रविवार, 12 जनवरी 2025

*४४. रस कौ अंग ९३/९६*

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*४४. रस कौ अंग ९३/९६*
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जिस सूरति मूरति ह्रिदै, सो है सो क्रित साधि ।
जगजीवन अंग एकरस, अकल पुरिष आराधि ॥९३॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जो प्रभु मूरत तेरे मन में है उसे ही साधने का काम करो । सभी इन्द्रियों को उन प्रभु में लगाकर ही उनकी आराधना करो ।
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प्रिथिवी सब हरि हरि करै, पांणी बांणी रांम ।
अनल पवन अबिगत अलख, गगन मगन निज नांम ॥९४॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि देह स्थित पांचों तत्व पृथ्वी जल आकाश वायु व गगन अग्नि सभी में प्रभु व्याप्त हैं अतः हे जन सभी उसी में मग्न हैं ।
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कहि जगजीवन बंदगी७, सेवा चार्यूं जांम८ ।
आग्याकारी अकल९ की, सावधान सब ठांम ॥९५॥
(७. बंदगी=विनयपूर्ण) {८. चार्यूं जाम=चारों याम(प्रहार)}
{९. अकल=कला(विभाग) रहित(अखण्ड)}
संत जगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु आपकी विनय पूर्वक वन्दना और चारों पहर सेवा बिना चतुराई आज्ञानुसार चलना और सदा सावधान सब जगहों पर रहना हो यह ही प्रार्थना है ।
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कहि जगजीवन जोग मंहि, भगति प्रेम रस भोग ।
भावै भुगतै भाव सौं, ना तिंहिं हरष न सोग ॥९६॥
संत जगजीवन जी कहते है कि हैं जीव योग में ही भक्ति प्रेम का आनंद ले । उसे भाव पूर्वकभोग उसमें हर्ष व शोक की प्रतीति न हो वह समर्पण भाव से हो ।
(क्रमशः)

*त्रास दिखात मारि डरावत*

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*दादू माया सौं मन रत भया,*
*विषय रस माता ।*
*दादू साचा छाड़ कर, झूठे रंग राता ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*त्रास दिखात मारि डरावत,*
*एक न भावत शील गह्यो है ।*
*जोर करयो निकस्यो झट छूटिक,*
*चालत दामन१ फारि लह्यो है ॥*
*रूस रही नृप आवत बूझत,*
*कैत भई सुत भोग चह्यो है ।*
*क्रोध भयो नृप हो तिय को जित,*
*न्याय न बूझत२ मूढ बह्यो३ है ॥४२४॥*
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तब रानी लूणा ने पूर्णमल को भय दिखाते हुए मार डालने तक भी कहा, किन्तु पूर्णमल ने तो शीलव्रत ग्रहण कर रखा था । इससे लूणा की प्रेम भय आदि की एक भी बात उन्हें अच्छी नहीं लगी ।
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वे बल करके अपना हाथ छुड़ाकर शीघ्रता से उसके महल से बाहर निकल गये । इस प्रकार पूर्णमल के जाने पर लूणा ने क्रोध के सारे राजा को दिखाने के लिये अपने ही हाथ से अपनी ओढ़नी की पल्ला१ फाड़ लिया और रूस कर बैठ गई ।
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राजा आया तब उससे पूछा- "क्यों रुष्ट हो रही हो ?" उसने कहा- "तुम्हारा पुत्र पूर्णमल मुझे भोगना चाहता है । आज उस दुष्ट ने मेरा सतीत्व विगाड़ने की शक्ति भर चेष्टा की थी, किन्तु मैं झटका देकर बल से उसके हाथ से मेरा अंचल१ छुड़ा‌कर भागी तब ही बच सकी हूँ । देखिये मेरा अंचल फटा पड़ा है ।"
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यह सुनकर राजा को क्रोध आ गया । क्योंकि उसको तो स्त्री ने जीत ही रखा था । अतः न्याय के लिये उसने पूर्णमल तथा मंत्री आदि से कुछ नहीं पूछा२ अथवा न्याय करना तो वह समझता२ ही कैसे, वह तो मूढ के समान स्त्री के कहने के अनुसार ही चलता३ था । कामाधीन को विचार का अवकाश ही कहाँ मिलता है । उसे हो कामांघ कहते ही हैं । यह तो लोक में अति प्रसिद्ध है कि उसे लज्जादि शुभ गुण तो छोड़ ही देते हैं ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 10 जनवरी 2025

