बुधवार, 30 सितंबर 2015

= १९९ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू कर्त्ता करै तो निमष मैं, कीड़ी कुंजर होइ ।
कुंजर तैं कीड़ी करै, मेट सकै नहिं कोइ ॥
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साभार : Nandita Kakkar Sisodia ~
Bhagvan ki khoj ~
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अकबर ने बीरबल के सामने अचानक एक दिन 3 प्रश्न उछाल दिये।
प्रश्न यह थे -
१) "भगवान कहाँ रहता है ?
२) वह कैसे मिलता है
३) वह करता क्या है ?''
बीरबल इन प्रश्नों को सुनकर सकपका गये और बोले - ''जहाँपनाह ! इन प्रश्नों के उत्तर मैं कल आपको दूँगा।" जब बीरबल घर पहुँचे तो वह बहुत उदास थे।
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उनके पुत्र ने जब उनसे पूछा तो उन्होंने बताया - ''बेटा ! आज बादशाह ने मुझसे एक साथ तीन प्रश्न :
🪷 'भगवान कहाँ रहता है ?
🪷 वह कैसे मिलता है ?
🪷 और वह करता क्या है ?' पूछे हैं।
मुझे उनके उत्तर सूझ नही रहे हैं और कल दरबार में इनका उत्तर देना है।''
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बीरबल के पुत्र ने कहा- ''पिता जी ! कल आप मुझे दरबार में अपने साथ ले चलना मैं बादशाह के प्रश्नों के उत्तर दूँगा।''
पुत्र की हठ के कारण बीरबल अगले दिन अपने पुत्र को साथ लेकर दरबार में पहुँचे। बीरबल को देख कर बादशाह अकबर ने कहा - ''बीरबल मेरे प्रश्नों के उत्तर दो।" बीरबल ने कहा - ''जहाँपनाह आपके प्रश्नों के उत्तर तो मेरा पुत्र भी दे सकता है।'' अकबर ने बीरबल के पुत्र से पहला प्रश्न पूछा - ''बताओ !"
"भगवान कहाँ रहता है ?'' 
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बीरबल के पुत्र ने एक गिलास शक्कर मिला हुआ दूध बादशाह से मँगवाया और कहा - जहाँपनाह दूध कैसा है ?
अकबर ने दूध चखा और कहा कि ये मीठा है।
परन्तु बादशाह सलामत या आपको इसमें शक्कर दिखाई दे रही है। बादशाह बोले नही। वह तो घुल गयी। जी हाँ, जहाँपनाह ! भगवान भी इसी प्रकार संसार की हर वस्तु में रहता है। जैसे शक्कर दूध में घुल गयी है परन्तु वह दिखाई नही दे रही है।
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बादशाह ने सन्तुष्ट होकर अब दूसरे प्रश्न का उत्तर पूछा - ''बताओ ! भगवान मिलता केैसे है ?'' बालक ने कहा - ''जहाँपनाह थोड़ा दही मँगवाइए।
''बादशाह ने दही मँगवाया तो बीरबल के पुत्र ने कहा - ''जहाँपनाह ! क्या आपको इसमं मक्खन दिखाई दे रहा है। बादशाह ने कहा- ''मक्खन तो दही में है पर इसको मथने पर ही दिखाई देगा।'' बालक ने कहा- ''जहाँपनाह ! मन्थन करने पर ही भगवान के दर्शन हो सकते हैं।''
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बादशाह ने सन्तुष्ट होकर अब अन्तिम प्रश्न का उत्तर पूछा - ''बताओ ! भगवान करता क्या है ?'' बीरबल के पुत्र ने कहा- ''महाराज ! इसके लिए आपको मुझे अपना गुरु स्वीकार करना पड़ेगा।''
अकबर बोले- ''ठीक है, आप गुरु और मैं आप का शिष्य।''
अब बालक ने कहा- ''जहाँपनाह गुरु तो ऊँचे आसन पर बैठता है और शिष्य नीचे।'' अकबर ने बालक के लिए सिंहासन खाली कर दिया और स्वयं नीचे बैठ गये। 
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अब बालक ने सिंहासन पर बैठ कर कहा - ''महाराज ! आपके अन्तिम प्रश्न का उत्तर तो यही है।''
अकबर बोले- ''क्या मतलब ? मैं कुछ समझा नहीं।''
बालक ने कहा- ''जहाँपनाह ! भगवान यही तो करता है।
"पल भर में राजा को रंक बना देता है और भिखारी को सम्राट बना देता है।"

= १९८ =

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卐 सत्यराम सा 卐
हिरदै राम सँभाल ले, मन राखै विश्वास ।
दादू समर्थ सांइयां, सब की पूरै आस ॥
दादू सांई सबन को, सेवक ह्वै सुख देइ ।
अया मूढ मति जीव की, तो भी नाम न लेइ ॥
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साभार ~ Ramjibhai Jotaniya
~ @SEEMA ADLAKHA
एक बार नरसी जी का बड़ा भाई वंशीधर नरसी जी के घर आया पिता जी का वार्षिक श्राद्ध करना था।
वंशीधर ने नरसी जी से कहा - 'कल पिताजी का वार्षिक श्राद्ध करना है। कहीं अड्डेबाजी मत करना बहु को लेकर मेरे यहाँ आ जाना। काम-काज में हाथ बटाओगे तो तुम्हारी भाभी को आराम मिलेगा।'
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नरसी जी ने कहा - 'पूजा पाठ करके ही आ सकूँगा।'
इतना सुनना था कि वंशीधर उखड गए और बोले - 'जिन्दगी भर यही सब करते रहना। जिसकी गृहस्थी भिक्षा से चलती है, उसकी सहायता की मुझे जरूरत नहीं है। तुम पिताजी का श्राद्ध अपने घर पर अपने हिसाब से कर लेना।'
नरसी जी ने कहा -``नाराज क्यों होते हो भैया ? मेरे पास जो कुछ भी है, मैं उसी से श्राद्ध कर लूँगा।'
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दोनों भाईयों के बीच श्राद्ध को लेकर झगडा हो गया है, नागर-मंडली को मालूम हो गया। नरसी अलग से श्राद्ध करेगा, ये सुनकर नागर मंडली ने बदला लेने की सोची। पुरोहित प्रसन्न राय ने सात सौ ब्राह्मणों को नरसी के यहाँ आयोजित श्राद्ध में आने के लिए आमंत्रित कर दिया। प्रसन्न राय ये जानते थे कि नरसी का परिवार मांगकर भोजन करता है। वह क्या सात सौ ब्राह्मणों को भोजन कराएगा ? आमंत्रित ब्राह्मण नाराज होकर जायेंगे और तब उसे ज्यातिच्युत कर दिया जाएगा।
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अब कहीं से इस षड्यंत्र का पता नरसी मेहता जी की पत्नी मानिकबाई जी को लग गया वह चिंतित हो उठी। अब दुसरे दिन नरसी जी स्नान के बाद श्राद्ध के लिए घी लेने बाज़ार गए। नरसी जी घी उधार में चाहते थे पर किसी ने उनको घी नहीं दिया। अंत में एक दुकानदार राजी हो गया पर ये शर्त रख दी कि नरसी को भजन सुनाना पड़ेगा।
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बस फिर क्या था, मन पसंद काम और उसके बदले घी मिलेगा, ये तो आनंद हो गया। अब हुआ ये कि नरसी जी भगवान का भजन सुनाने में इतने तल्लीन हो गए कि ध्यान ही नहीं रहा कि घर में श्राद्ध है।
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मित्रों ये घटना सभी के सामने हुयी है। और आज भी कई जगह ऎसी घटनाएं प्रभु करते हैं ऐसा कुछ अनुभव है। ऐसे-ऐसे लोग हुए हैं इस पावन धरा पर। तो आईये कथा मे आगे चलते हैं...
अब नरसी मेहता जी गाते गए भजन उधर नरसी के रूप में भगवान कृष्ण श्राद्ध कराते रहे। यानी की दुकानदार के यहाँ नरसी जी भजन गा रहे हैं और वहां श्राद्ध "कृष्ण भगवान" नरसी जी के भेस में करवा रहे हैं।

