मंगलवार, 24 दिसंबर 2024

= १३२ =

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*मन रे, तेरा कौन गँवारा, जपि जीवन प्राण आधारा ॥टेक॥*
*रे मात पिता कुल जाती, धन जौबन सजन सगाती ।*
*रे गृह दारा सुत भाई, हरि बिन सब झूठा ह्वै जाई ॥१॥*
*रे तूँ अंत अकेला जावै, काहू के संग न आवै ।*
*रे तूँ ना कर मेरी मेरा, हरि राम बिना को तेरा ॥२॥*
*रे तूँ चेत न देखे अंधा, यहु माया मोह सब धंधा ।*
*रे काल मीच सिर जागे, हरि सुमिरण काहे न लागे ॥३॥*
*यहु औसर बहुरि न आवै, फिर मनिषा जन्म न पावै ।*
*अब दादू ढ़ील न कीजे, हरि राम भजन कर लीजे ॥४॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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एक सूफी कहानी है। एक युवा साधक एक महान सूफी गुरु के पास आया। जैसे ही वह उनके कमरे में दाखिल हुआ और गुरु को बड़े सम्मान के साथ नमस्कार किया, गुरु ने कहा, "अच्छा। यह बिल्कुल अच्छा है। तुम क्या चाहते हो?" उसने कहा, "मैं दीक्षा लेना चाहता हूं।" गुरु ने कहा, "मैं तुम्हें दीक्षा दे सकता हूं, लेकिन तुम्हारे पीछे आने वाली भीड़ का क्या ?"
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उसने पीछे मुड़कर देखा; वहां कोई नहीं था। उसने कहा, "कौन सी भीड़ ? मैं अकेला हूं।" गुरु ने कहा, "तुम नहीं हो। बस अपनी आंखें बंद करो और भीड़ को देखो।" युवक ने अपनी आंखें बंद कीं और वह हैरान रह गया। वहां पूरी भीड़ थी जिसे वह पीछे छोड़ आया था: उसकी मां रो रही थी, उसका पिता उसे जाने से मना कर रहा था, उसकी पत्नी आंसुओं में थी, उसके दोस्त उसे रोक रहे थे - हर चेहरा, पूरी भीड़।
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और गुरु ने कहा, "अब अपनी आंखें खोलो। क्या तुम कह सकते हो कि लोग तुम्हारा अनुसरण नहीं कर रहे हैं ?" उसने कहा, "मुझे खेद है। तुम सही हो। पूरी भीड़ मैं अपने भीतर लिए हुए हूं और एक बार जब तुम भीड़ से मुक्त हो जाते हो, तो चीजें बहुत सरल हो जाती हैं। जिस दिन तुम भीड़ से मुक्त हो जाओगे, मैं तुम्हें दीक्षा दूंगा, क्योंकि मैं केवल तुम्हें ही दीक्षा दे सकता हूं, मैं इस भीड़ को दीक्षा नहीं दे सकता।"
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कहानी सार्थक है। जब तुम अकेले होते हो तब भी तुम अकेले नहीं होते। और एक ध्यानी व्यक्ति, भले ही हजारों लोगों की भीड़ में हो, अकेला होता है।
ओशो- मृत्यु से अमृतत्व की ओर🌹🌹

= १३१ =

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*मन इन्द्री अंधा किया, घट में लहर उठाइ ।*
*साँई सतगुरु छाड़ कर, देख दिवाना जाइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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तुम सोचते हो कि स्त्री सुंदर है इसलिए तुम्हें प्रेम हो जाता है, तो तुम गलती में हो। तो तुम्हें जीवन का कुछ भी पता नहीं है। प्रेम के कारण स्त्री सुंदर दिखाई पड़ती है, प्रेम के कारण सुंदर नहीं होती। जब प्रेम खो जाएगा, तो यही सुंदर स्त्री साधारण हो जाएगी।
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मैंने सुना है, एक आदमी अपने घर लौटा। और उसने पाया कि उसका निकटतम मित्र उसकी पत्नी का चुंबन ले रहा है। मित्र घबड़ा गया। उस आदमी ने कहा, घबड़ाओ मत। मैं सिर्फ एक ही प्रश्न पूछना चाहता हूं। मुझे चुंबन लेना पड़ता है क्योंकि यह मेरी पत्नी है। लेकिन तुम क्यों ले रहे हो ? तुम पर कौन-सा कर्तव्य आ पड़ा है ? आदमी की वासना जैसे ही चुकती है, सौंदर्य खो जाता है।
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दो शराबी एक शराबघर में बैठकर बात कर रहे थे। आधी रात हो गई और एक शराबी दूसरे से कहता है, ‘इतनी रात तक बाहर रुकते हो, पत्नी नाराज नहीं होती?’ तो उस दूसरे आदमी ने कहा, ‘पत्नी ? मैं विवाहित नहीं हूं।’ तो उस पहले आदमी ने कहा, ‘तुम और चकित करते हो। अगर विवाहित ही नहीं तो, इतनी रात तक यहां रुकने की जरूरत क्या है ?’
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लोग पत्नियों से बचने के लिए ही तो आधी-आधी रात तक शराबघरों में बैठे हैं ! उस शराबी ने कहा, तुम मुझे हैरान करते हो। अगर विवाहित ही नहीं हो तो इतनी रात तक यहां किसलिए रुके हो ?
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जिससे हम परिचित हो जाते हैं, उसी से आकर्षण खो जाता है। इसलिए वासना को जो भी मिल जाता है, वही व्यर्थ हो जाता है। जो दूर है, वह सुंदर लगता है। जो पास है, वह कुरूप हो जाता है। जो हाथ में है, वह असार मालूम पड़ता है। जो हाथ के बाहर है, बहुत पार है, जिसको हम पा भी नहीं सकते जो हमारी पहुंच से बहुत दूर है उसका सौंदर्य सदा बना रहता है।
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आंखें सिर्फ अगर देखें, और जो देखें उसमें कुछ डालें ना, तो आंखों ने देखा। लेकिन तुम कैसे देखोगे ? तुम्हारी आंखें डालने का काम ही कर रही हैं। तुम्हारी आंखें धागे भी फेंक रही हैं वासनाओं के। तो तुम जो भी देखते हो, उस पर तुम्हारी वासना भी तुम फेंक रहे हो। आंख इकहरा मार्ग नहीं है, डबल-वे ट्रेफिक है। उसमें तुम्हारी आंख से भी कुछ जा रहा है। आंख में भी कुछ आ रहा है। ये दोनों मिश्रित हो रहे हैं। इन मिश्रित आंखों से जो देखा जाएगा, वह सत्य नहीं हो सकता।
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इसलिए ज्ञानियों ने कहा है, जब तुम्हारी आंखें शून्य हों और जब तुम्हारी आंखें कुछ भी जोड़ेंगी नहीं, तब सत्य तुम्हारे लिए प्रगट हो जाएगा। शून्य आंखें लेकर जाना, दर्पण की तरह आंखें लेकर जाना; तभी तुम जान सकोगे, जो है उसे।
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यह झेन फकीर ठीक कह रहा है। यह अपने शिष्यों को कह रहा है, कि ‘तुम्हारे पास कान हैं, तुम्हारे पास आंखें हैं, लेकिन मैं तुमसे पूछता हूं, तुमने कभी देखा ? तुमने कभी सुना ? तुम्हारे पास नाक है, तुमने कभी सुगंध ली ?’
तुम्हारे पास इंद्रियां तो हैं, लेकिन जब तक इंद्रियों के पीछे वासना छिपी है, तब तक तुम्हारी इंद्रियां विकृत हैं...।
❣ _*ओशो*_ ❣
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सोमवार, 23 दिसंबर 2024

*जालन्धरनाथजी*

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*साचे साहिब को मिले, साचे मारग जाइ ।*
*साचे सौं साचा भया, तब साचे लिये बुलाइ ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*जालन्धरनाथजी*
*छप्पय-*
*योग जलंध्री को सिरै, गुफा कूप करि मानियो ।*
*दीक्षा लेने काज, मात गोपीचंद मेल्यो ।*
*गुरु कही विपर्य्यय साखि, समझ बिन कूप हि ठेल्यो ।*
*तहँ ही लगी समाधि, अलख अभि अन्तर ध्यायो ।*
*सप्त धातु पूतला, भस्म कर बाहर आयो ॥*
*राघव गोपीचंद को, अमर कियो शिष रानियो ।*
*योग जलंध्री को सिरै, गुफा कूप करि मानियो ॥३११॥*
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जालन्धरनाथजी के भी गुरु श्रीशंकर भगवान् ही हैं । शिव पार्वती ने एक समय एक शिशु को समुद्र में बहते हुये देखा और उसे उठा लिया । शिवजी ने कृपा करके उसे योग का उपदेश किया । वहीं बालक जालन्धरनाथ के नाम से विख्यात हुआ । जालन्धरनाथजी बड़े ही सिद्ध महात्मा हुये हैं ॥३११॥
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छप्पयार्थ- जालन्धरजी का योग अत्यन्त श्रेष्ठ था । आपने कूप को ही गुफा करके मान लिया था अर्थात् कूप में ही समाधि लगा ली थी । एक समय जालन्धरनाथजी बंगाल के गौड़ प्रदेश के राजा गोपीचन्दजी की राजधानी में थे । उन्हीं दिनों में गोपीचन्द की माता मैणावती, जो गोरक्षनाथजी की शिष्या थी, उसे गोपीचन्द की मृत्यु का दिन ज्ञात था । और वह अति समीप आ गया था ।
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इससे माता गोपीचन्द को बारम्बार योगी होने की प्रेरणा करने लगी । कारण उसे ज्ञात था कि संत होने से दूसरा जन्म हो जाता है । और यह गोपीचन्द भी योगी हो जायगा तो मृत्यु से बच जायगा । अंत में जब गोपीचन्द ने स्वीकार कर लिया तब वहाँ आये हुये जालन्धर नाथजी को मैणावती जानती थी । अतः गोपीचन्द को जालन्धरनाथजी के पास ले जाकर गोपीचन्द को शिष्य बनाने के लिये जालन्धरजी से प्रार्थना की ।
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जालन्धरजी ने स्वीकार करके गोपीचन्द को शिष्य बना लिया । गोपीचन्द की मृत्यु का समय टल गया । इससे मैणावती अति प्रसन्नता के साथ गोपीचन्द को जालन्धरजी के पास छोड़ कर राजमहल को चली गई । पीछे से जालन्धरजी ने जिस पद्म से गोपीचन्द को उपदेश दिया वह विपर्य्यय था-
"माता मारे धी धरे, गऊ सपुच्छी खाय ।
ब्राह्मण मारे मद्य पिये, सोउ मुक्ति पद पाय"॥
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इस पद्य के सुनाते ही जालन्धरजी की समाधि लग गई । इसका अर्थ आप गोपीचन्द को नहीं बता पाये । गोपीचन्द ऊपर शब्दों से भासने वाले अर्थ को विपरीत समझकर भ्रम में पड़ गया और अपने एक सुपरिचित विद्वान् के पास इसका अर्थ समझने गया । किन्तु वह भी शब्दार्थ को ही जानने वाला था । संत के गूढ विचारों को नहीं समझ सका ।
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इससे बोला- अर्थ तो प्रत्यक्ष ही होता है- माता को मारे, लड़की को पत्नी करके रखे, गाय को पुच्छ के सहित खाय, ब्राह्मणों को मारे, वह मुक्ति पद को प्राप्त होता है । राजन् ! ऐसा करने से मुक्ति तो नहीं नरक अवश्य प्राप्त होगा । नरक जाना चाहते हो तो ऐसा करो । ऐसा उपदेश करने वाला संत नहीं हो सकता । वह तो कोई अत्यन्त ही घृणा का पात्र है ।
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उससे तो देश को अति हानि की संभावना है । ऐसे मनुष्य को तो मार डालने से ही देश का हित है । नहीं मारने से तो यह सबको पथ भ्रष्ट करेगा । यह सुनकर गोपीचन्द को भी जालन्धरजी पर क्रोध आ गया । उसने आज्ञा दे दी कि "अश्वशाला के पीछे कूप के पास जो साधु है उसे अति शीघ्र कृप में डाल कर वहाँ जो लीद की राशि पड़ी है, उससे कूप को भर दो । इस कार्य में देर न हो । रात्रि में ही यह कार्य पूरा हो जाना चाहिये ।"
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राजा की आज्ञानुसार यह अति शीघ्र हो गया । कूप में डालने पर भी उनकी समाधि नहीं खुली, लगी ही रही । न वे जल में पड़े और न लीद ने उनका स्पर्श किया । भगवत् कृपा से वे बीच के आकाश में स्थिर रहे । जालन्धरजी ने अलक्ष(मन वाणी के अविषय) ब्रह्म की उपासना समाधि द्वारा कूप में ही की थी ।
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उक्त सब काम कराकर गोपीचन्द राजमहल में माता मैणावती के पास गया । तब माता ने कहा-गुरुजी की सेवा को छोड़ कर यहाँ क्यों आया है ? गोपीचन्द ने कहा- "वे काहे के गुरु हैं ? गुरुओं के उपदेश से तो प्राणी का उद्धार होता है । उनने तो मुझे ऐसा उपदेश दिया है कि मैं उसके अनुसार करूँ तो सीधा नरक में जाऊँगा ।"
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माता बोली- "ऐसा क्यों कहते हो ? वे तो गुरुओं के भी गुरु हैं । उनके उपदेश से तो प्राणी परम पद को प्राप्त होते हैं । तुम्हें क्या उपदेश दिया, मुझे सुनाओ ।" गोपीचंद ने सुनाया-
"माता मारे धी धरे, गऊ सपुच्छी खाय ।
ब्राह्मण मारे मद्य पिये, सोउ मुक्ति पद पाय"॥
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यह सुनकर मैणावती बोली- "पुत्र ? यह तो अति उत्तम उपदेश है, ऐसा उपदेश उस महापुरुष्त के बिना दे ही कौन सकता है ?" गोपीचन्द- "इसमें क्या उत्तमता है ? मैं समझने के लिये अमुक विद्वान् के पास भी हो गया था, उसने भी जो शब्दों से प्रतीत हो रहा है यही बताया है ।" “पुत्र वह तो शब्दों का ही पंडित है, पढ़े हुए विषयों को ही समझता है । संतों के गूढ विचार को वह नहीं समझ सकता, उनको तो सत्संगी ही समझ सकता है ।”
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फिर गोपीचन्द ने कहा- "माताजी आपने तो गोरक्षनाथजी जैसे संतों का सत्संग किया है । इसका अर्थ कृपा करके आप ही बताइये, जिससे मेरा भ्रम दूर होकर यथार्थता का पता लगे ।" “पुत्र पद्य में माता शब्द का अर्थ ममता है, जो ममता को नष्ट करता है और धी का अर्थ बुद्धि (ज्ञान) है, संतों के ज्ञान को हृदय में धारण करता है ।
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गो नाम विषयों में गमन करने वाली इन्द्रियों का है । उनकी विषयाकार वृत्ति ही उनका पुच्छ है । विषयाकार वृत्ति के सहित उनको जीतकर ब्रह्माकार रखना ही गऊ खाने का अर्थ है । ब्राह्मण का अर्थ रजोगुण है । जो रजोगुण को नष्ट करके सतोगुण बढ़ाते हुए भगवद्भक्ति रूप मद्य पान करता है अर्थात् भक्ति रस से मतवाला होता है । तब आत्म ज्ञान होकर मुक्त हो जाता है ।
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ऐसा उपदेश तेरे उन गुरु देव के बिना और कौन कर सकता है ? अन्य सब तो स्वार्थरत होने से संसार दशा का ही उपदेश करते हैं । उनके उपदेश से ही तू आज मृत्यु से बचा है । यदि वे तेरे को शिष्य नहीं बनाते तो यह तेरा सुन्दर शरीर आज भस्म होने वाभ्या था । यह मुझे पहले से ही ज्ञात था । तभी तो मैंने आग्रहपूर्वक तुझ को उनका शिष्य बनाया था ।