*सुरेन्द्र के मकान पर श्रीरामकृष्ण(१)*

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*दादू माहैं मीठा हेत करि, ऊपर कड़वा राख ।*
*सतगुरु सिष कौं सीख दे, सब साधों की साख ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*परिच्छेद २*
*सुरेन्द्र के मकान पर श्रीरामकृष्ण(१)*
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राम, मनोमोहन, त्रैलोक्य तथा महेन्द्र गोस्वामी आदि के साथ आज श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ सुरेन्द्र के घर पधारे हैं । १८८१ ई., आषाढ़ महीना है । सन्ध्या होनेवाली है । श्रीरामकृष्ण ने इसके कुछ देर पहले श्री मनोमोहन के मकान पर थोड़ी देर विश्राम किया था ।
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सुरेन्द्र के दूसरे मँजले के बैठकघर में अनेक भक्तगण बैठे हुए हैं । महेन्द्र गोस्वामी, भोलानाथ पाल आदि पड़ोसी भक्तगण उपस्थित हैं । श्री केशव सेन आनेवाले थे, परन्तु आ न सके । ब्राह्मसमाज के श्री त्रैलोक्य सान्याल तथा अन्य कुछ ब्राह्म भक्त आये हैं ।
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बैठकघर में दरी और चद्दर बिछायी गयी है - उस पर एक सुन्दर गलीचा तथा तकिया भी है । श्रीरामकृष्ण को ले जाकर सुरेन्द्र ने उसी गलीचे पर बैठने के लिए अनुरोध किया ।
श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, “यह तुम्हारी कैसी बात है ?" ऐसा कहकर महेन्द्र गोस्वामी के पास बैठ गये ।
महेन्द्र गोस्वामी - (भक्तों के प्रति ) - मैं इनके (श्रीरामकृष्ण के) पास कई महीनों तक प्रायः सदा ही रहता था । ऐसा महान् व्यक्ति मैंने कभी नहीं देखा । इनके भाव साधारण नहीं हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - (गोस्वामी के प्रति) - यह सब तुम्हारी कैसी बात है ? मैं छोटे से छोटा, दीन से भी दीन हूँ । मैं प्रभु के दासों का दास हूँ । कृष्ण ही महान् हैं ।
"जो अखण्ड सच्चिदानन्द हैं, वे ही श्रीकृष्ण हैं । दूर से देखने पर समुद्र नीला दिखता है, पर पास जाओ तो कोई रंग नहीं । जो सगुण हैं, वे ही निर्गुण हैं । जिनका नित्य है, उन्हीं की लीला है ।
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"श्रीकृष्ण त्रिभंग क्यों हैं ? - राधा के प्रेम से ।
"जो ब्रह्म हैं, वे ही काली, आद्याशक्ति हैं, सृष्टि-स्थिति-प्रलय कर रहे हैं । जो कृष्ण हैं, वे ही काली हैं ।
"मूल एक है - यह सब उन्हीं का खेल है, उन्हीं की लीला है ।
"उनका दर्शन किया जा सकता है । शुद्ध मन, शुद्ध बुद्धि से उनका दर्शन किया जा सकता है । कामिनी-कांचन में आसक्ति रहने से मन मैला हो जाता है ।
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"मन पर ही सब कुछ निर्भर है । मन धोबी के यहाँ का धुला हुआ कपड़ा जैसा है; जिस रंग में रँगवाओगे उसी रंग की हो जायगा । मन से ही ज्ञानी, और मन से ही अज्ञानी है । जब तुम कहते हो कि अमुक आदमी खराब हो गया है, तो अर्थ यही है कि उस आदमी के मन में खराब रंग आ गया है ।"
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सुरेन्द्र माला लेकर श्रीरामकृष्ण को पहनाने आये । पर उन्होंने माला हाथ में ले ली, और फेंककर एक ओर रख दी । इससे सुरेन्द्र के अभिमान में धक्का लगा और उनकी आँखें डबडबा गयीं । सुरेन्द्र पश्चिम के बरामदे में जाकर बैठे - साथ राम तथा मनोमोहन आदि हैं ।
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सुरेन्द्र प्रेमकोप करके कह रहे हैं, “मुझे क्रोध हुआ है; राढ़ देश का ब्राह्मण है, इन चीजों की कद्र क्या जाने ? कई रुपये खर्च करके यह माला लायी । मैं गुस्से में आकर कह बैठा ‘और सब मालाएँ दूसरों के गले में डाल दो ।’
"अब समझ रहा हूँ मेरा अपराध, भगवान पैसे से खरीदे नहीं जा सकते । वे अहंकारी के नहीं हैं । मैं अहंकारी हूँ, मेरी पूजा क्यों लेने लगे ? मेरी अब जीने की इच्छा नहीं है ।"
कहते कहते आँसू की धाराएँ उनके गालों और छाती पर से बहती हुई नीचे गिरने लगीं ।
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इधर कमरे के अन्दर त्रैलोक्य गाना गा रहे हैं । श्रीरामकृष्ण मतवाले होकर नृत्य कर रहे हैं । जिस माला को उन्होंने फेंक दिया था, उसी को उठाकर गले में पहन लिया । वे एक हाथ से माला पकड़कर तथा दूसरे हाथ से उसे हिलाते हुए गाना गा रहे हैं और नृत्य कर रहे हैं ।
सुरेन्द्र यह देखकर कि श्रीरामकृष्ण गले में उसी माला को पहनकर नाच रहे हैं, आनन्द में विभोर हो गये । मन ही मन कह रहे हैं, 'भगवान गर्व का हरण करनेवाले हैं । जरूर, परन्तु (दीनों के, निर्धनों के धन भी हैं) !"
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श्रीरामकृष्ण अब स्वयं गाने लगे, -
गाना - (भावार्थ) –
"हरिनाम लेते हुए जिनकी आँखों से आँसू बहते हैं, वे दोनो भाई आये हैं ! - वे, जो मार खाकर प्रेम देते हैं, जो स्वयं मतवाले बनकर जगत् को मतवाला बनाते हैं, जो चाण्डाल तक को गोद में ले लेते हैं, जो दोनों ब्रज के कन्हैया-बलराम ।"
अनेक भक्त श्रीरामकृष्ण के साथ-साथ नृत्य कर रहे हैं ।
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कीर्तन समाप्त होने पर सभी बैठ गये और ईश्वर की बातें करने लगे ।
श्रीरामकृष्ण सुरेन्द्र से कह रहे हैं, "मुझे कुछ खिलाओगे नहीं ?"
यह कहकर वे उठकर घर के भीतर चले गये । स्त्रियों ने आकर भूमिष्ठ हो भक्तिभाव से उन्हें प्रणाम किया ।
भोजन करने के बाद थोड़ी देर विश्राम करके वे दक्षिणेश्वर लौट आये ।
(क्रमशः)

साँच चाणक का अंग १४

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*ज्ञानी पंडित बहुत हैं, दाता शूर अनेक ।*
*दादू भेष अनन्त हैं, लाग रह्या सो एक ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ भेष का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक का अंग १४
निर्गुण१ रूप दिखाय दुनी२ कहुं,
देख हु लोग ठगे ठग सारे
कोपी३ रु टोपी गरै४ गर५ गूदर६,
मानो डकोत७ बजार उतारे८ ॥
जैसी जुगत्त९ जगत्त१० खुशी सब,
तैसी वसूल११ के स्वांग सँवारे ।
हो रज्जब दास दुनी के भये उर,
बाने१२ किराने१३ के बेचनहारे ॥४॥
सांसारिक२ प्राणियों को गुणातीत१ का सा रूप दिखा कर देखो इन ठगों ने सब लोगों को ठग लिया है ।
कौपीन३ और टोपी लगाकर तथा गले४ में गली५ हुई गुदड़ी६ डाल कर मानों डाकेतों७ के बाजार मंद८ कर दिया हो अर्थात डाकोत धर्मादा से प्राप्ति वस्तुओं को मंदी में बेचते हैं, वैसे ही भेष का भाव उतार दिया है, बिना अधिकार सब को देते हैं ।
जैसी युक्ति९ से जगत्१० के प्राणी प्रसन्न होते हैं, वैसी ही स्थिति प्राप्त११ करने के लिये सब भेष बनाते हैं ।
हे सज्जनों ! वे लोग हृदय में दुनिया के दास बनकर भेष१२ रूप मेवा मसालादि१३ किराने को बेचने वाले हैं ।
(क्रमशः)

