शनिवार, 30 जून 2012

= स्मरण का अँग २ =(३५-६)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =*
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*स्मरण नाम चितावणी*
*दादू पीव का नाम ले, तो मिटै सिर साल ।* 
*घड़ी मुहूर्त चालनां, कैसी आवै काल ॥ ३५ ॥* 
दादूजी कहते हैं - सबका पालन करने वाले "पीव"(परमेश्वर) का नाम - स्मरण करने से जन्म - मरण का जो अन्त:करण में दु:ख है, वह दूर हो जाता है । इसलिए दृढ़तापूर्वक प्रभु का नाम - स्मरण करो । न मालूम एक क्षण के बाद कैसा समय आवे ? यह शरीर रहे या न रहे, अथवा रोगों से पीड़ित होने पर हरि का स्मरण हो सके या नहीं, कौन जाने ॥ ३५ ॥
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*स्मरण बिना सांस न ले*
*दादू औसर जीव तैं, कह्या न केवल राम ।* 
*अंत काल हम कहेंगे, जम बैरी सौं काम ॥ ३६ ॥* 
हे जिज्ञासु ! तूने मनुष्य देह प्राप्त करके और बाल्य व युवा अवस्था में सत्संग का अमूल्य अवसर मिलने पर भी निष्काम भाव से परमेश्वर का नाम स्मरण नहीं किया और मायिक पदार्थों में आसक्त होकर यह सोचता है कि वृद्धावस्था आने पर हम प्रभु का स्मरण कर लेंगे । किन्तु हे नादान ! अन्त - काल में रोग, भय, त्रास आदि यमराज के समान जो भयंकर शत्रु हैं, जब तेरा उनसे वास्ता पड़ेगा, तब प्रभु का स्मरण कैसे करेगा ॥ ३६ ॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 29 जून 2012

= स्मरण का अँग २ =(३३-४)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =
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*स्मरण नाम पारख लक्षण*
*कछु न कहावे आप को, सांई को सेवे ।* 
*दादू दूजा छाड़ि सब, नाम निज लेवे ॥ ३३ ॥* 
दादूजी कहते हैं - देह - वासना, शास्त्र - वासना और लोक - वासना द्वारा, जिज्ञासुजनों को अपनी प्रशंसा नहीं करानी चाहिए और निष्काम भाव से परमेश्वर का स्मरण करना चाहिए । अत: स्मरण की विधि कहते हैं, अर्थात् परमेश्वर से विमुख करने वाले सम्पूर्ण कर्मों को त्याग कर केवल भगवान् का ही नाम - स्मरण करना चाहिए ॥ ३३ ॥ 
दृष्टांत - 
साहिब सब में बसत है, देता है दिन रैन ।
नाम हमारा लेत है, तातैं नीचे नैन ॥ 
एक सेठ कमाने में अति चतुर था, किन्तु दान-पुण्य कुछ भी नहीं करता था । एक दिन एक भिक्षु बालक ने उसकी हवेली के द्वार पर आकर भिक्षा माँगी तो झरोखे से सेठ की पुत्रवधू बोली - यहाँ कुछ नहीं मिलेगा, हम भी बासी खाते हैं । बालक खाली हाथ लौट गया । उसकी सास(सेठानी) ने बहू के मुँह से निकले शब्द सेठजी को जा सुनाये । सेठजी गुस्से में होकर आए और पुत्रवधू से बोले - बहू, तुमने ऐसे कैसे कहा कि हम बासी खाते हैं ? बहू बोली - पिताजी मैंने तो ऐसे कहा था कि पूर्व जन्म में जो पुण्य किया था, वही खाते हैं । अब तो कोई धर्म-पुण्य होता नहीं । पूर्व जन्म की कमाई तो बासी ही है । सेठजी बहू के कहने का आशय समझ गये और बोले - तुमको पाँच किलो भुने हुए चने रोज मिल जाया करेंगे । तुम गरीबों में बाँट दिया करो । प्रति दिन नियम से सेठजी के घर से पाँच किलो चना गरीबों को बँटने लगा ।
एक दिन पुत्रवधू ने सास से कहा - आज श्वसुरजी के लिए मैं भोजन बनाऊँगी । श्वसुर जी को आसन पर बिठा दिया । बिना नमक की चने की रोटी थाली में परोस कर चौकी पर सामने रख दी, एक कटोरी में नमक मिर्च डालकर चौकी से अलग रख दी और जल का लोटा भी दूर रख दिया । सेठजी ने ठंडी चने की रोटी का ग्रास तोड़कर नमक मिर्च लगा कर खाने लगे तो सूखा ग्रास सेठजी से निगला नहीं गया । बड़ी मुश्किल से लंबा हाथ बढ़ाकर लोटा उठाया और जल की घूँट ली, तब जाकर जान में जान आई । तभी एक दूसरे थाल में सुगन्धित चावल, रोटी, दाल, सब्जी, दही बड़े, नमकीन पापड़ आदि लाकर बहू ने सेठजी के सामने चौकी पर रखे और बोली - मैंने रसोई बहुत अच्छी बनाई है । बढिया स्वादिष्ट भोजन देखते ही सेठजी खुश होकर बोले - जब तूने इतना अच्छा भोजन बनाया था, तो मेरे सामने पहले चने की सूखी ठंडी रोटी क्यों रखी ?
पुत्रवधू ने कहा - पूज्य पिताश्री, आप चनों का दान करते हैं, नमक मिर्च भी नहीं देते तथा प्याऊ भी नहीं लगाते । अत: आगे आपको खाने के लिए केवल चने ही मिलेंगे । मैंने तो नमक - मिर्च और पानी भी रखा था । किन्तु आपको वह भी नहीं मिलेंगे । आपको आगे दु:ख न हो और थोड़ा अभ्यास अभी से ही पड़ जाय तो अच्छा रहे । इसीलिये चने की रोटी परोसी थी । जो जैसा बोएगा, वैसा ही काटेगा ।
सेठजी को सारी बात समझ में आ गई और उन्होंने कारीगरों को बुलाकर चार द्वार वाला मकान बनवाया, जिससे देने वाले चारों दिशाओं में देता रहे, किसी भी दिशा से आने वाले याचक खाली हाथ न जावे । सेठजी को लोग कहते -
चारों द्वारों देत हो, करके नीचे नैन । 
कहो कहाँ से सीखिया, ऐसी विधि को देन ॥ 
सेठजी नम्रतापूर्वक कहते हैं कि देने वाला तो विश्वंभर है परमेश्वर है -
ईश्वर सबको देत है, देत रहत दिन रैन । 
नाम हमारो लेत है, तातैं नीचे नैन ॥ - रहीम
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*नाम स्मरण से जीवों के संशय की निवृत्ति*
*जे चित्त चहुँटै राम सौं, सुमिरण मन लागै ।* 
*दादू आत्मा जीव का, संसा सब भागै ॥ ३४ ॥* 
यदि गुरुदेव की कृपा से जिज्ञासुजनों का चित्त राम - नाम स्मरण में संलग्न होकर यह विषयाकार मन, बाहर के विषयों को छोड़ हरि के स्मरण में एकाग्र वृत्ति से लग जावे, तो आत्मा व व्यष्टि - चेतन अंशभूत जीव के सम्पूर्ण संशय नष्ट हो जाते है ॥ ३४ ॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 28 जून 2012

= स्मरण का अँग २ =(३१-२)


॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =*
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*स्मरण नाम नि:संशय*
*मेरा संसा को नहीं, जीवण मरण का राम ।*
*सुपिनैं ही जनि बीसरै, मुख हिरदै हरि नाम ॥ ३१ ॥*
टीका - श्री ब्रह्मर्षि दादू दयाल महाराज, जिज्ञासुजनों के कल्याण के निमित्त, स्वयं को ही उपलक्ष कर के प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि हे रामजी ! हमारे जीने और मरने का तो हमें कोई संशय नहीं है । न जीने में आसक्ति(हर्ष) है और न मरने से अनासक्ति(भय) है, किन्तु पापों के हरने वाले हे हरि ! आपका पवित्र नाम मुख और हृदय से हम कभी क्षण भर भी न भूलें, ऐसी आप कृपा करो । अथवा हे जिज्ञासुजनों ! जीवन और मरण का अन्तिम आश्रय एक नाम ही है, इसमें कोई संशय नहीं है । इसलिए राम - नाम को क्षण भर भी मत भूलो । रात - दिन प्रभु - स्मरण में संलग्न रहो । 
"बहुत जीये का हर्ष न करणा ।
वेग मरण का सोच न कोई ॥" 
"जगन्नाथ" संसै बिन सुमिरण ।
करता होइ सो होई ॥ 
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*स्मरण नाम विरह*
*दादू दुखिया तब लगै, जब लग नाम न लेहि ।*
*तब ही पावन परम सुख, मेरी जीवनि येहि ॥ ३२ ॥* 
जब - जब संतों के नाम-स्मरण में विक्षेप पड़े तब - तब ही वे दु:खी होते हैं, क्योंकि संत पुरुषों का जीवन राम - नाम स्मरण ही है, जब तक यह जीवात्मा परमेश्वर का नाम नहीं लेता, तब यह दु:खी रहता है और जब एकाग्र चित्त से परमेश्वर के नाम का स्मरण करता है, तो पवित्र होकर परम सुखी हो जाता है । ब्रह्मर्षि सतगुरु आज्ञा करते हैं कि हे जिज्ञासुजनों ! "जीवनि" कहिए मेरे जीवन में जिज्ञासुओं को राम नाम स्मरण के लिए यही आदर्श व आज्ञा स्वरूप है ॥ ३२ ॥
(क्रमशः)

बुधवार, 27 जून 2012

= स्मरण का अँग २ =(२९-३०)



॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =*
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*दुख दरिया संसार है, सुख का सागर राम ।* 
*सुख सागर चलि जाइए, दादू तज बेकाम ॥ २९ ॥* 
टीका - हे मन ! यह संसार मानो दु:ख की नदी है और राम - नाम का स्मरण ही सुख का सागर है । इसलिए व्यर्थ के कामों को छोड़कर नाम का स्मरण करो, क्योंकि नाम रूपी नौका की सहायता से संसार दरिया को पार किया जा सकता है । इसी भाव को दर्शाने के लिए प्रस्तुत संसार को दु:ख दरियाव की उपमा दी है । नाम ही रामभक्ति एवं सुख सागर अविनाशी स्वरूप और एकरस राम को प्राप्त करने का साधन है ।
भोगे रोगभयं सुखे क्षयमयं वित्तेषु राज्ञो भयम्, 
दास्ये स्वामिभयं जये रिपुभयं वंशे कुयोषिद्भयम् ।
माने ग्लानिमयं गुणे खलभयं देहे कृतान्ताद् भयम्, 
सर्वं नाम भयान्वितं खलु सखे ! विष्णों पदं निर्भयम् ॥ 
(भोग में रोग का, सुख में नाश का, धन में राज का, सेवक को स्वामी का, जीत में शत्रु का, वंश में कुलटा स्त्री का, मान में अपमान का, गुणी को दुष्टों का, शरीर को मृत्यु का भय बना रहता है, केवल भगवान् का नाम ही निर्भय करने वाला है, उसी का स्मरण करो)
निद्र्रव्यो धनचिन्तया धनपतिस्तद्रक्षणे व्याकुल:, 
निस्त्रीकस्तदुपाय संगत मतिस्मास्त्रीनपत्येच्छया । 
प्राप्तापत्यपरिग्रहोऽपि सततं रोगादिभि: पीडयते, 
अजीव: कस्य कंथचिदेव तदिह प्रायो भवेद् दु:खित: ॥ 
(निर्धन को धन की, धनी को धन - रक्षा की, स्त्रीहीन को स्त्री की, सन्तानहीन को सन्तान की, सन्तान वाले को रोगों की चिन्ता बनी रहती है । अत: इस संसार में प्रत्येक जीव दु:खी है ।)
सवैया - 
रंक को नचावे अभिलाषा धन पाइबे की, 
निशदिन सोच कर ऐसे ही पचत है । 
राजा ही नचावे सब भूमि ही को राज लेऊँ, 
और हू नचावे जोई देहर से रचत है ॥ 
देवता असुर सिद्ध पन्नग सकल लोक, 
कीट पशु पक्षी कहु कैसे कै बचत है । 
"सुन्दर" कहत काहू सन्त की कही न जाय, 
मन के नचाये सब जगत नचत हैं ॥
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*दादू दरिया यहु संसार है, तामें राम नाम निज नाव ।*
*दादू ढील न कीजिये, यहु औसर यहु डाव ॥ ३० ॥* 
टीका - यह संसार दु:खरूपी सागर है और राम नाम रूपी उत्तम नौका है । हे जिज्ञासुजनों ! नौका में बैठ कर पार होने में विलम्ब न करो अर्थात् ईश्वर भजन द्वारा संसार के आवागमन से मुक्त हो जावो, क्योंकि यह मनुष्य देह स्वर्ण अवसर है और नाम-चिन्तन सर्वोत्तम सुलभ साधन है । अब इसमें तनिक भी देर करना योग्य नहीं है ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 26 जून 2012

