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*निर्मल गुरु का ज्ञान गहि, निर्मल भक्ति विचार ।*
*निर्मल पाया प्रेम रस, छूटे सकल विकार ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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१८८४ ई. की रथयात्रा के दिन कलकत्ते में श्रीरामकृष्णदेव के साथ पण्डित शशधर का साक्षात्कार हुआ । नरेन्द्र वहाँ पर उपस्थित थे । श्रीरामकृष्ण ने पण्डितजी से कहा, "तुम जनता के कल्याण के लिए भाषण दे रहे हो, सो भली बात है । परन्तु भाई, भगवान के निर्देश के बिना लोकशिक्षा नहीं होती । होगा यह कि लोग दो दिन तुम्हारा भाषण सुनेंगे, उसके बाद भूल जायेंगे ।
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हलदारपुकुर के किनारे पर लोग शौच को जाते थे । लोग गाली-गलौज करते थे, परन्तु कुछ परिणाम न हुआ । अन्त में सरकार ने जब एक नोटिस लगा दिया, तब कहीं लोगों का वहाँ पर शौच जाना बन्द हुआ । इसी प्रकार ईश्वर का आदेश पाये बिना लोक-शिक्षा नहीं होती ।"
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इसलिए नरेन्द्र ने गुरुदेव की बात को मानकर संसार छोड़ दिया था और एकान्त में गुप्त रूप से बहुत तपस्या की थी । उसके बाद उन्हीं की शक्ति से शक्तिशाली बनकर, इस लोकशिक्षा के व्रत को ग्रहण कर उन्होंने कठिन प्रचार कार्य प्रारम्भ किया था ।
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काशीपुर में जिस समय (१८८६ ई.) श्रीरामकृष्ण रुग्ण थे, उस समय उन्होंने एक कागज पर लिखा था, "नरेन्द्र शिक्षा देगा ।"
स्वामी विवेकानन्द ने अमरीका से मद्रास-निवासियों को जो पत्र लिखा था, उनमें उन्होंने लिखा था कि वे श्रीरामकृष्ण के दास हैं, उन्हीं के दूत बनकर वे उनकी मंगल-वार्ता समग्र जगत् को सुना रहे हैं –
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"... जिनका सन्देश, भारत तथा समस्त संसार को पहुँचाने का सम्मान मुझ जैसे उनके अत्यन्त तुच्छ और अयोग्य सेवक को मिला है, उनके प्रति आपका आदरभाव सचमुच अपूर्व है । यह आपकी जन्मजात धार्मिक प्रवृत्ति है, जिसके कारण आप उनमें और उनके सन्देश में आध्यात्मिकता के उस प्रबल तरंग की प्रथम हलचल का अनुभव कर रहे हैं, जो निकट भविष्य में सारे भारतवर्ष पर अपनी सम्पूर्ण अबाध्य शक्ति के साथ अवश्यमेव आघात करेगा ।..."
- 'हिन्दू धर्म के पक्ष में' से उद्धृत
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मद्रास में दिये गये तीसरे व्याख्यान में उन्होंने कहा था, -
"... इस समय केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि यदि मैंने जीवन भर में एक भी सत्य वाक्य कहा है तो वह उन्हीं का(श्रीरामकृष्ण का)वाक्य है; पर यदि मैंने ऐसे वाक्य कहे हैं जो असत्य, भ्रमपूर्ण अथवा मानवजाति के लिए हितकारी न हो तो वे सब मेरे ही वाक्य हैं, उनके लिए पूरा उत्तरदायी मैं ही हूँ ।"
- 'भारत में विवेकानन्द' से उद्धृत
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कलकत्ते में स्वर्गीय राधाकान्त देव के मकान पर जब उनकी अभ्यर्थना हुई, उस समय भी उन्होंने कहा था कि 'श्रीरामकृष्णदेव की शक्ति आज पृथ्वी भर में व्याप्त है । हे भारतवासियों, तुम लोग उनका चिन्तन करो, तभी सब विषयों में उन्नति करोगे ।' उन्होंने कहा –
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"... यदि यह जाति उठना चाहती है, तो मैं निश्चयपूर्वक कहूँगा, इस नाम से सभी को प्रेमोन्मत्त हो जाना चाहिए । श्रीरामकृष्णदेव का प्रचार हम, तुम या चाहे जो कोई करे, इससे कुछ होना जाना नहीं, तुम्हारे सामने में इस महान् आदर्श-पुरुष को रखता हूँ, लो, अब विचार का भार तुम पर है । इस महान् आदर्श-पुरुष को लेकर क्या करोगे, इसका निश्चय तुम्हें अपनी जाति के कल्याण के लिए अभी कर डालना चाहिए । ..."
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"... उनके तिरोभाव के दस वर्ष के भीतर ही इस शक्ति ने सम्पूर्ण संसार घेर लिया है ...। मुझे देखकर उनका विचार न करना । मैं एक बहुत ही क्षुद्र यन्त्र मात्र हूँ । उनके चरित का विचार मुझे देखकर न करना । वे इतने बड़े थे कि मैं, या उनके शिष्यों में से कोई दूसरा, सैकड़ों जीवनों तक चेष्टा करते रहने पर भी उनके यथार्थ स्वरूप के एक करोड़वें अंश के बराबर भी न हो सकेगा । ..."
-'भारत में विवेकानन्द' से उद्धृत
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गुरुदेव की बात कहते कहते स्वामी विवेकानन्द एकदम पागल-से हो जाया करते थे । धन्य है वह गुरुभक्ति !
(क्रमशः)