शनिवार, 20 दिसंबर 2025

श्री दादूधाम का संवर्धन

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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१० आचार्य दिलेराम जी
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श्री दादूधाम का संवर्धन -
आचार्य दिलेरामजी महाराज जब से आचार्य पद पर विराजे थे तब से ही धार्मिक जनता में भ्रमण करते हुये श्रीदादूवाणी का प्रचार करते रहे थे । उन्होंने अपने उपदेशों द्वारा धर्म प्राण जनता से बहुत सम्मान पाया था । 
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वैसे आप बहुत उच्च कोटि के भजनानन्दी संत थे फिर भी आप इतने मिलनसार संत थे कि प्रत्येक के दु:ख की कहानी सुनकर उसे दु:ख निवृति का उपाय बता देते थे आपने अपने उपदेशों से असंख्य से असंख्य प्राणियों को भगवद् भक्ति में लगाया था । आप भ्रमण करते हुये अपने उपदेशों द्वारा जनता को मोह निद्रा से जगाते ही रहते थे । 
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आपकी यात्रा के समय जिन राजा महाराजाओं तथा विशिष्ट सज्जनों से आपका संपर्क हो जाता था, वे तो फिर आपका दर्शन सत्संग सदा ही चाहते रहते थे । आपके उपदेश का अच्छा प्रभाव पडता था । इसी कारण आपके द्वारा नारयणा दादूधाम का अच्छा संवर्धन हुआ था और आपके समय दादूपंथी समाज भी उन्नति की ओर बढ रहा था । 
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समाज में अच्छे - अच्छे संत साधक और भक्त अपने साधनों में बहुत उन्नति कर रहे थे । उक्त प्रकार आचार्य दिलेरामजी महाराज २० वर्ष २ मास ९ दिन आचार्य गद्दी पर विराज कर फाल्गुण कृष्णा २ रविवार वि. सं. १८९७ में ब्रह्मलीन हुये थे । आपकी समाधि रुप स्मारक छत्री नारायणा दादूधाम में ही है । 
समकालीन संतों की श्रद्धा - 
दोहा - जो निर्भय देखा नहीं, सौ दलपति देखे आय ।
स्वामी निर्भयराम की, देसी प्यास मिटाय ॥१॥
दलपति दिल दरियाव की, मोरी दीन्ही खोल । 
ज्ञानामृत बांटा अधिक, उसका मोल न तोल ॥२॥ 
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गुण गाथा -  
वर्धक दादूधाम के, दिलेराम महाराज । 
हुये प्रकट में दीखते, आज उन्हों के काज ॥१॥
दादू वाणी ज्ञान का, कीन्हा अधिक प्रचार ।  
घूम घूम कर देश में, सब दिशि बारम्बार ॥२॥
सदा सरलता साम्यता, रखते थे मन मांहिं । 
दिलेराम दिल में लखी, भेद भावना नांहिं ॥३॥
संत जनों से सदा ही, रखते थे अति प्रेम । 
शरणागत का स्नेह से, करते योग रु क्षेम ॥४॥
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मनहर - 
धन्य दिलेराम स्वामी दिल के अगाध अति,
दादू पाट बैठकर जगको जगाया था ।  
राणा राजा राव रंक रंजित किये थे सब,  
समभाव रखकर ज्ञानामृत पाया था ॥
संतन की रीति रख नीति से किये थे काम,
‘नारायणा’ दादूधाम सुयश बढाया था ।  
जोउ भेंट आती सोउ सेवा में लगाई सब,
दिलेराम ऐश्‍वर्य से लेश न लुभाया था ॥५॥
इति श्री अष्टम अध्याय समाप्त: ८
(क्रमशः)

*१४. दुष्ट को अंग ९/१२*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१४. दुष्ट को अंग ९/१२*
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दुष्ट धिजावै बहुत बिधि, आनि नवावै सीस । 
सुन्दर कबहुंक जहर दे, मारै बिसवा बीस ॥९॥
दुर्जन साधारण पुरुष को विश्वास दिलाने के अनेक प्रयास करता है । कभी वह उसके सम्मुख शिर झुकाता है, कभी वह उसको विष देकर मारने का प्रयास करने से भी नहीं चूकता ॥९॥
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दुष्ट करै बहु बीनती, होइ रहै निज दास । 
सुन्दर दाव परै जबहिं, तबहिं करै घट नास ॥१०॥
दुर्जन लोक में दिखाने के लिये किसी की कभी विनती करता है, उस की विविध प्रकार से सेवा करता है: परन्तु वह अवसर पाते ही उसकी हत्या करने से भी चूकता ॥१०॥
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दुष्ट घाट घरिबौ करै, घट मैं याही होइ । 
सुन्दर मेरी पासि मैं, आइ परै जे कोइ ॥११॥ 
दुर्जन किसी के प्रति मन में दुर्भावना रखते हुए दूसरे की हानि की बात ही सोचता रहता है । वह चाहता है कि कोई मेरी चाल(पाश=फन्दा) में एक बार आ जाय, फिर तो मैं उस का नाश कर ही दूँगा ॥११॥
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बात सुनौ जिनि दुष्ट की, बहुत मिलावै आंनि । 
सुन्दर मानै सांच करि, सोई मूरख जानि ॥१२॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - दुर्जन की बात कभी नहीं माननी चाहिये; भले ही वह कितना भी विश्वास दिलावे । जो उस की बातों पर विश्वास कर लेता है उसे संसार में सबसे बड़ा मूर्ख समझना चाहिये ॥१२॥
(क्रमशः) 