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॥ श्री दादूदयालवे नमः ॥ 
"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =

= बारहवां १२ अध्याय =
= १४ आचार्य गुलाबदासजी =
प्रभुदास जी के चातुर्मास वि. सं. १९४७ में प्रभुदासजी लोरडी वालों ने आचार्य गुलाबदासजी महाराज को चातुर्मास का निमंत्रण दिया । आचार्यजी ने स्वीकार किया । फिर शिष्य संत मंडल के सहित आचार्य गुलाबदासजी महाराज लोरडी पधारे । प्रभुदासजी ने भक्त मंडल के सहित संकीर्तन करते हुये जाकर आचार्यजी का सामेला किया । भेंट चढाकर सत्यराम दंडवत की और संकीर्तन करते हुये ले जाकर स्थान पर ठहराया । चातुर्मास आरंभ हो गया । चातुर्मास के कार्यक्रम सुचारु रुप से चलने लगे । अच्छा चातुर्मास हुआ । समाप्ति पर प्रभुदासजी ने आचार्यजी को मर्यादानुसार भेंट दी तथा शिष्य संत मंडल को यथायोग्य वस्त्रदि देकर सस्नेह विदा किया । लोरडी से विदा किया । लोरडी से विदा होकर आचार्य गुलाबदासजी महाराज शिष्य संत मंडल के साथ भ्रमण करते हुये नारायणा दादूधाम पधार गये । 
ब्रह्मलीन होना ~ 
उक्त प्रकार आचार्य गुलाबदासजी महाराज १७ वर्ष २ मास १५ दिन गद्दी पर विराज कर वि. सं. १९४८ में मार्गशीर्ष शुक्ला १३ रविवार को ब्रह्मलीन हो गये । आपने- अपने समय में समाज का अच्छा संचालन किया था । समाज में सुख शांति का विस्तार हुआ था । अन्य समाज भी आप पर श्रद्धा रखते थे । 
गुण गाथा ~
दोहा- प्रिय गुलाब सम सभी को, लगे गुलाबाचार्य । 
निज अधिकार समान ही, किये पंथ के कार्य ॥१ ॥ 
पूर्वाचार्यों की चले, चाल छोड अभिमान । 
अत: गुलाबदासजी पर, हुआ भले सम्मान ॥२ ॥ 
किया गुलाबाचार्य पर, कई नृपों ने भाव । 
निज नगरों में ले गये, पूजे कर उत्साव ॥३ ॥ 
कोमल प्रकृति गुलाब सम, हुये गुलाबाचार्य । 
इससे सब ही मानते, उन्हें अनार्य आर्य ॥४ ॥ 
स्वाभाविक ही सर्व प्रिय, होत संत प्रख्यात । 
गुरु गुलाब ऐसे हि थे, संत सुनाते बात ॥५ ॥ 
‘नारायणा’ निर्णय भया, गुलाब थे सु महन्त । 
इससे महिमा गाय हैं, उनकी सुन्दर संत ॥६ ॥ 

(क्रमशः)

२९. ज्ञानी को अंग ~ २६

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२९. ज्ञानी को अंग*
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*जैसैं काहू देश जाइ भाषा कहै और सी ही,*
*समुझ न कोऊ व सौं कहै का कहतु है ।*
*कोऊ दिन रहि करि बोली सीखै उनही की,*
*फेरि समुझावै तब सबको लहतु है ॥*
*तैसैं ज्ञान कहैं तैं सुनत बिपरीत लागै,*
*आप आपुनौं ई मत सब कौ गहतु है ।*
*उनही के मत करि सुन्दर कहत ज्ञान,*
*तबही तौं ज्ञान ठहराइ कैं रहतु है ॥२६॥*
जैसे कोई विदेश में जाने पर वहाँ की बोली जाने वाली भाषा नहीं समझ पाता कि कौन क्या बोल रहा है ?
परन्तु वही मनुष्य, कुछ दिन वहाँ रहने पर, उनकी भाषा सीख लेता है, तब वह अपने मन के भाव उनको समझा लेता है, तथा उनकी बातें स्वयं समझने में समर्थ हो जाता है ।
उसी प्रकार, यह आत्मज्ञान आरम्भ में तो समझने में कठिन लगता है, तथा सभी अपना अपना मत ही पकड़ रखने का आग्रह किये रहते हैं । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - परन्तु जब ज्ञानी उन की ही भाषा में उसे ज्ञान उपदेश करने लगता है, तब वह आत्मज्ञान उन सामान्य कोटि के लोगों को भी समझ में आने लगता है ॥२६॥
(क्रमशः)

*= बीरबल को उपदेश =*

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= २३ वां विन्दु दिन ५ =*
*= बीरबल को उपदेश =*
पांचवें दिन अकबर बादशाह ने सत्संग के लिये दादूजी को बुलाने बीरबल को भेजा । बीरबल ने दादूजी के पास जाकर सत्यराम बोलते हुये तथा साष्टांग दंडवत करते हुये प्रणाम किया । फिर हाथ जोड़कर सन्मुख बैठ गया और बोला भगवन् ! मुझे भेष दे दें तो अच्छा हो ।
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तब दादूजी बोले -
"भेष न रीझे मेरा निज भरतार, ता तैं कीजे प्रीति विचार ॥टेक॥
दुराचारिणी रच भेष बनावे, शील साच नहिं पिव को भावे ॥१॥
कंत न भावे करे श्रृंगार, ढिंभ पणे रीझे संसार ॥२॥
जो पै पतिव्रता हो नारी, सो धन भावे पियहिं ॥३॥
पीव पहचाने आन नहिं कोई, दादू सोइ सुहागिनि होई ॥४॥
अर्थात् भेष से विशेष लाभ नहीं होता है, प्रभु की सेवा-भक्ति करने से ही प्रभु प्रसन्न होते हैं । सच्ची भक्ति बिना प्रभु की प्राप्ति नहीं होती है और प्रभु को जब तक प्राप्त नहीं करता है तब तक प्राणी को संतोष नहीं मिलता है ।
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यही कहने के लिये दूसरा पद बोला -
"सांई बिना संतोष न पावे, भावे घर तज वन वन धावे ॥टेक॥
भावे पढ़ गुण वेद उचारे, आगम निगम सबै विचारे ॥१॥
भावे नव खंड सब फिर आवे, अजहूँ आगे काहे न जावे ॥२॥
भावे सब तज रहै अकेला, भाई बन्धु न काहू मेला ॥३॥
दादू देखे सांई सोई, सांच बिना संतोष न होई ॥४॥"
जो सच्ची भक्ति करता है, वही परमेश्वर का साक्षात्कार कर सकता है । सच्ची भक्ति बिना प्राणी को संतोष नहीं हो सकता, चाहे वह सब कुछ त्यागकर अकेला भ्रमण करे, चाहे शास्त्र पढ़े इत्यादि कुछ भी करे प्रभु की प्राप्ति तो यथार्थ साधन करने से ही होती है । उक्त उपदेश सुनकर बीरबल को प्रसन्नता प्राप्त हो गई, फिर वह बोला - अकबर बादशाह आपको सत्संग के लिये बुला रहा है, आपको बुलाने ही मैं आया था । तब जगजीवनजी को आसन पर छोड़कर अपने सात शिष्यों के साथ नगर के मध्य मार्ग से राज-सभा को चले ।
(क्रमशः)

