने हृदय से लगा लिया. राजा बोले- भीलराज, तुम्हारे कुल देवता की प्रतिमा का चोर तुम्हारा दामाद नहीं मैं हूं. उसने तो अपने महाराज के आदेश का पालन किया. यह सुन कर सब चौंक उठे.
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विश्वावसु ने राजा को आसन दिया. राजा ने उस विश्वावसु को शुरू से अंत तक पूरी बात बता कर कहा कि आखिर क्यों यह सब करना पड़ा. फिर राजा ने उनसे अपने स्वप्न और फिर जगन्नाथ पुरी में सागर तट पर मंदिर निर्माण की बात कह सुनाई.
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राजा ने विश्वावसु से प्रार्थना की- भील सरदार विश्वावसु, कई पीढ़ियों से आपके वंश के लोग भगवान की मूर्ति को पूजते आए हैं. भगवान के उस विग्रह के दर्शन सभी को मिले इसके लिए आपकी सहायता चाहिए.
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ईश्वर द्वारा भेजे गए लकड़ी के कुंदे से बनी मूर्ति के भीतर हम इस दिव्य मूर्ति को सुरछित रखना चाहते हैं. अपने कुल की प्रतिमा को पुरी के मंदिर में स्थापित करने की अनुमति दो. उस कुंदे को तुम स्पर्श करोगे तभी वह हिलेगा.
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विश्वावसु राजी हो गए. राजा सपरिवार विश्वावसु को लेकर सागर तट पर पहुंचे. विश्वावसु ने कुंदे को छुआ. छूते ही कुंदा अपने आप तैरता हुआ किनारे पर आ लगा. राजा के सेवकों ने उस कुंदे को राज महल में पहुंचा दिया.
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अगले दिन मूर्तिकारों और शिल्पियों को राजा ने बुलाकर मंत्रणा की कि आखिर इस कुंदे से कौन सी देवमूर्ति बनाना शुभ दायक होगा. मूर्तिकारों ने कह दिया कि वे पत्थर की मूर्तियां बनाना तो जानते हैं लेकिन लकड़ी की मूर्ति बनाने का उन्हें ज्ञान नहीं.
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एक नए विघ्न के पैदा होने से राजा फिर चिंतित हो गए. उसी समय वहां एक बूढा आया. उसने राजा से कहा- इस मंदिर में आप भगवान श्री कृष्ण को उनके भाई बलभद्र तथा बहन सुभद्रा के साथ विराज मान करें. इस दैवयोग का यही संकेत है.
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राजा को उस बूढ़े व्यक्ति की बात से सांत्वना तो मिली लेकिन समस्या यह थी कि आखिर मूर्ति बने कैसे ? उस बूढ़े ने कहा कि मैं इस कला में कुशल हूं. मैं इस पवित्र कार्य को पूरा करूंगा और मूर्तियां बनाउंगा. पर मेरी एक शर्त है.
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राजा प्रसन्न हो गए और उनकी शर्त पूछी. बूढ़े शिल्पी ने कहा- मैं भगवान की मूर्ति निर्माण का काम एकांत में करूंगा. मैं यह काम बंद कमरे में करुंगा. कार्य पूरा करने के बाद मैं स्वयं दरवाजा खोल कर बाहर आऊंगा. इस बीच कोई मुझे नहीं बुलाए.
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राजा सहमत तो थे लेकिन उन्हें एक चिंता हुई और बोले- यदि कोई आपके पास नहीं आएगा तो ऐसी हालत में आपके खाने पीने की व्यवस्था कैसे होगी ? शिल्पी ने कहा- जब तक मेरा काम पूर्ण नहीं होता मैं कुछ खाता-पीता नहीं हूं.
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राज मंदिर के एक विशाल कक्ष में उस बूढ़े शिल्पी ने स्वयं को 21 दिनों के लिए बंद कर लिया और काम शुरू कर दिया. भीतर से आवाजें आती थीं. महारानी गुंडीचा देवी दरवाजे से कान लगाकर अक्सर छेनी-हथौड़े के चलने की आवाजें सुना करती थीं.
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महारानी रोज की तरह कमरे के दरवाजे से कान लगाए खड़ी थीं. 15 दिन बीते थे कि उन्हें कमरे से आवाज सुनायी पडनी बंद हो गई. जब मूर्ति कार के काम करने की कोई आवाज न मिली तो रानी चिंतित हो गईं.
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उन्हें लगा कि वृद्ध आदमी है, खाता-पीता भी नहीं कहीं उसके साथ कुछ अनिष्ट न हो गया हो. व्याकुल होकर रानी ने दरवाजे को धक्का देकर खोला और भीतर झांककर देखा.
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महारानी गुंडीचा देवी ने इस तरह मूर्तिकार को दिया हुआ वचन भंग कर दिया था. मूर्तिकार अभी मूर्तियां बना रहा था. परंतु रानी को देखते ही वह अदृश्य हो गए. मूर्ति निर्माण का कार्य अभी तक पूरा नहीं हुआ था. हाथ-पैर का निर्माण पूर्ण नहीं हुआ था.
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वृद्ध शिल्पकार के रूप में स्वयं देवताओं के शिल्पी भगवान विश्वकर्मा आए थे. उनके अदृश्य होते ही मूर्तियां अधूरी ही रह गईं. इसी कारण आज भी यह मूर्तियां वैसी ही हैं. उन प्रतिमाओं को ही मंदिर में स्थापित कराया गया.
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कहते हैं विश्वावसु संभवतः उस जरा बहेलिए का वंशज था जिसने अंजाने में भगवान कृष्ण की ह्त्या कर दी थी. विश्वावसु शायद कृष्ण के पवित्र अवशेषों की पूजा करता था. ये अवशेष मूर्तियों में छिपाकर रखे गए थे.
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विद्यापति और ललिता के वंशज जिन्हें दैत्य्पति कहते हैं उनका परिवार ही यहां अब तक पूजा करता है.
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(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
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= पंचेन्द्रियचरित्र(मी.च. ६३-४) =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🙏 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🙏
🌷 *#श्रीसुन्दर०ग्रंथावली* 🌷
रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*(ग्रन्थ ३) पंचेन्द्रियचरित्र*
*मीनचरित्र(३)=(३) श्रृंगी ऋषि की कथा*
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*हौं इहां कहां तैं आवा ।*
*यह स्वाद धका मोहि लावा ।*
*ॠषि सोवत सें तब जागे ।*
*कर कर झटकि अपूठे भागे ॥६३॥* 
तब उनको प्रायश्चित हुआ कि मैं यहाँ कहाँ चला आया । इस जिह्वा के स्वाद ने मुझे गर्त में ढकेल दिया ! ॠषि सोते हुए से मानो जाग उठे । तत्काल वेश्या का हाथ झटक कर उलटे अपने आश्रम की तरफ भागे ॥६३॥ 
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*पुनि आये ॠषि बन मांही ।*
*मन मैं बहुतैं पछितानी ।*
*जौ रसना स्वाद हि लागी ।*
*तौ पीछै इन्द्री जागी ॥६४॥* 
ॠषि पुनः वन में लौट आये, उन्हें बहुत ही पछतावा हुआ । जब मेरी जिह्वा स्वाद की ओर लपकी तो सारी इन्द्रियाँ उसके पीछे-पीछे अपने अपने विषयों की ओर दौड़ने को लालायित हो उठी ॥६४॥ 
(क्रमशः)

= विन्दु (२)८९ =

॥ दादूराम सत्यराम ॥
**श्री दादू चरितामृत(भाग-२)** 
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥

**= विन्दु ८९ =**

फिर दादूजी का नाम सुनकर चाटसू के भक्त - हरिदास, नारायण का साला उद्धवदास, कारू, कुंभा, नन्दा, धारु और नारायण सांगानेर आये । ये चारों ही भगवद् भक्ति परायण थे । दादूजी के पास पहुंचकर प्रणामादि शिष्टाचार के पश्चात् उक्त चाटसू के भक्तों ने दादूजी से प्रार्थना की -स्वामिन् ! अब यहाँ से चाटसू पधारने की कृपा अवश्य करैं । तब दादूजी ने उनका भक्ति भाव देखकर स्वीकार कर लिया । 
= चाटसू पधारना = 
फिर चाटसू के भक्तों के साथ चाटसू के लिये प्रस्थान किया और ब्रह्मभजन करते हुये शनैः शनैः चाटसू के पास पहुंच गये । तब उक्त भक्तों ने संतों को ग्राम के बाहर एक स्थान पर ठहराया और स्वयं ग्राम में जाकर भक्त मण्डल के साथ कीर्तन करते हुये दादूजी को लेने आये और प्रणामादि शिष्टाचार के पश्चात् संकीर्तन करते हुये महान् सत्कार से ग्राम में लाये और एक अच्छे एकान्त स्थान में ठहराया । फिर वहां सत्संग होने लगा । चाटसू तथा आस पास के ग्रामों के भक्त लोग सत्संग और संत दर्शन से लाभ लेने लगे । एक दिन चाटसू में हरिदास दादूजी के सामने बैठे हुये इस विचार में निमग्न हो रहे थे कि जीवन की सफलता किस साधन से होती है । दादूजी उनके मन की बात जान गये फिर उनको समझाने के निमित्त यह पद बोला - 
= हरिदास को उपदेश = 
"का जिबना का मरणा रे भाई, 
जो तू राम न रमसि अघाई ॥टेक॥ 
का सुख संपत्ति क्षत्रपति राजा, 
वन खंड जाय बसे किहिं काजा ॥ १ ॥ 
का विद्या गुण पाठ पुराणा, 
का मूरख जो तैं राम न जाना ॥ २ ॥ 
का आसन कर अह निशि जागे, 
का फिर सोवत राम न लागे ॥ ३ ॥ 
का मुक्ता का बँधे होई, 
दादू राम न जाना सोई ॥ ४ ॥ 
यथार्थ ब्रह्मज्ञान से ही जीवन सफल होता है यह कह रहे हैं - हे भाई ! यदि तू राम के स्वरूप में अरस परस होकर अद्वैतानन्द से तृप्त नहीं हुआ हो तो अधिक जीने से और मरणे से क्या विशेषता है ? क्षत्रपति राजा होकर संपत्ति का सुख लिया तो भी क्या तृप्ति होती है ? यदि राज्यादि से तृप्ति हो जाती तो राजा लोग किस लिये बन में जाकर बसे थे ? हे यज्ञ ! यदि तू ने राम को नहीं जाना तो तेरी अधिक विद्या, गुण, कला और पुराण - पाठ से क्या लाभ है ? यदि राम के चिन्तन में नहीं लगे तो, सिद्धि प्राप्ति के लिये आसन लगा कर दिन रात जागने से और सोने से क्या तृप्ति होती है ? अर्थात् नहीं । जिनने राम को अद्वैत रूप से नहीं जाना उनकी मुक्तता और बद्धता में क्या विशेषता है ? वे तो दोनों ही सम हैं अर्थात् वाणी मात्र से अपने को मुक्त कहने वाला भी बद्ध ही है । उक्त उपदेश को सुनकर हरिदास ने जान लिया कि मुक्ति प्राप्त होने से ही जीवन की सफलता होती है और मुक्ति यथार्थ ब्रह्म ज्ञान द्वारा होती है फिर वे दादूजी के शिष्य होकर साधन करने लगे । ये दादूजी के सौ शिष्यों में हैं ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