*भ्रमविध्वंश ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*माया का ठाकुर किया, माया की महामाइ ।*
*ऐसे देव अनंत कर, सब जग पूजन जाइ ॥*
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*भ्रमविध्वंश ॥*
दुनिया झाँवर झोलि अलूँझै, ताथैं साहिब राम न सूझै ॥टेक॥
बीझासणि कौ झालरि पहर्यौ, मूरिख राति जगाई ।
दोस बराज कछू नहिं कीनौं, बेचि काल मैं खाई ॥
तेल बाकुला भैरौं चाढै, बाकर को कान काटै ।
पूजा चढै सु भोपी लेगी, रहती कूकर चाटै ॥
सिर पर मेल्हि अगीठी बलती, देवी कै मँढि चाली ।
खानि पानि सब सौं मिलि बैठी, नरक कुंड मैं घाली ॥
दई देवता का जे सेवग, दिया नरिक ले गाढै ।
संकट चौथि सँकड़ा की राणी, तो जाणौं जे काढै ॥
कीया बरत अहोई आठै, देवी दावणि बाधा ।
ह्वैसी सहीं सील का बाहण, के गदही के गाधा ॥
भोपी हुई उबासी मारै, दोस दुनी कौं करती ।
पकड़ि नाक काट्यौ कुटणी कौ, सास न काढै डरती ॥
के गूगा का के गुसाँई का, के काँवड का ह्वैसी ।
बेस्वाँ के घरि बालक जायौ, पिता कवन सौं कहसी ॥
यक की नहीं घणाँ की हूई, दीसैं बहु भरतारी ।
बषनां कहै कौंण संगि बलसी, घणपुरिषाँ की नारी ॥३२॥
बषनांजी इस पद में नाना भ्रमों का वर्णन करते हैं जो सांसारिक लोगों के मनों में अपनी जड़ जमाकर बैठे हुए हैं । उन्होंने इन भ्रमों को “झाँवर झोलि” कहा है जिसका तात्पर्य अन्यतत्त्व में अन्यतत्त्व की प्रतीति है । रस्सी को रस्सी न जानकर सर्प जान लेना, शुक्ति को शुक्ति न जानकर रजत रूप में जानना इसके उदाहरण हैं । संसारी जन सांसारिक विषय-भोगों, जो शाश्वत नहीं है को चिर सुखद जान व मानकर उनके संपादन व भोग में ही अपने अमूल्य मनुष्य जन्म को खो देते हैं जबकि चिरशाश्वत व अखंडानंद स्वरूप परब्रह्म-परमात्मा की ओर जरा भी ध्यान नहीं देते हैं ॥
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दुनिया भ्रम में फँस जाती है । इसलिये उसे रामजी नहीं सूझते हैं । मूर्ख = भ्रमित लोग बीजासण देवी की आकृति चांदी में उकरवाकर उसका झालरा बनाकर गले में इस भावना से पहनते हैं कि देवी हमारी रक्षा करेगी तथा कुछ भी अनिष्ट नहीं होने देगी । इसके अतिरिक्त वे उसके प्रसन्नार्थ रात्रिजागरण भी करते हैं किन्तु अकाल पड़ जाने व भोजन के भी लाले पड़ जाने पर उस झालरे को बेचकर उदरपूर्ति की व्यवस्था कर लेते हैं । उस स्थिति में बीजासण देवी कुपित(नाराज) होकर कुछ भी दोष नहीं करती । इसका तात्पर्य यह हुआ कि देवी का झालरा पहनना, उसके निमित्त रात्रिजागरण करना व्यर्थ है क्योंकि इसके कारण न तो वह प्रसन्न होती है और न अप्रसन्न ही होती है ।
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भैरव के प्रसन्नार्थ संसारी लोग तैल तथा बाकला = भीगे हुए अन्न चढ़ाते हैं । बकरे की बलि कान काटकर करते हैं । (जो लोग निरामिष होते हैं वे देवी-भैरवादि के निमित्त बकरे को न काटकर उसके कान मात्र को काटकर देवी के चढ़ाते हैं तथा बकरे को स्वेच्छया विचरण करने को स्वतंत्र कर देते हैं ।) भैरव के सामने जो भेंट आदि चढ़ती है उसे तो भोपी = पुजारिन ले जाती है जबकि शेष बचे तैलादि को कुत्ते चाट जाते हैं । बताइये ! समर्पित उक्त सामग्री का कौनसा अंश भैरव को मिला । कुछ नहीं । वस्तुतः भोपे भोपियों ने अपनी उदरपूर्ति हेतु ही इस भ्रमजाल को फैला रखा है । न तो भैरव भेंटादि चढ़ाने से प्रसन्न होता है और न न चढ़ाने से अप्रसन्न ही होता है ।
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कुछ औरतें शिर पर जलती अंगीठी रखकर देवी के मन्दिर में जाती हैं । वहाँ माँसादि रांधती तथा सबके साथ मिल बैठकर-खाती-पीती हैं और जीवहिंसा के फलस्वरूप उत्पन्न पापों के प्रभाव से अंत में नरकों में जाने का रास्ता तैयार कर लेती हैं । देवी-देवताओं के सेवकों को मोक्ष न मिलकर अंत में भंयकर नरकों की कठिरतम यंत्रणाएँ ही मिलती हैं । “अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् । देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यांति मामपि ॥” गीता ७/२०-२३ तक ॥
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बषनांजी दृढ़तापूर्वक कहते हैं, यदि संकष्टचतुर्थी (माघ कृष्णा चतुर्थी की अधिष्ठातृ देवी संकड़ा की राणी (शंकर की पत्नी) अपने उक्त सेवकों को नरकों में न जाने देकर उनका उद्धार कर दे तो मैं जानूँ कि वास्तव में वह कुछ कर सकने में समर्थ है ।
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स्त्रियाँ अहोई अष्टमी = शीतला-अष्टमी का व्रत करती हैं । उसके मंदिर में जाकर मनोकामना पूर्ति हेतु दावणि = धागा बांधती है (अनेकों स्थानों पर मनोकामना पूर्ति हेतु धागा बांधने की परम्परा है । रामनिवासधाम शाहपुरा में भी वह रीति प्रचलित है) किन्तु ऐसे देवी के सेवक-सेविकाएँ शीतलादेवी के वाहन या तो गधे या गधी ही बनते हैं । उनको पुनर्जन्म से छुटकारा नहीं मिलता ।
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कुछ स्त्रियाँ भैरव आदि की सेविकाएँ बनकर भोपी बन जाती हैं और अपने शरीर में भैरवादि की छाया आने का प्रचार कर नाना प्रकार के ढोंग करती है(उबासी लेती हैं ।) संसारियों द्वारा पूछे जाने पर भैरवादि का दोष बताती है । उनके प्रसन्नार्थ रात्रिजागरण, बलि, भोग आदि करने का उपाय बताती है किन्तु जब उसी कुटणि = ढोंगी भोपी की नाक काट ली जाती है तब डर के कारण उफ भी नहीं करती है । यदि जरासी भी ननुनच करे तो उसका प्रभाव भोली दुनिया पर से उठ जावे । इसकारण वह चुपचाप नाक कटने को सहन कर लेती है । कहने का आशय यह है की यदि उसमें भैरवादि की छाया यथार्थ में आती है तो नाक काटने वाले को वह दंड देने में समर्थ हो सके किन्तु ऐसा वह कर नहीं पाती जिससे सिद्ध होता है कि वह मात्र ढोंग करती है ।
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संसारी लोग मनोकामना पूर्ति हेतु गोगाजी चौहान के सेवक बन जाते हैं, याँ गुसाँइयों के अनुयायी बन जाते हैं अथवा काँवड़ = रामसा पीर के कामड़ बन जाते हैं किन्तु इनसे परमार्थ का साधन लेशमात्र भी नहीं सधता है । परब्रह्म परमात्मा के दरबार में इनकी स्थिति ठीक वैसी ही होती है जैसी वेश्या के घर में जन्मे बालक की होती है । क्योंकि वैश्या का एक पति नहीं होता है जिसको कि बालक पिता कह सके ।
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वैश्या एक की पत्नी न होकर अनेकों पुरुषों की स्त्री बनती है । अतः अनेकों पुरुषों की स्त्री वह वैश्या किसी के भी साथ सहगमन(जौहर) नहीं कर पाती क्योंकि आखिर वह किस-किस के साथ सहगमन करे । ऐसे ही अनेकों देवी-देवों को मनाने वाले भ्रमित चित्त वाले संसारी किस-किस देव के लोक में जाएँ । वे किसी में भी नहीं जा पाते और इस संसार में ही पुनरपि जननं पुनरपि मरणं के चक्र में पड़े रहते हैं ॥३२॥
(क्रमशः)

