मंगलवार, 30 जून 2015

卐 सत्यराम सा 卐
इस हस्त लिखित वाणी को पं. श्री जोसी श्री तुलसीदास जी ने अपने चिरंजीवी जोसी श्री प्रेमजी के पठनार्थ कच्छ के भुज नगर में, श्री कांनजी त्रिकम जी पंड्या से लिखवाया । श्री कांनजी भाई ने वि. सं. १८१०, वैशाख मास, शुक्ल पक्ष, नवमी तिथि, को इसे लिखकर पूर्ण किया | उस समय लिखित इस वाणीजी का शब्द संयोजन एवं साखी क्रम आज उपलब्ध वाणीजी से किंचित भिन्न है, श्रद्दालुजनों की सुविधा हेतु निम्नलिखित सटीक वाणी आज उपलब्ध "दादूवाणी"(टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान) से ली गई है । 
वर्तमान में वड़ोदरा से श्री हर्षद भाई कडिया ने अत्यंत हर्ष एवं श्रद्धापूर्वक इस हस्त लिखित वाणी जी को हम सब के लिए उपलब्ध कराया |

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(परिचय का अंग ४)

राम रटन छाड़े नहीं, हरि लै लागा जाइ ।
बीचैं ही अटके नहीं, कला कोटि दिखलाइ ॥ 
उत्तम साधक राम नाम की रटन को नहीं छोड़ता । माया यदि बीच में अपनी चमत्कारमयी ऋद्धि - सिद्धि आदि कोटिन कला दिखाकर रोकना चाहे तो भी वह नहीं रुकता और अपनी वृत्ति निरन्तर हरि में लगाता हुआ ब्रह्म साक्षात्कार के लिए बढ़ता ही जाता है ।

जैसे नैना दोइ हैं, ऐसे हूंहिं अनन्त ।
दादू चँद चकोर ज्यों, रस पीवें भगवँत ॥ 
जैसे दो नेत्र हैं, वैसे ही अनन्त होवें तो जिस प्रकार चकोर पक्षी चन्द्रमा का दर्शन - रस पान करता है, वैसे ही हम अनन्त नेत्रों द्वारा भगवद् - दर्शन - रस का पान कर सकें ।

राता माता राम का, मतिवाला मैमँत१ ।
दादू पीवत क्यों रहे, जे जुग जाँहि अनन्त ॥ 
राम के स्वरूप में रत, राम का स्मरण करके मस्त हुआ बुद्धिमान् सँत, राम प्रेम के प्रभाव से देहादिक की सुध न रहने पर बेसुध१ हुआ भी राम चिन्तन - रस पान करता ही रहता है । यदि अनन्त युग व्यतीत हो जायं तो भी वह उक्त रस पान करने से नहीं थकता ।

तन गृह छाड़ै लाज पति१, जब रस माता होइ ।
जब लग दादू सावधान, कदे न छाड़ै कोइ ॥ 
जब तक साँसारिक व्यवहार चातुर्य में सावधान है तब तक देहाध्यास रूप तन, लज्जा और कुल परँपरागत मर्यादा रूप घर की लज्जा१ कभी भी कोई नहीं छोड़ सकता किन्तु जब भगवद् भजनानन्द - रस मेँ मस्त हो जाता है, तब उक्त तन और घर की लज्जा सहज ही छोड़ देता है ।

आंगण एक कलाल के, मतवाला रस माँहि ।
दादू देख्या नैन भर, ताके दूविधा नाँहिँ ॥ 
जैसे कलाल के घर के चौक में मदिरा पान करके मतवाले हो जाते हैं, तब नेत्र भरके देखने पर भी उन्हेँ अपने पराये का भेद नहीं भासता, वैसे ही ब्रह्म के समाधि - आंगन में जाकर ब्रह्म चिन्तन - रस पान से मस्त हुआ ज्ञान - नेत्रों से तृप्त होकर जब ब्रह्म को देखता है, तब उसे ब्रह्म अपने से अभिन्न एक ही भासता है, उसके हृदय में द्वैत रूप दूविधा नहीं रहती ।

चिड़ी चँचु भर ले गई, नीर निघट नहिं जाइ । 
ऐसा बासण ना किया, सब दरिया माँहि समाइ ॥ ३३१ ॥
समुद्र से चिड़िया अपनी चँचु जल से भर ले जाती है तब समुद्र का जल घट नहीं जाता और ऐसा पात्र भी सृष्टि - कर्त्ता ने नहीं रचा है, जिसमें सब समुद्र समा जाय, इसी प्रकार ब्रह्म अगाध है । उसका चिन्तन करके कबीर तृप्त हो गये, किन्तु ब्रह्म ज्यों का त्यों है । यह साखी अकबर बादशाह के इस साखी के सुनाने पर कही थी -
“तन मटकी मन मही, प्राण विलोवणहार । 
तत्त कबीरा ले गया, छाछ पिये सँसार ।” 

दादू अमली राम का, रस बिन रह्या न जाइ । 
पलक एक पावे नहीं, तो तबहि तलफ मर जाइ ॥ 
जो राम भजन - रस का सच्चा व्यसनी है, उससे भजन - रस बिना नहीं रहा जाता । यदि एक क्षण भी भजन - रस से वँचित रहे तो जल बिना मच्छी के समान तड़फ - तड़फ कर तत्काल ही मर जाता है । 

दादू राता राम का, पीवे प्रेम अघाइ । 
मतवाला दीदार का, मांगे मुक्ति बलाइ१ ॥ 
जो राम - भक्त राम में रत हो राम - प्रेम - रस को तृप्त होकर पीता है और राम के साक्षात्कार - जन्य आनन्द में मस्त रहता है, वह सालोक्यादि मुक्तियों को दु:ख१ रूप समझता है और कैवल्य रूप आप ही हो जाता है । अत: वह मुक्ति नहीं माँगता ।

उज्ज्वल भंवरा हरि कमल, रस रुचि बारह मास ।
पीवे निर्मल वासना, सो दादू निज दास ॥ 
जैसे भ्रमर रुचि पूर्वक कमल के वास - रस का पान करता है, वैसे ही जिसका शुद्ध मन हरि - दर्शन करके भी बारह मास ही प्रेमपूर्वक हरि की निर्मल भक्ति करता है, वही भगवान् का निजी भक्त कहलाता है ।

परिचय पीवे राम रस, राता सिरजनहार ।
दादू कुछ व्यापे नहीं, ते छूटे सँसार ॥ 
जो परब्रह्म राम के साक्षात्कार रूप - रस - पान में अनुरक्त हैं, उन पर काम - क्रोधादिक आसुरी गुण कुछ भी असर नहीं कर सकते, वे सदा के लिए सँसार से मुक्त हो जाते हैं ।

तन मन वृक्ष बबूल का, काँटे लागे शूल१ ।
दादू माखण ह्वै गया, काहू का अस्थूल२ ॥
मन, बुद्धि, इन्द्रियादि शरीर ही बबूल का वृक्ष है, बुरे सँकल्प, बुरे विचार, सँशय और निषिद्ध - विषय - सेवन ही इसके दुखद१ कंटक लगे हैं, किन्तु किसी साधक के साधन द्वारा स्थूल२ शरीर में रहने वाले उक्त कंटक भी शुभ सँकल्प, ब्रह्म विचार, असँशय और विहित विषय - सेवन रूप मक्खन भाव को प्राप्त हो जाते हैं और जैसे मक्खन सुखद होता है, वैसे ही उक्त प्रकार से परिवर्तित मन: प्रवृत्तियाँ ब्रह्मानन्द प्राप्ति का सुगम व सुखद साधन बन जाती है ।

(जरणा का अंग ५)

को साधू राखे राम धन, गुरु बाइक१ वचन विचार ।
गहिला दादू क्यों रहे, मरकत हाथ गंवार ॥ 
जरणा का अधिकारी बता रहे हैं - कोई विरला साधु पुरुष ईश्वर दूत - गुरु वचनों१ के विचार से प्राप्त राम - भजन - धन को सँचय करके गुप्त रूप से रख सकता है । जैसे मूर्ख के हाथ में मरकत - मणि आने पर भी वह उसे नहीं रख सकता, अल्प मूल्य में ही बेच देता है, वैसे ही बुद्धिहीन व्यक्ति राम - भजन - धन को सिद्धि तथा प्रतिष्ठा - रूप अल्प - मूल्य में ही खो देता है, पचाकर मुक्ति रूप महान् मूल्य प्राप्त नहीं कर सकता ।

दादू मन ही माँहीँ समझ कर, मन ही माँहि समाइ ।
मन ही माँहीं राखिये, बाहर कह न जनाइ ॥ 
जरणा करने की प्रेरणा कर रहे हैं - साधको ! विचार पूर्वक भगवत् तत्व को मन में ही समझ कर मनोनिग्रह द्वारा बुद्धि - वृत्ति को उसमें ही लीन करो और उससे होने वाले अनुभव को भी मन में ही रक्खो, वाणी द्वारा मन से बाहर निकाल कर अनधिकारियों को मत कहो ।

