*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= श्री गुरुदेव का अँग १ =*
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अब जो परमात्मा के पवित्र नाम बतलाए हैं जिनके स्मरण करने से परमात्मा का साक्षात्कार होता है, उन नामों का विवेचन करते हैं । वे कौनसे नाम हैं ? सो अब नीचे बतलातें है ।
इनको गुरु - मंत्र कहते हैं । यह गुरु - मंत्र की टीका गुरुदेव के अंग - अन्त में अविचल मंत्र नाम से महाराज दादूदयाल जी ने जिस गुरु मंत्र का साधक को निर्देश किया है, उस अविचल मन्त्र में एक - एक पाद में, पांच - पांच उस परब्रह्म फल निर्देशक वाक्य हैं । इस तरह इन चौबीसों वाक्यों द्वारा सतगुरु भगवान् ने निर्गुण ब्रह्म की उपासना कैसे करनी चाही - यह जिज्ञासुओं को उपदेश किया है । प्रत्येक वाक्य के विशेषण के आगे मंत्र शब्द का प्रयोग किया है । मंत्र शब्द का अर्थ है कि किसी गूढ रहस्य का जिसके द्वारा ज्ञान हो । इसी अर्थ में वहाँ मंत्र शब्द का प्रयोग समझना चाहिए ।
*गुरु मन्त्र(गायत्री मन्त्र)*
*दादू अविचल मंत्र, अमर मंत्र, अखै मंत्र,*
*अभै मंत्र, राम मंत्र, निजसार ।*
*संजीवन मंत्र, सवीरज मंत्र, सुन्दर मंत्र,*
*शिरोमणि मंत्र, निर्मल मंत्र, निराकार ॥*
*अलख मंत्र, अकल मंत्र, अगाध मंत्र,*
*अपार मंत्र, अनन्त मंत्र राया ।*
*नूर मंत्र, तेज मंत्र, ज्योति मंत्र,*
*प्रकाश मंत्र, परम मंत्र, पाया ॥*
*उपदेश दीक्षा दादू गुरु राया ॥ १५५ ॥*
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*दादू अवचिल मंत्र*
*अविचल दादूराम जी, अविचल जाके बैन ।*
*अविचल संत उद्धार के, अविचल पावै चैन ॥ १ ॥*
टीका :- *दा* शब्द का अर्थ है ज्ञानादिक देने वाले, *दू* शब्द का अर्थ है अज्ञानादिक का छेदन करने वाले, सम्पूर्ण त्रिगुणात्मक सत, रज, समष्टि - व्यष्टि जगत् है । वह सब चल है । गतिमान है । स्थूल, सूक्ष्म, कारण त्रिविध शरीर भी चल है अर्थात् परिवर्तनशील है । इससे जो विपरीत चेतन सत्ता है, वह अविचल है । अविचल के आरम्भ में अकार शब्द का प्रयोग शुद्ध ब्रह्म का बताने वाला है । आत्मा का अविचल विशेषण, परात्पर रूप का जताने वाला है । अज्ञानादि हर्ता, ज्ञानादि के दाता, ऐेसे सतगुरु श्री दादूदयाल जी साधक को मंत्रत्वेन निगूढार्थ बोधक इस विशेषण वाक्य से निर्देश करते हैं कि साधक ! उस सर्व गुरु, सर्वविकार शून्य, निरंतर प्रत्यक्ष, अभिन्न देवरूप, चित्त् शक्ति को अविचल मानकर, नित्य सत्य, स्थिर, एकरस समझ कर उसका ध्यान कर ।
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*अमर मंत्र*
*अमर अनुपम आप है, अमर हरि का नाम ।*
*अमर हरि के संत हैं, अमर लहैं सुखधाम ॥ २ ॥*
टीका :- प्राण से पंच भूतात्मक पिंड का वियोग होना मृत्यु कहलाती है । दृश्यमान जितनी भी जड़ - चेतन सृष्टि है, वह काल - कवलित होती दिखाई पड़ती है । जितने भी जड़ पदार्थ हैं वे सब नाशवान् हैं । केवल एक आत्म पदार्थ ही ऐसा है, जिसका कभी विच्छेद नहीं होता । भावात्मक पदार्थों में ही उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि, परिवर्तन, ह्रास और विनाश, ये छ: विकार रहते हैं । आत्मा इन विकारों से रहित है विकारहीन है । वही अमर तत्व का ज्ञापक है एवं साधक संसार के सब पदार्थों को विनाशी समझ और अविनाशी आत्मा को अमर भावना सो अनवरत चिन्तन करे ।
