बुधवार, 2 अप्रैल 2025

*धन्य है वह गुरुभक्ति*

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*निर्मल गुरु का ज्ञान गहि, निर्मल भक्ति विचार ।*
*निर्मल पाया प्रेम रस, छूटे सकल विकार ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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१८८४ ई. की रथयात्रा के दिन कलकत्ते में श्रीरामकृष्णदेव के साथ पण्डित शशधर का साक्षात्कार हुआ । नरेन्द्र वहाँ पर उपस्थित थे । श्रीरामकृष्ण ने पण्डितजी से कहा, "तुम जनता के कल्याण के लिए भाषण दे रहे हो, सो भली बात है । परन्तु भाई, भगवान के निर्देश के बिना लोकशिक्षा नहीं होती । होगा यह कि लोग दो दिन तुम्हारा भाषण सुनेंगे, उसके बाद भूल जायेंगे ।
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हलदारपुकुर के किनारे पर लोग शौच को जाते थे । लोग गाली-गलौज करते थे, परन्तु कुछ परिणाम न हुआ । अन्त में सरकार ने जब एक नोटिस लगा दिया, तब कहीं लोगों का वहाँ पर शौच जाना बन्द हुआ । इसी प्रकार ईश्वर का आदेश पाये बिना लोक-शिक्षा नहीं होती ।"
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इसलिए नरेन्द्र ने गुरुदेव की बात को मानकर संसार छोड़ दिया था और एकान्त में गुप्त रूप से बहुत तपस्या की थी । उसके बाद उन्हीं की शक्ति से शक्तिशाली बनकर, इस लोकशिक्षा के व्रत को ग्रहण कर उन्होंने कठिन प्रचार कार्य प्रारम्भ किया था ।
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काशीपुर में जिस समय (१८८६ ई.) श्रीरामकृष्ण रुग्ण थे, उस समय उन्होंने एक कागज पर लिखा था, "नरेन्द्र शिक्षा देगा ।"
स्वामी विवेकानन्द ने अमरीका से मद्रास-निवासियों को जो पत्र लिखा था, उनमें उन्होंने लिखा था कि वे श्रीरामकृष्ण के दास हैं, उन्हीं के दूत बनकर वे उनकी मंगल-वार्ता समग्र जगत् को सुना रहे हैं –
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"... जिनका सन्देश, भारत तथा समस्त संसार को पहुँचाने का सम्मान मुझ जैसे उनके अत्यन्त तुच्छ और अयोग्य सेवक को मिला है, उनके प्रति आपका आदरभाव सचमुच अपूर्व है । यह आपकी जन्मजात धार्मिक प्रवृत्ति है, जिसके कारण आप उनमें और उनके सन्देश में आध्यात्मिकता के उस प्रबल तरंग की प्रथम हलचल का अनुभव कर रहे हैं, जो निकट भविष्य में सारे भारतवर्ष पर अपनी सम्पूर्ण अबाध्य शक्ति के साथ अवश्यमेव आघात करेगा ।..."
- 'हिन्दू धर्म के पक्ष में' से उद्धृत
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मद्रास में दिये गये तीसरे व्याख्यान में उन्होंने कहा था, -
"... इस समय केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि यदि मैंने जीवन भर में एक भी सत्य वाक्य कहा है तो वह उन्हीं का(श्रीरामकृष्ण का)वाक्य है; पर यदि मैंने ऐसे वाक्य कहे हैं जो असत्य, भ्रमपूर्ण अथवा मानवजाति के लिए हितकारी न हो तो वे सब मेरे ही वाक्य हैं, उनके लिए पूरा उत्तरदायी मैं ही हूँ ।"
- 'भारत में विवेकानन्द' से उद्धृत
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कलकत्ते में स्वर्गीय राधाकान्त देव के मकान पर जब उनकी अभ्यर्थना हुई, उस समय भी उन्होंने कहा था कि 'श्रीरामकृष्णदेव की शक्ति आज पृथ्वी भर में व्याप्त है । हे भारतवासियों, तुम लोग उनका चिन्तन करो, तभी सब विषयों में उन्नति करोगे ।' उन्होंने कहा –
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"... यदि यह जाति उठना चाहती है, तो मैं निश्चयपूर्वक कहूँगा, इस नाम से सभी को प्रेमोन्मत्त हो जाना चाहिए । श्रीरामकृष्णदेव का प्रचार हम, तुम या चाहे जो कोई करे, इससे कुछ होना जाना नहीं, तुम्हारे सामने में इस महान् आदर्श-पुरुष को रखता हूँ, लो, अब विचार का भार तुम पर है । इस महान् आदर्श-पुरुष को लेकर क्या करोगे, इसका निश्चय तुम्हें अपनी जाति के कल्याण के लिए अभी कर डालना चाहिए । ..."
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"... उनके तिरोभाव के दस वर्ष के भीतर ही इस शक्ति ने सम्पूर्ण संसार घेर लिया है ...। मुझे देखकर उनका विचार न करना । मैं एक बहुत ही क्षुद्र यन्त्र मात्र हूँ । उनके चरित का विचार मुझे देखकर न करना । वे इतने बड़े थे कि मैं, या उनके शिष्यों में से कोई दूसरा, सैकड़ों जीवनों तक चेष्टा करते रहने पर भी उनके यथार्थ स्वरूप के एक करोड़वें अंश के बराबर भी न हो सकेगा । ..."
-'भारत में विवेकानन्द' से उद्धृत
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गुरुदेव की बात कहते कहते स्वामी विवेकानन्द एकदम पागल-से हो जाया करते थे । धन्य है वह गुरुभक्ति !
(क्रमशः)

साँच चाणक का अंग १४

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*भक्ति न जाणै राम की, इन्द्री के आधीन ।*
*दादू बँध्या स्वाद सौं, ताथैं नाम न लीन ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साँच का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक का अंग १४
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कहनी१ रहनी२ बिन काम न आव ही,
अंध क्यो दीप ले कूप टरेगो ।
नर तैं सुन नाम लियो शुक सारो३ ने,
तो व४ कहा कछु काम जरेगो५ ॥
विद्या धन्वंतरी की सीखी जु बादि ने
मूये को विष न कोई हरेगो ।
साधु सु शब्द असाधु ने सीखे हो,
रज्जब यूं नहिं काम सरेगो६ ॥१३॥
कहने१ के समान रहे२ बिना कहना कुछ भी काम नहीं आता, अंधा हाथ में दीपक लेकर कूप से कैसे बच सकता है ?
मनुष्य से काम प्रीति के शब्द सुनकर शुक पक्षी तथा मैना३ पक्षी वे ही शब्द रूप नाम उच्चारण करे तो वे४ क्या कुछ काम से जलेंगे५ ?
कोई वादी धन्वंतरी की विद्या सीख ले तो तो क्या ? मुरदे का विष तो नहीं हर सकता ।
ऐसे साधु के सुन्दर शब्द असाधु ने सीख लिये तो क्या ? ऐसे मुक्ति रूप कार्य तो सिद्ध३ नहीं हो सकता ।
(क्रमशः)

परिचय ॥

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू निर्गुणं नामं मई, हृदय भाव प्रवर्त्तितम् ।*
*भ्रमं कर्मं किल्विषं, माया मोहं कंपितम् ॥*
*कालं जालं सोचितं, भयानक यम किंकरम् ।*
*हर्षं मुदितं सदगुरुं, दादू अविगत दर्शनम् ॥*
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परिचय ॥
निर्गुण रामा गाऊंगा । तहाँ मन अपना लाऊंगा ॥टेक॥
निर्गुण का गुण गाऊंगा, तब पाथर को पघलाऊंगा ।
पघलाइ करौं जैसा पाणी, सो मति बिरले जाणी ॥
निर्गुण का गुण लीणा, तब अगनि मांहि घी थीणा ।
थीज्या पघलि न जाई, सो सहजैं रहयौ समाई ॥
निर्गुण का गुण लाधा, तब जलि बैसंदर दाधा ।
यहु बैसंदर नांहीं, वो अगम अगोचर मांहीं ॥
निर्गुण का गुण दाखूँ, आंधी मैं दीपक राखूँ ।
जिहिं की निर्मल जोति न डोलै, बषनां वै ही बाणी बोलै ॥४२॥
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मैं निर्गुण-निराकार परमात्मा का नाम स्मरण करूंगा । मैं अपनी चित्तवृत्तियों को सर्वतोभावेन उसी में लगा दूंगा ।
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जब मैं निर्गुण-निराकार परमात्मा का स्मरण करूंगा तब सांसारिक विषय भोगों से कठोर हुए पत्थर रूपी हृदय को भी आर्द्र कर डालूंगा । उस हृदय को इतना अधिक आर्द्र करुंगा कि वह जल जैसा पतला, निर्मल और मृदु हो जायेगा । हृदय को सांसारिक विषयभोगों से सर्वथा उपराम करके भगवन्मय बनाने की बुद्धि = युक्ति को कोई कोई ने ही जानी है ।
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“मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्माम्वेत्ति तत्त्वतः ॥
तथा ‘विषया विनिवर्तंते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्ज्य रसोप्यस्य परंदृष्ट्वा निवर्तते ॥
जब साधक निर्गुण-निराकार के गुण = स्वरूप में लीन हो जाता है तब ब्रह्म रूपी अग्नि में घी रूपी चित्तवृत्ति सर्वथा थीणा = अचल हो जाती है । एकबार चित्तवृत्ति स्थिर हो जाती है तब वह पुनः विषयभोगों की ओर उन्मुख होकर उनमें आसक्त नहीं होती । वह तो सहज स्वाभाविक रूप में निजानंदस्वरूप स्वात्मा में ही अचल रूपेण संस्थित रहती है ।
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जब साधक निर्गुण परमात्मा स्वरूप हो जाता है तब सहस्त्रारचक्र से स्त्रावित जल रूपी रामरसामृत मूलाधारचक्रस्थ सांसारिक विषयभोग-स्पृहा रूपी अग्नि को दग्ध कर देता है । जो अगम्य, अगोचर ब्रह्म का साक्षात्कार कर ब्रहमरूप हो गये हैं उनके लिये विषयभोगों की जननी माया और तज्जन्य संसार शांतस्वरूप = अप्रभावकारी हो जाते हैं । क्योंकि माया अनादि तो है किन्तु ज्ञानोपरांत इसका बाध हो जाता है, यह शांत हो जाती है ।
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बषनांजी अपने लिये कहते हैं, मैं निर्गुण-निराकार परमात्मा के नाम का स्मरण करता हूँ तथा संसार रूपी आंधी में भी अपनी वृत्ति रूपी दीपक की लौ को निश्चल रखता हूँ । जिसकी-जिस दीपक की, जिस साधक की चित्तवृत्ति रूपी दीपक की लौ अचल रहती है वही ब्रह्मसाक्षात्कार जन्य अनुभववाणी कहता है ।
‘ब्रह्म विद्ब्रह्मैव भवति ।’ मुण्डकोपनिषद् ।
‘ब्रह्म रूप अहि ब्रह्मवित, ताकी वाणी वेद ।
भाषा अथवा संस्कृत, करत भेद भ्रम छेद ।’ विचारसागर ३/१० ॥
‘जानत तुम्हहिं तुम्हहि होइ जाही ।’ मानस ।
‘ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थित’ ॥गीता॥४२॥
(क्रमशः)

