रविवार, 28 दिसंबर 2025

*१५. मन कौ अंग १३/१६*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१५. मन कौ अंग १३/१६*
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सुन्दर यहु मन चोरटा, नाखै ताला तोरि । 
तकै पराये द्रब्य कौं, कब ल्याऊं घर फोरि ॥१३॥
हमारा यह मन बहुत बड़ा चौर भी है, अतः यह मजबूत से मजबूत ताले को सरलता से तोड़ देता है । क्योंकि पराये धन के विषय में इसकी यही वृत्ति बनी रहती है कि कब इसका स्वामी यत् किञ्चित् भी असावधान हो तो मैं इस का धन, इस के घर में से, उठा लाऊँ ॥१३॥
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सुन्दर यहु मन जार है, तकै पराई नारि । 
अपनी टेक तजै नहीं, भावै गर्दन मारि ॥१४॥
हमारा यह मन इतना अधिक कामी(व्यभिचारी) है कि इस की कुदृष्टि परायी स्त्रियों पर इस सीमा तक लगी रहती है कि यह अपने प्राणों(हत्या) की भी परवाह न कर; उनके साथ समागम के लिये सदा सन्नद्ध रहता है ॥१४॥
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सुन्दर मन बटपार है, घालै पर की घात । 
हाथ परे छोडै नहीं, लूटि खोसि ले जात ॥१५॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - हमारा यह मन बहुत बड़ा लुटेरा(बटपार) है यह प्रति क्षण यही सोचता रहता है कि कब कोई असावधान या एकाकी असहाय मिले कि उस का सब धन लूट लाऊँ । यह निर्दय, अवसर पड़ने पर, उसके पास कांनी कौड़ी भी नहीं छोड़ता, अपितु सब कुछ लूट लेता है ॥१५॥
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सुन्दर मन गांठी कटौ, डारै गर मैं पासि । 
बुरौ करत डरपै नहीं, महा पाप की रासि ॥१६॥
हमारा मन इतना ढीठ और निडर गठकटा(जेबकतरा) है कि यह ऐसा करते समय अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करता । यह इतना बड़ा पापी है कि इसे यह पाप करते समय, कुछ भी डर नहीं लगता ॥१६॥
(क्रमशः)  

उतराध की रामत ~

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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अथ अध्याय १०
१२ आचार्य नारायणदास जी ~
उतराध की रामत ~ 
आचार्य प्रेमदासजी के ब्रह्मलीन होने पर वि. सं. १९०१ ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को दादूपंथी समाज ने नारायणदासजी महाराज को गद्दी पर विराजमान किया । तब भी टीका का दस्तूर पूर्वाचार्यों के समान ही हुआ राजा, रईस, शिष्य मंडल, साधु समाज, सद्गृहस्थ आदि ने अपनी- अपनी मर्यादा के अनुसार टीका के समय भेंटें की । 
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फिर इसी वर्ष १९०१ में ही रामत की और स्थान- स्थान पर दादूवाणी के द्वारा ज्ञान भक्ति वैराग्यादि का उपदेश किया । इसी प्रकार उपदेश करते हुये उतराध में पधारे । उतराध मंडल के संतों ने तथा धार्मिक जनता ने आपका अच्छा स्वागत किया । आचार्य नारायणदासजी महाराज उतराध की धार्मिक जनता को अपने दर्शन और उपदेश से कृतार्थ करते हुये मार्ग शीर्ष शुक्ला ५ को जीन्द राज्य की राजधानी संगरुर पधारे । 
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वहां नगर में प्रवेश से पूर्व अपनी मर्यादा के अनुसार वहां के नरेश स्वरुपसिंह जी को अपने आने की सूचना दी । तब स्वरुपसिंह जी ने अपने राजकीय ठाट बाट से आचार्य नारायणदासजी महाराज की अगवानी की तथा अपनी मर्यादा के अनुसार भेंट की । फिर संगरुर में कुछ दिन जनता को सद्शिक्षा देते हुये ठहरे । जनता ने सत्संग में तथा संत में अच्छी प्रकार सप्रेम भाग लिया । 
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नाभा गमन ~ 
संगरुर से विदा होकर मार्ग की धार्मिक जनता को ज्ञान भक्ति आदि का उपदेश करते हुये आचार्य नारायणदासजी शिष्य मंडल के सहित नाभा पधारे । नगर में प्रवेश से पूर्व नाभा नरेश देवेन्द्रसिंहजी को अपने आने की सूचना दी । तब वे राजकीय ठाट बाट से आपकी अगवानी करने आये और भेंट चढाकर आचार्य नारायणदासजी का बहुत सम्मान किया । फिर नगर में लाये । 
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नाभा के भक्तों ने भी आपका अति सत्कार किया और नाभा में कुछ समय विराजने का सप्रेम आग्रह किया । तब नाभा के भक्तों के आग्रह से कुछ दिन शिष्य मंडल के सहित आचार्य नारायणादास जी महाराज नाभा में ठहरे । भक्त जनता ने दादूवाणी के निर्गुण भक्ति संबन्धी गंभीर प्रवचनों के सुनने में अच्छा भाग लिया और संत सेवा भी श्‍लाघनीय रुप से की । 
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नाभा के भक्तों का श्रद्धा भाव देखकर आचार्य जी के सहित सब संत मंडल को पूर्ण संतोष था । आचार्य जी ने भी अपने उपदेशों द्वारा नाभा की धार्मिक जनता को संतुष्ट किया । फिर विचरने का विचार किया तब नाभा की जनता ने संत मंडल के सहित आचार्य नारायणदासजी महाराज का हृदय से अति उपकार मानते हुये भेंट प्रणामादि शिष्टाचार से सत्कार करते हुये अपने प्रिय आचार्य को विदा किया ।  
(क्रमशः) 