बुधवार, 8 जनवरी 2025

*४४. रस कौ अंग ८९/९२*

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*४४. रस कौ अंग ८९/९२*
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मगन मस्त लय लीन मन, हरि चरनै धन हेत ।
प्रांण पुरिष धापै४ नहीं, जगजीवन सुख लेत ॥८९॥
{४. धापै-संतुष्ट(तृप्त) हो}
संत जगजीवन जी कहते हैं कि मन मगन और मस्त हो जब प्रभु स्मरण में लीन होता है तो वह प्रभु चरणों को ही श्रेष्ठ धन मानता है । और उससे उसे इतना आनंद मिलता है पर फिर भी तृषा बनी रहती है ।
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जगजीवन नीझर झरै, पच्छिम बरसै मेह ।
रोम रोम सुख ऊपजै, नख सिख भीजै देह ॥९०॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जिस प्रकार पश्चिम दिशा से आये बादल छाए नवरत बरसते हैं ऐसे ही राम नाम स्मरण से यह देह नख शिख भीग कर रोम रोम से सुखी होती है ।
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जगजीवन लिखि राखिये, रोम रोम हरि नांम ।
अंग सौं अंग लगाइ करि, तौ रस पावै रांम ॥९१॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि रोम रोम हरि को समर्पित हो । इस प्रकार के समर्पण से ही राम स्मरण का आंनद रस प्राप्त होता है ।
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सरस रसांइण५ सीख ले, काया कंचन होइ ।
हरि भजि आनन्द ऊपजै, जगजीवन घट धोइ६ ॥९२॥
(५. रसांइण=पारे से बनी सिद्ध औसध) {६. धोइ=धो(स्वच्छ) कर}
संत जगजीवन जी कहते हैंकि हे जीव सरल रसायन है प्रभु नाम ओर तू जिससे देह कंचन हो जाती है उसके मूल्य बढते हैं । हरि भजन से आनंद बढता है अतः निर्मल ह्रदय करें ।
(क्रमशः)

*चौरंगीनाथजी की पद्य टीका*

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*दादू माया बैरिण जीव की,*
*जनि कोइ लावे प्रीति ।*
*माया देखे नरक कर, यह संतन की रीति ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*चौरंगीनाथजी की पद्य टीका*
*इन्दव-*
*माँग हुती सुत की नृप व्याहत,*
*रूपवती अति बुद्धि चलाई ।*
*खेलत गैंद गई दुरि ता घर,*
*दौर गयो तिस लेनहि जाई ॥*
*देखत रूप अनूप महा अति,*
*बाँह गही संग मोहि कराई ।*
*हाथ हि जोड़ कहै मुख सूखत,*
*बात अयोग्य कहो जनि माई ॥४२३॥*
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लूणा के पति की माँग पूर्णमल की थी किन्तु पूर्णमल नट गया कि मैं विवाह नहीं करूँगा । तब राजा शालिवाहन ने ही लूणा के साथ विवाह कर लिया । लूणा अति रूपवती थी । इससे पूर्णमल के सुन्दर रूप को देख कर उससे रति संग का सुख लेने के लिए अपनी बुद्धि पूर्णमल की ओर लगाई ।
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एक दिन दैवयोग से गैंद लूणा के महल में जाकर किसी स्थान में छिप गई । तब उसको लेने के लिए माता के महल में स्वयं पूर्णमल ही दौड़ कर गये ।
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उस समय पूर्णमल का अति महान् अनुपम रूप देख कर एकान्त होने से लूणा कामवश हो गई और पूर्णमल की भुजा पकड़ कर बोली- "मुझ से संग करो ।"
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यह सुनकर पूर्णमल का मुख सूख गया, वह हाथ जोड़कर बोला- "माताजी ! यह अयोग्य बात आप क्यों कह रही हो ?"॥
(क्रमशः)

रविवार, 5 जनवरी 2025

*(२)ईश्वर-दर्शन का उपाय*

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*दादू राम कहे सब रहत है, जीव ब्रह्म की लार ।*
*राम कहे बिन जात है, रे मन हो होशियार ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(२)ईश्वर-दर्शन का उपाय*
इधर कीर्तन का आयोजन हो रहा है । अनेक भक्त जुट गये हैं । पंचवटी से कीर्तन का दल दक्षिण की ओर आ रहा है । हृदय शहनाई बजा रहा है । गोपीदास मृदंग तथा अन्य दो व्यक्ति करताल बजा रहे हैं । श्रीरामकृष्ण गाना गाने लगे –
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संगीत - (भावार्थ) –
"रे मन ! यदि सुख से रहना चाहता है तो हरि का नाम ले । हरिनाम के गुण से सुख से रहेगा, वैकुण्ठ में जायगा, सदा मोक्षफल प्राप्त करेगा । जिस नाम का जप शिवजी पंचमुखों से करते हैं, आज तुझे वही हरिनाम दूँगा ।"
श्रीरामकृष्ण सिंह-बल से नृत्य कर रहे हैं । अब समाधिमग्न हो गये ।
समाधि-भंग होने के बाद कमरे में बैठे हैं । केशव आदि के साथ वार्तालाप कर रहे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - सभी पथों से उन्हें प्राप्त किया जा सकता है - जैसे, तुममें से कोई गाड़ी पर, कोई नौका पर, कोई जहाज पर सवार होकर और कोई पैदल आया है - जिसकी जिसमें सुविधा और जिसकी जैसी प्रकृति है, वह उसी के अनुसार आया है । उद्देश्य एक ही है । कोई पहले आया, कोई बाद में ।
.
"उपाधि जितनी दूर रहेगी, उतना ही वे निकट अनुभूत होंगे । ऊँचे ढेर पर वर्षा का जल नहीं इकट्टा होता, नीची जमीन में होता है । इसी प्रकार जहाँ अहंकार है, वहाँ पर उनका दयारूपी जल नहीं जमता । उनके पास दीनभाव ही अच्छा है ।
"बहुत सावधान रहना चाहिए, यहाँ तक कि वस्त्र से भी अहंकार होता है । तिल्ली के रोगी को देखा, काली किनारवाली धोती पहनी है और साथ ही निधुबाबू की गजल गा रहा है !
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"किसी ने बूट पहना नहीं कि मुँह से अंग्रेजी बोली निकलने लगी ! यदि कोई छोटा आधार हो तो गेरुआ वस्त्र पहनने से अहंकार होता है । उसके प्रति सम्मान प्रदर्शन करने में जरासी त्रुटि होने पर उसे क्रोध, अभिमान होता है ।
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"व्याकुल हुए बिना उनका दर्शन नहीं किया जा सकता । यह व्याकुलता भोग का अन्त हुए बिना नहीं होती । जो लोग कामिनीकांचन के बीच में हैं, जिनके भोग का अन्त नहीं हुआ, उनमें व्याकुलता नहीं आती ।
.
"उस देश (कामारपुकुर) में जब मैं था, हृदय का चार-पाँच वर्ष का लड़का सारा दिन मेरे पास रहता था, मेरे सामने इधर उधर खेला करता था, एक तरह से भूला रहता था । पर ज्योंही सन्ध्या होती वह कहने लगता - 'माँ के पास जाऊँगा ।' मैं कितना कहता - 'कबूतर दूँगा' आदि आदि, अनेक तरह से समझाता, पर वह भूलता न था, रो-रोकर कहता था – ‘माँ के पास जाऊँगा ।’ खेल, खिलौना कुछ भी उसे अच्छा नहीं लगता था । मैं उसकी दशा देखकर रोता था ।
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"यही हैं बालक की तरह ईश्वर के लिए रोना ! यही है व्याकुलता ! फिर खेल, खाना-पीना कुछ भी अच्छा नहीं लगता । यह व्याकुलता तथा उनके लिए रोना, भोग के क्षय होने पर होता है ।"
सब लोग विस्मित होकर इन बातों को सुन रहे हैं ।
सायंकाल हो गया है, बत्तीवाला बत्ती जलाकर चला गया । केशव आदि ब्राह्म भक्तगण जलपान करके जायेंगे । जलपान का आयोजन हो रहा है ।
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केशव - (हँसते हुए) - आज भी क्या लाई-मुरमुरा है ?
श्रीरामकृष्ण – (हँसते हुए) - हृदय जानता है ।
पत्तल बिछाये गये । पहले लाई-मुरमुरा, उसके बाद पूड़ी और उसके बाद तरकारी । (सभी हँसते हैं) सब समाप्त होते होते रात के दस बज गये ।
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श्रीरामकृष्ण पंचवटी के नीचे ब्राह्म भक्तों के साथ फिर बातचीत कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (हँसते हुए, केशव के प्रति) - ईश्वर को प्राप्त करने के बाद गृहस्थी में भलीभाँति रहा जा सकता है । बूढ़ी* (ढाई) को पहले छू लो, और फिर खेल करो ।(*बच्चों के एक खेल में एक बालक 'चोर' बनता है, जो एक खूंटी के पास रहता है और अन्य बालक इधर-उधर रहते हैं । वह 'चोर' बालक जिस बालक को छुएगा, वही 'चोर' बनेगा । लेकिन जिसने उस खूँटी को छू लिया वह फिर 'चोर' नहीं बन सकता । उस खूँटी को बूढ़ी कहते हैं ।)
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"ईश्वर-प्राप्ति के बाद भक्त निर्लिप्त हो जाता है, जैसे कीचड़ की मछली - कीचड़ के बीच में रहकर भी उसके बदन पर कीच नहीं लगता ।"
लगभग ११ बजे रात का समय हुआ, सभी जाने की तैयारी में हैं । प्रताप ने कहा, ‘आज रात को यहीं पर रह जाना ठीक होगा ।’
श्रीरामकृष्ण केशव से कह रहे हैं, 'आज यहीं रहो न ।'
केशव - (हँसते हुए) - काम-काज है, जाना होगा ।
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श्रीरामकृष्ण - क्यों जी, तुम्हें क्या मछली की टोकरी की गन्ध न होने से नींद न आयगी ? एक मछलीवाली रात को एक बागवान के घर अतिथि बनी थी । उसे फूलवाले कमरे में सुलाया गया, पर उसे नींद न आयी । वह करवटें बदल रही थी, उसे देख बागवान की स्त्री ने आकर कहा, 'क्यों री, सो क्यों नहीं रही हो ?' मछलीवाली बोली, 'क्या जानूँ बहन, शायद फूलों की गन्ध से नींद नहीं आ रही है । क्या तुम जरा मछली की टोकरी मँगा सकती हो ?'
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“तब मछलीवाली मछली की टोकरी पर जल छिड़ककर उसकी गन्ध सूँघती सो गयी !" (सभी हँसे)
बिदा के समय केशव ने श्रीरामकृष्ण के चरणों में अपने द्वारा चढ़ाये हुए पुष्पों में से एक गुच्छा लिया और भूमि पर माथा लगाकर श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके भक्तों के साथ कहने लगे, 'विधान की जय हो ।'
केशव ब्राह्मभक्त जयगोपाल सेन की गाड़ी में बैठे । वे कलकत्ता जायेंगे ।
(क्रमशः)