सोमवार, 31 मार्च 2025

= १६५ =

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*चोर अन्याई मसखरा, सब मिलि बैसैं पांति ।*
*दादू सेवक राम का, तिन सौं करैं भरांति ॥*
*साभार ~ @Subhash Jain*
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लाओत्सु ने कहा हैः जब मैं कुछ सत्य की बात कहता हूं तो लोग हंसते हैं, उपहास करते हैं; तब मैं निश्चित समझ जाता हूं कि जौ मैंने कहा, वह सत्य ही होना चाहिए। अगर वह सत्य न होता तो लोग उपहास क्यों करते !
एक फकीर थे, महात्मा भगवानदीन। वे मुझसे बोले कि जब भी मैं लोगों को ताली बजाते सुनता हूं. . . बड़े प्यारे वक्ता थे. . . तो मैं दुःखी हो जाता हूं। क्योंकि जब लोग ताली बजा रहे हैं तो मैंने जरूर कोई गलत बात कही होगी। जो लोगों तक की समझ में आ रही है, वह गलत ही होनी चाहिए। लोग इतने गलत हैं !
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वे बड़े नाराज हो जाते थे, जब उनके बोलने में कोई ताली बजा दे। बड़े नाराज हो जाते थे कि मैंने कोई ऐसी गलत बात कही कि तुम ताली बजाते हो! लोग तो ताली बजाकर प्रसन्न होते हैं, सुनकर प्रसन्न होते हैं कि ताली बजायी जा रही है; वे बड़े नाराज हो जाते थे। वे कहते थे मैं बोलूंगा ही नहीं, अगर ताली बजायी। तुमने ताली बजायी–मतलब कि कुछ गलत बात हो गयी।
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लाओत्सु ठीक कह रहा है कि अगर लोग उपहास न करते तो मैं समझ लेता कि यह सत्य होगा ही नहीं। सत्य का तो सदा उपहास होता है, क्योंकि लोग इतने असत्य हैं। लोग झूठे हैं, इसलिए सत्य पर हंसते हैं। हंसकर अपने को बचाते हैं। उनकी हंसी आत्मरक्षा है।
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“जगत् करे उपहास, पिया का संग न छोड़ै।
प्रेम की सेज बिछाय मेहर की चादर ओढ़ै॥’’
फिकर ही मत करना संसार की; तुम तो अपनी प्रेम की सेज बिछा लेना और परमात्मा की याद करना कि तुम आओ, तुम्हारे लिए सेज तैयार कर रखी है।
“प्रेम की सेज बिछाय, मेहर की चादर ओढ़ै। और करुणा की चादर ओढ़ना। प्रेम का बिस्तर बनाना और करुणा की चादर बना लेना। 
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संसार के प्रति करुणा रखना, परमात्मा के प्रति प्रेम रखना–बस ये दो चीजें सध जाएं। हंसनेवालों के प्रति करुणा रखना, नाराजगी मत रखना। अगर नाराजगी रखी तो वे जीत जाएंगे। अगर करुणा रखी, तो ही तुम जीत पाओगे। वे हंसें, तो स्वीकार करना कि ठीक ही हंसते हैं। जहां वे खड़े हैं, वहां से उन्हें हंसी आती है हम पर, ठीक ही है। उनकी स्थिति में ऐसा ही होना स्वाभाविक है। उन पर करुणा रखना।
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“ऐसी रहनी रहै तजै जो भोग-विलासा।’’
यह बड़ा अपूर्व सूत्र है। पलटू कहते हैं कि भक्त के प्रेम में और करुणा में, और परमात्मा के स्मरण में अपने-आप भोग-विलास छूट जाता है।
“ऐसी रहनी रहै तजै जो भोग-विलासा।’’
भोग-विलास छोड़ना न पड़े, छूट जाए–ऐसी रहनी रहे। 
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परमात्मा की स्मृति जिसके जीवन में भरी है, उसको कहां भोग-विलास की याद रह जाती है ! वह तो परमभोग भोग रहा है; अब तो छोटे-मोटे भोग की बात ही कहां ! हीरे बरस रहे हों तो कोई कंकड़-पत्थर बीनता है ? अमृत बह रहा हो तो कोई नाली के गंदे पानी को भर कर घर लाता है ? जहां फूलों की वर्षा हो रही हो, वहां कोई दुर्गंध समेटता है ? जहां सच्चा सुख मिल रहा हो वहां क्षणभंगुर सुख की कौन चिंता करता है ?
“ऐसी रहनी रहै तजै जो भोग-विलासा।’’
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परमात्मा की मस्ती में रहे। परमात्मा के आनंद-भाव में रहे। परमात्मा के प्रेम में रहे और जगत्‌ के प्रति करुणा से भरा और सुरति की धारा बहे। बस फिर अपने-आप ऐसी रहनी पैदा हो जाती है, जीवन का ऐसा ढंग, जीवन में ऐसी चर्या पैदा हो जाती है कि भोग-विलास अपने-आप छूट जाते हैं। छोड़ने नहीं पड़ते, छोड़ने पड़ें, तो बात ही गलत हो गयी। 
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छोड़ने पड़ें तो घाव रह जाएंगे; छूट जाएं तो बड़ा स्वास्थ्य और बड़ा सौंदर्य होता है। व्यर्थ को छोड़ना पड़े तो उसका अर्थ हुआ कि अभी कुछ सार्थकता दिखायी पड़ती थी, इसलिए चेष्टा करनी पड़ी, छोड़ना पड़ा। व्यर्थ व्यर्थ की भांति दिखायी पड़ जाए, तो फिर चेष्टा नहीं करनी पड़ती, हाथ खुल जाते हैं, व्यर्थ गिर जाता है। आदमी पीछे लौटकर भी नहीं देखता।
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“रहनी रहै तजै जो भोग-विलासा।
मारे भूख-प्यास, याद संग चलती स्वासा॥’’
फिर तो भूख-प्यास तक की याद नहीं रह जाती, क्योंकि श्वास-श्वास में उसी की ही याद चलती है। कहां का भोग, कहां का विलास ! कौन धन को इकट्ठे करने में पड़ता है! कौन पद की चिंता करता है ! कौन आदर-समादर खोजता है ! कौन सम्मान खोजता है ! जिसको उस प्राण-प्यारे की तरफ से मान मिलने लगा, इस संसार में कोई मान अब अर्थ नहीं रखता। “मारे भूख-प्यास, याद संग चलती स्वासा।’’ यह जो श्वास के साथ याद बहने लगती है, इससे भूख-प्यास तक मर जाती है।
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एक तुमने बात कभी खयाल की–बहुत मनोवैज्ञानिक है ! जब तुम दुःखी होते हो, तुम ज्यादा भूखे-प्यासे अनुभव करते हो। जब तम दुःखी होते हो, तब तुम ज्यादा भोजन कर लेते हो। क्योंकि दुःखी आदमी भीतर खाली-खाली मालूम पड़ता है–किसी से भी भर लो, किसी तरह भर लो भीतर का गङ्ढा ! सुखी आदमी कम भोजन करता है। परम सुख में तो भूख भूल ही जाती है। परम सुख में तुम ऐसे भरे मालूम पड़ते हो भीतर, कि कहां भूख, कहां प्यास !
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जब भी सुख घटता है तो आदमी भर जाता है। जब भी जीवन में दुःख होता है, तो आदमी जबरदस्ती अपने को भरने लगता है; खाली-खाली मालूम पड़ता है–“चलो किसी भी चीज से भर लो।’’
ओशो