कह कह क्या दिखलाइये, सांई सब जाने ।
दादू परकट का कहै, कुछ समझ सयाने ॥ 
हे चतुर साधक ! तेरे कायिक, वाचिक और मानसिक शुभाशुभ सभी कार्यों को तथा तेरी सभी परिस्थितियों को ईश्वर तो तेरे हृदय में स्थित होने से प्रत्यक्ष रूप से जानते ही हैं, उन्हें तो कहना ही क्या है ? और लोगों को बारँबार कह - कह कर दिखाने से लाभ ही क्या है ? कुछ समझ से काम ले, लोगों को बारँबार कहने से अपने कथन किये हुए सुकृत का नाश होता है । अत: गुप्त ही रखना चाहिए ।

लै विचार लागा रहे, दादू जरता जाइ ।
कबहूं पेट न आफरे, भावे तेता खाइ ॥
जरणा करने की पद्धति बता रहे हैं - जैसे भूख के अनुसार पथ्य भोजन करने से कभी भी पेट नहीं आफरता, सब पच जाता है, वैसे ही भजनादि साधन जन्य लाभ, बहिर्मुख मनुष्यों को कहने से हानि होती है और गुप्त रखने से सफलता मिलती है, ऐसे विचार द्वारा नम्रतापूर्वक वृत्ति भजन में ही लगावे रक्खे तो भजनानन्द पच जायगा । कभी भी अहँकार द्वारा वर, शापादि से नष्ट न हो सकेगा ।

अजर जरे रस ना झरे, पीवत थाके नाँहिं ।
दादू सेवक सो भला, भर राखे घट माँहिं ॥ 
सर्व साधारण जिसको धारण न कर सके, ऐसे ब्रह्म ज्ञान को धारण करे, ब्रह्म - ज्ञान - रस को हृदय से लवमात्र भी दूर न होने दे और ज्ञानी सन्तों से ज्ञानामृत - रस के पान करने में थके नहीं, ज्ञानोपदेश श्रवण करता ही रहे । परिपूर्ण रूप से अन्त:करण में अद्वैत भावना रक्खे, वही सेवक अच्छा माना जाता है ।

= ४२ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू एक बेसास बिन, जियरा डावांडोल ।
निकट निधि दुःख पाइये, चिंतामणि अमोल ॥
दादू बिन बेसासी जीयरा, चंचल नांही ठौर ।
निश्चय निश्चल ना रहै, कछू और की और ॥
सांई सत संतोष दे, भाव भक्ति विश्वास ।
सिदक सबूरी साँच दे, माँगे दादू दास ॥
दादू हौं बलिहारी सुरति की, सबकी करै सँभाल ।
कीड़ी कुंजर पलक में, करता है प्रतिपाल ॥
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साभार ~ Rp Tripathi ~
**ऊर्जा :: ह्रास और विकास :: एक संक्षिप्त परिचर्चा**
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यदि एक शब्द में उत्तर देना हो कि, ऊर्जा का सर्वाधिक ह्रास और विकास किससे होता है ? तो इसका उत्तर है - "चिंता" !! चिंता के उदय होने से, ऊर्जा का सर्वाधिक ह्रास होता है, और चिंता के अस्त होने से, ऊर्जा का सर्वाधिक विकास !!
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इसलिए तो कहा जाता है कि :-
चिंता, चिता से भी ज्यादा भयानक है, क्योंकि इसमें, चिता से, एक बिंदी ज्यादा है !! चिता तो मृत शरीर को जलाती है, परन्तु चिंता तो जिन्दा शरीर को ही, इतना ऊर्जाहीन(हतोत्साहित/क्रोधित) कर देती है कि वह, मृत शरीर से भी ज्यादा, स्वयं और दूसरों के लिए, कष्ट - दायी बन जाता है !!
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हतोत्साहित/क्रोधित व्यक्ति के अंतर्मन में, अक्सर कुछ इस तरह का नकारात्मक अंतर्लाप चलता रहता है कि - आह ! मेरा समय कितना खराब है ? मैं जिस काम को हाथ लगाता हूँ, असफल हो जाता हूँ !! मैं किसी काम का नहीं हूँ !! पता नहीं, मैं इतना दुर्भाग्यशाली क्यों हूँ ? अब मेरा क्या होगा ? आदि आदि !!
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और सबसे दुःखद स्थित यह होती है कि - इन विचारों पर उसका कोई नियंत्रण नहीं होता, अर्थात, वह उन्हें अपनी मर्जी से रोक नहीं पाता है !! उसकी स्थिति लगभग ऐंसी होती है, जैंसे ढलान पर दौड़ रही कोई कार, जिसका ब्रेक खराब हो गया हो !!
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दूसरे शब्दों में, चिंता-शील व्यक्ति - ना सिर्फ जीवित अवस्था में नर्क के कष्ट भोगता है, वरन यदि हम यह कहें कि ऐसा व्यक्ति तो, अपने अंदर ही एक नर्क लिए घूमता है, तो कोई अतिस्योक्ति नहीं होगी !! क्योंकि वह जहाँ भी जाता है, अपने साथ, नर्क ही ले जाता है !!
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अर्थात, वह जब भी वार्तालाप करता है, तो उसके पास, शिकवा - शिकायत के सिवाय, कुछ अन्य होता ही नहीं !! और चूंकि वह, जिन्दा रहते नर्क में रहता है, तो मरने बाद तो, नर्क में जाता ही है !!
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और सबसे आश्चर्य जनक बात तो यह होती है कि वह व्यक्ति - इस नर्क (चिंता/क्रोध) का, इतना आदी हो चुका होता है कि, यदि कोई उसे, इन्हें (चिंता/क्रोध आदि को) छोड़ने का कहे, अर्थात उसे स्वर्ग के भी दर्शन कराना चाहे, तो वह उसी तरह, और अधिक वैचैन हो उठता है, जैसे, शराब/सिगरेट या ड्रग्स के आदी व्यक्ति को, यदि कोई इन्हें छोड़ने को कहे ? और सिर्फ वैचैन ही नहीं होता, वरन उनके फायदे भी गिनाने लगता है !!
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इसके दुष्परिणामों की अधिक व्याख्या ना करते हुए, यदि हम व्यक्तियों से, सिर्फ यह जानना चाहें कि, यह चिंता क्या है ? तो हमें इसके बहुत ही आश्चर्य-जनक उत्तर मिलते है - लोग एक दुसरे से पूर्णतः बिरोधी कारणों की, एक बहुत बड़ी सूची पकड़ाने लगते हैं !! उदाहरणार्थ -
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कोई विवाहित है तो दुखी है, कोई अविवाहित है तो दुखी है !! कोई निःसंतान है तो दुःखी है, कोई संतान से दुःखी है !! कोई नौकरी ना मिलने से दुःखी है; तो कोई नौकरी से दुःखी है; आदि आदि !! और सबसे अधिक आश्चर्य तो तब होता है, जब एक ही व्यक्ति, एक समय में, जिसके अभाव से दुःखी था, दूसरे समय में वही व्यक्ति, उसी की उपलब्धि से दुखी हो जाता है !!
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परन्तु जब हम इस विषय में, थोड़ी सी भी गहराई से चिंतन करते हैं, तो पाते हैं कि - व्यक्ति ने, चिंता या दुःख का कारण, बाह - जगत को मान रखा है, जो सर्वदा अनुचित है !! चिंता या दुःख का कारण, बाह्य जगत के पदार्थ, घटनाएँ या व्यक्ति नहीं हैं, वरन वह है -