साँच चाणक का अंग १४

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*तूं मेरा, हूं तेरा, गुरु सिष किया मंत ।*
*दोन्यों भूले जात हैं, दादू बिसर्या कंत ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक का अंग १४
निराश निरूप१ करै निशि वासर,
दास की आश के धामन आवै ।
सेवक सेव रचैं२ तहां बैठि जु,
विरक्त बात अनेक चलावै ॥
गाँव द्वै चरि में चित्त अटक्यो हो,
चील्ह की नाईं तहाँ मँडलावै३ ।
हो रज्जब और की और कहै कछु,
आपन दु:ख दशा४ में दिखावे ॥३॥
रात्रि दिन निराशता का निरूपण१ कहता है और अपने सेवकों की आशा लेकर उनके घरों में जाता है । 
जहां सेवक सेवा करते२ हैं, वहां बैठकर विरक्त अनेक बात चलाता है ।
जिनमें अपने सेवक होते हैं उन दो चार गांवों मन अटका रहता है और जैसे चील्ह पक्षी मृतक पशु पर चक्कर३ लगाता है, वैसे ही उन गांवों में धूमता रहता है । 
सेवकों के पास बैठकर कुछ की कुछ बातें कहता है और अपना जो कुछ दु:ख होता है, वह उन बातों के समय४ में ही सबको बता देता है ।
(क्रमशः)

*खलजन वंदना ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू निन्दक बुरा न कहिये,*
*पर उपकारी अस कहाँ लहिये ।*
*ज्यों ज्यों निन्दैं लोग विचारा,*
*त्यों त्यों छीजै रोग हमारा ॥*
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*खलजन वंदना ॥*
निंदक जिनि मरै रे, पीछै निंद्या करैगौ कौंण ।
ठर्यौ भर्यौ गलिबौ करै, ज्यूँ पाणी मैं लौंण ॥टेक॥
धोबी धोवै कापड़ा रे, निंदक धोवै मैल ।
भार हमारा ले चलै, ज्यूँ बणिजारा कौ बैल ॥
हम गुण गावैं गोबिंद का रे, निंदक औगुण गाइ ।
हमकौं पार उतारि करि, आप रसातलि जाइ ॥
हम कौं जाइ हरि सुमिरताँ रे, उस औगुण बारंबार ।
निंदक चलणी ह्वै रह्यौ, तुस का राखणहार ॥
निंदक कौं साबासि है रे, भरी हथाई मांहिं ।
परमेसर कौं भूलि गया, परि निंद्या भूला नांहिं ॥
निंदक कूँ आठौं पहर, निंद्या ही सौं काम ।
हरिजन के हिरदै बसै, बषनां केवल राम ॥३१॥
यहाँ परम्परा जीवित रहती है । बषनांजी कहते हैं, हम चाहते हैं, हमारी निन्दा करने वाला निंदक कभी भी न मरे । (व्यक्ति विशेष तो मरता ही है किन्तु उसकी परम्परा जीवित रहती है । यहाँ परम्परागत निंदक से ही तात्पर्य है) क्योंकि उसके मर जाने पर हमारी निंदा करके हमें सावधान कौन करेगा ? जिस प्रकार सुरक्षित पात्रों में भरा हुआ नमक भी पानी का संसर्ग होते ही गल जाता है उसी प्रकार निंदकों द्वारा सावधान न किये गये साधक भी बहुत जल्दी ही साधनमार्ग से पतित हो जाते हैं ।
.
धोबी कपड़ों को धोते हैं । निंदक पापों का नाश करते हैं । वस्तुतः निंदक साधक के पापों को ठीक उसी प्रकार साधक के शिर से हटाकर अपने ऊपर ले जाते हैं जिस प्रकार बणजारे के बैल सामानों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं ।
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हम तो(साधक तो) गोविन्द के गुणों का गायन करते हैं जबकि निंदक हमारे अवगुणों का कथन करते हैं । वस्तुतः ऐसा करके निंदक हमारा तो उद्धार कर देता हैं किन्तु स्वयं रसातल = नरकगामी होता है ।
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हमारा सारा समय तो हरि का स्मरण करते हुए व्यतीत होता है जबकि निंदक का समय अवगुणों का बारंबार चिंतन करने में व्यतीत होता है । वस्तुतः निंदकों का आचरण उस चलनी के सदृश अवगुणग्राही है जो आटे को तो अपने में से निकाल देती है और तुसों को अपने भीतर में रख लेती है ।
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निंदक को भरी चौपाल में हमारी ओर से धन्यवाद है । वह परमेश्वर को तो भूल जाता है किन्तु निंदा करने को नहीं भूलता है ।
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निंदकों को आठों प्रहर(चौबीसों घंटों) निंदा करने का ही काम रहता है जबकि भक्तों के हृदय में केवल मात्र रामजी ही बसते हैं ॥३१॥