वास्तविक स्वदेश-प्रेम

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🌷 *#श्रीरामकृष्ण०वचनामृत* 🌷
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*दादू जब प्राण पिछाणै आपको,*
*आत्म सब भाई ।*
*सिरजनहारा सबनि का, तासौं ल्यौ लाई ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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स्वामीजी की प्रधान शिष्या भगिनी निवेदिता(Miss Margaret Noble) कहती हैं कि स्वामीजी जिस समय शिकागो नगर में निवास करते थे, उस समय किसी भारतीय के साथ साक्षात्कार होने पर, वह चाहे किसी भी जाति का क्यों न हो - हिन्दू, मुसलमान या पारसी, उसका बहुत आदर-सत्कार करते थे ।
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वे स्वयं किसी सज्जन के घर पर अतिथि के रूप में निवास करते थे । वहीं पर अपने देश के लोगों को ले जाते थे । गृहस्वामी भी उन लोगों का काफी आदर-सत्कार करते थे और वे भलीभाँति जानते थे कि उन लोगों का आदर-सम्मान न करने पर स्वामीजी अवश्य ही उनका घर छोड़कर किसी दूसरी जगह चले जायेंगे ।
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अपने देश के लोगों की निर्धनता और उनका दुःख-निवारण, उनकी सत्शिक्षा तथा उनके धर्मपरायण होने के सम्बन्ध में स्वामीजी सदैव विचारशील रहते थे । परन्तु वे अपने देशवासियों के लिए जिस प्रकार दुःख का अनुभव करते थे, आफ्रिकानिवासी निग्रो के लिए भी उसी प्रकार दुःखी रहते थे ।
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भगिनी निवेदिता ने कहा है कि स्वामीजी जिस समय दक्षिणी संयुक्त राष्ट्रों में भ्रमण कर रहे थे, उस समय किसी किसी ने उन्हें आफ्रिकानिवासी(Coloured man) समझकर घर से लौटा दिया था; परन्तु जब उन्होंने सुना कि वे आफ्रिकानिवासी नहीं है, वे हिन्दू संन्यासी प्रसिद्ध स्वामी विवेकानन्द हैं, तब उन्होंने परम आदर के साथ उन्हें ले जाकर उनकी सेवा की ।
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उन्होंने कहा, "स्वामी, जब हमने आपसे पूछा, 'क्या आप आफ्रिका निवासी हैं ?' उस समय आप कुछ भी न कहकर चले क्यों गये थे ?" स्वामीजी बोले, "क्यों, आफ्रिका निवासी निग्रो क्या मेरे भाई नहीं हैं ?" निग्रो तथा स्वदेशवासियों की सेवा एक जैसी होनी चाहिए और चूँकि स्वदेशवासियों के बीच हमें रहना है इसलिए उनकी सेवा पहले ।
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इसी का नाम अनासक्त सेवा है । इसी का नाम कर्मयोग है । सभी लोग कर्म करते हैं, परन्तु कर्मयोग है बड़ा कठिन । सब छोड़कर बहुत दिनों तक एकान्त में ईश्वर का ध्यान-चिन्तन किये बिना स्वदेश का ऐसा उपकार नहीं किया जा सकता । 'मेरा देश' कहकर नहीं, क्योंकि तब तो माया में फँसना हुआ, पर 'ये लोग तुम्हारे(ईश्वर के) हैं' इसलिए इनकी सेवा करूँगा ।
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तुम्हारा निर्देश है, इसीलिए देश की सेवा करूँगा, तुम्हारा ही यह काम है - मैं तुम्हारा दास हूँ इसीलिए इस व्रत का पालन कर रहा हूँ, सफलता मिले या असफलता हो, यह तुम जानो, यह सब मेरे नाम के लिए नहीं, इससे तुम्हारी ही महिमा प्रकट होगी – इसीलिए ।
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वास्तविक स्वदेश-प्रेम(Ideal patriotism) इसे ही कहते हैं, इसीलिए लोक शिक्षा के उद्देश्य से स्वामीजी ने इतने कठिन व्रत का अवलम्बन किया था । जिनके घर-बार और परिवार हैं, कभी ईश्वर के लिए जो व्याकुल नहीं हुए, जो 'त्याग' शब्द को सुनकर मुस्कराते हैं, जिनका मन सदा कामिनी-कांचन और ऐहिक मान-सन्मान की ओर लगा रहता है, जो लोग 'ईश्वरदर्शन ही जीवन का उद्देश्य है' इस बात को सुनकर विस्मित हो उठते हैं, वे स्वदेश-प्रेम के इस महान् आदर्श को क्या जाने ? 
(क्रमशः)

शनिवार, 27 दिसंबर 2025

*१५. मन कौ अंग ९/१२*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१५. मन कौ अंग ९/१२*
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सुन्दर मन कामी कुटिल, क्रोधी अधिक अपार । 
लोभी तृप्त न होत है, मोह लग्यौ सैंवार ॥९॥
हमारा यह मन इतना अधिक काम एवं क्रोध की वासनाओं से भरा हुआ है कि इस की दुष्टता का पार नहीं पाया जा सकता । साथ ही, यह इतना बड़ा लोभी भी है कि इसको विषयभोगों से तृप्ति ही नहीं होती; क्योंकि यह उन भोगों के तात्कालिक सुख पर अतिशय मुग्ध हो गया है । साथ ही इस को मोह रूप शैवाल(कङ्काल) भी लगा हुआ है ॥९॥
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सुन्दर यहु मन अधम है, करै अधम ही कृत्य । 
चल्यौ अधोगति जात है, ऐसी मन की बृत्य ॥१०॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - हमारा यह मन स्वयं अधम(नीच) है, अतः इसके कर्म ही नीच ही होते हैं । इस की वृत्ति(चेष्टा या व्यवहार) भी ऐसी है कि इसके कारण यह भी निरन्तर अधोगति को ही प्राप्त होता रहता है ॥१०॥
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सुन्दर मन कै रिंदगी, होइ जात सैतान । 
काम लहरि जागै जबहिं, अपनी गनै न आन ॥११॥
हमारा यह मन, राक्षसी वृत्ति के कारण, स्वयं भी राक्षस ही जाता है । अतः जब इसमें कामभावना जाग्रत् होती है तो यह उस समय उस स्त्री के साथ अपने या आत्मीय जनों के सम्बन्ध भी ध्यान में नहीं रखता ॥११॥
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ठग बिद्या मन कै घनी, दगाबाज मन होइ । 
सुन्दर छल केता करै, जानि सकै नहिं कोइ ॥१२॥
हमारा यह मन दूसरों को ठगने की बहुत कलाएँ जानता है; क्योंकि यह स्वयं धोखेबाज है । अतः यह दूसरों के साथ कब, कितना अधिक धोखा(छल) कर जायगा - यह अन्य कोई नहीं जान सकता ॥१२॥
(क्रमशः) 

ब्रह्मलीन होना ~

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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११ आचार्य प्रेमदासजी ~ 
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ब्रह्मलीन होना ~ 
वि. सं. १९०१ का चातुर्मास केवलरामजी चोहट्या माधोपुर शेखावाटी वालों का माना था और उसी प्रान्त की रामत करते हुये चातुर्मास में बैठना था किन्तु रामत करते हुये सिरोही(शेखावाटी) में पहुँचे तब आचार्य प्रेमदासजी महाराज का स्वास्थ्य कुछ शिथिल हो गया इससे वहां ब्राह्मण भोजन कराकर वहां से नारायणा दादूधाम को लौट आये । 
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फिर नारायणा दादूधाम में ही ३ वर्ष १ मास २० दिन गद्दी पर विराजकर ज्येष्ठ शुक्ला १ शनिवार वि. सं. १९०१ को ब्रह्मलीन हो गये । यही दौलतरामजी ने कहा है - 
गादी बैठा प्रेमजी, राज कर्यो वर्ष तीन ।
दादूरामहिं सुमिर के, हुआ ब्रह्म में लीन ॥१ ॥
उन्नीसै पुनि एक ही, ज्येष्ठ मास सुदि जोय ।
पडवा पुनि शनिवार ही, प्रेम राम सुदि होय ॥२ ॥
सुन्दरोय में लिखा है - “प्रेम अरचि अंग्रेज करि चरचा सुन पद बंद ।” इससे ज्ञात होता है अंग्रेजों ने भी प्रेमजी को माना था ।
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गुण गाथा ~ दोहा - 
प्रेम मूर्ति परमेश की, प्रेमदास महाराज ।
भजा निरंजन राम को, त्याग जगत के काज ॥१॥
परम प्रेम में मग्न हो, सब थल हरि का रुप ।
प्रेमदास लखते रहे, थे वे संत अनूप ॥२॥
संत जनों से प्रेम का, करते थे व्यवहार ।
प्रेमदास जी के हृदय, था नहिं भेद विचार ॥३॥
प्रेमदास आचार्य ने, गहा सभी से सार ।
इससे ही उन पर रहा, सब का भाव अपार ॥४॥
प्रेमदास आचार्य में, द्वन्द्व रहे नहिं लेश ।
इससे वे हरते रहे, मोह जनित सब क्लेश ॥५॥
प्रेमदास जी का रहा, श्रेष्ठ भ्रमण व्यवहार ।
दादूवाणी का किया, उनने भले प्रचार ॥६॥
प्रेमदास आचार्य के, गुण कथ ले को पार ।
इससे ‘नारायण’ करे, बन्दन बारंबार ॥७॥
प्रेमदास आचार्य के, कोउ न सम कहलाय ।
उनके सम तो वे हि थे, कह कवि चुप हो जाय ॥८॥
इति श्री नवम अध्याय समाप्त: ९ 
(क्रमशः) 