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2025

*१४. अथ दुष्ट को अंग ५/८*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१४. दुष्ट को अंग ५/८*
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देखी अनदेखी कहै, ऐसौ दुष्ट सुभाव । 
सुन्दर निशदिन परि गयौ, कहिबे ही कौ चाव ॥५॥
दुष्ट का यह स्वभाव होता है कि दूसरों की बात(घटना) को दूसरों से कहता रहता है, फिर भले ही वह बात उसने देखी हो या न देखी हो; क्योंकि एक से दूसरे की झूठी बात कहना(चुगली करना) उसका दैनिक स्थायी स्वभाव बन जाता है ॥५॥
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सुन्दर कबहुं न धीजिये, सरस दुष्ट की बात । 
मुख ऊपर मीठी कहै, मन मैं घालै घात ॥६॥
अतः श्रीसुन्दरदासजी महाराज कहते हैं - दुष्ट पुरुष की मधुरता से कही बात पर भी विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि वह मुख से भले ही मीठी बात कहता रहे, परन्तु उसके मन में द्वेषभाव ही भरा रहता है ॥६॥
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ब्याघ्र करै ज्यौं लुरखरी, कूकर आगै आइ । 
कूकर देखत ही रहै, बाघ पकरि ले जाइ ॥७॥
जैसे कोई व्याघ्र(बघेरा) किसी कुत्ते को लपट झपट करता हुआ देखते ही देखते उसे पकड़ लेता है, वैसे ही यह दुष्ट पुरुष भी सज्जन को अपनी चाल में फंसा ही लेता है ॥७॥
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सुन्दर काहू दुष्ट कौं, भूलि न धीजहु बीर । 
नीचै आगि लगाइ करि, ऊपर छिरकै नीर ॥८॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - अरे भाई ! किसी दुष्ट पुरुष का भूल कर भी विश्वास न करना; क्योंकि उस का यह स्वभाव है कि वह नीचे अग्नि लगा कर ऊपर से जल छिड़कने का अभिनय करता रहता है ॥८॥
(क्रमशः)  

खेतडी व सीतामऊ नरेशों का आना ~

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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१० आचार्य दिलेराम जी
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सवाई माधोपुर चातुर्मास ~
वि. सं. १८९३ में गोविन्ददासजी ने सवाई माधोपुर में चातुर्मास कराया । वह चातुर्मास भी अच्छा हुआ । सत्संग आदि में धार्मिक जनता ने बडी ही सुरुचि से भाग लिया । अंत में आचार्यजी के सहित सब संतों का भी अच्छा सत्कार करके विदा किया । 
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सांमलपुरा का कर माफ ~
वि. सं. १८९४ में जयपुर नरेश जी सांमलपुरा ग्राम का ५०) रु. वार्षिक कर लेते थे, उसे इस वर्ष जयपुर नरेश द्वारा स्वयं ही पट्टा लिखकर छोड दिया गया और छूटका पट्टा नारायणा दादूधाम में आचार्यजी के पास भेज दिया गया । 
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अन्यान्य चातुर्मास ~ 
१८९४ में रामधनजी मारोठियों के चातुर्मास किया । रामधनजी रुपनगढ के निवासी थे । अत: यह चातुर्मास रुपनगढ ही हुआ होगा । इसी वर्ष आचार्यजी का स्वास्थ्य शिथिल हो गया था । अत: आचार्यजी ने अपने ज्येष्ठ शिष्य रामबगसजी को उनकी इच्छा न होने पर भी अपना उत्तराधिकारी बनाकर पूजा बांट दी थी । वि. सं. १८९५ में नरोत्तमदासजी के भिडवाडा में चातुर्मास किया । वि. सं. १८९६ में उग्रावास में नारायणदासजी के चातुर्मास किया गया । वह चातुर्मास भी अच्छा रहा । 
खेतडी व सीतामऊ नरेशों का आना ~ 
वि. सं. १८९६ में ही खेतडी नरेश तथा सीतामऊ नरेश आचार्य दिलेरामजी के दर्शन करने नारायणा दादूधाम में आये । दोनों नरेशों ने अति प्रेम से आचार्यजी को भेंट रखकर प्रणाम किया फिर सामने बैठकर सत्संग किया । दोनों नरेशों ने एक एक दिन सब संतों के सहित आचार्यजी को रसोई दी और आचार्यजी के सहित सभी संतों का वस्त्र भेंट आदि के द्वारा बहुत सत्कार किया । 
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तथा सदाव्रत के लिये भी दोनों ने ही धन दिया था । दोनों नरेश नारायणा दादूधाम, आचार्यजी तथा सब संतों का दर्शन, सत्संग करके अति प्रसन्न हुये । इसी प्रकार अन्य नरेश भी समय - समय पर आते ही रहते थे और सभी दादूधाम तथा संतों के दर्शन से आनन्द ही मिलता था । 
(क्रमशः)