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*अखै मंत्र*
*अखै अखंडित एक रस, सब में रहा समाय ।*
*आपै आप उद्धरै हरि, सुमिर सुमिर सुख पाय ॥ ३ ॥*
टीका :- अक्षय धातु व्याष्टि अर्थ में है । अक्षय का अभिप्राय है, निरतिशय व्यापक । यह शब्द उपरति का बोधक है । अक्षय आत्मा का अर्थ है, माया तथा माया के कार्य तथा धर्मों से रहित साधक, इस अक्षय मंत्र से आत्मा को जीव, ईश्वरादि अविद्या माया सापेक्ष चेतन को साक्षी समझ, उसको सर्वव्यापी तथा सब से अक्षय असंग समझकर उसका चिंतन करे ।
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*अभय मंत्र*
*अभय एक रस अजित अति, सत् चित् आनन्द गोय ।*
*अज अविनासी ब्रह्मजन, ध्याय अभय भय खोय ॥ ४ ॥*
टीका :- रिपुराज समाज, मृत्यु - जन्मादि जन्य विविध भय हैं । किसी भी रूप का भय न होना, अभय कहलाता है । भय का हेतु है, भिन्नता । अपने से भिन्न की कल्पना, किसी दूसरी वस्तु की सत्ता स्वीकार करने से ही नानात्मक भय का अनुबन्ध बनता है । द्वैत या भिन्नता भौतिक वस्तु में ही हो सकती है । कारण उनको उत्पन्न करने वाले भूतों का संयोग विविध रूप में होता है । हेतु व चिन्त्य के कारण जड़ में ही नानात्व है । आत्मा अनेकत्व भेद से रहित है । आत्मा एक है और आत्मा का अभेद होने से वह सर्वदा अभय है । सतगुरु इस मंत्र द्वारा साधक को निर्देश करते हैं कि वह आत्मा को एक ही समझकर, जन्म मरणादिक सब प्रकार के भय से उस को मुक्त मान कर अभय रूप से ही उसका पालन करें ।
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*राम मंत्र*
*राम रमे रमतीत नित, रंरकार रट सोय ।*
*गुरु कृपा गम सुरति से, राम रूप तब होय ॥ ५ ॥*
टीका :- जिसके ध्यान में अनन्त मुनिजन लगे रहते हैं जो आध्यात्मिक मर्यादा का संस्थापक है, वही राम हैं । इसी राम को परम पुरुषार्थ की प्राप्ति के लिए साधक काल - कर्म रहित, निरतिशय, सुखदायी मानकर ध्यान लगाये ।
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*निज सार मंत्र*
*निज चेतन तत् सार है, ता बिन सकल असार ।*
कार्य कारण रूप है, समझ रु ज्ञान विचार ॥ ६ ॥*
टीका :- यहाँ "निज" शब्द का प्रयोग अतिशय अर्थ में है । आत्मा पदार्थ है, वही सर्वोपरि सार वस्तु है । भावरूप से संसार के सभी पदार्थ जन्म, स्थिति, वृद्धि आदि षट् विकार गृहीत हैं अर्थात् नाशवान हैं । इसी से संसार को असार कहा जाता है । षट् - विकारहीन आत्मा है । वही "अविनाशी" है । वही सर्वातिशय सार - मय है । इसीलिए साधक आत्मा को शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, स्वयं प्रकाश, सर्वात्मा परमानन्द रूप, सर्वातिशय सार समझ उसी में अपना ध्यान लगावे ।
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*संजीवन मंत्र*
*संजीवन सत्य सार सुख, ता बिन असत्य निसार ।*