श्रीरामकृष्ण, नरेन्द्र, कर्मयोग और स्वदेश-प्रेम

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🌷 *#श्रीरामकृष्ण०वचनामृत* 🌷
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*दादू एकै आत्मा, साहिब है सब मांहि ।*
*साहिब के नाते मिले, भेष पंथ के नांहि ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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(४)श्रीरामकृष्ण, नरेन्द्र, कर्मयोग और स्वदेश-प्रेम
श्रीरामकृष्णदेव सदैव कहा करते थे, 'मैं और मेरा, यही अज्ञान है, 'तुम और तुम्हारा' यही ज्ञान है । एक दिन सुरेश मित्र के बगीचे में महोत्सव हो रहा था । रविवार, १५ जून, १८८४ ई. । श्रीरामकृष्णदेव तथा अनेक भक्त उपस्थित थे । ब्राह्मसमाज के कुछ भक्त भी आये थे ।
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श्रीरामकृष्णदेव ने प्रताप मजूमदार तथा अन्य भक्तों से कहा, "देखो, 'मैं और मेरा' - इसी का नाम अज्ञान है । 'काली-मन्दिर का निर्माण रासमणि ने किया है' - यही बात सब लोग कहते हैं । कोई नहीं कहता कि ईश्वर ने किया है । 'अमुक व्यक्ति ब्रह्मसमाज बना गये हैं' - यही लोग कहते है । यह कोई नहीं कहता कि ईश्वर की इच्छा से यह हुआ है । 'मैंने किया है' इसी का नाम अज्ञान है ।
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'हे ईश्वर मेरा कुछ भी नहीं है, यह मन्दिर मेरा नहीं है, यह कालीमन्दिर मेरा नहीं, समाज मेरा नहीं, सभी चीजें तुम्हारी हैं, स्त्री, पुत्र, परिवार – कुछ भी मेरा नहीं है, सब तुम्हारी चीजें हैं', - ये सब ज्ञानी की बातें हैं । " ‘मेरी चीज मेरी चीज' कहकर उन सब चीजों से प्यार करने का नाम है 'माया' ।
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सभी को प्यार करने का नाम है 'दया' । मैं केवल ब्राह्मसमाज के लोगों को प्यार करता हूँ, इसका नाम है माया । मैं केवल अपने देश के लोगों को प्यार करता हूँ, इसका नाम है माया । सभी देश के लोगों को प्यार करना, सभी धर्म के लोगों को प्यार करना - यह दया से होता है, भक्ति से होता है । माया से मनुष्य बद्ध हो जाता है, भगवान से विमुख हो जाता है । दया से ईश्वर-प्राप्ति होती है । शुकदेव, नारद - इन सब ने दया रखी थी ।"
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श्रीरामकृष्णदेव का कथन है - 'केवल स्वदेश के लोगो को प्यार करना – इसका नाम माया है । सभी देशों के लोगों से, सभी धर्म के लोगों से प्रेम रखना, यह हृदय में दया होने से होता है, भक्ति से होता है ।' तो फिर स्वामी विवेकानन्द स्वदेश के लिए उतने व्यस्त क्यों हुए थे ?
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स्वामीजी ने शिकागो-धर्ममहासभा में एक दिन कहा था, "... भारत में धर्म का अभाव नहीं है - वहाँ तो वैसे ही आवश्यकता से अधिक धर्म है, पर हाँ, हिन्दुस्थान के लाखों अकालपीड़ित लोग सूखे गले से 'अन्न-अन्न, रोटी-रोटी' चिल्ला रहे हैं । ... मैं अपने निर्धन स्वदेश निवासियों के लिए यहाँ पर धन की भिक्षा माँगने आया था, परन्तु आकर देखा बड़ा ही कठिन काम है, - ईसाइयों से उन लोगों के लिए, जो ईसाई नहीं हैं, धन एकत्रित करना टेढ़ी खीर है ।"
'शिकागो वक्तृता' से उधृत.....
(क्रमशः)

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2025

*१५. मन कौ अंग १/४*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१५. मन कौ अंग ५/८*
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घेरैं नैंकु न रहत है, ऐसौ मेरौ पूत ।
पकरें हाथ परै नहीं, सुन्दर मनुवा भूत ॥५॥
यह मन ऐसा ढीठ है कि इस पर आप कितना भी नियन्त्रण कीजिये, यह उससे निरुद्ध होने(रुकने) वाला नहीं है । इसको आप कितना भी बांधने का प्रयास कीजिये, यह आप के बन्धन के अधीन होने वाला नहीं है । अतः इस को आप एक प्रबल भूत के समान समझिये ॥५॥
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नीति अनीति न देखई, अति गत्ति मन कै बंक ।
सुन्दर गुरु की साधु की, नैंकु न मानै संक ॥६॥
यह किसी भी बात में उचित या अनुचित का विचार नहीं करता । न यह किसी अनुचित कार्य के पूर्ण करने में कोई असुविधा या अनौचित्य मानता है । श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं – यह उस को पूर्ण करते समय न गुरु के प्रतिकूल आदेश की परवाह करता है न सज्जनों का निषेध या विरोध ही उसको रोक पाता है ॥६॥
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सुन्दर क्यौं करि धीजिये, मन कौ बुरौ सुभाव ।
आइ बनै गुदरै नहीं, खेलै अपनौ दाव ॥७॥
इस मन के कुटिल स्वभाव पर कैसे विश्वास किया जाय ! यह प्रबल से प्रबल विरोध होने पर भी अपने आग्रह(जिद्द) से पीछे हटने को तय्यार नहीं होता । यह अवसर मिलते ही, अपना हठ पूर्ण कर ही लेता है ॥७॥
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सुन्दर या मन सारिखौ, अपराधी नहिं और ।
साख सगाई ना गिनै, लखै न ठौर कुठौर ॥८॥
महाराज कहते हैं - हमारे इस मन जैसा दुष्ट अपराधी अन्य कोई नहीं है । यह कोई भी(छोटा या बड़ा) अपराध करते समय, न अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा, न अपने कौटुम्बिक सम्बन्धों को ही महत्त्व देता है और न ऐसा करते समय उचित अनुचित स्थान(ठौर, कुठौर) पर ही ध्यान देता है ॥८॥
(क्रमशः)