= १८२ =


卐 सत्यराम सा 卐
शूरा होइ सु मेर उलंघै, सब गुण बँध्या छूटै ।
दादू निर्भय ह्वै रहे, कायर तिणा न टूटै ॥ 
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(((((((((( विष्णु भक्त प्रह्लाद ))))))))))
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योग विद्या के बहुत बड़े जानकार और तमाम तरह की सिद्धियां रखने वाले विष्णु भक्त ब्राह्मण शिव शर्मा द्वारका में रहते थे. शिव शर्मा के पांच बेटे थे. यज्ञ, वेद, धर्म, विष्णु और सोम. सभी एक से बढ कर एक पितृ भक्त थे.
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शिव शर्मा ने अपने बेटों के पितृ प्रेम की परीक्षा लेनी का निश्चय किया. शिव शर्मा सिद्ध थे इस लिए माया रचना उनके लिए कोई कठिन बात नहीं थी. उन्होंने माया फैलाई. अगले दिन पांचों पुत्रों की माता बहुत बीमार हो गईं. उनको बहुत तेज बुखार हुआ.
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बेटों ने बहुत दौड़ धूप की. वैद्य को दिखाया पर कोई लाभ न हुआ. उनकी माता का देहांत हो गया. बेटों ने पिता से पूछा अब आगे क्या आदेश है. शिव शर्मा को तो बेटों की परीक्षा ही लेनी थी. सो उन्होंने सबसे बड़े बेटे यज्ञ को बुलाया.
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उन्होंने यज्ञ से कहा- तुम किसी तेज़ हथियार से अपनी मां के मृत शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर के इधर उधर फेंक दो. यज्ञ शर्मा ने एक बार भी न तो इसका कारण पूछा न ही कोई सवाल किया. पिता के आदेश का पालन कर आया.
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अब शिव शर्मा ने दूसरे बेटे को बुला कर कहा- बेटे वेद तुम्हारी मां तो अब रही नहीं. मैंने एक बहुत रूपवती दूसरी स्त्री देखी है. मैं उससे विवाह करना चाहता हूं. तुम उसके पास जाओ. उसे किसे भी तरह प्रसन्न कर मुझसे विवाह को तैयार करो.
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वेद शर्मा तत्काल उस युवती के घर पहुंचा और बताया कि किस तरह उसके पिता उसके प्रेम में हैं. पिता की प्रसन्नता के लिए वह उनसे विवाह कर ले. युवती बहुत नाराज हुई और उसने वेद को फटकारा.
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युवती ने कहा- तुम्हारा पिता बुजुर्ग है. दिनभर खांसता रहता है. आयु कितनी शेष है ? तुम नौजवान और खूब सूरत हो. तुम अपने पिता की बात छोड़ो, तुम ही मेरे साथ विवाह क्यों नहीं कर लेते !
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वेद ने कहा- मेरे मन में आप मेरी मां जैसी हैं. ऐसी अधार्मिक बातें न कहें. हाथ जोड़ता हूं मेरे पिता से विवाह कर लें. वेद ने युवती को बहुत मनाया पर वह न मानी.
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आखिर वेद ने कहा- आप मेरी बात मान जाएं. इसके लिए मैं आपके लिए कुछ भी करने को तैयार हूं.
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वेद की बात सुनकर स्त्री ने कहा- मेरा मन तो उस खूसट के साथ विवाह कर रहने का नहीं कहता पर मैं तुम्हारे देने की क्षमता का परख के बाद ही निर्णय करुंगी. तुम मुझे इंद्र सहित सभी देवताओं का दर्शन करा दो तो सोचती हूं.
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वेद ने अपने तपोबल से आह्वान किया तो क्षण मात्र में ही इंद्र समेत सभी देवता वहां मौजूद थे. देवताओं ने वेद से वर मांगने को कहा- वेद ने पिता की चरणों की निर्मल भक्ति मांगी. देवता वर देकर चले गए. वेद ने युवती से कहा- अब घर चलें माता.
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युवती बोली- यह तो तुम्हारी तपस्या का बल है जो तुमने दिखा दिया इसे मैं नहीं मानती. मैं तो अपने पिता से प्रति तुम्हारा प्रेम परखना चाहती हूं. मैं तुम्हारे पिता से शादी कर लूंगी अगर तुम उनके लिए अपना सर अपने ही हाथ से काट कर मुझे दे दो.
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वेद ने सिर काट कर उस युवती को दे दिया. युवती खून से सना वेद शर्मा का सर लेकर उसके पिता शिव शर्मा के पास पहुंची. वेद के सारे भाई वहीं पर थे. देखते ही बोले- वेद धन्य है जिसका शरीर पिता के काम आया.
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शिव शर्मा ने कटा सर तीसरे बेटे धर्म शर्मा को देकर आदेश दिया- तुम अपने भाई को जीवित कर दो. धर्म ने भाइयों को भेज धड़ मंगवाया और धर्मराज को पुकार कर कहा कि अगर मैं सच्चा पिता भक्त हूं तो मेरे भाई की गर्दन जुड़ जाए, वह जिंदा हो जाए.
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धर्मराज खुद आए. वेद के सिर को जोड़ा और धर्म शर्मा को पितृ भक्ति का वर देकर चले गए. वेद शर्मा जीवित हो उठा. उसने आंखें खोलीं तो वहां न तो उसके पिता थे न वह युवती. बाद में वेद ने धर्म को और धर्म ने वेद को सारी कहानी बतायी.
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कुछ दिनों बाद शिव शर्मा ने अपने चौथे बेटे से कहा, बेटे विष्णु मैं कुछ दिनों से बीमार सा महसूस कर रहा हूं, सब देख लिया, अमृत के बिना मुझे आराम न आयेगा. तुम किसी तरह स्वर्ग से अमृत ले आओ.
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काम कठिन था, विष्णु शर्मा ने योग बल की सहायता ली और स्वर्ग पहुंचे. देवता भला आसानी से अमृत क्यों देने लगे ? उन्होंने मेनका को विष्णु शर्मा को रूप जाल में फंसा कर भटकाने को भेजा. मेनका ने कई कोशिशें की पर वह नहीं फंसा.
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इंद्र ने इसके बाद कई दूसरी चालें चली. बहुत सारी विघ्न बाधाएं उपस्थित कीं. आखिर कार विष्णु शर्मा को गुस्सा आ गया और जब वह अपने तप बल का प्रयोग कर इंद्र को उनके पद से उतारने की तैयारी कर बैठे तो इंद्र खुद अपने हाथों विष्णु शर्मा को अमृत कलश सौंपने आए. . इंद्र से अमृत भरा घड़ा लेकर विष्णु ने अपने पिता को दे दिया. शिव शर्मा अमृत पाकर बहुत खुश हुए. सभी बेटों को बुलाया और बोले- तुम सब की पितृ भक्ति से मैं बहुत प्रसन्न हूं. तुम लोग कोई वरदान मांगना चाहते हो तो मांग लो.
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बेटों ने एक स्वर से कहा- हमारी मां को जीवित कर दीजिए. शिव शर्मा ने फिर अपनी सिद्धि का सहारा लिया और मां जीवित होकर बेटों के बीच खड़ी हो गईं.
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शिव शर्मा ने पूछा- बेटों मैं तो तुम्हें आज स्वर्ग या अक्षय लोक तक दे सकता था तुमने वह क्यों नहीं मांगा ? बेटों ने कहा- ठीक है आप अब वही वर दे दीजिए. शिव शर्मा ने कहा- ऐसा ही हो. इतना कहना था कि रोशनी बिखेरता अक्षय लोक का दिव्य विमान उतर आया.
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विमान में से भगवान के सेवक उतरे और सब को बैठकर विष्णु लोक चलने को कहा. शिव शर्मा ने कहा- मैं, मेरा बेटा सोम और पत्नी अभी विष्णु लोक नहीं जायेंगे. आप इन चार बेटों को ही विष्णु धाम दें.
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विमान चारों बेटों यज्ञ, विष्णु, धर्म, और वेद को लेकर विष्णु लोक चला गया. शिव शर्मा ने चारों बेटों को विष्णु लोक भेज दिया लेकिन अभी सोम की परीक्षा तो उन्होंने ली ही नहीं थी.
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एक दिन उन्होंने सोम से कहा- सोम मैं तुमको एक कठिन काम सौंपना चाहता हूं. हम दोनों कल ही तीर्थ यात्रा पर निकल रहे हैं. हमें लौटने में समय लगेगा. घर में अमृत जैसी कीमती चीज रखी है तुम्हें इसकी जी जान से रक्षा करनी होगी.
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अपने पिता से आदेश पाकर सोम बहुत खुश हुआ. वह अमृत की रखवाली करने लगा. दस साल बाद सोम के माता-पिता तीर्थ यात्रा से लौटे. उनके पूरे शरीर में कोढ फूट गया था.
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कई अंग गलने के करीब थे. वे किसी तरह चल फिर सकने वाले मांस का पिंड भर रह गये थे जिन्हें देखते ही घिन्न आती थी. सोम यह देख अचरज से पूछ बैठा- आप तो साक्षात विष्णु के समान हैं, आप को यह अधम बीमारी कैसे लग सकती है ?
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यह सब शिव शर्मा की फैलायी माया थी. पर शिव शर्मा ने कहा- बेटा हो सकता है पिछले जन्म का कोई पाप इस जन्म में उभर आया हो. अब तो इसे झेलना ही है. सोम मन से माता पिता की सेवा में लगा रहता.
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वह उनका मल मूत्र, मवाद धोता, दवा देता, खिलाता, पिलाता, सुलाता. उलटे शिव शर्मा उसे डांटते, फटकारते और मारते ही रहते. शिव शर्मा ने सोचा कि कठोर व्यवहार के बाद भी यह न कभी नाराज होता है न शिकायत करता है.बस सेवा में लगा रहता है.
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इस परीक्षा में यह पास तो है पर इसकी एक आखिरी परीक्षा और लेकर देखा जाए. शिव शर्मा ने सोम से कहा- तुम्हारी रखवाली में हम अमृत कलश छोड़ गए थे. इस बीमारी से मुक्ति पाने का अब बस वही एक रास्ता है. अमृत कलश में से अमृत पिलाओ.
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यह आदेश देने से पहले शिव शर्मा ने माया का प्रयोग करके अमृत को चुरा लिया था. सोम जब अमृत लेने गया तो कलश खाली था. वह बड़ा चिंतित और दुःखी हुआ कि आखिर मेरी रखवाली में रखे इस कलश से अमृत ले कौन गया ?
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उसने आंखें बंदकर भगवान विष्णु से प्रार्थना की- भगवन् अगर मेरी तपस्या सच्ची है तो यह अमृत कलश पहले की तरह भर जाए. सोम ने आंखें खोलीं तो अमृत का कलश लबा लब भरा हुआ था.
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सोम ने अमृत कलश लिया और मां पिता के पास पहुंच कर उनके चरणों में प्रणाम किया फिर अमृत पीने का आग्रह किया. पर वे तो बिना अमृत पीए ही भले चंगे थे. उनकी तो समूची देह चमक रही थी.
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सोम माता पिता को स्वस्थ देख खुश था. पिता अपने बेटे की पितृ भक्ति देख प्रसन्न थे. शिव शर्मा ने सोम को अनगिनत आशीर्वाद दिए. उसी समय एक दिव्य विमान उतरा जो विष्णु लोक से आया था.
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सोम शर्मा सहित उनके माता-पिता को बिठा कर विष्णु लोक को रवाना हो गया. सोम शर्मा की इस अद्भुत भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु भी बड़े प्रसन्न हुए. अगले जन्म में सोम शर्मा महान विष्णु भक्त प्रह्लाद हुए. 
( स्रोतः पद्म पुराण )
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(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
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= १८१ =