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उन व्यक्तियों की, किसी घटना, पदार्थ या व्यक्ति, आदि के प्रति, उनकी अपनी-अपनी, व्यक्तिगत प्रतिक्रियायें !! कोई भी परिस्थिति, व्यक्ति को, चिंतित करती है या नहीं ? यह इस बात पर निर्भर है कि वह व्यक्ति, उस स्थिति के प्रति, किस तरह से अपनी व्यक्तिगत प्रतिक्रिया व्यक्त करने का, निर्णय लेता है !!
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जिस व्यक्ति का व्यक्तित्व, दूसरों के प्रमाण-पत्रों पर खड़ा है, अर्थात जो जीवन में दूसरों से - अच्छे पति या पत्नी, अच्छे कर्मचारी, अच्छे पड़ोसी, अच्छे मित्र, आदि के प्रमाणपत्र इकट्ठे करने में व्यस्त है, वह तो चिंता से कभी मुक्त, हो ही नहीं सकता; क्योंकि उसने तो अपना बाल-सुलभ, आत्म-विश्वास ही खो दिया है !!
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क्योंकि, बच्चे के रूप में, कभी किसी व्यक्ति ने यह नहीं सोचा कि - लोग उसके बारे में क्या सोचेंगे ? बच्चा तो दृढ़ता से, आत्म-केंद्रित हो कार्य करता है !! बच्चा, मनसा-वाचा-कर्मणा वही करता है, जो उसकी अंतरात्मा, उसे करने की प्रेरणा देती है !! वह इतना आत्म-संतुष्ट होता है कि वह कभी, दूसरों के प्रमाणपत्र की अपेक्षा नहीं रखता !! इस कारण वह कभी चिंतित नहीं रहता, और "सबसे बड़ा पाप, क्या कहेंगे आप ?" से, सदैव मुक्त रहता है !!
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यदि हम बच्चे के रूप में, व्यक्ति की मनोचेतना की थोड़ी और गहराई में जायें ? तो हमें पता चलता है कि, बच्चा अंदर से प्रसन्न हो, बाहर प्रसन्नता बिखेरता है !! वह पूर्णतः वर्तमान में जीता है !! उसके वर्तमान में जीने को, यदि हम और अधिक स्पष्टता से समझना चाहें ? तो कुछ इस तरह से समझ सकते हैं -
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मानलो एक बच्चा और एक वयस्क, दोनों एक साथ, किसी पिकनिक पर जाते हैं !! तो बच्चा तो, जो वस्तु सामने है, उसमें पूर्णतः खो जायेगा; उसका वर्तमान में ही भरपूर आनंद लेगा !!
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परन्तु वयस्क, किसी दृश्य को देखकर, या तो उसे कैमरे में कैद करने में अपना वर्तमान समय व्यतीत करने लगेगा, जिससे वह उसे, स्मृति(भूत/मृत) बना कर, भविष्य में उससे प्रसन्नता हासिल कर सके !! या किसी खिले फूल को देखकर, पुरानी स्मृतियों में खो जायेगा, जब किसी ने उसे इस तरह का फूल भेंट किया था !! यदि सुखद स्मृति है, तो वर्तमान फूल को छोड़, पुनः भूत(मृत/स्मृति) से सुखी होगा, और यदि दुखद स्मृति है, तो पिकनिक के सौन्दर्यतम वातावरण में भी वह दुखी रहेगा !!
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यदि इस विषय पर हम, थोड़ी और गहराई से चिंतन करें तो पाएंगे कि :- बच्चे के रूप में हम, अधिक पूर्णता/संतुष्टि की स्थिति में जीवन यापन करते है !! अपनी आवश्यकताओं के लिए निश्चित रहते हैं कि -
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जिस ईस्वर ने मुझे पैदा किया है, जिस तरह उसने मेरे शरीर के संरक्षण के लिए, प्रथम माँ की कोख दी, बाद में माँ का दूध, और माता-पिता द्वारा भोजन और खिलोने आदि, तो बाद में भी वही परमात्मा, समय-समय पर मुझे, जो मेरे लिए उचित होगा, उपलब्ध कराता रहेगा !! मेरा तो सिर्फ एक ही कार्य है, पूर्ण संतुष्टि से, पूर्ण विश्वास से, पूर्ण खिले हुए चेहरे से, जीवन-यापन करना !!
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परन्तु, जैंसे जैंसे हम वयस्क होते हैं, वैंसे वैंसे हम, ईस्वर की कृपा को भूलते जाते हैं, जब तक कि हम पर कोई, गहरा आघात ना आ जाए ? और फिर हमें फिर पुनः ज्ञात होता है कि - हम जानें या ना जानें, मानें या ना मानें, हमारे जीवन की प्रथम स्वांश से लेकर अंतिम स्वांश तक, वही परमात्मा हमें उपलब्ध करा रहा है, अतः हमें जरूरत है, पुनः बालवत स्वभाव में जीवन-यापन करने की !!
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बहुत संक्षेप में - हमें जरूरत है, ईस्वर की कृपा के प्रति जागरूक रह, निश्चिंतता और प्रसन्नता से, जीवन-यापन करने की !! प्रत्येक स्वांश को, पूर्ण संतुष्टि के साथ लेने की !! और हम यदि हम, यह एक ही पुरुषार्थ कर सकें ? अर्थात, सिर्फ पूर्ण संतुष्टि के भाव में स्थित हो, स्वांश लेने का पुरुषार्थ कर सकें ? तो चिंता हमारे जीवन से, उसी तरह दूर हो जाती है, जैंसे सूर्य के उदय होने पर, अँधेरा !!
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और इस पुरुषार्थ को सम्पादित करने के लिए, हमें कोई अलग से समय निकालने, या अलग से कोई, विधि भी अपनाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि हम स्वांश लेते-लेते ही कार्य करते हैं !! यदि स्वांश लेना रूक जाए ? तो, प्राण-वायु रुपी ऊर्जा के मूल स्रोत्त के अनुपस्थित होते ही, हमारे शरीर की अन्य सभी गतिविधियाँ, अपना संचलन बंद कर देती हैं, जिससे सम्पूर्ण शरीर, ऊर्जा-विहीन हो जाता है !! अतः हमें जरूरत है सिर्फ :- परमात्मा की कृपा से प्राप्त हो रहीं, इन अमूल्य - स्वांशों को, पूर्ण संतुष्टि के भाव से लेने की !!
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संतुष्टि के भाव से ली गईं स्वांशों से, इतनी ऊर्जा संचित हो जाती है कि -
हमारे सभी कार्य, सहजता से संपन्न होने लगते हैं !! और यदि हमारी यह वर्तमान स्वांश, जीवन की अंतिम स्वांश भी हो, तो भी इसे, 100% संतुष्टि के भाव से लेंने से, हमारा मरण भी, सुमरण(सु : अर्थात, अच्छा मरण) हो जाता है !! क्योंकि परमात्मा पर, श्रद्धा-विश्वास का मार्ग(भक्ति-मार्ग) इतना अनोखा है कि, इस पर चलकर प्रभु बाद में मिलेंगे ऐसा नहीं है, इस पर तो पहला कदम रखते ही, प्रभु साथ हो जाते हैं !!
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अतः पहली ही स्वांश, पूर्ण संतुष्टि के भाव से भरपूर हो, लेकर तो देखें मित्रो और फिर अनुभव करें - किस तरह चिंता - क्रोध आदि विकार, नष्ट होते है, अर्थात इन विकारों में नष्ट हो रही हमारी ऊर्जा का, संरक्षण होता है ? और फिर इस आलेख की सत्यता पर, अपने बहुमूल्य सुझाव लिखें !!
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********ॐ कृष्णम् वन्दे जगत गुरुम********