उदयपुर(मेवाड) गमन ~

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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११ आचार्य प्रेमदासजी ~ 
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उदयपुर(मेवाड) गमन ~
वि. सं. १९०० में आचार्य प्रेमदासजी महाराज मेवाड में निर्गुण ब्रह्मभक्ति का प्रचार करते हुये अपने शिष्य मंडल के सहित उदयपुर पधारे । नगर में प्रवेश करने से पहले अपने आने की सूचना महाराणा को दी । सूचना मिलने पर महाराणा पूरे राजकीय लवाजमा के साथ आचार्य प्रेमदासजी की अगवानी करने आये और अपनी कुल परंपरा की मर्यादा के अनुसार भेंट चढाकर प्रणाम किया । 
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फिर आवश्यक प्रश्‍नोत्तर रुप शिष्टाचार के पश्‍चात् अति सत्कार पूर्वक बाजे गाजे के साथ संकीर्तन करते हुये नगर के मुख्य मुख्य भागों में जनता को आचार्यजी तथा संत मंडल का दर्शन कराते हुये एकान्त और सुन्दर स्थान में लाकर ठहराया । सेवा का पूरा - पूरा प्रबन्ध कर दिया । सत्संग प्रारंभ हुआ । 
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दादूवाणी के गंभीर उपदेशों से अति प्रभावित होकर अति रुचि से धार्मिक जनता प्रतिदिन सुनती थी । जितने दिन आचार्यजी उदयपुर में रहे उतने दिन महाराणा की ओर से सेवा का अच्छा प्रबन्ध रहा । फिर आचार्यजी उदयपुर से पधारने लगे तब महाराणा तथा जनता ने आचार्यजी सहित संत मंडल को अति सत्कार से विदा किया ।
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सोलारामजी के चातुर्मास ~
वि. सं. १९०० का चातुर्मास सोलारामजी पादूवालों ने नारायणा दादूधाम में ही कराया था । यह चातुर्मास भी सुन्दर ही हुआ था । आस - पास के संत तथा भक्त इस चातुर्मास में बहुत आते जाते रहते थे । 
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रसोइयां भी बाहर की बहुत आई थी । सत्संग के लिये भी बहुत लोग बाहर से आते जाते रहते थे, इस वर्ष नारायणा की जनता को भी सत्संग का विशेष लाभ रहा । सोलारामजी ने चातुर्मास की पद्धति के अनुसार ही यह चातुर्मास उदारता पूर्वक कराया था । 
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समाप्ति पर आचार्यजी को मर्यादा अनुसार ही भेंट दी और संत मंडल को यथोचित वस्त्र दिये तथा जो भी चातुर्मास में करने योग्य कार्य होते हैं वे सभी अच्छी प्रकार किये थे । अंत में आचार्यजी की तथा सब संतों की शुभाशीर्वाद लेकर तथा आचार्यजी को साष्टांग दंडवत व सत्यराम करके तथा सब संतों को सत्यराम करके सोलारामजी पादू ग्राम में अपने स्थान को चले गये ।
(क्रमशः)

'शिकागो वक्तृता' से उधृत

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*अपना अपना कर लिया, भंजन माँही बाहि ।*
*दादू एकै कूप जल, मन का भ्रम उठाहि ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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स्वामीजी ने एक दूसरे भाषण में विज्ञान-शास्त्र से प्रमाण देकर समझाने की चेष्टा की कि सभी धर्म सत्य हैं –
"... यदि कोई महाशय यह आशा करें कि यह एकता इन धर्मों में से किसी एक की विजय और बाकी अन्य सब के नाश से स्थापित होगी, तो उनसे मैं कहता हूँ कि 'भाई, तुम्हारी यह आशा असम्भव है ।' क्या मैं चाहता हूँ कि ईसाई लोग हिन्दू हो जायँ ? - कदापि नहीं; ईश्वर ऐसा न करे ! क्या मेरी यह इच्छा है कि हिन्दू या बौद्ध लोग ईसाई हो जायँ ? ईश्वर इस इच्छा से बचावे !
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बीज भूमि में बो दिया गया है और मिट्टी, वायु तथा जल उसके चारों ओर रख दिये गये हैं । तो क्या वह बीज मिट्टी हो जाता है अथवा वायु या जल बन जाता है ? नहीं, वह तो वृक्ष ही होता है । वह अपने नियम से ही बढ़ता है और वायु, जल तथा मिट्टी को आत्मसात् कर, इन उपादानों से शाखाप्रशाखाओं की वृद्धि कर एक बड़ा वृक्ष हो जाता है ।
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"यही अवस्था धर्म के सम्बन्ध में भी है । न तो ईसाई को हिन्दू या बौद्ध होना पड़ेगा, और न हिन्दू अथवा बौद्ध को ईसाई ही । पर हाँ, प्रत्येक मत के लिए यह आवश्यक है कि वह अन्य मतों को आत्मसात् करके पुष्टि लाभ करे, और साथ ही अपने वैशिष्ट्य की रक्षा करता हुआ अपनी प्रकृति के अनुसार वृद्धि को प्राप्त हो ।..."
-'शिकागो वक्तृता' से उधृत
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अमरीका में स्वामीजी ने ब्रूक्लीन एथिकल सोसाइटी (Brooklyn Ethical Society) के सामने हिन्दू धर्म के सम्बन्ध में एक भाषण दिया था । प्रोफेसर डॉ. लीवि जेन्स (Dr. Lewis Janes) ने सभापति का आसन ग्रहण किया था । वहाँ पर भी वही बात थी, - सर्वधर्मसमन्वय की ।
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स्वामीजी ने कहा, "... सत्य सदा सार्वभौमिक रहा है । यदि केवल मेरे ही हाथ में छः उँगलियाँ हों और तुम सब के हाथ में पाँच, तो तुम यह न सोचोगे कि मेरा हाथ प्रकृति का सच्चा अभिप्राय है, प्रत्युत यह समझोगे कि वह अस्वाभाविक और एक रोगविशेष है । उसी प्रकार धर्म के सम्बन्ध में भी है ।
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यदि केवल एक ही धर्म सत्य होवे और बाकी सब असत्य, तो तुम्हें यह कहने का अधिकार है कि वह एक धर्म कोई रोगविशेष है; यदि एक धर्म सत्य है तो अन्य सभी धर्म सत्य होंगे ही । अतएव हिन्दू धर्म तुम्हारा उतना ही है जितना कि मेरा ।..."
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स्वामीजी ने शिकागो-धर्ममहासभा के सम्मुख जिस दिन पहले-पहल भाषण दिया, उस भाषण को सुनकर लगभग छः हजार व्यक्तियों ने मुग्ध होकर अपना-अपना आसन छोड़कर मुक्त कण्ठ से उनकी अभ्यर्थना की थी ।*
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(*"When Vivekanand addressed the audience as "Sisters and Brothers of America,” there arose a peal of applause that lasted for several minutes" -Dr. Barrow's Report. "But eloquent as were many of the brief speeches, no one expressed so well the spirit of the Parliament of Religions and its limitations as the Hindu monk. He is an orator by divine right."
-New York Critique, 1893)
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उस भाषण में भी इसी समन्वय का सन्देश था । स्वामीजी ने कहा था –
"... मुझको ऐसे धर्म का अवलम्बी होने का गौरव है, जिसने संसार को न केवल 'सहिष्णुता' की शिक्षा दी, बल्कि 'सब धर्मों को मानने' का पाठ भी सिखाया । हम केवल 'सब के प्रति सहिष्णुता' में ही विश्वास नहीं करते, वरन् यह भी दृढ़ विश्वास करते हैं कि सब धर्म सत्य हैं । मैं अभिमानपूर्वक आप लोगों से निवेदन करता हूँ कि मैं ऐसे धर्म का अनुयायी हूँ, जिसकी पवित्र भाषा संस्कृत में अंग्रेजी Meyo Exclusion का कोई पर्यायवाची शब्द है ही नहीं ।..."
- "शिकागो वक्तृता" से उद्धृत
(क्रमशः)