गुरुवार, 18 दिसंबर 2025

महाराणा जवानीसिंह जी

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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१० आचार्य दिलेराम जी
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यह उदयपुर का चातुर्मास बहुत ही सुन्दर हुआ । चातुर्मास में जो - जो होते हैं वे सभी कार्यक्रम इस चातुर्मास में अच्छी रीति से होते रहे । प्रात: दादूवाणी की कथा, मध्यदिन में विद्वान् संतों के भाषण सायंकाल आरती, नाम संकीर्तन, जागरण आदि में धार्मिक जनता अच्छा भाग लेती रही । 
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संत सेवा भी यहां पर श्‍लाघनीय होती रही । चातुर्मास के समय में महाराणा जवानीसिंह जी आचार्यजी के पास पांच बार आये । जब आते थे तब ही आचार्य जी को भेंट चढा प्रणाम करके आचार्य जी के सामने बैठकर ज्ञान चर्चा करते थे । 
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एक दिन महाराणा ने संत मंडल के सहित आचार्यजी को राजमहल में बुलाकर भोजन कराने की योजना बनाई । आचार्यजी तथा शिष्य मंडल को सत्कार के साथ राजमहल में ले जाकर भोजन कराया । भोजन करते समय राजराणियों ने तथा अन्य अन्त:पुर की माताओं ने अटारियों से जीमते समय संत मंडल का श्रद्धा से दर्शन किया फिर महाराणा ने आचार्यजी को भेंट दी और अन्य संतों का भी अच्छा सत्कार किया । फिर सबको बगीचे में पहुंचा दिया ।
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चातुर्मास की समाप्ति पर आचार्यजी उदयपुर से पधारने लगे तब आश्‍विन कृष्णा १२ को आचार्यजी को सम्मान सहित राज दरबार में बुलाया और महाराणा जवानीसिंह जी ने आचार्यजी की पूजा करके १०००) रु. भेंट किये । दीवान शेरसिंहजी ने भी स्वर्ण मुद्रा भेंट की और सत्कार सहित पुन: आसन पर पहुंचा दिया । 
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उदयपुर की धार्मिक जनता ने भी संत मंडल के सहित आचार्यजी का बहुत सत्कार किया । फिर राजा, प्रजा ने अपने प्रिय आचार्यजी को संत मंडल के सहित भाव पूर्वक बिदा किया । पश्‍चात् संत मंडल के सहित आचार्यजी मार्ग की धार्मिक जनता का अपने दर्शन, सत्संग से कल्याण करते हुये नारायणा दादूधाम में पधार गये ।
(क्रमशः)  

*१४. अथ दुष्ट को अंग १/४*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१४. अथ दुष्ट को अंग १/४*
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सुन्दर बातें दुष्ट की, कहिये कहा बखांनि । 
कहें बिना नहिं जानियें, जिती दुष्ट की बांनि ॥१॥ 
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - दुष्ट पुरुष के कुकृत्यों का वर्णन कहाँ तक किया जाय ! परन्तु बताये बिना कोई(सरल पुरुष) उसके स्वभाव से परिचित भी कैसे होगा ! ॥१॥
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अपने दोष न देखई, पर कै औगुन लेत । 
ऐसौ दुष्ट सुभाव है, जन सुन्दर कहि देत ॥२॥ 
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - दुष्ट पुरुष का ऐसा स्वभाव होता है कि वह दूसरों के ही दोष देखता है, अपने दोष नहीं देखता । दुष्ट का यह स्वभाव ही होता है ॥२॥
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सुन्दर दुष्ट स्वभाव है, औगुन देखै आइ । 
जैसैं कीरी महल मैं, छिद्र ताकती जाइ ॥३॥
दुष्ट पुरुष का यह भी स्वभाव होता है कि वह दूसरों के दोष ही देखता है, उन के गुण नहीं देखता । जैसे कीड़ी किसी विशाल, सुन्दर महल में जा कर भी उस में छिद्र ही खोजती रहती है ॥३॥
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सूझत नांहिं न दुष्ट कौं, पांव तरै की आगि । 
औरन के सिर पर कहै, सुन्दर वासौं भागि ॥४॥ 
दुष्ट पुरुष को अपने पैरों के नीचे जलती हुई अग्नि नहीं दिखायी देती; हाँ, दूसरों के शिर पर जलती हुई अग्नि को देख कर चिल्लाता है - 'अरे इस अग्नि से बचो' ॥४॥
(क्रमशः) 

मंगलवार, 16 दिसंबर 2025

जयपुर पधारना ~

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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१० आचार्य दिलेराम जी
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जयपुर पधारना ~ 
वि. सं. १८८९ आषाढ शुक्ला १२ को अपने शिष्य मंडल के सहित आचार्य दिलेरामजी महाराज जयपुर पधारे । अपनी मर्यादा के अनुसार जयपुर नरेश को अपने आने की सूचना दी । तब दारोगा स्वरुपचंदजी हाकिम ढ्यौढी, राजा की आज्ञा से हाथी, निशान, नक्कारा आदि पूरा लवाजमा लेकर अगवानी के लिये आये और जयपुर राज्य की मर्यादा के अनुसार भेंट चढाकर प्रणाम किया । 
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हाथी पर आचार्य जी को बैठाकर बाजे बजाते हुये बडे ठाट बाट से लेकर चले । साथ में संत मंडल और भक्त मंडल संकीर्तन करते जा रहे थे । उक्त प्रकार अति आनन्द के साथ नगर के मुख्य - मुख्य भागों से होते हुये नियत स्थान में ले जाकर ठहराया ।
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भाद्र कृष्णा ६ को श्रीमती राज माता जी ने रसोई दी और अपनी मर्यादा के अनुसार भेंट भेजी । आश्‍विन शुक्ला ८ को आचार्यजी के दर्शन करने जयपुर नरेश सवाई जयसिंह जी आये । आचार्यजी के भेंट चढाकर प्रणाम की फिर बहुत देर तक आचार्यजी से ज्ञान चर्चा करते रहे । पश्‍चात् प्रणाम करके राजमहल को चले गये ।
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उदयपुर(मेवाड) चातुर्मास ~ 
वि. सं. १८९२ के चातुर्मास के लिये उदयपुर महाराणा जवानीसिंह जी ने निमंत्रण दिया था । अत: आचार्य दिलेरामजी महाराज अपने शिष्य मंडल के सहित आषाढ शुक्ला ९ मी को उदयपुर पहुँचे और नगर के बाहर ठहर कर महाराणा जवानीसिंह जी राजकीय ठाट बाट के सहित आचार्य दिलेरामजी की अगवानी करने आये । 
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भेंट चढाकर प्रणाम की फिर आवश्यक प्रश्‍नोत्तर के पश्‍चात् अति आदर के सहित ले जाकर सुन्दर तथा एकान्त स्थान में ठहराया और चातुर्मास संबन्धी सब प्रकार की सेवा का सुचारु रुप से प्रबन्ध कर दिया गया । और एक मंत्री को आचार्य जी सहित संत मंडल की प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति के लिये नियुक्त कर दिया गया
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और आचार्यजी को कह दिया गया कि किसी भी संत को कोई आवश्यकता हो तो इन मंत्रीजी को कहें, यह उसकी तत्काल पूर्ति कर देंगे । फिर महाराणा जवानीसिंह जी ने कहा जब समय मिलेगा तब मैं भी दर्शन सत्संग के लिये आपकी सेवा में उपस्थित होता रहूंगा । ऐसा कहकर महाराणा राजभवन को चले गये ।
(क्रमशः) 