*दृढ़ नौका निज नाम गहि, जन भव उतरै पार ॥ ७ ॥*
टीका :- कालानुबन्धी भौतिक संयोग का आत्मा से सम्बन्ध इसी का नाम जीवन है । आत्मा ही जीवन तथा जीवन का आधार रूप है । भोग्य तथा भोक्ता के रूप में आत्म ही से जीवन की स्थिति है । भोग्य - भोक्ता प्रेरक, जीव, परमात्मा ब्रह्म सब आत्म तत्व में ही हैं । इसलिए हे साधक ! आत्मा को भोक्ता, भोग्य एवं प्रेरक मानकर सजीवन रूप से उसका चिन्तन कर ।
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*सवीरज मंत्र*
*सवीर्य समर्थ हरि, सचराचर में पूर ।*
*गुरु ज्ञान से गम भई, अज्ञ जन भाषत दूर ॥ ८ ॥*
टीका :- वीर्य शब्द का लौकिक अर्थ बल या शक्ति होता है । पर भौतिक तत्व अस्थायी हैं और परिवर्तनशील भी हैं, क्योंकि उनके परिवर्तन के साथ उनकी शक्ति में भी अन्तर पड़ता रहता है । आत्मिक तत्व में देशकाल - जन्य कोई परिवर्तन नहीं होता और उसके बल में भी कभी "कमी - बेशी" नहीं होती । इसलिए भौतिक शक्ति से आध्यात्मिक शक्ति अधिक बलशाली है । इस विशेषण से सतगुरु भगवान् साधक को ज्ञात कराते हैं कि वह आत्मा को सवीर्य अशेष शक्ति - सम्पन्न, अविजित मानकर, उसके ध्यान में दत्तचित्त होवे ।
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*सुन्दर मंत्र*
*सुन्दर सिरजनहार है, निरामयी निज नूर ।*
*पारब्रह्म, परमात्मा, रहे सर्व भरपूर ॥ ९ ॥*
टीका :- सुन्दर शब्द मनोहारी अर्थ में प्रयुक्त होता है । जो वस्तु मन को भावे, अच्छी लगे, वह सुन्दर कही जाती है । भौतिक वस्तुएँ भी अपेक्षाकृत सुन्दर कही जाती हैं । बहुत सी वस्तुएँ वस्तुत: सुन्दर न होते हुए भी मन की आसक्ति के कारण सुन्दर प्रतीत होती हैं और भौतिक जगत् का सौन्दर्य, उसके स्वयं के अस्थिर होने के कारण, अस्थायी होता है । दृश्य संसार की सुन्दर मानी जाने वाली वस्तुएँ, काल पाकर जीर्ण - शीर्ण होने से सौन्दर्य - विहीन हो जाती हैं । अब सतगुरु भगवान् का इस विशेषण द्वारा साधक को संकेत मिलता है कि वह विनाशी सौन्दर्य वाली सांसारिक वस्तुओं में अपने को न उलझावे । नित्य सत्य रहने वाली और जो सब सुन्दरताओं का मूल है, उस चिदात्मा का मनोज्ञ मान उसके चिन्तन में अपने को स्थिर करे ।
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*शिरोमणि मंत्र*
*सत्य शिरोमणि सबन में, व्याप रहा सम भाय ।*
*साच शील संतोष गहि, सतगुरु ज्ञान लखाय ॥ १० ॥*
टीका :- शिरोमणि में दो शब्द हैं, शिर और मणि । शिर सम्पूर्ण अंगों में सबसे ऊपर रखा गया है । इसका अभिप्राय है शीर्ष स्थानीय, सर्वोपरि । मणि शब्द रत्न वाचक है । रत्न सब तेजों में प्रकाशमय माने गए हैं । इस विशेषण से अभिप्राय यह है कि साधक अपने अभीष्ट आत्मा को सर्वोपरि, सबका शीर्ष स्थानीय, परम प्रकाशमय मान कर उसके ध्यान में निमग्न हो ।
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*निर्मल मंत्र*
*निर्मल पानी आत्मा, निर्मल गुरु का ज्ञान ।*
*निर्मल हरि के संत हैं, निर्मल नाम बखान ॥ ११ ॥*