गुरुवार, 25 दिसंबर 2025

कोटा चातुर्मास ~

*#daduji*
*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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११ आचार्य प्रेमदासजी ~ 
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कोटा चातुर्मास ~ 
वि. सं. १८९९ में आचार्य प्रेमदासजी महाराज ने काठेड़ा की रामत की । स्थान - स्थान पर सत्संग द्वारा धार्मिक जनता को लाभ पहुँचाते हुये सवाईमाधोपुर पधारे । सवाईमाधोपुर की जनता ने आपका अच्छा स्वागत किया । सत्संग और संत सेवा भी अति रुचि से की । 
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सवाईमाधोपुर से आप स्थान - स्थान पर दादूवाणी के प्रचार सत्संग द्वारा मार्ग की धार्मिक जनता को आनन्दित करते हुये शनै: शनै: कोटा पधारे । कोटा नगर में प्रवेश से पूर्व अपनी मर्यादा के अनुसार कोटा नरेश को अपने आने की सूचना दी । तब कोटा नरेश ने अपनी कुल परंपरा के अनुसार राजकीय लवाजमा से आपकी अगवानी की और अपनी मर्यादा के अनुसार भेंट चढाई । फिर वहां ही अनुभवदास, नागौरदासजी के चातुर्मास किया । 
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चातुर्मासिक सत्संग सदा की भांति बहुत अच्छा हुआ । कोटा की धार्मिक जनता ने सत्संग व संत - सेवा में बहुत अच्छा भाग लिया । चातुर्मास समाप्ति पर अनुभवदासजी व नागौरीदासजी ने आचार्यजी को मर्यादा अनुसार भेंट तथा सब संतों को वस्त्र दिये । उक्त प्रकार सब को संतुष्ट कर अति आनन्द के सहित विदा किया । कोटा से विदा होकर शनै: शनै भगवद्भक्ति का प्रचार करते हुये नारायणा दादूधाम में पधारे । 
(क्रमशः)

*१५. अथ मन कौ अंग १/४*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१५. अथ मन कौ अंग १/४* 
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मन कौं राखत हटकि करि, सटकि चहूं दिसि जाइ । 
सुंदर लटकि रु लालची, गटकि बिषै फल खाइ ॥१॥
महाराज कहते हैं - साधक को अपने चित्त की बाह्य वृत्तियों का बल(हठ) पूर्वक निरोध करना चाहिये; क्योंकि यह, अल्पमात्र असावधानी होते ही, तत्काल बाह्य-वृत्ति हो जाता है । यह विषयों का ऐसा अतिशय अनुरागी एवं लोभी है कि यह उन को देखते ही झपट कर उनका उपभोग करने को दौड़ता है ॥१॥
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झटकि तार कौं तौरि दे, भटकत सांझ रु भोर । 
पटकि सीस सुन्दर कहै, फटकि जाइ ज्यौं चोर ॥२॥
अतः साधक को, ज्ञात होते ही, उसका वह विषयभोग सूत्र तत्काल काट देना चाहिये, अन्यथा यह जब तब, सन्ध्या या प्रातःकाल, भटकता हुआ उसमें उलझा ही रहेगा । श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं -तथा यह अपना सिर पटकता हुआ(उन में अनुरक्त होता हुआ) चोरों के समान तत्काल उनके पास पहुँच जायगा ॥२॥
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पल ही मैं मरि जात है, पल मैं जीवत सोइ । 
सुन्दर पारा मूरछित, बहुरि सजीवनि होइ ॥३॥
इस मन का पारद के समान ऐसा स्वभाव है कि यह क्षणमात्र में ही किसी के प्रति अनुरक्त(जीवित) हो जाता है तो दूसरे ही क्षण में उनसे(मृत) विरक्त भी हो जाता है ॥३॥
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जातें कबहु न जानिये, यौं मन नीकसि जाइ । 
आवत कछु न देखिये, सुन्दर किसी बलाइ ॥४॥
इन मन को शुभ सङ्कल्पों से दूर हटने में कोई विलम्ब नहीं लगता, न यह अशुभ सङ्कल्पों से मिलने में कोई विलम्ब करता है । इसके समान मनुष्य के लिये अन्य कोई घोर सङ्कटदायी वस्तु(बलाय) नहीं है ॥४॥
(क्रमशः) 

श्रीरामकृष्ण, नरेन्द्र और सर्वधर्मसमन्वय

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🌷 *#श्रीरामकृष्ण०वचनामृत* 🌷
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*दादू दुई दरोग लोग को भावै,*
*सांई को साँच पियारा ।*
*कौन पंथ हम चलैं कहो धू,*
*साधो करो विचारा ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(३)श्रीरामकृष्ण, नरेन्द्र और सर्वधर्मसमन्वय*
नरेन्द्र तथा अन्य बुद्धिमान युवकगण श्रीरामकृष्णदेव की सभी धर्मों पर श्रद्धा और प्रेम को देख बड़े प्रसन्न तथा आश्चर्यचकित हुए थे । 'सभी धर्मों में सत्य है' - यह बात श्रीरामकृष्णदेव मुक्त कण्ठ से कहते थे, और वे यह भी कहा करते थे कि सभी धर्म सत्य हैं - अर्थात् प्रत्येक धर्म के द्वारा ईश्वर के निकट पहुँचा जा सकता है ।
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एक दिन २७ अक्टूबर १८८२ ई. को कार्तिकी पूर्णिमा की कोजागरी लक्ष्मीपूजा के दिन केशवचन्द्र सेन स्टीमर लेकर दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण को देखने गये थे और उन्हें स्टीमर में लेकर कलकत्ता लौटे थे । रास्ते में स्टीमर पर अनेक विषयों पर चर्चा हुई थी । ठीक ये ही बातें १३ अगस्त को(अर्थात् कुछ मास पूर्व) भी हुई थीं ।
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सर्वधर्मसमन्वय की ये बातें हम अपनी डायरी से उधृत करते हैं । -
१३ अगस्त १८८२ । आज श्री केदारनाथ चटर्जी ने दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में महोत्सव किया है । उत्सव के बाद, दिन के ३-४ बजे के समय दक्षिणवाले दालान में वे श्रीरामकृष्ण के साथ वार्तालाप कर रहे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - (भक्तों के प्रति) - जितने मत उतने पथ । सभी धर्म सत्य हैं - जिस प्रकार कालीघाट में अनेक पथों से जाया जाता है । धर्म ही ईश्वर नहीं है । भिन्न भिन्न धर्मों का सहारा लेकर ईश्वर के पास जाया जाता है ।
"नदियाँ भिन्न भिन्न दिशाओं से आती हैं, परन्तु सभी समुद्र में जा गिरती हैं । वहाँ पर सभी एक हैं ।
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"छत पर अनेक उपायों से जाया जा सकता है । पक्की सीढ़ी, लकड़ी की सीढ़ी, टेढ़ी सीढ़ी और केवल एक रस्सी के सहारे भी जाया जा सकता है । परन्तु जाते समय एक ही उपाय का सहारा लेकर जाना पड़ता है - दो-तीन अलग अलग सीढ़ियों पर पैर रखने से ऊपर नहीं जा सकते । लेकिन छत पर पहुँच जाने के बाद भी सभी प्रकार की सीढ़ियों के सहारे उतर-चढ़ सकते हैं ।
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"इसीलिए पहले एक धर्म का सहारा लेना पड़ता है । ईश्वर की प्राप्ति होने पर वही व्यक्ति सभी धर्म-पथों से आना-जाना कर सकता है । जब हिन्दुओं के बीच में रहता है तब लोग उसे हिन्दू मानते हैं, जब मुसलमानों के साथ रहता है तो लोग मुसलमान मानते हैं और फिर जब ईसाइयों के साथ रहता है, तो सभी लोग समझते हैं कि शायद वे ईसाई हैं ।
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"सभी धर्मों के लोग एक ही को पुकार रहे हैं । कोई कहता है ईश्वर, कोई राम, कोई हरि, कोई अल्लाह, कोई ब्रह्य - नाम अलग अलग हैं, परन्तु वस्तु एक ही है । "एक तालाब में चार घाट हैं । एक घाट में हिन्दू जल पी रहे हैं, वे कह रहे हैं 'जल'; दूसरे घाट में मुसलमान कह रहे हैं 'पानी'; तीसरे घाट में ईसाई, कह रहे हैं, 'वाटर'(Water), चौथे घाट में कुछ आदमी कह रहे हैं 'अकुआ'(Aqua)। (सभी हँसे) वस्तु एक ही है - जल, पर नाम अलग अलग हैं । अतएव झगड़ा करने का क्या काम ? सभी एक ईश्वर को पुकार रहे हैं और सभी उन्हीं के पास जायेंगे ।"
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एक भक्त (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - यदि दूसरे धर्म में गलत बातें हो तो ?
श्रीरामकृष्ण - गलत बातें भला किस धर्म में नहीं हैं ? सभी कहते हैं, 'मेरी घड़ी सही चल रही है', परन्तु कोई भी घड़ी बिलकुल सही नहीं चलती । सभी घड़ियों को बीच बीच में सूर्य के साथ मिलाना पड़ता है ।
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"गलत बातें किस धर्म में नहीं हैं ? और यदि गलत बाते रहीं भी, परन्तु यदि आन्तरिकता हो, यदि व्याकुल होकर उन्हें पुकारो तो वे अवश्य ही सुनेंगे ।
"मान लो, एक बाप के कई लड़के हैं - कोई छोटे, कोई बड़े । सब उन्हें 'पिताजी' कहकर पुकार नहीं सकते । कोई कहता है, 'पिताजी', कोई छोटा बच्चा सिर्फ 'पि' और कोई केवल 'ता' ही कहता है ।
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जो बच्चे 'पिताजी' नहीं कह सकते क्या पिता उन पर नाराज होगा ? (सभी हँसे) नहीं, पिता सभी को एक-जैसा प्यार करेगा ।* (*ठीक यही बात एक अंग्रेजी ग्रन्थ में है - Maxmiller's Hibbert Lectures. मैक्समूलर ने भी यही उपमा देकर समझाया है कि जो लोग देव-देवियों की पूजा करते हैं, उनसे घृणा करना ठीक नहीं ।)
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"लोग समझते हैं, 'मेरा ही धर्म ठीक है, ईश्वर क्या चीज है, मैंने ही समझा है, दूसरे लोग नहीं समझ सके । मैं ही उन्हें ठीक पुकार रहा हूँ, दूसरे लोग ठीक पुकार नहीं सकते । अतः ईश्वर मुझ पर ही कृपा करते हैं, उन पर न ही करते ।' ये सब लोग नहीं जानते कि ईश्वर सभी के पिता-माता हैं, आन्तरिक प्रेम होने पर वे सभी पर कृपा करते हैं ।"
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प्रेम का धर्म कितना अ‌द्भुत है ! यह बात तो उन्होंने बार बार कही, परन्तु कितने लोग समझ सके ? श्री केशव सेन थोड़ासा समझ सके थे । और स्वामी विवेकानन्द ने तो दुनिया के सामने इसी प्रेम-धर्म का प्रचार अग्निमन्त्र से दीक्षित होकर किया है । श्रीरामकृष्णदेव ने तआस्सुबी बुद्धि रखने का बार बार निषेध किया था । 'मेरा धर्म सत्य है और तुम्हारा धर्म झूठा' इसी का नाम है तआस्सुबी बुद्धि -यह बड़े अनर्थ की जड़ है ।
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स्वामीजी ने इसी अनर्थ की बात शिकागो-धर्मसभा के सामने कही थी । उन्होंने कहा - ईसाई, मुसलमान आदि अनेकों ने धर्म के नाम पर मार-काट मचायी है ।
"... साम्प्रदायिकता, संकीर्णता और इनसे उत्पन्न भयंकर धर्मविषयक उन्मत्तता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुके हैं । इनके घोर अत्याचार से पृथ्वी भर गयी है; इन्होंने अनेक बार मानव-रक्त से धरणी को सींचा, सभ्यता नष्ट कर डाली तथा समस्त जातियों को हताश कर डाला ।
...-'शिकागो वक्तृता' से उद्धृत
(क्रमशः)