= स्मरण का अँग २ =(२७-८)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =*
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*मन प्रबोध*
*दादू जे तैं अब जाण्या नहीं, राम नाम निज सार ।*
*फिर पीछै पछिताहिगा, रे मन मूढ गँवार ॥ २७ ॥* 
टीका - हे मन ! तूं बहुत मूर्ख है, क्योंकि तीनों लोकों का सार जो राम का नाम है उसके महत्व को मनुष्य देह प्राप्त करके भी तूने नहीं समझा । हे गँवार ! विषयों के यार ! अविवेकी ! अन्त समय में जब तन और मन बुढ़ापे के नाना दु:खों के कारण से धैर्य छोड़ देंगे, तब तुझे "मैंने मनुष्य देह प्राप्त करके भी कुछ नहीं किया", इत्यादिक पश्चाताप मात्र ही रहेगा ।
इयमेव परा हानिरूपसर्गोऽप्यमेव हि । 
अभाग्यं परमं चैतद् वासुदेवं न यत् स्मरेत् ॥ 
शीतेऽतीते वसनमशनं वासरान्ते निशान्ते, 
क्रीडारम्भं कुवल यदृशां यौवनान्ते विवाहम् । 
सेतोर्बन्धं पयसि चलितं वार्धके तीर्थयात्रा,
वित्ते नष्टे वितरणमहों कर्तुमिच्छन्ति मूढा: ॥ 
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*दादू राम संभाल ले, जब लग सुखी सरीर ।* 
*फिरि पीछै पछिताहिगा, जब तन मन धरै न धीर ॥ २८ ॥* 
टीका - हे जिज्ञासुजनों ! इस समय जबकि तन - मन तुम्हारा सुखी है, राम - नाम का स्मरण कर लो अन्यथा तन मन के धैर्य त्यागने पर केवल पश्चाताप ही होता रहेगा । 
यावत् स्वस्थमिदं शरीरमरूजं यावज्जरा दूरत:, 
यावच्चेन्द्रिय शक्ति प्रतिहता यावात्क्षयो नायुष: । 
आत्म श्रेयसि तावदेव विदुषा कार्य: प्रयत्नो महान्, 
सन्दीप्ते भवने तु कूपखननं प्रत्युद्यम: कीदृश: ॥ 
-भृतहरि- 
समय हरि ध्यायो नहीं, सुख में रह्यो लुभाय । 
जब ऊधो समये गयो, तब मूरख पछताय ॥ 

सोमवार, 25 जून 2012

= स्मरण का अँग २ =(२५-६)


॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =*

*चितावणी*
*दादू अैसा कौण अभागिया, कछु दिढावै और ।* 
*नाम बिना पग धरन को, कहो कहाँ है ठौर ॥ २५ ॥* 
टीका :- हे संशय बुद्धि ! ऐसा कौन मन्दभागी है, जो ईश्वर के नाम के अतिरिक्त, अन्य नामों का उपदेश करे । अर्थात् सांसारिक देव, भूत आदिक की उपासना करने वाले भाग्यहीन हैं, क्योंकि प्रभु के नाम के बिना भक्तजनों का क्षण भर भी जीवन सम्भव नहीं है । 
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*सुमिरण नाम महिमा*
*दादू निमिष न न्यारा कीजिये, अंतर थैं उर नाम ।*
*कोटि पतित पावन भये, केवल कहतां राम ॥ २६ ॥*
टीका - हे जिज्ञासुजनों ! प्रभु के नाम को क्षण भर भी नहीं भूलिये, क्योंकि केवल राम - नाम का उच्चारण मात्र से ही अजामिल जैसे असंख्य अधम प्राणी, पावन पवित्र होकर संसार - कष्ट से मुक्त हो गए हैं । यह राम - नाम का ही माहात्म्य है । 
ब्रह्म हत्या सहस्त्राणि, अगम्या गमनानि च । 
केन ध्यानयोगेन, नस्यन्त्यापित क्षणत् ॥ 
"जासु नाम मरत मुख आवा । 
अधम मुक्ति हो, सब श्रुति गावा ॥"
(क्रमशः)

रविवार, 24 जून 2012

= स्मरण का अँग २ =(२३-४)


॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =*
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*नाम चित्त आवै सो लेय*
*दादू सिरजनहार के, केते नाम अनन्त ।* 
*चित आवै सो लीजिये, यों साधु सुमरैं संत ॥ २३ ॥* 
टीका - जिज्ञासु प्रश्न करता है कि हे सतगुरु ! सिरजनहार परमात्मा के कितने नाम हैं ? गुरूदेव उत्तर देते हैं कि अनन्त । तो हे महाप्रभु ! हम कौन से नाम का स्मरण करे ? गुरुदेव बोले :- जो नाम आपको अच्छा लगे । बहिर्मुख चित्त की वृत्ति अन्तर्मुख होवे या गुरुदेव बतावें, वही नाम लीजिए । हे जिज्ञासु ! इस प्रकार मुक्त पुरुष जीवन-मुक्ति के विशेष सुख के लिए, और साधन कोटि में चलने वाले साधक पुरुष ऐसे ही स्मरण करते आए हैं ।
बहुनि सन्ति नामानि रूपाणि च कृष्णस्य ते । 
गुणकर्मानुरूपाणि तान्यहं वेद, नो जना: ॥(भागवत)
जिह्वे ! सदैवं भज सुन्दराणि, नामानि कृष्णस्य मनोहराणि । 
समस्त भक्तार्ति विनाशनानि, गोविन्द दामोदर माधवेति ॥ 
ब्रह्मैव सर्वनामानि रूपाणि विविधानि च । 
सर्वाण्यपि समप्राणि विभातीति श्रुतिर्जगौ ॥ 
"अगुन सगुन दुई ब्रह्म सरूपा । 
अकथ अगाध अनादि अनूपा ।
नाम सकल सतरूप हैं, लधु दीरघ नहिं कोइ । 
जगन्नाथ जिहि नाम हित, तिहि हरि प्रकट होइ ॥ 
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*आप कौनसा नाम लेते हो*
*दादू जिन प्राण पिण्ड हमकौ दिया, अंतर सेवैं ताहि ।* 
*जे आवै ओसाण सिर, सोई नांव संवाहि ॥ २४ ॥* 
टीका - जिन कृपाल परमेश्वर ने हमको प्राण और स्थूल शरीर आदिक दिया है, उसकी एकाग्र वृत्ति से उपरोक्त नामों द्वारा अन्त:करण में हम अराधना करते हैं । 
अकबर बूझी बीरबल, सिरह कौण हथियार । 
हाथी आवत देख कर, श्वान दिया सिर मार ॥ 
दृष्टांत :- अकबर बादशाह बीरबल से पूछने लगा कि बीरबल ! हथियारों में सबसे अच्छा हथियार कौनसा है ? बीरबल बोला :- हुजूर ! जिससे मौके पर जान बच जाये, वही हथियार अच्छा है । एक रोज बादशाह हाथी पर सवार होकर परीक्षा के लिए जमुना के किनारे, जहाँ बीरबल संध्या करता था, वहाँ पहुँचा और महावत को बोला :- बीरबल के ऊपर हाथी चढ़ा दो । बीरबल ने देखा, बादशाह हथियार देखना चाहता है । बीरबल उठा और एक सोये हुए कुत्ते के पाँव पकड़कर, घुमाकर, हाथी के सिर में दे मारा । टकराते ही कुत्ता हाथी के कान के पास चिल्लाया और हाथी चमक कर वापिस लौट गया । बादशाह सिंहासन पर बैठा हुआ हँस पड़ा और बोला :- बीरबल हथियार ठीक है, जिससे जान बच जाये, वही हथियार अच्छा है । सतगुरु महाराज कहते हैं कि हे जिज्ञासुओ ! जिस परमात्मा के नाम से काल से मुक्त हो जावे, वही नाम ठीक है ।
(क्रमशः)

शनिवार, 23 जून 2012

= स्मरण का अँग २ =(२१-२)


॥ दादूराम-सत्यराम ॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =*
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यदि नामी परमेश्वर एक ही है, तो अल्लाह और राम के सम्प्रदायवादी पुरुषों में भेद क्यों है । इस संशय के निवारणार्थ कहते हैं :-
*दादू एकै अलह राम है, समर्थ सांई सोइ ।* 
*मैदे के पकवान सब, खातां होइ सु होइ ॥ २१ ॥* 
टीका - हे जिज्ञासु ! अल्लह, राम और समर्थ सांई, यह एक ही है । अल्लह और राम से तात्पर्य यह है कि इसी प्रकार से परमेश्वर बोधक भिन्न - भिन्न धर्मों के जितने भी नाम हैं, वे सब एक ही परमात्मा का बोध कराने वाले हैं । अब उन सब का फल कहते हैं कि जैसे एक ही मैदा के अनेक पदार्थ बनते हैं, जो कि इच्छा और स्वाद भेद से वे भिन्न - भिन्न प्रतीत होते हैं, किन्तु उनके खाने से क्षुधा - निवृत्ति और पुष्टि रूप रूचि के अनुसार भिन्न - भिन्न हैं । इसी प्रकार एकाग्रता से परमात्मा के नामों में से किसी भी एक नाम के स्मरण करने से आत्म - साक्षात्कार व मोक्ष रूप एक ही फल की प्राप्ति होती है । 
ज्यूं आतम अरवाह इक, त्यूं ही राम रहीम । 
उदक आब कछु द्वै नहीं, रज्जब समझ फहीम ॥ 
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*निर्गुण सगुण विवाद की निवृत्ति*
*सगुण निर्गुण ह्वै रहै, जैसा है तैसा लीन ।* 
*हरि सुमिरण ल्यौ लाइए, का जाणों का कीन ॥ २२ ॥* 
टीका - हे जिज्ञासुजनों ! प्रभु को चाहे साकार मानो या निराकार मानो, किन्तु जिसकी जैसी धारणा हो, उसी में अपनी वृत्ति को एकाग्र करो, क्योंकि प्रभु किसी का बनाया हुआ तो है नहीं । इसलिए मैं उस प्रभु का स्वरूप कैसे जान सकता हूँ ! वह सर्वशक्तिमान् दयालु परमेश्वर न मालूम किस रूप में प्रसन्न होता है । पूर्व भक्तों ने उस परमेश्वर का किस रूप में साक्षात्कार किया है ? अभिप्राय यह है कि पूर्ण समर्थ होने से प्रभु के लिए निर्गुण सगुण का प्रतिबन्ध सम्भव नहीं है । इसलिए जिज्ञासुजनों को अपनी भावनानुसार प्रभु का पूर्ण लग्नता से जाप करना चाहिए । 
स एव करुणासिंधु: भगवान् भक्तवत्सल: । 
उपासकानुरोधेन भजते मूर्तिपंचकम् ॥ 
सर्वेश्वर: सर्वमय: सर्वभूतहिते रत: । 
सर्वेषामुपकाराय साकारोऽभूत् निराकृति: ॥ 
(भगवान् निराकार होते हुए भी भक्त की वाणी को सत्य सिद्ध करने के लिये साकार बन जाते हैं ।)
"मोरे मत बड़ नाम दुहु तैं किये जेहिं जग निज वश बूतें ॥"
गुरु दादू पै बादि द्वै, आए द्वै पख देख । 
तिन दोनों की बात सुन, भाख्यो वचन विशेष ॥ 
दृष्टांत :- एक निर्गुण और दूसरा सगुण, दोनों उपासक परस्पर विचार करने लगे । एक कहता है निर्गुण है प्रभु, दूसरा कहता है सगुण है प्रभु । दोनों अपनी - अपनी उपासना की सिद्धि आपस में बतलाने लगे । एक बांस लेकर आकाश में घुमाने लगा और बोला हे प्रभु ! आप सगुणरूप हो तो यह बांस आपसे टकराना चाहिए । तब बांस ज्योंहि आकाश में घुमाया, त्यों ही टकराता हुआ मालूम पड़ा । बोला, देखो प्रभु सगुण है । तब निर्गुण उपासक हाथ में बांस लेकर बोला :- हे प्रभु ! यदि आप निराकार हैं तो यह बांस आपके कहीं भी न टकरावे । बांस घुमाया तो बांस कहीं भी आकाश में नहीं टकराया । तब दोनों ने विचार किया कि दोनों की उपासना तो सत्य है, परन्तु यह पता नहीं चला कि प्रभु वास्तव में सगुण है या निर्गुण है ? तब वे ब्रह्मर्षि दादू दयाल के पास आए । दोनों ने अपना अपना प्रश्न किया । गुरूदेव ने उपर्युक्त साखी से उत्तर दे दिया । उन दोनों ने ही अपनी - अपनी धारणा के द्वारा प्रभु को प्राप्त कर लिया ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 22 जून 2012