गोपीचन्द अपनी माता के द्वारा गुरुजी का उपदेश समझकर अत्यन्त लज्जित होकर तथा नीचा मुख करके बोला- "माताजी ! यदि ऐसा है तब तो मुझसे बड़ा अनर्थ हुआ है । मैने तो गुरुजी को कूप में डलवा कर ऊपर लीद भरा दी है । अब मैं शीघ्र जाकर उनको कूप से निकालता हूँ ।"
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मैणावती ने कहा- "यदि तुमने ऐसा किया है तो यह अति अनुचित किया है । किन्तु उन महा योगेश्वर का कूप में कुछ नहीं बिगड़ेगा । न वे पानी में डूबेंगे और न उनको लीद ही स्पर्श करेगी, ऐसा मेरा विश्वास है । तुम्हारे निकालने से तो देश के सहित तुम्हारे नाश का भय है । अब तो जब गुरु गोरक्षनाथजी यहाँ पधारेंगे तब ही उनके परामर्श से तुम्हारे गुरुजी को कूप के बाहर निकाला जायगा ।
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अब तुम इस राजमहल में मत रहो, अपने को राजा मत समझो, साधु भेष बना कर भगवद्भजन करो । किले में रहो, छप्पन भोग जीमो और अति उत्तम शय्या पर शयन करो । इस प्रकार रहते हुये जब तक यहाँ गोरक्षनाथजी नहीं आवें तब तक गौड़ के आस-पास ही विचरो ।"
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गोपीचन्द बोला- "माताजी! आप साधु भेष बना कर रहने को कहती हो और उसके विरुद्ध किले में रहने की भी आज्ञा देती हो, यह कैसे हो सकेगा ? राजमहल बिना छप्पन भोग और अति उत्तम शय्या कहाँ मिलेगी ?" माता बोली- "किले में रहने का मेरा आशय है, संतों के बीच में रहो ।
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जैसे राजा की रक्षा किला करता है, वैसे ही साधक की रक्षा संत करते हैं । छप्पन भोग से मेरा आशय है, जब अधिक भूख लगे तब खाओ तो सूखे टुकड़े भी छप्पन भोग के समान प्रिय लगेंगे । अति उत्तम शय्या से मेरा तात्पर्य है कि खूब निद्रा सताने लगे तब सोया करो । तब तुम्हें कंकरों वालों भूमि पर अति उत्तम शय्या के समान ही निद्रा आयेगी ।" माता के उपदेश के अनुसार गोपीचन्द रहने लगे ।
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उन्हीं दिनों गोरक्षनाथजी विदर्भ देश में विचरते हुए विदर्भ देश की राजधानी में जा पहुँचे । नगर के बाहर एक बगीची में ठहर गये । आप के साथ और भी दो-चार साधु थे । एक को कहा- "नगर से भिक्षा ले आओ ।" वह गया तब नगर के द्वार पर द्वारपालों ने रोकते हुये कहा- "महाराज ! राजा की आज्ञा है, नगर से भिक्षा लाना चाहो तो, वह द्वार के तीसरे खंड पर लटक रहा है उस नाद को नीचे खड़े हुए ही बजा दो फिर नगर में जाओ और नहीं बजा सको तो कन्हीपा के आश्रम में जाकर भोजन करो ।"
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द्वारपालों की बात सुनकर संत लौट आये । गोरक्षनाथजी ने पूछा "बिना भिक्षा ही कैसे लौट आये ।" संत ने द्वारपालों की उक्त बात सुना दी । तब गोरक्षनाथजी समझ गये कि यहाँ का राजा कन्हीपा का शिष्य है और यह सब प्रपंच कन्हीपा का ही है । तब स्वयं गोरक्षनाथजी भिक्षा को गये । द्वारपालों ने राजा की उक्त आज्ञा सुना दी ।
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तब एक मृतक कुतिया वहाँ पड़ी थी । गोरक्षनाथजी ने उसमें प्राण का संचार करके उसे नाद के पास आकाश में भेजकर उसके द्वारा अत्यन्त जोर से नाद बजवाया वह सब नगर और कन्हीपा को भी सुनाई दिया । फिर गोरक्षनाथजी नगर में जाकर भिक्षा लाये और साधुओं के साथ भोजन करके विश्राम किया । नाद की यह खबर सब नगर में फैल गई थी, कि एक योगी ने मरी हुई कुतिया से नाद बजवाया ।
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कन्हीपा ने निश्चय किया कि ऐसा तो गोरक्षनाथ ही हो सकते है । कहाँ ठहरे हैं यह पता लगाकर अपने एक शिष्य को उनके पास भेजकर उन्हें अपने पास बुलाया । गोरक्षनाथ आये । आते ही कन्हीपा ने कहा- "गुरु घरबारी चेला अवधूत, अच्छे आये रन्डी के पूत ।" अर्थात् आपके गुरु मत्स्येन्द्रनाथजी तो आसाम के कामरूप प्रदेश में गृहस्थी बने बैठे हैं और आप लोगों को सिद्धियाँ दिखाते फिरते हैं । ऐसे सिद्ध हो तो अपने गुरुजी को स्त्रियों के जाल से तो निकालो ।
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गोरक्षनाथजी ने कहा- "मेरे गुरुजी को तो मैं निकाल लाऊँगा । किन्तु आपके गुरुजी भी तो बंगाल के गौड़ प्रदेश के कूप में लीद के नीचे दबे हुए हैं तुम भी तो उनको निकालो ।" कन्हीपा ने कहा- "ऐसा है तो मैं तो अभी अपने हजारों शिष्यों के साथ बंगाल को जाता हूँ, अति शीघ्र निकाल लूंगा ।" गोरक्षनाथजी ने कहा- "आपके पहले मैं मेरे गुरुजी को निकाल कर ले आऊँगा ।
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फिर वहाँ से गोरक्षनाथजी गौड़ आये । मैणावती से मिले । उसे रक्षा का विश्वास दिलाकर जिस कूप में जालन्धर थे उस पर गये और लीद को कहा- कन्हीपा आकर खोदने लगें तब मैं आऊँ तब तक दिन दूनी और रात चौंगनी होते जाना । फिर वहाँ से वे कामरूप में गये और नाना युक्तियों और योग शक्तियों से मत्स्येन्द्रनाथजी के पास पहुँच गये । इधर कन्हीपा गौड़ में पहुँच गये ।
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मैणावती ने उनका आदर सत्कार किया और उनकी सब व्यवस्था करते हुये अपने अबोध पुत्र गोपीचन्द की भूल के लिये क्षमा माँगते हुये रक्षा की प्रार्थना की । कन्हीपा ने रक्षा का अश्वासन दिया और लीद खोदना आरम्भ कर दिया, किन्तु खोदते खोदते सब हार गये वह बढ़ती थी, कम तो नहीं होती थी ।
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उधर गोरक्षनाथजी अपनी योगशक्तियों से गुरुजी को स्त्रीयों के जाल से निकाल कर गौड़ ले आये । वह कथा मायामत्स्येन्द्र नाम से प्रसिद्ध है । आगे आकर देखा तो कन्हीपा के हजारों शिष्य लीद निकालने में लगे हैं । किन्तु वह तो दिन दूनी और रात चौगुनी हो जाती थी । सब हैरान थे । गोरक्षनाथ कन्हीपा के पास आकर बोले- "मेरे गुरुजी तो पधार गये हैं । आपने अपने गुरुजी को निकाल लिया ।"
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कन्हीपा बोले- "गोरक्षजी! हम तो लीद निकालते निकालते हैरान हो गये हैं । वह कम होती ही नहीं, अधिक ही बढ़ती है ।" गोरक्षनाथजी ने कहा- "अब आप चिन्ता मत करो, थोड़ी देर में ही निकल जायगी ।" गोरक्षनाथजी ने कूप पर जाकर कहा-"टीडी होकर सब उड़ जा ।" बस थोड़ी ही देर में टीड़ी होकर वह उड़ गई । फिर सबने मध्य आकाश में समाधिस्थ जालन्धरजी का दर्शन किया ।
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मैणावती गोपीचन्द आदि ने उपस्थित सभी नाथ संतों को प्रार्थना की, किसी भी प्रकार आप लोग हमारी रक्षा करें, हम सब आप लोगों की शरण में हैं । सभी नाथ संतों ने उनको रक्षा का आश्वासन दिया । फिर उन नाथ योगियों ने विचार किया कि किस प्रकार गोपीचन्द आदि को शाप से बचाया जाय ।
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पश्चात् गोरक्षनाथजी आदि सिद्ध योगियों ने ध्यान द्वारा भविष्य में होने वाली घटना को जान लिया और सप्तधातुओं के गोपीचन्द के आकार के सात पुतले बनवाये और उनके पैरों में ऐसी मशीन लगाई गई जिससे वे मनुष्य के समान चल सकें । उनके तैयार हो जाने पर लन्धरनाथजी की समाधि खुलने का यत्न किया । समाधि खुलने पर कन्हीपा एक गोपीचन्द के पुतले को साथ लेकर कूप के ऊपर से ही गुरुजी की परिक्रमा करने लगे ।
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दूसरे की छाया कूप में देखकर कर जालन्धरनाथजी ने पूछा- "कन्हीपा तुम्हारे साथ यह कौन है?" कन्हीपा ने कहा- "गोपीचन्द ।" यह सुनते ही जालन्धरजी बोले- "भस्म ।" बस वह सप्तधातु निर्मित गोपीचन्द का पुतला उसी क्षण भस्म हो गया । उक्त प्रकार ही सातों पुतले भस्म हो जाने पर, गोरक्षनाथजी ने गोपीचन्द को कहा- "अब आठवीं बार तुम कन्हीपा के साथ परिक्रमा करो, तुम्हें जालन्धर अमर होने का शुभाशीर्वाद दे देंगे निर्भयता से जाओ ।"
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अष्टम बार भी पूर्ववत् पूछा- "दूसरा कौन है?" कन्हीपा ने कहा- "गोपीचंद" । यह सुनते ही जालन्धरजी ने कहा- "गोपीचन्द अमर" बस फिर जालन्धरजी को कूप से बाहर निकाल कर सब योगियों ने उनको प्रणाम किया । गोपीचन्द आदि ने भी चरणों में पड़कर भूल के लिये क्षमा याचना की ।
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फिर जालन्धरजी ने अपने मुख्य शिष्य कन्हीपा को पूछा- "मेरे सात बार बोलने पर भी गोपीचन्द भस्म नहीं हुआ । बड़ा आश्चर्य है । क्या बात थी । बताओ ?" कन्हीपा ने कहा- "गुरुजी गोपीचन्द तो सातों ही बार भस्म हो गया था । ये देखिये सात भस्म की राशि पड़ी हुई हैं ।" जालन्धरजी ने कहा- "गोपीचन्द एक था और वह जीवित है । तुम क्या कह रहे हो ?"
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कन्हीपा ने कहा- "गोपीचन्द की रक्षा के लिये मैने सप्तधातु के सात पुतले बनाये थे, वे सब भस्म हो गये हैं । आठवीं बार गोपीचन्द साथ था । आपने गोपीचन्द को अमर होने का वर दिया है । यह सुनकर जालन्धरजी ने कहा- "सात वचन लोपे हैं मेरे, संतत सर्प खिलावें तेरे ।" तूने मेरे सात वचन व्यर्थ किये हैं, इसलिये तेरे शिष्य सदा सर्पों को खिलाया करेंगे ।
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कालबेले(सपेले) कन्हीपाजी के शिष्य हैं, गुरुजी के शाप से अब तक सर्पों के द्वारा ही अपनी जीविका चला रहे हैं । उक्त प्रकार जालन्धरजी ने गोपीचन्द को तो अमर किया और अपने शिष्यों को रानिया(शाप दिया) था । जालन्धरनाथजी शिव के शिष्य और महान् सिद्ध पुरुष हुए हैं ॥
(क्रमशः)