बुधवार, 24 दिसंबर 2025

प्रेमदास जी को गद्दी ~

*#daduji*
*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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११ आचार्य प्रेमदासजी ~ 
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प्रेमदास जी को गद्दी ~ 
वि. सं. १८९८ चैत्र शुक्ला ११ को समाज ने प्रेमदासजी को नारायणा दादूधाम की गद्दी पर विराजमान किया । बीकानेर नरेश ने घोडा, दुशाला आदि टीका के भेजे । इस वर्ष का चातुर्मास रामरतनजी रतिरामजी जयपुर वालों ने मनाया था । अत: आचार्य प्रेमदासजी अपने शिष्य मंडल के सहित वि. सं. १८९८ आषाढ शुक्ला १३ को जयपुर पहुँचे । 
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अपनी परंपरा की मर्यादा के अनुसार जयपुर में प्रवेश करने से पहले जयपुर नरेश को अपने आने की सूचना दी । सूचना मिलने पर जयपुर नरेश ने अपनी ओर से लक्ष्मणसिंहजी नाथावत को आज्ञा दी कि नारायणा दादूधाम के आचार्य पधारे हैं अत: जयपुर राज्य की मर्यादा के अनुसार उनका स्वागत करके नगर में लाओ । 
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तब लक्ष्मणसिंहजी नाथावत राजकीय लवाजमा - हाथी निशान नक्कारे आदि बाजे तथा अन्य स्वागत सत्कार की सामग्री लेकर आचार्य प्रेमदासजी की अगवानी करने आये । भेंट चढाकर प्रणाम की फिर आवश्यक प्रश्‍नोत्तर के पश्‍चात् आचार्यजी को हाथी पर बैठाकर बडे ठाट बाट से संकीर्तन करते हुये नियत मार्ग से रामरतनजी, रतिरामजी के स्थान पर पहुँचा दिया । फिर प्रसाद वितरण करके शोभायात्रा समाप्त कर दी गई । रामरतनजी, रतिरामजी ने आचार्यजी तथा संत मंडल के ठहरने आदि की व्यवस्था पहले ही कर रखी थी । अत: यथायोग्य स्थानों में सबको ठहरा दिया । सत्संग आरंभ हो गया ।
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जयपुर चातुर्मास ~ 
प्रात: दादूवाणी की कथा, मध्यदिन में विद्वानों द्वारा उपनिषद् गीता आदि के प्रवचन, गायक संतों के पदगायन, आरती अष्टक जागरण, संकीर्तन आदि चातुर्मासिक सत्संग मर्यादा पूर्वक बहुत अच्छे रुप से होने लगा । अपने अपने समय पर उक्त कार्यक्रमों में वक्ता श्रोता आदि सत्संग स्थान पर पहुँच कर मर्यादानुसार अपना - अपना कार्य करने लगे । जयपुर की जनता ने सत्संग, संत - सेवा आदि कार्यों में अच्छा भाग लिया । 
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इस चातुर्मास में आचार्य प्रेमदासजी महाराज के दर्शन करने जयपुर की जनता रातदिन आती ही रहती थी । कारण - आचार्य प्रेमदासजी महाराज शांत स्वभाव, शांतिप्रिय, सर्व हितैषी महात्मा थे । उनके दर्शन से जनता को शांति सुख का अनुभव होता था । इससे दर्शनार्थी का आना जाना बना ही रहता था । रामरतनजी, रतिरामजी ने आचार्यजी की तथा अन्य सब संतों की अच्छी सेवा की थी । चातुर्मास समाप्ति पर रामरतनजी, रतिरामजी ने मर्यादानुसार आचार्य जी को भेंट तथा सब संतों को वस्त्र आदि संतुष्ट किया था, और मर्यादा सहित विदा किया था । 
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कहा भी है - 
रामरतन रतिराम ने, राखे बहु दिन गेह ।
वासुदेव कवि ने किये, दर्शन सहित सनेह ॥
(दादू चरित्र चंद्रिका)
फिर मार्ग की जनता को अपने दर्शन सत्संग से कृतार्थ करते हुये नारायणा दादूधाम में पधारे और ब्रह्म भजन करने लगे ।
(क्रमशः) 