= १६४ =

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*जे पहली सतगुरु कह्या, सो नैनहुँ देख्या आइ ।*
*अरस परस मिलि एक रस, दादू रहे समाइ ॥*
*साभार ~ @Subhash Jain*
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जन्म कुंडली या होरोस्कोप उसका ही टटोलना है। हजारों वर्ष से हमारी कोशिश यही है कि जो बच्चा पैदा हो रहा है वह क्या हो सकेगा ? हमें कुछ तो अन्दाज मिल जाए तो शायद हम उसे सुविधा दे पाएं। शायद हम उससे आशाएं बांध पाएं। जो होने वाला है, उसके साथ हम राजी हो जाएं।
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मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने जीवन के अन्त में कहा है कि मैं सदा दुखी था। फिर एक दिन मैं अचानक सुखी हो गया। गांवभर के लोग चकित हो गए कि जो आदमी सदा दुखी था और जो आदमी हर चीज का अंधेरा देखता था वह अचानक प्रसन्न कैसे हो गया—जो हमेशा पेसिमिस्ट था, जो हमेशा देखता था कि कांटे कहां—कहां ??!
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एक बार नसरुद्दीन के बगीचे में बहुत अच्छी फसल आ गई। सेव बहुत लगे—ऐसे कि वृक्ष लद गए ! पड़ोस में एक आदमी ने पूछा, सोचा उसने कि अब तो नसरुद्दीन कोई शिकायत न कर सकेगा —कहा कि इस बार तो फसल ऐसी है कि सोना बरस जायेगा, क्या खयाल है, नसरुद्दीन! नसरुद्दीन ने बड़ी उदासी से कहा, और सब तो ठीक है लेकिन जानवरों को खिलाने के लिए सड़े सेव कहां से लाओगे ? उदास बैठा है वह। जानवरों को खिलाने के लिए सडे सेव कहां से लाओगे, सब सेव अच्छे हैं, कोई सड़ा हुआ ही नहीं ! एक मुसीबत है।
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वह आदमी एक दिन अचानक प्रसन्न हो गया तो गांव के लोगों को हैरानी हुई तो गांव के लोगे ने पूछा कि तुम और प्रसन्न—नसरुद्दीन ! क्या राज है इसका ? नसरुद्दीन ने कहा, आई हेव लर्न्ट टु कोआपरेट विद दि इनइवीटेबल। वह जो अनिवार्य है मैं उसके साथ सहयोग करना सीख गया हूं। बहुत दिन लड़कर देख लिया। अब मैंने यह तय कर लिया है कि जो होना है, होना है ! अब मैं सहयोग करता हूं इनइवीटेबल के साथ— जो अनिवार्य है उसके साथ मैं सहयोग करता हूं। अब दुख का कोई कारण न रहा। अब मैं सुखी हूं।
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ज्योतिष बहुत बातों की खोज थी। उसमें जो अनिवार्य है, उसके साथ सहयोग—वह जो होने ही वाला है, उसके साथ व्यर्थ का संघर्ष नहीं, जो नहीं होनेवाला है, उसकी व्यर्थ की मांग नहीं, उसकी आकांक्षा नहीं ! ज्योतिष मनुष्य को धार्मिक बनाने के लिए, तथाता में ले जाने के लिए, परम स्वीकार में ले जाने के लिए उपाय था। उसके बहु आयाम है।
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हम धीरे— धीरे एक—एक आयाम पर बात करेंगे। आज तो इतनी बात, कि जगत एक जीवंत शरीर है, आर्गनिक यूनिटी है। उसमें कुछ भी अलग—अलग नहीं है—सब संयुक्त है। दूर से दूर जो है वह भी निकट से निकट जुडा है—अजुडा कुछ भी नहीं है। इसलिए कोई इस भांति में न रहे कि वह आइसोलेटेड आइलैंड है। कोई इस भांति में न रहे कि कोई एक द्वीप है छोटा—सा— अलग— थलग।
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नहीं, कोई अलग— थलग नहीं है, सब संयुक्त है और हम पूरे समय एक दूसरे को प्रभावित कर रहे हैं और एक दूसरे से प्रभावित हो रहे हैं। सड़क पर पड़ा हुआ पत्थर भी, जब आप उसके पास से गुजरते हैं तो आपकी तरफ अपनी किरणें फेंक रहा है। फूल भी फेंक रहा है। और आप भी ऐसे नहीं गुजर रहे हैं, आप भी अपनी किरणें फेंक रहे हैं।
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मैने कहा कि चांद—तारों से हम प्रभावित होते हैं। ज्योतिष का और दूसरा खयाल है कि चांद—तारे भी हमसे प्रभावित होते हैं, क्योंकि प्रभाव कभी भी एक तरफा नहीं होता। जब कभी बुद्ध जैसा आदमी जमीन पर पैदा होता है तो चांद यह न सोचे कि चांद पर उनकी वजह से कोई तूफान नहीं उठते। बुद्ध की वजह से कोई तूफान चांद पर शांत नहीं होते ! अगर सूरज पर धब्बे आते हैं और तूफान उठते हैं तो जमीन पर बीमारियां फैल जाती है। तो जमीन पर जब बुद्ध जैसे व्यक्ति पैदा होते हैं और शान्ति की धारा बहती है और ध्यान का गहन रूप पृथ्वी पर पैदा होता है तो सूरज पर भी तूफान फैलने में कठिनाई होती है—सब संयुक्त है !
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एक छोटा—सा घास का तिनका भी सूरज को प्रभावित करता है। और सूरज भी घास के तिनके को प्रभावित करता है। न तो घास का तिनका इतना छोटा है कि सूरज कहे कि तेरी हम फिक्र नहीं करते और न सूरज इतना बड़ा है कि यह कह सके कि घास का तिनका मेरे लिए क्या कर सकता है—जीवन संयुक्त है ! हां छोटा—बड़ा कोई भी नहीं है, एक आर्गनिक यूनिटी है—एकात्म है। इस एकात्म का बोध अगर खयाल में आए तो ही ज्योतिष समझ में आ सकता है, अन्यथा ज्योतिष समझ में नहीं आ सकता है।
ओशो; मैं कहता आंखन देखी

= १६३ =

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*राम जपै रुचि साधु को, साधु जपै रुचि राम ।*
*दादू दोनों एक टग, यहु आरम्भ यहु काम ॥*
*साभार ~ @Subhash Jain*
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मैंने सुना है कि #राम जब युद्ध विजय के बाद अयोध्या लौटे, राजगद्दी पर बैठे, तो उन्होंने एक बड़ा दरबार किया और सभी को पदवियां दीं, पुरस्कार बांटे, जिन-जिन ने भी युद्ध में साथ दिया था। लेकिन #हनुमान को कुछ भी न दिया और हनुमान की सेवाएं सबसे ज्यादा थी।
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#सीता बड़े पसोपेश में पड़ी। वह कुछ समझ न पाई कि यह चूक कैसी हुई! छोटे-मोटों को भी मिल गया पुरस्कार। पद मिले, आभूषण मिले, बहुमूल्य हीरे मिले, राज्य मिले। हनुमान--जिनकी सेवाएं सबसे ज्यादा थीं, उनकी बात ही न उठी। वे कहीं आए ही नहीं बीच में। राम भूल गए ! यह तो हो नहीं सकता।
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राम को याद दिलाई जाए, यह भी सीता को ठीक न लगा। याद दिलाने का तो मतलब होगा, शिकायत हो गई। तो उसने एक तरकीब की--कि कहीं हनुमान को बुरा न लगे, इसलिए उसने हनुमान को चुपचाप बुला कर अपने गले का मोतियों का बहुमूल्य हार उन्हें पहना दिया। और कहते हैं, हनुमान ने हार देखा, तो उसमें से एक-एक दाना मोती का तोड़-तोड़ कर फेंकने लगे।
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सीता ने कहाः अब मैं समझी कि राम ने तुझे क्यों कोई उपहार न दिया। यह तू क्या कर रहा है ? ये बहुमूल्य मोती है। ये मिलने वाले मोती नहीं हैं, साधारण मोती नहीं हैं। हजारों साल में इस तरह के मोती इकट्ठे किए जाते हैं, तब यह हार बना है। ये सब मोती बेजोड़ हैं। यह अमूल्य हार पहनने के लिए है। तू यह क्या करता है ?
हनुमान बोलेः यह हार पत्थर का है। इसे मूर्ख मनुष्य भला गले में पहन सकते हों, मैं तो राम-नाम को ही पहनता हूं। और मैं एक-एक मोती को चख कर देख रहा हूं, इसमें राम-नाम का कहीं स्वाद ही नहीं है। इसलिए फेंकता जा रहा हूं। शायद राम ने इसीलिए कोई पुरस्कार हनुमान को नहीं दिया। क्योंकि हनुमान के हृदय में तो राम थे। पुरस्कार तो प्रतीक होगा। जिसके पास राम हैं, उसे क्या पुरस्कार ?
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जिनने प्रभु की थोड़ी सी पहचान पाई है, उसे प्रतिमा की जरूरत नहीं है; उसे मंदिर की जरूरत नहीं है; उसे पूजा-पाठ की जरूरत नहीं है। तब तो #मलूकदास कहते हैं कि राम का नाम भी नहीं लेता मैं। अपनी मस्ती में मस्त हूं। अब तो राम मेरा नाम लेता है।
– ओशो, कन थोरे कांकर घने
प्रवचन - १०, अवधूत का अर्थ

मंगलवार, 25 मार्च 2025

= १६२ =

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*लोभ मोह मैं मेरा, मद मत्सर बहुतेरा ॥१॥*
*आपा पर अभिमाना, केता गर्व गुमाना ॥२॥*
*तीन तिमिर नहिं जाहीं, पंचों के गुण माहीं ॥३॥*
*आतमराम न जाना, दादू जगत दीवाना ॥४॥*
*साभार ~ @Subhash Jain*
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मैंने सुना है कि एक धर्मगुरु स्वर्ग जाने की टिकटें बेचता था-सभी धर्मगुरु बेचते हैं। स्वभावत:, कुछ अमीर खरीदते तो प्रथम श्रेणी की देता। गरीब खरीदते, द्वितीय श्रेणी के। तृतीय श्रेणी भी थी, और जनता-चौथी श्रेणी भी थी। सभी लोगों के लिए इंतजाम स्वर्ग में होना भी चाहिए। तरह-तरह के लोग हैं, तरह-तरह की सुविधाएं होनी चाहिए।
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काफी धन उसने इकट्ठा कर लिया था लोगों को डरा-डराकर नर्क के भय से। लोग खाना न खाते, पैसा इकट्ठा करते कि टिकट खरीदनी है। यही कर रहे हैं लोग। खाना नहीं खाते, मैं देखता हूं तीर्थयात्रा को जाते हैं। कपड़ा नहीं पहनते, मंदिर में दान दे आते हैं।
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खुद भूखों मरते हैं, ब्राह्मण को भोजन कराते हैं। सदियों से डरवाया है ब्राह्मण ने कि हम ब्रह्म के सगे-रिश्तेदार हैं।
भाई- भतीजावाद। अपना नाता करीब का है, करवा देंगे तुम्हारा इंतजाम भी। खुद खाओगे, कोई पुण्य न होगा। ब्राह्मण को खिलाओगे, पुण्य होगा। लोग भूखों मरते हैं, पंडे-पुरोहितों को देते हैं।
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उस धर्मगुरु ने बहुत धन इकट्ठा कर लिया। एक रात एक आदमी उसकी छाती पर चढ़ गया जाकर, छुरा लेकर। और उसने कहा, निकाल, सब रख दे ! उसने गौर से देखा, वह उसकी ही जाति का आदमी था। उसने कहा, अरे! तुझे पता है, नर्क में सड़ेगा।
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उसने कहा, छोड़ फिकर, पहली श्रेणी का टिकट पहले ही खरीद लिया है, सब निकाल पैसा। तुमसे ही खरीदा है टिकट। वह हम पहले ही खरीद लिए हैं, उसकी तो फिकर ही छोड़ो। अब नर्क से तुम हमें न डरवा सकोगे। वे कोई और होंगे जिनको तुम डरवाओगे। हम टिकट पहले ही ले लिए हैं; अब तुम सब पैसा जो तुम्हारे पास इकट्ठा किया है तिजोड़ी में, दे दो।
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लोग यही कर रहे हैं। इसको तुम चरित्र कहते हो ! भय पर खड़े, लोभ पर खड़े व्यक्तित्व को तुम चरित्र कहते हो ! यह चरित्र का धोखा है।
ओशो 🌸, एस धम्‍मो सनंतनो, भाग -1,#2