*मास्टर, नरेन्द्र आदि के संग में*

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*ना वह मिलै, न हम सुखी, कहो क्यों जीवन होइ ।*
*जिन मुझको घायल किया, मेरी दारु सोइ ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(६)मास्टर, नरेन्द्र आदि के संग में*
मास्टर श्रीरामकृष्ण के पास बैठे हुए हैं । हीरानन्द को गये अभी कुछ ही समय हुआ होगा ।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - बहुत अच्छा है, न ?
मास्टर - जी हाँ, स्वभाव बड़ा मधुर है ।
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श्रीरामकृष्ण - उसने बतलाया २२ सौ मील - इतनी दूर से देखने आया है !
मास्टर - जी हाँ, बिना अधिक प्रेम के ऐसी बात नहीं होती ।
श्रीरामकृष्ण - मेरी बड़ी इच्छा है कि मुझे भी उस देश में कोई ले जाय ।
मास्टर - जाते हुए बड़ा कष्ट होगा, चार-पाँच दिन तक रेल पर बैठे रहना होगा ।
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श्रीरामकृष्ण - तीन पास कर चुका है । (युनिवर्सिटी की तीन उपाधियाँ हैं ।)
मास्टर - जी हाँ ।
श्रीरामकृष्ण कुछ शान्त हैं, विश्राम करेंगे ।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - खिड़की की झंझरियों को खोल दो और चटाई बिछा दो ।
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मास्टर पंखा झल रहे हैं । श्रीरामकृष्ण को नींद आ रही है ।
श्रीरामकृष्ण - (जरा सोकर, मास्टर से) - क्या मेरी आँख लगी थी ?
मास्टर - जी हाँ, कुछ लगी थी ।
नरेन्द्र, शरद, और मास्टर नीचे हॉल (Hall) के पूर्व ओर बातचीत कर रहे हैं ।
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नरेन्द्र - कितने आश्चर्य की बात है ! इतने साल तक पढ़ने पर भी विद्या नहीं होती ! फिर किस तरह लोग कहते हैं कि 'मैंने दोन-तीन दिन साधना की; अब क्या, अब ईश्वर मिलेंगे !' ईश्वर-प्राप्ति क्या इतनी सीधी है ? (शरद से) तुझे शान्ति मिली है, मास्टर महाशय को भी शान्ति मिली है, परन्तु मुझे अभी तक शान्ति नहीं मिली ।
(क्रमशः)

*श्री रज्जबवाणी, साक्षी भूत का अंग १३*

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*देवै लेवै सब करै, जिन सिरजे सब कोइ ।*
*दादू बन्दा महल में, शोभा करैं सब कोइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साक्षीभूत का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साक्षी भूत का अंग १३
लोक लिये रु लिपे नहिं लोकनि,
प्राण को प्राण रु प्राणन न्यारो ।
ज्यों जल जीवन मीन जलच्चर,
नीर न सीर१ रु सैन२ सहारो३ ॥
मारुत मै४ वपु बैन रु बादर,
वायु विरचि५ रही रु अधारो ।
सूर सु दूरि रु नैनन नीरो६ हो,
रज्जब येहो७ विवेक विचारो ॥१॥
साक्षी स्वरूप संबन्धी विचार प्रकट कर रहे हैं -
जैसे मच्छी आदि जलचरों का जीव जल ही है किंतु जलचरों से कोई साझा१ नहीं है, संकेत२ के समान जलचरों३ का आश्रय है ।
शरीर, वचन और बादल ये वायु-मय४ ही हैं किंतु वायु इनसे अलग५ भी हो रहा है और इनका आधार भी है ।
सूर्य दूर भी है और नेत्रों के समीप६ भी है । ऐसा७ ही विवेक विचार साक्षी स्वरूप ब्रह्म का है ।
वह संपूर्ण लोकों को धारण करता है किंतु लोकों से लिपायमान नहीं होता । प्राणों का प्राण है फिर भी प्राणों से अलग ही है ।
(क्रमशः)

*परिचय, आत्मसाक्षात्कार ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*मन मतवाला मधु पीवै, पीवै बारम्बारो रे ।*
*हरि रस रातो राम के, सदा रहै इकतारो रे ॥*
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*परिचय, आत्मसाक्षात्कार ॥*
अवधू पीवै रे दरवारि दरीबै, मन मेरा मतिवाला ।
राम रसाइन तुक इक चाख्या, नख सिख निकसी झाला ॥टेक॥
‘बोरजड़ी’ बाढ़ी बसि कीया, कस्स कसौटी डाल्या ।
मीठा सबद गुरु मेरे का, गुड़ गोली मैं गाल्या ॥
अरध उरध बिचि भाठी चाढ़ी, ब्रह्म अगनि जागाणी ।
बलै बिकार सुषमना पोतै, प्रेम प्रीति का पाणी ॥
जतन जड़ी जब धार धरवरी, तहँ सुरति कचोली लाई ।
उनि भरि दीया मैं भरि पीया, सुधि बुधि रही न काई ॥
कोड़ि कोड़ि का गड़वा भरिया, ‘छिलती’ छाक छिकाऊ ।
घर के माचि बाहर के माचे, गिरि गिरि पड़ैं बटाऊ ॥
जब मन जाइ दरीबै बैठा, हरि रस की मतिवाली ।
बषनां हाथि बारुणी सोहै आरति करै कलाली ॥२७॥
पाठान्तर : बोरजड़ी = बोरझड़ी, छिलती = * (मंगलदासजी की संपादित पुस्तक में), अवधू = जो प्रकृति के समस्त विकारों का अवधूनन = त्याग कर चुका हो । योगियों को सम्बोधित करने के लिये प्रयुक्त शब्द । दरिबै = आंगन, खुला स्थान । टुक = थोड़ा सा । झाला = दीप्ती । बोरजड़ी = बेर की कंटीली झाड़ी, विषय भोगों का बीहड़ जंगल । बाढी = बढ़ गई है; बाढ़ना = काटता । कस्स डाल्या कसौटी = कसौटी पर कस डाला । गुड़ गोली में गाल्या = गुड़ रूपी बुद्धि में घुला-मिला दिया । अरध-उरध = मूलाधारचक्र-सहस्त्रारचक्र : भाठी = भठ्ठी । चाढ़ी = चेताई । जागाणी = जागृत की । बलै बिकार = विषय विकार जल गये । पोतै = सुषुम्ना नाड़ी में पहुँचता है । सुषुम्ना = सरस्वती का प्रतीक मानी गई है, गंगा ईड़ा तथा पिंगला = यमुना का प्रतीक मानी गई है । धरवरी = चूने लगी । कचोली = कटोरी । कोड़ि-कोड़ि = करोड़ों-करोड़ों । गडवा = लोटा । यहाँ शरीर के प्रत्येक रोम रोम को भरा, से तात्पर्य । छिलती = स्त्रवित होती हुई । छाक = भोजन । छिकाऊ = तृप्ति । माचि, माचे = तृप्त हुए । बटाऊ = राहगीर, असम्बद्ध । कलाली = बुद्धि ।
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हे अवधू ! मेरा मतवाला मन राम-रसायन को दरबारि – दरीबै = परमात्मा द्वारा निर्मित इस संसार में खुलेआम पीता है ।(संतों ने अपनी वाणियों में सूरातण = शूरवीरत्व का अंग लिखा है जिसमें प्रायः साधक को शूरवीर मानकर उसके शूरवीरत्व का वर्णन होता है । शूरवीर अपने शत्रुओं से खुले में, चौड़े में लड़ाई करता है । साधक कभी भी लुकछिपकर साधना नहीं कर पाता । उसे संसार को छोड़कर; संसार में रहते हुए ही साधना करनी पड़ती है । यही दरीबै में पीना है ।) जब मैंने इस रामरसायन का जरा सा ही अंश पिया तब पैर से लेकर शिर तक पूरे शरीर में एक विशिष्ट दीप्ती उत्पन्न हो गई ।
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परमात्मा में सर्वतोभावेन प्रीति हो गई । मन में विषयों के प्रति आसक्ति बढ़ी हुई थी किन्तु इस रामरसायन ने उस मन को भी उनसे हटाकर अपने में आसक्त कर लिया । “मन बस करण उपाय नाम बिन दूजा नाहीं ।” और उसको कसौटी पर कस डाला ।
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उसको उन आदर्शों पर चलने के लिये बाध्य किया जिनपर उसको चलना साधणामार्ग में परमावश्यक था । मैंने मेरे गुरुमहाराज के मीठे = हितकारी उपदेशों को गुड़ रूपी बुद्धि में गला दिया, एकमेक कर दिया । नीचे से लेकर ऊपर तक एक भट्टी का निर्माण किया जिसमें ब्रह्म = विरह रूपी अग्नि विषय-विकार रूपी ईंधन को जलाकर प्रज्ज्वलित की और सुषुम्ना नाड़ी में भगवद्-प्रेम-प्रीति = भगवद्भक्ति का जल पहुँचाया ।
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साधना रूपी जड़ी की जब धारा स्त्रावित होने लगी तब सुरति रूपी कटोरी में उसे सुरक्षित झेल लिया । गुरु महाराज की कृपा ने मेरे अंदर रामरसायन का उक्त विधि से भंडार भर दिया जिसको मैंने छक कर पिया ।
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अब मुझे संसार और संसार के समस्त भोग विलासों की तनिक भी सुध-बुध नहीं रही है । मैं पूर्णरूपेण रामरसायन पीने में निमग्न हो गया हूँ । मेरे रोम-रोम में रामरसायन = रामनाम समा गया है । इस स्त्रावित होते रामरसायन रूपी छाक = भोजन से मैं पुर्णतः छिकाऊ = तृप्त होता हूँ । इस रामरसायन से घर के = आतंरिक और बाहर के = बाह्य = सभी अंग-प्रत्यंग तो तृप्त हुए ही हैं, बाहर के बटाऊ लोग = राहगीर लोग = सत्संगी लोग भी मदमस्त होकर इसी में लोट-पोट = निमग्न हो गये हैं ।
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बषनांजी कहते हैं, जब साधक का भगवद्-रस-लीन-मन हाथ में रामरसायन रूपी वारुणी लेकर दरीबे में बैठा तब कलाली उस पर न्यौछावर होकर उसकी आरती करते लगी ॥
(क्रमशः)