*१४. दुष्ट को अंग २३/२५*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१४. दुष्ट को अंग २३/२५*
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सुन्दर दुर्जन सारिखा, दुखदाई नहिं और । 
स्वर्ग मृत्यु पाताल हम, देखै सब ही ठौर ॥२३॥
हमने स्वर्ग, नरक एवं पाताल - तीनों लोकों में घूम कर देख लिया; परन्तु दुष्टसङ्ग के समान असह्य दुःख अन्य कोई नहीं मिला ॥२३॥
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देह जरै दुख होत है, ऊपर लागै लौंन । 
ताहू तें दुख दुष्ट कौ, सुन्दर मानै कौंन ॥२४॥
शरीर के जलने पर कष्ट होता है, उस पर नमक छिड़क दिया जाय तो उससे भी अधिक काष्ट होगा; परन्तु इन दोनों कष्टों से भी अधिक कष्ट दुष्ट पुरुष की सङ्गति पाने पर होता है, किन्तु इस कटुसत्य को मानने के लिये कोई तय्यार नहीं होता ॥२४॥
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जो कोउ मारै बान भरि, सुन्दर कछु दुख नांहि । 
दुर्जन मारै बचन सौं, सालतु है उर मांहि ॥२५॥
इति दुष्ट को अंग ॥१४॥
श्रीसुन्दरदासजी महाराज कहते हैं - यदि कोई मुझ को खींच कर बाण मार दे तो मुझे कोई कष्ट न होगा; परन्तु किसी दुष्ट के कहे हुए वचन मेरे हृदय तक पहुँच कर मुझे बहुत कष्ट देते हैं ॥२५॥
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इति दुष्ट का अंग सम्पन्न ॥१४॥
(क्रमशः)

-'ज्ञानयोग' से उद्‌धृत

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🌷 *#श्रीरामकृष्ण०वचनामृत* 🌷
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*सबै सयाने कह गये, पहुँचे का घर एक ।*
*दादू मार्ग माहिं ले, तिन की बात अनेक ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद) 
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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स्वामीजी ने न्यूयार्क में ९ जनवरी १८९६ ई. को 'सार्वभौमिक धर्म का आदर्श' (Ideal of a Universal Religion) नामक विषय पर एक भाषण दिया था
- अर्थात् जिस धर्म में ज्ञानी, भक्त, योगी या कर्मी सभी सम्मिलित हो सकते हैं । भाषण समाप्त करते समय उन्होंने कहा कि ईश्वर का दर्शन ही सब धर्मों का उद्देश्य है, - ज्ञान, कर्म, भक्ति ये सब विभिन्न पथ तथा उपाय हैं, परन्तु गन्तव्य स्थान एक ही है और वह है ईश्वर का साक्षात्कार ।
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स्वामीजी ने कहा – “....इन सब विभिन्न योगों को हमें कार्य में परिणत करना ही होगा; केवल उनके सम्बन्ध में जल्पना-कल्पना करने से कुछ न होगा । 'श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः ।' पहले उनके सम्बन्ध में सुनना पड़ेगा - फिर श्रुत विषयों पर चिन्ता करनी होगी ... । इसके बाद उनका ध्यान और उपलब्धि करनी पड़ेगी - जब तक कि हमारा समस्त जीवन तद्भाव भावित न हो उठे । तब धर्म हमारे लिए केवल कतिपय धारणा, मतवादसमष्टि अथवा कल्पना रूप ही नहीं रहेगा ।
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भ्रमात्मक ख्याल से आज हम अनेक मूर्खताओं को सत्य समझकर ग्रहण करके कल ही शायद सम्पूर्ण मत परिवर्तन कर सकते हैं, पर यथार्थ धर्म कभी परिवर्तित नहीं होता । धर्म अनुभूति की वस्तु है - वह मुख की बात, मतवाद अथवा युक्तिमूलक कल्पना मात्र नहीं है - चाहे वह जितना ही सुन्दर हो, वह केवल सुनने या मान लेने की चीज नहीं है । आत्मा की ब्रह्मस्वरूपता को जान लेना, तद्रूप हो जाना, उसका साक्षात्कार करना - यही धर्म है । ...." 
- 'धर्मरहस्य' से उद्‌धृत
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मद्रासियों के पास उन्होंने जो पत्र लिखा था, उसमें भी वही बात थी,
- हिन्दू धर्म की विशेषता है ईश्वर-दर्शन,
- वेद का मुख्य उद्देश्य है ईश्वर दर्शन -
"... हिन्दू धर्म में एक भाव संसार के अन्य धर्मों की अपेक्षा विशेष है । उसके प्रकट करने में ऋषियों ने संस्कृत भाषा के प्रायः समग्र शब्द-समूह को. निःशेष कर डाला है । वह भाव यह है कि मनुष्य को इसी जीवन में ईश्वर की प्राप्ति करनी होगी... । इस प्रकार, द्वैतवादियों के मतानुसार ब्रह्म की उपलब्धि करना, ईश्वर का साक्षात्कार करना, या अद्वैतवादियों के कहने के अनुसार ब्रह्म हो जानना- यही वेदों के समस्त उपदेशों का एकमात्र लक्ष्य है ..." 
-'हिन्दू धर्म के पक्ष में' से उद्‌धृत
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स्वामीजी ने २९ अक्टूबर, सन् १८९६ में लन्दन में भाषण दिया था, विषय था - ईश्वर-दर्शन (Realisation)। इस भाषण में उन्होंने कठोपनिषद् का उल्लेख कर नचिकेता की कथा सुनायी थी । नचिकेता ईश्वर का दर्शन करना चाहते थे । धर्मराज यम ने कहा, "भाई, यदि ईश्वर को जानना चाहते हो, देखना चाहते हो, तो भोगासक्ति को त्यागना होगा । भोग रहते योग नहीं होता, अवस्तु से प्रेम करने पर वस्तु की प्राप्ति नहीं होती ।"
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स्वामीजी ने कहा था – "... हम सभी नास्तिक हैं, परन्तु जो व्यक्ति उसे स्पष्ट स्वीकार करता है, उससे हम विवाद करने को प्रस्तुत होते हैं । हम लोग सभी अन्धकार में पड़े हुए हैं । धर्म हम लोगों के समीप मानो कुछ नहीं है, केवल विचारलब्ध कुछ मतों का अनुमोदन मात्र है, केवल मुँह की बात है - अमुक व्यक्ति खूब अच्छी तरह से बोल सकता है, अमुक व्यक्ति नहीं बोल सकता .... । आत्मा की जब यह प्रत्यक्षानुभूति आरम्भ होगी, तभी धर्म आरम्भ होगा । उसी समय तुम धार्मिक होगे ... । उसी समय प्रकृत विश्वास का - आस्तिकता का – उदय होगा । ..." 
 -'ज्ञानयोग' से उद्‌धृत
(क्रमशः)