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॥ श्री दादूदयालवे नम:॥
३५३.(पंजाबी) क्रीड़ा ताल खंडनि ~
आसण रमदा रामदा, हरि इथां अविगत आप वे ।
काया काशी वंजणां, हरि इथैं पूजा जाप वे ॥ टेक ॥ 
महादेव मुनि देवते, सिद्धैंदा विश्राम वे ।
स्वर्ग सुखासण हुलणैं, हरि इथैं आत्मराम वे ॥ १ ॥ 
अमी सरोवर आतमा, इथांई आधार वे ।
अमर थान अविगत रहै, हरि इथैं सिरजनहार वे ॥ २ ॥ 
सब कुछ इथैं आव वे, इथां परमानन्द वे ।
दादू आपा दूर कर, इथांई आनंद वे ॥ ३ ॥ 
इति राग विलावल सम्पूणः ॥ २१ ॥ पद २० ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव निज स्थान निर्णय कर रहे हैं कि हे नागर ! निर्गुण ब्रह्मरूप राम का आसन भीतर हृदय स्थान ही है । वह पापों का हर्ता हरि, अविगत रूप, आप स्वयं यहाँ ही प्रकट हैं । इस काया रूप काशी मैं ही ‘वंजणां’ कहिए यात्रा कर । उस हरि की भीतर ही जाप रूप पूजा कर । यहाँ ही महादेव, मुनि, देव आदि सब निवास करते हैं, इसी में सिद्धों का विश्राम है । और स्वर्ग का सुख रम्भा, ऊर्वशी आदिकों के साथ किलोल रूप भी यहाँ ही है । इस शरीर में ही आत्मा रूप राम का दर्शन है । यहाँ आत्म - विचार रूप ही अमृत का सरोवर है । हृदय में ही सर्व का आधार स्वरूप परमेश्‍वर है । अमर स्वरूप अविगति का यही स्थान है । वही हरि आप सिरजनहार रूप हैं । सब कुछ इस माया के अन्दर ही है, इसमें ही अन्तर्मुख वृत्ति से आओ । इसी में परम आनन्द स्वरूप चैतन्य निवास करते हैं, परन्तु अपने अनात्म आपा अभिमान को त्याग करे, तो इस शरीर में ही सदैव आनन्द - स्वरूप के साथ अभेद होते हैं ।
नागर कहै निजाम सूं, चलो टहटड़ा गाँव । 
टूक मिलैं टापा मिटैं, बैठे गोविन्द गाव ॥ 
प्रसंग - इन दोनों पदों से नागर ब्राह्मण और निजाम को उपदेश किया था, जब वे काशी आदि की यात्रा करने जा रहे थे और परम गुरुदेव के टहटड़ा गाँव में दर्शन प्राप्त हुए । चरणों में नमस्कार किया और इस उपदेश द्वारा, अपनी अन्तर्मुख वृत्ति करके स्वस्वरूप का आनन्द प्राप्त किया, सम्पूर्ण बहिरंग भटकन उनकी दूर हो गई । फिर नागर और निजाम शिष्य होकर दोनों महाराज का आदेश पाकर टहटड़ा में ही निवास करते रहे ।
इति राग विलावल टीका सहित सम्पूर्णः ॥ २१ ॥ पद २०

मंगलवार, 29 सितंबर 2015

= १९७ =

#‎daduji‬
卐 सत्यराम सा 卐
दादू होना था सो ह्वै रह्या, और न होवै आइ ।
लेना था सो ले रह्या, और न लिया जाइ ॥
ज्यों रचिया त्यों होइगा, काहे को सिर लेह ।
साहिब ऊपरि राखिये, देख तमाशा येह ॥
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साभार ~ Ramjibhai Jotaniya ~
एक कौआ जंगल में रहता था और अपने जीवन से संतुष्ट था। एक दिन उसने एक हंस को देखा, “यह हंस कितना सफ़ेद है, कितना सुन्दर लगता है।” उसने मन ही मन सोचा। उसे लगा कि यह सुन्दर हंस दुनिया में सबसे सुखी पक्षी होगा, जबकि मैं तो कितना काला हूँ ! यह सब सोचकर वह काफी परेशान हो गया और उससे रहा नहीं गया, उसने अपने मनोभाव हंस को बताये ।
.
हंस ने कहा – “वास्तिकता ऐसी है कि पहले मैं खुद को आसपास के सभी पक्षिओ में सुखी समझता था। लेकिन जब मैंने तोते को देखा तो पाया कि उसके दो रंग है तथा वह बहुत ही मीठा बोलता है। तब से मुझे लगा कि सभी पक्षिओ में तोता ही सुन्दर तथा सुखी है।”
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अब कौआ तोते के पास गया। तोते ने कहा - “मैं सुखी जिंदगी जी रहा था, लेकिन जब मैंने मोर को देखा तब मुझे लगा कि मुझ मे तो दो रंग ही, परन्तु मोर तो विविधरंगी है। मुझे तो वह ही सुखी लगता है।”
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फिर कौआ उड़कर प्राणी संग्रहालय गया। जहाँ कई लोग मोर देखने एकत्र हुए थे। जब सब लोग चले गए तो कौआ उसके पास जाकर बोला -“मित्र, तुम तो अति सुन्दर हो। कितने सारे लोग तुम्हे देखने के लिए इकट्ठे होते है ! प्रतिदिन तुम्हे देखने के लिए हजारो लोग आते है ! जब कि मुझे देखते ही लोग मुझे उड़ा देते है। मुझे लगता है कि अपने इस ग्रह पर तो तुम ही सभी पक्षिओ में सबसे सुखी हो।”
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मोर ने गहरी सांस लेते हुए कहा - “मैं हमेशा सोचता था कि ‘मैं इस पृथ्वी पर अतिसुन्दर हूँ, मैं ही अतिसुखी हूँ।’ परन्तु मेरे सौन्दर्य के कारण ही मैं यहाँ पिंजरे में बंद हूँ। मैंने सारे प्राणी में गौर से देखे तो मैं समझा कि ‘कौआ ही ऐसा पक्षी है जिसे पिंजरे में बंद नहीं किया जाता।’ मुझे तो लगता है कि काश मैं भी तुम्हारी तरह एक कौआ होता तो स्वतंत्रता से सभी जगह घूमता-उड़ता, सुखी रहता !”
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मित्रों, यही तो है हमारी समस्या। हम अनावश्यक ही दूसरों से अपनी तुलना किया करते हैं और दुखी-उदास बनते हैं। हम कभी हमें जो मिला होता है उसकी कद्र नहीं करते इसीके कारण दुःख के विषचक्र में फंसे रहते हैं। प्रत्येक दिन को भगवान की भेट समझ कर आनंद से जीना चाहिए।
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सुखी होना तो सब चाहते है लेकिन सुखी रहेने के लिए सुख की चाबी हाथ करनी होगी तथा दूसरों से तुलना करना छोड़ना होगा। क्योंकि तुलना करना दुःख को न्योता देने के सामान है। दुनिया में कोई परफेक्ट नहीं है हर एक में कुछ न कुछ कमी है अपनी कमी को अपनी खूबी में बदले और अपनी खूबी के लिए भगवान का धन्यवाद् दे।

= १९६ =

#‎daduji‬
卐 सत्यराम सा 卐
मैं ही मेरे पोट सिर, मरिये ताके भार ।
दादू गुरु प्रसाद सौं, सिर तैं धरी उतार ॥
मेरे आगे मैं खड़ा, ता तैं रह्या लुकाइ ।
दादू प्रकट पीव है, जे यहु आपा जाइ ॥
दादू जीवित मृतक होइ कर, मारग मांही आव ।
पहली शीश उतार कर, पीछे धरिये पांव ॥
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साभार : Osho Prem Sandesh ~