= ४१ =

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卐 सत्यराम सा 卐
किहिं मारग ह्वै आइया, किहिं मारग ह्वै जाइ ।
दादू कोई ना लहै, केते करैं उपाइ ॥
शून्य हि मार्ग आइया, शून्य हि मारग जाइ ।
चेतन पैंडा सुरति का, दादू रहु ल्यौ लाइ ॥
दादू पारब्रह्म पैंडा दिया, सहज सुरति लै सार ।
मन का मारग मांहि घर, संगी सिरजनहार ॥
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साभार : Anand Zen ~

One of the great Sufi Masters, Junaid, was asked when he was dying. His chief disciple came close to him and asked, "Master, beloved Master, you are leaving us. One question has always been in our minds, but we could never gather courage enough to ask you. And now that you are leaving there will be no more opportunity to ask, so all the disciples have forced me to come to you and ask. Who was your Master? This has been always a great curiosity amongst your disciples because we have never heard you talk about your Master."
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Junaid opened his eyes and said, "It will be very difficult for me to answer because I have learned from almost everybody. The whole existence has been my Master. I have learned from every event that has happened in my life and I am grateful to all that has happened, because out of all that learning I have arrived. But I had not any single Master. I was not so fortunate as you are," Junaid said to them. "You have a Master."
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I can understand Junaid because this has been the case with me too. I never had any Master; you are far more fortunate. I had to learn the hard way: from every experience, from every event, from every person I came across. But it has been an immensely rich journey.
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Junaid said, "Just to satisfy your curiosity I will give you three instances. One: I was very thirsty and I was going towards the river carrying my begging bowl, the only possession I had. When I reached the river a dog rushed, jumped into the river, and started drinking.
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"I watched for a moment and threw away my begging bowl, because it is useless - a dog can do without it. I also jumped into the river, drank as much water as I wanted. My whole body was cool because I had jumped into the river, sat in the river for a few moments, thanked the dog, and touched his feet with deep reverence, because he has taught me a lesson. I had dropped everything, all possessions, but there was a certain clinging to my begging bowl. It was a beautiful bowl, very beautifully carved, inlaid with gold. It was presented to me by a king and I was always aware that somebody may steal it. Even in the night I used to put it under my head as a pillow so nobody can snatch it away. That was my last clinging - the dog helped. It was so clear: if a dog can manage without a begging bowl, I am a man, why can't I manage? That dog was one of my Masters.
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"Secondly," he said, "I lost my way in a forest and by the time I reached the village, the nearest village that I could find, it was midnight. Everybody was fast asleep. I wandered all over the town to see if I could find somebody awake to give me shelter for the night. I could only find a thief who was searching to find some house to enter.
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"I asked the thief, 'It seems only two persons are awake in the town, you and I. Can you give me shelter for the night?'
"The thief said, 'I can see from your gown that you are a Sufi monk....' "
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The word "Sufi" comes from suf; suf means wool, a woolen garment. The Sufis have used the woolen garment for centuries; hence they are called Sufis because of their garment. Just as you are called in the world "the orange people," they are called the Sufis.
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The thief said, "I can see you are a Sufi and I feel a little embarrassed to take you to my home. I am perfectly willing, but I must tell you who I am. I am a thief. Would you like to be a guest of a thief?"
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For a moment Junaid hesitated. The thief said, "Look, it is better I told you. You seem hesitant. The thief is willing, but the mystic seems to be hesitant to enter into the house of a thief, as if the mystic is weaker than the thief. I am not afraid of you. In fact, I should be afraid of you - you may change me, you may transform my whole life! Inviting you means danger, but I am not afraid. You are welcome. Come to my home. Eat, drink, go to sleep, and stay as long as you want, because I live alone and my earning is enough. I can manage for two persons. And it will be really beautiful to chit-chat with you of great things. But you seem to be hesitant."
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And Junaid became aware that that was true. He asked to be excused. He touched the feet of the thief and he said, "Yes, my rootedness in my own being is yet very weak. You are really a strong man and I would like to come to your home. And I would like to stay a little longer, not only for this night. I want to be stronger myself!"
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The thief said, "Come on!" He fed the Sufi, gave him something to drink, helped him to go to sleep, and he said, "Now I will go. I have to do my own thing. I will come early in the morning." Early in the morning the thief came back.
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Junaid asked, "Have you been successful?"
The thief said, "No, not today, but I will see tomorrow."
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And this happened continuously for thirty days; every night the thief went and every morning he came back, but he was never sad, never frustrated, no sign of failure on his face, always happy, and he would say, "It doesn't matter.
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I tried my best. I could not find anything today again, but tomorrow I will try. And, God willing, it can happen tomorrow if it has not happened today."
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After one month Junaid left, and for years he tried to realize the ultimate, but it was always failure. But each time he decided to drop the whole project he was reminded of the thief, his smiling face and his saying "God willing, what has not happened today may happen tomorrow."
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And finally when he achieved the ultimate, Junaid said, "I remembered the thief as one of my greatest Masters. Without him I would not be what I am.
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"And third," he said, "I entered into a small village. A little boy was carrying a candle, a lit candle, obviously going to the small temple of the town to put the candle there for the night.
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And Junaid asked, "Can you tell me from where the light comes? You have lighted the candle yourself so you must have seen. From where does the light come? What is the source of light?"
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The boy laughed and he said, "Wait!" And he blew out the candle in front of Junaid. And he said, "You have seen light gone. Can you ten me where it has gone? If you can tell me where it has gone I will tell you from where it has come, because it has gone to the same place. It has returned to the source."
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And Junaid said, "I had met great philosophers, but nobody had made such a beautiful statement: 'It has gone to its very source.' Everything returns to its source finally.
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"And secondly, the child made me aware of my own ignorance. I was trying to joke with the child, but the joke was on me. He showed to me that asking foolish questions: 'From where has the light come?' is not intelligent. It comes from nowhere, from nothingness, and goes back to nowhere, to nothingness."
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Junaid said, "I touched the feet of the child. The child was puzzled. He said, 'Why you are touching my feet?' And I told him, 'You are my Master - you have shown me something. You have given me a great lesson, a great insight.
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"Since that time," Junaid said, "I have been meditating on nothingness, and slowly I have entered into nothingness. And now the final moment has come when the candle will go out, the light will go out. And I know where I am going - to the same source.
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"I remember that child with gratefulness. I can still see him standing before me blowing out the candle."
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And Junaid asked, "Can you tell me from where the light comes? You have lighted the candle yourself so you must have seen. From where does the light come? What is the source of light?"
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The boy laughed and he said, "Wait!" And he blew out the candle in front of Junaid. And he said, "You have seen light gone. Can you ten me where it has gone? If you can tell me where it has gone I will tell you from where it has come, because it has gone to the same place. It has returned to the source."
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And Junaid said, "I had met great philosophers, but nobody had made such a beautiful statement: 'It has gone to its very source.' Everything returns to its source finally.
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OSHO —

२६ . बिचार को अंग ~ ६

#‎daduji‬
|| श्री दादूदयालवे नमः ||
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*= २६. बिचार को अंग =*
*क्षीण रु पुष्ट शरीर कौ धर्म जु,* 
*शीत हू उष्ण जरा मृति ठांनै ।* 
*भूख तृषा गुन प्रांन कौ व्यापत,* 
*शोक रु मोह उभै मन आंनै ॥* 
*बुद्धि बिचार करै निशि बासरि,* 
*चित्त चितै सु अहं अभिमांनै ।* 
*सर्व कौ प्रेरक सर्व कौ साक्षी हु,* 
*सुन्दर आपु कौं न्यारौ ही जांनै ॥६॥* 
कभी क्षीण होना, कभी बलवान् होना - यह शरीर का धर्म(स्वभाव) है । शीत ताप, ज़रा मृत्यु - अपमे अपने समय पर आती रहती हैं । 
भूख एवं प्यास - ये प्राण के धर्म हैं । तथा शोक एवं मोह - ये मन के धर्म है । निरन्तर किसी वस्तु पर विचार करना - यह वुद्धि का धर्म है । 
चित का चिन्तन करना धर्म है तथा अहंकार का अभिमान धर्म है । 
परन्तु *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - उन सभी का प्रेरक एवं इन सभी का साक्षी तत्त्व आत्मा इन सब से पृथक् ही है - ऐसा समझाना चाहिये ॥६॥ 
(क्रमशः)

*शिष्य बड़े बोहितदास(१)*

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ त्रयोदश बिंदु ~*
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*शिष्य बड़े बोहितदास(१) -*
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एक दिन आमेर में एक बोहित नामक सज्जन दादूजी के दर्शन करने आये और प्रणाम करके दादूजी के सामने बैठ गये । फिर अवसर देख कर बोले - भगवन् ! मेरे हृदय में एक शंका बारंबार उठती रहती है । इस समय आपका दर्शन करके मुझे विशवास हो रहा है कि मेरी शंका का उचित समाधान आप कर सकते हैं । 
.
अतः आप मुझे प्रश्न करने की आज्ञा दें तो मैं आपसे प्रश्न करके उसका उचित उत्तर प्राप्त कर सकूँ । दादूजी महाराज ने बोहित की उक्त प्रार्थना सुनकर कहा - तुम पूछ सकते हो । तब आपने मन में प्रसन्न होकर बोहितजी ने कहा - स्वामिन् ! नाना मतवादी लोग परमात्मा के नाम तथा रूप भिन्न भिन्न बताते हैं और अपनी मान्यता से भिन्न मान्यता वालों का खंडन भी करते हैं ।
.
इसी प्रकार सभी मतों वालों का व्यवहार देखने में आता है । उक्त प्रकार के उन लोगों के व्यवहार से परमात्मा ही सिद्ध नहीं होते । एक दूसरे के द्वारा सभी मत वालों के परमात्मा के नाम रूपों का खंडन; हो जाता है । ऐसी अवस्था में सरल स्वभाव वाला साधक किस नाम से उपासना करे । यही बात मेरी है, जहां जाता हूं वहां ही अपने - अपने गीत गाते हैं । अतः मेरा मन साधन में लगता ही नहीं है ।
.
अब आप कृपा करके मुझे समझाइये । बोहितजी के उक्त विचारों को सुनकर परमदयालु दादूजी बोले - 
"सब का साहिब एक है, जाका परगट नाँउं ।
दादू सांई शोध ले, ताकी मैं बलि जाँउं ॥"
.
जिसका 'ईश्वर' यह नाम प्रकट है, वह परमात्मा सभी मत वादियों का एक ही है । अर्थात् सभी मतवादी अपने परमात्मा को ईश्वर कहते हैं, अनीश्वर कोई कोई भी नहीं कहता । भिन्न भिन्न नाम, रूप उस ईश्वर के अवतारों के नाम, रूपों को लेकर तथा अवतारों के गुण कर्मों को लेकर और अपने अपने मतवाद की रुचि को लेकर मानने लग गये हैं ।
(क्रमशः)
‪#‎daduji‬
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२६५. केवल विनती । पंजाबी त्रिताल ~
तो निबहै जन सेवक तेरा, ऐसे दया कर साहिब मेरा ॥ टेक ॥ 
जो हम तोरैं, तो तूँ जोरै, हम तोरैं, पै तूँ नहिं तोरै ॥ १ ॥ 
हम विसरैं, पै तूँ न विसारै, हम बिगरैं, पै तूँ न बिगारै ॥ २ ॥ 
हम भूलैं, तूँ आन मिलावै, हम बिछुरैं, तूँ अंग लगावै ॥ ३ ॥ 
तुम्ह भावै सो हम पै नाँहीं, दादू दर्शन देहु गुसांईं ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरु इसमें परमेश्‍वर से केवल विनती करते हैं कि हे हमारे स्वामी परमेश्‍वर ! तब तो हम आपके सेवक निबहेंगे, जब आप परम दयालु होकर हम पर ऐसी दया करोगे कि जो हम तो आपसे वृत्ति तोड़ें, परन्तु आप हमारी वृत्ति को अपने स्वरूप में त्यों ही तत्काल जोड़ लोगे । हे दयालु ! हम तो आपसे अपने मन को तोड़ें, परन्तु आप हमको अपना अंश जानकर हमसे नहीं तोड़ना । हमतो आपको भूलते ही रहते हैं, परन्तु आप हमको नहीं बिसारते, हमारी संभाल हर समय करते हो । हम तो आपसे बिगाड़ लें, परन्तु आप हमको अपना जानकर नहीं बिगाड़ते । हम तो आपको भूले हुए ही फिरते हैं, परन्तु आप हमको बहिर्मुख से अन्तर्मुख करके अपने स्वरूप में मिलाते हो । हम तो आपसे बिछुड़ रहे हैं, परन्तु आप हमको अपने स्वरूप में दया करके लगाते हो । हे प्रभु ! आपको जो अनन्य प्रेम भावे, वह हमारे पास नहीं है । हे गुसांई ! आप हमको साधनहीन जानकर दया करके अपना दर्शन दीजिये