मंगलवार, 23 दिसंबर 2025

रामबगस जी महाराज

*#daduji*
*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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११ आचार्य प्रेमदासजी ~ 
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बहुत वर्षों के पीछे कुछ संतों को यात्रा करते हुये रामबगस जी महाराज का दर्शन भी हुआ । संतों ने नारायणा दादूधाम की घटना भी सुनाई किन्तु वे तो परम विरक्त थे सुनकर कुछ भी नहीं बोले । उनकी आयु भ्रमण करते हुये ब्रह्म भजन में ही व्यतीत हुई थी । 
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वे परम विरक्त महात्मा थे । अधिक कहीं भी नहीं ठहरते थे और मधुकरी से अपना निर्वाह करते थे । अधिक उपदेश भी नहीं करते थे, उनकी मनोवृति निरंतर ब्रह्म भजन में ही लीन रहती थी । जहां वे अल्प समय भी ठहरने थे वहां भी एकान्त स्थान में ही ठहरते थे । जनसमुदाय से सदा दूर रहते थे । 
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एकाकी रहने में ही वे आनन्द मानते थे । कारण उनका भजन निरंतर चलता रहता था । दूसरे के साथ बातें करने में भजन में विध्न होता था । यथालाभ में संतुष्ट रहते थे । मधुकरी छोडकर अन्य किसी भी प्रकार की याचना वे नहीं करते थे । पूरे तितिक्षिु संत थे । उक्त प्रकार विचरते हुये फिर वे हरमाडा ग्राम में आकर स्थायी रुप से रहने लग गये थे । 
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हरमाडा में ग्राम के मध्य का स्थान उनका ही है । प्रारब्ध समाप्त होने से उनका देह दंड के समान गिर गया होगा । उन्होंने देह का त्याग भी कहीं पर्वत वन आदि स्थान में ही किया होगा । क्योंकि वे दादूजी महाराज के वचनों में पूर्ण श्रद्धा रखने वाले और दादूजी महाराज के उपदेशों के अनुसार रहने वाले थे । अत: दादूजी के निम्न वचन को याद रखकर ही देह छोडा होगा -
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“हरि भज साफल जीवना, परोपकार समाय ।
दादू मरणा तहँ भला, जहँ पशु पक्षी खाय ॥१॥”
ऐसे परम विरक्त महात्माओं के दर्शन दुर्लभ ही होते हैं । भाग्य बिना नहीं मिलते । अनेक जन्मों के पुण्य उदय होने पर विरक्त और भजनानन्दी संत मिलते हैं । रामबगस जी महाराज अल्पकाल गद्दी पर रहे तथा उन्होंने अपने को आचार्य भी नहीं माना था । गुरुजी की आज्ञा और समाज के आग्रह से वे कुछ दिन बिना इच्छा ही आचार्य पद पर रहे थे । अत: उनको आचार्यों की गणना में नहीं मानकर उनके छोटे गुरु भाई प्रेमदासजी को ही आचार्य माना गया है ।
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गुण गाथा ~ दोहा - 
रामबगस महाराज का, जीवन है आदर्श ।
विरक्त संत जन के लिये, किया न भोग स्पर्श ॥१॥
रामबगस रमते रहे, रहे एक थल नांहिं । 
ब्रह्म भजन कर रात दिन, मिले ब्रह्म के मांहिं ॥२॥
भोग वासना में फंसे, नरतन व्यर्थ गमाय ।
रामबगस सम संत का, जीवन सफल कहाय ॥३॥
‘नारायण’ नरदेह का, लाभ वही नर पाय ।  
रामबगस सम राम में, प्रतिक्षण मन को लाय ॥४॥
(क्रमशः)

*१४. दुष्ट को अंग २०/२२*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१४. दुष्ट को अंग २०/२२*
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सुन्दर झंपापात ले, करवत धरिये सीस । 
वा दुर्जन के संग तें, राखि राखि जगदीस ॥२०॥
सुन्दरदासजी भगवान् से प्रार्थना करते हैं - मुझे पर्वत की चोटी से गिरना या करवत(आरा) से अपना शिर कटवा लेना स्वीकार है; परन्तु हे प्रभो ! मुझे किसी दुर्जन की संगति में जाने से सदा बचाये रखें ॥२०॥
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सुन्दर बिष हू पीजिये, मरिये खाइ अफीम । 
दुर्जन संग न कीजिये, गलि मरिये पुनि हीम ॥२१॥
विष या अफीम खा कर मर जाइये, या बर्फ में गल कर मर जाइये; परन्तु दुष्ट का सङ्ग कभी न कीजिये – यहीं श्रीसुन्दरदासजी महाराज का साधुजनों को शुभ परामर्श है ॥२१॥
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सुन्दर दुख सब तोलिये, घालि तराजू मांहिं । 
जो दुख दुर्जन संग तें, ता सम कोई नांहिं ॥२२॥
उन का कहना है कि तराजू के एक पलड़े पर संसार के सब दुःख रख दीजिये और दूसरे पलड़े पर दुर्जन की सङ्गति रख दीजिये; मेरी समझ से यह दुर्जन की सङ्गति ही उन सब दुःखों से भारी पड़ेगी ॥२२॥
(क्रमशः)   

सोमवार, 22 दिसंबर 2025

समाज का निश्‍चय

*#daduji*
*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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११ आचार्य प्रेमदासजी ~ 
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इधर दादूद्वारे में प्रात: काल आचार्यजी को दंडवत करने आने वाले संत दंडवत प्रणाम करने आये तो आचार्यजी का दर्शन नहीं हुआ और न कोई उनकी सेवा करने वाला ही वहां मिला । तब वे संत एक दूसरे से पूछते लगे, महाराज कहां गये ? तब सब से ही यही उत्तर मिलता था कि ज्ञात नहीं है । 
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फिर सबसे सोचा यहां होंगे तब तो कथा के समय मंदिर में अपने नियम के अनुसार पधारेंगे ही । किन्तु कथा के समय भी आचार्य रामबगसजी महाराज के दर्शन नहीं हुये । तब विरक्त संतों ने कहा - वे अति विरक्त संत थे । गुरुजी की आज्ञा और समाज के दबाव से गद्दी पर बैठ तो गये थे किन्तु उनको यह वैभव संपन्न पद रुचिकर नहीं था । 
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अत: हो सकता है, वे इस पद का परित्याग करके रम गये हों । यदि ऐसा नहीं होता तब तो किसी को कहकर हो जाते और अकेले जाने का तो प्रसंग आता ही नहीं है । आचार्य जी तो कहीं भी जायें, उनके साथ भंडारी व कोतवाल आदि कर्मचारी तो साथ रहते ही हैं अत: वे वैराग्य होने पर ही कहीं गये हैं । 
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अब उनका मिलना भी कठिन ही है । कारण - वे परिचितों से छिपकर ही जायेंगे । विरक्त संतों के उक्त विचार सुनकर भी नारायणा दादूधाम के अनेक कर्मचारी तथा भक्त लोग सब ओर उनकी खोज करने के लिये निकले किन्तु कहीं उनका पता नहीं लगा । तब सब लौटकर नारायणा दादूधाम में आ गये । 
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समाज का निश्‍चय ~ 
फिर समाज के महन्त, संत तथा मुख्य - मुख्य महानुभावों को यह परस्पर विचार करके निश्‍चय किया कि - वे विरक्त संत थे, इस वैभव से घिर कर नहीं रहना चाहते थे । इससे उनकी प्रतीक्षा करना तथा उनको खोजकर यहां लाना तो कोई महत्व नहीं रखता है । 
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यदि हम लोग प्रयत्न करें और खोजकर यहां ले आयें तो फिर भी वे जा सकते हैं । उनके खोजने का यत्न न कर सब महन्त संत भक्त गण ने मिलकर यही निश्‍चय किया कि - उनके छोटे गुरु भाई प्रेमदासजी को गद्दी पर बिठा दिया जाए । यही उत्तम रहेगा । 
(क्रमशः)