एक साधक, भारत आकर उसको पता चला कि उस की कोई पुरानी मित्र, एक युवती यहां मेरी सन्यासिनी है, तो सोचा एक दिन के लिए उससे मिल जाए। उससे आठ वर्ष से मिला भी नहीं। तो उसे मिलने आ गया। उस युवती में अंतर देखे, जैसा वह जानता था, वैसी वह नहीं रही है। और जैसा उसने सोचा भी नहीं था, कभी उसके जीवन में घटेगा, उसकी उसे झलक मिली।
.
वह रुका रहा तीन दिन के लिए। ध्यान करने लगा। फिर सात दिन के लिए रुक गया। फिर कल सन्यस्त हो गया; अब तो जैसे रुक ही गया। वह कल मुझे कहने लगा कि आया था मैं भारत की यात्रा पर और क्या हो गया ? यह तो मैंने सोचा ही न था। मैंने उससे कहा कि यही है भारत की यात्रा। तुझे भारत मिल गया।
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उसे अपने जन्मों का पिछले जन्मों का हिसाब भी तो पता नहीं है। कौन सी आकांक्षा उसे भारत ले आई है। कौन से अनजाने सूत्र उसे भारत ले आए। क्यों आ गया है ? कैसे संयोग बनते चले गए। और अब तो जीवन वही न होगा। अब वह कल कहने लगा, मेरी पत्नी का क्या होगा ? मेरे बच्चों का क्या होगा ? यह तो उसने कभी सोचा ही न होगा, कि मैं संन्यस्त हो जाऊंगा। इसका मुझे भी कभी सपना न था। और मैं कभी ध्यान करूंगा इसका भी मुझे खयाल न था। और अब जो हो गया है, इससे पीछे लौटने का उपाय नहीं है।
.
जीवन, तुम जैसा सोचते हो, कि तुम्हारे जाने - जाने चल रहा है, ऐसा नहीं है। तुम्हारे जाने - जाने तो बहुत थोड़ा सा हिस्सा चल रहा है, जहां टिमटिमाती रोशनी है। अधिक हिस्सा तो अचेतन के अंधकार में दबा है। तुम आ गए हो। अब तुम्हें खयाल भी नहीं है कि तुम मरने को आ गए हो, मिटने को आ गए हो। तुम शायद कुछ लेने को आए हो।
.
शिष्य और गुरु का गणित अलग - अलग है। शिष्य कुछ लेने आता है। और गुरु उसे समझाता है देंगे, बैठो; और फिर छीन लेता है। शिष्य आता है सुखी होने, और गुरु जानता है, जो भी सुखी होने आया है, वह दुख से न बच सकेगा। इसलिए गुरु कहता है, देंगे सुख। समझाता सुख है, देता शांति है। शांति सुख से बड़ी अलग बात है।
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शांति का अर्थ है, जहां न दुख रह जाता है, न सुख। लेकिन वही महासुख है।
निश्चित ही, तुम्हें मैं चाहूं तो अभी मार डालूं लेकिन उससे तुम्हारा पुनर्जन्म न होगा। सिर्फ मैं अदालत के चक्कर में फंस जाऊंगा। तुम नाहक मुझे उलझा दोगे, तुम तो सुलझ न पाओगे।
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नहीं, धीरे - धीरे, क्रमश: आहिस्ता - आहिस्ता तुम्हें राजी करना पड़ेगा। जिस दिन तुम राजी हो जाओगे, उसी दिन घटना घट जाएगी। क्योंकि यह मृत्यु कोई शरीर की मृत्यु थोड़े ही है, यह मृत्यु तो तुम्हारे अहंकार की मृत्यु है।
.
और इस जगत में सबसे बड़ी कुशलता चाहिए अहंकार को मार डालने के लिए, क्योंकि अहंकार बहुत कुशल है। वह सब तरह से बच जाता है। तुम उसे एक जगह से मारोगे, वह दूसरी जगह खड़ा हो जाएगा। तुम उसका एक सिर काटोगे, नया सिर पैदा हो जाएगा।
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रावण की हमने कथा लिखी है, कि उसके दस सिर हैं। एक काटो, प्रतिक्षण दूसरा पैदा होता चला जाता है। उसे मारना मुश्किल है। रावण की कथा अहंकार की कथा है। अहंकार को मारना बहुत मुश्किल है। तुम इधर काटते हो, वह उधर से खड़ा हो जाता है। इधर मारते हो, वहां बन जाता है। लेकिन वह अपने को बचाए जाता है। बड़ी सूक्ष्म उसकी गतिविधि है। उसे मारने के लिए बड़ा होश चाहिए। इतना होश, कि तुम्हारे भीतर के घर में कहीं भी कोई अंधेरा कोना न रह जाए, जहां वह खड़ा हो जाए और बच जाए।
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जिस दिन तुम्हारे भीतर का दीया पूरा जलता है, रोशन होते हो तुम, कहीं कोई अंधेरा नहीं होता, उसी दिन अहंकार मर पाता है। जिस दिन गुरु देखता है कि अब घटना घट गई, उस दिन वह कह देता है, छोड़ दो, फेंक दो, अब इस कचरे को मत ढोओ। और तब एक बूंद भी खून नहीं गिरता और तुम मर जाते हो।
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अगर एक बूंद खून भी गिर जाए तो गुरु, गुरु न था; सिक्खड़ ही रहा होगा। गुरु की गुरुता यही है कि एक बूंद खून न गिरे और तुम मर जाओ। जरा सी चोट न लगे और सब विसर्जित हो जाए। गंगा सागर में गिर जाए, कहीं शोरगुल न हो।
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तुमने कभी पक्षियों को पर तौलकर आकाश में उड़ते देखा? कहीं कुछ पता भी नहीं चलता। जरा सा पंख खुल जाते हैं और पक्षी आकाश में उड़ जाता है।
तुमने कभी चीलों को तिरते देखा आकाश में - कि पंख भी नहीं हिलते ?
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ठीक ऐसी ही जीवनदशा है, जहां जरा सा भी शोरगुल नहीं होता, एक बूंद खून भी नहीं गिरता, जरा सी चोट नहीं लगती और सब सुलझ जाता है - सब ! सारी गांठें खुल जाती हैं। तुम निर्ग्रंथ हो जाते हो।
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गुरु के पास जो मृत्यु घटित होती है, वह महाजीवन है। उसके लिए तैयार होना जरूरी है। तुम्हारा इतने कहने से कि तुम मरने को तैयार हो, काफी नहीं है। तुम्हें जीने के लिए तैयार होना जरूरी है।
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और मैं तुमसे जो आखिरी बात इस संबंध में कहना चाहूंगा, वह यह है कि दुनिया में बहुत लोग हैं, जो मरने को तैयार हैं। दुनिया में बहुत कम लोग हैं, जो जीने को तैयार हैं। अगर तुम्हें चाहिए हों मरने के लिए लोग, तो बहुत मिल जाते हैं। शहीद होने के लिए बहुत पागल तैयार हैं।
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हिंदू धर्म खतरे में है, बहुत से नासमझ मरने को तैयार हो जायेंगे। इस्लाम खतरे में है, बहुत से नासमझ कूद कर मर जाएंगे। भारत पर हमला हो जाए, पाकिस्तान से झगड़ा हो जाए, चीन से हो जाए, मरने को लोग तैयार हैं। मरना तो बिलकुल आसान मालूम पड़ता है। क्यों ?
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क्योंकि तुम्हारा जीवन इतने दुख से भरा है। इस दुख में तुम जी ही नहीं पा रहे हो। इसलिए तुम कोई भी बहाना खोज कर मरने के लिए तैयार हो जाते हो। जरा सी बात हो जाती है - दिवाला निकल गया; क्या हुआ है दिवाला निकल जाने में ? जो रकम के आंकड़े तुम्हारे नाम लिखे थे बैंक में, अब नहीं लिखे। जो कागज के टुकड़े तुम्हारी तिजोड़ी में थे, अब नहीं हैं। दिवाला निकल गया, जान खोने को तैयार हो ! कूद पड़े बड़े मकान से ! आग लगा ली !
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पत्नी मर गई, मरने को तैयार हो। जिसके जीने से कभी कोई रस न पाया था, उसके लिए मरने को तैयार हो ! बच्चा मर गया; जिस बच्चे के चेहरे को देखने की तुम्हें कभी फुरसत न मिली थी, उसके लिए मरने को तैयार हो !