सोमवार, 29 जून 2015

卐 सत्यराम सा 卐
इस हस्त लिखित वाणी को पं. श्री जोसी श्री तुलसीदास जी ने अपने चिरंजीवी जोसी श्री प्रेमजी के पठनार्थ कच्छ के भुज नगर में, श्री कांनजी त्रिकम जी पंड्या से लिखवाया । श्री कांनजी भाई ने वि. सं. १८१०, वैशाख मास, शुक्ल पक्ष, नवमी तिथि, को इसे लिखकर पूर्ण किया | उस समय लिखित इस वाणीजी का शब्द संयोजन एवं साखी क्रम आज उपलब्ध वाणीजी से किंचित भिन्न है, श्रद्दालुजनों की सुविधा हेतु निम्नलिखित सटीक वाणी आज उपलब्ध "दादूवाणी"(टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान) से ली गई है । 
वर्तमान में वड़ोदरा से श्री हर्षद भाई कडिया ने अत्यंत हर्ष एवं श्रद्धापूर्वक इस हस्त लिखित वाणी जी को हम सब के लिए उपलब्ध कराया |

<<<<(११)>>>>

(परिचय का अंग ४)

भक्ति भक्ति सबको कहै, भक्ति न जाने कोइ ।
दादू भक्ति भगवँत की, देह निंरतर होइ ॥ 
“भगवान् की भक्ति करो तथा मैं भक्ति करता हूं” ऐसे कहते तो सभी हैं किन्तु केवल कहने वालों में कोई भी भक्ति के वास्तविक आन्तर स्वरूप को नहीं जानते । वे बाह्य प्रतिमा - पूजा और माला - तिलकादिक चिन्ह धारण करने को ही भक्ति समझते हैं । वास्तविक भक्ति तो वही है जो शरीर के भीतर अन्त:करण में निरँतर होती रहती है ।

दादू सहजैं सहज समाइ ले, ज्ञानैं बँध्या ज्ञान ।
सूत्रैं सूत्र समाइ ले, ध्यानैं बँध्या ध्यान ॥ 
निर्विकल्प समाधि रूप सहजावस्था द्वारा वृत्ति सहज - स्वरूप ब्रह्म में विलीन करे । शास्त्र - विचार रूप परोक्ष ज्ञान द्वारा अपरोक्ष ज्ञान में स्थित होवे । गुरु ज्ञान द्वारा व्यष्टि सूत्रात्मा तैजस को सम सूत्रात्मा हिरण्यगर्भ में विलीन करे । प्रतीक ध्यान द्वारा अहँ - ग्रह ध्यान में स्थित होवे ।

दादू दृष्टैं दृष्टि समाइ ले, सुरतैं सुरति समाइ ।
समझैं समझ समाइ ले, लै सौं लै ले लाइ ॥ 
अपनी भेद दृष्टि को सात्विक विचार दृष्टियों द्वारा समदृष्टि में विलीन करे । मायिक पदार्थाकार अपनी वृत्ति को सात्विक वृत्तियों के अभ्यास द्वारा ब्रह्माकार - वृत्ति में लीन करे । अपनी अयथार्थ समझ को सँतों की समझ - द्वारा ईश्वर के वेद, गीतादिक ज्ञान रूप में लीन करे । विषयों में लीनता रूप वृत्ति को सन्तों की वैराग्य वृत्ति के द्वारा विषयों से हटा कर प्रभु में लीन करे ।

जहां राम तहं मन गया, मन तहं नैना जाइ ।
जहं नैना तहं आतमा, दादू सहज समाइ ॥ 
शरीर के भीतर हृदय देश में जहां राम की अनुभूति होती है, वहां ही जाकर साधन सम्पन्न मन स्थिर होता है । जहां मन स्थिर होता है, वहां ही विचार - नेत्र जाते हैं अर्थात् उसी का विचार होता है और जहां विचार - नेत्र जाते हैं, उसी राम में उक्त एकाग्रता के प्रभाव से अभेद ज्ञान होने पर जीवात्मा सहज स्वभाव से ही समा जाता है । अत: उक्त प्रकार साधन द्वारा अभेद स्थिति प्राप्त करो ।

चित्तन खेले चित्त सौं, बैनन खेले बैन ।
नैनन खेले नैन सौं, दादू परकट ऐन ॥ 
अपनी चित्त वृत्तियों द्वारा सम चित्त से चिन्तन रूप, अपनी वाणी द्वारा प्रभु के गीतादिक वचनों का उच्चारण रूप, अपने नेत्रों से प्रभु के नेत्रों को एकटक देखना रूप खेल खेलता है, ऐसा पुरुष प्रत्यक्ष में ही ब्रह्म - स्वरूप है ।

पाकन खेले पाक सौं, सारन खेले सार ।
खूबन खेले खूब सौं, दादू अँग अपार ॥ 
पवित्र साधनों द्वारा प्रभु की सेवा रूप खेल पवित्र प्रभु से खेलता है । सार रूप विचारों द्वारा विश्व के सार स्वरूप ब्रह्म से ब्रह्म - विचार रूप खेल खेलता है । अपने सुन्दर स्वभाव के द्वारा प्रभु की सुन्दरता समझना रूप खेल सुन्दर प्रभु से खेलता है । ऐसा ईश्वर का अँग रूप, वह जीवन्मुक्त आत्मा अपार ब्रह्म - रूप ही हो जाता है ।

नूरन खेले नूर सौं, तेजन खेले तेज ।
ज्योतिन खेले ज्योति सौं, दादू एकै सेज ॥ 
सँसार के दिव्य रूपों के दर्शन द्वारा प्रभु का रूप देखना रूप खेल , शब्दों के ज्ञान प्रकाश से प्रभु के स्वरूप ज्ञान को समझना रूप खेल , आत्म ज्योति के द्वारा ब्रह्म ज्योति से ब्रह्म ज्योति की प्राप्ति रूप खेल, खेलता है । ऐसा पुरुष ब्रह्म की निर्विकल्प समाधि शय्या पर ब्रह्म रूप होकर रहता है ।

पँच पदारथ मन रतन, पवना माणिक होइ ।
आतम हीरा सुरति सौं, मनसा मोती पोइ ॥ 
ब्रह्म को पहनाने योग्य हार बता रहे हैं - पँच ज्ञानेन्द्रियों की अन्तर्मुखता रूप (१ स्वर्ण २ चाँदी ३ प्रवाल ४ नीलम ५ मरकत) पाँचों पदार्थों के पाँच मणियें, मन - रत्न, प्राण - माणिक्य, बुद्धि - मोती और जीवात्मा - हीरा इन सबको अद्वैत निष्ठा सूत्र में अभेद वृत्ति से पोकर हार तैयार करो ।

अजब अनूपम हार है, सांई सरीखा सोइ ।
दादू आतम राम गल, जहां न देखे कोइ ॥ 
हार की विशेषता बताते हुए पहनाने की प्रेरणा कर रहे हैं - उक्त हार अति अद्भुत, अनुपम तथा परमात्मा को पहनाने जैसा ही है । इस हार को कोई भी न देख सके, ऐसे हृदय स्थान में स्थित अपने शुद्ध साक्षी आत्मा राम के निर्विकल्प स्थिति रूप गले में पहनाओ अर्थात् उक्त सबको निर्विकल्प बनाओ ।

दादू ऐसा बड़ा अगाध है, सूक्षम जैसा अँग ।
पुहुप वास तैं पत्तला, सो सदा हमारे संग ॥ 
ब्रह्म की महत्ता तथा सूक्ष्मता का परिचय दे रहे हैं - ब्रह्म महान् तो ऐसा है कि किसी प्रकार भी उसकी महानता का थाह नहीं आ सकता । लघु भी इतना है - इन्द्रियाँ नहीं देख पाती । यदि उसकी सूक्ष्मता का वाणी से परिचय दें तो इतना ही कह सकते हैं कि वह पुष्प - गँध से भी अति सूक्ष्म है और व्यापक होने से सदा हमारे साथ है ।

दादू जब दिल मिली दयालु सौं, तब अंतर कुछ नाँहि ।
ज्यों पाला पाणी मिल्या, त्यों हरिजन हरि माँहि ॥ 
भक्त भगवान् में मिल जाने पर भक्त भगवान् का भेद नहीं रहता यह कह रहे हैं - जब साधन द्वारा मन - वृत्ति दयालु प्रभु में मिल जाती है तब भक्त और भगवान् में कुछ भी भेद नहीं रहता । फिर तो जैसे हिम का पत्थर सूर्यादि के ताप से गलते ही जल में मिल जाता है, वैसे ही प्रारब्ध समाप्ति पर शरीर गिरते ही भक्त भगवान् में मिल जाता है ।

दादू जब दिल मिली दयालु सौं, तब सब पड़दा दूर ।
ऐसे मिल एकै भया, बहु दीपक पावक पूर ॥ 
भक्ति द्वारा जब अन्त:करण की वृत्ति दयालु भगवान् में मिलती है तब निज स्वरूप के ज्ञान से अविद्या रूप सब पड़दे दूर हो जाते हैं । फिर तो जैसे अनेक दीपक ज्योतियां दीपकों को त्यागकर एक व्यापक अग्नि में मिल जाती हैं, वैसे ही आत्मा सूक्ष्म शरीर को त्यागकर ब्रह्म में लय हो जाती है ।