= स्मरण का अँग २ =(१९-२०)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =*
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*दादू राम अगाध है, बेहद लख्या न जाइ ।*
*आदि अंत नहि जाणिये, नाम निरन्तर गाइ ॥ १९ ॥* 
टीका - ईश्वर की सत्ता अपार, असीम, इन्द्रियातीत, अनादि औैर सनातन है, इसलिए निरन्तर श्वास प्रति श्वास प्रभु का स्मरण करना चाहिए । रामादिक नामों का उपास्यदेव एक है या अनेक ? इस बात की पुष्टि श्री सतगुरु तीन साखियों में करते हैं । 
.
*अद्वैत ब्रह्म*
*दादू राम अगाध है, अकल अगोचर एक ।*
*दादू राम विलम्बिए, साधू कहैं अनेक ॥ २० ॥* 
टीका - हे जिज्ञासु ! वह राम हाथ, पैर आदिक कला रहित और अजर अमर तथा अगोचर कहिए, मन इन्द्रियों का अविषय और अति गम्भीर माया से रहित है । सजातीय विजातीय स्वगत भेद रहित वह ब्रह्म अद्वितीय है । जिससे नानात्व का भ्रम होता है, वह त्यागने योग्य है । इसलिए हे जिज्ञासुओ ! परमेश्वर के साक्षात्कार के लिए नाम - स्मरण कीजिए, इसमें देर न करो । अनेक साधु - महात्माओं ने ऐसा ही उपदेश किया है और इसी प्रकार नाम का स्मरण करते आए हैं ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 21 जून 2012

= स्मरण का अँग २ =(१७-८)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
.
*= स्मरण का अंग - २ =
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*दादू राम अगाध है, परिमित नाहीं पार ।* 
*अवर्ण वर्ण न जाणिये, दादू नाम अधार ॥ १७ ॥* 
*दादू राम अगाध है, अविगत लखै न कोइ ।* 
*निर्गुण सगुण का कहै, नाम विलम्ब न होइ ॥ १८ ॥* 
टीका - श्री ब्रह्मर्षि दादू दयाल महाराज उपदेश करते हैं कि जिज्ञासुजनों ! राम जो सर्वव्यापक चैतन्य हैं, वह अति गम्भीर हैं । अथवा गाध माया है, उससे परे हैं और अमुक प्रकार का है, ऐसे राम का कोई भी स्वरूप नहीं जान पाता । क्योंकि अवर्ण कहिए, मन - वाणी से प्रभु का स्वरूप वर्णन करना सम्भव नहीं है और वर्ण कहिए नाम - स्मरण द्वारा प्रभु का स्वरूप सम्भव भी है । इसलिए परमेश्वर के सत्य - स्वरूप को जानने के लिए एक नाम ही आधार है । अवर्ण, वर्ण से श्वेत, पीत आदि रूप और अक्षर, आश्रम या ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, इन चारों वर्णा के अर्थ का द्योतन होता है । तथा सर्वव्यापक होने से रूप आदि में परमेश्वर की सत्ता सर्वत्र जड़ - चैतन्य सम्पूर्ण सृष्टि में विद्यमान है । अत: न तो रूप, अक्षर आदि में ही प्रभु की एकान्त स्थिति है और न इनसे अन्यत्र ही, प्रत्युत सर्वत्र सम स्थितिवान् है । इसलिए अवर्ण और वर्ण करके प्रभु का कोई भी वर्णन करना सम्भव नहीं है । अथवा अवर्ण, वर्ण कहिए साकार निराकार अर्थात् परमेश्वर साकार है या निराकार, इस वृथा प्रपंच में न पड़ो । क्योंकि प्रभु सर्वशक्तिमान हैं, जिससे उसमें साकार - निराकार का भेद संगत नहीं है । क्योंकि भेद कहो या अवधि कहो, यह परिमित वस्तु में ही होती है और प्रभु अपरिमेय है । भेद और अवधि तो ज्ञेय वस्तु में ही बन सकती है और प्रभु मन-वाणी इन्द्रियों से अज्ञेय है अर्थात् जाना नहीं जाता । वस्तुत: सर्वज्ञभाव होने से प्रभु में विषय - विषयी भाव हो नहीं सकता । इसलिए भी ब्रह्मर्षि दादू दयाल महाराज उपदेश करते हैं कि राम की महिमा अपार है इसलिए इन्द्रियों की उसमें गति सम्भव नहीं है । हे संशयात्मन् ! निगुर्ण - सगुण का विवाद छोड़कर अब प्रभु के नाम-स्मरण में किंचित् भी विलम्ब न करो ।
(क्रमशः)

बुधवार, 20 जून 2012

= स्मरण का अँग २ =(१५-६)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =*
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*एक राम के नाम बिन, जीव की जलन न जाइ ।*
*दादू केते पचि मुए, करि - करि बहुत उपाइ ॥ १५ ॥* 
टीका - राम नाम बिना जीवों की आध्यात्मिक, आधिभौतिक आधिदैविक जो ताप हैं, वे अन्य साधन जो यज्ञ व्रतादिक हैं, उनसे दूर नहीं हो सकते हैं । क्योंकि दयाल जी महाराज कहते हैं कि कितने ही पुरुष अनेक साधन करके मर गए हैं किन्तु राम - नाम बिना किसी को भी अमर - सुख नहीं मिला है । 
विसृज्य मम नामानि कुर्वन्ति कर्म चाखिलम् । 
अप्राप्य महुति पार्थ भ्रमेयु: पार्थ कर्मसु ॥ 
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*दादू एक राम ही टेक गहि, दूजा सहज सुभाइ ।* 
*राम नाम छाडै नहीं, दूजा आवै जाइ ॥ १६ ॥* 
टीका - हे जिज्ञासुजनो ! एक राम - नाम की दृढ़ धारणा करो और जीवन - निर्वाह के निमित्त जो दूसरे व्यवहारिक कार्य हैं, उनमें उत्तम भावना से अर्थात् ईश्वरीय बुद्धि से, निष्काम भाव से स्वभाविक प्रवृत्ति से लगे रहो । जो जिज्ञासुजन एक राम - नाम का आश्रय नहीं छोड़ते हैं, उनकी उदर - पूर्ति आदि जो दूसरे व्यवहार हैं, वे भगवत्कृपा से बिना प्रयत्न के ही पूरे होते हैं । इसलिए व्यावहारिक कार्या के लिए परमात्मा से विमुख होना योग्य नहीं है । अथवा दूजा कहिए, नाम - स्मरण के अतिरिक्त तीर्थ, व्रत, यज्ञ आदि साधन करने से आना-जाना ही लगा रहेगा । अर्थात् संसार दु:ख से छुटकारा नहीं मिलेगा । इसलिए प्रतिक्षण राम - नाम का स्मरण करो ।
तस्माद् नामैकमात्रेण तरत्येव भवार्णवम् । 
पुमांश्च नास्ति सन्देहो बिना नामापराधत: ॥
(क्रमशः)

मंगलवार, 19 जून 2012

= स्मरण का अँग २ =(१३-४)


॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =*
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*स्मरण माहात्म्य*
*सहजैं ही सब होइगा, गुण इन्द्रिय का नास ।*
*दादू राम संभालतां, कटैं कर्म के पास ॥ १३ ॥* 
टीका - श्री सतगुरु उपदेश करते हैं कि राम-नाम का ध्यान करने से सहज ही सत, रज और तमो गुण एवं इन्द्रियों के सम्पूर्ण विषय - विकारों का भी नाश हो जाएगा । इस प्रकार से कर्म - फाँसी स्वत: ही कट जाएगी ।
भिद्यते हृदयग्रन्थि: छिद्यन्ते सर्वसंशया: । 
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि, तस्मिन् दृष्टे परावरे ॥ 
(गुरु ज्ञान से मन की कुण्ठाएँ खुल जाती हैं, सब संशय नष्ट हो जाते हैं, कर्मों का क्षय हो जाता है, जिससे ब्रह्म ज्ञान हो जाता है)
सकृत स्मृतोऽपि गोविन्दो नृणां जन्मशतैरपि । 
पापराशिं दहत्याशु तूलराशिमिवानल: ॥ 
(भगवान् का एक बार भी प्रेम से नाम ले तो मनुष्य के सैकड़ों जन्म के पाप जल जाते हैं, जैसे रुई का ढेर अग्नि से ।)
खट्वांगो नाम राजर्षिज्र्ञात्वोयत्तामिहायुष: । 
मुहुर्तात्सर्वमुत्सृज्य गतवानभयं हरिम् ॥ 
दृष्टांत :- सगरवंशीय राजा दिलीप खट्वांग चक्रवर्त राजा थे । एक बार वे देवताओं की प्रार्थना पर दैत्यों से युद्ध करने स्वर्ग गये थे । दैत्यों को जीतकर जब वे स्वर्ग से आने लगे तो देवताओं ने इन्हें इच्छानुसार वर माँगने के लिए कहा । तब इन्होंने देवताओं से पूछा - मेरी आयु कितनी है ? देवताओं ने कहा - अब केवल एक मुहूर्त(दो घड़ी) आयु ही आपकी शेष है । यह सुनते ही राजा ने कहा - शीघ्रातिशीघ्र मेरे स्थान पर मुझे पहुँचा दो । राजा ने आते ही नदी में स्नान किया और भगवद् भजन में मन एकाग्र कर दिया और अत्यल्प समय में ही भगवान् को प्राप्त कर लिया ।
कहा भी है - "भगवान् को प्राप्त करने के लिए गाडा कोनी जुपैं, केवल मन गाढा होना चाहिये ।
इन्दव छन्द
दोइ मुहुरत मांहिं दिलीप खट्वांगहु मुक्त किये रिषिराई । 
एक मुहुरत मांहि गजेन्दर आप सहाइ करी हरि जाई ॥ 
भूप परीक्षित सप्त दिनान्तर आप हि मुक्त किये शुक पाई । 
नाम रहै परमातम को परब्रह्म सहाइ सदा हरि गाई ।
गुण तारे माया तिमिर, शीत भर्म मन चन्द । 
"रज्जब" सुमिरण सूर सूं, सहज पड़े सब मन्द ॥ 
"को जाणैं कलि आई के, कीये केते पाप । 
चढि विमान गणिका गई, देखो नाम प्रताप ॥"