卐 सत्यराम सा 卐
परम कथा उस एक की, दूजा नांही आन ।
दादू तन मन लाइ कर, सदा सुरति रस पान ॥ 
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(((((((((( अमरत्व का ज्ञान ))))))))))
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एक बार माता पार्वती ने भगवान शिव से ऐसे गूढ़ ज्ञान देने का अनुरोध किया जो संसार में किसी भी जीव को प्राप्त न हो. वह अमरत्व का रहस्य प्रभु से सुनना चाहती थीं.
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अमरत्व का रहस्य किसी कुपात्र के हाथ न लग जाए इस चिंता में पड़कर महादेव पार्वती जी को लेकर एक निर्जन प्रदेश में गए.
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उन्होंने एक गुफा चुनी और उस गुफा का मुख अच्छी तरह से बंद कर दिया. फिर महादेव ने देवी को कथा सुनानी शुरू की. पार्वती जी थोड़ी देर तक तो आनंद लेकर कथा सुनती रहीं.
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जैसे किसी कथा-कहानी के बीच में हुंकारी भरी जाती है उसी तरह देवी काफी समय तक हुंकारी भरती रहीं लेकिन जल्द ही उन्हें नींद आने लगी.
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उस गुफा में तोते यानी शुक का एक घोंसला भी था. घोसले में अंडे से एक तोते के बच्चे का जन्म हुआ. वह तोता भी शिव जी की कथा सुन रहा था.
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महादेव की कथा सुनने से उसमें दिव्य शक्तियां आ गईं. जब तोते ने देखा कि माता सो रही हैं. कहीं महादेव कथा सुनाना न बंद कर दें इसलिए वह पार्वती की जगह हुंकारी भरने लगा.
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महादेव कथा सुनाते रहे. लेकिन शीघ्र ही महादेव को पता चल गया कि पार्वती के स्थान पर कोई औऱ हुंकारी भर रहा है. वह क्रोधित होकर शुक को मारने के लिए उठे.
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शुक वहां से निकलकर भागा. वह व्यास जी के आश्रम में पहुंचा. व्यास जी की पत्नी ने उसी समय जम्हाई ली और शुक सूक्ष्म रूप धारण कर उनके मुख में प्रवेश कर गया.
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महादेव ने जब उसे व्यास की शरण में देखा तो मारने का विचार त्याग दिया. शुक व्यास की पत्नी के गर्भस्थ शिशु हो गए. गर्भ में ही इन्हें वेद, उपनिषद, दर्शन और पुराण आदि का सम्यक ज्ञान हो प्राप्त था.
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शुक ने सांसारिकता देख ली थी इस लिए वह माया के पृथ्वी लोक की प्रभाव में आना नहीं चाहते थे इसलिए ऋषि पत्नी के गर्भ से बारह वर्ष तक नहीं निकले.
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व्यास जी ने शिशु से बाहर आने को कहा लेकिन वह यह कहकर मना करता रहा कि संसार तो मोह-माया है मुझे उसमें नहीं पड़ना. ऋषि पत्नी गर्भ की पीड़ा से मरणासन्न हो गईं.
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भगवान श्री कृष्ण को इस बात का ज्ञान हुआ. वह स्वयं वहां आए और उन्होंने शुक को आश्वासन दिया कि बाहर निकलने पर तुम्हारे ऊपर माया का प्रभाव नहीं पड़ेगा.
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श्री कृष्ण से मिले वरदान के बाद ही शुक ने गर्भ से निकल कर जन्म लिया. जन्म लेते ही शुक ने श्री कृष्ण और अपने पिता-माता को प्रणाम किया और तपस्या के लिये जंगल चले गए.
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व्यास जी उनके पीछे-पीछे ‘पुत्र !, पुत्र कह कर पुकारते रहे, किन्तु शुक ने उस पर कोई ध्यान न दिया. व्यास जी चाहते थे कि शुक श्रीमद्भागवत का ज्ञान प्राप्त करें.
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किन्तु शुक तो कभी पिता की ओर आते ही न थे. व्यास जी ने एक युक्ति की. उन्होंने श्री कृष्ण लीला का एक श्लोक बनाया और उसका आधा भाग शिष्यों को रटा कर उधर भेज दिया जिधर शुक ध्यान लगाते थे.
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एक दिन शुकदेव जी ने भी वह श्लोक सुना. वह श्री कृष्ण लीला के आकर्षण में खींचे सीधे अपने पिता के आश्रम तक चले आए.
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पिता व्यास जी से ने उन्हें श्रीमद्भागवत के अठारह हज़ार श्लोकों का विधि वत ज्ञान दिया. शुकदेव ने इसी भागवत का ज्ञान राजा परीक्षित को दिया, जिस के दिव्य प्रभाव से परीक्षित ने मृत्यु के भय को जीत लिया.
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(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
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= पंचेन्द्रियचरित्र(मी.च. ६१-२) =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🙏 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🙏
🌷 *#श्रीसुन्दर०ग्रंथावली* 🌷
रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
https://www.facebook.com/DADUVANI
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*(ग्रन्थ ३) पंचेन्द्रियचरित्र*
*मीनचरित्र(३)=(३) श्रृंगी ऋषि की कथा*
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*अब हम तुम मिलि तहां जइये ।*
*इन कौं सुख दैं तब अइये ।*
*ॠषि चले बिलंब न कीनौं ।*
*गनिका तब कर गहि लीनौं ॥६१॥* 
अब आप और हम मिलकर इनकी बात मान कर इनके आश्रम पर भी चलें, वहाँ, कुछ दिन रहकर इनको सुख-सन्तोष देकर पुनः अपने आश्रम पर लौट आयेंगे ।" ॠषि यह सुन कर चलने को तैयार हो गये, कुछ भी देर नहीं की ! वेश्या ने तब उनका हाथ पकड़ लिया ॥६१॥ 
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*लै आई नगर मझारी ।*
*ॠषि देखा दृष्टि पसारी ।*
*ॠषि शौर सुनौ जब कानां ।*
*मन मैं उपज्यौ तब ज्ञाना१ ॥६२॥* 
(१. छन्द२५ से अन्त तक जो ऋष्यश्रृंग मुनि का चरित्र वर्णित है इसका किंचित् सार ऊपर प्रथमोपदेश के ३९ वें छन्द की टीका में दे आये हैं । यह चरित्र रामायणादि ग्रंथों में विस्तार से दिया गया है । उल्लास शब्द से यहाँ प्रकरण या आख्यायिका समझना चाहिये । 
यह ऋष्यश्रृंग मुनि का आख्यान सर्वप्रथम बाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड नवें सर्ग से ग्यारहवें सर्ग तक - सुमन्त्र सारथी ने राजा दशरथ को कहा है - उसका सार यह है - " पहिले भगवान् सनत्कुमार ॠषि ने ॠषियों से आपको पुत्र प्राप्ति के विषय में कहा था कि कश्यप ॠषि के विभाण्डक नामक सुप्रसिद्ध पुत्र है उसके ऋष्यश्रृंग नाम का पुत्र होगा । उसके पिता उसका पालन पोषण बन में ही करेंगे । वे अपने पिता के साथ बनचारी ब्राह्मण रह कर सब प्रकार के ब्रह्मचर्य व्रत धारे रहे । उन्होंने संसार का कुछ जाना ही नहीं था : वे अग्नि और पिता की सेवा में रत रहते थे । 
दैववशात् अंग देश में रोमपाद राजा के अत्याचारों से दुर्भिक्ष पड़ा, किसी उपाय से न मिटा । राजा-प्रजा महादुःखी हुये । वेदाध्ययन से बढ़े हुए ब्राह्मणों से अकाल निवारण का उपाय पूछा । तो उन लोगों ने कहा कि विभाण्डक के पुत्र ऋष्यश्रंग को किसी प्रकार बुलवाइये । 
उन वेदपारगामी महातपस्वी ऋष्यश्रृंग को परमादर से सावधानी से बुलाकर अपनी कन्या शांता को दे दो । राजा को चिन्ता हुई कि अब ऋष्यश्रृंग कैसे आवें । पुरोहित और मंत्री को लाने को कहा तो वे नीचे मुख करके रह गये । और कहा कि हम विभाण्डक से डरते हैं सो ऋष्यश्रृंग को नहीं ला सकते । 
फिर उपाय सोचा गया कि चतुर रूपवती वेश्याएँ जाकर ॠषि को अपनी चतुराई से लिवा लावैं । ऋष्यश्रृंग बन में रहकर वेद पढ़ने और तपस्या करने के सिवा कुछ नहीं जानते थे । अब वेश्याएँ सुन्दर सजावट और ठाठ से बन में गयीं और ऋष्यश्रंग मुनि के देखने का उपाय करने लगी । वह बड़े भारी धीरज-वाले मुनि ऋष्यश्रंग पिता के लाड़ प्यार से सदा संतुष्ट रहते थे इससे आश्रम से बाहर कहीं भी नहीं जाते थे । उन्होंने जन्म से लेकर अब तक कभी स्त्री नहीं देखी थी और न कुछ नगर का ही दृश्य देखा था । एक दिन ऋष्यश्रंग खेलते-खेलते वेश्याओं के स्थान तक आ गये । वहाँ उन स्त्रियों को देखा । 
वे मधुर स्वर से गाती-गाती ॠषि के पास आकर कहने लगी कि आप कौन हैं, और क्या काम करते हैं ? और इस दूर के निर्जन वन में किसलिये विचरते हैं ? ॠषि-पुत्र ने कहा "मेरा नाम ऋष्यश्रंग है, मैं विभाण्डक का पुत्र हूँ जिनका मैं औरस पुत्र हूँ । मेरा नाम पृथ्वी भर में प्रसिद्ध है । मेरा आश्रम समीप   ही है, आप वहाँ चले आप का सत्कार करूँगा ।" 
वे सब वहाँ गयी । ॠषिपुत्र ने पाद्यार्थ और फल फूल से सत्कार किया । उन्होंने अंगीकार किया, परन्तु विभाण्डक के भय से शीघ्र वहाँ से चले आने का विचार किया । ऋष्यश्रंग को बहुत उत्तम उत्तम पदार्थ खाने को दिये और उनसे आलिंगन किया । ऋष्यश्रंग ने उनको खाकर समझा कि ये भी एक प्रकार के फल है । 
फिर वेश्याएं तो वहाँ से उस दिन चली गयी । ॠषिपुत्र उनके वियोग में दुःखी रहे । दूसरे दिन वे उसी स्थान में पहुँचे । वेश्याएँ देखकर बहुत प्रसन्न हुई और ॠषिपुत्र को कहा कि आप हमारे आश्रम में पधारिये वहाँ नाना प्रकार के स्वादु पदार्थ खाने को हैं । इस पर ऋष्यश्रंग उनके साथ हो लिये । 
इस प्रकार वेश्याएँ ऋष्यश्रंग को अंग देश में लिवा लाई । वहाँ आते ही इन्द्र एक साथ जगत् को प्रसन्न करते हुये वर्षा करने लगे । राजा रोमपाद ने उनका बहुत सत्कार किया और अपने रनवास में ले जा कर अपनी कन्या शान्ता से शास्त्रविधि से विवाह कर दिया । फिर ऋष्यश्रंग अपनी पत्नी सहित अंग देश ही में रहे ॥इति॥ 
यह आख्यान भागवत, पद्मपुराण आदि में भी आया है । ॠषि को हरिणी-गर्भ-संभूत भी लिखा है । उनके सिर पर सींग भी लिखा है ॥ और उन्हें अपने शहर में ले आयी । वहाँ ॠषि ने नजर फैला कर देखा । और अपने कानों से लोगों के ताने सुने तो उनका विवेक फिर से जागृत हुआ ॥६२॥) 
(क्रमशः)