शुक्रवार, 21 मार्च 2025

*नरेन्द्र की श्रेष्ठता*

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*मुझ ही मैं मेरा धणी, पड़दा खोलि दिखाइ ।*
*आत्म सौं परमात्मा, प्रकट आण मिलाइ ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*ख. परिच्छेद १*
*श्रीरामकृष्ण तथा नरेन्द्र(स्वामी विवेकानन्द)*
*(अमरीका और यूरोप में विवेकानन्द)*
*(१)नरेन्द्र की श्रेष्ठता*
आज रथयात्रा का दूसरा दिन है, १८८५ ई., आषाढ़ संक्रान्ति । भगवान श्रीरामकृष्ण प्रातःकाल बलराम के घर में भक्तों के साथ बैठे हुए हैं । नरेन्द्र की महानता बतला रहे हैं –
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"नरेन्द्र आध्यात्मिकता में बहुत ऊँचा है, निराकार का घर है, उसमें पुरुष की सत्ता है । इतने भक्त आ रहे हैं, पर उनमें उसकी तरह एक भी नहीं ।
"कभी कभी मैं बैठा-बैठा हिसाब करता हूँ तो देखता हूँ कि पद्मों में कोई दशदल है तो कोई षोड़शदल और कोई शतदल, परन्तु नरेन्द्र सहस्रदल है ।
"अन्य लोग घड़ा, लोटा ये सब हो सकते हैं, परन्तु नरेन्द्र एक बड़ा मटका है ।
"तालाबों की तुलना में नरेन्द्र सरोवर है ।
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"मछलियों में नरेन्द्र लाल आँखवाला रोहित मछली है, बाकी सब छोटी-मोटी मछलियाँ हैं ।
"वह बड़ा पात्र है - उसमें अनके चीजें समा जाती है । वह बड़ा सूराखवाला बाँस है ।
"नरेन्द्र किसी के वशीभूत नहीं है । वह आसक्ति, इन्द्रियसुख के वश में नहीं है । वह नर कबूतर है । नर कबूतर की चोंच पकड़ने पर वह चोंच को खींचकर छुड़ा लेता है । पर स्त्री कबूतर चुप होकर बैठी रहती है।"
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तीन वर्ष पहले(१८८२ ई. में) नरेन्द्र अपने एक ब्राह्म मित्र के साथ दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने आये थे । रात को वे वहीं रहे थे । सबेरा होने पर श्रीरामकृष्ण ने कहा था, "जाओ, पंचवटी में ध्यान करो ।" थोड़ी देर बाद श्रीरामकृष्ण ने जाकर देखा था, वे मित्रों के साथ पंचवटी के नीचे ध्यान कर रहे हैं । ध्यान के बाद श्रीरामकृष्ण ने उनसे कहा था, "देखो, ईश्वर का दर्शन ही जीवन का उद्देश्य है ।
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व्याकुल होकर एकान्त में गुप्त रूप से उनका ध्यान-चिन्तन करना चाहिए और रो-रोकर प्रार्थना करनी चाहिए, 'प्रभो, मुझे दर्शन दो ।' " ब्राह्म-समाज तथा दूसरे धर्मवालों के लोकहितकर कर्म तथा स्त्री-शिक्षा, स्कूलों की स्थापना एवं भाषण आदि के सम्बन्ध में उन्होंने कहा था, "पहले ईश्वर का दर्शन करो । निराकार साकार दोनों का ही दर्शन । जो वाणी-मन से परे हैं, वे ही भक्त के लिए देहधारण करके दर्शन देते हैं और बात करते हैं ।
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दर्शन के बाद, उनका निर्देश लेकर लोकहितकर कार्य करने चाहिए । एक गाने में है - 'मन्दिर में देवता की स्थापना तो हुई नहीं, और पोदो(बुद्ध) केवल शंख बजा रहा है, मानो आरती हो रही हो । इसलिए कोई कोई उसे धिक्कारते हुए कह रहे हैं - अरे पोदो, तेरे मन्दिर में माधव तो है नहीं और तूने खाली शंख बजा-बजाकर इतना ढोंग रच रखा है ! उसमें तो ग्यारह चमगीदड़ रातदिन निवास करते हैं ।'
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"यदि हृदयरूपी मन्दिर में माधव की स्थापना करना चाहते हो, यदि भगवान को प्राप्त करना चाहते हो तो केवल भों-भों करके शंख बजाने से क्या होगा ? पहले चित्त को शुद्ध करो । मन शुद्ध होने पर भगवान पवित्र आसन पर आकर बैठेंगे । चमगीदड़ की विष्ठा रहने पर माधव को लाया नहीं जा सकता । ग्यारह चमगीदड़ अर्थात् ग्यारह इन्द्रियाँ ।
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"पहले डुबकी लगाओ । डूबकर रत्न उठाओ, उसके बाद दूसरा काम । पहले माधव की स्थापना करो, उसके बाद चाहो तो व्याख्यान देना ।
"कोई डुबकी लगाना नहीं चाहता । साधन नहीं, भजन नहीं, विवेक-वैराग्य नहीं, दो-चार बातें सीख लीं, बस लगे 'लेक्चर' देने !
"लोगों को सिखाना कठिन काम है । भगवान के दर्शन के बाद यदि किसी को उनका आदेश प्राप्त हो, तो वह लोक-शिक्षा दे सकता है ।"
(क्रमशः)

साँच चाणक का अंग १४

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*दादू पद जोड़े का पाइये, साखी कहे का होइ ।*
*सत्य शिरोमणि सांइयां, तत्त न चीन्हा सोइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साँच का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक का अंग १४
का पद साखि कवित्त के जोरे१ जे,
काया की सौंज२ जु जोरी३ न जाई ।
रसना रस नैन निरखि दश हूं दिशि,
नासिका दास गई लपटाई ॥
इन्द्री अनंग४ सुने श्रवणा गये,
मांहि गये मन शुद्ध न पाई ।
हो रज्जब बात बहु विधि जोरी५ पै,
आतम राम न जोरी रे भाई ॥१२॥
यदि शरीर की सामग्री२ परमार्थ में नहीं लगाई३ तो पद, साखी कवित्त आदि को जोड़ने१ से क्या लाभ है ?
रसना रस में लगी है, नेत्र सांसारिक सौंन्दर्य को देखने दशों दिशाओं जाते हैं । नासिक सुगन्ध में लिपट रही है ।
इन्द्री काम परायण हो रही है । सांसारिक शब्द सुनने के लिये श्रवण तत्पर हैं । भीतर जाने पर मन शुद्ध नहीं मिलता है ।
बातें बहुत प्रकार को जोड़ली हैं परन्तु आत्मा को राम से नहीं जोड़ा तब क्या है ।
(क्रमशः)