दादू जब दिल मिली दयालु सौं, तब पलक न पड़दा कोइ ।
डाल मूल फल बीज में, सब मिल एकै होइ ॥ 
जब अपरोक्ष ज्ञान द्वारा भगवान् में मनोवृत्ति लय हो जाती है तब आत्मा और ब्रह्म के बीच में एक पलक मात्र भी कामादि दोष रूप पड़दा नहीं रहता, निरँतर ब्रह्माकार वृत्ति ही रहती है । जैसे वृक्ष के मूल, डाल और फल ये सब मिलकर बीज में एक रूप हो जाते हैं, वैसे ही मनोवृत्ति के ब्रह्म में लय होने पर कामादि सभी प्रपँच एक ब्रह्म रूप ही हो जाता है ।

फल पाका बेली तजी, छिटकाया मुख माँहिं ।
सांई अपना कर लिया, सो फिर ऊगे नाँहिं ॥ 
जीवात्मा रूप फल ब्रह्मज्ञान - विचार - ताप से जब निरँतर ब्रह्माकार वृत्ति रूप परिपाकावस्था को प्राप्त होता है तब वह अविद्या बेलि - त्याग देता है । अविद्या शून्य होते ही ब्रह्म - स्वामी जीवात्मा - फल को अपना कर, अभेद स्थिति - मुख में डाल देता है । इस अभेद स्थिति रूप अपरोक्ष ज्ञान की ताप से जीवात्मा रूप फल का कर्म - बीज भुन जाता है । अत: वह पुन: जन्म - मरण रूप अंकुर वाला नहीं होता ।

दादू काया कटोरा दूध मन, प्रेम प्रीति सौं पाइ ।
हरि साहिब इहिं विधि अँचवै, बेगा बार न लाइ ॥ 
साधक ! काया कटोरे में स्थित शुद्ध मन - दूध में प्रेम रूप मिश्री मिलाकर प्रीति - पूर्वक भगवान् को पिला । पाप - ताप हरने वाले भगवान् उक्त विधि से ही शुद्ध मन - दूध पीते हैं । तू भगवान् को उक्त प्रकार पय - पान कराने में शीघ्रता कर, विलम्ब मत कर ।

दादू माता प्रेम का, रस में रह्या समाइ ।
अंत न आये जब लगैं, तब लग पीवत जाइ ॥ 
प्रभु - प्रेम रूप साधना का साधक प्रेम - रस में ही निमग्न होकर मस्त रहता है और जब तक भेद भावना का अन्त नहीं आता, तब तक प्रेम - रस का पान करता ही जाता है ।

पीया तेता सुख भया, बाकी बहु वैराग१ ।
ऐसे जन थाके नहीं, दादू उनमनि२ लाग ॥ 
भगवत् प्रेमियों ने जितना भजनानन्द - रस पान किया उतना तो उन्हें अक्षय आनँद प्राप्त हुआ किन्तु भजन का अन्त तो आता नहीं, अत: जो शेष रहा, उसके पान में भी उनका निश्चय - पूर्वक बहुत प्रेम१ रहा । इस प्रकार भजनानन्द - रस के रसिक - जन साँसारिक भावनाओं से शून्य समाधि२ अवस्था को प्राप्त करके भी भजनानन्द - रस पान से तृप्त नहीं हुये

= ४० =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
ताला बेली प्यास बिन, क्यों रस पीया जाइ ।
विरहा दर्शन दर्द सौं, हमको देहु खुदाइ ॥
ताला बेली पीड़ सौं, विरहा प्रेम पियास ।
दर्शन सेती दीजिये, बिलसै दादू दास ॥ 
=================
साभार : राधा शरण दास ~
जिसके भीतर प्यास होती है, उसे ही जल दीखता है l प्यास न हो तो जल सामने रहते हुए भी दीखता नहीं l ऐसे ही जिसके भीतर परमात्मा की प्यास (लालसा) है, उसे परमात्मा दीखते हैं और जिसके भीतर संसार की प्यास है, उसे संसार दीखता है l परमात्मा की प्यास हो तो संसार लुप्त हो जाता है और संसार की प्यास हो तो परमात्मा लुप्त हो जाते हैं l परमात्मा की प्यास जाग्रत होने पर भक्त को भूतकाल का चिन्तन नहीं होता, भविष्य की आशा नहीं रहती और वर्तमान में उसे प्राप्त किये बिना उसे चैन नहीं पड़ता l
जय जय श्री राधे !

२६ . बिचार को अंग ~ ५

#‎daduji‬
|| श्री दादूदयालवे नमः ||
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
.
*= २६. बिचार को अंग =*
.
भूमि सु तौ गंध कौं छाड़त, 
नीर सु तौ रस तैं नहिं न्यारौ । 
तेज सु तौ मिलि रूप रह्यौ पुनि, 
वायु सपर्श सदा सु पियारौ ॥ 
व्यौंम रु शब्द जुदे नहिं होत सु, 
अेसैं ही अंतःकरन बिचारौ । 
ये नव तत्त्व मिले इन तत्त्वनि, 
सुन्दर भिन्न स्वरूप हमारौ ॥५॥ 
पृथ्वी से गन्ध पृथक् नहीं है, न जल से रस भिन्न है । तेज से सम्पृक्त है तो वायु से स्पर्श भी भिन्न नहीं है । वह उसको सदा ही प्रिय है । 
इसी तरह शब्द से आकाश भी भिन्न नहीं है तथा इस पद्धति से अन्तःकरण चतुष्टय के विषय में भी समझ लेना चाहिये । 
श्री सुन्दरदास जी कहते हैं - ये नौ तत्व अवशिष्ट सोलह तत्त्वों से मिलकर समस्त जगद्व्यवहार चलाते हैं । हमारा आत्मस्वरूप इन सभी तत्त्वों से पृथक् ही है ॥५॥
(क्रमशः)

*शिष्य हरदासजी*

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ त्रयोदश बिंदु ~*
.
*शिष्य हरदासजी -*
एक दिन आमेर के मावठा तालाब में स्नान कर के एक हरदासजी नामक सज्जन हर हर करते हुये दादू आश्रम के पास आये । तब वहां उन्होंने कुछ संतों के दर्शन किये । फिर उनमें से एक संत को पूछा - यह आश्रम किनका है ? संतजी ने कहा - दादूजी महाराज का है ।
.
तब हरदासजी के मन में इच्छा हुई कि दादूजी महाराज का दर्शन तो अवश्य ही करना चाहिये । हरदासजी ने दादूजी का नाम और दादूजी की गुणगाथा तो बहुत सुन रखी थी किन्तु प्रत्यक्ष दर्शन करने का अवसर कभी नहीं मिला था । अतः हरदासजी के हृदय में दादूजी के प्रति पहले से ही बहुत श्रद्धा थी ।
.
फिर उक्त संतजी से पूछा - दादूजी महाराज यहां ही हैं क्या ? संतजी ने कहा - यहां ही हैं । हरदासजी ने पूछा - इस समय उन के दर्शन हो सकते हैं ? संतजी ने कहा - हो सकते हैं, भीतर जाइये । फिर हरदासजी आश्रम में गये और दादूजी का दर्शन करके अति प्रसन्न हुये ।
.
फिर दादूजी को साष्टांग दंडवत प्रणाम करके दादूजी के सामने बैठ गये और हाथ जोड़ कर अति नम्रता पूर्वक बोले - भगवन् ! मैं आपकी महिमा तो बहुत सुनता रहता था किन्तु प्रत्यक्ष दर्शन तो आज ही कर सका हूँ । आप के दर्शन से मुझे अत्यधिक आनन्द प्राप्त हुआ है । भगवन् ! मैं अनन्त काल से जन्म मरण रूप प्रवाह में बह रहा हूँ । आप कृपा करके ऐसा उपाय बतायें जिस से मैं भविष्य में काल का ग्रास न हो कर परब्रह्म को ही प्राप्त हो सकूं ।
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हरदासजी की उक्त प्रार्थना सुनकर परम दयालु दादूजी महाराज ने कहा -
"दादू तज संसार सब, रहै निराला होय ।
अविनाशी के आसरे, काल लागे कोय ॥"
जो संसार की संपूर्ण वासनाओं को, रागद्वेषादि द्वन्द्वों को तथा सांसारिक संपूर्ण मतों की पक्ष आदि सबको त्यागकर अविनाशी ब्रह्म के अभेद रूप आश्रय में रहता है, उसको किसी भी प्रकार से काल का भय नहीं रहता है ।
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तुम भी उक्त प्रकार साधना करोगे तो काल से अवश्य बच जाओगे । उक्त उपदेश सुनकर हरदासजी दादूजी के ही शिष्य हो गये और उक्त प्रकार साधना करके काल के भय से भी मुक्त हो गये । हरदासजी दादूजी के सौ शिष्यों में हैं ।
(क्रमशः)