*स्मरण नाम चितावणी*
*राम नाम गुरु शब्द सों, रे मन पेलि भरम ।* 
*निहकर्मी सौं मन मिल्या, दादू काट करम ॥ १४ ॥* 
टीका - हे मन ! सतगुरु के राम - नाम उपदेश से अपने भ्रम - संशय को दूर करो और एकाग्र चित्त से राम - नाम का स्मरण करो । क्योंकि निष्कर्म परमेश्वर में मन के एकाग्र प्रवृत्ति होने से सम्पूर्ण कर्मों का स्वत: नाश हो जाता है ।
(क्रमशः)

सोमवार, 18 जून 2012

= स्मरण का अँग २ =(११-२)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =*
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*छिन - छिन राम संभालतां, जे जीव जाइ तो जाय ।*
*आतम के आधार को, नाहीं आन उपाय ॥ ११ ॥* 
इसलिए हे जिज्ञासुओ ! "स्वासैं स्वास", नाम स्मरण करते हुए यदि प्राण चले जावे तो अति उत्तम है, क्योंकि राम के स्मरण के अतिरिक्त आत्मा के उद्धार का कोई भी उपाय नहीं है ।
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*स्मरण माहात्म्य*
*एक मुहुर्त मन रहै, नांव निरंजन पास ।*
*दादू तब ही देखतां, सकल कर्म का नास ॥ १२ ॥* 
टीका - यदि एक क्षण भर भी परमात्मा के नाम से निष्काम वृत्ति से यह मन एकाग्र हो जावे, तो उसी क्षण पूर्व संचित सकाम कर्मों का क्षय हो जाता है ।
(क्रमशः)


रविवार, 17 जून 2012

= स्मरण का अँग २ =(९-१०)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी

साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =
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*राम भजन का सोच क्या, करता होइ सो होइ ।*
*दादू राम संभालिए, फिर बुझिये न कोइ ॥ ९ ॥* 
टीका - राम का भजन करने वाले को क्या सोच है ? अर्थात् शरीर निर्वाह के लिए उसको चिन्ता नहीं है, क्योंकि "करता होइ सो होइ", नाम स्मरण करते हुए शरीर आदि की यथा योग्य क्रियाएँ, परमेश्वर की कृपा से उसका योगक्षेम स्वत: ही पूरा होगा । सकामी शिष्य सतगुरु से प्रश्न करता है कि हे दयालु ! प्रभु - भजन का फल क्या है ? प्रत्युत्तर में श्री सतगुरु उपदेश करते हैं कि "राम भजन का सोच क्या" ? हे मंदबुद्धि ! राम का भजन करने से क्या फल होता है ? इसकी तूं क्या चिन्ता करता है ? क्योंकि जो कुछ फल होता है, वह राम - भजन करते - करते आप ही हो जाएगा । राम - भजन को ही तूं कार्य और फल समझ । इसलिए हे जिज्ञासु ! राम - भजन का स्मरण करता हुआ किसी सांसारिक पदार्थ की चिन्ता मत कर ।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते । 
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ 
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*नाम चेतावनी*
*राम तुम्हारे नांव बिन, जे मुख निकसै और ।*
*तो इस अपराधी जीव को, तीन लोक कित ठौर ॥ १० ॥* 
टीका - हे राम जी ! आपके नाम स्मरण के अतिरिक्त जो कदाचित् अज्ञानी जीवों के मुख से और कहिए, आप से विमुख प्रवृत्ति कराने वाला दूसरा कोई प्रसंग हो तो, ऐसे अज्ञानी जीवों को त्रिलोकी में सुख की ठौर कहाँ है ? हे जिज्ञासुओ ! तुम्हारे मुँह में राम - स्मरण के बिना अन्य तुच्छ देवी, देव, भूत, प्रेत आदि की स्तुति या कामना सहित तुच्छ मंत्रों का जाप, सांसारिक विषयों की कामना, ये सब परमात्मा से विमुख करने वाले हैं । यदि ये तुम्हारे मुँह से निकलें तो इस अपराधी जीव को तीन लोक में कहीं भी सुख का स्थान नहीं है ।
राम कह्या जो ना तिरै, ऐसी कहै जु कोइ । 
ब्रह्महत्या वाके लगे, नरका गामी होइ ।
गोहत्या गुरु दूरववै, ब्रह्महि ब्रह्म विसार ।
जगन्नाथ ऐसा नहीं महापाप संसार ॥
(क्रमशः) 

शनिवार, 16 जून 2012

= स्मरण का अँग २ =(७-८)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =*
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*दादू नीका नांव है, सौ तू हिरदय राखि ।* 
*पाखंड प्रपंच दूर करि, सुन साधुजन की साखि ॥ ७ ॥* 
टीका ~ प्रतिक्षण अपने मन को प्रभु के नाम स्मरण में ही लगाए रखो, यही सर्वोत्तम साधन हैं । पाखंड कहिए तन के, मन के, वाणी के दोषों को त्याग करके साधु महात्माओं की शिक्षा को सुनो, अर्थात् पवित्र हृदय और श्रद्धावान् होकर सत्संग करो । इसी से नाम स्मरण में एकाग्र वृत्ति होगी ॥ ७ ॥ 
चोरी जारी हिंसता, तन के दोष हैं तीन । 
निन्दा झूठ, कठोरता, वाक् चाल बक चीन ॥ 
तृष्णा, चिन्ता, द्वेष बुद्धि, नरसिंह त्रिय मन दोष । 
कायिक वाचिक मानसिक, दसों दोष तज मोक्ष ॥ 
एक देखा तृण धारी, सो तो ले गया साह की नारी । 
एक देखा अनाहारी, आधी रात मच्छी मारी ।
एक देखा शिलाधारी, नगरी मूसी रैंन सारी । 
एक देखा राजा ढोर, पकड़े साह और छोड़े चोर ॥ 
दृष्टांत(पाखंड पर) :- एक साहूकार ईश्वर का भक्त और संतों का सेवक था । एक रोज एक पाखंडी साधु उसकी दुकान के सामने आकर खड़ा हो गया । साहुकार ने पूछा - बाबा, कैसे खड़े हो ! साधु बोला - दो - चार दिन ठहरना चाहता हूँ । उसे घर के बाहर नोहरे के एक छप्पर में ठहरा दिया । तीन दीन ठहर कर वह चल दिया । थोड़ी दूर जाकर लौट आया और बोला - यह छप्पर का तिनका मेरी जटा में चला गया था, उसे लौटाने आया हूँ । साहुकार ने सोचा यह सच्चा साधु है । आग्रह कर घर के बाहर एक कमरे में उसको ठहरा दिया । अन्न - पानी की सेवा कई दिनों तक की । परन्तु वह साहुकार की स्त्री को बहकाने लगा और यहाँ तक कि अपने प्रभाव से उसको आकर्षित कर लिया । साहुकार एक रोज बाहर गया हुआ था । वह स्त्री सम्पूर्ण घर का द्रव्य पेटी में डालकर साधु के साथ चल पड़ी । पीछे से साहुकार आया, न साधु को देखा, न स्त्री को देखा और न ही द्रव्य ही घर में मिला । साहुकार उनकी खोज करने को चल पड़ा ।
एक जंगल में सायंकाल को पहुँचा । वहाँ भी एक साधु रहता था । साहुकार ने सोचा, आज रात महात्मा के पास विश्राम करूँगा । महात्मा बोला :- रात को हम किसी को यहाँ रहने नहीं देते, हम अनाहारी हैं । साहुकार समझ गया, यहाँ भी दाल में काला है । कुछ दूर जाकर वापस आया और एक पेड़ के नीचे छुप कर बैठ गया । उसने देखा कि उस साधु वेषधारी ने एक जाल निकाला और तालाब में फेंका । जाल में लेकर मच्छियाँ भूना । आप खाया और बाकी अपने रिश्तेदारों को दे दिया । सवेरे साहुकार चला । शाम होते - होते एक शहर के किनारे पहुँचा । वहाँ देखा एक भेषधारी पाखण्डी शिला पर बैठा है । साहुकार ने जाकर नमस्कार किया । बोला :- महाराज ! रात को मैं यहीं विश्राम करूँगा । पाखण्डी बोला :- हम त्यागी वैरागी हैं, रात को किसी को रहने नहीं देते हैं । साहुकार ने सोचा, यहाँ भी कुछ विशेषता है । कुछ दूर जाकर कहीं छुप कर बैठ गया । आधी रात्रि को चोर आए जो उसके साथी थे । उन सभी ने मिलकर राजा के महलों में जा कर चोरी की । माल लाकर शिला के नीचे गड्ढे में डाल दिया और वह आसन लगाकर बैठ गया ।
प्रात: काल पुलिस खोज करने लगी । साहुकार पुलिस के धक्के चढ़ गया । उसे सिपाही पकड़कर ले गए और बन्द कर दिया । वह सोचने लगा कि यह भी होना था, सो ठीक है । कोतवाली राजा के महल के समीप थी । रात्रि को साहुकार ने पूर्वोक्त दोहा बोला । राजा ने उसका सारा वृत्तान्त सुना । उसी समय कोतवाल को बुलाया और कहा कि आज के मुल्जिम के बयान सुबह हम लेंगे । उसको हिफाजत से रखो । सवेरे राजा के समक्ष उसे पेश किया । राजा ने पूछा कि रात वाला दोहा फिर बोले । साहुकार ने दोहा बोला । राजा ने तुरन्त पुलिस को आज्ञा दी । उस फलाहारी की तलाशी ले आओ । पुलिस ने जब तलाशी ली तो हिंसा करने के जाल आदि सभी मिल गए । वे उसे गिरफ्तार कर ले आए । शिलाधारी की तलाशी लेकर आओ । वह नगर के पास शिला पर बैठा था । नगर में जितनी चोरियाँ हुईं, वह सारा माल उसकी शिला के नीचे निकला । माल सहित पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया । राजा ने साहुकार के कहने के अनुसार उसकी स्त्री और पाखण्डी साधु जो बोलता था, हम किसी का तृण भी नहीं ले जाते, उनका वारण्ट कटवा दिया । कुछ दिन बाद वे मिल गए । चारों को पुलिस ने राजा के सामने दरबार में पेश किया । साहूकार ने यह श्लोक बोला :-
कुश - पत्र न चीन्है ब्रह्म ज्ञान, 
फल फूल न छूवै, बगुल ध्यान । 
नर निकट न राखै डंड धार, 
पर पुरुष न छूवै येही नार ॥ 
राजा ने चारों के बयान सुनकर साहूकार से पूछा :- क्या दण्ड दें ? साहुकार बोले :- हुजूर ! इन चारों को काला पानी भेज देना चाहिए । ये देश में रहने के काबिल नहीं हैं । इनके लिए यही सजा ठीक होगी ।
सतगुरु महाराज उपदेश करते हैं कि तन, मन, वचन के पाखण्ड को त्याग कर प्रभु का भजन करने से ही कल्याण होता है ।
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*दादू नीका नांव है, आप कहै समझाइ ।*
*और आरम्भ सब छाड़ दे, राम नाम ल्यौ लाइ ॥ ८ ॥*
टीका ~ हे जिज्ञासु ! राम - नाम का स्मरण ही सर्वोत्तम है । यही राम - नाम सतगुरु ने समझकर उपदेश किया है अथवा भगवान् ने अपने भक्तों को बतलाया है कि हे जिज्ञासु ! तुम स्वयं अपने मन को समझा करके यही उपदेश कर अथवा नाम के स्मरण में मन को निश्चल कर । इसके अतिरिक्त जितने भी सकाम कर्म हैं, उन सबको त्याग करके चित्तवृत्ति को केवल राम - नाम में ही लगा ।
जगन्नाथ सब बात में करिये ढील अनन्त । 
राम नाम उपकार की, बेर न करत बनंत ॥ 
भोजन कर शत काम तज, दस शत तज कर न्हाइ । 
आयुत छाड़ उपकार कर, लख बीसर हरि ध्याइ ॥ 
"सर्व धर्मा - परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज । 
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयि व्यामि मा शुच: ॥"
(क्रमशः)