*साधना ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू बेली आत्मा, सहज फूल फल होइ ।*
*सहज सहज सतगुरु कहै, बूझै बिरला कोइ ॥*
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*साधना ॥*
तत बेली रे तत बेली रे ।
क्यारा पाँच पचीसौं क्यारी, जतन कियाँ ऊगैली रे ॥टेक॥
एक काँकरी कुई खणैंली, धुणी फूटी सेझै ह्वैली ।
तहाँ अरहट माल बहैली, तिहि धोरै नीर पिवैली ॥
तहाँ पाणति प्राण करैली, जाकै कोमल कूँपल ह्वैली ।
सो तरवर जाइ चढैली, गुरि सींची सदा बधैली ॥
चहुँ दिसि पसरि रहैली, फल लागाँ फूलैली ।
यौं बेली बिरधि करैली, राखी जतन रहैली ॥
तौ बाड़ी सुफल फलैली, गगन माँहि गरजैली ।
अमर नाम बषनां सो बेली, अविनासी फल देली ॥४१॥
परमात्म-नाम रूपी तत्त्व की वल्लरी = वेल पचीस प्रकृतियों सहित पाँच तत्वों से निर्मित शरीर में यत्न = साधना करने से निश्चय ही प्रस्फुटित = फलित होगी; परमात्मा का दर्शन होगा !
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एक काँकरी रूपी विवेक से हृदय में विद्यमान जन्म-जन्मान्तरों के बुरे संस्कारों को हटाकर शुद्ध हृदय रूपी कूप तैयार करना होगा । उसमें (हृदय में) परमात्मा के नामस्मरण संबंधी रूचि रूपी स्त्रोत फूट पड़ेंगे जिनमें होकर परमात्म-प्रेम रूपी जल का आगमन होगा । (सेझै = जल का झरना) उस परमात्मप्रेम में अरहट रूपी मन की माल रूपी वृत्ति बहने लगेगी फिर वह वल्लरी भाव रूपी धोरे में प्रवाहित हुए भगवत्प्रेम रूपी जल को पियेगी ।
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भाव रूपी धोरों के टूटने पर = साधना में विघ्न उपस्थित होने पर निश्चय रूपी प्राणवायु = प्राणी = जीव स्वयं पानी को पाणत = सही दिश में मोड़ेगा । फिर उस वेली में कोंपल रूपी वैधीभक्ति की उत्पत्ति होगी । वह वैधीभक्ति रूपी छोटी सी वल्लरी ही रागानुगाभक्ति के रूप में परिवर्तित होना रूप वृक्ष पर चढ़ जायेगी । फिर वह रागानुगाभक्ति ही गुरुमहाराज के उपदेशों से सिंचित होकर प्रेमाभक्ति के रूप में और बढ़ जायेगी, अगली सीढ़ी में पहुँच जायेगी ।
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वह वल्लरी वृक्ष पर चारों ओर पसर-फैल जायेगी । प्रेमाभक्ति पूरे शरीर, तन-मन में अपना साम्राज्य जमा लेगी । तत्पश्चात् उसमें परमात्मसाक्षात्कार रूपी फूल लगेंगे । वह परमात्मा का सानिध्य प्राप्ति रूपी फूलों से फूल जायेगी । इस प्रकार वेली = रामनाम की साधना वृद्धि को प्राप्त होगी । क्रमशः सीढ़ी दर सीढ़ी आगे बढ़ेगी । यह वल्लरी बराबर यत्न करते रहने पर ही सुरक्षित रहेगी । परमात्मा का सानिध्य तब तक ही रहेगा जब तक हम उसकी भक्ति करते रहेंगे ।
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उक्त प्रकार की साधना करने से शरीर रूपी वाड़ी अच्छे फल रूपी मुक्ति से लद जायेगी और गगन में गर्जना करेगी = अनहदनाद सुनेगी । परमात्मा का अमर नाम ही ऊपर कही गई तत्त्व रूपी वल्लरी है ‘समुझत सरिस नाम अरु नामी । प्रीति परस्पर प्रभु अनुगामी ।’ और उसमें लगने वाला फूल ही अविनाशी परमात्म-प्राप्ति रूप मुक्ति है ॥४१॥
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टिपण्णी : इस पद का अर्थ मंगलदासजी महाराज ने ज्ञानमार्गी पद्धति पर किया है । पाठकों के लाभार्थ हम उसे यहाँ अविकल रूप में दे रहे हैं ।
“इस पद्य में एक प्रकार के आत्मज्ञान परक रूपक का वर्णन किया गया है । तत्त्व रूपी वेलि बहुत यत्न करने से लगेगी । वह यत्न कैसा कि पंच भूतात्मक, आठ प्रकृति (मूल प्रकृति, महान् अहंकार, पञ्च तन्मात्रा) षोडश विकार (पंच भूत, पंच ज्ञानेन्द्रियाँ, पञ्चकर्मेन्द्रियाँ, उभयात्मक मन) और चैतन्य इन पच्चीस क्यार वाले शरीर में निम्नोक्त यत्न किया जाय तो लग सकती है । तत्त्व रूपी बेल के लगने की क्यारी तो ऊपर बतादी ।
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बेल में पानी चाहिये । उसके लिये कूवा, कूवे को खोदने वाला, पानी निकालने वाला, पानी पिलाने वाला; वह सब सामग्री यहाँ कैसी हो वह बतलाते हैं । सत्यासत्य विचार रूपी काँकरी से ज्ञान रूपी कूप खोदा जाय । उसमें निश्चय रूपी सेजा(जल का झरना) निकले ।
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उसमें वृत्ति रूप अरहट पानी निकाले । वृत्ति का तत्त्व की ओर प्रवाह वही धोरा (जल जाने की नाली) उस नाली से आत्म स्वरूप रूपी नीर बहे । प्राणवायु इस नीर को पिलावे । तब उस वेल में कूँपल नवीन अकुंर उत्पन्न हो ।
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गुरु उपदेश रूपी सिंचाई से वह बढ़ेगी = फूलेगी-फलेगी । वह वेलि व्यापक चैतन्य रूपी वृक्ष पर चढ़ेगी । इस प्रकार तत्त्व वेल को उपजाने तथा सुरक्षापूर्वक बढ़ाने पर उससे अविनाशी मुक्ति रूप फल प्राप्त होगा ।
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“अमर नाम बषनां सो वेली” “वह वल्लरी परमात्मा का अमर नाम ही है, के आधार पर हमने पद का अर्थ भक्ति-मार्गानुसार करना ही उचित समझा । वैसे संत भक्ति-मार्गानुयायी ही थे । उनका लक्ष्य परमात्मा से एकाकार होना रहा है । अतः उनके दर्शन में स्वतः ही ज्ञान मार्ग का प्रवेश हो गया है । श्रीकृष्ण गीता में इसकी पुष्टि करते है “ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥”
(क्रमशः)

*४६. परमारथ कौ अंग ९/१२*

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*४६. परमारथ कौ अंग ९/१२*
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मैं मेरी सब कोइ करैं, हरि हरि करै न कोइ ।
जगजीवन हरि हरि करै, बड़ा सबन थैं सोइ ॥९॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि मैं ओर मेरा सब कोइ करते हैं यह मेरा है मैं इसका हूँ । हरि मेरे हैं ऐसा कोइ नहीं करता जो हरि हरि करते हैं वे ही जन सबसे बड़े है ।
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परमारथ जिस देह मैं, परम पुरिष सौं रत्त ।
कहि जगजीवन भगतिमत, (सोइ) कबीर गोरख दत्त ॥१०॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जो देह परमार्थ चाहती है और प्रभु भजन में लीन है । वह भक्ति युक्त बुद्धि कबीर साहब, गोरखनाथ जी महाराज व भगवान दत्तात्रेय जी की देन है ।
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परमारथ जिस देह मैं, ग्यांन ध्यांन गुणवंत ।
कहि जगजीवन सोइ जन, जत सत जा कै वित्त ॥११॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जिस देह में ज्ञान व्यापता है ध्यान होता है । ऐसी गुणी देह में ही सत्य संन्यास जैसे धन होते हैं ।
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परमारथ जिस देह मैं, पांचौं राखै पाक३ ।
कहि जगजीवन नांव भजि, रांम रसायंन छाक४ ॥१२॥
{३. पाक=पाँचों इन्द्रियाँ संयत कर उनको पवित्र(निर्विकार) रखे ।}
{४. छाक=पूर्ण सन्तोष(तृप्ति) होने तक पीता रहे ।}
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जिस देह में परमार्थ से पांचो इन्द्रियां पवित्र होती है । वे ही स्मरण से राम रसायन का पान करते हैं ।
(क्रमशः)

*भर भार तज्यो भ्रतरी सगरो*

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*दादू कहै सतगुरु शब्द सुनाइ करि,*
*भावै जीव जगाइ ।*
*भावै अन्तरि आप कहि, अपने अंग लगाइ ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान* 
 *साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, 
*साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ* 
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*सवैया-*
*भर भार तज्यो भ्रतरी सगरो१,*
*अगरो२ पिछरो३ ब४ नहीं कुछ सांसों५ ।*
*गह्यो अनुराग दुति६ न समाध७ जु,*
*क्षीण शरीर सु लोही न मांसो ॥*
*मनसा मन जीत करी हरि प्रीति,*
*वैराग्य की रीति भिक्षा कियो कांसो ।*
*राघो कहै गुरु गोरख से मिल,*
*यूं कियो माया रु मोह को नासो ॥३१७॥*
गुरु गोरक्षनाथजी का उपदेश हृदय में भर कर भर्तहरि ने संपूर्ण१ राज्यभार त्याग दिया । अब४ उनको परलोक२ और इस लोक३ सम्बन्धी कोई भी संशय५ नहीं रहा था ।
आपने एक परमात्मा का ही प्रेम हृदय में ग्रहण किया था । दूसरे६ किसी का भी उपास्य रूप में समादर७ नहीं किया था । तपस्या के द्वारा आपका शरीर क्षीण हो गया था । रक्त और मांस उचित मात्रा में नहीं रहे थे ।
आपने मन के मनोरथ वा वासना जीतकर हरि से प्रीति की थी और तीव्रतर वैराग्य की रीति अपनाते हुये भिक्षा का ही भोजन८ करते थे ।
राघवदासजी कहते हैं- उक्त प्रकार गुरु गोरक्षनाथजी से मिलकर भर्तृहरि ने अपने हृदय के मायिक विचार और मोह को नष्ट किया था ॥३१७॥
(क्रमशः)

सोमवार, 17 मार्च 2025

उपासना-मन्दिर

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*दादू भावै तहाँ छिपाइए, साच न छाना होइ ।*
*शेष रसातल गगन धू, प्रगट कहिये सोइ ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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श्रीरामकृष्ण उपासना-मन्दिर में बैठकर यही सब बातें कह रहे हैं, केशव आदि भक्तगण चुपचाप सुन रहे हैं । रात के ८ बजे का समय है । तीन बार घण्टी बजी, जिससे उपासना प्रारम्भ हो ।
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श्रीरामकृष्ण - (केशव आदि के प्रति) - यह क्या ? तुम लोगों की उपासना नहीं हो रही है ।
केशव - और उपासना की क्या आवश्यकता ? यही तो सब हो रहा है ।
श्रीरामकृष्ण - नहीं जी, जैसी पद्धति है, उसी प्रकार हो ।
केशव - क्यों, यही तो अच्छा हो रहा है ।
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श्रीरामकृष्ण के अनेक बार कहने पर केशव ने उठकर उपासना प्रारम्भ की ।
उपासना के बीच में श्रीरामकृष्ण एकाएक खड़े होकर समाधिमग्न हो गये । ब्राह्म भक्तगण गाना गा रहे हैं । - 'मन एक बार हरि बोलो, हरि बोलो' – आदि ।
श्रीरामकृष्ण अभी भी भावमग्न होकर खड़े हैं । केशव ने बड़ी सावधानी से उनका हाथ पकड़कर उन्हें मन्दिर में से आँगन पर उतारा ।
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गाना चल रहा है । अब श्रीरामकृष्ण गाने के साथ नृत्य कर रहे हैं । चारों ओर भक्तगण भी नाच रहे हैं ।
ज्ञानबाबू के दुमँजले के कमरे में श्रीरामकृष्ण तथा केशव आदि के जलपान की व्यवस्था हो रही है । वे जलपान करके फिर नीचे उतरकर बैठे । श्रीरामकृष्ण बातें करते करते फिर गाना गा रहे हैं । साथ में केशव भी गा रहे हैं ।
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गाना (भावार्थ) –
"मेरा मनरूपी भ्रमर श्यामा के चरणरूपी नील कमलों में मग्न हो गया । कामादि कुसुमों का विषयरूपी मधु उसके सामने फीका पड़ गया । .....”
“श्यामा के चरणरूपी आकाश में मेरा मनरूपी पतंग उड़ रहा था । पाप की जोरदार हवा से धक्का खाकर उल्टा होकर गिर गया ।...”
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श्रीरामकृष्ण और केशव दोनों ही मतवाले बन गये । फिर सब लोग मिलकर गाना और नृत्य करने लगे । आधी रात तक यह कार्यक्रम चलता रहा ।
थोड़ी देर विश्राम करके श्रीरामकृष्णदेव केशव से कह रहे हैं, "अपने लड़के के विवाह की सौगात क्यों भेजी थी ? वापस मँगवा लेना । उन चीजों को लेकर मैं क्या करूँगा ?"
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केशव मुस्करा रहे हैं । श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं - "मेरा नाम समाचार-पत्रों में क्यों निकालते हो ? पुस्तकों या संवादपत्रों में लिखकर किसी को बड़ा नहीं बनाया जा सकता । भगवान जिसे बड़ा बनाते हैं, जंगल में रहने पर भी उसे सभी लोग जान सकते हैं ।
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घने जंगल में फूल खिला है, भौंरा इसका पता लगा ही लेता है, पर दूसरी मक्खियाँ पता नहीं पातीं । मनुष्य क्या कर सकता है ? उसके मुँह की और न ताको । मनुष्य तो एक कीड़ा है । जिस मुँह से आज अच्छा कह रहा है, उसी मुँह से कल बुरा कहेगा । मैं प्रसिद्धि नहीं चाहता । मैं तो चाहता हूँ कि दीन से दीन, हीन से हीन बनकर रहूँ ।"
(क्रमशः)