*१३. देह मलिनता गर्ब प्रहार कौ अंग २३/२५*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१३. देह मलिनता गर्ब प्रहार कौ अंग २३/२५*
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कबहूं पेट पिरातु है, कबहूं मांथै सूल । 
सुन्दर ऐसी देह यह, सकल पाप का मूल ॥२३॥
कभी कोई उदर रोग(पेट में पीड़ा) या कभी शिरःशूल हो जाता है । इस प्रकार यह देह समस्त पापों की जड(मूल) है ॥२३॥
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सुन्दर कबहूं कान मैं, चीस उठै अति दुःख ।
नैंन नाक मुख मैं बिथा, कबहूं न पावै सुक्ख ॥२४॥  
इस में, कभी कान में तीक्ष्ण पीडा(चीस) होने लगती है, कभी नाक में या कभी नेत्रों में पीडा होने लगती है । इस प्रकार कोई भी प्राणी, शरीर के रहते हुए, सुख नहीं पा सकता ॥२४॥
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स्वास चलै खांसी चलै, चलै पसुलिया बाव । 
सुन्दर ऐसी देह मैं, दुखी रंक अरु राव ॥२५॥
इति देह मलिनता गर्ब प्रहार कौ अंग ॥१३॥
इस देह के रोगों को कहाँ तक गिनाया जाय, इस देह में कभी खांसी(कास रोग) और कभी सांस(स्वास रोग) उठने लगता है । कभी पसुलियों में दर्द होने लगता है । श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - ऐसे इस रोगमय देह कारण, राजा से रङ्क तक सभी कष्ट पाते हैं ॥२५॥
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देह मलिनता गर्ब प्रहार का अंग सम्पन्न ॥१३॥
(क्रमशः) 

सोमवार, 15 दिसंबर 2025

वाणी प्रचार ~

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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१० आचार्य दिलेराम जी
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वाणी प्रचार ~
आचार्य दिलेरामजी महाराज प्रतिवर्ष ही भक्तों की प्रार्थना से रामत करते हुये श्री दादूवाणी का प्रचार ही करते थे । भ्रमण में अधिकतर दादूवाणी का ही प्रवचन हुआ करता था । चातुर्मास जहां जाते थे वहां भी प्रात: काल तो नियम से ही श्रीदादू वाणी की कथा होती थे । 
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मध्य दिन में अन्य ग्रंथों के प्रवचन भी होते थे किन्तु मुख्यत: वाणी प्रचार ही किया जाता था । अलवर राज्य के पास आप चले जाते थे, तब ही अलवर नरेश दर्शन करने आते थे और स्वर्ण मुद्रा चढाकर प्रणाम करते थे और बहुत स्वागत करते थे । आचार्य दिलेरामजी महाराज वाणी प्रचार का उद्देश्य लेकर ही भ्रमण करते थे । 
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अलवर पधारना ~ 
वि. सं. पौष शुक्ला १३ को अलवर नरेश के निर्माण देकर बुलाने  पर आचार्य दिलेरामजी महाराज अपने शिष्य मंडल के सहित अलवर पधारे थे । इसी वर्ष अलवर नरेश के पुत्र भी हुआ था । हो सकता है इसीलिये बुलाया हो । अलवर नरेश को अपने आने की सूचना भेजी । 
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सूचना मिलते ही अलवर नरेश अपने राजकीय स्वागत सत्कार के साधनों को लेकर सामन्तों तथा भक्त जनता के साथ वाद्य बजाते संकीर्तन करते हुये आचार्य जी की अगवानी करने गये । अपनी कुल परंपरा के अनुसार भेंट चढाकर प्रणाम किया । 
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आवश्यक प्रश्‍नोत्तरों के पश्‍चात् आचार्यजी की हाथी पर बैठा कर बाजे गाजे के साथ ठाट बाट से संकीर्तन करते हुये नगर के मुख्य - मुख्य भागों से जनता को आचार्यजी तथा संत मंडल का दर्शन कराते हुये नियत स्थान पर ले जाकर ठहराया । सेवा की व्यवस्था सुचारु रुप से कर दी गई । 
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प्रतिदिन नियत समयों पर सत्संग होने लगा । प्रात: दादूवाणी की कथा, मध्यदिन में विद्वान् संतों के भाषण, सायंकाल आरती संकीर्तन । राजा तथा प्रजा ने सत्संग में अच्छा भाग लिया । अलवर नरेश जब भी आने थे तब आचार्यजी के सामने साधारण आसन पर बैठकर भाषण सुनते थे । 
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नियत समय तक ठहर कर आचार्यजी जाने लगे तब अलवर नरेश ने आने जाने का सब खर्च देकर अपनी कुल परंपरा के अनुसार आचार्यजी को सप्रेम भेंट की और संत मंडल का भी अच्छा सम्मान किया । फिर अति सम्मान के सहित राजा तथा धार्मिक जनता ने आचार्यजी को विदा किया ।
(क्रमशः) 