शुक्रवार, 15 जून 2012

= स्मरण का अँग २ =(५-६)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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= स्मरण का अंग - २ =*
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*दादू नीका नांव है, हरि हिरदै न बिसारि ।* 
*मूरति मन मांहैं बसै, सांसैं सांस संभारि ॥ ५ ॥* 
टीका ~ हरि का नाम सर्वोत्तम है । हरि स्मरण से कदापि विमुख नहीं होना चहिए, क्योंकि अति मनोहर परमेश्वर का शुद्ध स्वरूप है । वह मन में ही बसता है अर्थात् मन तदाकार वृत्ति होकर प्रत्येक क्षण - क्षण में परमात्मा का ही स्मरण करता रहे ॥ ५ ॥ 
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*सांसैं सांस संभालतां, इक दिन मिलि है आइ ।*
*सुमिरण पैंडा सहज का, सतगुरु दिया बताइ ॥ ६ ॥* 
टीका ~ सतगुरुदेव उपदेश करते हैं कि हे जिज्ञासुओ ! श्वास प्रति श्वास के साथ ईश्वर का स्मरण करो । तो एक रोज व्यष्टि चेतन, जीव कूटस्थ, समष्टि चेतन ब्रह्म से अभेद हो जाएगा । यह स्मरण "पैंडा" कहिए, साधना मार्ग सहज कहिए, ब्रह्म में मिलने का सरल मार्ग सतगुरु ने बता दिया है ॥ ६ ॥ 
समीचीनोऽप्ययमेव पन्था: क्षेमोऽकुतो भग: । 
सुशीला: साधवो यत्र नारायण-परायणा: ॥ 
(सुशील साधुओं के लिये नारायण नाम जपकर कल्याण प्राप्त करना भय रहित सुगम मार्ग है ।)
श्वास माहीं जात है, मानुष अमोल रतन । 
दादू दिल दीवान भज, या का यही जतन ॥ 
दादू सुमिरण कीजिये, जब बीते अर्ध रात । 
सहस्त्र गुणा हो भजन में, उगन्ते परभात ॥ 
सुमिरण करते आ मिले, सहजैं सुन्दर श्याम । 
शिवरी सुमरी प्रेम से, सारे-सारे काम ॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 14 जून 2012

= स्मरण का अँग २ =(३-४)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =*
अब हेते स्वरूप फल की अवधि को बताने के लिये स्मरण की चार अवस्था कहते हैं :-
*पहली श्रवण द्वितीय रसना, तृतीय हिरदै गाइ ।* 
*चतुर्दशी चेतन भया, तब रोम रोम ल्यौ लाइ ॥ ३ ॥* 
टीका ~ सदगुरु द्वारा जो ब्रह्म उपदेश श्रोत्र से सुना, वह स्मरण में हेतु है और रसना से राम - नाम का उच्चारण स्मरण का स्वरूप है और जिज्ञासुजनों की तीसरी अवस्था रात - दिन ह्रदय में ही नाम उच्चारण की होती है । जप दो प्रकार होता है ~ (१)वाचिक(बोलकर) या कंठस्थ(बिना बोले चुपचाप), (२) मानसिक(मन से जाप) वाचिक जाप की अपेक्षा कंठस्थ श्रेष्ठतर और मानसिक जाप श्रेष्ठतम होता है । यह स्मरण का फल है कि जब रोम - रोम में ध्वनि होने लगे, तो जिज्ञासुजन चौथी दशा में चैतन्य कहिए, राम - रूप हो जाते हैं ॥ ३ ॥ 
आठ मास जिह्वा रटै, सोला मास कंठ जाप । 
बत्तीस मास ह्रदय जपै, रहैं न तीनों ताप ॥ 
(तीन ताप - आध्यात्म, आधिदैविक, अधिभौतिक ।)
पाव भजन जिह्वा कह्यो, कंठ कह्यो अध सेर । 
तीन पाव हृदय कह्यो, रोम रोम कह्यो टेर ॥ 
चिन्तन की चौथी दशा, रोम रोम धुनि राम । 
चोखा शव से सब सुनी, विट्ठल ध्वनि अष्टयाम ॥ 
दृष्टांत :- चोखा मेला महार जाति के थे और मंगल बेडा में रहते थे । भक्त नामदेवजी से इन्हें विट्ठल भगवान की भक्ति का रंग लगा था । प्राय: पंढरपुर में विट्ठल भगवान के दर्शन करने जाया करते थे । सन् १९३८ में मंगल बेड़ा नगर के डंडे की मरम्मत हो रही थी । उस समय वह डंडा ढह गया और उसके नीचे चोखा मेला सहित १६ व्यक्ति दबकर मर गये । जब नामदेवजी को इसका पता चला तो चोखा मेला के शव को पंढरपुर लाने के लिए भक्त - मण्डली सहित हरिनाम कीर्तन करते हुए गए । सबने मिलकर दीवार का मलबा हटाया तो उसके नीचे १६ व्यक्तियों के शव निकले, जिनकी मुखाकृति विकृत हो चुकी थी, अत: उनमें चोखा मेला का शरीर पहचानने में नहीं आया । नामदेव जी ने कहा :- चोखा भगवान् का भक्त था, अत: जिस शव के रोम - रोम से विट्ठल ध्वनि सुनाई दे, वही चोखा का शव है । इस तरह चोखा के शव का निश्चय किया और कीर्तन करते हुए शव को पंढरपुर में लाकर पण्ढरीनाथ के महाद्वार पर समाधि बनाई । ऐसे भक्तों के लिए श्री दादू जी महाराज ने कहा है :- 
"रोम रोम लै लाइ धुनि, ऐसे सदा अखण्ड ।"
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*मन प्रबोध*
*दादू नीका नांव है, तीन लोक तत सार ।* 
*रात दिवस रटबो करो, रे मन इहै विचार ॥ ४ ॥* 
टीका ~ परमात्मा का नाम ही सर्वश्रेष्ठ है । यही तीनों लोकों में तत्व या सार है । इसलिए हे जिज्ञासुजनों ! अपने अन्त:करण में यह निश्चय करो कि प्रति क्षण में ईश्वर का चिंतन करें । अब विशेष वर्णन प्रस्तुत साखी में ततसार पद का उल्लेख है । इसका अभिप्राय यह है कि तत्व का अर्थ तत् पद से लक्षित ईश्वर का वाचक है अर्थात् तत् कहिए ईश्वर और ईश्वर की सत्ता सगुण, निर्गुण उपाधि भेद से दो प्रकार की है । इस विकल्पात्मक स्थिति में प्रश्न उठता है कि तत् पद से केवल सगुण ईश्वर को ग्रहण किया जाये या निर्गुण को ? उत्तर :- शब्द के दो अर्थ होते हैं, एक वाच्यार्थ जो कि शब्दार्थ है और दूसरा लक्ष्यार्थ जो कि भावार्थ है । शब्दार्थ बुद्धि से तत्व का अर्थ होता है सगुण ईश्वर और लक्ष्यार्थ बुद्धि से निर्गुण ब्रह्म का बोध होता है । अब जिज्ञासुजनों के संदेह निवारणार्थ सार पद का उल्लेख करके दयामूर्ति ब्रह्मर्षि सतगुरुदेव ने लक्ष्यार्थ निर्गुण ब्रह्म के प्रति संकेत किया है, क्योंकि केवल वाच्यार्थ ही अभीष्ट होता तो सार पद का वर्णन करते । परम आचार्य ब्रह्मर्षि दादू दयाल महाराज निर्गुण ब्रह्म के ही उपासक थे, इसलिए यही लक्ष्यार्थ में प्रमाण है ॥ ४ ॥ 
गुरु दादू पै आइयो, शिष्य होण इक वृद्ध । 
या साखी सुण लग रह्यो, मग्न भयो अरु सिद्ध ॥ 
दृष्टांत :- ब्रह्मर्षि दादू दयाल महाराज आमेर में विराजते थे । एक रोज एक वृद्ध पुरुष ने महाराज को आकर नमस्कार किया और अपने उद्धार का साधन पूछा । गुरुदेव बोले :- बाबा, राम - राम किया करो । कुछ दिन बाद संतों ने कहा :- बाबा, बैठे - बैठे आप राम - राम ही करते हो ? कुछ साखी श्लोक याद किया करो । बाबा बोले :- गुरु महाराज का तो यह आदेश है कि रात - दिन राम - राम कहो । अब रात दिन में से कोई और समय होवे, तो आप मुझे बताओ आपके साथ साखी शब्द याद करूँगा । रात - दिन तो गुरु महाराज की आज्ञा का ही पालन करूँगा । साधु चकित हो गए । बाबा राम-राम के प्रताप से वचन - सिद्ध हो गये ।
(क्रमशः)