साँच चाणक का अंग १४

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*दादू माया कारण मूंड मुंडाया, यहु तौ योग न होई ।*
*पारब्रह्म सूं परिचय नांहीं, कपट न सीझै कोई ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ भेष का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक का अंग १४
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चाल ले चोर की बोलिबो साधु को, 
ऐसे न साधु को बोलि विकायगो । 
हंस की बोली सु सीखी जु काग ने, 
तो व कहा कछु हंस कहायगो ॥
पोथी को पानो लह्यो जड़ पंथि ने, 
तो सब शास्त्र क्यों शोध१ में आयगो । 
पक्षी को पंख धर्यो नर के शिर, 
रज्जब सो न आकाश को जायगो ॥११॥
यदि काक पक्षी भांति भांति हंस की बोली सीख ले तो क्या वह कुछ हंस कहा जायेगा ? 
मूर्ख पथिक ने मार्ग में चलते समय पुस्तक का पाना हाथ में ले लिया तो क्या उसके विचार१ में सब शास्त्र आ जायेगा ? 
मनुष्य के शिर पक्षी का पंख धर दिया जाय तो भी वह उड़कर आकाश में नहीं जा सकता । 
वैसे ही जिसका बोलना साधु का सा और व्यवहार चोर का सा हो तो ऐसा नर के वचन साधु के समान नहीं बिक सकते अर्थात आदर नहीं पाते । 
(क्रमशः) 

*भ्रमविध्वंश ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू जीव न जानै राम को, राम जीव के पास ।*
*गुरु के शब्दों बाहिरा, तातैं फिरै उदास ॥*
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*भ्रमविध्वंश ॥*
नेड़ौ ही रे राम ताकौ मारग भूला ।
ऊगवणी केइ आथवणी, यौं ही भ्रमि भ्रमि डूला ॥टेक॥
लोह पारस सदा लावै, पलट्यौ काँही रे ।
जो वो लोह कौ लोह रह्यौ, तौ यौ पारस नाँही रे ॥
आपणा उनहारि भूल्या, भूला अजपाजाप रे ।
सकती लोकाँ मारि कीयौ, सींदरी तैं साप रे ॥
तीनि गुण की ताप जदि की, जीव कौं लागी रे ।
म्रिगत्रिष्णा धाइ धाइ पीयौ, काँही प्यास न भागी रे ॥
मकड़ाणा खाटू बिचैं, जग खोदिवा धायौ ।
बषनां रे गुर ग्यान थैं, घन घरही मैं पायौ ॥४०॥
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हे जीव ! रामजी अत्यन्त ही निकट में प्राप्त है किन्तु तू उसके पाने के रास्ते को भ्रम के कारण भूल गया है । (जैसा पूर्व पद में लिखा गया है, रामजी शरीर में ही प्राप्त है किन्तु अज्ञान के कारण जीव उसको अनुभव नहीं कर पाता है । यही मार्ग को भूलना है ।) कोई पूर्व दिशा और कोई पश्चिम दिशा में परमात्मा का निवास बताते हैं और उसे ढूंढने को तत्तत दिशाओं में जाते हैं किन्तु उनको वहाँ कुछ भी नहीं मिलता है ।
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वे यौंही = व्यर्थ ही भ्रमों से भ्रमित हुए डोलते रहते हैं । लोहे को पारस के सानिध्य में सदैव पलटने के लिये रखते हैं किन्तु वह लोहा किंचित् अंश में भी न बदलकर लोहे का लोहा ही रह जाता है तो जानना चाहिये कि पारस असली पारस नहीं है ।
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जीव अज्ञानावरण के कारण अपने स्वयं का उन्हारि = वास्तविक स्वरूप भूल गया है । इतना ही नहीं वह श्वास-प्रतिश्वास स्वतः ही होने वाले अजपाजाप को करना भी भूल गया है । कुछ निरीह-निर्बल लोगों को मारकर अपने आपको ठीक वैसे ही शक्तिशाली मानने लगता है जैसे कोई रस्सी को मारकर सर्प को मारने का दंभ करे ।
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जब से जीव के तीनों गुणों की ताप लगी है तबही से वह विषय भोगों की ओर वैसे ही दौड़ता है जैसे मरुस्थल में जल के लिये मृग दौड़ता है किन्तु उसे कहीं भी जल रूपी पूर्णानंद की प्राप्ति नहीं होती है जबकि वह विषयभोगों को प्रभूत मात्रा में प्रभूत समय तक भोगता रहता है ।
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वस्तुतः ऐसे लोगों की स्थिति वैसी ही होती है जैसी मकराना और खाटू के बीच के रास्ते को धन के लिये खोदने वालों की होती है जिन्हें पूरा रास्ता खोदने पर एक कोड़ी भी नहीं मिलती किन्तु गुरु द्वारा बताये जाने पर घर में ही सारा धन मिल जाता है । परमात्मा इस शरीर में ही है । उसे गुरुपदिष्ट मार्ग का अनुसरण करके प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये ॥४०॥
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अन्तर्कथा ॥ कोई धनवान व्यक्ति मरने लगा तब उससे उसके पुत्रों ने पूछा कृपया हमें धन बतादें ताकि हम आपके मरने के उपरान्त उसे प्राप्त कर सकें । मरणासंन व्यक्ति ने धन ‘मकराना’ और ‘खाटू’ के बीच में बता दिया । पुत्रों ने मकराना और खाटू गाँव के बीच का सारा रास्ता खोद डाला किन्तु उन्हें एक भी फूटी कौड़ी नहीं मिली ।
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किसी समझदार व्यक्ति से चर्चा करने पर उसने पूरे घर का निरिक्षण किया और एक कमरे को खुदवा दिया । उसमें से धन निकल आया । क्योंकि उस कमरे में एक ओर खाटू तथा दूसरे ओर मकराने के पत्थर लगे हुए थे और बीच में धन था ।
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मरणासंन व्यक्ति ही संसार है । पुत्र ही जीव है । धन ही परमात्मा है । समझदार व्यक्ति ही गरू है । स्वामी रामचरणजी ने लिखा है ~
“जहाँ तहाँ भरिपूरि है, घटि घटि व्यापक सीव ।
रामचरण सतगुरु बिना, भेद न पावै जीव ॥
रामचरण बीजक बिना, जो घर में धन होय ।
यूँ पूरा गुरुदेव बिनि, तत नहिं पावै कोय ॥”
(क्रमशः)

रविवार, 16 मार्च 2025

*४६. परमारथ कौ अंग ५/८*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Rgopaldas Tapsvi, बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४६. परमारथ कौ अंग ५/८*
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जो दीजै सो पाइये, जो बोवै सो लूंण ।
जगजीवन हरि नांम नित, जन कहिये अस सूंण ॥५॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जो देंगे वही मिलेगा, जो बीजेंगे वही उगेगा अतः नित्य ही परभु नाम का स्मरण कर शगुन मनाये ।
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जो प्रांणी जैसा करै, तैसा पावै लोइ ।
कहि जगजीवन रांम रस, हरि भजि पीवै सोइ ॥६॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जो जैसा करता है वह वैसा ही पाता है । राम रस का पान या आनंद वे ही लेते हैं जो इसका स्मरण करते हैं ।
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अपणैं१ अपणैं कीया की, सब कोई बैसे पालि१ ।
कहि जगजीवन हरि भगति, मिलि रहै रांम संभालि ॥७॥
(१-१. अपणैं अपणैं=सब कोई स्वकृत कर्म के फलभोग के ही अधिकारी होते हैं ॥७॥)
संत जगजीवन जी कहते हैं कि सब जीव अपने अपने कर्मों । का फल भोगते हैं जो स्मरण कर राम संभाले रहते हैं उन्हें ही प्रभु भक्ति मिलती है ।
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देह२ के संबंधि करै, ते सब स्वारथ भोग२ ।
कहि जगजीवन काज पर, खरचैं ते जगि जोग ॥८॥
(२-२. देह के संबंधि करै=शरीर से सम्बद्ध सभी कृत्य ‘स्वार्थ भोग’ ही कह्काते हैं ॥८॥)
संत जगजीवन जी कहते हैं कि देह के सभी संबध से तो सब स्वार्थ के भोग ही पूरे होते हैं । तो परमार्थ पर खर्च करें तो वे संसार मे सच्चा खर्च है ।
(क्रमशः)