*१३. देह मलिनता गर्ब प्रहार कौ अंग २०/२२*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१३. देह मलिनता गर्ब प्रहार कौ अंग २०/२२*
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सुन्दर कबहूं फुनसली, कबहूं फोरा होइ । 
ऐसी याही देह मैं, क्यौं सुख पावै कोइ ॥२०॥
कभी इसमें कहीं छोटी फुन्सी(पिडिका) हो जाती है, तो कभी बड़ा व्रण(फोड़ा) । ऐसे दुःखदायी देह के रहते कोई क्या सुख पा सकता है ! ॥२०॥
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कबहूं निकसै न्हारवा, कबहूं निकसै दाद । 
सुन्दर ऐसी देह यहु, कबहुं न मिटै विषाद ॥२१॥
कभी इस शरीर में न्हारवा२ निकल आता है, कभी इस में कहीं दाद३ हो जाता है । श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - यह देह तो ऐसी है कि इस में कष्टों का अन्त ही नहीं होता ॥२१॥ 
(२ न्हारवा - राजस्थान में यह रोग बहुत होता है । इस में शरीर के अधोभाग में फुंसी हो जाती हैं, उनमें से मोटे धागे के समान पतले पतले सफेद कीड़े निकलने लगते हैं । इसे ‘नहारुवा’ भी कहते हैं । ३ दाद - एक चर्म रोग । इस में गोल चक्रक के रूप में फुंसियाँ होती हैं । उनमें खुजली बहुत होती है ।)
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सुन्दर कबहूं ताप ह्वै, कबहूं ह्वै सिरवाहि । 
कबहूं हृदय जलनि ह्वै, नख शिख लागै भाहि ॥२२॥
कभी इसमें ज्वर रोग हो जाता है, कभी कोई शिरोरोग । कभी हृदय में ऐसी जलन होने लगती है कि नख से शिखा तक शरीर के सभी अंग तडपने लगते हैं ॥२२॥
(क्रमशः) 

रविवार, 14 दिसंबर 2025

*१३. देह मलिनता गर्ब प्रहार कौ अंग १७/१९*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१३. देह मलिनता गर्ब प्रहार कौ अंग १७/१९*
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सुन्दर बहुत बलाइ है, पेट पिटारी मांहिं । 
फूल्यौ माइ न खाल मैं, निरखत चालै छांहिं ॥१७॥ 
तेरे इस शरीर के पेटरूप पिटारी में मल मूत्र आदि बहुत सी गन्दी वस्तुएँ भरी पड़ी हैं । जब कि तूं इस की बाह्य सुन्दरता पर मुग्ध होकर अभिमानपूर्वक अपनी छाया देखता हुआ टेढा टेढा चल रहा है ! ॥१७॥
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सुन्दर रज बीरज मिलै, महा मलिन ये दोइ । 
जैसौ जाकौ मूल है, तैसौ ई फल होइ ॥१८॥
रे मानव ! तूँ जानता ही है कि तेरे इस शरीर की उत्पत्ति रज एवं वीर्य के मलिन संयोग से हुई है । तो भाई ! जिस का जैसा मूल(बीज) होगा वैसा ही उससे फल भी उत्पन्न होगा१ ॥१८॥ {१ इस साषी के विस्तृत अर्थज्ञान के लिये द्रष्टव्य - सवैया ग्रन्थ के इसी अंग का ५वाँ छन्द (पृ. ७८)}
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सुन्दर मलिन शरीर यह, ताहू मैं बहु ब्याधि । 
कबहूं सुख पावै नहीं, आठौ पहर उपाधि ॥१९॥
देह में विविध रोग : पहले तो तेरा यह ऐसा मलिन शरीर, ऊपर से इसमें समय समय पर विविध रोगों की उत्पत्ति; जिन के कारण तूँ कभी सुख से नहीं बैठ पाता । दिन रात(आठों पहर) किसी न किसी संकट से ही घिरा रहता है । ऐसे सङ्कट एवं दुःखों के आश्रयस्थल(देह) पर क्या गर्व करना ! ॥१९॥
(क्रमशः) 

विद्वानों के भाषण

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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१० आचार्य दिलेराम जी
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नारायणा दादूधाम में उक्त मंदिर विशाल तथा सुन्दर बना हुआ है । नारायणा नगर में यही दर्शनीय स्थान माना जाता है । इसके प्रथम द्वार के पास ही सुन्दर सरोवर है । इस मंदिर के दर्शन करने भारत के कौने २ से साधु संत तथा सभी समाजों के सज्जन प्रतिदिन आते ही रहते हैं । 
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अति श्रद्धा पूर्वक दर्शन करके प्रसन्न होते हैं । नारायणा दादूधाम में फाल्गुण शुक्ला पंचमी से एकादशी तक दादू जी के आविर्भाव के दिन के उपलक्ष में मेला भरता है तब हजारों दादूपंथी तथा अन्य समाजों के सज्जन भी बहुत आते हैं । अन्य समाजों के संत भी आते हैं । 
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इस मेले में मंदिर दर्शन, खेजडा दर्शन, गरीब गुहा दर्शन, छत्रियों के दर्शन, आचार्य व संत दर्शन का उत्तम लाभ यात्रीगण प्राप्त करते हैं और विरक्तों की बारहदरी में जागरण तथा सत्संग होता है । खेजडाजी के जागरण तथा सत्संग होता है, गरीबदासजी के स्थान पर जागरण होता है । 
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मुख्य मंदिर में जागरण होता है तथा सत्संग प्रतिदिन होता है । आचार्यजी की बारहदरी में जागरण होता है । उक्त प्रकार पंचमी से एकादशी तक पांच तो जागरण होते हैं जिनमें उच्च कोटि के अनेक गायक आते हैं । मुख्य मंदिर का जागरण अष्टमी को बहुत ही सुन्दर होता है । अनेक स्थानों में संकीर्तन भी होते हैं । धार्मिक जनता के लिये सप्ताह सत्संग रुप ही होता है । 
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रात्रिको विद्वानों के भाषण भी होते हैं । श्रद्धालु मंदिर में भेंट चढाते हैं । खेजडा जी तथा छत्रियों के प्रसाद चढा - चढा कर बांटते रहते हैं । पर्वों पर हिन्दू जनता अपने बालकों के जडूले उतारने आती रहती है । यह धाम दादू पंथियों का मुख्य तीर्थ है । मंदिर निर्माण के समय आदि का विवरण मंदिर की पेड़ियों के पास खडे हुये कीर्ति स्तभं के शिला लेख से मिल जाता है ।
(क्रमशः)  