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॥ श्री दादूदयालवे नमः ॥ 
"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =

= बारहवां १२ अध्याय =
= १४ आचार्य गुलाबदासजी =
धनीराम जी के चातुर्मास ~ 
वि. सं. १९४६ में धनीरामजी फिरोजपुर वालों ने आचार्य गुलाबदासजी महाराज को चातुर्मास का निमंत्रण दिया । आचार्य जी ने स्वीकार किया । चातुर्मास का समय समीप आने पर अपने शिष्य संत मंडल के सहित आचार्य गुलाबदासजी महाराज पधारे । धनीरामजी ने भक्त मंडल के साथ आकर आचार्य जी की अगवानी की । भेंट चढाकर सत्यराम दंडवत करके संकीर्तन करते हुये अति सत्कार से स्थान पर ले गये । चातुर्मास आरंभ हो गया । चातुर्मास के सभी कार्यक्रम बहुत अच्छे चले । समाप्ति पर धनीरामजी ने मर्यादानुसार आचार्य जी को भेंट दी तथा शिष्य संत मंडल को यथा योग्य वस्त्रादि दिये और सस्नेह विदा किया वहाँ से विदा होकर आचार्य गुलाबदासजी महाराज शिष्य संत मंडल के सहित भ्रमण करते हुये नारायणा दादूधाम पर पधार गये और यहां ही सत्संग भजन करते हुये आगत संत तथा सेवकों को उपदेश करते रहे । 
प्रभुदासजी के चातुर्मास ~ 
वि. सं. १९४७ में प्रभुदासजी लोरडी वालों ने आचार्य गुलाबदासजी महाराज को चातुर्मास का निमंत्रण दिया । आचार्य जी ने स्वीकार किया । फिर शिष्य संत मंडल के सहित आचार्य गुलाबदासजी महाराज लोरडी पधारे । प्रभुदास जी ने भक्त मंडल के सहित संकीर्तन करते हुये जाकर आचार्य जी का सामेला किया । भेंट चढाकर सत्यराम दंडवत की और संकीर्तन करते हुये ले जाकर स्थान पर ठहराया । चातुर्मास आरंभ हो गया । चातुर्मास के कार्यक्रम सुचारु रुप से चलने लगे । अच्छा चातुर्मास हुआ । समाप्ति पर प्रभुदासजी ने आचार्यजी को मर्यादानुसार भेंट दी तथा शिष्य संत मंडल को यथायोग्य वस्त्रदि देकर सस्नेह विदा किया । लोरडी से विदा होकर आचार्य गुलाबदासजी महाराज शिष्य संत मंडल के साथ भ्रमण करते हुये नारायणा दादूधाम पधार गये ।
धनीराम जी के चातुर्मास ~
वि. सं. १९४६ में धनीराम जी फिरोजपुर वालों ने आचार्य गुलाबदासजी महाराज को चातुर्मास का निमंत्रण दिया । आचार्यजी ने स्वीकार किया । चातुर्मास का समय आने पर अपने शिष्य संत मंडल के सहित आचार्य गुलाबदासजी महाराज पधारे । धनीरामजी ने भक्त मंडल के साथ आकर आचार्यजी की अगवानी की । भेंट चढाकर सत्यराम दंडवत करके संकीर्तन करते हुये अति सत्कार से स्थान पर ले गये । चातुर्मास आरंभ हो गया । चातुर्मास के सभी कार्यक्रम बहुत अच्छे चले । समाप्ति पर धनीरामजी ने मर्यादानुसार आचार्यजी को भेंट दी तथा शिष्य संत मंडल को यथा योग्य वस्त्रादि दिये और सस्नेह विदा किया । वहां से विदा होकर आचार्य गुलाबदासजी महाराज शिष्य संत मंडल के सहित भ्रमण करते हुये नारायणा दादूधाम पर पधार गये और यहाँ ही सत्संग भजन करते हुये आगत संत तथा सेवकों को उपदेश करते रहे । 
(क्रमशः)

२९. ज्ञानी को अंग ~ २५

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२९. ज्ञानी को अंग*
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*जाही ठौर रवि उद्यौत भयौ ताही ठौर,*
*अंधकार भागि गयौ गृह बनवास तैं ।* 
*न तौ कुछ बन तैं उलटि आवै घर मांहि,* 
*न तौ बन चलि जाइ कनक आवास तैं ॥* 
*जैसैं पंखी पांख टूटि जाही ठौर पर्यौ आइ ।* 
*ताही ठौर गिरि रह्यौ उड़िबे की आस तैं ।* 
*सुन्दर कहत मिटि जाइ सब दौर धूप,* 
*धोखौ न रहत कोऊ ज्ञान के प्रकास तैं ॥२५॥* 
*ज्ञान से द्वैत भ्रम का निवारण* : जिस साधक के हृदय में ज्ञानसूर्य प्रकट हो गया उस का गृह तथा वनवास के प्रति सकल भ्रम मिट गया । 
तब वह न तो वन से पुनः गृहस्थ में लौटने की बात मन में लाता है, तथा न वह सुवर्णप्रासाद में बैठा हुआ(पूर्ण गृहस्थ धर्म भोगता हुआ) वन में जाने की सोचता है । 
जैसे कोई पक्षी पंख टूट जाने पर वहीं गिर जाता है, आगे उड़ने की आशा छोड़ देता है; 
*श्री सुन्दरदासजी* कहते हैं - वैसे ही उस साधक की, ज्ञान का प्रकाश होने पर, सभी दौड़ धूप(वासनाएँ) मिट जाती हैं । उसको कोई द्वैतभ्रम(धोखा) नहीं रह जाता ॥२५॥
(क्रमशः)

*नाम भेद*

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= २२ वां विन्दु चतुर्थ दिन =*
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उक्त सब साखियां बोलकर दादूजी ने कहा - तुमने नाम भेद कहा है, सो हमारे हृदय में नहीं है । नाम रूप का भेद तो मायिक गुणों द्वारा होता है । नामी परब्रह्म है उसमें भेद कुछ भी नहीं है । नामी परब्रह्म तो सच्चिदानन्द स्वरूप है । भोजन के अनेक नाम होते हैं किंतु उन अनेक नामों वाले भोजन का फल एक तृप्ति ही होता है, वैसे ही परब्रह्म के नाम तो अनेक हैं किंतु निष्काम भाव से चिन्तन करने पर सबका फल एक परब्रह्म की प्राप्ति ही होता है -
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"दादू एकै अल्लह राम है, समर्थ सांई सोय ।
मैदे के पकवान सब, खातां होय सु होय ॥"
अर्थात् जैसे मैदा के अनेक पकवानों के खाने से तृप्ति होती है, वही होगी, वैसे ही ईश्वर के सब नामों का निष्काम भाव से चिन्तन करने पर परब्रह्म की प्राप्तिरूप फल होता है वही होगा, अन्य नहीं हो सकता ।
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पद - "अलह कहो भावै राम कहो, डाल तजो सब मूल गहो ॥टेक॥
अलह राम कह कर्म दहो, झूठे मारग कहा बहो ॥१॥
साधू संगति तो निबहो, आप परे सो शीश सहो ॥२॥
काया कमल दिल लाय रहो, अलख अलह दीदार लहो ॥३॥
सद्गुरु की सीख अहो, दादू पहुँचे पार पहो ॥४॥
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दूसरा पद - हिन्दू तुरक न जानूं दोय,
सांई सबन का सोई है रे, ओर न दूजा देखूं कोय ॥टेक॥
कीट पतंग सबै योनिन में, जल थल संग समाना सोहि ।
पीर पैगम्बर देवा दानव, मेरे मलिक मुनि जनको मोहि ॥१॥
कर्ता है रे सोई चीन्हौं, जनि वै क्रोध करे रे कोय ।
जैसे आरसी मंजन कीजे, राम रहीम देही तन धोय ॥२॥
सांई केरी सेवा कीजे, पायो धन काहे को खोय ।
दादू रे जन हरि जप लीजे, जन्म जन्म जे सुर जन होय ॥३॥"
हिन्दू मुसलमान को दो मत समझो, सबका उत्पन्न करने वाला वह एक ही परमात्मा है और किसी दूसरे को मैं नहीं देखता । जल तथा स्थल के कीट पतंगादि सभी योनियों में वह ईश्वर समाया हुआ रहकर सबके साथ रहता है । पीरों पैगम्बरों, देवताओं, दानवों, सरदारों, बादशाह और मुनिजन सबको वह मोहित करता है ।
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वास्तविक कर्ता जो ईश्वर है, उसी को पहचानो । बिना विचार एक पक्ष को पकड़कर कोई किसी पर क्रोध न करें । जैसे दर्पण को मांजकर साफ करने से मुखादि शरीर ठीक दीखता है, वैसे ही अन्तःकरण को भजन के द्वारा मांज-कर पवित्र करो, फिर राम और रहीम एक ही भासेंगे । इस प्रकार निष्पक्ष मध्यमार्ग द्वारा परमात्मा की भक्ति करो ।
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मानव देह रूप धन प्राप्त होने पर भी इसे व्यर्थ विषयों में क्यों खो रहे हो ? हे जनों ! जिसके सुर भी भक्त हैं वह परमात्मा तुम्हारे प्रति जन्म में तुम्हारे सहायक होते हैं, उन्हीं हरि का नाम जप कर उन्हें प्राप्त कर लो, तब ही यह मानव जन्म सफल होगा ।
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दादूजी का उक्त उपदेश सुनकर अकबर बादशाह बहुत प्रसन्न हुआ और बोला - भगवन् ! आप में किसी भी प्रकार का पक्षपात नहीं दिखाई देता है । आप सर्वथा निष्पक्ष संत हैं । मेरे भाग्योदय से मुझे आपका सत्संग मिला है । आप मेरे अपराधों को अवश्य क्षमा करेंगे । मैंने आपको क्षुब्ध करने की चेष्टा की थी किन्तु आप तो उस समय भी परम धैर्य से युक्त ही रहे ।
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अब सत्संग का समय समाप्त हो गया था । इससे प्रवचन समाप्त करके दादूजी बाग में पधारने के लिये खड़े हो गये । तब बादशाह आदि सर्व सभा के लोगों ने उठकर दादूजी को प्रणाम किया । फिर दादूजी 'सत्यराम' बोलकर बाग को पधार गये ।
इति श्री दादूचरितामृत सीकरी सत्संग चतुर्थ दिन विन्दु २२ समाप्तः ।
(क्रमशः)