= विन्दु (२)८९ =

॥ दादूराम सत्यराम ॥
**श्री दादू चरितामृत(भाग-२)** 
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥

**= विन्दु ८९ =**

**= क्रांजली पधारना =**
शनैः शनैः ब्रह्म भजन करते हुये क्रांजली ग्राम को जा पहुँचे । फिर सेवा द्वारा संतों को सुख देने वाले रामदास और पूर्ण रूप से गुरुभाव रखने वाली राणीबाई दोनों ही अति प्रसन्न हुये । दोनों ही दादूजी के शिष्य और प्रभु के भक्त थे । रामदास और राणीबाई ने स्त्री पुरुष का संबंध छोड़ दिया था । वे दोनों प्रभु के भजन में रत्त रहते थे । उक्त भक्तों ने गुरुदेव के पधारने के उपलक्ष्य में अच्छा उत्सव मनाया था । दादूजी महाराज की आरती की और भक्ति पूर्वक सभी संतों की अच्छी सेवा की थी । रामदास राणीबाई सौ शिष्योंमें हैं । यहां ही सांगानेर का वीरम नामक भक्त दादूजी के पधारने की बात सुनकर आ गया था । उसने सप्रेम प्रार्थना की - स्वामिन् !आप सांगानेर पधार कर वहाँ के भक्तों को दर्शन तथा सत्संग से कृतार्थ करने की कृपा अवश्य करें । तब दादूजी महाराज ने स्वीकृति दे दी । फिर उसके साथ पधारे । 

**= सांगानेर पधारना =** 
सांगानेर पधारने पर वहां के भक्तों को अति हर्ष हुआ । उन वीरम आदि भक्तों की हरि में तो प्रीती थी ही फिर गुरु से भी मिलाना हो गया । इससे उनको अति आनंद की प्राप्ति हुई । सांगानेर में अच्छा सत्संग होने लगा । भक्त जनता दादूजी और उनके शिष्य संतों के दर्शन तथा सत्संग से लाभ उठाने लगी । एक दिन वीरेम हाथ जोडे हुए कुछ जिज्ञासा लेकर दादूजी के सामने बैठे थे । दादूजी ने उनको इस प्रकार बैठे देख कर तथा उनके अधिकार का विचार करके यह पद बोला - 
"सहज सहेलड़ी हे, तू निर्मल नैन निहारि, 
रूप अरूप निर्गुण अवगुण में, त्रिभुवन देव मुरारि ॥टेक॥ 
बारं बार निरख जग जीवन, इहिं घर हरि अविनाशी । 
सुन्दरि जाय सेज सुख विलसे, पूरण परम निवासी ॥ १ ॥ 
सहजैं संग परस जग जीवन, आसण अमर अकेला । 
सुन्दरि जाय सेज सुख सोवे, जीव ब्रह्म का मेला ॥ २ ॥ 
मिल आनन्द प्रीति कर पावन, अगम निगम, जहँ राजा । 
जाय तहां परस पावन को, सुन्दरि सारे काजा ॥ ३ ॥ 
मंगलाचार चहूँ दिशि रोप, जब सुन्दरि पिव पावे । 
परम ज्योति पूरे से मिलकर, दादू रंग लगावे ॥ ४ ॥ 
अपनी बुद्धि वृत्ति को निमित्त करके साक्षात्कारार्थ उपदेश कर रहे हैं - हे बुद्धि वृत्ति रूप सहेली ! तू निर्द्वन्द्व होकर संशय विपयर्य - मल रहित ज्ञान नेत्रों से त्रिभुवन के रूपवान्, अरूप, सुगुण रहित और अवगुण सभी पदार्थों में मुरारि देव को देख । वे अविनाशी हरि इस हृदय घर में ही है, उन जगजीवन को बारंबार देख । हे सुन्दरि ! ऐसा करने से तू सब विश्व में निवास करने वाले परिपूर्ण प्रभु की स्वरूपाकार शय्या पर जाकर परम सुख का उपभोग करेगी । अनायास ही जगजीवन प्रभु के संग होकर उनके स्पर्श द्वारा अद्वैत और अमर आसन प्राप्त करेगी । ऐसे जब वृत्ति सुन्दरि अद्वैत अमर शय्या पर जाकर ब्रह्मानन्द रूप निद्रा में शयन करती है, तब जीव और ब्रह्म एक हो जाते हैं । जहां वेद से अगम प्रभु शोभित हो रहे हैं, वहाँ ही पवित्र प्रीति द्वारा उनसे मिलकर आनन्द ले । वहाँ जाकर जो वृत्ति सुन्दरि पवित्र प्रभु का स्पर्श करती है, वह अपने कार्य को पूर्ण कर लेती है । जब वृत्ति सुन्दरि पवित्र प्रभु को प्राप्त करती है तब अन्तःकरण चतुष्टय रूप चारों ही दिशाओं में मंगलाचरण होने लगते हैं और वह साधक परम ज्योति स्वरूप पूर्णब्रह्म से मिलकर अन्यों के भी वही रंग लगाता है । उक्त उपदेश को सुनकर वीरम का हृदय कमल खिल गया अर्थात् अति हर्षित हुआ । 
(क्रमशः)

= परिचय का अंग =(४/३४९-५१)