*भर्तृहरि*

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*दादू एता अविगत आप थैं, साधों का अधिकार ।*
*चौरासी लख जीव का, तन मन फेरि सँवार ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*छप्पय-*
*भर्तृहरि*
*भोगराज भ्रम जान के, भक्ति करी है भरतरी ॥*
*तर तीव्र सु वैराग्य, त्रिलोकी तृण कर लेखी१ ।*
*गरक२ भजन के माहिं, ज्ञान सम आतम देखी ।*
*कंचन आधा रेत, तिजारे रहकर कीया ।*
*शूली देने लगे, हर्या अंकूर सु लीया ॥*
*गुरु गोरक्ष कृपा करी, अमर जहां लौं धरतरी३ ।*
*भोग-राज भ्रम जान के, भक्ति करी है भरतरी ॥३१६॥*
महाराज भर्तृहरि ने राज्यों के भोगों को भ्रम रूप जानकर भगवद्भक्ति की थी । उन्होंने तीव्रतर वैराग्य के द्वारा त्रिलोकी के ऐश्वर्य को भी तृण के समान देखा१ था । वे सदा भगवद्भजन में ही निमग्न२ रहते थे और आत्मज्ञान के द्वारा सभी आत्माओं को समान भाव से देखते थे ।
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अलवर राज्य के तिजारे ग्राम में चातुर्मास के समय एक कुम्हार के घर पर निवास किया था । उन कुम्हार और कुम्हारी में आपके प्रति समान प्रेम नहीं था । चातुर्मास पूरा कर के जाते समय उनके भाव के अनुसार कह गये- "बाबा का हेत माई का कुहेत, आधा कंचन आधा रेत ।" बस, कुम्हार के घर जो बर्तन बनाने के लिये मिट्टी पड़ी थी उससे आधा सोना हो गया और आधी मिट्टी ही पड़ी रही । एक राजा आपको चोर जानकर शूली देने लगा था तब भगवत्कृपा से शूली का लोहे का भाग तो मोम जैसा नर्म हो गया था और काष्ठ के भाग में अंकुर निकल आये थे अलावा लोहे गया था । ग्राम पर गोरक्षनाथजी ने अति महान् कृपा की थी । उसी का फल है कि जब तक धरती३ रहेगी तब तक भर्तृहरि भी अमर रहेंगे ॥३१६॥
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विशेष विवरण - भर्तृहरि उज्जैन के प्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य के सौतेले भाई थे । पहले ये ही उज्जैन के राजा थे । एक समय विक्रमादित्य नाराज होकर घर से निकल गये थे । इधर पीछे से भर्तृहरि ने अपनी रानी की दुश्चरित्रता की बातें देखी तब इन्हें संसार के भोगों से वैराग्य हो गया । फिर इन्होंने गुरु गोरक्षनाथजी से दीक्षा ली और आगे चलकर महान् सिद्ध योगी हुये ।
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इनके *श्रृंगार शतक*, *नीतिशतक* और *वैराग्यशतक* नामक सौ-सौ श्लोकों के तीन ग्रंथ प्रसिद्ध हैं । ऐसा ही एक *विज्ञानशतक* और है । व्याकरण के भी आप बड़े पण्डित थे । इनका वाक्यपदीय और हरि कारिका सूत्र प्रसिद्ध हैं । *महाभाष्य दीपिका* और *महाभाष्य त्रिपदी* व्याख्या नामक दो ग्रंथ आप के और बतलाये जाते हैं । प्रथम गोरक्षनाथजी का भर्तृहरि को जिस निमित्त से दर्शन हुआ वह कथा इस प्रकार सुनी जाती है-
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एक समय भर्तृहरि शिकार के लिये वन में एक काले हिरण के पीछे दौड़ते हुये एक वट वृक्ष के पास पहुँचे । वहाँ गोरक्षनाथजी बैठे हुए अपनी मस्ती में अपने आप ही बातें कर रहे थे । उनकी ओर दृष्टि पड़ने से मृग तो कहीं वहीं छिप गया । भर्तृहरि उनकी बातों को सुनकर सोचने लगे ।
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कोई संत हैं । खड़े होकर गोरक्षनाथजी की बातें सुनने लगे । उन बातों को सुनकर भर्तृहरि के नाना विचार होते थे । वे सोते थे वास्तव में ये संत है या पागल । तब बीच में ही भर्तृहरि ने गोरक्षनाथजी से पूछा- आपने इधर कोई काला हिरण देखा ? गोरक्षनाथजी उसका उत्तर न देकर अपनी बातें करते ही रहे ।
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भर्तृहरि ने कहा- तुम कौन हो, मेरी बात नहीं सुनते । फिर भी गोरक्षनाथजी अपनी ही बातें सुनाते रहे जो बड़ी गंभीर अध्यात्म विषय की थीं । भर्तृहरि ने फिर कहा- यहाँ से कोई ग्राम समीप है ? गोरक्षनाथ फिर भी अपने योग के अनुभव की बातों को सुनाने लगे । भर्तृहरि ने सोचा- जो मैं पूछता हूँ उसका उत्तर तो देता नहीं है और ही बातें सुनाता है ।
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इधर सायंकाल भी हो रहा है और हिरण का भी पता नहीं है, वह किधर भाग गया है ? इतने में ही गोरक्षनाथजी का वह पालतू हिरण जिसके पीछे भर्तृहरि लगे हुये थे वहाँ ही आ पहुँचा । भर्तृहरि ने उसका बाण मार कर उसको मार दिया । वह मर कर गोरक्षनाथजी की गोद में पड़ा ।
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तब गोरक्षनाथजी ने कहा- "तुम कौन हो ।" भर्तृहरि बोले- "इस देश का राजा ।" गोरक्षजी ने कहा- "तुमने इस निरपराध मृग को क्यों मारा है ? मार तो वही सकता है जो जीवित कर सके ।" भर्तृहरि ने कहा- "यदि आप जीवित कर दें तो मैं आपका शिष्य हो जाऊँगा ।" गोरक्षनाथजी ने मृग को जीवित कर दिया । भर्तृहरि को स्त्री के व्यवहार से वैराग्य तो हो ही रहा था । वे गोरक्षनाथजी के शिष्य हो गये ।
(क्रमशः)

 

शुक्रवार, 14 मार्च 2025

सिमुलिया ब्राह्मसमाज में श्रीरामकृष्ण

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*दादू कदि यहु आपा जाइगा,*
*कदि यहु बिसरै और ।*
*कदि यह सूक्ष्म होइगा,*
*कदि यहु पावै ठौर ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*परिच्छेद ५, सिमुलिया ब्राह्मसमाज में श्रीरामकृष्ण*
*(१)राम, केशव, नरेन्द्र आदि के संग में*
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आज श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ सिमुलिया ब्राह्मसमाज के वार्षिक महोत्सव में पधारे हैं । ज्ञान चौधरी के मकान में महोत्सव हो रहा है । १ जनवरी १८८२ ई., रविवार, शाम के पाँच बजे का समय ।
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राम, मनोमोहन, बलराम, राजमोहन, ज्ञान चौधरी, केदार, कालिदास सरकार, कालिदास मुखोपाध्याय, नरेन्द्र, राखाल आदि अनेक भक्त उपस्थित हैं ।
नरेन्द्र ने, केवल थोड़े ही दिन हुए, राम आदि के साथ जाकर दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण का दर्शन किया है । आज भी इस उत्सव में वे सम्मिलित हुए हैं । वे बीच-बीच में सिमुलिया ब्राह्मसमाज में आते थे और वहाँ पर भजन-गाना और उपासना करते थे ।
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ब्राह्मसमाज की पद्धति के अनुसार उपासना होगी ।
पहले कुछ पाठ हुआ । नरेन्द्र गा सकते हैं । उनसे गाने के लिए अनुरोध करने पर उन्होंने भी गाना गाया ।
सन्ध्या हुई । इँदेश के गौरी पण्डित गेरुआ वस्त्र पहने ब्रह्मचारी के भेष में आकर उपस्थित हुए । गौरी - कहाँ हैं श्रीरामकृष्णदेव ?
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थोड़ी देर बाद श्री केशव सेन ब्राह्म भक्तों के साथ आ पहुँचे और उन्होंने भूमिष्ठ होकर श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया । सभी लोग बरामदे में बैठे हैं; आपस में आनन्द कर रहे हैं । चारों ओर गृहस्थ भक्तों को बैठे देखकर श्रीरामकृष्ण हँसते हुए कह रहे हैं - “गृहस्थी में धर्म होगा क्यों नहीं ? पर बात क्या है जानते हो ? मन अपने पास नहीं है । अपने पास मन हो तब तो ईश्वर को देगा ! मन को धरोहर रखा है, - कामिनी-कांचन - के पास धरोहर । इसीलिए तो सदा साधु-संग आवश्यक है ।
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“मन अपने पास आने पर तब साधन-भजन होगा । सदा ही गुरु का संग, गुरु की सेवा, साधु-संग आवश्यक है । या तो एकान्त में दिन-रात उनका चिन्तन किया जाय और नहीं तो साधु-संग । मन अकेला रहने से धीरे धीरे सूख जाता है । जैसे एक बर्तन में यदि अलग जल रखो तो धीरे धीरे सूख जायगा, परन्तु गंगा के भीतर यदि उस बर्तन को डुबोकर रखो तो नहीं सूखेगा ।
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"लुहार की दुकान में लोहा आग में रखने से अच्छा लाल हो जाता है । अलग रख दो तो फिर काले का काला । इसलिए लोहे को बीच-बीच में आग में डालना चाहिए ।
“ 'मैं करनेवाला हूँ, मैं कर रहा हूँ तभी गृहस्थी चल रही है, मेरा घर, मेरा कुटुम्ब’ - यह सब अज्ञान है । पर ‘मैं प्रभु का दास, उनका भक्त, उनकी सन्तान हूँ’ - यह बहुत अच्छा है ।
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“ 'मैं' - पन एकदम नहीं जाता । अभी विचार करके उसे भले ही उड़ा दो, पर दूसरे क्षण वह कहीं से फिर आ जाता है । जैसे कटा हुआ बकरा - सिर कटने पर भी म्याँ म्याँ - करके हाथ-पैर हिलाता रहता है ।
"उनके दर्शन के बाद वे जिस 'मैं' को रख देते हैं, उसे कहते हैं 'पक्का मैं । - जिस प्रकार तलवार पारसमणि को छूकर सोना बन गयी है । उसके द्वारा अब और हिंसा का काम नहीं होता ।"
(क्रमशः)