रविवार, 22 दिसंबर 2024

= १३० =

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*भक्ति निराली रह गई, हम भूल पड़े वन माहिं ।*
*भक्ति निरंजन राम की, दादू पावै नांहिं ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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प्रश्न: गुरु के सत्संग की तो आप रोज-रोज महिमा गाते हैं, पर प्रकृति के सत्संग की कभी-कभी ही चर्चा करते हैं। क्या गुरु प्रकृति से भी अधिक संवेदनशील द्वार है ? कृपा करके समझाए।
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प्रकृति है--सोया परमात्मा; और गुरु है--जागा परमात्मा। गुरु का अर्थ क्या होता है ? गुरु का अर्थ होता है: जिसके भीतर प्रकृति परमात्मा बन गई। तुम सोए हो; प्रकृति सोयी है; इन दोनों सोए हुओं का मेला भी बैठ जाए, तो भी कुछ बहुत घटेगा नहीं। दो सोए आदमियों में क्या घटनेवाला है ? दो साए हुई स्थितियों में क्या घटनेवाला है ? तुम अभी प्रकृति से तालमेल बिठा ही न सकोगे।
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तुम जागो, तो प्रकृति को भी तुम देख आओ। तुम जागो, तो प्रकृति में भी तुम्हें जगह-जगह परमात्मा का स्फुरण मालूम पड़े। पत्ते-पत्ते में, कण-कण में उसकी झलक मिले--लेकिन तुम जाओ तो। तुम अभी गुलाब के फूल के पास जाकर बैठ भी जाओ, तो क्या होना है ! तुम सोचोगे दुकान की। तुम अगर गुलाब के संबंध में थोड़ी बहुत सोचने की कोशिश करोगे, तो वह भी उधार होगा।
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तुम अभी जागे नहीं। तुम अभी अपनी प्रति नहीं जागे, तो गुलाब के फूल के प्रति कैसे जागोगे ? जो अपने प्रति जागता है, वह सब के प्रति जाग सकता है। और जो अपने प्रति सोया है, वह किसी के प्रति जाग नहीं सकता। और गुलाब का फूल गुरु नहीं बन सकता। क्योंकि गुलाब का फूल तुम्हें झकझोरेगा नहीं। गुलाब का फूल खुद ही सोया है, वह तुम्हें कैसे जगायेगा ?
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गुरु का अर्थ है--जो तुम्हें झकझोर, जो तुम्हारी नींद को तोड़े। तुम मीठे सपनों में दबे ही। कल्पनाओं में डूबे हो। जो अलार्म की तरह तुम्हारे ऊपर बजे; जो तुम्हें सोने दे...। एक बार तुम्हें जागरण का रस लग जाए, एक बार तुम आंख खोल कर देख लो कि क्या है, कि कोई बात नहीं है। फिर प्रकृति में भी परमात्मा है।
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इसलिए कभी-कभी मैं प्रकृति की बात करता हूं, लेकिन ज्यादा नहीं। क्योंकि तुम से प्रकृति की बात करी व्यर्थ है। तुम्हें इन वृक्षों में क्या दिखाई पड़ेगा ? वृक्ष ही दिखाई पड़ जाए, तो बहुत। वृक्षों से ज्यादा तो दिखाई नहीं पड़ेगा। तुम्हें मनुष्यों में नहीं दिखाई पड़ता--मनुष्यों से ज्यादा कुछ ! तो वृक्षों में वृक्षों में ज्यादा कैसे दिखाई पड़ेगा; तुम्हें अपने में नहीं दिखाई पड़ता कुछ भी।
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शुरुआत अपने से करनी होगी। और किसी जीवित गुरु के साथ हो लेने में सार है। गुरु का काम बड़ा धन्यवाद शून्य काम है। कोई धन्यवाद भी नहीं देता ! नाराजगी पैदा होती है। क्योंकि गुरु अगर तुम्हें जगाये, तो गुस्सा आता है। तुम गुरु भी ऐसे तलाशते हो, जो तुम्हारी नींद में सहयोगी हों। इसलिए तुम पंडित-पुरोहित को खोजते हो। वे खुद ही सोए हैं; घुर्रा रहे हैं नींद में; वे तुम्हारे लिए भी शामक दवा बन जाते हैं।
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जाग्रत गुरु से तुम भागोगे; सदा से भागते रहे हो; नहीं तो अब तक तुम कभी के जाग गए होते। बुद्ध से भागे; महावीर से भागे; कबीर से भागे होओगे। जहां तुम्हें कोई जागा व्यक्ति दिखाई पड़ा होगा, वहां तुमने जाना ठीक नहीं समझा; तुम भागते रहे हे। तभी तो अभी तक बच गये, नहीं तो कभी के जाग जाते। तुम पकड़ते ऐसे लोगों का सहारा हे, जो तुम्हारी नींद न तोड़ें।
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तुम कहते हो: ठीक है। धर्म भी हो जाए, और जैसे हम है, वैसे के वैसे भी बने रहे। तुम सोचते हो कि चलो, थोड़ा कुछ ऐसा भी कर लो कि अगर परमात्मा हो, तो उसके सामने भी मुंह लेकर खड़े होने का उपाय रह जाए; कि हमने तेरी प्रार्थना की थी, पूजा की थी। अगर हमने न की थी, तो हमने एक पुरोहित रख लिया था नौकरी पर, उसने की थी; मगर हमने करवाई थी--सत्य-नारायण की कथा। प्रसाद भी बंटवाया था !
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मगर भगवान न हो, तो कुछ हर्जा नहीं है; दो-चार-पांच रुपये का प्रसाद बंट गया; दो-चार-पांच रुपए पुरोहित ले गया; कोई हर्जा नहीं है। वह जो दस-पांच का खर्चा हुआ, उसको भी तुम बाजार में उपयोग कर लेते हो; क्योंकि जो आदमी रोज-रोज सत्य नारायण की कथा करवा देता है, उसकी दुकान ठीक चलती है। लोग सोचते हैं: सत्य नारायण की कथा करवाता है, तो कम से कम सत्य नारायण में थोड़ा भरोसा करता होगा। सत्य बोलता होगा। कम लुटेगा। कम धोखा देगा।
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यहां भी लाभ है--सत्य नारायण की कथा से। लोग समझने लगते हैं: धार्मिक हो, तो तुम आसानी से उनकी जेब काट सकते हो। उनको भरोसा आ जाए कि आदमी ईमानदार है, मंदिर जाता है, पूजा-प्रार्थना करता है, तो सुविधा हो जाती है; प्रतिष्ठा मिलती है। यहां भी लाभ है। और अगर कोई परमात्मा हुआ, तो वहां भी लाभ ले लेंगे।
ओशो
कन थोरे कांकर घने #6

