卐 सत्यराम सा 卐
इस हस्त लिखित वाणी को पं. श्री जोसी श्री तुलसीदास जी ने अपने चिरंजीवी जोसी श्री प्रेमजी के पठनार्थ कच्छ के भुज नगर में, श्री कांनजी त्रिकम जी पंड्या से लिखवाया । श्री कांनजी भाई ने वि. सं. १८१०, वैशाख मास, शुक्ल पक्ष, नवमी तिथि, को इसे लिखकर पूर्ण किया | उस समय लिखित इस वाणीजी का शब्द संयोजन एवं साखी क्रम आज उपलब्ध वाणीजी से किंचित भिन्न है, श्रद्दालुजनों की सुविधा हेतु निम्नलिखित सटीक वाणी आज उपलब्ध "दादूवाणी"(टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान) से ली गई है ।
वर्तमान में वड़ोदरा से श्री हर्षद भाई कडिया ने अत्यंत हर्ष एवं श्रद्धापूर्वक इस हस्त लिखित वाणी जी को हम सब के लिए उपलब्ध कराया |
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(परिचय का अंग ४)
राम रटन छाड़े नहीं, हरि लै लागा जाइ ।
बीचैं ही अटके नहीं, कला कोटि दिखलाइ ॥
उत्तम साधक राम नाम की रटन को नहीं छोड़ता । माया यदि बीच में अपनी चमत्कारमयी ऋद्धि - सिद्धि आदि कोटिन कला दिखाकर रोकना चाहे तो भी वह नहीं रुकता और अपनी वृत्ति निरन्तर हरि में लगाता हुआ ब्रह्म साक्षात्कार के लिए बढ़ता ही जाता है ।
जैसे नैना दोइ हैं, ऐसे हूंहिं अनन्त ।
दादू चँद चकोर ज्यों, रस पीवें भगवँत ॥
जैसे दो नेत्र हैं, वैसे ही अनन्त होवें तो जिस प्रकार चकोर पक्षी चन्द्रमा का दर्शन - रस पान करता है, वैसे ही हम अनन्त नेत्रों द्वारा भगवद् - दर्शन - रस का पान कर सकें ।
राता माता राम का, मतिवाला मैमँत१ ।
दादू पीवत क्यों रहे, जे जुग जाँहि अनन्त ॥
राम के स्वरूप में रत, राम का स्मरण करके मस्त हुआ बुद्धिमान् सँत, राम प्रेम के प्रभाव से देहादिक की सुध न रहने पर बेसुध१ हुआ भी राम चिन्तन - रस पान करता ही रहता है । यदि अनन्त युग व्यतीत हो जायं तो भी वह उक्त रस पान करने से नहीं थकता ।
तन गृह छाड़ै लाज पति१, जब रस माता होइ ।
जब लग दादू सावधान, कदे न छाड़ै कोइ ॥
जब तक साँसारिक व्यवहार चातुर्य में सावधान है तब तक देहाध्यास रूप तन, लज्जा और कुल परँपरागत मर्यादा रूप घर की लज्जा१ कभी भी कोई नहीं छोड़ सकता किन्तु जब भगवद् भजनानन्द - रस मेँ मस्त हो जाता है, तब उक्त तन और घर की लज्जा सहज ही छोड़ देता है ।
आंगण एक कलाल के, मतवाला रस माँहि ।
दादू देख्या नैन भर, ताके दूविधा नाँहिँ ॥
जैसे कलाल के घर के चौक में मदिरा पान करके मतवाले हो जाते हैं, तब नेत्र भरके देखने पर भी उन्हेँ अपने पराये का भेद नहीं भासता, वैसे ही ब्रह्म के समाधि - आंगन में जाकर ब्रह्म चिन्तन - रस पान से मस्त हुआ ज्ञान - नेत्रों से तृप्त होकर जब ब्रह्म को देखता है, तब उसे ब्रह्म अपने से अभिन्न एक ही भासता है, उसके हृदय में द्वैत रूप दूविधा नहीं रहती ।
चिड़ी चँचु भर ले गई, नीर निघट नहिं जाइ ।
ऐसा बासण ना किया, सब दरिया माँहि समाइ ॥ ३३१ ॥
समुद्र से चिड़िया अपनी चँचु जल से भर ले जाती है तब समुद्र का जल घट नहीं जाता और ऐसा पात्र भी सृष्टि - कर्त्ता ने नहीं रचा है, जिसमें सब समुद्र समा जाय, इसी प्रकार ब्रह्म अगाध है । उसका चिन्तन करके कबीर तृप्त हो गये, किन्तु ब्रह्म ज्यों का त्यों है । यह साखी अकबर बादशाह के इस साखी के सुनाने पर कही थी -
“तन मटकी मन मही, प्राण विलोवणहार ।
तत्त कबीरा ले गया, छाछ पिये सँसार ।”
दादू अमली राम का, रस बिन रह्या न जाइ ।
पलक एक पावे नहीं, तो तबहि तलफ मर जाइ ॥
जो राम भजन - रस का सच्चा व्यसनी है, उससे भजन - रस बिना नहीं रहा जाता । यदि एक क्षण भी भजन - रस से वँचित रहे तो जल बिना मच्छी के समान तड़फ - तड़फ कर तत्काल ही मर जाता है ।
दादू राता राम का, पीवे प्रेम अघाइ ।
मतवाला दीदार का, मांगे मुक्ति बलाइ१ ॥