बुधवार, 13 जून 2012

= स्मरण का अँग २ =(१-२)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =*
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अगाध तत्व की प्राप्ति के लिए गुरुदेव के अंग में पूर्वोक्त प्रकार से जो कहा है "राम नाम उपदेश करि, अगम गवन यहु सैन," तथा "राम नाम गुरु शब्द सौं, रे मन पेलि भरम" इत्यादिक जो साधन सूत्र रूप से बतलाएँ हैं, उनके अर्थ स्वरूप परम आचार्य ब्रह्मर्षि जगद्गुरु श्री दादू दयाल महाराज "स्मरण" के अंग का निरूपण करते हैं, अर्थात् नाम उच्चारण सहित नामी का जो चिन्तन है, सो स्मरण का स्वरूप है । 
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प्रथम स्मरण के प्रकरण की निर्विघ्न समाधि के लिए मंगलाचरण करते हैं :-
*दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवत: ।* 
*वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगत: ॥ १ ॥* 
टीका ~ पूर्व में "गैब मांहि" कहिए अचानक जो सतगुरु रूप भगवान् वृद्ध रूप धरके मिले, उन्होंने परमात्मा के स्मरण का उपदेश किया है । इसलिए अब स्मरण के अंग की निर्विघ्नता के लिए प्रथम सर्वव्यापक हरि की वन्दना करते हैं । तदनन्तर गुरुदेव को नमस्कार करते हैं । कैसे हैं गुरुदेव ? कि ब्रह्मनिष्ठ, ब्रह्मश्रोत्रिय जिनके लक्षण अनेक शास्त्रों में वर्णन किए हैं, ऐसे गुरु ब्रह्मस्वरूप गुरुदेव को हमारा नमस्कार है । गुरु के अनन्तर भूत, वर्तमान, भविष्य काल में जिन साधु महात्माओं ने भगवत् का स्मरण किया है, उन सबको भी हमारी वन्दना है ॥ १ ॥ 
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इस प्रकार हरि - गुरु - सन्तों को नमो, नमस्कार, वन्दना, प्रणाम करके दु:खरूप संसार के पार होकर "गत:" कहिए, भगवत् स्वरूप होते हैं । पूर्व प्रकरण में "महाप्रभु के घट-घट राम रतन है" इस उपदेश से जिज्ञासुजनों की चींटी से हाथी पर्यन्त जीव मात्र से परमात्म - बुद्धि हो रही है । जिससे जिज्ञासुजनों का नाम योग्य अयोग्यता में संदेह होने से नाम - स्मरण में दृढ़ता नहीं होती है । इसलिए परमेश्वर के नाम में जिज्ञासुजनों की दृढ़ता कराने के लिए तथा सुख से स्मरण होने के निमित्त श्री ब्रह्मर्षि गुरुदेव अल्प अक्षरों में परमेश्वर के नाम का संकेत करते हैं :-
*एकै अक्षर पीव का, सोई सत्य करि जाण ।* 
*राम नाम सतगुरु कह्या, दादू सो परवाण ॥ २ ॥*
टीका ~ नामी एक है, अक्षर क्षय भाव से रहित है और पीव परमेश्वर सचराचर जगत् का पालन करने वाला है । नामी का स्वरूप सत् चित् आनन्द स्वरूप है और परमात्मा का नाम "रं“ यह एक अक्षर है । इसलिए हे जिज्ञासुजनों ! नाम को सत्य करके मानिए, क्योंकि सतगुरु देव ने राम - नाम मंत्र का ही उपदेश किया है । इस वास्ते राम - नाम ही सर्वश्रेष्ठ है अथवा "पीव" कहिए पालन करने वाला परमेश्वर का वाचक प्रणव नाम ओऽम् अक्षर है । इस प्रणव में अर्ध चन्द्र है, तो यह रकार है, और अनुस्वार है, वह मकार है । सोई रं(राम) सत्य करके जानो । उस परब्रह्म के वाचक नाम को और नामी को सत्य करके मानो ! यही सतगुरु का उपदेश है ॥ २ ॥ 
गीता में लिखा है कि मैं कूटस्थ अविनाशी पुरुष ईश्वर हूँ :-
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरचाक्षर एव च । 
क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥ 
रकाराज्जायते ब्रह्मा रकाराज्जायते हरि: । 
रकाराज्जायते शंभु: रकारात् सर्वशक्तय: ॥ 
आदावन्ते तथा मध्ये रकारे सुप्रतिष्ठितम् । 
विश्वं चराचरं सर्वं अवकाशेन सर्वश: ॥ 
बीजे यथा स्थितो वृक्ष: शाखापल्लव संयुत: । 
तथैव सर्ववेदा हि रकारे सुव्यवस्थिता: ॥ 
नाम माहात्म्य नित सुने, हिरदय हेत लगाय । 
नाद मृग ज्यूं सीस दे, और ठौर नहिं जाय ॥ 
स्वरूप भजन का यह भया, रसना रटतो जाय । 
चातक ज्यूं भूलै नहीं, श्रुति हिरदै ठहराय ॥ 
हिरदै राम न बीसरै, नटनी का सा ध्यान । 
फल भजन का यह भया, नासै मिथ्या ज्ञान ॥ 
रोम रोम रसना रहै, मच्छी जल ज्यूं पान । 
अवधि भजन की यह भई, पाया परम स्थान ॥
(क्रमशः)

मंगलवार, 12 जून 2012

= श्री गुरुदेव का अँग १ =(१५६-७)



॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= श्री गुरुदेव का अँग १ =*
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उपर्युक्त मंत्रों के गुरुमुख श्रवण करने से ही अपूर्व फल मिलता है अत: महाप्रभु गुरु - विधि का उपदेश करते हैं :-
*दादू सब ही गुरु किए, पशु पंखी बनराइ ।* 
*तीन लोक गुण पंच सौं, सबही मांहिं खुद आइ ॥ १५६ ॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुजनों ! पशु, पक्षी आदि जगत् के जो चराचर प्राणी हैं, उनमें से २४ को दत्तात्रेयजी ने आत्म - कल्याण के लिये गुरु किये हैं, जैसे पशुओं में कामधेनु, पक्षियों में गरुड़, काक भुशुंडी, और वृक्षों में कल्पवृक्ष, नदियों में गंगा, पर्वतों में विन्ध्याचल आदि किन्तु उन्होंने पच्चीसवाँ गुरु देह को और शिष्य मन को बनाया, देह से विराग और विवेक मिला । इस प्रकार सम्पूर्ण जगत् में परमेश्वर ने उत्तम, मध्यम, कनिष्ठ की रचना की है ॥ १५६ ॥
इसलिए सभी प्राणियों ने गुरु - कृपा से ही आत्म - साधन किया है । इसीलिए गुरु अवश्य करना चाहिए । अथवा सतगुरु उपदेश करते हैं कि हे जिज्ञासुजनों ! सारग्रही दृष्टि से पशु - पक्षी आदि सभी को हमने गुरु किए हैं, क्योंकि तीन गुण एवं पांच तत्वों से यह तीन लोक रच करके सबमें परमात्मा आप विराजमान हैं । इसलिए तीनों लोक भगवत् स्वरूप ही हैं । अथवा दयाल जी महाराज उपदेश करते हैं कि पशु पक्षी बनराय कहिए, सम्पूर्ण स्थावर जंगम्, जगतगुरु परमात्मा की ही रचना है, अर्थात् सब में आप परमेश्वर ही विराजमान हैं । किन्तुं सतोगुण - रजोगुण - तमोगुण - इन गुणों के प्रभाव से सब में आपस में विषमता है । किसी में सद्गुण विशेष है, किसी में कम, जिनसे सबको दत्तात्रेय की भाँति सुशिक्षा अवश्य प्राप्त होती है इससे वे गुरुतुल्य ही कहे जाते हैं । जिनमें सतोगुण प्रधान है, वे उत्तम हैं, जिनमें रजोगुण या तमोगुण प्रधान हैं, वे मध्यम एवं कनिष्ठ हैं । इसलिए सब में उत्तम - मध्यम भाव है । तातैं सम्पूर्ण में गुरु - शिष्य भाव देख पड़ता है । 
गरीबदास असवार लखि, करी खेचरी नाथ । 
अर्थ फेरि उत्तर दियो, रहे राम संग साथ ॥ 
दृष्टांत :- महाराज गरीबदास जी एक रोज मोमाज गांव बुलाने पर सेवकों के यहाँ घोड़े की सवारी से जा रही थे । रास्ते में नाथों का डेरा पड़ा । उन्होंने मन में सोचा कि गरीबदास जी आ रहे हैं, उनसे मखौल करेंगे, परन्तु उनमें जो पूरे संत थे, वे बोले :- गरीबदास जी से मखौल करना ठीक नहीं । यह नारद के अवतार हैं । किन्तु वे हुड़दंगे कब मानने वाले थे । डेरे के सामने से जब गरीबदास जी आने लगे, तब बोले :- गरीबदास जी, सत्यराम । उन्होने भी किया सत्यराम । "आप अपने गुरु पर ही चढ़े जा रहे हो क्या ?" गरीबदास जी बोले कैसे ? बोले - दादू जी महाराज ने कहा है "सभी गुरु किए'", हमने सबको ही गुरु बनाया है पशु पक्षियों को भी । गरीबदास जी कुछ नहीं बोले, चले गए । जब सेवक लोगों के यहाँ से वापिस लौटे, उसी रास्ते से तब विचार किया कि यदि ये लोग मुझे ही ऐसा कहते हैं तो पीछे पता नहीं क्या करेंगे ? यह विचारते हुए नरेना गद्दी पर आ गए । रात्रि को अपनी योग शक्ति से, उन नाथों के शरीर पर जो भेष - बाना था, वह सब सूते हुओं का उतरवा कर नरेना मंगवा लिया । जब वे लोग सोकर सुबह उठे तो कानों में तो मुद्रा नहीं, बदन पर सेली नहीं, गले में सीगीं नहीं । तब तो सोचा, यह क्या हुआ ? उसमें जो महापुरूष थे, वे बोले :- कल जो गरीबदासजी से मखौल किया था, उसी का यह दण्ड है । जाओ नरेना, उनके चरणों में पड़ो अपराध की क्षमा मांगो । तब वहां से दौड़कर नरेना आए । महाराज के चरणों में दण्डवत् करके क्षमा मांगी । महाराज बोले :- हम तो गुरु पर ही चढ़ते हैं, हम क्या क्षमा करें । नाथ बोले :- हम मूर्ख हैं । आप तो गरीब - निवाज कहिए, गरीबों को तारने वाले हो । दया करो, जिससे हमारा बाना हमारे शरीर पर आ जावे । गरीबदास जी बोले :- फिर कभी तो ऐसी मखौल साधुओं से नहीं करोगे ? तब कहा :- महाराज जी, अब कभी नहीं करेंगे । महाराज ने कहा :- इनका बाना इनके शरीर पर आ जावे । इतना कहते ही उनका बाना उनके शरीर पर आ गया । गरीबदास जी को नमस्कार कर वे अपने डेरे पर चले गए । 
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*जे पहली सतगुरु कह्या, सो नैनहुँ देख्या आइ ।* 
*अरस परस मिलि एक रस, दादू रहे समाइ ॥ १५७ ॥* 
*इति श्री गुरुदेव का अंग सम्पूर्ण ॥ अंग १ ॥ साखी १५७ ॥* 
टीका ~ जिस अगम अगाध नाम की दीक्षा सतगुरु ने प्रथम "गैब मांहि गुरुदेव मिल्या" कहिए, अहमदाबाद कांकरिया तालाब पर हरि ने वृद्ध रूप में दर्शन देकर उपदेश रूप में दी थी, उसका फल अन्त: करण में स्थिर हो करके उसे "नैनहुं" कहिए, दिव्य नेत्रों से साक्षात्कार किया है । महाराज सतगुरु कहते हैं, अरस - परस कहिए अन्तराय रहित होकर के एकरस नाम परमात्मा में हम समा रहे हैं, अविरल भक्ति से संग्न हो रहे हैं अथवा हे जिज्ञासुजनों ! जिस प्रभु के स्मरण करने का उपदेश किया है, उसे आत्मचिन्तन द्वारा ज्ञान रूपी नेत्रों से अनुभव करों और एक रस होकर के भगवद् भक्ति में ही संग्न रहो ॥ १५७ ॥ 
आप ही के घट में प्रकट परमेश्वर हैं, 
ताहि छोड़ भूले नर दूर - दूर जात हैं । 
"सुन्दर" कहत गुरुदेव दिये दिव्य नैन, 
दूर ही के दूरबीन निकट दिखात हैं ॥ 
"यह अंग गुरुदेव का, नित्य पढे जे कोइ । 
ज्ञान भक्ति वैराग्य पद, निश्चै पावै सोइ ॥ "
*इति श्री गुरुदेव का अंग सजीवनी टीका सहित सम्पूर्ण ॥ अंग १ ॥ साखी १५७ ॥*

सोमवार, 11 जून 2012

= श्री गुरुदेव का अँग १ =(१५५)


॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= श्री गुरुदेव का अँग १ =*
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अब जो परमात्मा के पवित्र नाम बतलाए हैं जिनके स्मरण करने से परमात्मा का साक्षात्कार होता है, उन नामों का विवेचन करते हैं । वे कौनसे नाम हैं ? सो अब नीचे बतलातें है । 
इनको गुरु - मंत्र कहते हैं । यह गुरु - मंत्र की टीका गुरुदेव के अंग - अन्त में अविचल मंत्र नाम से महाराज दादूदयाल जी ने जिस गुरु मंत्र का साधक को निर्देश किया है, उस अविचल मन्त्र में एक - एक पाद में, पांच - पांच उस परब्रह्म फल निर्देशक वाक्य हैं । इस तरह इन चौबीसों वाक्यों द्वारा सतगुरु भगवान् ने निर्गुण ब्रह्म की उपासना कैसे करनी चाही - यह जिज्ञासुओं को उपदेश किया है । प्रत्येक वाक्य के विशेषण के आगे मंत्र शब्द का प्रयोग किया है । मंत्र शब्द का अर्थ है कि किसी गूढ रहस्य का जिसके द्वारा ज्ञान हो । इसी अर्थ में वहाँ मंत्र शब्द का प्रयोग समझना चाहिए । 
*गुरु मन्त्र(गायत्री मन्त्र)*
*दादू अविचल मंत्र, अमर मंत्र, अखै मंत्र,* 
*अभै मंत्र, राम मंत्र, निजसार ।* 
*संजीवन मंत्र, सवीरज मंत्र, सुन्दर मंत्र,* 
*शिरोमणि मंत्र, निर्मल मंत्र, निराकार ॥* 
*अलख मंत्र, अकल मंत्र, अगाध मंत्र,* 
*अपार मंत्र, अनन्त मंत्र राया ।*
*नूर मंत्र, तेज मंत्र, ज्योति मंत्र,* 
*प्रकाश मंत्र, परम मंत्र, पाया ॥* 
*उपदेश दीक्षा दादू गुरु राया ॥ १५५ ॥*
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*दादू अवचिल मंत्र*
*अविचल दादूराम जी, अविचल जाके बैन ।* 
*अविचल संत उद्धार के, अविचल पावै चैन ॥ १ ॥* 
टीका :- *दा* शब्द का अर्थ है ज्ञानादिक देने वाले, *दू* शब्द का अर्थ है अज्ञानादिक का छेदन करने वाले, सम्पूर्ण त्रिगुणात्मक सत, रज, समष्टि - व्यष्टि जगत् है । वह सब चल है । गतिमान है । स्थूल, सूक्ष्म, कारण त्रिविध शरीर भी चल है अर्थात् परिवर्तनशील है । इससे जो विपरीत चेतन सत्ता है, वह अविचल है । अविचल के आरम्भ में अकार शब्द का प्रयोग शुद्ध ब्रह्म का बताने वाला है । आत्मा का अविचल विशेषण, परात्पर रूप का जताने वाला है । अज्ञानादि हर्ता, ज्ञानादि के दाता, ऐेसे सतगुरु श्री दादूदयाल जी साधक को मंत्रत्वेन निगूढार्थ बोधक इस विशेषण वाक्य से निर्देश करते हैं कि साधक ! उस सर्व गुरु, सर्वविकार शून्य, निरंतर प्रत्यक्ष, अभिन्न देवरूप, चित्त् शक्ति को अविचल मानकर, नित्य सत्य, स्थिर, एकरस समझ कर उसका ध्यान कर ।
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*अमर मंत्र*
*अमर अनुपम आप है, अमर हरि का नाम ।* 
*अमर हरि के संत हैं, अमर लहैं सुखधाम ॥ २ ॥* 
टीका :- प्राण से पंच भूतात्मक पिंड का वियोग होना मृत्यु कहलाती है । दृश्यमान जितनी भी जड़ - चेतन सृष्टि है, वह काल - कवलित होती दिखाई पड़ती है । जितने भी जड़ पदार्थ हैं वे सब नाशवान् हैं । केवल एक आत्म पदार्थ ही ऐसा है, जिसका कभी विच्छेद नहीं होता । भावात्मक पदार्थों में ही उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि, परिवर्तन, ह्रास और विनाश, ये छ: विकार रहते हैं । आत्मा इन विकारों से रहित है विकारहीन है । वही अमर तत्व का ज्ञापक है एवं साधक संसार के सब पदार्थों को विनाशी समझ और अविनाशी आत्मा को अमर भावना सो अनवरत चिन्तन करे । 
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*अखै मंत्र*
*अखै अखंडित एक रस, सब में रहा समाय ।* 
*आपै आप उद्धरै हरि, सुमिर सुमिर सुख पाय ॥ ३ ॥* 
टीका :- अक्षय धातु व्याष्टि अर्थ में है । अक्षय का अभिप्राय है, निरतिशय व्यापक । यह शब्द उपरति का बोधक है । अक्षय आत्मा का अर्थ है, माया तथा माया के कार्य तथा धर्मों से रहित साधक, इस अक्षय मंत्र से आत्मा को जीव, ईश्वरादि अविद्या माया सापेक्ष चेतन को साक्षी समझ, उसको सर्वव्यापी तथा सब से अक्षय असंग समझकर उसका चिंतन करे । 
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*अभय मंत्र*
*अभय एक रस अजित अति, सत् चित् आनन्द गोय ।* 
*अज अविनासी ब्रह्मजन, ध्याय अभय भय खोय ॥ ४ ॥* 
टीका :- रिपुराज समाज, मृत्यु - जन्मादि जन्य विविध भय हैं । किसी भी रूप का भय न होना, अभय कहलाता है । भय का हेतु है, भिन्नता । अपने से भिन्न की कल्पना, किसी दूसरी वस्तु की सत्ता स्वीकार करने से ही नानात्मक भय का अनुबन्ध बनता है । द्वैत या भिन्नता भौतिक वस्तु में ही हो सकती है । कारण उनको उत्पन्न करने वाले भूतों का संयोग विविध रूप में होता है । हेतु व चिन्त्य के कारण जड़ में ही नानात्व है । आत्मा अनेकत्व भेद से रहित है । आत्मा एक है और आत्मा का अभेद होने से वह सर्वदा अभय है । सतगुरु इस मंत्र द्वारा साधक को निर्देश करते हैं कि वह आत्मा को एक ही समझकर, जन्म मरणादिक सब प्रकार के भय से उस को मुक्त मान कर अभय रूप से ही उसका पालन करें । 
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*राम मंत्र*
*राम रमे रमतीत नित, रंरकार रट सोय ।* 
*गुरु कृपा गम सुरति से, राम रूप तब होय ॥ ५ ॥* 
टीका :- जिसके ध्यान में अनन्त मुनिजन लगे रहते हैं जो आध्यात्मिक मर्यादा का संस्थापक है, वही राम हैं । इसी राम को परम पुरुषार्थ की प्राप्ति के लिए साधक काल - कर्म रहित, निरतिशय, सुखदायी मानकर ध्यान लगाये । 
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*निज सार मंत्र*
*निज चेतन तत् सार है, ता बिन सकल असार ।* 
कार्य कारण रूप है, समझ रु ज्ञान विचार ॥ ६ ॥* 
टीका :- यहाँ "निज" शब्द का प्रयोग अतिशय अर्थ में है । आत्मा पदार्थ है, वही सर्वोपरि सार वस्तु है । भावरूप से संसार के सभी पदार्थ जन्म, स्थिति, वृद्धि आदि षट् विकार गृहीत हैं अर्थात् नाशवान हैं । इसी से संसार को असार कहा जाता है । षट् - विकारहीन आत्मा है । वही "अविनाशी" है । वही सर्वातिशय सार - मय है । इसीलिए साधक आत्मा को शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, स्वयं प्रकाश, सर्वात्मा परमानन्द रूप, सर्वातिशय सार समझ उसी में अपना ध्यान लगावे । 
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*संजीवन मंत्र*
*संजीवन सत्य सार सुख, ता बिन असत्य निसार ।*
*दृढ़ नौका निज नाम गहि, जन भव उतरै पार ॥ ७ ॥* 
टीका :- कालानुबन्धी भौतिक संयोग का आत्मा से सम्बन्ध इसी का नाम जीवन है । आत्मा ही जीवन तथा जीवन का आधार रूप है । भोग्य तथा भोक्ता के रूप में आत्म ही से जीवन की स्थिति है । भोग्य - भोक्ता प्रेरक, जीव, परमात्मा ब्रह्म सब आत्म तत्व में ही हैं । इसलिए हे साधक ! आत्मा को भोक्ता, भोग्य एवं प्रेरक मानकर सजीवन रूप से उसका चिन्तन कर । 
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*सवीरज मंत्र*
*सवीर्य समर्थ हरि, सचराचर में पूर ।* 
*गुरु ज्ञान से गम भई, अज्ञ जन भाषत दूर ॥ ८ ॥* 
टीका :- वीर्य शब्द का लौकिक अर्थ बल या शक्ति होता है । पर भौतिक तत्व अस्थायी हैं और परिवर्तनशील भी हैं, क्योंकि उनके परिवर्तन के साथ उनकी शक्ति में भी अन्तर पड़ता रहता है । आत्मिक तत्व में देशकाल - जन्य कोई परिवर्तन नहीं होता और उसके बल में भी कभी "कमी - बेशी" नहीं होती । इसलिए भौतिक शक्ति से आध्यात्मिक शक्ति अधिक बलशाली है । इस विशेषण से सतगुरु भगवान् साधक को ज्ञात कराते हैं कि वह आत्मा को सवीर्य अशेष शक्ति - सम्पन्न, अविजित मानकर, उसके ध्यान में दत्तचित्त होवे । 
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*सुन्दर मंत्र
*सुन्दर सिरजनहार है, निरामयी निज नूर ।* 
*पारब्रह्म, परमात्मा, रहे सर्व भरपूर ॥ ९ ॥* 
टीका :- सुन्दर शब्द मनोहारी अर्थ में प्रयुक्त होता है । जो वस्तु मन को भावे, अच्छी लगे, वह सुन्दर कही जाती है । भौतिक वस्तुएँ भी अपेक्षाकृत सुन्दर कही जाती हैं । बहुत सी वस्तुएँ वस्तुत: सुन्दर न होते हुए भी मन की आसक्ति के कारण सुन्दर प्रतीत होती हैं और भौतिक जगत् का सौन्दर्य, उसके स्वयं के अस्थिर होने के कारण, अस्थायी होता है । दृश्य संसार की सुन्दर मानी जाने वाली वस्तुएँ, काल पाकर जीर्ण - शीर्ण होने से सौन्दर्य - विहीन हो जाती हैं । अब सतगुरु भगवान् का इस विशेषण द्वारा साधक को संकेत मिलता है कि वह विनाशी सौन्दर्य वाली सांसारिक वस्तुओं में अपने को न उलझावे । नित्य सत्य रहने वाली और जो सब सुन्दरताओं का मूल है, उस चिदात्मा का मनोज्ञ मान उसके चिन्तन में अपने को स्थिर करे । 
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*शिरोमणि मंत्र*
*सत्य शिरोमणि सबन में, व्याप रहा सम भाय ।* 
*साच शील संतोष गहि, सतगुरु ज्ञान लखाय ॥ १० ॥* 
टीका :- शिरोमणि में दो शब्द हैं, शिर और मणि । शिर सम्पूर्ण अंगों में सबसे ऊपर रखा गया है । इसका अभिप्राय है शीर्ष स्थानीय, सर्वोपरि । मणि शब्द रत्न वाचक है । रत्न सब तेजों में प्रकाशमय माने गए हैं । इस विशेषण से अभिप्राय यह है कि साधक अपने अभीष्ट आत्मा को सर्वोपरि, सबका शीर्ष स्थानीय, परम प्रकाशमय मान कर उसके ध्यान में निमग्न हो ।
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*निर्मल मंत्र*
*निर्मल पानी आत्मा, निर्मल गुरु का ज्ञान ।* 
*निर्मल हरि के संत हैं, निर्मल नाम बखान ॥ ११ ॥* 