शनिवार, 4 जनवरी 2025

*४४. रस कौ अंग ८५/८८*

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*४४. रस कौ अंग ८५/८८*
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रहसी ते रस पीवसी, जासी ते फिरि आइ ।
कहि जगजीवन रहसी जासी, सब ऊधरसी५ भाइ ॥८५॥
(५. ऊधरसी=उद्धार होगा)
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जो परमात्मा के आश्रित हो रहेंगे वे आनंद रस का पान करेंगे और जो बिना पीये अर्थात स्मरण बिना जायेंगे वे फिर जन्म लेंगे । संत कहते हैं कि रहने व जानेवालों सभी का उद्धार होगा ।
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सबै उधारैं६ रांमजी, जे हरि हूंहि७ दयाल ।
कहि जगजीवन हरि भगत, हरि भज बंचै काल ॥८६॥
(६. उधारैं=उद्धार करैं) (७. हूंहि=हों)
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जब प्रभु दया करते हैं तो सब जीवों का उद्धार करते हैं । संत कहते हैं कि प्रभु भक्त परभु स्मरण द्वारा ही काल से बचते हैं ।
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सिघ्र१ कारज होइ सिधि, जे जन सुमिरैं नांम ।
कहि जगजीवन छिप्रमेव२ हरि, ह्रिदै बिराजै रांम ॥८७॥
{१. सिघ्न=शीघ्र (जल्दी ही)} (२. छिप्रमेव=क्षिप्रमेव=तत्काल ही)
संत जगजीवन जी कहते हैं कि यदि जीव स्मरण करते हैं तो उनके सब कारज शीघ्र ही सिद्ध हो जाते हैं । स्मरण से तत्काल ही प्रभु मन में विराजते हैं ।
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रांम नांम रस परम सिधि, रांम नांम रस जोग ।
कहि जगजीवन रांम रस, रांम सिरै३ रस भोग ॥८८॥
(३. सिरै=श्रेष्ठ)
संत जगजीवन जी कहते हैं कि राम नाम आनंद ही परम सिद्धि है जो सभी मनोरथ पूर्ण करते हैं । और यह ही योग है जो प्रभु से जोड़ता है । यह ही सब भोगों में श्रेष्ठ है ।
(क्रमशः)

*गैनीनाथजी, चौरंगीनाथजी*

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*दादू एता अविगत आप थैं, साधों का अधिकार ।*
*चौरासी लख जीव का, तन मन फेरि सँवार ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
===============
*गैनीनाथजी*
गैनीनाथजी नासिक के ब्रह्मगिरि की परिक्रमा के मार्ग में अपने मठ में रहते थे । ज्ञानदेवजी ने बड़े भ्राता निवृत्तिनाथजी के गुरु आप ही हैं । जब निवृत्तिनाथ सात वर्ष के थे तब ये माता पिता भाई बहिन के साथ त्र्यम्बकेश्वर क्षेत्र में ही रहते थे । रात के समय ये सभी ब्रह्मगिरि की परिक्रमा करने जा रहे थे ।
.
मार्ग में सामने एक बाघ गर्जता हुआ आ गया । इनके पिता घबरा गये । बाघ से बचकर भागने का मार्ग खोजने लगे । इसी बीच में निवृत्तिनाथ इन से बिछुड़ के गैनीनाथजी की गुफा में पहुँच गये थे । गैनीनाथजी ने निवृत्तिनाथ को सात दिन अपने पास रखकर योगशिक्षा दी । फिर पुनः निवृत्तिनाथ माता पिता से आ मिले थे । चर्पटनाथ की कथा आगे आ रही है ।
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*चौरंगीनाथजी*
*छप्पय-*
*धर्मशील सत राख तैं, चौरंगी कारज सरे ।*
*अद्भुत रूप निहार, दौर कर माई पकर्यो ।*
*दामन१ लीयो फारि, जोर करि बाहर निकर्यो ॥*
*राणी करी पुकार, पुत्र अच्छा ही जाया ।*
*राजा मन पछताय, हाथ पग दूर कराया ॥*
*राघव प्रगटे परम गुरु, कर पद ज्यों के त्यों करे ।*
*धर्मशील सत राख तैं, चौरंगी कारज सरे ॥३१४॥*
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धर्म, शीलव्रत और सत्य रखने से ही चौरंगी(पूर्णमल) के कार्य सिद्ध हुए थे । पूर्णमल पंजाब प्रान्त के स्यालकोट नगर के राजा जिनने शकाब्द नामक संवत चलाया था, उन शालीवाहन के पुत्र थे ।
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जब पूर्णमल का जन्म हुआ था तब ज्योतिषियों ने कहा था-१२ वर्ष तक पिता को इसका मुख नहीं देखना चाहिये । यदि देखा जायगा तो इसको तथा पिता को मृत्यु का भय है । तब उसको ऐसे स्थान में रख दिया था जिससे उसका मुख राजा न देख सके ।
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१२ वर्ष पूर्ण होने पर आये तब पिता ने पूर्णमल को देखने की शीघ्रता की । इस भूल के कारण एक दिन पहले ही राजा ने उसका मुख देख लिया था । इसी से पूर्णमल में नीचे लिखी विपत्ति आई थी ऐसा कहते हैं । पिता पुत्र को देखकर अति प्रसन्न हुए ।
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विवाह का समय होने पर किसी राजा ने अपनी पुत्री पूर्णमल को देने की इच्छा प्रकट की । शालीवाहन ने पूर्णमल को विवाह के लिए कहा किन्तु पूर्णमल नट गया । तब राजा ने उक्त राजकन्या के साथ स्वयं विवाह कर लिया । पूर्णमल के पिता की इस छोटी राणी का नाम लूणा था । एक दिन कार्यवश पूर्णमल लूणा के पास गये थे ।
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जब पीछे जाने लगे तब पूर्णमल के अद्भुत सुन्दर रूप को देख कर वह पूर्णमल की सौतेली माता कामवश हो, उठ कर दौड़ी ! और पूर्णमल का हाथ पकड़ कर बोली- ठहर जाओ नहीं, तुम मुझे रति संग का सुख दो । पूर्णमल बोला- आप तो मेरी माता है, यह क्या कह रही हो ? इस पर भी उसे लज्जा नहीं आई, उसने पुनः कहा ।
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तब पूर्णमल वहाँ से जाने लगे । लूणा ने बल से पूर्णमल का हाथ पकड़ लिया । किन्तु पूर्णमल ने झटका देकर अपना हाथ छुड़ा लिया । इस प्रकार बल करके बाहर निकल गये । तब रानी ने अपनी ओढनी का पल्ला राजा को बताने के लिये फाड़ लिया और राजा के आने की प्रतिक्षा करने लगी ।
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राजा के आने पर क्रोध में भर कर राजा को कहा- आपने अच्छा पुत्र उत्पन्न किया है ? राजा ने पूछा क्या बात है ? रानी बोली- "बात क्या कहूँ, कहते भी लज्जा आती है । आज उस दुष्ट ने मेरा सतीत्व बिगाड़ने में कमी नहीं रखी थी ।
भगवान् ने ही मुझ को बल दिया उसी से मैने बलपूर्वक उसके हाथ से अपना वस्त्र छुड़ा कर मैं भागी । देखिये मेरा आँचल फटा पड़ा है । रानी की बात सुन कर राजा मन में बड़ा ही पश्चात्ताप करने लगे । फिर रानी के कथनानुसार पूर्णमल के हाथ पैर काट कर मारने की आज्ञा व्याधों को दे दी ।
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उन लोगों ने पूर्णमल को हाथ पैर काट कर एक कूप में डाल दिया । उधर से मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षनाथ आदि नाथ जा रहे थे । उन लोगों को कूप से मानव का शब्द सुनने पर संशय हो गया कि कूप में कौन बोल रहा है । कूप पर आ कर देखा तो ज्ञात हुआ, एक हाथ पैर कटा हुआ मनुष्य हरिनाम बोल रहा है ।
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गोरक्षनाथजी ने पूछा, तुम कौन हो और यह दशा तुम्हारी कैसे हुई ? पूर्णमल ने सब बात बता दी । तब उन परम गुरु ने सत्य की परीक्षा लेकर पूर्णमल के हाथ पैर पूर्ववत ही कर दिये । हाथ पैर कटे हुए मिलने से चौरंगीनाथ नाम रख दिया" ॥३१४॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 3 जनवरी 2025