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॥ श्री दादूदयालवे नम:॥
३५२.(सिंधी) निज स्थान निर्णय । 
उपदेश एकताल ~
अर्श इलाही रब्बदा, इथांई रहमान वे ।
मक्का बीचि मुसाफरीला, मदीना मुलतान वे ॥ टेक ॥ 
नबी नाल पैगम्बरे, पीरों हंदा थान वे ।
जन तहुँ ले हिकसा ला, इथां बहिश्त मुकाम वे ॥ १ ॥ 
इथां आब जमजमा, इथांई सुबहान वे ।
तख्त रबानी कंगुरेला, इथांई सुलतान वे ॥ २ ॥ 
सब इथां अंदर आव वे, इथांई ईमान वे ।
दादू आप वंजाइ बेला, इथांई आसान वे ॥ ३ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव निज स्थान निर्णय उपदेश कर रहे हैं कि हे निजाम ! “इलाही”= बेपरवाह, “रब्ब” = परमेश्‍वर का, इस शरीर के भीतर हृदय रूप स्थान है । इसी में वह रहमान विराजता है । यह हृदय रूपी स्थान ही मक्का और मदीना है । अपनी अन्तर्मुख वृत्ति से इसमें यात्रा कर । यहाँ ही मदीना और मुलतान का दर्शन है । भीतर ही हज कर । यहाँ की उस रहमान के साथ नबी, पैगम्बर, पीर आदिकों का स्थान है । ‘नाल’ कहिए , ये सभी यहाँ रहमान के साथ रहते हैं । हे जन ! तूँ अपनी वृत्ति को संसार - दशा से अन्तर्मुख करके एक चैतन्य रूप परमेश्‍वर से लगा । यह हृदय ही भिस्त रूप मुकाम है । ‘इथां’ कहिए’ भीतर ही ‘जमजमा’ रूप पवित्र नाम - स्मरण रूपी जल है, इसमें स्नान कर । मुहम्मद के वंश में मुहम्मद से १८ पीढ़ी पहले इसमाइल के जन्म समय माता की प्यास मिटाने के लिए शिशु ने एड़ियाँ घिसकर भूमि से जल निकाल दिया था । अरब में स्थित मक्का नगर के काबे का जो ‘जमजमा’ नामक कूप है, वह इस्लामियों का पवित्र तीर्थ है । यहाँ शरीर के भीतर ही सुबहान अति शोभनीक परमेश्‍वर का दर्शन है । 
भीतर ही ‘कगुंरेला’ = कोरणी किया हुआ शुद्ध अन्तःकरण रूप तख्त है । इसी पर वह सुलतान रूप रब्ब निवास करता है । सब कुछ इस शरीर के भीतर ही है । ‘ईमान’ कहिए, वह सत्य निश्‍चय रूप परमेश्‍वर है । उसकी भीतर ही ‘बेला’ कहिए साधन अवस्था में वंजाई नाम वही पवित्र यात्रा, कर । ‘इथां’ कहिए, भीतर वह आसानी से प्राप्त करने योग्य है ।
इस पद से निजाम, जो हज करने जा रहा था, जब मार्ग में ब्रह्मऋषि का दर्शन पाया और उनके चरणों में नमस्कार किया, तब ब्रह्मऋषि ने इस पद से उपदेश देकर उसे अन्तर्मुख बना दिया । यह निजाम दादू जी के ५२ शिष्यों में एक शिष्य कहलाए ।

सोमवार, 28 सितंबर 2015

= १९५ =

 
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卐 सत्यराम सा 卐 
अष्ट चक्र पवना फिरै, छहसौ सहस्र इक्कीस ।
जोग अमर जम को गिलै, दादू बिसवा बीस ॥
.......................................
साभार ~ www.pravakta.com
राम जीवन का मंत्र है। राम मृत्यु का मंत्र नहीं है। राम गति का नाम है, राम थमने, ठहरने का नाम नहीं है। सतत वितानीं राम सृष्टि की निरंतरता का नाम है। राम एक छोटा सा प्यारा शब्द है। यह महामंत्र - शब्द ठहराव व बिखराव, भ्रम और भटकाव तथा मद व मोह के समापन का नाम है।। राम भारतीय लोक जीवन में सर्वत्र, सर्वदा एवं प्रवाहमान महाऊर्जा का नाम है। वास्तव में राम अनादि ब्रह्म ही हैं।
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कबीरदासजी ने कहा है - आत्मा और राम एक है - आतम राम अवर नहिं दूजा। राम नाम कबीर का बीज मंत्र है। रामनाम को उन्होंने अजपाजप कहा है। हम २4 घंटों में लगभग २१६०० श्वास भीतर लेते हैं और २१६०० उच्छावास बाहर फेंकते हैं। 
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इसका संकेत कबीरदाजी ने इस उक्ति में किया है- सहस्र इक्कीस छह सै धागा, निहचल नाकै पोवै। मनुष्य २१६०० धागे नाक के सूक्ष्म द्वार में पिरोता रहता है। अर्थात प्रत्येक श्वास - प्रश्वास में वह राम का स्मरण करता रहता है। राम शब्द का अर्थ है - रमंति इति रामः जो रोम-रोम में रहता है, जो समूचे ब्रह्मांड में रमण करता है वही राम है ।
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इसी तरह कहा गया है - रमते योगितो यास्मिन स रामः अर्थात् योगीजन जिसमें रमण करते हैं वही राम हैं। इसी तरह ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है - राम शब्दो विश्ववचनों, मश्वापीश्वर वाचकः अर्थात् ‘रा’ शब्द परिपूर्णता का बोधक है और ‘म’ परमेश्वर वाचक है। चाहे निर्गुण ब्रह्म हो या दाशरथि राम हो, विशिष्ट तथ्य यह है कि राम शब्द एक महामंत्र है।

= १९४ =

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卐 सत्यराम सा 卐
पाणी माहैं राखिये, कनक कलंक न जाहि ।
दादू गुरु के ज्ञान सों, ताइ अगनि में बाहि ॥ 
दादू माहैं मीठा हेत करि, ऊपर कड़वा राख ।
सतगुरु सिष कौं सीख दे, सब साधों की साख ॥ 
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साभार : Osho Prem Sandesh ~

प्रश्न :आपने कहा कि शिक्षक देता है ज्ञान और गुरु देता है ध्यान। ध्यान देने का क्या अर्थ है?