卐 सत्यराम सा 卐 
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
**= परिचय का अँग ४ =** 
दादू गाँझी१ ज्ञान है, भँजन है सब लोक ।
राम दूध सब भर रह्या, ऐसा अमृत पोष ॥३४९॥
सत्संग रूप विशाल देश में, ब्रह्म ज्ञान रूप भेड़१ का निरंजन राम रूप दुग्ध ज्यों - ज्यों निकलता है अर्थात् स्वस्वरूप का बोध होता है त्यों - त्यों तुच्छ भाव सूखते जाते हैं और सत्संग में ऐसा ज्ञात होता है कि वह राम रूप दुग्ध चौदह भुवनों में परिपूर्ण भरा है तथा उसका भजन रूप पान करने से वह परमार्थ पुष्टि द्वारा मुक्ति रूप अमृत भाव को प्रदान करता है ।
दादू झूठा जीव है, गढिया१ गोविन्द बैन ।
मनसा मूँगी२ पँखि सौं, सूरज सरीखे नैन ॥३५०॥
गर्भ में गोविन्द के आगे - "मुझे बाहर निकालो, आप का भजन करूंगा" यह वचन कहता है । इसको पूर्ण न करने से जीव झूठा हो जाता है, किन्तु सत्संग के द्वारा फिर उक्त वचन को सत्य करने के लिए दृढ़ प्रति होता है और दृढ़१ भक्त के समान व्यवहार करता है । तब इसकी बुद्धि वृत्तिरूप छींटी२ के विवेक रूप पँख आते हैं उनसे असत्य को त्याग कर सत्य की ओर उड़ती है और उसके सूर्य के समान अज्ञानाँधकार को नष्ट करने वाले ज्ञान - नेत्र खुल जाते हैं । 
प्रसंग - किसी साधक ने नामदेवजी का निम्नलिखित पद सुनाकर इसका भावार्थ समझाने की प्रार्थना की थी, इसको समझाने के लिए ही ३४५ से ३५० की साखी कही गई थी । नामदेवजी का पद - 
लटके३ न बोलूँ बाप, व्रत मान२ गाढो,१
कोल्हा येवड़ा४ मोतीड़ा, मैं मँझे डोले५ देखीला६॥ टेक ॥
छेली७ बैली८ (व्याली) बाघ जैला९, माँझरिया१०(माँजरि) भय टूँडै ।
उड़त पँखि मैं लवरू पेख्या, नरली११ जे१२ ह्वै टाँडै ॥१॥
बाबलिया१३ चै षोटे१४, माँखणियाँ१५ चे पोटे१६ ।
सँखै१७ सुनहां१८ मारीला१९ तहां मींडक अभिला२० लोटे ॥२॥
अम्हे२१ जु गैला२२ ब्राट२३ देश, तहां गाँझी२४ दूध कैला२५ ।
स्रव आटे२७ गाँझीला२६ तहां चौदह राँजन२८ भरीला ॥३॥
लटक्या२९ गइया३० गढिया३१ झोलै३२, गढिया३३ येवडे३४ रोले३५ ।
उड़त पँखि मूँगी३६ पेखी, वाटी३७ जे है डोलै३८॥४॥
विष्णुदास नामदेव इमि प्रणवै, येछै जीव ची४० उकती ।
लटके आछे साँगीला,३९ ता छै मोक्ष न मुकती ॥५॥
टेक का पूरा अर्थ और शेष पाँच पदों का शब्दार्थ देते हैं, भावार्थ ३४५ - ३५० में दिया है । 
हे बाप ! मेरा यह दृढ़१ व्रत समझो२ कि मैं मिथ्या३ नहीं बोलता, मैंने मेरे भीतर के नेत्रों५ से कद्दू के बराबर४ ध्येय ब्रह्म रूप मोती देखा६ है ॥टेक॥
बकरी७ ब्याई८ है, उससे बाघ उत्पन्न हुआ९ है, वह बिल्ली१० के समान भयभीत होकर बोल रहा है (इतने का भावार्थ ३४५ में है) । 
मैंने लवरू पक्षी को उड़ते हुये देखा है, वह ऊँट११ के समान१२ बोल रहा है (इतने का भावार्थ ३४६ में है) ।
बबूल१३ वृक्ष की शाखा१४ पर मक्खन१५ की पोटलियाँ१६ लगी हैं (इतने का भावार्थ ३४७ में है) । 
शशक१७ ने श्वान१८ को मारा१९ है । जहां सर्प है, वहां ही उसे मारने की अभिलाषा२० से मेंढक लौट रहा है । (इतने का भावार्थ ३४८ में है) । 
हम२१ विशाल२३ देश में गये२२, वहां भेड़का२४ दूध संग्रह किया२५, उस भेड़ का दूध स्रवते २ विपत्ति प्रद तुच्छ२६ भाव सूखते हैं२७ हैं । उस भेड़ के दूध से चौदह बड़े - बड़े मटके२८ भरे हैं । (इतने का भावार्थ ३४९ में है ) । 
झूठा२९ हो गया३० था किन्तु अब दृढ़३१ हुआ३२ है और दृढ़३३ के समान३४ चलता३५ है । (इतने का भावार्थ ३५० के पूर्वार्ध में है) । मैंने पक्षी के समान उड़ते हुये छींटी३६ देखी है, उसके नेत्र३८ कटोरे३७ के आकार के सूर्य सम प्रकाशमान हैं । (इतने का भावार्थ ३५० के उत्तरार्ध में है) । 
विष्णु के दास नामदेव ने भगवान् को प्रणाम करके यह अपने मन की४० विचित्र बात कही है । यह मिथ्या है, ऐसा कहता३९ है उसे पापों से छुटकारा होकर मुक्ति प्राप्त नहीं होती ।
सांई दीया दत घणाँ, तिसका वार न पार ।
दादू पाया राम धन, भाव भक्ति दीदार ॥३५१॥
इति परिचय का अँग समाप्त: ॥४॥ सा - ७९८॥
परमात्मा ने हमें अपना अनुग्रह रूप दान अत्यधिक मात्रा में दिया है । उसका वार पार तो हमें दीखता ही नहीं । वह तो अपार है । उसी के प्रभाव से हमें भाव, भक्ति और परब्रह्म स्वरूप का साक्षात्कार रूप राम - धन प्राप्त हुआ है ।
इति श्री दादू गिरार्थ प्रकाशिका परिचय का अँग समाप्त: ॥४॥ 
(क्रमशः) 