शनिवार, 13 दिसंबर 2025

महाकडाव निर्माण ~

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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१० आचार्य दिलेराम जी
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महाकडाव निर्माण ~ 
उक्त प्रकार नारायणा दादूधाम में विशाल मंदिर का निर्माण कार्य संपन्न हुआ । मंदिर के लिये जो धन ठंडेरामजी पटियाला वालों(पंजाब) ने दिया था उसमें से कुछ बच गया था । उससे भंडारी अखैरामजी ने नागौर में लोहे का एक विशाल कडाव बनवाया । कारण उस समय संत संख्या बहुत थी इस लिए बडे बर्तन की आवश्यकता थी । 
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उक्त कडाव जब बन गया तब उसको नारायणा दादूधाम में पहुँचाने की व्यवस्था जोधपुर नरेश ने की थी । उसके लिये एक बडा छकडा बनवाकर प्रत्येक ग्राम से बेगार में बैलों को बदलते हुये नारायणा दादूधाम में पहुँचाया । जो आज भी दादू मंदिर के पीछे है जहां पंक्ति लगती है । 
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उसमें से छत्रियों को जाने वाले मार्ग के पास दक्षिण की ओर ऊंधा पडा है । इस समय वह काम नहीं आता है । केवल रुप में रखा है । दो कडाव बनाये थे ऐसा भी मैंने एक पत्र में लिखा देखा है । हो सकता है दूसरा बडे कडाव से छोटा होगा और काम में आता होगा ।  
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मंदिर में वाणी प्रतिष्ठा व सत्संग ~
उक्त मंदिर बन जाने पर उसमें दादूजी की वाणी जो दादूपंथी समाज में दादूजी का स्वरुप ही माना जाता है । उसकी सविधि प्रतिष्ठा  समाज ने मिलकर की । इस मंदिर में प्रात: पूजा सामग्री से श्री दादूवाणी की पूजा होती है । पश्‍चात् आचार्यजी नारायणा दादूधाम में होते हैं तब दादूवाणी की कथा होती है । 
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कथा में आचार्यजी पधारते हैं । कथा आचार्य जी या अन्य कोई विद्वान संत करते हैं । कथा के पश्‍चात् संतों के पद गाये जाते हैं फिर प्रसाद वितरण करके सत्संग सभा समाप्त कर दी जाती है । कथा से उठकर आचार्य जी विशेष व्यक्तियों के साथ मंदिर से खेजडा जी के दर्शन करने जाते हैं । 
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फिर मंदिर की परिक्रमा करते हुये आचार्यों की स्मारक छत्रियों के दर्शन करने जाते हैं पश्‍चात् अपनी बारहदरी में पधार जाते हैं । मंदिर में सायंकाल आरती गाई जाती है । उस समय पहली एक आरती दादूजी की रचित और दूसरी किसी अन्य संत की गाई जाती है । 
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आरती में आचार्य जी पधारते हैं । आरती गायन के पश्‍चात् आचार्य जी अपनी बारहदरी में पधार जाते हैं । अन्य संत मंदिर में सुन्दरदासजी के रचित अष्टक गाते हैं पश्‍चात् अन्य स्तोत्र भी विभिन्न संतों के रचित गाते हैं । फिर आरती समाप्त कर परस्पर सत्यराम प्रणाम करते हुये आचार्य जी को दंडवत प्रणाम करने जाते हैं तथा अन्य पूज्य संतों को भी प्रणाम करने जाते हैं । 
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उक्त प्रकार नारायणा दादूधाम का सामूहिक दैनिक साधारण साधन क्रम हैं । इसका निर्वाह आचार्य जी के सहित संत महन्त सद्गृहस्थ जो दादूद्वारे में होते हैं वे सभी सप्रेम प्रतिदिन करते हैं ।  
(क्रमशः) 

*१३. देह मलिनता गर्ब प्रहार कौ अंग १३/१६*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१३. देह मलिनता गर्ब प्रहार कौ अंग १३/१६*
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सुन्दर ब्राह्मन आदि कौ, ता महिं फेर न कोइ । 
सूद्र देह सौं मिलि रह्यौ, क्यौं पवित्र अब होइ ॥१३॥ 
ब्राह्मण आदि जातिभ्रम के कारण भी तुमको इस शुद्धि के जञ्जाल में नहीं फंसना चाहिये; क्योंकि जब तुम्हारा इस निरन्तर अशुद्ध देहरूप शूद्र से ही संसर्ग है तो तुम को ब्राह्मण की वह तथाकथित पवित्रता कैसे मिल पायगी ! ॥१३॥
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सुन्दर गर्ब कहा करै, देह महा दुर्गंध । 
ता महिं तूं फूल्यौ फिरै, संमुझि देखि सठ अंध ॥१४॥
महाराज श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - रे मानव ! तूं अपनी इस देह का क्या अभिमान कर रहा है ! यह तो अतिशय दुर्गन्धयुक्त है । तूं इस पर वृथाभिमान करता हुआ क्यों गर्वोन्मत्त हो रहा है ! अरे मूर्ख ! तूं मेरे इस हितोपदेश को भले प्रकार से समझ ले ॥१४॥
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सुन्दर क्यौं टेढौ चलै, बात कहै किन मोहि । 
महा मलीन शरीर यह, लाज न उपजै तोहि ॥१५॥
तूं अपने इस महामलिन शरीर पर वृथाभिमान करता हुआ समाज में गर्वपूर्वक अकड़ कर चल रहा है; किसी से सीधे मुंह बात भी नहीं करता ! अरे मूर्ख ! तुझको अपने इस हीन कृत्य पर लज्जा भी नहीं आती ॥१५॥
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सुन्दर देखै आरसी, टेढी नाखै पाग । 
बैठौ आइ करंक पर, अति गति फूल्यौ काग ॥१६॥
तूं अपने इस मलिन शरीर के रूप-सौन्दर्य पर मुग्ध होकर शीशे में देखते हुए टेढी पगड़ी बांधता हुआ इस पर उसी प्रकार गर्व प्रकट कर रहा है, जैसे श्मशान में किसी कङ्काल पर बैठा हुआ कोई कौआ किया करता है ॥१६॥
(क्रमशः)  