*परिशिष्ट*

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*सुन्दरी मोहे पीव को, बहुत भाँति भरतार ।*
*त्यों दादू रिझवै राम को, अनन्त कला करतार ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*परिशिष्ट*
*(क)परिच्छेद १, केशव के साथ दक्षिणेश्वर मन्दिर में*
*(१)श्रीरामकृष्ण तथा श्री केशवचन्द्र सेन*
शनिवार, १ जनवरी, १८८१ ई. ब्राह्मसमाज का माघोत्सव आनेवाला है । राम, मनोमोहन आदि अनेक व्यक्ति उपस्थित हैं ।
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ब्राह्म भक्तगण तथा अन्य लोग केशव के आने से पहले ही कालीबाड़ी में आ गये हैं और श्रीरामकृष्णदेव के पास बैठे हुए हैं । सभी बेचैन हैं, बार-बार दक्षिण की ओर देख रहे हैं कि कब केशव आयेंगे, कब केशव जहाज से आकर उतरेंगे ।
प्रताप, त्रैलोक्य, जयगोपाल सेन आदि अनेक ब्राह्मभक्तों को साथ लेकर केशवचन्द्र सेन श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने के लिए दक्षिणेश्वर के मन्दिर में आये ।
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हाथ में दो बेल फल तथा फूल का एक गुच्छा है । उन्होंने श्रीरामकृष्ण के चरण स्पर्श कर उन चीजों को उनके पास रख दिया और भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण ने भी भूमिष्ठ होकर प्रति-नमस्कार किया ।
श्रीरामकृष्ण आनन्द से हँस रहे हैं और केशव के साथ बात कर रहे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण (केशव के प्रति, हँसते हुए) - केशव, तुम मुझे चाहते हो, परन्तु तुम्हारे चेले लोग मुझे नहीं चाहते । तुम्हारे चेलों से कहा था, 'आओ, हम खंजन-मंजन करें, उसके बाद गोविन्द आ जायेंगे ।'
(केशव के शिष्यों के प्रति) “वह देखो जी, तुम्हारे गोविन्द आ गये । मैं इतनी देर तक खंजन-मंजन कर रहा था, भला आयेंगे क्यों नहीं ? (सभी हँसे)
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"गोविन्द का दर्शन सहज नहीं मिलता । कृष्ण-लीला में देखा होगा, नारद जब व्याकुल होकर ब्रज में कहते हैं - 'प्राण ! हे गोविन्द ! मम जीवन !' - उस समय गोपालों के साथ श्रीकृष्ण आते हैं, पीछे पीछे सखियाँ और गोपियाँ । व्याकुल हुए बिना ईश्वर का दर्शन नहीं होता ।
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(केशव के प्रति) "केशव, तुम कुछ कहो, ये सब तुम्हारी बात सुनना चाहते हैं ।"
केशव - (विनीत भाव से हँसते हुए) - यहाँ पर बात करना लुहार के पास सूई बेचने की चेष्टा-जैसा होगा !
श्रीरामकृष्ण - (हँसते हुए) - बात क्या है, जानते हो ? भक्तों का स्वभाव गाँजा पीनेवालों-जैसा है । तुमने एक बार गाँजे की चिलम लेकर दम लगाया, और मैंने भी एक बार लगाया । (सभी हँसे)
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दिन के चार बजे का समय है । कालीबाड़ी के नौबतखाने का वाद्य सुनायी दे रहा है ।
श्रीरामकृष्ण - (केशव के प्रति) - देखा, कैसा सुन्दर वाद्य है ! लेकिन एक आदमी केवल एक राग - 'पों' - निकाल रहा है और दूसरा अनेक सुरों की लहर उठाकर कितनी ही राग-रागिनियाँ निकाल रहा है । मेरा भी वही भाव है ।
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मेरे सात सूराख रहते हुए फिर मैं क्यों केवल 'पों' निकालूँ - क्यों केवल 'सोऽहम्' 'सोऽहम्' करूँ ? मैं सात सूराखों से अनेक प्रकार की राग-रागिनियाँ बजाऊँगा । केवल 'ब्रह्म-ब्रह्म' ही क्यों करूँ ? शान्त, दास्य, वात्सल्य, सख्य, मधुर सभी भावों से उन्हें पुकारूँगा, आनन्द करूँगा, विलास करूँगा ।
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केशव अवाक् होकर इन बातों को सुन रहे हैं और कह रहे हैं, “ज्ञान और भक्ति की इस प्रकार अद्भुत और सुन्दर व्याख्या मैंने कभी नहीं सुनी ।”
केशव - (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - आप कितने दिन इस प्रकार गुप्त रूप में रहेंगे - धीरे धीरे यहाँ पर लोगों का मेला लग जायगा ।
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श्रीरामकृष्ण - तुम्हारी यह कैसी बात है ! मैं खाता-पीता रहता हूँ और उनका नाम लेता हूँ । लोगों का मेला लगाना में नहीं जानता । हनुमानजी ने कहा था, 'मैं वार, तिथि, नक्षत्र यह सब कुछ नहीं जानता, केवल एक राम का चिन्तन करता हूँ ।"
केशव - अच्छा, मैं लोगों का मेला लगाऊँगा, परन्तु आपके यहाँ सभी को आना पड़ेगा ।
श्रीरामकृष्ण - मैं सभी के चरणों की धूलि की धूलि हूँ । जो दया करके आयेंगे, वे आवें !
केशव - आप जो भी कहें, आपका आगमन (अवतार ग्रहण) व्यर्थ न होगा ।
(क्रमशः)

*श्री रज्जबवाणी, साँच चाणक का अंग १४*

 
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*दादू पद जोड़ै साखी कहै, विषय न छाड़ै जीव ।*
*पानी घालि बिलोइये तो, क्यों करि निकसै घीव ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साँच का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक का अंग १४
निराश रहै अरु नगरन१ सौं हित२,
देखि महंतन माया जु त्यागी ।
टोपी रु कोपी३ की नहिं कछु मन,
प्रीति प्रचंड बजाज हुं लागी ॥
अतिगति४ ध्यान धनाढ्य सौ कीजिये,
लोग सुनाय न कोडी हु मांगी ।
हो रज्जब रिंद५ कपट्ट छिपावत,
साधन को सब दीसत नागी६ ॥२॥
देखो, इन माया त्यागी महंतों को, ऊपर से तो निराश का दंभ करते हैं और हृदय में शहरों१ से प्रेम२ करते हैं ।
टोपी और कौपीन३ लेने की मन मन में कुछ भी इच्छा नहीं है फिर भी बजाजों से तीव्र प्रीति करते हैं ।
धनाढ्यों का अत्याधिक४ ध्यान करते हैं और लोग सुनाते हैं कि उन्होंने एक कौड़ी भी नहीं मांगी ।
हे सज्जनों ! ये स्वच्छंद५ लोग अपने कपट को छिपाते हैं किंतु सच्चे संतों को तो इनकी ये बातें सार६-हीन ही भासती हैं ।
(क्रमशः)