= १२९ =

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*सतगुरु की समझै नहीं, अपणै उपजै नांहि ।*
*तो दादू क्या कीजिए, बुरी बिथा मन मांहि ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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#महावीर ने चार घाट कहे हैं, जिनसे उस पार जाया जा सकता है।
दो घाट तो समझ में आते हैं--साधु का, साध्वी का; शेष दो घाट थोड़े कठिन मालूम होते हैं--श्रावक का और श्राविका का। श्रावक का अर्थ है, जो श्रवण में समर्थ है; जो सुनने की कला सीख गया; जिसने जान लिया कि सुनना कैसे; जिसने पहचान लिया कि सुनना क्या है।
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महावीर ने कहा है कि कुछ तो साधना कर-करके उस पार पहुंचते हैं, कुछ केवल सुन कर उस पार पहुंच जाते हैं। जो सुनने में समर्थ नहीं है, उसे ही साधना की जरूरत पड़ती है। अगर तुम सुन ही लो पूरी तरह तो कुछ करने को बाकी नहीं रह जाता; सुनने से ही पार हो जाओगे।
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इसी श्रवण की महिमा को बताने वाले नानक के ये सूत्र हैं। ऊपर से देखने पर अतिशयोक्तिपूर्ण मालूम पड़ेंगे कि क्या सुनने से सब कुछ हो जाएगा? और हम तो सुनते रहे हैं--जन्मों-जन्मों से और कुछ भी नहीं हुआ! हमारा अनुभव तो यही कहता है कि सुन लो--कितना ही सुन लो--कुछ भी नहीं होता; हम वैसे ही बने रहते हैं। 
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हमारे चिकने घड़े पर शब्द का कोई असर ही नहीं पड़ता; गिरता है, ढलक जाता है; हम अछूते जैसे थे, वैसे ही रह जाते हैं। अगर हमारा अनुभव सही है तो नानक सरासर अतिशय करते हुए मालूम पड़ेंगे। लेकिन हमारा अनुभव सही नहीं है; क्योंकि हमने कभी सुना ही नहीं है। न सुनने की हमारी तरकीबें हैं, पहले उन्हें समझ लें।
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पहली तरकीब तो यह है कि जो हम सुनना चाहते हैं, वही हम सुनते हैं; जो कहा जाता है, वह नहीं। हम बड़े होशियार हैं। हम वही सुनते हैं जो हमें बदले न। जो हमें बदलता है, उसे हम सुनते ही नहीं; हम उसके प्रति बहरे होते हैं। और यह कोई संतों का ही कथन हो, ऐसा नहीं है; जिन लोगों ने वैज्ञानिक ढंग से मनुष्य की इंद्रियों पर शोध की है, वे भी कहते हैं कि हम अट्ठान्नबे प्रतिशत सूचनाओं को भीतर लेते ही नहीं; सिर्फ दो प्रतिशत को लेते हैं। 
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हम वही देखते हैं, वही सुनते हैं, वही समझते हैं, जो हमसे तालमेल खाता है; जो हमसे तालमेल नहीं खाता वह हम तक पहुंचता ही नहीं। बीच में बहुत सी हमने रुकावटें खड़ी कर रखी हैं। और जो तुमसे तालमेल खाता है, वह तुम्हें कैसे बदलेगा ? वह तो तुम जैसे हो, उसे और मजबूत करेगा। जिससे तुम्हारी बुद्धि राजी होती है, कनविन्स होती है, वह तुम्हें कैसे रूपांतरित करेगा ? वह तो तुम्हें और आधार दे देगा जमीन में, और मजबूत पत्थर दे देगा, जिन पर तुम बुनियाद उठा कर खड़े हो जाओगे।
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हिंदू वही सुनता है जिससे हिंदू-मन मजबूत हो। मुसलमान वही सुनता है जिससे मुसलमान-मन मजबूत हो। सिक्ख वही सुनता है जिससे सिक्ख की धारणा मजबूत हो। तुम अपने को मजबूत करने के लिए सुन रहे हो ? तुम अपनी धारणाओं में और भी गहरे उतर जाने के लिए सुन रहे हो ? तुम अपने मकान को और मजबूत कर लेने के लिए सुन रहे हो ? तब तुम सुनने से वंचित रह जाओगे। क्योंकि सत्य का न तो सिक्ख से कोई संबंध है, न हिंदू से, न मुसलमान से। तुम्हारी कंडीशनिंग, तुम्हारे चित्त का जो संस्कार है, उससे सत्य का कोई भी संबंध नहीं है।
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जब तुम अपनी सब धारणाओं को हटा कर सुनोगे, तभी तुम समझ पाओगे कि नानक का अर्थ क्या है ! और अपनी धारणाओं को हटाने से कठिन काम जगत में दूसरा नहीं है; क्योंकि वे बहुत बारीक हैं, महीन हैं, पारदर्शी हैं। वे दिखाई भी नहीं पड़तीं; कांच की दीवाल है। जब तक तुम टकरा ही न जाओ, तब तक पता ही नहीं चलता कि दीवाल है; तब तक लगता है कि खुला आकाश तो दिखाई पड़ रहा है, चांदत्तारे दिखाई पड़ रहे हैं; लेकिन बीच में एक कांच की दीवाल है।
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जब मैं बोल रहा हूं, तो कभी तुम भीतर कहते हो, हां ठीक--जब तुमसे मेल खाता है; कभी तुम भीतर कहते हो, यह बात जंचती नहीं--जब तुमसे मेल नहीं खाता। तो तुम, मैं जो कह रहा हूं, उसे नहीं सुन रहे हो; जो तुमसे मेल खाता है, जो तुम्हें और सजाता-संवारता है, शक्तिशाली करता है, वही तुम सुन रहे हो। शेष को तुम छोड़ ही दोगे। 
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शेष को तुम भूल ही जाओगे। अगर कोई बात तुमने सुन भी ली, जो तुम्हारे विपरीत पड़ती है, तो तुम उसे भीतर खंडित करोगे; तर्क जुटाओगे; हजार उपाय करोगे कि यह ठीक नहीं हो सकता। क्योंकि एक बात तो तुम मान कर बैठे हो कि तुम ठीक हो। तो जो तुमसे मेल खाए, वही सच; जो तुमसे मेल न खाए, वह झूठ।
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अगर तुम सत्य को ही पा गए हो, तो फिर सुनने की कोई जरूरत ही नहीं है। वह भी तुमने पाया नहीं है; सुनने की जरूरत भी कायम है; सत्य को खोजना भी है; और इस धारणा से खोजना है कि सत्य मुझे मिला ही हुआ है! तुम कैसे खोज सकोगे ?
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सत्य के पास तो नग्न, शून्य, खाली हो कर जाना पड़ेगा। सत्य के पास तो तुम्हें अपनी सारी धारणाओं को छोड़ देना पड़ेगा। तुम्हारे सारे विश्वास, तुम्हारे सिद्धांत, तुम्हारे शास्त्र अगर बीच में रहे तो तुम कभी भी न सुन पाओगे। और जो तुम सुनोगे और समझोगे कि मैंने सुना है, वह तुम्हारी अपनी ही प्रतिध्वनि होगी। वह नहीं जो कहा गया था, वह जो तुम्हारे भीतर प्रतिध्वनित हुआ। तुम अपने ही मन की कोठरी को प्रतिध्वनित होते हुए सुनते रहोगे। तब तुम्हें नानक के वचन बड़े अतिशयोक्तिपूर्ण मालूम पड़ेंगे।
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दूसरा ढंग बचने का है कि लोग अक्सर, जब भी कोई महत्वपूर्ण बात कही जाए, तंद्रा में हो जाते हैं। वह भी मन का बचाव है। वह भी बड़ी गहरी प्रक्रिया है। जब भी कोई चीज तुम्हें छूने के करीब हो, तब तुम सो जाओगे।
एक ओंकार सतनाम(गुरू नानक) प्रवचन--5

शनिवार, 21 दिसंबर 2024

*४४. रस कौ अंग ६९/७२*

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*४४. रस कौ अंग ६९/७२*
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सत रज तम की बासना, प्रव्रिति५ पद मंहि बास ।
न्रिवर्ति धरि जन नाऊं रत, सु कहि जगजीवनदास ॥६९॥
(५. प्रव्रिति=प्रवृत्ति, लोकव्यवहार)
संत जगजीवन जी कहते हैं कि तीनों गुणों सत, रज, तम, की इच्छा लोकव्यवहार में ही है । संसार से निवृत्ति में तो राम नाम ही पर्याप्त है ।
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कहि जगजीवन सहज मैं, सकल तजै आरंभ ।
सुमिरन लागा जन रहै, तहँ देव निरंजन स्यंभ६ ॥७०॥
{६. स्यंभ=शम्भू, शंकर(आदिनाथ)}
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जो जीव सहज में सब आरंभ से ही त्याग देते हैं वे नाम स्मरण में ही लगे रहते हैं और उनके निकट ही परमात्मा होते हैं ।
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विद्या नांम बिसार हरि, बिष्नु अविद्या जास ।
सो क्यूं पीवै रांम रस, सु कहि जगजीवनदास ॥७१॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जो जन हरि नाम की विद्या को भूल आशा पूर्ण करनेवाले विष्णु या देवों को संसारिक मनोकामना हेतु भजते हैं वे प्रभु स्मरण रुपी आनंद रस का पान कैसे कर सकते हैं ।
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परस्या* प्रेम न रांम रस, प्रीति न ह्रिदै प्रकास ।
डंडवत त्रिए सुध हरि भगता*, सु कही जगजीवनदास ॥७२॥
(*-*. गुरुचरणों का प्रेम भाव से स्पर्श, उन के प्रति ह्रदय से स्नेह प्रकट करना तथा सम्मुख आने पर तीन दण्डवत् प्रणाम करना- यह निश्छल साधु का लक्षण माना जाता है ॥७२॥)
संत जगजीवन जी कहते हैं कि गुरु चरणों का स्पर्श उनमें प्रेम तथा सन्मुख आने पर दण्डवत करना ये निश्छल साधु जन के लक्षण कहे गये हैं ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2024

= १२८ =

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*सोने सेती बैर क्या, मारे घण के घाइ ।
दादू काटि कलंक सब, राखै कंठ लगाइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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*अहोभाव*
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हम तो अनगढ़ पत्थर हैं। छैनी चाहिए, हथौड़ी चाहिए, कोई कुशल कारीगर चाहिए–कि गढ़े ! और कारीगर भी है। मगर हम टूटने को राजी नहीं हैं। जरा सा हमसे छीना जाए तो हम और जोर से पकड़ लेते हैं। छैनी देखकर तो हम भाग जाते हैं। हथौड़ी से तो हम बचते हैं। हम तो चाहते हैं सांत्वनाएं, सत्य नहीं।
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दरिया कहते हैं: मीठे राचैं लोग सब ? मीठी मीठा तो सभी को रुचता है। मीठा यानी सांत्वना। अच्छी-अच्छी बातें तुम्हारे अहंकार को आभूषण दें, तुम्हें सुंदर परिधान दें, तुम्हारी कुरूपता को ढांकें, तुम्हारे घावों पर फूल रख दें।
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मीठे राचैं लोग सब
मीठे उपजै रोग
लेकिन इसी सांत्वना, इसी मिठास की खोज से तुम्हारे भीतर सारे रोग पैदा हो रहे हैं।
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निरगुन कडुवा नीम सा
दरिया दुर्लभ जोग
और जो उस निर्गुण को पाना चाहते हैं उन्हें तो नीम पीने की तैयारी करनी होगी। निरगुन कडुवा नीम सा, दरिया दुर्लभ जोग। 
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और इसीलिए तो बहुत कठिन है योग, बहुत कठिन है संयोग, क्योंकि परमात्मा जब आएगा तो पहले तो कड़वा ही मालूम पड़ेगा। लेकिन वही नीम की कड़वाहट तुम्हारे भीतर की सारी अशुद्धियों को बहा ले जाएगी, तुम्हें निर्मल करेगी, निर्दोष करेगी।
.
सदगुरु जब मिलेगा तो खड़ग की धार की तरह मालूम होगा। उसकी तलवार तुम्हारी गर्दन पर पड़ेगी। कबीर कहते हैं–
कबिरा खड़ा बाजार में
लिए लुकाठी हाथ
जो घर बारै आपना
चले हमारे साथ
.
हिम्मत होनी चाहिए घर को जला देने की। कौन सा घर? वह जो तुमने मन का घर बना लिया है–वासनाओं का, आकांक्षाओं का, अभीप्साओं का। वह जो तुमने कामनाओं के बड़े गहरे सपने बना रखै हैं, सपनों के महल सजा रखें हैं। जो उन सबको जला देने को राजी हो, उसे आज और अभी आर यहीं परमात्मा की आवाज सुनाई पड़ सकती है। उसके भीतर भी राख झड़ सकती है और अंगारा निखर सकता है।
ओशो ~ अमी झरत बिगसत कंवल