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2025

*१३. देह मलिनता गर्ब प्रहार कौ अंग ९/१२*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१३. देह मलिनता गर्ब प्रहार कौ अंग ९/१२*
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सुन्दर ऐसी देह मैं, सुच्चि कहो क्यौं होइ । 
झूठेई पाषंड करि, गर्ब करै जिनि कोइ ॥९॥
हम तुझ से यही पूछते हैं कि इस देह के इतना अपवित्र रहते हुए तेरी यह पवित्रता कैसे निभ पायेगी ! तब तूँ लोक दिखावे के लिये मिथ्या पाषण्ड कर यह वृथाभिमान क्यों कर रहा है ! ऐसा तुझे नहीं करना चाहिये ॥९॥
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सुन्दर सुच्चि रहै नहीं, या शरीर के संग । 
न्हावै धोवै बहुत करि, सुद्ध होइ नहिं अंग ॥१०॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - तुम्हारे इस शरीर के इतना मलिन रहते हुए, तुम्हारी शुद्धि की प्रतिज्ञा का निर्वाह हो पाना मुझे तो असम्भव ही लगता है । भले ही तुम इस शरीर को कितना ही नहलावो या धोवो, इस का आन्तरिक भाग तो सदा मैला ही रहेगा ! यह पवित्र नहीं हो सकता ॥१०॥
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सुन्दर कहा पखारिये, अति मलीन यह देह । 
ज्यौं ज्यौं माटी धोइये, त्यौं त्यौं उकटै खेह ॥११॥
इस मलिन देह को इतना अधिक धोने से(स्नान करने से) तुम को क्या मिलेगा; क्योंकि हम लोक में यही देखते हैं कि मिट्टी की किसी कच्ची मूर्ति को जितना धोते हैं उसमें से उतनी ही मिट्टी निकलती जाती है । वह कभी स्वच्छ नहीं होती ॥११॥
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सुन्दर मैली देह यह, निर्मल करी न जाइ । 
बहुत भांति करि धोइ तूं, अठसठि तीरथ१ न्हाइ ॥१२॥ 
(१ अड़सठ तीर्थ - यह सान्ध्यभाषा में अतिप्रसिद्ध मुहाविरा है, जो तीर्थयात्रा पर व्यङ्गय के रूप में प्रयुक्त होता है ।)
इसी प्रकार, अरे मानव ! यह तेरी मलिन देह सदा मलिन ही रहेगी, यह कभी स्वच्छ(निर्मल) नहीं हो सकती; भले ही तूं इस की स्वच्छता के लिये अडसठ तीर्थों में जा जा कर बार बार स्नान करता रह ॥१२॥
(क्रमशः) 

धन धन ठंडेराम

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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१० आचार्य दिलेराम जी
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इस समय में आचार्य दिलेरामजी महाराज के दो भंडारी मुख्य थे - 
१ - नोनन्दरामजी और दूसरे अखजी । दोनों ही मंदिर निर्माण के कार्य में पूरा - पूरा भाग लेते थे । चूने भाटे का काम करने वाले राजों में - हरिकृष्ण, सुखराम और साहबराम मुख्य थे । तीनों ही मंदिर निर्माण के कार्य में आठों पहर संलग्न रहते थे अर्थात् दिन के अधिक भाग में करणी चलाते थे और रात्रि में जब तक सोते नहीं थे तब तक मंदिर संबन्धी ही विचार करते थे । 
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सब से बडे मिस्तरी शोभाराम के पुत्र शिवराम थे । उक्त सभी सज्जनों ने दादूदयालजी महाराज के मंदिर निर्माण का कार्य सप्रेम किया था । इस मंदिर में उस समय महात्मा ठंडेरामजी का इकतीस हजार पांच सौ पांच रुपया खर्च हुआ था । 
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मकराणे के पत्थर मकराणो से लाने वाले भक्त किसानों ने भी किराया नहीं लिया था । इत्यादिक और कार्य ऐसे थे जो दादूजी के भक्तों ने सेवा भाव से ही किये थे । उस समय के स्वामी सीताराम ने मंदिर का संक्षिप्त परिचय दिया है, वह भी यहां दिया जाता है । सीतारामजी ने ठंडेरामजी की गुरु परंपरा का परिचय देकर मंदिर निर्माण का परिचय दिया है देखिये -
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कौन थम्भ शिष कौन के, कौन सु गुरु को नाम ।
यह प्रणालि अब सब सुनो, कह कवि सीताराम ॥१॥
सवैया - 
आप निरंजन रुप धर्यो, गुरु दादू के शिष्य भये बनवारी । 
दास छबील के श्याम भये शिष, दास नरान बडे उपकारी ।
हरि भक्त के सहज भये शिष, आशा जगत् की आश निवारी । 
ठंडेराम भये तिन मंदिर, धाम बनाय किया जस भारी ॥२॥
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इस सवैया से सूचित होता है - (१)निरंजन बृद्ध(ब्रह्म), (२)दादूजी, (३)बनवारीजी, (४)छबीलदासजी, (५)श्यामदासजी, (६)नारायणदासजी, (७)हरिभक्तजी, (८)आशाजी, (९)ठंडेरामजी । इन्हीं ठंडेरामजी ने नारायणा दादूधाम का विशाल मंदिर बनवाया था । 
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स्वामी दिलेरामजी गादी तपे दयाल ।
तब ही दादू दयाल को, मंदिर बन्यो विशाल ॥१॥
मंदिर बन्यो विशाल, माल हरि हेत लगायो ।
धन धन ठंडेराम, धाम यह खूब बनायो ॥२॥
याके खेवन हार, भंडारि दोनों जानो ।
एक जु नौनन्दराम, दूसरे अखजी मानो ॥३॥
भौन कियो हरि कृष्ण जु, सुख पुनि साहबराम ।
ये खेवट सब काम के, निशि दिन आठों जाम ॥४॥
गुरु द्वारे मंदिर कियो, कियो अनोखो काम ।
अकलबन्द उस्ताद हैं, शोभा सुत शिवराम ॥५॥
बीजक मांड्यो वित्त को, जो लाग्यो या ठौर ।
इकतीस सहस पुनि पांच सौ, पांच ऊपरै और ॥६॥
मिति जेष्ठ सुदि चौथ बुध, चतुरासो के साल ।
अष्टादश के समय में, लागी नींव विशाल ॥७॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 11 दिसंबर 2025