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॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
अथ राग सारंग १५
( गायन समय मध्य दिन)
२६४. गुरु ज्ञान सूर । फख्ता ताल ~ 
हो ऐसा ज्ञान ध्यान, गुरु बिना क्यों पावै ।
वार पार, पार वार, दुस्तर तिर आवै हो ॥ टेक ॥ 
भवन गवन, गवन भवन, मन ही मन लावै ।
रवन छवन, छवन रवन, सतगुरु समझावै हो ॥ १ ॥ 
क्षीर नीर, नीर क्षीर, प्रेम भक्ति भावै ।
प्राण कँवल विकस विकस, गोविन्द गुण गावै हो ॥ २ ॥ 
ज्योति जुगति बाट घाट, लै समाधि ध्यावै ।
परम नूर परम तेज, दादू दिखलावै हो ॥ ३ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें गुरु ज्ञान की दुर्लभता दिखा रहे हैं कि हे जिज्ञासु ! ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरुओं के बिना जैसा अखंड परमेश्‍वर है, वैसा उसका अखण्ड ज्ञान और अखण्ड ध्यान कैसे प्राप्त हो सकता है ? जिस गुरु के ज्ञान के द्वारा साधक दुस्तर - संसार - समुद्र के विषयासक्ति रूप तट से तैर कर अनासक्ति रूप अगले तट पर आ पहुँचे और विषय - वासना रूप भवन में गमन करने वाले मन को ज्ञान तथा ध्यान द्वारा परब्रह्म में लगा सके तथा मन भी ब्रह्म - भवन में गमन कर सके और स्थिर होकर फिर विषयों में रमण करना छोड़ दे तथा स्थिरता - पूर्वक ब्रह्म में ही रमण कर सके, ऐसा ज्ञान और ध्यान तो सत्य उपदेश के देने वाले सतगुरु ही समझा सकते हैं । जैसे दूध में जल और जल में दूध एक रूप हो जाता है, इसी प्रकार प्रेमा - भक्ति के द्वारा आत्मा और परमात्मा एक रूप हो जाते हैं और साधक का प्राण सहित हृदय - कमल प्रसन्न हो - होकर गोविन्द के गुणानुवाद गाने लगता है । योग की युक्ति कहिए साधना द्वारा, अन्तर्मुख वृत्ति सहज समाधि रूप घाट पर पहुँचावे तथा परम ब्रह्मतेज अपने स्वरूप को दिखा सके, ऐसा ज्ञान - ध्यान सच्चे सतगुरु के बिना नहीं प्राप्त होता है ।
“और ज्ञान सब ज्ञानड़ी, ब्रह्म - ज्ञान सो ज्ञान । 
‘रज्जब’ गोला तोप का, ढ़ाहि करै मैदान ॥

रविवार, 28 जून 2015

卐 सत्यराम सा 卐
इस हस्त लिखित वाणी को पं. श्री जोसी श्री तुलसीदास जी ने अपने चिरंजीवी जोसी श्री प्रेमजी के पठनार्थ कच्छ के भुज नगर में, श्री कांनजी त्रिकम जी पंड्या से लिखवाया । श्री कांनजी भाई ने वि. सं. १८१०, वैशाख मास, शुक्ल पक्ष, नवमी तिथि, को इसे लिखकर पूर्ण किया | उस समय लिखित इस वाणीजी का शब्द संयोजन एवं साखी क्रम आज उपलब्ध वाणीजी से किंचित भिन्न है, श्रद्दालुजनों की सुविधा हेतु निम्नलिखित सटीक वाणी आज उपलब्ध "दादूवाणी"(टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान) से ली गई है । 
वर्तमान में वड़ोदरा से श्री हर्षद भाई कडिया ने अत्यंत हर्ष एवं श्रद्धापूर्वक इस हस्त लिखित वाणी जी को हम सब के लिए उपलब्ध कराया |

<<<<(१०)>>>>

(परिचय का अंग ४)

संगति कुसंगति
मीठे सौं मीठा भया, खारे सौं खारा ।
दादू ऐसा जीव है, यहु रँग हमारा ॥ 
सुसंग कुसंग का फल बता रहे हैं - जैसे जल मधुर मिश्री से मधुर और खारे नमक से खारा हो जाता है, ऐसा ही यह जीव है । मधुर - सत्संग से आत्म - ज्ञान - मधुरता सम्पन्न और कुसंग रूप क्षार से विषय - वासना रूप क्षारता - सम्पन्न हो जाता है । यह सत्संग रूप हमारा रँग जीव के कल्याण का साधन होने से अति श्रेष्ठ है । अत: सत्संग करना चाहिये ।

अध्यात्म
प्राण पवन ज्यों पतला, काया करे कमाइ ।
दादू सब सँसार में, क्यों ही गह्या न जाइ ॥ 
दो सिद्धों को उपदेश दे रहे हैं - प्राणी अपने स्थूल शरीर को योग साधन द्वारा सुधार कर वायु के समान सूक्ष्म बना ले जो सम्पूर्ण सँसार में किसी भी उपाय से पकड़ा न जाय ॥

बिन श्रवणहुं सब कुछ सुने, बिन नैनहुं सब देखे ।
बिन रसना मुख सब कुछ बोले, यहु दादू अचरज पेखे ॥ 
परब्रह्म निराकार है, अत: हमारे समान उसके श्रवण, नेत्र, रसना और मुख नहीं हैं तो भी वह सब कुछ सुनता है, सब देखता है, सब रसों का आस्वादन करता है, सब कुछ बोलता है । परब्रह्म के स्वरूप में ऐसा महान् आश्चर्य देखा जाता है ।

दादू तेज कमल दिल नूर का, तहां राम रहमानँ ।
तहं कर सेवा बँदगी, जे तू चतुर सयानँ ॥ 
जिसका हृदय कमल शुद्ध और ज्ञान - तेज - सम्पन्न है, उसी में दयालु१ राम का विशेष रूप से निवास रहता है । साधक ! यदि तू विलक्षण चतुरता सँपन्न विचारवान् है तो उस शुद्ध अन्त:करण में ही वृत्ति को स्थिर करके सूक्ष्म रूप से सेवा - पूजा कर ।

दादू काया मसीत कर पँच जमाती, मन ही मुल्ला इमामँ१ ।
आप अलेख इलाही२ आगे, तहं सिजदा३ करे सलामँ४ ॥ 
हमारा शरीर ही मस्जिद है और पँच ज्ञानेन्द्रियाँ ही हमारा साथ देने वाले जमाती हैं । विवेक सम्पन्न मन ही मार्ग प्रदर्शक - मुल्ला१ है । हम शुद्ध अन्त:करण में आत्मा रूप में ईश्वर२ के सन्मुख ही प्रणाम४ पूर्वक उपासना३ करते हैं ।

दादू सब तन तसबीह१ कहै करीमँ२, ऐसा कर ले जापँ ।
रोजा३ एक दूर कर दूजा, कलमा४ आपै आपँ ॥ 
अपने सब शरीर को ही माला१ बनाकर ऐसा जाप करो जिससे रोम - रोम से दयालु२ ईश्वर का नाम उच्चारण होता रहे । एकात्म भाव - व्रत३ करके द्वैत भाव को हृदय से दूर हटाओ । अपने वास्तविक स्वरूप ब्रह्म में ही निरन्तर स्थिति रूप मूल - मँत्र४ पढ़ो, तब ही असत् सँसार से मुक्त हो सकोगे ।

अट्ठे१ पहर अर्श में, बैठा पीरी२ पसँनि३ ।
दादू पसे४ तिन्न के, जे दीदार५ लहँनि६ ॥ 
जो आठौ१ पहर हृदयाकाश में अपने प्रियतम२ प्रभु का दर्शन३ करने के लिये चित्त - वृत्ति ब्रह्म चिन्तन में रखते हुये ब्रह्म का साक्षात्कार५ कर६ चुके हैं, उन सन्तों के दर्शन४ अपने कल्याणार्थ अवश्य करने चाहिये ।

रस (प्रेम - प्याला)
प्रेम पियाला नूर का, आशिक भर दीया ।
दादू दर दीदार में, मतवाला कीया ॥
प्रभु प्रेम का परिचय दे रहे हैं - प्रभु ने निज स्वरूप का प्रेम प्याला आनन्द - रस से भरकर अपने प्रेमी - भक्त मुझ को दिया और हृदय में ही दर्शन देकर अपने स्वरूप में मस्त कर लिया, यह उनका अनुग्रह है ।

दादू प्याला नूर१ दा२, आशिक अर्श पिवन्न३ ।
अठे पहर अल्लाहदा, मुंह दिठ्ठे जीवनि४ ॥ 
प्रेमी जन शुद्ध हृदयाकाश में शुद्ध स्वरूप१ ब्रह्म के प्रेम - रस का२ प्याला पान३ करते हैं और आठौं पहर परब्रह्म का व्यापक रूप से दर्शन करते हुये ही जीवित४ रहते हैं ।

सांई सरीखा सुमिरण कीजे, सांई सरीखा भावे ।
सांई सरीखी सेवा कीजे, तब सेवक सुख पावे ॥ 
जैसा परमात्मा सच्चिदानन्द स्वरूप है, वैसे ही सच्चिदानन्द रूप से उसका स्मरण करना चाहिये तथा जैसे परमात्मा के बल प्रभावादि अपार हैं, वैसे ही उसका यश - गान करना चाहिये तथा जैसा परमात्मा अखण्ड है, वैसी ही उसकी भक्ति भी अखण्ड ही करनी चाहिये । जब उक्त रीति से कीर्तन, स्मरण और प्रीति करता है, तब सेवक ब्रह्मानन्द को प्राप्त कर लेता है ।