बुधवार, 18 दिसंबर 2024

*मत्स्येन्द्रनाथजी*

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*दादू मन फकीर सतगुरु किया, कहि समझाया ज्ञान ।*
*निश्‍चल आसन बैस कर, अकल पुरुष का ध्यान ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
===============
*मत्स्येन्द्रनाथजी*
.
*छप्पय-*
*महादेव मन जीत तैं, नाथ मछिन्दर अवतरे ॥*
*अष्टांग योग अधिपति, प्रथम यम नियम सु साधे ।*
*आसन प्राणायाम, प्रत्याहार धारणा ध्यान समाधे ॥*
*षष्ठ चक्र वेधिया, अष्ट कुंभक सो कीया ।*
*मुद्रा दशम लगाय, बंध त्रय ता मधि दीया ॥*
*भक्ति सहित हठ योग कर, जन राघव यूं निस्तरे ।*
*महादेव मन जीत तैं, नाथ मछिन्दर अवतरे ॥३१०॥*
.
मन को जीतने वाले महादेवजी की कृपासे ही मत्स्येन्द्रनाथजी का अवतार हुआ था । मत्स्येन्द्रनाथजी के गुरु भगवान् श्रीशंकरजी ही माने जाते हैं । स्कन्दपुराण नागर खंड २६२ अध्याय में और बृहन्नारद पुराण(उत्तर भाग) वसुमोहनी संवाद ६९ अध्याय में इनकी उत्पत्ति के विषय में कथा आती है ।
.
एक बालक को माता पिता ने अशुभ नक्षत्र में उत्पन्न होने के कारण समुद्र में फेंक दिया था । उसे एक मछली ने निगल लिया था । फिर शिव पार्वती का योगविषयक संवाद सुनकर वह बालक शिवजी के कथनानुसार योग करता हुआ मछली के पेट से निकलकर "आदेश" "आदेश" बोलने लगा ।
.
माता पार्वती ने उस बालक को उठा लिया और मत्स्येन्द्र नाम रख दिया । शंकर भगवान् से योग विद्या सीख कर इनने फिर संसार में योग विद्या का प्रचार किया । 'मत्स्येन्द्र- संहिता' नामक एक योग विषय ग्रंथ इनका मिलता है । आप अष्टांग के अधिपति थे अर्थात् अष्टांग योग पर आपका पूरा पूरा अधिकार था ।
.
आपने अष्टांग के प्रथम अंग पंच प्रकार~
*[१] यम-* १. अहिंसा, २. सत्य, ३. अस्तेय, ४. ब्रह्मचर्य, ५. अपरिग्रह ।
*[२] नियम-* १. शौच, २. संतोष, ३. तप, ४. स्वाध्याय, ५. ईश्वरप्रणिधान । इन दोनों अंगों को अच्छी प्रकार साधा था ।
*[३] आसन-* आसनों में सिद्ध और पद्म ही योग साधन के लिये मुख्य माने जाते हैं ।
*[४] प्राणयाम-* १. पूरक, २. कुंभक, ३. रेचक ।
*[५] प्रत्याहार-* विषयों में विचरने वालों इन्द्रियों को विषयों से हटाकर अंतर्मुख करना ।
*[६] धारणा-* ध्येय देश में चित्त संधारण करना । धारणा पञ्च प्रकार है ।
*[७] ध्यान-* धारणा के देश में चित्त वृत्ति का तैल धारावत अखण्ड प्रवाह तथा मन का निर्विषय होना ध्यान कहलाता है ।
*[८] समाधि-* ध्येय वस्तु के स्वरूप को प्राप्त हुआ मन जब अपने ध्यान स्वरूप का परित्याग कर के और संकल्प विकल्प से रहित होकर केवल ध्येय वस्तु के स्वरूप से स्थित होता है, तब उसकी उस अवस्था को योगीजन समाधि कहते हैं । यह दो प्रकार की है-१. सम्प्रज्ञात और २. असम्प्रज्ञात ।
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हठ योग की साधना भी आपने सम्यक् प्रकार की है ।
*षट्चक्र-* १. मूलाधार, २. स्वाधिष्ठान, ३. मणिपूरक, ४. अनाहत, ५. विशुद्ध, ६. आज्ञा । इन षट् चक्रों का भी आपने वेध किया है अर्थात् इनकी साधना पूर्ण रूप से की है ।
*अष्ट कुंभक-* १. सूर्यभेदन, २. उज्जायी, ३. सीत्कार, ४. शीतली, ५. भस्त्रा, ६. भ्रमरी, ७. मूच्छां, ८. प्लाविनी । इन अष्ट कुंभक रूप प्राणायाम की साधना भी आपने अच्छी प्रकार की थी ।
*दश मुद्रा-* १. महामुद्रा २. महाबन्ध, ३. महावेध, ४. खेचरी, ५. उड्डयानबन्ध, ६. मूलवन्ध, ७. जालन्धरवन्ना, ८. विपरीतकरणी, ९. वज्रोली, १०. शक्तिचालन । इन दश मुद्राओं की साधना भी आपने की, और इनके भीतर जो तीन बन्ध आये हैं- उड्यान, मूल और जालन्धर । इन तीनों को तो बहुत किया था । इन बन्धों का देना परम आवश्यक होता है ।
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राघवदासजी कहते हैं- इस प्रकार भक्ति सहित हठयोग करके आप संसार-सागर से पार हुये हैं । अष्टांग योग और हठयोग सम्बन्धी सभी साधना विस्तार पूर्वक समझने के लिये 'साधकसुधा' पढ़ें । एक समय नैपाल के राजा श्रीवसंतदेवजी राज्यच्युत होकर श्रीगुरु मत्स्येन्द्रनाथजी की शरण में आये थे । तब आपके आशीर्वाद से उन्हें पुनः राज्य की प्राप्ति हुई थी ।
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उनने मत्स्येन्द्रनाथजी को शिवस्वरूप मानकर उनके मंदिर की स्थापना की थी और नैपाल के घर घर में उनकी पूजा का प्रचार किया था । नेपाल के भोगमती नामक गाँव में मत्स्येन्द्रनाथजी का प्रधान धाम है । यहाँ प्रति वर्ष वैशाख में तीन दिन तक उत्सव मनाया जाता है । श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी की सवारी बड़ी सज-धज के साथ निकाली जाती है ॥३१०॥
(क्रमशः)

= १२७ =

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*दादू देखा देखी लोक सब, केते आवैं जांहि ।*
*राम सनेही ना मिलैं, जे निज देखैं मांहि ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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जैन ग्रंथों में स्वर्गीय सुमेरु पर्वत का उल्लेख है जो हिमालय से भी बड़ा है और पूरी तरह से सोने से बना है। ऐसा कहा जाता है कि जो राजा संपूर्ण पृथ्वी पर विजय प्राप्त कर चक्रवर्ती बन जाता है, उसे सुमेरु पर्वत पर हस्ताक्षर करने का मौका मिलता है।
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कहानी यह है कि एक चक्रवर्ती राजा सुमेरु पर्वत पर अपना हस्ताक्षर करने के लिए अपनी पूरी सेना के साथ स्वर्ग के द्वार पर पहुंचे। वहां दरबान ने उससे कहा, "आप अकेले ही प्रवेश कर सकते हैं, बाकी सभी को पीछे ही रहना होगा।" राजा थोड़ा निराश हुआ क्योंकि यह उसके जीवन का स्वर्णिम क्षण था और वह चाहता था कि उसकी सारी प्रजा उस क्षण की साक्षी बने।
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लेकिन दरबान के कहने पर उन्होंने उन सभी को वापस भेज दिया। दरबान ने कहा, "यह सुमेरु पर्वत अनंत काल से यहीं है, लेकिन यहां इतने चक्रवर्ती सम्राट हुए हैं कि हस्ताक्षर के लिए जगह नहीं बची है। इसलिए पहले आपको किसी का नाम लेकर मिटाना होगा और फिर हस्ताक्षर करना होगा।"
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राजा ने पीछे मुड़कर कहा, "अगर किसी का नाम मिटाकर हस्ताक्षर करना है तो इसका कोई मतलब ही नहीं है, क्योंकि मैं हस्ताक्षर करता हूं और किसी दिन कोई और आएगा और इसे मिटा देगा और अपना हस्ताक्षर कर देगा। यदि पहाड़ इतना बड़ा है और इतने सारे हस्ताक्षर है तो इसे पढ़ कौन रहा है ? मुझे माफ कर दो, मैं गलती कर रहा हूँ।"
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यह देखने के लिए कि वहां कितने हस्ताक्षर हैं, बस सुमेरु पर्वत को करीब से देखें। क्या आप भी अपना नाम मिटाकर किसी और का नाम लिखना चाहते हैं ? बस देखो कि तुम क्या कर रहे हो. क्या आप रेत पर हस्ताक्षर करके अपना समय बर्बाद नहीं कर रहे हो ?
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रेत पर हस्ताक्षर करने और चले जाने के बजाय, अपनी खोज को वास्तविक धन की ओर मोड़ दिया। यदि आप जो हैं उसके अलावा कुछ और बनने की आकांक्षा रखते हैं, तो आप "आप जो हैं" उसके विपरीत जा रहे हैं।
ओशो

मंगलवार, 17 दिसंबर 2024

= १२६ =

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*दादू चौरासी लख जीव की, प्रकृति घट मांहि ।*
*अनेक जन्म दिन के करै, कोई जाणै नांहि ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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(१) अल्बर्ट आइंस्टीन की पत्नी अक्सर उन्हें सलाह देती थीं कि वह काम पर जाते समय अधिक प्रोफेशनल तरीके से कपड़े पहनें। आइंस्टीन हमेशा कहते, "क्यों पहनूं ? वहाँ सब मुझे जानते हैं।" लेकिन जब उन्हें पहली बार एक बड़े सम्मेलन में जाना था, तो उनकी पत्नी ने उनसे थोड़ा सज-धजकर जाने का अनुरोध किया। इस पर आइंस्टीन बोले, "क्यों पहनूं ? वहाँ तो मुझे कोई नहीं जानता !"
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(२) आइंस्टीन से अक्सर सापेक्षता के सिद्धांत को समझाने के लिए कहा जाता था। एक बार उन्होंने समझाया, "अपना हाथ एक गर्म चूल्हे पर एक मिनट के लिए रखो, तो वह एक घंटे जैसा महसूस होगा। एक खूबसूरत लड़की के साथ एक घंटे बैठो, तो वह एक मिनट जैसा लगेगा। यही है सापेक्षता !"
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(३) जब अल्बर्ट आइंस्टीन प्रिंसटन विश्वविद्यालय में काम कर रहे थे, तो एक दिन घर जाते समय उन्हें अपना घर का पता भूल गया। टैक्सी ड्राइवर ने उन्हें पहचाना नहीं। आइंस्टीन ने ड्राइवर से पूछा कि क्या वह आइंस्टीन का घर जानता है। ड्राइवर ने कहा, "आइंस्टीन का पता कौन नहीं जानता ? प्रिंसटन में हर कोई जानता है। क्या आप उनसे मिलना चाहते हैं ?" आइंस्टीन ने उत्तर दिया, "मैं ही आइंस्टीन हूं। मैं अपना घर का पता भूल गया हूँ, क्या आप मुझे वहाँ पहुँचा सकते हैं ?" ड्राइवर ने उन्हें उनके घर पहुँचा दिया और उनसे किराया भी नहीं लिया।
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(४) एक बार आइंस्टीन प्रिंसटन से ट्रेन में यात्रा कर रहे थे। जब टिकट चेक करने वाला कंडक्टर उनके पास आया, तो आइंस्टीन ने अपनी जैकेट की जेब में हाथ डाला, लेकिन टिकट नहीं मिला। फिर उन्होंने अपनी पैंट की जेबें देखीं, लेकिन वहाँ भी नहीं था। इसके बाद उन्होंने अपने ब्रीफकेस में देखा, लेकिन टिकट नहीं मिला। फिर उन्होंने अपनी सीट के पास देखा, लेकिन फिर भी टिकट नहीं मिला।
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कंडक्टर ने कहा, "डॉ. आइंस्टीन, हम जानते हैं कि आप कौन हैं। मुझे यकीन है कि आपने टिकट खरीदा है। चिंता मत कीजिए।" आइंस्टीन ने प्रशंसा में सिर हिला दिया। कंडक्टर आगे बढ़ गया। जब उसने दूसरी तरफ देखा, तो उसने देखा कि महान वैज्ञानिक नीचे झुककर सीट के नीचे टिकट खोज रहे थे।
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कंडक्टर तुरंत लौट आया और कहा, "डॉ. आइंस्टीन, चिंता मत कीजिए। मैं जानता हूँ कि आप कौन हैं। आपको टिकट की आवश्यकता नहीं है। मुझे यकीन है कि आपने टिकट खरीदा है।" आइंस्टीन ने जवाब दिया, "युवा आदमी, मैं भी जानता हूँ कि मैं कौन हूँ। पर मैं ये नहीं जानता कि मैं कहाँ जा रहा हूँ।"
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(५) जब आइंस्टीन की मुलाकात चार्ली चैपलिन से हुई:
आइंस्टीन ने कहा, "आपकी कला में जो मुझे सबसे अधिक प्रभावित करता है, वह उसकी सार्वभौमिकता है। आप एक शब्द नहीं कहते, फिर भी दुनिया आपको समझती है।"
इस पर चार्ली चैपलिन ने उत्तर दिया, "यह सच है, लेकिन आपकी प्रसिद्धि तो इससे भी बड़ी है। दुनिया आपकी प्रशंसा करती है, जबकि कोई आपको समझता नहीं।"
संकलन : केवी सर