ज्ञान और ध्यान बड़े संयुक्त हैं। ज्ञान का अर्थ है, जानकारी और जानकारी से भरा हु आ चित्त। और ध्यान का अर्थ है, जानकारी से शून्य चित्त।
जैसे एक कमरे में फर्नीचर भरा है - यह ज्ञान की अवस्था। फिर फर्नीचर कमरे के बाहर निकाल दिया, कमरा बिलकुल खाली - यह ध्यान की अवस्था।
ध्यान उसी का अभाव है, ज्ञान जिसका भाव है। ज्ञान में जो कूड़ा करकट तुम इकट्ठा कर लेते हो - शब्द, सिद्धान्त, - शास्त्र; ध्यान में वे सब छोड़ देने होते हैं।
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शिक्षक देता है ज्ञान और गुरु देता है ध्यान; इसका अर्थ हुआ कि शिक्षक जो देता है, गुरु वह छीन लेता है। तो तुमने जो भी सीखा है जीवन के विद्यालय में, जो भी अनुभव, जो भी ज्ञान तुमने अर्जित किया है विश्यविद्यालयों में, अध्यापकों और शिक्षकों से, शास्त्रों सिद्धान्तों से, तुमने जो जो संगृहीत किया है, गुरु सब छीन लेगा। वह सब में माचिस लगा देगा। वह सबको जला देगा।
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वह तुम्हारे मन के पूरे फर्नीचर से तुम्हें खाली कर देना चाहता है। उस खालीपन में ही तुम्हें पहली बार अपने विस्तार का पता चलता है। उस खालीपन में ही तुम्हें पहली दफा शांति की किरण उतरती मालूम होती है। उस खालीपन में ही तुम्हें पता चलता है, कि अहंकार नहीं है, परमात्मा है। तुम नहीं हो, वह है। ‘ओम् तत् सत्’ का बोध उसी क्षण में होता है।
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तो ध्यान और ज्ञान की प्रक्रियाएं बिलकुल अलग हैं। ध्यान भूलने का नाम है, खाली होने का नाम है।
जैसे स्लेट पर बच्चे ने कुछ लिखा है और फिर पोंछ डाला है, ऐसे संसार ने जो जो तुम्हारे मन पर लिख दिया है, उसे पोंछ डालने का नाम ध्यान है।
ध्यान को केवल वे ही लोग उपलब्ध हो सकते हैं, जो ज्ञान से बहुत परेशान हो गए हों। अगर तुम अभी ज्ञान से परेशान नहीं हुए, तो तुम ध्यान को उपलब्ध न हो सकोगे। और जहां ध्यान की वर्षा हो रही होगी, वहा से भी तुम कुछ सीख कर लौट पाओगे।
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ऐसा हुआ, कि उन्नीस सौ पचास में एक किताब मेरे हाथ आई। एक जैन साध्वी ने योगशास्त्र पर एक किताब लिखी थी। जैनों में एक अदभुत योगी हुआ, हेमचंद्राचार्य। तो हेमचन्द्र के सूत्र पर उसने वह किताब आधारित की थी। हेमचंद्र के सूत्र बड़े अनूठे हैं। जैसे पतंजलि के सूत्र अनूठे हैं, ऐसे हेमचंद्र के हैं। पतंजलि की कोटि का आदमी है हेमचन्द्र।
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तो हेमचन्द्र के सूत्रों से संबंध जोड़कर उस महिला ने किताब लिखी। किताब उसने बड़ी बढ़िया लिखी थी। लेकिन मैं बड़ी उलझन में पड़ा, क्योंकि सब ठीक था, लेकिन कुछ कुछ गलत था; जो कि नहीं हो सकता। अगर उसने अनुभव से लिखा हो, ध्यान का उसे अनुभव हो, तो जो भूलें उसने कीं, वे नहीं हो सकतीं। परेशानी मेरी यह थी, कि जो भी उसने लिखा था, वह बहुत साफ सुथरा और ऐसा लगता था, जैसे किसी ने अनुभव से लिखा हो। लेकिन कुछ भूलें भी थीं, जो बताती थीं कि अनुभव वाला आदमी वे भूलें नहीं कर सकता।
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खैर ! बात आई गई हो गई। मैं उस किताब को भूल गया। कोई पद्रह साल बाद, उन्नीस सौ पैंसठ में मैं राजस्थान के दौरे पर था, एक गांव में वह साध्वी मुझसे मिलने आई। नाम मुझे कुछ पहचाना हुआ मालूम पड़ा, तो मैंने उससे पूछा कि क्या हेमचन्द्र के ऊपर योगशास्त्र तुम्हीं ने लिखा?
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उसने कहा, मैंने ही लिखा।
तो मैंने उससे पूछा, तुम मेरे पास किसलिए आई हो?
उसने कहा, ध्यान सीखने आई हू।
तुमने तो ध्यान और योग पर इतनी अच्छी किताब लिखी।
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उसने कहा, वह बस, शास्त्र को पढ़कर लिखी है। जानकारी मुझे कुछ भी नहीं है। अपनी जानकारी नहीं है। खुद नहीं जाना है। और अब मैं उस किताब को लिखकर बड़ी मुश्किल में पड़ गई हू। लोग मेरे पास पूछने आते हैं। और मैं उनको बताती हू कि कैसे ध्यान करो। अब यह तो आपसे मैं निजी, एकांत में कह रही हूं मुझे ध्यान का अ, ब, स भी नहीं आता। आप मुझे सिखाएं।
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यह चल रहा है। बहुत जोर से चल रहा है। सदा से चलता रहा है एक अर्थों में।
अगर ध्यान की जानकारी से अभी तृप्ति न हो गई हो, तो जहां ध्यान की वर्षा हो रही है, वहा भी तुम ध्यान के संबंध में कुछ सीखकर लौट जाओगे, ध्यान न सीख पाओगे। क्योंकि ध्यान के संबंध में जानना, ध्यान जानना नहीं है। ध्यान जानना तो एक बड़ी क्रांति है। ध्यान जानने का तो अर्थ है, तुम्हारा आमूल रूपांतरण। वह तो एक अनुभव है। उस अनुभव में तो जानकारी बिलकुल जल जाती है। तुम ही बचते हो खालिस। सोना ही बचता है, कूड़ा करकट जल जाता है।
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गुरु देता है ध्यान, इसका अर्थ है कि गुरु छीन लेता है ज्ञान। और जहां तुम्हें ऐसा गुरु मिले, जो तुमसे ज्ञान छीनता हो, वहां हिम्मत करके रुक जाना। क्योंकि वहां से भागने का मन होगा। क्योंकि यहां हम तो कुछ लेने आए थे, उल्टा और गंवाने लगे।
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आदमी लेने के लिए घूम रहा है। कहीं से भी कुछ मिल जाए तो थोड़ा और अपनी सम्पति बढ़ा ले। अपनी तिजोड़ी में थोड़ी जानकारी और रख ले, थोड़ा और पंडित हो जाए। एक जर्मन खोजी रमण के पास आया और उसने कहा, कि मैं आपके चरणों में आया हू कुछ सीखने। आप मुझे सिखाएं। रमण ने कहा, तुम गलत जगह आ गए। अगर सीखना है, तो कहीं और जा ओ। अगर भूलना है, तो हम राजी हैं।
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रमण के वचन हैं, इफ यू हैव कम टु लर्न देन यू हैव कम टु दि रांग परसन। इफ यू आर रेडी टु अनलर्न देन आई एम रेडी टू हेल्प यू अनलर्न ! अगर अन सीखने को राजी हो अगर सीखने को आए हो कहीं और। खोजो कोई शिक्षक। अगर अन सीखना करने आए हो, सीख चुके बहुत, थक गए, अब इस कचरे से छुटकारा पाना है तो गुरु राजी है।
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ध्यान, जो तुमने जाना है अब तक, उसके भूल जाने का नाम है। अब यह बड़े मजे की बात है। जिस दिन तुमने जो जो जाना है, उसे तुम बिलकुल विस्मरण कर दोगे, उस दिन तुम्हें आत्म स्मरण आएगा। क्योंकि वह जो तुमने जाना है, उसी के कारण तुम्हें अपना पता नहीं चल पा रहा है। तुम्हारे और तुम्हारे जानने के बीच में तुम्हारी जानकारी की दीवाल खड़ी हो गई है।