टीका :- "मल" शब्द पाप और दोष दोनों का वाचक है । जैसे मल शब्द का प्रयोग प्राय: पुरीष एवं कफ स्वेदनादि एवं विकृत वात, पित्त, कफ के लिये भी प्रयुक्त होता है । अविद्या - जन्य कार्य भी मलिन शब्द से कहे जाते हैं । मलिनता से रहित का नाम है निर्मल । रोगादि पापादि तथा वातादि दोषों से मुक्त रहने का नाम निर्मल है । संसार की दृश्यमान एवं न दिखने वाली भौतिक वस्तुएँ भी मलिन हैं । उन्हीं में किसी न किसी तरह की सदोषता रहती है । एक केवल चित्त शक्ति ही ऐसी है, जो सब मलों से रहित है अर्थात् इस मंत्र का अभिप्राय है कि साधक आत्मा को सब रोगादि दोषों से मुक्त, परम पवित्र समझकर ही उसका चिन्तन करे । 
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*निराकार मंत्र*
*निराकार निर्गुणमयी, निरालंब निरधार ।*
*निजानन्द निज बोधमय, सतगुरु ज्ञान विचार ॥ १२ ॥* 
टीका :- निर्मलता या पवित्रता आत्मा में ही है, क्योंकि इस शंका का निवारण इस मंत्र द्वारा किया गया है । साकार नाम उसी वस्तु का हो सकता है, जो देश, काल, परिमाण आदि से बंधित है । किसी न किसी तरह का आकार हो, वही साकार है । आत्मा में किसी तरह के अवयव, अंग उपांग नहीं हैं । आकार न होने से ही आत्मा असंग कहा जाता है । भौतिक द्रव्य हैं, वे सब परमाणु या अणु संयोग से बनते हैं । चेतन द्रव्य परमाणु रहित है । आत्म - जिज्ञासु साधक को चाहिए कि वह आत्मा को परम पुनीत, असंग, निराकार मान कर उसका ध्यान करे । 
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*अलख मंत्र*
*अलख निरंजन एक रस, सतगुरु दीन दयाल ।* 
*समरथ सिरजनहार जप, शरणागत प्रतिपाल ॥ १३ ॥* 
टीका :- स्पृहा या इच्छा लख शब्द का क्षेत्र है । जिसको देखे, समझे, उसको भी "लखना" कहा जाता है । यह भी एक तरह की चाह ही है । अलख से अभिप्राय है कि जिसको समझ न सके, देख न सके, किन्तु परिणामी वस्तु सब समझी व देखी जा सकती हैं । अपरिणामी वस्तु ही वस्तुत: अलख है । इसलिए इस मंत्र से साधक को महाराज का संकेत है कि वह सूक्ष्म कारण स्थूल के अधिष्ठान आत्मा को असंग, इच्छा - रहित, अलख मानकर उसी के ध्यान में लय लगावे ।
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*अकल मंत्र*
*अकल अनुपम अमित गति, अविनाशी अज एक ।* 
*जन तप तत सत उभरे, सतगुरु ज्ञान विवेक ॥ १४ ॥*
टीका :- परम पुण्य सुख, सुखादि भावों एवं भोगों को भोगने वाले का नाम है "कलनधर्मा" । मर्यादा - रहित, वेद - विरूद्ध मार्ग का नाम भी कल है । कल या कल्मष से कलन धर्म वाला पापादि फल भोगने का संकेत है । इनसे रहित का नाम है अकल । साधक आत्मा को कलन रहित, पापादि फल भोगों से रहित, निष्पाप मान कर उसका चिन्तन करे । 
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*अगाध मंत्र*
*अगाध अगोचर एक रस, अतोल अमोल अमाप ।* 
*सिद्ध साधक मुनि थक रहे, वेद थके जप जाप ॥ १५ ॥* 
टीका :- गाध से अभिप्राय यह है कि अन्त या तल । अगाध का मतलब है अतलस्पर्श । भौतिक वस्तुएँ सब सकारण हैं, अर्थात् तलस्पर्श हैं । आत्मा अकारण है, अर्थात् अतलस्पर्शी है । इस मंत्र से साधक यह समझे कि आत्मा निराधार है, वह अवधि रहित है, उसको अगाध मानकर ही चिन्तन किया जाये । 
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*अपार मंत्र*
*अपार पार नहिं जास को, सनकादिक रहे हार ।* 
*पार न पावैं शेष शिव, ब्रह्मा वेद विचार ॥ १६ ॥* 
टीका :- पार अन्त वाली वस्तु का नाम है । अन्त या अवधि देश - जन्य और काल - जन्य है । जो वस्तु देश - काल की परिधि से रहित है, वह अपार है । भौतिक द्रव्य सब देश - काल की अवधि से युक्त हैं । अत: शान्त हैं । आत्मा उनकी परिधि से रहित है अर्थात् अनन्त है । इससे महाराज ने आत्मा को निर्बंधित तथा सर्वदेश या सर्वकाल गत बताया है । इसलिए आत्मा को सर्वदेशीय, सर्वकाल व्यापी मानकर उसका अपार बुद्धि से ध्यान करे । 
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*अनंत मंत्र*
*अनन्त रूप परमात्मा, अनन्त रूप गुरुदेव ।* 
*अनन्त संत हरि को भजैं, लहै जू बिरला भेव ॥ १७ ॥* 
टीका :- जिसका अवश्य अवसान है, जिसमें समाप्ति की इयत्ता है । वह वस्तु अन्त शब्द वाच्य है । अन्त से रहित का नाम ही अनन्त है । इस विशेषण द्वारा ही महाराज साधक का ध्यान आकर्षित करते हैं कि वह आत्मा को निवारण, अपरिच्छिन्न, अनंत मानकर उसका चिन्तन करता रहे ।
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*राया मंत्र*
*राया सतगुरु राम जी, सकल भवन के ईश ।*
*अखिल चराचर में बसै, ब्रह्मादिक के शीश ॥ १८ ॥*
टीका :- लौकिक व्यवहार में राया का अर्थ है, अधिपति, स्वामी, मुखिया और राजा अर्थ का भी द्योतक है । इसका अभिप्राय है कि शक्तिमान् हो । सब कुछ लेने एवं सब कुछ देने की शक्तिवाला हो, वही रायों का राया है । इस विशेषण से चित्तशक्ति में त्रिभुवनपति राया की सत्ता व्यक्त की गई । साधक इस आत्मा को सर्वशक्तिमान्, सर्वग्राही, सर्वदाता मानकर उसका निरंतर चिन्तन करता रहे । 
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*नूर मंत्र*
*नूर रूप परब्रह्म है, नूर रूप गुरुदेव ।* 
*नूर रूप सब सन्त हैं, करैं नूर की सेव ॥ १९ ॥* 
टीका :- नूर शब्द सामान्य प्रयोग स्वरूप में है । वर्णवालीवस्तु ही रूपवान है । वर्ण विहीन वस्तु है, वह अरूप है । आत्मा का रूप सत्ता या स्फूर्ति से निर्देश किया जाता है । इसलिए साधक आत्मा को उत्पादक, प्रेरक, रक्षक, संहारक, सत्तामय जानकर सम्पूर्ण स्फूर्णाओं का मूल समझ नूर स्वरूप आत्मा के चिन्तन में लगे । 
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*तेज मंत्र*
*तेज तत्त तिहुँ लोक में, व्याप रहा इक सार ।* 
*समझे ते भव सिन्धु तैं, हरिजन उतरे पार ॥ २० ॥*
टीका :- तेज का सामान्य अर्थ है तेजस्वीपना अर्थात् दूसरे से दबना नहीं । जिस पर और किसी का दबाव या असर न पड़े, उसका लोक में तेजस्वी कहते हैं । सतगुरु भगवान् साधक को इस मंत्र द्वारा आत्मा की अजेयता का निर्देश करते हैं, क्योंकि भौतिक संसार में एक दूसरे का एक दूसरे से हारना देखा जाता है, परन्तु आत्मतत्व को कोई हराने वाला नहीं है । इसलाए साधक आत्मा को किसी से न दबने वाला और किसी से न जीता जाने वाला समझ कर उसके चिन्तन में अपने को दृढ़ बनाये रखे । 
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*ज्योति मंत्र*
*परम ज्योति जगदीश की, सब में ही रही समाय ।* 
*सकल ज्योति उस ज्योति से, प्रकाशत सम भाय ॥ २१ ॥*
टीका :- ज्यो शब्द का लाक्षणिक प्रयोग सार वस्तु में है, जिसके बिना सब वस्तूएँ तत्व रहित हो जायें, उस तात्विक पदार्थ को ही ज्योति कहते हैं । यहाँ पर ज्योति शब्द को प्रकाश के लिये प्रयुक्त नहीं समझना क्योंकि आगे वाला मंत्र प्रकाश ही है । इसलिए और भी विचारें तो भौतिक पदार्थ भी शक्तिमय या सारमय होते हैं, पर उनकी शक्ति काल पाकर क्षीण हो जाती है । इसलिए वह दूसरा ही आत्मा या चित्त शक्ति है । वही परमात्मा रूप में से समष्टि संसार एवं व्यष्टि व्यक्ति के लिंग शरीर का आधार है । वह आत्मा ही हिरण्यगर्भ के रूप में समष्टि के स्थूल शरीर का जनक है और मायादि प्रपंच रहित जीव, परमात्मा ब्रह्मरूप में, आत्मा ही सबका आश्रय है । उसी को सार रूप समझकर उसी का चिन्तन करो । 
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*प्रकाश मंत्र*
*सब घट ब्रह्म प्रकाश है, ब्रह्म दृष्टि कर देख ।* 
*वेद कहैं पुनि साधु सब, सतगुरु ज्ञान विवेक ॥ २२ ॥*
टीका :- प्रकाश यहाँ उजाले का द्योतक है । दिखाई पड़ने वाले सूर्य, चन्द्रमा, तारे आदि प्रकाश पिंड हैं । वे सब एक ही प्रकाश के भिन्न रूप हैं । इन सब में जिसका प्रकाश है, वही प्रकाशवान् है । दादू जी महाराज कहते हैं कि हृदय - गगन में उसी परम प्रकाशमय आत्मा को ज्योतिर्धन समझ सर्वदा उसी का चिन्तन करना चाहिए । 
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*परम मंत्र*
*परम गुरु परमब्रह्म है, परम हरिजन सोइ ।* 
*परम प्रभु का जाप है, भेद भाव नहीं कोइ ॥ २३ ॥* 
टीका :- परम शब्द का प्रयोग उत्कृष्ट प्रधान एवं प्रणव के लिये किया गया है । इस मंत्र द्वारा सतगुरु भगवान् साधक को ज्ञात करवाते हैं कि नाना पदार्थ जो हम देखते हैं या सुनते हैं, उनमें चेतनत्व ही सर्वोत्कृष्ट तत्व है । इन्द्रादि देवों का देव, ब्रह्मा - विष्णु - महेश आदि का आधार, सब स्वामियों का स्वामी, वही है, इसलिए उस आत्मा का सबसे श्रेष्ठ, सब का मान्य समझ कर उसका चिन्तन करो । 
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*पाया मंत्र
*पाया परम दयाल गुरु, पाया सतगुरु बैन ।* 
*पाया वही जिहिं उर धर्या यह आतम की सैन ॥ २४ ॥* 
टीका :- ऊपर जिन तेईस विशेषणों से आत्म - तत्व की विशेषता सतगुरु भगवान् ने साधक को समझायी है । अपने उस निर्देश को इस मंत्र द्वारा उपसंहार करते हुए दादू जी महाराज कहते हैं कि जिस साधक ने इस तरफ आत्मत्व को दृढ़ श्रद्धा से चिन्तन किया है, उसी ने अपने स्वरूप का प्रत्यक्ष ज्ञान पाया है और जिसने अपना स्वरूप प्राप्त किया, वही मुक्त है एवं वही परमानन्द का उपभोग करता है ।
गुरुदेव का अंग इस अविचल मंत्र के साथ सम्पूर्ण होता है । गुरु से पाए ज्ञान का जो फल होता है या होना है, वह इस मंत्र से व्यक्त किया गया है । यह मंत्र आत्म उपदेश का सारभूत है । इस वास्ते साधक इसका चिन्तन करें, जिससे गुरु उपदेश के फल की प्राप्ति होवे ।
(क्रमशः)