= १२५ =

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*जहँ विरहा तहँ और क्या,*
*सुधि, बुधि नाठे ज्ञान ।*
*लोक वेद मारग तजे, दादू एकै ध्यान ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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अहोभाव
आग भयंकर है विरह की। थोड़े से ही हिम्मतवर लोग गुजर पाते हैं, अन्यथा लौट जाते हैं। धैर्य चाहिए, प्रतीक्षा चाहिए। प्रतीक्षा ही प्रार्थना का मूल है; उदगम है। और जो प्रतीक्षा नहीं कर सकता, वह प्रार्थना भी नहीं कर सकता। सम्हालना होगा अपने को। और थोड़े दिन बांधना होगा अपने को कि लौट न पड़े कि भाग न आए, कि पीठ न दिखा दे।
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बिरहिन पिउ के कारने
ढूंढन बनखंड जाए
निस बीती, पिउ ना मिला
दरद रही लिपटाय
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बड़ी बुरी दिशा हो जाती है विरही की। खोजता फिरता है जंगल-जंगल। निस बीती, पिउ ना मिला। और रात बीत चली और प्यारा मिला नहीं। फिर कोई और उपाय न देखकर, दर्द से ही लिपटकर सो जाती है दर्द रही लिपटाय! विरह के पास और है भी क्या ? परमात्मा पता नहीं कब मिलेगा ! 
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जगा गया एक अभीप्सा को। अब अभीप्सा ही है जिसको छाती से लगाकर भक्त जीता है। यही उसकी परीक्षा है। इस परीक्षा से जो नहीं उतरता वह कभी उस दूसरे किनारे तक न पहुंचा है न पहुंच सकता है। भक्त बहुत भावों से गुजरता है। 
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स्वभावतः कई बार लगता है यह कैसा दुर्दिन आ गया ! यह मैं किस झंझट में पड़ गया ! सब ठीक-ठाक चलता था, यह किन आंसुओं से जीवन घिर गया। अब भला-चंगा था, यह किस रुदन ने पकड़ लिया कि रुकता ही नहीं ! हृदय है कि उंडेला ही जाता है और रोआं-रोआं है कि कंप रहा है। 
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और पता नहीं परमात्मा है भी या नहीं। पता नहीं मैं किसी कल्पना के जाल में तो नहीं उलझ गया हूं। भारी शंकाएं उठती हैं, कुशंकाएं उठती हैं। भक्त कभी नाराज भी हो जाता है परमात्मा पर, कि यह भी दिया तो क्या दिया! मांगे थे फूल, कांटे दिए। मांगी थी सुबह, सांझ दी। मांगा था अमृत, जहर दे दिया।
ओशो ~ अमी झरत बिगसत कंवल

= १२४ =

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*विरह अग्नि तन जालिये, ज्ञान अग्नि दौं लाइ ।*
*दादू नखशिख परजलै, तब राम बुझावै आइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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#शंकराचार्य ने दस वर्ष की उम्र में जो वचन बोले, वे लोग सौ वर्ष की उम्र में नहीं बोल पाते। शंकराचार्य ने दस वर्ष की उम्र में उपनिषदों की जो परिभाषा की, वह सौ वर्ष का आदमी भी नहीं कर पाता। यह तो त्वरा की बात है, तीव्रता की बात है, सघनता की बात है।
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अपने प्राण को पूरा जगाओ और अपनी पूरी शक्ति को उंडेल दो, तो तुम पाओगे इसी क्षण वानप्रस्थ हो गया, इसी क्षण संन्यस्त हो गया। लेकिन अगर तुम भागते रहे और बचते रहे और टालते रहे और स्थगित करते रहे कि कल देख लेंगे–आज सिनेमा देख लें, कल मंदिर हो आएंगे। अगर स्थगित ही करना हो तो सिनेमा को कर दो, बुढ़ापे में देख लेना। सिनेमा ही है, बुढ़ापे में देख लेना।
.
लेकिन परमात्मा को तुम बुढ़ापे के लिए स्थगित कर रहे हो। जवानी तुम संसार को देते हो, बुढ़ापा परमात्मा को ! तुम्हारे देने से पता चलता है कि मूल्य किसका है। जवानी तुम व्यर्थ को देते हो और बुढ़ापा परमात्मा को! जब शक्ति होती है तब तुम गलत करते हो और जब शक्ति नहीं होती तब तुम कहते हो कि अच्छा करेंगे। 
.
जब करने को ही कुछ नहीं बचता, तब तुम कहते हो कि अच्छा करेंगे। जब मरने लगते हो, तब तुम कहते हो समर्पण। और जब तक तुम पकड़ सकते थे, तब तक तुमने कभी समर्पण की बात न सोची। तुम किसे धोखा दे रहे हो ? इसलिए तो शंकर कहते हैं, आंख के अंधे। तुम किसे धोखा दे रहे हो ?
.
जब तक शक्ति है, तब तक करो स्मरण; क्योंकि स्मरण के लिए महाशक्ति की जरूरत है। उससे बड़ा कोई कृत्य नहीं है; वह तुम्हारी समग्रता को मांगता है; वह तुम्हारे रोएं-रोएं, श्वास-श्वास को मांगता है। जब तुम्हारे हाथ-पैर जीर्ण-जर्जर हो जाएंगे, लाठी टेक कर चलने लगोगे, आंख से दिखाई न पड़ेगा, तब तुम स्मरण करोगे ? 
.
तब तुमसे गोविन्द की आवाज भी न निकलेगी; तब तुम्हारा कंठ भी अवरुद्ध हो गया होगा; तब तुम कहोगे भी मुर्दा-मुर्दा; वह परमात्मा तक पहुंचेगा ? त्वरा चाहिए; बाढ़ चाहिए; जीवन की पूरी ऊर्जा को दांव पर लगा देने की हिम्मत, तैयारी चाहिए। वह आज ही हो सकता है। जिस दिन तुम्हें समझ आ जाए, उसी दिन वानप्रस्थ।
ओशो; भज गोविंदम् मूढ़मते

= १२३ =

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*महा अपराधी एक मैं, सारे इहि संसार ।*
*अवगुण मेरे अति घणे, अन्त न आवैं पार ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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फ्रेडरिक महान ने अपनी डायरी में एक संस्मरण लिखा है। लिखा है उसने कि मैं अपनी राजधानी के बड़े कारागृह में गया। सम्राट स्वयं आ रहा है, स्वभावतः हर आदमी ने उसके पैर पकड़े, हाथ जोड़े और कहा कि 'अपराध हमने बिल्कुल नहीं किया है। यह तो कुछ शरारती लोगों ने हमें फंसा दिया।'
.
किसी ने कहा, 'हम तो होश में ही न थे। हमसे करवा लिया किन्ही षड्यंत्रकारियों ने।' किन्हीं ने कहा कि 'सिर्फ कानून.... । हम गरीब थे, हम बचा न सके अपने को; बड़ा वकील न कर सके, इसलिए हम फंस गए हैं। अमीर आदमी थे हमारे खिलाफ, वे तो बच गए, और हम सजा काट रहे हैं।'
.
पूरे जेल में सैकड़ों अपराधियों के पास फ्रेडरिक गया। हरेक ने कहा उससे ज्यादा निर्दोष आदमी खोजना मुश्किल है ! अंततः सिर्फ एक आदमी सर झुकाए बैठा था। फ्रेडरिक ने कहा, 'तुम्हें कुछ नहीं कहना है ?' उस आदमी ने कहा कि 'माफ करो। मैं बहुत अपराधी आदमी हूं। जो भी मैंने किया है, सज़ा मुझे उससे कम मिली है।'
.
फ्रेडरिक ने अपने जेलर से कहा, 'इस आदमी को इसी वक़्त जेल से मुक्त कर दो; कहीं ऐसा न हो कि बाकी निर्दोष और भले लोग इसके साथ रहकर बिगड़ जायें ! इसे फौरन जेल के बाहर कर दो। कहीं ऐसा न हो कि बाकी इनोसेंट लोग.... क्योंकि बाकी पूरा जेलखाना तो निर्दोष लोगों से भरा हुआ है, वे कहीं इसके साथ रहकर बिगड़ न जाएं। तो इसे इसी वक़्त मुक्त कर दो।'
.
वह आदमी बहुत हैरान हुआ। उसने कहा कि 'आप क्या कर हैं ? मैं अपराधी हूं।' फ्रेडरिक महान ने कहा कि 'कोई आदमी अपने अपराध को स्वीकार कर ले, इससे बड़ी निर्दोषता, इससे बड़ी इनोसेंस और कोई भी नहीं है। तुम बाहर आओ।'
.
परमात्मा के जगत में भी केवल वे ही लोग संसार के बाहर जा पाते हैं, जो अपनी वास्तविक स्थिति को स्वीकार करने में समर्थ हैं। अपने को जो धोखा देगा - देता रहे…। परमात्मा को धोखा नहीं दिया जा सकता है।
ओशो 🌺🌹🙏🏻