बुधवार, 28 दिसंबर 2016

= १८० =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू तो आदू भये, आज काल के नाहिं ।
रामचंद्र लंका चढ़े, दादू थे दल मांहि ॥
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साभार ~ Rajnish Gupta
(((((( पंचमुखी क्यो हुए हनुमान ))))))
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लंका में महा बलशाली मेघनाद के साथ बड़ा ही भीषण युद्ध चला. अंतत: मेघनाद मारा गया. रावण जो अब तक मद में चूर था राम सेना, खास तौर पर लक्ष्मण का पराक्रम सुनकर थोड़ा तनाव में आया.
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रावण को कुछ दुःखी देखकर रावण की मां कैकसी ने उसके पाताल में बसे दो भाइयों अहिरावण और महिरावण की याद दिलाई. रावण को याद आया कि यह दोनों तो उसके बचपन के मित्र रहे हैं.
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लंका का राजा बनने के बाद उनकी सुध ही नहीं रही थी. रावण यह भली प्रकार जानता था कि अहिरावण व महिरावण तंत्र-मंत्र के महा पंडित, जादू टोने के धनी और मां कामाक्षी के परम भक्त हैं.
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रावण ने उन्हें बुला भेजा और कहा कि वह अपने छल बल, कौशल से श्री राम व लक्ष्मण का सफाया कर दे. यह बात दूतों के जरिए विभीषण को पता लग गयी. युद्ध में अहिरावण व महिरावण जैसे परम मायावी के शामिल होने से विभीषण चिंता में पड़ गए.
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विभीषण को लगा कि भगवान श्री राम और लक्ष्मण की सुरक्षा व्यवस्था और कड़ी करनी पड़ेगी. इसके लिए उन्हें सबसे बेहतर लगा कि इसका जिम्मा परम वीर हनुमान जी को राम-लक्ष्मण को सौंप दिया जाए. साथ ही वे अपने भी निगरानी में लगे थे.
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राम-लक्ष्मण की कुटिया लंका में सुवेल पर्वत पर बनी थी. हनुमान जी ने भगवान श्री राम की कुटिया के चारों ओर एक सुरक्षा घेरा खींच दिया. कोई जादू टोना तंत्र-मंत्र का असर या मायावी राक्षस इसके भीतर नहीं घुस सकता था.
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अहिरावण और महिरावण श्री राम और लक्ष्मण को मारने उनकी कुटिया तक पहुंचे पर इस सुरक्षा घेरे के आगे उनकी एक न चली, असफल रहे. ऐसे में उन्होंने एक चाल चली. महिरावण विभीषण का रूप धर के कुटिया में घुस गया.
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राम व लक्ष्मण पत्थर की सपाट शिलाओं पर गहरी नींद सो रहे थे. दोनों राक्षसों ने बिना आहट के शिला समेत दोनो भाइयों को उठा लिया और अपने निवास पाताल की और लेकर चल दिए.
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विभीषण लगातार सतर्क थे. उन्हें कुछ देर में ही पता चल गया कि कोई अनहोनी घट चुकी है. विभीषण को महिरावण पर शक था, उन्हें राम-लक्ष्मण की जान की चिंता सताने लगी.
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विभीषण ने हनुमान जी को महिरावण के बारे में बताते हुए कहा कि वे उसका पीछा करें. लंका में अपने रूप में घूमना राम भक्त हनुमान के लिए ठीक न था सो उन्होंने पक्षी का रूप धारण कर लिया और पक्षी का रूप में ही निकुंभला नगर पहुंच गये.
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निकुंभला नगरी में पक्षी रूप धरे हनुमान जी ने कबूतर और कबूतरी को आपस में बतियाते सुना. कबूतर, कबूतरी से कह रहा था कि अब रावण की जीत पक्की है. अहिरावण व महिरावण राम-लक्ष्मण को बलि चढा देंगे. बस सारा युद्ध समाप्त. 
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कबूतर की बातों से ही बजरंग बली को पता चला कि दोनों राक्षस राम लक्ष्मण को सोते में ही उठाकर कामाक्षी देवी को बलि चढाने पाताल लोक ले गये हैं. हनुमान जी वायु वेग से रसातल की और बढे और तुरंत वहां पहुंचे.
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हनुमान जी को रसातल के प्रवेश द्वार पर एक अद्भुत पहरेदार मिला. इसका आधा शरीर वानर का और आधा मछली का था. उसने हनुमान जी को पाताल में प्रवेश से रोक दिया.
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द्वारपाल हनुमान जी से बोला कि मुझ को परास्त किए बिना तुम्हारा भीतर जाना असंभव है. दोनों में लड़ाई ठन गयी. हनुमान जी की आशा के विपरीत यह बड़ा ही बलशाली और कुशल योद्धा निकला.
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दोनों ही बड़े बलशाली थे. दोनों में बहुत भयंकर युद्ध हुआ परंतु वह बजरंग बली के आगे न टिक सका. आखिर कार हनुमान जी ने उसे हरा तो दिया पर उस द्वारपाल की प्रशंसा करने से नहीं रह सके.
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हनुमान जी ने उस वीर से पूछा कि हे वीर तुम अपना परिचय दो. तुम्हारा स्वरूप भी कुछ ऐसा है कि उससे कौतुहल हो रहा है. उस वीर ने उत्तर दिया- मैं हनुमान का पुत्र हूं और एक मछली से पैदा हुआ हूं. मेरा नाम है मकरध्वज.
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हनुमान जी ने यह सुना तो आश्चर्य में पड़ गए. वह वीर की बात सुनने लगे. मकरध्वज ने कहा- लंका दहन के बाद हनुमान जी समुद्र में अपनी अग्नि शांत करने पहुंचे. उनके शरीर से पसीने के रूप में तेज गिरा.
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उस समय मेरी मां ने आहार के लिए मुख खोला था. वह तेज मेरी माता ने अपने मुख में ले लिया और गर्भवती हो गई. उसी से मेरा जन्म हुआ है. हनुमान जी ने जब यह सुना तो मकरध्वज को बताया कि वह ही हनुमान हैं.
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मकरध्वज ने हनुमान जी के चरण स्पर्श किए और हनुमान जी ने भी अपने बेटे को गले लगा लिया और वहां आने का पूरा कारण बताया. उन्होंने अपने पुत्र से कहा कि अपने पिता के स्वामी की रक्षा में सहायता करो.
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मकरध्वज ने हनुमान जी को बताया कि कुछ ही देर में राक्षस बलि के लिए आने वाले हैं. बेहतर होगा कि आप रूप बदल कर कामाक्षी कें मंदिर में जा कर बैठ जाएं. उनको सारी पूजा झरोखे से करने को कहें.
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हनुमान जी ने पहले तो मधु मक्खी का वेश धरा और मां कामाक्षी के मंदिर में घुस गये. हनुमान जी ने मां कामाक्षी को नमस्कार कर सफलता की कामना की और फिर पूछा- हे मां क्या आप वास्तव में श्री राम जी और लक्ष्मण जी की बलि चाहती हैं ?
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हनुमान जी के इस प्रश्न पर मां कामाक्षी ने उत्तर दिया कि नहीं. मैं तो दुष्ट अहिरावण व महिरावण की बलि चाहती हूं.यह दोनों मेरे भक्त तो हैं पर अधर्मी और अत्याचारी भी हैं. आप अपने प्रयत्न करो. सफल रहोगे.
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मंदिर में पांच दीप जल रहे थे. अलग-अलग दिशाओं और स्थान पर मां ने कहा यह दीप अहिरावण ने मेरी प्रसन्नता के लिए जलाये हैं जिस दिन ये एक साथ बुझा दिए जा सकेंगे, उसका अंत सुनिश्चित हो सकेगा.
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इस बीच गाजे-बाजे का शोर सुनाई पड़ने लगा. अहिरावण, महिरावण बलि चढाने के लिए आ रहे थे. हनुमान जी ने अब मां कामाक्षी का रूप धरा. जब अहिरावण और महिरावण मंदिर में प्रवेश करने ही वाले थे कि हनुमान जी का महिला स्वर गूंजा.
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हनुमान जी बोले- मैं कामाक्षी देवी हूं और आज मेरी पूजा झरोखे से करो. झरोखे से पूजा आरंभ हुई ढेर सारा चढावा मां कामाक्षी को झरोखे से चढाया जाने लगा. अंत में बंधक बलि के रूप में राम लक्ष्मण को भी उसी से डाला गया. दोनों बंधन में बेहोश थे.
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हनुमान जी ने तुरंत उन्हें बंधन मुक्त किया. अब पाताल लोक से निकलने की बारी थी पर उससे पहले मां कामाक्षी के सामने अहिरावण महिरावण की बलि देकर उनकी इच्छा पूरी करना और दोनों राक्षसों को उनके किए की सज़ा देना शेष था.
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अब हनुमान जी ने मकरध्वज को कहा कि वह अचेत अवस्था में लेटे हुए भगवान राम और लक्ष्मण का खास ख्याल रखे और उसके साथ मिलकर दोनों राक्षसों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया.
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पर यह युद्ध आसान न था. अहिरावण और महिरावण बडी मुश्किल से मरते तो फिर पाँच पाँच के रूप में जिदां हो जाते. इस विकट स्थिति में मकरध्वज ने बताया कि अहिरावण की एक पत्नी नागकन्या है.
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अहिरावण उसे बलात हर लाया है. वह उसे पसंद नहीं करती पर मन मार के उसके साथ है, वह अहिरावण के राज जानती होगी. उससे उसकी मौत का उपाय पूछा जाये. आप उसके पास जाएं और सहायता मांगे.
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मकरध्वज ने राक्षसों को युद्ध में उलझाये रखा और उधर हनुमान अहिरावण की पत्नी के पास पहुंचे. नागकन्या से उन्होंने कहा कि यदि तुम अहिरावण के मृत्यु का भेद बता दो तो हम उसे मारकर तुम्हें उसके चंगुल से मुक्ति दिला देंगे.
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अहिरावण की पत्नी ने कहा- मेरा नाम चित्रसेना है. मैं भगवान विष्णु की भक्त हूं. मेरे रूप पर अहिरावण मर मिटा और मेरा अपहरण कर यहां कैद किये हुए है, पर मैं उसे नहीं चाहती. लेकिन मैं अहिरावण का भेद तभी बताउंगी जब मेरी इच्छा पूरी की जायेगी.