टीका :- "मल" शब्द पाप और दोष दोनों का वाचक है । जैसे मल शब्द का प्रयोग प्राय: पुरीष एवं कफ स्वेदनादि एवं विकृत वात, पित्त, कफ के लिये भी प्रयुक्त होता है । अविद्या - जन्य कार्य भी मलिन शब्द से कहे जाते हैं । मलिनता से रहित का नाम है निर्मल । रोगादि पापादि तथा वातादि दोषों से मुक्त रहने का नाम निर्मल है । संसार की दृश्यमान एवं न दिखने वाली भौतिक वस्तुएँ भी मलिन हैं । उन्हीं में किसी न किसी तरह की सदोषता रहती है । एक केवल चित्त शक्ति ही ऐसी है, जो सब मलों से रहित है अर्थात् इस मंत्र का अभिप्राय है कि साधक आत्मा को सब रोगादि दोषों से मुक्त, परम पवित्र समझकर ही उसका चिन्तन करे ।
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*निराकार मंत्र*
*निराकार निर्गुणमयी, निरालंब निरधार ।*
*निजानन्द निज बोधमय, सतगुरु ज्ञान विचार ॥ १२ ॥*
टीका :- निर्मलता या पवित्रता आत्मा में ही है, क्योंकि इस शंका का निवारण इस मंत्र द्वारा किया गया है । साकार नाम उसी वस्तु का हो सकता है, जो देश, काल, परिमाण आदि से बंधित है । किसी न किसी तरह का आकार हो, वही साकार है । आत्मा में किसी तरह के अवयव, अंग उपांग नहीं हैं । आकार न होने से ही आत्मा असंग कहा जाता है । भौतिक द्रव्य हैं, वे सब परमाणु या अणु संयोग से बनते हैं । चेतन द्रव्य परमाणु रहित है । आत्म - जिज्ञासु साधक को चाहिए कि वह आत्मा को परम पुनीत, असंग, निराकार मान कर उसका ध्यान करे ।
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*अलख मंत्र*
*अलख निरंजन एक रस, सतगुरु दीन दयाल ।*
*समरथ सिरजनहार जप, शरणागत प्रतिपाल ॥ १३ ॥*
टीका :- स्पृहा या इच्छा लख शब्द का क्षेत्र है । जिसको देखे, समझे, उसको भी "लखना" कहा जाता है । यह भी एक तरह की चाह ही है । अलख से अभिप्राय है कि जिसको समझ न सके, देख न सके, किन्तु परिणामी वस्तु सब समझी व देखी जा सकती हैं । अपरिणामी वस्तु ही वस्तुत: अलख है । इसलिए इस मंत्र से साधक को महाराज का संकेत है कि वह सूक्ष्म कारण स्थूल के अधिष्ठान आत्मा को असंग, इच्छा - रहित, अलख मानकर उसी के ध्यान में लय लगावे ।
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*अकल मंत्र*
*अकल अनुपम अमित गति, अविनाशी अज एक ।*
*जन तप तत सत उभरे, सतगुरु ज्ञान विवेक ॥ १४ ॥*
टीका :- परम पुण्य सुख, सुखादि भावों एवं भोगों को भोगने वाले का नाम है "कलनधर्मा" । मर्यादा - रहित, वेद - विरूद्ध मार्ग का नाम भी कल है । कल या कल्मष से कलन धर्म वाला पापादि फल भोगने का संकेत है । इनसे रहित का नाम है अकल । साधक आत्मा को कलन रहित, पापादि फल भोगों से रहित, निष्पाप मान कर उसका चिन्तन करे ।
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*अगाध मंत्र*
*अगाध अगोचर एक रस, अतोल अमोल अमाप ।*
*सिद्ध साधक मुनि थक रहे, वेद थके जप जाप ॥ १५ ॥*
टीका :- गाध से अभिप्राय यह है कि अन्त या तल । अगाध का मतलब है अतलस्पर्श । भौतिक वस्तुएँ सब सकारण हैं, अर्थात् तलस्पर्श हैं । आत्मा अकारण है, अर्थात् अतलस्पर्शी है । इस मंत्र से साधक यह समझे कि आत्मा निराधार है, वह अवधि रहित है, उसको अगाध मानकर ही चिन्तन किया जाये ।