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॥ श्री दादूदयालवे नमः ॥ 
"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =

= बारहवां १२ अध्याय =
= १४ आचार्य गुलाबदासजी =
हिसार में चातुर्मास ~ 
वि. सं. १९४५ में आचार्य गुलाबदासजी महाराज को चातुर्मास का निमंत्रण विजयरामजी हिसार वालों ने दिया । आचार्यजी ने स्वीकार कर लिया । चातुर्मास का समय समीप आने पर आचार्यजी ने गुलाबदासजी महाराज अपने शिष्य संत मंडल के सहित नारायणा दादूधाम से प्रस्थान करके शनै: शनै: हिसार पहुँचे । विजयरामजी भक्त मंडल के सहित बाजे गाजे से संकीर्तन करते हुये आचार्यजी की अगवानी करने आये । मर्यादा पूर्वक प्रणामादि शिष्टाचार के पश्‍चात् अति सत्कार से संकीर्तन करते हुये नगर के मुख्य बाजार से जनता को आचार्यजी तथा संत मंडल का दर्शन कराते हुये नियत स्थान पर ले जाकर ठहराया । 
नारायणा दादूधाम के आचार्य आज हिसार में पधारे हैं, यह समाचार अतिशीघ्र ही हिसार नगर में फैल गया था । अत: आज के दिन हिसार की धार्मिक जनता आचार्यजी के दर्शन करने आती रही । मेला सा लगा रहा । चातुर्मास आरंभ हो गया । अब चातुर्मास के कार्यक्रम सब विधि विधान से होने लगे । प्रात: दादूवाणी की कथा, मध्यदिन में गीता आदि पर विद्वान् संतों के प्रवचन, पदगायन, नाम संकीर्तन, सायं आरती, अष्टक आदि स्तोत्र व पद गायन, ‘दादूराम’ मंत्र की ध्वनि, जागरण के दिन जागरण होने लगे । उक्त सभी कार्य अपने- अपने समय पर होते थे । हिसार की धार्मिक जनता में हिसार निवासी संतों द्वारा दादूवाणी के संस्कार पडे हुये थे । अत: दादूवाणी की कथा हिसार की धार्मिक जनता अति प्रेम से सुनती थी । श्रोता लोग ठीक समय पर आ जाते थे तथा सुनते सुनते तृप्त नहीं होते थे । दादूवाणी के प्रवचन से उन्हें परमानन्द प्राप्त होता था । 
भक्तों की जैसी रुचि सत्संग में थी, वैसी ही संत सेवा में थी । वे स्थान पर संतों को रसोई देते थे । तथा कोई भक्त अपना घर पवित्र करने के लिये शिष्य संत मंडल के सहित आचायजी को उनकी मर्यादा से अपने घर ले जाकर भोजन कराता था । मर्यादानुसार भेंट देता था और मर्यादा पूर्वक पुन: स्थान में पहुँचा देता था । उक्त प्रकार हिसार का चातुर्मास सत्संग तथा संत सेवा दोनों ही दृष्टियों से सुन्दर हुआ । चातुर्मास समाप्ति पर विजयराम जी ने आचार्य जी को उनकी मर्यादा के अनुसार भेंट दी और शिष्य संत मंडल को यथा योग्य वस्त्रादि देकर सस्नेह विदा किया । हिसार की धार्मिक जनता ने भी अति स्नेह से आचार्य जी को भेंटें दी और भाव भीनी विदायी करी । आचार्य जी हिसार से विदा होकर शनै: शनै भ्रमण करते हुये नारायणा दादूधाम में पधार गये । 

(क्रमशः)

२९. ज्ञानी को अंग ~ २४

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२९. ज्ञानी को अंग*
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*इंद्रिनि कौ ज्ञान जाकै सु तौ पशु कै समान,*
*देह अभिमांन खान पान सौं लीन है ।*
*अंतहकरन ज्ञान कछुक बिचार जाकै,*
*मनुष व्यौहार शुभ कर्मनि अधीन है ।*
*आतमा बिचार ज्ञान जाकै निसवासर है,*
*सोई साधु सकल ही बात मैं प्रबीन है ।*
*एक परमातमा कौ ज्ञान अनुभव जाकै,*
*सुन्दर कहत वह ज्ञानी भ्रम छीन है ॥२४॥*
*ज्ञानी द्वैतरहित* : जिसको केवल इन्द्रियों का ही ज्ञान है, तथा जो उसी ज्ञान में मग्न रहता है, उसको पशुतुल्य ही समझना चाहिये; क्योंकि वह देहाभिमानी केवल अपने खान पान तथा विषय-भोगों में निरन्तर लगा रहता है ।
जिसके मन में ज्ञान का कुछ लेश है, उसको सामान्य मनुष्य माना जा सकता है, क्योंकि ज्ञान के कारण, उस का लोकव्यवहार कुछ शुभ कर्मों के अधीन हो जाता है । 
परन्तु जो विवेकपूर्वक निरन्तर(रात दिन) आत्मज्ञान पर ही विचार करता रहता है वही साधू पुरुष सब बातों में प्रवीण माना जाता है ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं- इस आत्मा का अनुभवात्मक ज्ञान जिसने कर लिया है, वही पुरुष ‘ज्ञानी’ कहलाता है; क्योंकि उस ज्ञान के कारण उसके सभी सांसारिक द्वैत भ्रम क्षीण हो जाते हैं ॥२४॥
(क्रमशः)

*अपनी स्थिति का परिचय देना*

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
.
*= २२ वां विन्दु चतुर्थ दिन =*
.
*अपनी स्थिति का परिचय देना*
फिर बादशाह ने पूछा - भगवन् ! आप राम राम भी बोलते हैं और अल्लाह भी बोल जाते हैं, आपके धर्म का पता नहीं लगता है कि आप हिन्दू हैं या मुसलमान । कृपा करके यह भी मेरा संशय दूर करैं । बादशाह का उक्त प्रश्न सुनकर दादूजी बोले -
"ना हम हिन्दू होहिंगे, ना हम मुसलमान ।
षट दरशन में हम नहीं, हम रहते रहमान ॥"
अर्थात् जाति दृष्टि से पूछते हो तो हम रहमान(दयालु परमेश्वर) में अनुरक्त रहने वाले उनके भक्त हैं,
"करणी हिन्दू तुरक की, अपनी अपनी ठौर ।
दुहुँ बिच मारग साधु का, यह संतों की रह और ॥
हिन्दू लागे देहुरे, मुसलमान मसीत ।
हम लागे एक अलेख से, जहँ सदा निरंतर प्रीत ॥
न तहँ हिन्दू देहुरा, न तहँ तुरक मसीत ।
दादू आपे आप है, नहीं, तहां रह रीत ॥
यहु मसीत यहु देहुरा, सतगुरु दिया बताय ।
भीतर सेवा बंदगी, बाहर काहे जाय ॥
दोनों हाथी हो रहे, मिल रस पीया म जाय ।
दादू आपा मेट कर, दोनों रहे समाय ॥
दादू हिन्दू तुरक न होयबा, साहिब सेती काम ।
षट दर्शन के संग न जायबा, निर्पख कहबा राम ॥
दादू अल्लह राम का, दो पखतैं न्यारा ।
रहता गुण आकार का, सो गुरु हमारा ॥
दादू सब हम देखा सोधकर, दूजा नाहीं आन ।
सब घट ऐकै आतमा, क्या हिन्दू मुसलमान ॥
दोनों भाई हाथ पग, दोनों भाई कान ।
दोनों भाई नैन हैं, यूं हिन्दू मुसलमान ॥"
(क्रमशः)