जो राम - भक्त राम में रत हो राम - प्रेम - रस को तृप्त होकर पीता है और राम के साक्षात्कार - जन्य आनन्द में मस्त रहता है, वह सालोक्यादि मुक्तियों को दु:ख१ रूप समझता है और कैवल्य रूप आप ही हो जाता है । अत: वह मुक्ति नहीं माँगता ।
उज्ज्वल भंवरा हरि कमल, रस रुचि बारह मास ।
पीवे निर्मल वासना, सो दादू निज दास ॥
जैसे भ्रमर रुचि पूर्वक कमल के वास - रस का पान करता है, वैसे ही जिसका शुद्ध मन हरि - दर्शन करके भी बारह मास ही प्रेमपूर्वक हरि की निर्मल भक्ति करता है, वही भगवान् का निजी भक्त कहलाता है ।
परिचय पीवे राम रस, राता सिरजनहार ।
दादू कुछ व्यापे नहीं, ते छूटे सँसार ॥
जो परब्रह्म राम के साक्षात्कार रूप - रस - पान में अनुरक्त हैं, उन पर काम - क्रोधादिक आसुरी गुण कुछ भी असर नहीं कर सकते, वे सदा के लिए सँसार से मुक्त हो जाते हैं ।
तन मन वृक्ष बबूल का, काँटे लागे शूल१ ।
दादू माखण ह्वै गया, काहू का अस्थूल२ ॥
मन, बुद्धि, इन्द्रियादि शरीर ही बबूल का वृक्ष है, बुरे सँकल्प, बुरे विचार, सँशय और निषिद्ध - विषय - सेवन ही इसके दुखद१ कंटक लगे हैं, किन्तु किसी साधक के साधन द्वारा स्थूल२ शरीर में रहने वाले उक्त कंटक भी शुभ सँकल्प, ब्रह्म विचार, असँशय और विहित विषय - सेवन रूप मक्खन भाव को प्राप्त हो जाते हैं और जैसे मक्खन सुखद होता है, वैसे ही उक्त प्रकार से परिवर्तित मन: प्रवृत्तियाँ ब्रह्मानन्द प्राप्ति का सुगम व सुखद साधन बन जाती है ।
(जरणा का अंग ५)
को साधू राखे राम धन, गुरु बाइक१ वचन विचार ।
गहिला दादू क्यों रहे, मरकत हाथ गंवार ॥
जरणा का अधिकारी बता रहे हैं - कोई विरला साधु पुरुष ईश्वर दूत - गुरु वचनों१ के विचार से प्राप्त राम - भजन - धन को सँचय करके गुप्त रूप से रख सकता है । जैसे मूर्ख के हाथ में मरकत - मणि आने पर भी वह उसे नहीं रख सकता, अल्प मूल्य में ही बेच देता है, वैसे ही बुद्धिहीन व्यक्ति राम - भजन - धन को सिद्धि तथा प्रतिष्ठा - रूप अल्प - मूल्य में ही खो देता है, पचाकर मुक्ति रूप महान् मूल्य प्राप्त नहीं कर सकता ।
दादू मन ही माँहीँ समझ कर, मन ही माँहि समाइ ।
मन ही माँहीं राखिये, बाहर कह न जनाइ ॥
जरणा करने की प्रेरणा कर रहे हैं - साधको ! विचार पूर्वक भगवत् तत्व को मन में ही समझ कर मनोनिग्रह द्वारा बुद्धि - वृत्ति को उसमें ही लीन करो और उससे होने वाले अनुभव को भी मन में ही रक्खो, वाणी द्वारा मन से बाहर निकाल कर अनधिकारियों को मत कहो ।
कह कह क्या दिखलाइये, सांई सब जाने ।
दादू परकट का कहै, कुछ समझ सयाने ॥
हे चतुर साधक ! तेरे कायिक, वाचिक और मानसिक शुभाशुभ सभी कार्यों को तथा तेरी सभी परिस्थितियों को ईश्वर तो तेरे हृदय में स्थित होने से प्रत्यक्ष रूप से जानते ही हैं, उन्हें तो कहना ही क्या है ? और लोगों को बारँबार कह - कह कर दिखाने से लाभ ही क्या है ? कुछ समझ से काम ले, लोगों को बारँबार कहने से अपने कथन किये हुए सुकृत का नाश होता है । अत: गुप्त ही रखना चाहिए ।
लै विचार लागा रहे, दादू जरता जाइ ।
कबहूं पेट न आफरे, भावे तेता खाइ ॥
जरणा करने की पद्धति बता रहे हैं - जैसे भूख के अनुसार पथ्य भोजन करने से कभी भी पेट नहीं आफरता, सब पच जाता है, वैसे ही भजनादि साधन जन्य लाभ, बहिर्मुख मनुष्यों को कहने से हानि होती है और गुप्त रखने से सफलता मिलती है, ऐसे विचार द्वारा नम्रतापूर्वक वृत्ति भजन में ही लगावे रक्खे तो भजनानन्द पच जायगा । कभी भी अहँकार द्वारा वर, शापादि से नष्ट न हो सकेगा ।
अजर जरे रस ना झरे, पीवत थाके नाँहिं ।
दादू सेवक सो भला, भर राखे घट माँहिं ॥
सर्व साधारण जिसको धारण न कर सके, ऐसे ब्रह्म ज्ञान को धारण करे, ब्रह्म - ज्ञान - रस को हृदय से लवमात्र भी दूर न होने दे और ज्ञानी सन्तों से ज्ञानामृत - रस के पान करने में थके नहीं, ज्ञानोपदेश श्रवण करता ही रहे । परिपूर्ण रूप से अन्त:करण में अद्वैत भावना रक्खे, वही सेवक अच्छा माना जाता है ।