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*अपार मंत्र*
*अपार पार नहिं जास को, सनकादिक रहे हार ।*
*पार न पावैं शेष शिव, ब्रह्मा वेद विचार ॥ १६ ॥*
टीका :- पार अन्त वाली वस्तु का नाम है । अन्त या अवधि देश - जन्य और काल - जन्य है । जो वस्तु देश - काल की परिधि से रहित है, वह अपार है । भौतिक द्रव्य सब देश - काल की अवधि से युक्त हैं । अत: शान्त हैं । आत्मा उनकी परिधि से रहित है अर्थात् अनन्त है । इससे महाराज ने आत्मा को निर्बंधित तथा सर्वदेश या सर्वकाल गत बताया है । इसलिए आत्मा को सर्वदेशीय, सर्वकाल व्यापी मानकर उसका अपार बुद्धि से ध्यान करे ।
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*अनंत मंत्र*
*अनन्त रूप परमात्मा, अनन्त रूप गुरुदेव ।*
*अनन्त संत हरि को भजैं, लहै जू बिरला भेव ॥ १७ ॥*
टीका :- जिसका अवश्य अवसान है, जिसमें समाप्ति की इयत्ता है । वह वस्तु अन्त शब्द वाच्य है । अन्त से रहित का नाम ही अनन्त है । इस विशेषण द्वारा ही महाराज साधक का ध्यान आकर्षित करते हैं कि वह आत्मा को निवारण, अपरिच्छिन्न, अनंत मानकर उसका चिन्तन करता रहे ।
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*राया मंत्र*
*राया सतगुरु राम जी, सकल भवन के ईश ।*
*अखिल चराचर में बसै, ब्रह्मादिक के शीश ॥ १८ ॥*
टीका :- लौकिक व्यवहार में राया का अर्थ है, अधिपति, स्वामी, मुखिया और राजा अर्थ का भी द्योतक है । इसका अभिप्राय है कि शक्तिमान् हो । सब कुछ लेने एवं सब कुछ देने की शक्तिवाला हो, वही रायों का राया है । इस विशेषण से चित्तशक्ति में त्रिभुवनपति राया की सत्ता व्यक्त की गई । साधक इस आत्मा को सर्वशक्तिमान्, सर्वग्राही, सर्वदाता मानकर उसका निरंतर चिन्तन करता रहे ।
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*नूर मंत्र*
*नूर रूप परब्रह्म है, नूर रूप गुरुदेव ।*
*नूर रूप सब सन्त हैं, करैं नूर की सेव ॥ १९ ॥*
टीका :- नूर शब्द सामान्य प्रयोग स्वरूप में है । वर्णवालीवस्तु ही रूपवान है । वर्ण विहीन वस्तु है, वह अरूप है । आत्मा का रूप सत्ता या स्फूर्ति से निर्देश किया जाता है । इसलिए साधक आत्मा को उत्पादक, प्रेरक, रक्षक, संहारक, सत्तामय जानकर सम्पूर्ण स्फूर्णाओं का मूल समझ नूर स्वरूप आत्मा के चिन्तन में लगे ।
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*तेज मंत्र*
*तेज तत्त तिहुँ लोक में, व्याप रहा इक सार ।*
*समझे ते भव सिन्धु तैं, हरिजन उतरे पार ॥ २० ॥*
टीका :- तेज का सामान्य अर्थ है तेजस्वीपना अर्थात् दूसरे से दबना नहीं । जिस पर और किसी का दबाव या असर न पड़े, उसका लोक में तेजस्वी कहते हैं । सतगुरु भगवान् साधक को इस मंत्र द्वारा आत्मा की अजेयता का निर्देश करते हैं, क्योंकि भौतिक संसार में एक दूसरे का एक दूसरे से हारना देखा जाता है, परन्तु आत्मतत्व को कोई हराने वाला नहीं है । इसलाए साधक आत्मा को किसी से न दबने वाला और किसी से न जीता जाने वाला समझ कर उसके चिन्तन में अपने को दृढ़ बनाये रखे ।