सोमवार, 16 दिसंबर 2024

= १२२ =

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*अपने अमलों छूटिये, काहू के नाहीं ।*
*सोई पीड़ पुकार सी, जा दूखै माहीं ॥*
=============
*साभार ~ @Subhash Jain*
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पहला प्रश्न : आपको देख कर मेरे मन में भाव उठता है कि मैं भी आप जैसी ऊंचाई को कभी छुऊं। क्या यह भी तुलना है ? हीनता की ग्रंथि का परिणाम है ? दूसरे जैसे होने की आकांक्षा हीनता से ही जन्म पाती है; अपने जैसे होने की आकांक्षा आत्म-गरिमा से पैदा होती है। दूसरे जैसे तुम होना भी चाहो तो हो न सकोगे। कोई उपाय नहीं है।
.
उस चेष्टा में तुम नष्ट ही होओगे। और जितने तुम नष्ट होओगे उतनी ही हीनता भरती जाएगी। जितनी हीनता होगी उतना तुम और दूसरे जैसे होना चाहोगे। एक दुष्टचक्र में फंस जाओगे। दूसरे को प्रेम करो, श्रद्धा करो, सम्मान करो; लेकिन होना सदा अपने ही जैसे चाहो। क्योंकि अन्यथा कोई गति नहीं है। तुम जैसा न कभी कोई हुआ है, न कभी कोई होगा। तुम बेजोड़ हो। और जब तक तुम अपने भीतर छिपे बीज को ही वृक्ष न बना लोगे तब तक कोई संतृप्ति नहीं होगी।
.
तुम्हारी नियति पूरी होनी चाहिए। तुम मेरे जैसे होने को पैदा नहीं हुए हो। तुम किसी दूसरे जैसे होने को पैदा नहीं हुए हो। तुम तो बस तुम ही होने को पैदा हुए हो। बहुत से आकर्षण आएंगे जीवन में, लेकिन उन आकर्षणों को समझना, सीखना, लेकिन उन जैसे होने की कोशिश मत करना। उन सब आकर्षणों को, श्रद्धाओं को, प्रेमों को आत्मसात कर लेना, लेकिन बनना तो तुम तुम जैसे ही।
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रिंझाई का गुरु मर गया था तो लोगों में बड़ी चर्चा थी। गुरु रिंझाई को उत्तराधिकारी बना गया था, और रिंझाई गुरु जैसा बिलकुल नहीं था। एक दिन लोग इकट्ठे हुए, और उन्होंने कहा कि तुम तो अपने गुरु जैसे बिलकुल ही नहीं हो। न तुम्हारा व्यवहार वैसा है, न तुम्हारा आचार वैसा है, तो तुम कैसे उत्तराधिकारी हो ? किस आधार पर तुम्हें गुरु ने उत्तराधिकार दिया, यह हमारी समझ के बाहर है।
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तो रिंझाई ने कहा, मेरे गुरु भी उनके गुरु जैसे नहीं थे और मैं भी उन जैसा नहीं हूं। यही मेरे शिष्यत्व का अधिकार है। न मेरे गुरु किसी जैसे थे और न मैं अपने गुरु जैसा हूं। यही मेरे और मेरे गुरु में समानता है। यहीं से हम जुड़े हैं। इसलिए अपने जैसे शिष्यों को तो उन्होंने चुना नहीं; मुझे चुना है।
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क्योंकि उनके जैसे जो शिष्य हो गए थे वे तो नकली हो गए, वे कार्बन कापी हो गए। उनकी प्रामाणिकता खो गई। उनकी अपनी कोई आत्मा न रही। वे उधार हो गए। उनका जीवन बाहर से नियंत्रित हो गया। किसी दूसरे की प्रतिमा के अनुसार उन्होंने अपना आयोजन कर लिया। उनका जीवन भीतर से नहीं फूटा; उन्होंने जीवन को बाहर से सीख लिया। वह अभिनय है; वह जीवन की वास्तविक खिलावट नहीं है।
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आत्मा भीतर से बाहर की तरफ खुलती है; अनुकरण बाहर से भीतर की तरफ जाता है। अनुकरण तुम्हें नकली बना देगा। इसलिए बड़ी नाजुक बात है। सब सीखना, नकल मत सीखना। हालांकि नकल सरल है, और सब कठिन है। नकल बिलकुल आसान है; छोटे बच्चे कर लेते हैं; बंदर कर लेते हैं। आदमी की कोई गरिमा नहीं है नकलची होने में कोई बड़ा गौरव नहीं है। सरल है इसलिए प्रलोभन है।
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तुम ठीक मेरे जैसे उठ-बैठ सकते हो। मेरे जैसा भोजन कर सकते हो। मेरी जैसी बात कर सकते हो। उससे क्या होगा ? उससे तुम किसी ऊंचाई को न पहुंच जाओगे। बल्कि जिस ऊंचाई पर तुम पहुंचने को पैदा हुए थे, उससे वंचित हो जाओगे। नाजुक है बात, क्योंकि जो भी हमें प्रीतिकर लगते हैं, मन कहता है उन्हीं जैसे हो जाएं। इस प्रलोभन से बच जाना सबसे बड़ा काम है साधक के लिए।
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गुरु से भी सावधान होना जरूरी है। कहीं ऐसा न हो कि तुम उसके प्रभाव में इतने प्रभावित हो जाओ कि तुम अपनी नियति की जो गति थी उसे छोड़ दो और रास्ते से उतर जाओ। न तो मैं किसी जैसा हूं, न तुम्हें मेरे जैसे होने की कोई जरूरत है। दूसरी बात, दूसरे जैसा होना हो तो चेष्टा करनी पड़ती है। स्वयं जैसे होने के लिए क्या चेष्टा करनी पड़ेगी ? स्वयं जैसे तो तुम हो ही।
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लेकिन तुमने कभी अपने को प्रेम नहीं किया। तुमने कभी अपनी आत्मा को कोई सम्मान भी नहीं दिया। तुमने कभी अपनी गरिमा को स्वीकार ही नहीं किया। और सब धर्म, सब संस्कृतियां, सभ्यताएं, तुम्हें आत्म-निंदा सिखाते हैं। वे कहते हैं, तुम जैसा बुरा और कौन ! साधु-संतों को सुनने जाओ, उनकी सारी चर्चा तुम्हारी निंदा से भरी है।
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तुम कीड़े-मकोड़े हो, तुम नारकीय हो। तुम में जो कुछ है सब निंदा योग्य है। तुम में ऐसा कुछ भी नहीं है जो स्वीकार के योग्य हो। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर है, तुम चारों तरफ नरक से घिरे हो। तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी सिर्फ तुम्हारी निंदा ही कर रहे हैं। और सब तरफ से तुम्हें निंदा मिलती है। धीरे-धीरे तुम आत्मनिंदा से भर जाते हो। फिर तुम किसी और जैसे होना चाहते हो।
.
यह एक गहरा षडयंत्र है। जब तक तुम्हें तुम्हारी निंदा से न भरा जाए तब तक कोई भी व्यक्ति तुम्हारा अगुआ, नेता, गुरु न बन पाएगा। तो जिनको अगुआ, नेता, गुरु बनना है, वे पहले तुम्हारी ही निंदा करेंगे। वे पहले तुम्हें डगमगा देंगे; वे पहले तुम्हें हिला देंगे; तुम्हारे पैरों के नीचे की जमीन खींच लेंगे। जब तुम बिलकुल कंप जाओगे, डरने लगोगे, घबरा जाओगे, अपने चारों तरफ नरक ही नरक दिखाई पड़ने लगेगा, तब तुम किसी के पैर पकड़ लोगे।
.
इसी तरह तो इतने गुरु फ़लते-फुलते हैं। हजारों गुरुओं में कभी कोई एक गुरु होता है, नौ सौ निन्यानबे तो केवल तुम्हारी आत्मनिंदा से जीते हैं। तुमको भयभीत कर देते हैं, तुम्हें अपराध-भाव से भर दिया, अब तुम्हें पूछना ही पड़ेगा-- मार्ग क्या है? अब तुम्हें नकल करनी ही पड़ेगी। क्योंकि तुम गलत हो और वह सही है।
.
मेरे पास तुम हो। तो मैं तुमसे यहां यह कहने को नहीं हूं कि मैं सही हूं और तुम गलत हो। मैं तुम्हें जरा भी तुम्हारे होने से नहीं डिगाना चाहता। मैं तो चाहता हूं कि तुम अपने होने में पूरी तरह से थिर हो जाओ। तुम्हारे भीतर का दीया जरा भी न कंपे; कितने ही बड़े झंझावात उठें, तुम अकंप रह सको। मैं तुम्हें तुम्हारे होने को मजबूत करना चाहता हूं। मैं तुम्हें और कोई अनुशासन नहीं देता, एक ही अनुशासन देता हूं कि तुम सदा सचेत रहना और अपने जैसे होने में लगे रहना।
.
जो तुम्हारी निंदा करे, उसे तुम शत्रु समझना। वह शत्रु है, क्योंकि वह हीनता पैदा करेगा। और हीनता एक दफा पैदा हो गई कि तुम किसी का अनुसरण करोगे--कोई आदर्श, कोई प्रतिमा--किसी के पीछे चलने लगोगे। यह सीधा सा गणित है। पहले आदमी को डरा दो। डर जाए तो वह मार्ग पूछता है। पहले उसे घबड़ा दो।
.
जो भी तुम्हारी निंदा करे, जो भी तुम से चाहे कि तुम किसी और जैसे हो जाओ, वहां से हट जाना। वह तुम्हारी हत्या करने को तत्पर है। हत्या बड़ी बारीक है, सूक्ष्म है। खून भी न बहेगा, और तुम कट जाओगे। कहीं आवाज भी न होगी, और तुम जन्मों-जन्मों के लिए भटक जाओगे।
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तुम स्वयं परमात्मा की कृति हो। तुम्हें सुधारने का कोई भी उपाय नहीं है। कोई जरूरत भी नहीं है। तुम्हें सुधारने वालों ने ही तुम्हें इस दुर्दशा में पहुंचा दिया है। तुम सिर्फ अपने प्रति जागो। तुम अपने भीतर उसे खोज लो जो परमात्मा का दान है, प्रसाद है। तुम अपने खजाने से थोड़े परिचित हो जाओ।
ओशो; ताओ उपनिषद

= १२१ =

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*दादू भीतर द्वन्दर भर रहे, तिनको मारैं नांहि ।*
*साहिब की अरवाह हैं, ताको मारन जांहि ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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एक कहानी कहना चाहता हूं। कहानी बिलकुल ही झूठी है। लेकिन जो वह कहती है वह एकदम सत्य है, सौ प्रतिशत सत्य है। दूसरे महायुद्ध के बाद की बात है। परमात्मा ने युद्ध में मनुष्य को मनुष्य के साथ जो करते देखा था उससे वह बहुत चिंतित था। लेकिन चिंता उस दिन उसकी परम हो गई थी जिस दिन उसके दूतों ने बताया कि मनुष्य-जाति अब तीसरे महायुद्ध की तैयारी में संलग्न है।
.
परमात्मा की आंखों में मनुष्य की इस विक्षिप्तता से आंसू आ गए थे और उसने तीन बड़े राष्ट्रों के प्रतिनिधियों को अपने पास बुलवाया था। इंग्लैंड, रूस और अमरीका के प्रतिनिधि बुलाए गए थे। परमात्मा ने उनसे कहाः मैं यह सुन रहा हूं कि तुम अब तीसरे महायुद्ध की तैयारी में लग गए हो ? क्या दूसरे महायुद्ध से तुमने कोई पाठ नहीं सीखा है ?
.
मैं वहां होता तो कहता कि मनुष्य-जाति सदा ही पाठ सीखती रही है। पहले महायुद्ध से दूसरे महायुद्ध के लिए पाठ सीखा था ! अब दूसरे से तीसरे के लिए ज्ञान पाया है ! लेकिन मैं वहां नहीं था और इसलिए जो परमात्मा से नहीं कह सका, वह आपसे कहे देता हूं।
.
परमात्मा ने अपनी सदैव की आदत के अनुसार फिर उनसे कहाः मैं तुम्हें एक-एक मनचाहा वरदान दे सकता हूं, यदि तुम यह आश्वासन दो कि इस आत्मघाती वृत्ति से बचोगे। दूसरा महायुद्ध ही काफी है। मैं मनुष्य को बना कर बहुत पछता लिया हूं, अब बुढ़ापे में मुझे और मत सताओ। क्या तुम्हें पता नहीं है कि मनुष्य को बनाकर मैं इतने कष्टों में पड़ गया कि फिर उसके बाद मैंने कुछ भी निर्मित नहीं किया है ?
.
मैं वहां होता तो कहता, हे परमात्मा ! यह बिलकुल ही ठीक है। दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है। लेकिन मैं वहां नहीं था ! अमरीका के प्रतिनिधि ने कहाः हे परमपिता! हमारी कोई बड़ी आकांक्षा नहीं है। एक छोटी सी हमारी कामना है। वह पूरी हो जाए तो तीसरे महायुद्ध की आवश्यकता ही नहीं है।
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परमात्मा क्षण भर को प्रसन्न दिखाई पड़ा था। लेकिन जब अमरीका के प्रतिनिधि ने कहा, पृथ्वी तो हो लेकिन पृथ्वी पर रूस का कोई नामोनिशान न रह जाए--बस छोटी सी और एकमात्र यही हमारी कामना है। तो वह पुनः ऐसा उदास हो गया था जैसा कि मनुष्य को बना कर भी उदास न हुआ होगा। निश्चय ही मनुष्य अपने बनाए जाने का पूरा-पूरा बदला ले रहा था !
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फिर परमात्मा ने रूस की तरफ देखा। रूस के प्रतिनिधि ने कहाः कामरेड ! पहली बात तो यह कि हम मानते नहीं कि आप हैं। बरसों हुए हमने अपने महान देश से आपको सदा के लिए विदा कर दिया है। वह भ्रम हमने तोड़ दिया है जो कि आप थे। लेकिन नहीं, हम पुनः आपकी पूजा कर सकते हैं, और उजड़े और वीरान पड़े चर्चों और मंदिरों तथा मस्जिदों में फिर आपको रहने की भी आज्ञा दे सकते हैं। पर एक छोटा सा काम आप भी हमारा कर दो।
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दुनिया के नक्शे पर हम अमरीका के लिए कोई रंग नहीं चाहते हैं। ऐसे यदि यह आपसे न हो सके तो चिंतित होने की भी कोई बात नहीं। देर-अबेर हम स्वयं बिना आपकी सहायता के भी यह कर ही लेंगे। हम बचें या न बचें लेकिन यह कार्य तो हमें करना ही है। यह तो एक ऐतिहासिक अनिवार्यता है जिसे कि सर्वहारा के हित में हमें करना ही पड़ेगा। मनुष्य का भविष्य अमरीका की मृत्यु में ही निहित है।
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और फिर आंसुओं में डूबी आंखों से परमात्मा ने इंग्लैंड की ओर देखा। और इंग्लैंड के प्रतिनिधि ने क्या कहा ? क्या आप कल्पना भी कर सकते हैं ? नहीं। नहीं, उसकी कल्पना कोई नहीं कर सकता है। क्योंकि वह बात ही ऐसी अद्वितीय है। इंग्लैंड के प्रतिनिधि ने कहाः हे महाप्रभु, हमारी अपनी कोई आकांक्षा नहीं है। बस दोनों मित्रों की आकांक्षाएं एक ही साथ पूरी कर दी जाएं, तो हमारी आकांक्षा अपने आप ही पूरी हो जाती है।
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ऐसी स्थिति है। क्या यह कहानी झूठी है ? लेकिन इससे सच्ची कहानी और क्या हो सकती है ? और यह किसी एक राष्ट्र की बात नहीं है, सभी राष्ट्रों की बात है।
ओशो : शिक्षा में क्रांति