साँच चाणक का अंग १४

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*दादू श्रोता घर नहीं, वक्ता बकै सु बादि ।*
*वक्ता श्रोता एक रस, कथा कहावै आदि ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साँच का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक का अंग १४
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दशा१ करि हीन दिवानों२ बकै कछु,
सो ही कहा कछु कान धरेगो ।
थोथे३ से बाण चलावे बिना बल,
ऐसे व४ गैंडा हो क्यों ही मरेगो ॥
तुपक५ सु पूरि पलितो६ न पावक,
फूंक के फूंके का७ फोर८ करेगो ।
बूंटी न वैद्य टटोरत९ पाटी हो,
रज्जब कैसे व१० पीर हरेगो ॥१०॥
पोले३ बाणों को बिना बल ही चलाता रहे तो ऐसा वह४ दृढ गैंडा कैसे मरेगा ?
बन्दूक५ तो भर ली है किंतु अग्नि से युक्ति बत्ती६ न लगाये और फूंक से फूंके तब वह लक्ष्य को तोड़ेगा८ क्या७ ?
न तो औषधी है और न वैद्य है केवल घाव की पट्टी पर अंगुलायाँ घुमाता९ है तब वह१० अपनी पीड़ा कैसे हटा सकता है ?
वैसे ही कथन के समान अवस्था१ से रहित पागल२ की जैसे कुछ बकता है तो क्या उसे कोई कुछ कान लगा कर हृदय में धारण करेगा ? अर्थात कथन के समान करने वाले का ही उपयोग श्रोत धारण करता है ।
(क्रमशः)

*परिचय ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*अनहद बाजे बाजिये, अमरापुरी निवास ।*
*जोति स्वरूपी जगमगै, कोइ निरखै निज दास ॥*
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*परिचय ॥*
म्हारै अनहद माँदलियौ बाजै रे ।
अनहद अनहद बाणी बोलै, मेघ तणी धुनि गाजै रे ॥टेक॥
नौ दस सात बहत्तरि कसणी, कारीगरि मढियौ रे ।
दीन्हौं भलौ भाव कौ भोइण, ऊचै सुरि चढियौ रे ॥
पवन ताल म्हारै बिरह रबाबी, इक ताली बावै रे ।
पाँच सहेलियाँ मिलि सर दीन्हौं, मधुरी धुनि गावै रे ॥
प्रेम प्रीति का घूँघर बांध्या, ठमकै पाँव धरै रे ।
इहिं औसर अबिनासी आगै, म्हारौ प्राणिड़ौ निरत करै रे ॥
गोपी ग्वाल बराबरि खेलै, तेज पुंज परकासै रे ।
आतम सौं परमातम हिलिमिलि, रूड़ौ बणियौ रासै रे ॥
ब्रह्मा बिष्न महेसर सुर नर, सकल रह्या बिरमोही रे ।
मधुर मधुर धुनि मुरली बाजै, हरि बोलो हरि बोलो होइ रे ॥
रंग रह्यौ रमिता स्यौं रमिताँ, आतमराम रिझायौ रे ।
बणियौं रास बिवाणैं बैठा, सुर नर कौतिग आयौ रे ॥
रामति रमताँ जो दत लाधौ, सो दत होतो आदी रे ।
बषनां ब्रह्म जीव सौं रामति, दादू के परसादी रे ॥३९॥
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माँदलियौ = गले में पहनने का एक छोटा सा गहना जिसे प्रायः जंतर भी कहा जाता है । प्रायः चांदी को गोलाकार बनाकर उसमें तांत्रिक विधि से तैयार किये गये किसी यंत्र को रखा जाता है । जंतर की सुंदरता को बढ़ाने ले लिये उसके ऊपरि भाग पर कुछ चम्पे, दाने लगा दिये जाते हैं जिससे इसमें आवाज भी होने लगते हैं ।
नौ = नवद्वार । दस = दस इंद्रियाँ । सात = सात धातु । बहत्तरि = ७२ कोठे । कसणी = के संयोग से । कारीगर = परमात्मा । मढियौ = बनाया ।
भलौ भाव = उत्तम भक्ति । भक्ति प्रायः तीन प्रकार की मानी गई है । वैधी = स्वधाभक्ति । रागानुगा-विधि-निषेध से रहित भगवन्नाम जप रूपा ‘रागानुगायां स्मरणस्य मुख्यता’ । भक्तिरसामृतसिंधु । उत्तमा-प्रेमाभक्ति, गोपीप्रेमात्मक भक्ति । यहाँ भलौ भाव कहकर उत्तमाभक्ति का निर्देश किया गया है किन्तु वैधी तथा रागानुगा के पश्चात् ही उत्तमाभक्ति उत्पन्न होती है । अतः इन दोनों का भी यहाँ अध्याहार कर लेना चाहिये ।
भोइण = भावना, बल । किसी पदार्थ को अग्नि से भावना देकर, अथवा अधिक घोटकर भावित किया जाता है । यहाँ भोइण बल के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है ।
चढ़ियौ = बोलने लगा । पवन = श्वास-प्रश्वास । रबाबी = रबाब बजाने वाला, एकतारा को रबाव कहते हैं । बावै = बजाता है । पाँच सहेलियाँ = पाँच इन्द्रियाँ । प्राणिड़ौ = आत्मा, जीव । गोपी = इन्द्रियाँ । ग्वाल-मन । रूड़ौ = सुन्दर, अद्भुत । रासै = रास । बिरमोही = विस्मृत । रंग = आनंद । रमिताँ = रास करते समय । बणियौं = शुरू होने पर । कौतिग = आश्चर्य । रामति = रास में रमताँ = रमते समय । दत = सम्पत्ति, भगवत् प्रेम ।
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मेरे गले में अनहदनाद रूपी मांदलिया बजता है । (अनहदनाद गले में न बजकर सहस्त्रारचक्र में बजता है । जब शब्द जिव्हा से सरककर कंठ में अपना निवास बनाता है तब “कंठाँ सब्द टगटगी लागी । नाड़ि नाड़ि मैं चलै गिलगिली । सुखधारा अति बहै सिलसिली ॥४६॥ मुख सूँ कछू न उचरै बैना । लग्या कपाट खुलै नहिं नैना ॥” ग्रंथ नामप्रताप स्वामी रामचरणजी की वाणी । ) वहाँ से आवाज निकालना प्रायः मुश्किल हो जाता है । निस्सीम, अविछिन्न ध्वनि होती है । मेघ की सी गर्जन-तर्जनमयी ध्वनि होती है ।
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परमात्मा ने नव द्वारों, दस इंद्रियों, सात धातुओं तथा बहत्तर कोठों के मेल से मनुष्य शरीर बनाया है । इसको उत्तमाभक्ति का बल प्रदान किया है जिसमें ही अनहदनाद ऊँचे स्वर में बज रहा है ।
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मेरे अनहदनाद के लिये श्वास-प्रश्वास की ताल को विरह रूपी रबाबी लगातार बजा रहा है । पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ मिलकर उस रबाबी के सुर में सुर मिलाकर मधुर ध्वनि में गाती है ।
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उन्होंने प्रेम-प्रीति के घूंघरे बांध रखे हैं और वे ठुमके मार-मार कर पाँवों को धरती पर रखती है । ऐसा बनाव बनने पर मेरा प्राण = जीव अविनाशी परब्रहम-परमात्मा के समक्ष आनंदमग्न होकर नृत्य करता है । इन्द्रियां, मन सभी हिलमिल खेलते हैं । तेजपुंज = परमप्रकाश रूप परमात्मा का वह प्रकाश होता रहता है । आत्मा और परमात्मा का हिल-मिलकर-कर खेलने का यह रास सर्वथा सुन्दर बन पड़ा है ।
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इस रास को देख-देखकर ब्रह्मा, विष्णु, महेश व अन्यान्य सुर, नरादि सभी विमोहित हो रहे हैं । इस रास स्थल में मुरली की मधुर-मधुर ध्वनि हो रही है तथा ‘हरि-बोलो, हरि-बोलो’ की आवाज निरन्तर सुनने में आ रही है । रमताराम से उक्त रास में रमने में आनंद की सर्जना हुई और मेरा निजात्मा आनंद में सरावोर हो गया ।
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जब रास का प्रारम्भ हुआ तब विमानों में बैठ बैठकर सुर नरादि इस अद्भुत रास को देखने के लिये आये । इस रास को रमते समय जो धन प्राप्त हुआ वस्तुतः वह धन कोई नया नहीं था । वह था तो पुराना ही किन्तु अनुभव उसका अब हुआ । अतः कहने में आ रहा है कि प्राप्त हुआ ।
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(शांकरवेदांतानुसार आत्मानंद सदा से सभी को सर्वकाल में प्राप्त है किन्तु अविद्या के आवरण के कारण उसका अनुभव नहीं होता है । जैसे ही अविद्यावरण का नाश होता है वैसे ही आत्मानंद का अनुभव होने लगता है । वस्तुतः प्राप्ति तो उसकी होती है जो हमारे पास नहीं होता है और हमें दूसरों से प्राप्त होता है । आत्मा तो हमें सर्वत्र सर्वकाल में प्राप्त है । बा, उसे हम पहचान नहीं पाते । जिस समय हम उसे पहचान जाते हैं उसका हमें बोध हो जाता है, बस, उसी समय आत्मानंद करतलगत हो जाता है । बषनांजी यहाँ यही बात कह रहे हैं । यह आनंद तो आदि = प्रारम्भ से ही था किन्तु इसका मुझे तब अनुभव नहीं हुआ था ।) बषनांजी कहते हैं, यह जीव और जीव और सीव का रास = रामति = एकाकार = गुरुमहाराज दादूजी की कृपा के फल से हुआ है ॥३९॥
(क्रमशः)