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*ज्योति मंत्र*
*परम ज्योति जगदीश की, सब में ही रही समाय ।*
*सकल ज्योति उस ज्योति से, प्रकाशत सम भाय ॥ २१ ॥*
टीका :- ज्यो शब्द का लाक्षणिक प्रयोग सार वस्तु में है, जिसके बिना सब वस्तूएँ तत्व रहित हो जायें, उस तात्विक पदार्थ को ही ज्योति कहते हैं । यहाँ पर ज्योति शब्द को प्रकाश के लिये प्रयुक्त नहीं समझना क्योंकि आगे वाला मंत्र प्रकाश ही है । इसलिए और भी विचारें तो भौतिक पदार्थ भी शक्तिमय या सारमय होते हैं, पर उनकी शक्ति काल पाकर क्षीण हो जाती है । इसलिए वह दूसरा ही आत्मा या चित्त शक्ति है । वही परमात्मा रूप में से समष्टि संसार एवं व्यष्टि व्यक्ति के लिंग शरीर का आधार है । वह आत्मा ही हिरण्यगर्भ के रूप में समष्टि के स्थूल शरीर का जनक है और मायादि प्रपंच रहित जीव, परमात्मा ब्रह्मरूप में, आत्मा ही सबका आश्रय है । उसी को सार रूप समझकर उसी का चिन्तन करो ।
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*प्रकाश मंत्र*
*सब घट ब्रह्म प्रकाश है, ब्रह्म दृष्टि कर देख ।*
*वेद कहैं पुनि साधु सब, सतगुरु ज्ञान विवेक ॥ २२ ॥*
टीका :- प्रकाश यहाँ उजाले का द्योतक है । दिखाई पड़ने वाले सूर्य, चन्द्रमा, तारे आदि प्रकाश पिंड हैं । वे सब एक ही प्रकाश के भिन्न रूप हैं । इन सब में जिसका प्रकाश है, वही प्रकाशवान् है । दादू जी महाराज कहते हैं कि हृदय - गगन में उसी परम प्रकाशमय आत्मा को ज्योतिर्धन समझ सर्वदा उसी का चिन्तन करना चाहिए ।
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*परम मंत्र*
*परम गुरु परमब्रह्म है, परम हरिजन सोइ ।*
*परम प्रभु का जाप है, भेद भाव नहीं कोइ ॥ २३ ॥*
टीका :- परम शब्द का प्रयोग उत्कृष्ट प्रधान एवं प्रणव के लिये किया गया है । इस मंत्र द्वारा सतगुरु भगवान् साधक को ज्ञात करवाते हैं कि नाना पदार्थ जो हम देखते हैं या सुनते हैं, उनमें चेतनत्व ही सर्वोत्कृष्ट तत्व है । इन्द्रादि देवों का देव, ब्रह्मा - विष्णु - महेश आदि का आधार, सब स्वामियों का स्वामी, वही है, इसलिए उस आत्मा का सबसे श्रेष्ठ, सब का मान्य समझ कर उसका चिन्तन करो ।
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*पाया मंत्र*
*पाया परम दयाल गुरु, पाया सतगुरु बैन ।*
*पाया वही जिहिं उर धर्या यह आतम की सैन ॥ २४ ॥*
टीका :- ऊपर जिन तेईस विशेषणों से आत्म - तत्व की विशेषता सतगुरु भगवान् ने साधक को समझायी है । अपने उस निर्देश को इस मंत्र द्वारा उपसंहार करते हुए दादू जी महाराज कहते हैं कि जिस साधक ने इस तरफ आत्मत्व को दृढ़ श्रद्धा से चिन्तन किया है, उसी ने अपने स्वरूप का प्रत्यक्ष ज्ञान पाया है और जिसने अपना स्वरूप प्राप्त किया, वही मुक्त है एवं वही परमानन्द का उपभोग करता है ।
गुरुदेव का अंग इस अविचल मंत्र के साथ सम्पूर्ण होता है । गुरु से पाए ज्ञान का जो फल होता है या होना है, वह इस मंत्र से व्यक्त किया गया है । यह मंत्र आत्म उपदेश का सारभूत है । इस वास्ते साधक इसका चिन्तन करें, जिससे गुरु उपदेश के फल की प्राप्ति होवे ।
(क्रमशः)