*१३. देह मलिनता गर्ब प्रहार कौ अंग ५/८*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१३. देह मलिनता गर्ब प्रहार कौ अंग ५/८*
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सुन्दर मुख मैं हाड सब, नैंन नासिका हाड । 
हाथ पांव सब हाड के, क्यौं नहिं समुंझत राड ॥५॥
अरे अभागे ! (राड!)तूं यह क्यों नहीं समझ पाता कि तेरा यह समस्त शरीर केवल अस्थि-कङ्काल(हड्डियों का पिंजर) है । तेरे मुख में दांत, नाक, आंख, हाथ पैर - ये सब हड्डियों से ही बने हुए हैं ना ! ॥५॥
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सुन्दर पंजर हाड कौ, चाम लपेट्यौ ताहि । 
तामैं बैठ्यौ फूलि कै, मो समान को आहि ॥६॥ 
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - तेरा यह शरीर अस्थि कङ्काल मात्र है, इसके ऊपर चर्म(त्वचा) लपेट दी गयी है । इसी को देख देख कर तूं अपने में गर्व से फूला नहीं समा रहा है कि तेरे समान इस संसार में कोई दूसरा नहीं है ॥६॥ 
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सुन्दर न्हावै बहुत ही, बहुत करै आचार । 
देह माहिं देखै नहीं, भर्यौ नरक भंडार ॥७॥
तूं अपने इस शरीर की सुन्दरता में वृद्धि के लिये प्रतिदिन स्नान करता है; तथा इसके लिये अन्य विधि उपाय भी करता रहता है । परन्तु तूँ इस की यह सचाई नहीं देखता कि इसमें एक मात्र नरक(मैले पदार्थों) का भण्डार ही भरा हुआ है ॥७॥
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सुन्दर अपरस धोवती, चौकै बैठौ आइ । 
देह मलीन सदा रहै, ताही कै संगि खाइ ॥८॥
तूं अस्पृश्य के स्पर्श का पाप मिटाने के लिये स्नान कर, स्वच्छ वस्त्र पहन कर, भोजनालय में चौकी पर बैठ कर इस निरन्तर मलिन रहने वाले देह से ही भोजन करता है - यह तेरी कैसी समझदारी है ! ॥८॥
(क्रमशः) 

मकराणे का पत्थर

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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१० आचार्य दिलेराम जी
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पत्र लेकर भंडारी जी जोधपुर गये, राजा को पत्र दिया । राजा ने पत्र पढा और अति प्रसन्नता के साथ उसी समय मकराणे के शासक को आज्ञा पत्र लिख दिया कि नारायणा दादूधाम के दादू मंदिर के लिये तीन दिन तक जितना पत्थर साधु महात्मा ले जा सकें उतना बिना मूल्य और किसी भी प्रकार के टैक्स के बिना ही ले जाने दो और अपने यहाँ से प्रेम सहित लदान करा दो । 
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उक्त पत्र की एक नकल भंडारीजी को दे दी । भंडारी जी राजा को शुभाशीर्वाद देकर नारायणा दादूधाम में आ गये और राजा का आज्ञा पत्र आचार्य दिलेरामजी महाराज को दे दिया । फिर आचार्य दिलेरामजी ने मिस्तरी को बुलाकर पूछा, अपने को कितना मकराणा का पत्थर मंदिर के लिये चाहियेगा । 
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मिस्तरी ने कहा - राजा की आज्ञानुसार तीन दिन में हमें मकराणा का पत्थर ला सकें उतना ले आना चाहिये । यदि बच भी जायगा तो कोई बुराई नहीं है । फिर जोधपुर नरेश की आज्ञानुसार मकराणे नगर के शासक ने तीन दिन तक मकराणे का पत्थर बिना मूल्य बिना टैक्स के लदा दिया । 
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इस प्रकार मकराणे का पत्थर नारायणा दादूधाम में आ पहुँचा । मकराणे के पत्थर के लाने का काम आसपास के भक्त किसानों ने किया था । वे अपने गाडे जोतकर अनायास ही नारायणा दादूधाम में आये थे । इसी प्रकार जब अन्य सामग्री भी तैयार हो गई तब वि. सं. १८८४ ज्येष्ठ शुक्ला चौथ बुधवार को शुभ मुहूर्त्त में विशाल मंदिर की नींव लगाई गई । 
(क्रमशः)