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हनुमान जी ने अहिरावण की पत्नी नागकन्या चित्रसेना से पूछा कि आप अहिरावण की मृत्यु का रहस्य बताने के बदले में क्या चाहती हैं ? आप मुझसे अपनी शर्त बताएं, मैं उसे जरूर मानूंगा.
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चित्रसेना ने कहा- दुर्भाग्य से अहिरावण जैसा असुर मुझे हर लाया. इससे मेरा जीवन खराब हो गया. मैं अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलना चाहती हूं. आप अगर मेरा विवाह श्री राम से कराने का वचन दें तो मैं अहिरावण के वध का रहस्य बताऊंगी.
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हनुमान जी सोच में पड़ गए. भगवान श्री राम तो एक पत्नी निष्ठ हैं. अपनी धर्म पत्नी देवी सीता को मुक्त कराने के लिए असुरों से युद्ध कर रहे हैं. वह किसी और से विवाह की बात तो कभी न स्वीकारेंगे. मैं कैसे वचन दे सकता हूं ?
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फिर सोचने लगे कि यदि समय पर उचित निर्णय न लिया तो स्वामी के प्राण ही संकट में हैं. असमंजस की स्थिति में बेचैन हनुमानजी ने ऐसी राह निकाली कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.
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हनुमान जी बोले- तुम्हारी शर्त स्वीकार है पर हमारी भी एक शर्त है. यह विवाह तभी होगा जब तुम्हारे साथ भगवान राम जिस पलंग पर आसीन होंगे वह सही सलामत रहना चाहिए. यदि वह टूटा तो इसे अपशकुन मांगकर वचन से पीछे हट जाऊंगा.
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जब महाकाय अहिरावण के बैठने से पलंग नहीं टूटता तो भला श्रीराम के बैठने से कैसे टूटेगा ! यह सोच कर चित्रसेना तैयार हो गयी. उसने अहिरावण समेत सभी राक्षसों के अंत का सारा भेद बता दिया.
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चित्रसेना ने कहा- दोनों राक्षसों के बचपन की बात है. इन दोनों के कुछ शरारती राक्षस मित्रों ने कहीं से एक भ्रामरी को पकड़ लिया. मनोरंजन के लिए वे उसे भ्रामरी को बार-बार काटों से छेड रहे थे.
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भ्रामरी साधारण भ्रामरी न थी. वह भी बहुत मायावी थी किंतु किसी कारण वश वह पकड़ में आ गई थी. भ्रामरी की पीड़ा सुनकर अहिरावण और महिरावण को दया आ गई और अपने मित्रों से लड़ कर उसे छुड़ा दिया.
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मायावी भ्रामरी का पति भी अपनी पत्नी की पीड़ा सुनकर आया था. अपनी पत्नी की मुक्ति से प्रसन्न होकर उस भौंरे ने वचन दिया थ कि तुम्हारे उपकार का बदला हम सभी भ्रमर जाति मिलकर चुकाएंगे.
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ये भौंरे अधिकतर उसके शयन कक्ष के पास रहते हैं. ये सब बड़ी भारी संख्या में हैं. दोनों राक्षसों को जब भी मारने का प्रयास हुआ है और ये मरने को हो जाते हैं तब भ्रमर उनके मुख में एक बूंद अमृत का डाल देते हैं.
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उस अमृत के कारण ये दोनों राक्षस मरकर भी जिंदा हो जाते हैं. इनके कई-कई रूप उसी अमृत के कारण हैं. इन्हें जितनी बार फिर से जीवन दिया गया उनके उतने नए रूप बन गए हैं. इस लिए आपको पहले इन भंवरों को मारना होगा.
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हनुमान जी रहस्य जानकर लौटे. मकरध्वज ने अहिरावण को युद्ध में उलझा रखा था. तो हनुमान जी ने भंवरों का खात्मा शुरू किया. वे आखिर हनुमान जी के सामने कहां तक टिकते.
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जब सारे भ्रमर खत्म हो गए और केवल एक बचा तो वह हनुमान जी के चरणों में लोट गया. उसने हनुमान जी से प्राण रक्षा की याचना की. हनुमान जी पसीज गए. उन्होंने उसे क्षमा करते हुए एक काम सौंपा.
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हनुमान जी बोले- मैं तुम्हें प्राण दान देता हूं पर इस शर्त पर कि तुम यहां से तुरंत चले जाओगे और अहिरावण की पत्नी के पलंग की पाटी में घुसकर जल्दी से जल्दी उसे पूरी तरह खोखला बना दोगे.
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भंवरा तत्काल चित्रसेना के पलंग की पाटी में घुसने के लिए प्रस्थान कर गया. इधर अहिरावण और महिरावण को अपने चमत्कार के लुप्त होने से बहुत अचरज हुआ पर उन्होंने मायावी युद्ध जारी रखा.
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भ्रमरों को हनुमान जी ने समाप्त कर दिया फिर भी हनुमान जी और मकरध्वज के हाथों अहिरावण और महिरावण का अंत नहीं हो पा रहा था. यह देखकर हनुमान जी कुछ चिंतित हुए.
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फिर उन्हें कामाक्षी देवी का वचन याद आया. देवी ने बताया था कि अहिरावण की सिद्धि है कि जब पांचो दीपकों एक साथ बुझेंगे तभी वे नए-नए रूप धारण करने में असमर्थ होंगे और उनका वध हो सकेगा.
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हनुमान जी ने तत्काल पंचमुखी रूप धारण कर लिया. उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिंह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, आकाश की ओर हयग्रीव मुख एवं पूर्व दिशा में हनुमान मुख.
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उसके बाद हनुमान जी ने अपने पांचों मुख द्वारा एक साथ पांचों दीपक बुझा दिए. अब उनके बार बार पैदा होने और लंबे समय तक जिंदा रहने की सारी आशंकायें समाप्त हो गयीं थी. हनुमान जी और मकरध्वज के हाथों शीघ्र ही दोनों राक्षस मारे गये.
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इसके बाद उन्होंने श्री राम और लक्ष्मण जी की मूर्च्छा दूर करने के उपाय किए. दोनो भाई होश में आ गए. चित्रसेना भी वहां आ गई थी. हनुमान जी ने कहा- प्रभो ! अब आप अहिरावण और महिरावण के छल और बंधन से मुक्त हुए.
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पर इसके लिए हमें इस नागकन्या की सहायता लेनी पड़ी थी. अहिरावण इसे बल पूर्वक उठा लाया था. वह आपसे विवाह करना चाहती है. कृपया उससे विवाह कर अपने साथ ले चलें. इससे उसे भी मुक्ति मिलेगी.
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श्री राम हनुमान जी की बात सुनकर चकराए. इससे पहले कि वह कुछ कह पाते हनुमान जी ने ही कह दिया- भगवन आप तो मुक्तिदाता हैं. अहिरावण को मारने का भेद इसी ने बताया है. इसके बिना हम उसे मारकर आपको बचाने में सफल न हो पाते.
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कृपा निधान इसे भी मुक्ति मिलनी चाहिए. परंतु आप चिंता न करें. हम सबका जीवन बचाने वाले के प्रति बस इतना कीजिए कि आप बस इस पलंग पर बैठिए बाकी का काम मैं संपन्न करवाता हूं.
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हनुमान जी इतनी तेजी से सारे कार्य करते जा रहे थे कि इससे श्री राम जी और लक्ष्मण जी दोनों चिंता में पड़ गये. वह कोई कदम उठाते कि तब तक हनुमान जी ने भगवान राम की बांह पकड़ ली.
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हनुमान जी ने भावा वेश में प्रभु श्री राम की बांह पकड़कर चित्रसेना के उस सजे-धजे विशाल पलंग पर बिठा दिया. श्री राम कुछ समझ पाते कि तभी पलंग की खोखली पाटी चरमरा कर टूट गयी.
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पलंग धराशायी हो गया. चित्रसेना भी जमीन पर आ गिरी. हनुमान जी हंस पड़े और फिर चित्रसेना से बोले- अब तुम्हारी शर्त तो पूरी हुई नहीं, इसलिए यह विवाह नहीं हो सकता. तुम मुक्त हो और हम तुम्हें तुम्हारे लोक भेजने का प्रबंध करते हैं.
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चित्रसेना समझ गयी कि उसके साथ छल हुआ है. उसने कहा कि उसके साथ छल हुआ है. मर्यादा पुरुषोत्तम के सेवक उनके सामने किसी के साथ छल करें यह तो बहुत अनुचित है. मैं हनुमान को श्राप दूंगी.
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चित्रसेना हनुमान जी को श्राप देने ही जा हे रही थी कि श्री राम का सम्मोहन भंग हुआ. वह इस पूरे नाटक को समझ गये. उन्होंने चित्रसेना को समझाया- मैंने एक पत्नी धर्म से बंधे होने का संकल्प लिया है. इस लिए हनुमान जी को यह करना पड़ा. उन्हें क्षमा कर दो.
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क्रुद्ध चित्रसेना तो उनसे विवाह की जिद पकड़े बैठी थी. श्री राम ने कहा- मैं जब द्वापर में श्री कृष्ण अवतार लूंगा तब तुम्हें सत्यभामा के रूप में अपनी पटरानी बनाउंगा. इससे वह मान गयी.
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हनुमान जी ने चित्रसेना को उसके पिता के पास पहुंचा दिया. चित्रसेना को प्रभु ने अगले जन्म में पत्नी बनाने का वरदान दिया था. भगवान विष्णु की पत्नी बनने की चाह में उसने स्वयं को अग्नि में भस्म कर लिया.
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श्री राम और लक्ष्मण, मकरध्वज और हनुमान जी सहित वापस लंका में सुवेल पर्वत पर लौट आये. (स्कंद पुराण और आनंद रामायण के सारकांड की कथा)
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(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
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