परिचय करुणा विनती
दादू सेवक सेवा कर डरै, हम तैं कछू न होइ ।
तूँ है तैसी बँदगी, कर नहिं जाने कोइ ॥ 
परिचय पश्चात् सेवक की करुणा - पूर्वक विनय का स्वरूप बता रहे हैं - सेवक सेवा करके सेव्य के सामने डरता हुआ करुणा पूर्ण विनय करता है - हे भगवन् ! मुझसे आपकी कुछ भी सेवा नहीं हो पाती । मेरे से ही क्या - किन्तु जैसे आप सच्चिदानन्द, अखण्ड, एकरस हो, वैसी सेवा तो कोई भी नहीं कर जानता ।

दादू भीतर पैसि कर, घट के जड़ै कपाट ।
सांई की सेवा करै, दादू अविगत घाट ॥
अन्त:करण की वृत्ति को अन्तर्मुख करके, शरीर के इन्द्रिय रूप कपाटों को प्रत्याहार द्वारा बन्द करे, फिर मन इन्द्रियों से अतीत ब्रह्म - सरोवर के निर्विकल्पावस्था रूप घाट पर ब्रह्म की ब्रह्म - चिन्तन रूप सेवा करे ।

भ्रम विध्वँसन
पूजनहारे पास हैं, देही माँही देव ।
दादू ताको छाड़ कर, बाहर मांडी सेव ॥ 
उपास्य - रूप के भ्रम का नाश कर रहे हैं - उपासक के अत्यन्त समीप शरीर के भीतर हृदयस्थल में ही उपास्य देव निजात्मरूप से स्थित है । अज्ञानी प्राणी भ्रमवश उसे छोड़कर, बाहर अनात्म - अचेतन पदार्थों को भगवान् मान कर उनकी सेवा में लगे हैं । अत: उन्हें चाहिये - सत्संग द्वारा चेतन परमात्मा के स्वरूप को समझकर उसकी उपासना करें ।

सूक्ष्म सौंज अर्चा बन्दगी
आत्म मांहीं राम है, पूजा ताकी होइ ।
सेवा वन्दन आरती, साधु करैं सब कोइ ॥
आन्तर सूक्ष्म अर्चना भक्ति की विशेषता बताते हुये उसके करने की प्रेरणा कर रहे हैं - शरीर के भीतर हृदय स्थल में स्थित जो आत्म स्वरूप राम हैं, उनकी पूजा सूक्ष्म भाव - मय सामग्री से आन्तर ही होती है । श्रेष्ठ सन्त भावमय पदार्थों से ही सेवा करते हैं । भावमय ही आन्तर दण्डवत - वन्दना और भावमय ज्योति आदि से आरती करते हैं ।

दादू माँहीं कीजे आरती, माँहीं पूजा होइ ।
माँहीं सद्गुरु सेविये, बूझै विरला कोइ ॥ 
साधको ! अपने निरंजन देव की भावमय आरती हृदय के भीतर ही करो । उस निरंजन देव की सम्पूर्ण सेवा - पूजा भीतर ही होनी चाहिये तथा ब्रह्म - रँध्र में स्थित गुरु चक्र - स्थल में भीतर ही सद्गुरु की सेवा करो, किन्तु इस आन्तर सेवा की पद्धति कोई विरले सन्त ही जानते हैं । अत: उनसे समझ करके ही करो ।

अरस परस मिल खेलिये, तब सुख आनन्द होइ ।
तन मन मँगल चहुं दिश भये, दादू देखै सोइ ॥ 
आन्तर पराभक्ति की स्थिति में उपास्य उपासक आपस में मिलकर परस्पर प्रेम रूप खेल खेते हैं तब उपास्य - उपासक भाव - जन्य सुख और अभेदानन्द दोनों ही मिलते रहते हैं । पूर्वकाल में इस पराभक्ति की स्थिति में आते ही साधकों के तन - मन में चारों ओर से आनन्द मँगल ही हुये था । वही उभय प्रकार का आनन्द हम भी अनुभव कर रहे हैं ।

सुन्दरी सुहाग
मस्तक मेरे पांव धर, मंदिर माँहीं आव ।
संइयां सोवै सेज पर, दादू चँपै पांव ॥ 
निरँतर साक्षात्कार के लिए प्रार्थना तथा प्रेरणा कर रहे हैं - हे स्वामिन् ! आपके दर्शन की अभिलाषा रूप मेरे मस्तक पर अपना दर्शन रूप चरण रख कर मुझे तृप्त करो और मेरे हृदय - मंदिर में पधारो । प्रश्न - मंदिर में क्या करोगे ? उत्तर - आप मेरी ब्रह्माकार - वृत्ति रूप शय्या पर शयन करें और मैं आपके ध्येय - ज्ञेय रूप उभय पद की अपने प्रेम और ज्ञान रूप हाथों से निरँतर ध्यान और साक्षात्कार रूप सेवा करूँगा ।

पूजा - भक्ति सूक्ष्म सौंज
दादू देव निरंजन पूजिये, पाती पँच चढ़ाइ ।
तन मन चन्दन चर्चिये, सेवा सुरति लगाइ ॥ 
सूक्ष्म सामग्री से अर्चना - भक्ति करने की प्रेरणा कर रहे हैं - पँच ज्ञानेन्द्रियों को भगवत् परायण करना रूप तुलसी - दल चढ़ाकर, तन, मन, समर्पण करना रूप चन्दन लगाकर, निरंजन देव की पूजा करो और अपनी वृत्ति प्रभु के स्वरूप में लगा कर अखँड चिन्तन रूप सेवा करो

= ३९ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
साहिब जी के नांव में, भाव भगति विश्वास ।
लै समाधि लागा रहै, दादू सांई पास ॥ 
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साभार ~ Ramjibhai Jotaniya 
~ Neha Sharma
ॐ श्री शिवाय नमस्तुभ्यं ॐ
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**भक्ति में भावना की प्रधानता**
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चैतन्य महाप्रभु जब जगन्नाथ पुरी से दक्षिण की यात्रा पर जा रहे थे, तो उन्होंने एक सरोवर के किनारे कोई ब्राह्मण गीता पाठ करता हुआ देखा । वह संस्कृत नहीं जानता था, और श्लोक अशुद्ध बोलता था । चैतन्य महाप्रभु वहाँ ठहर गये कि उसकी अशुद्धि के लिये टोके । 
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पर देखा कि भक्ति में विह्वल होने से उसकी आँखों से अश्रु बह रहे हैं। चैतन्य महाप्रभु ने आश्चर्य से पूछा - "आप संस्कृत तो जानते नहीं, फिर श्लोकों का अर्थ क्या समझ में आता होगा और बिना अर्थ जाने आप इतने भाव विभोर कैसे हो पाते है।"
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उस व्यक्ति ने उत्तर दिया - "आपको यह कथन सर्वथा सत्य है । कि मैं न तो संस्कृत जानता हूँ । और न श्लोकों का अर्थ समझता हूँ । फिर भी जब मैं पाठ करता हूँ तो लगता है । मानों कुरुक्षेत्र में खड़े हुये भगवान अमृतमय वाणी बोल रहे हैं । और मैं उस वाणी को दुहरा रहा हूँ । इस भावना से मेरा आत्म आनन्द विभोर हो जाता है।"
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चैतन्य महाप्रभु उस भक्त के चरणों पर गिर पड़े और उन्होंने कहा -
"तुम हजार विद्वानों से बढ़कर हो, तुम्हारा गीता पाठ धन्य है ।"
भक्ति में भावना ही प्रधान है, कर्मकाण्ड तो उसका कलेवर मात्र है । 
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जिसकी भावना श्रेष्ठ है उसका कर्मकाण्ड अशुद्ध होने पर भी वह ईश्वर को प्राप्त कर सकता है । केवल भावना हीन व्यक्ति शुद्ध कर्मकाण्ड होने पर भी कोई बड़ी सफलता प्राप्त नहीं कर सकता ।
!!!! Ψ !!卐!! हर हर महादेव !!卐!! Ψ !!!
_/\_ॐ नम शिवाय _/\_

= ३८ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू दीया है भला, दीया करौ सब कोइ ।
घर में धर्या न पाइये, जे कर दीया न होइ ॥ 
दादू दीये का गुण तेल है, दीया मोटी बात ।
दीया जग में चाँदणां, दीया चालै साथ ॥ 
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साभार : सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र ~
॥ श्री गुरुभ्यो नमः 
॥ देना ॥
देने का दिव्य-भाव व्यक्ति के अन्तःकरण में एक ऐसा रासायनिक परिवर्तन करता है कि नकारात्मक वृत्तियां -
सकारात्मक विचार में बदल जाती है । 
जैसे बाँझ प्रसव - पीड़ा के अभाव में -
मातृत्व सुख से वञ्चित रह जाती है, 
वैसे ही कञ्जूस देने के अद्भुत भाव से चूक जाता है । 
उदार मन से दान न देनेवाला कृपण उस कुत्ते के सदृश है, जो नदी में होते हुए भी जीभ से चाटकर प्यास बुझाता है । 
सन्त कबीर कहते हैं कि ईश्वर की सृष्टि से देने के महाभाव सीखो :
तरवर सरवर संतवर चौथे बरसे मेह ।
परमारथ के कारने चारों धारे देह ॥
- सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र