*राम-रंग ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*हरि रंग कदे न ऊतरै, दिन दिन होइ सुरंगो रे ।*
*नित नवो निरवाण है, कदे न ह्वैला भंगो रे ॥*
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*राम-रंग ॥*
राम रँगै रँग लाया रे ।
सहजि रँग्या रँगि आया रे ॥टेक॥
ररैं ममैं की भाँति लगाईं ।
तिहि रँगि तौ रैंणी रँगि आई ॥
प्रेम प्रीति का बेगर दीया ।
हरि रँग माँहै मन रँगि लिया ॥
अैसौ रंग लगायौ कोई ।
सो रँग रह्यौ घुलावट होई ॥
खोल्यौ खुलै न धोयौ जाई ।
अबिनासी रँग लियौ लगाई ॥
चित चहुँ दिसि थैं निर्मल कीया ।
तब बषनां रामि बहुत रँग दीया ॥३०॥
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मेरे द्वारा मुझ स्वयं को राम-नाम-साधना रूपी रंग में रंगा जाना वास्तव में रंग लाया । रंगने रूपी साधना में अधिक परिश्रम करने की आवश्यकता तो पड़ी ही नहीं, उसमें किसी तरह के कोई विघ्न भी नहीं आये । अतः मन रूपी कपड़ा सहज में ही रामनाम साधना रूपी रंग में रंग = संलग्न हो गया ज्सिका परिणाम भी श्रेष्ठतम आया । सर्वप्रथम रामनाम की रटन रूपी किस्म (डिजाइन, प्रारूप) तैयार की । फिर अहर्निश रामराम रटन रूपी साधना में रैंणी रूपी सुरति = वृत्ति भी रंग गई ।
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उस साधना रूपी रंग को पक्का करने के लिये उसमें भगवत्-प्रेम प्रीतिमय भक्ति रूपी बेगर = सहायक द्रव्यों की चाट (यथा फिटकरी वगैरह का सम्मिश्रण) दी । पश्चात् हरि की प्रेमाभक्ति में मन को सरोवर कर लिया । गुरुमहाराज ने मेरे मन में ऐसी रंग = रूचि उत्पन्न कर दी है कि वह दिन-प्रतिदिन घटने = हल्की होने के स्थान पर उल्टे अधिक चमकदार = परिपक्व ही होती है ।
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मेरे मन पर मैंने अविनाशी रंग लगा लिया है जो हटाने पर हटता नहीं और धोने पर धुलता नहीं । चित्त को चारों ओर से हटाकर निर्मल = विषयवासना रूपी मलों से विनिर्मुक्त कर लिया है जिसके कारण रामजी ने कभी भी क्षय न होने वाला रंग रूपी अपना सानिध्य प्रदान किया है ॥३०॥
(क्रमशः)

बुधवार, 1 जनवरी 2025

*इंद१ ज्यूं जिंद२ की जीवन गोरख*

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*दादू कहै, माया चेरी साधुहि सेवै ।*
*साधुन कबहूँ आदर देवै ॥*
*ज्यों आवै, त्यों जाइ बिचारी ।*
*विलसी, वितड़ी, न माथै मारी ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*सवैया-*
*इंद१ ज्यूं जिंद२ की जीवन गोरख,*
*ज्ञान घटा वरष्यो घट धारी ।*
*भूप निन्याणवे कोटि किये सिध,*
*आतम और अनन्त हि तारी ॥*
*विचरे तिहुँ लोक नहीं कहुँ रोक हो,*
*माया कहा बपुरी पचहारी ।*
*स्वाद न सपरश यूं रह्यो अपरश,*
*राघो कहै मनसा३ मन जारी ॥३१३॥*
जैसे इन्द्र१ वर्षा द्वारा भूत प्राणियों के जीवन२ रूप हैं, वैसे ही शरीरधारी गोरक्षनाथजी भी प्राणियों के जीवन रूप हैं । कारण उनने भी अपनी ज्ञान रूप घटा के द्वारा ज्ञानामृत वर्षाया है । आपने निन्यानवे कोटि(प्रकार) के क्षत्रियों को ज्ञानोपदेश देकर सिद्ध किया था अर्थात् आत्मजान से युक्त किया था ।
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और भी अनन्त जीवात्माओं का उद्धार किया था । आप तीनों लोकों में विचरते थे । कहीं भी आपको रोका नहीं जाता था । माया तो बेचारी इनके आगे क्या वस्तु थी ? अर्थात कुछ नहीं । वह तो इनको जीतने का प्रयत्न करके इनसे हार गई थी । सुनते हैं- एक समय माया ने इनसे कहा था-
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"उभे मारूं बैठे मारूं, मारूं, जगत सूता ।
तीन लोक भगजाल पसारूं कहाँ जायगा पूता" ॥
तब आपने कहा था-
"उभा जीतूं बैठा जीतूं, जीतूं जागत सूता ।
तीन लोक से न्यारा खेलूं मैं गोरख अवधूता"॥
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फिर माया ने सेवा द्वारा मत्स्येन्द्रनाथजी को प्रसन्न किया । उनने वर माँगने को कहा, तब माया ने गोरक्षजी को माँग लिया । देना ही पड़ा । ले जाने लगी तब आप गोद के बच्चे बन गये । गोद में लेने पर लात हाथ नख मुख आदि से मारने काटने लगे । तब एक कटोरे में डालकर ले जने लगी तो बारंबार टट्टी पेशाब से उसे खूब तंग किया ।
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अन्त में हार मानकर माया ने गोरक्षजी को छोड़ दिया । आप रसना इन्द्रिय के स्वाद से, त्वचा के स्पर्श आदि इन्द्रियों के विषयों की आसक्ति से अपरश रहे, अर्थात् आसक्त नहीं हुये थे । राघवदासजी कहते हैं- गोरक्षनाथजी ने सांसारिक मनोरथों को जला ही दिया था ।
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विशेष विवरण गोरक्षनाथजी के अवतार की कथा स्कन्द पुराणान्तर्गत 'भक्ति विलास' के ५१-५२ के दो अध्यायों में सांगोपांग रूप में वर्णित है ।
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एक बार मत्स्येन्द्रनाथजी घूमते फिरते अयोध्या के पास 'जय श्री' नामक नगर में गये । वहाँ वे भिक्षा माँगते हुये एक ब्राह्मण के घर पहुँचे । ब्राह्मणी ने बड़े आदर के साथ उनकी झोली में भिक्षा डाल दी । ब्राह्मणी के मुख पर पातिव्रत का अपूर्व तेज था ।
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उसे देखकर मत्स्येन्द्रनाथ अति प्रसन्न हुए । किन्तु उस सती के मुख पर किंचित उदासी भी ज्ञात होती थी । मत्स्येन्द्रनाथजी ने उदासी का कारण पूछा तब उसने कहा- संतान नहीं होने से संसार फीका जान पड़ता है । मत्स्येन्द्रनाथजी ने तुरन्त अपनी झोली से थोड़ी सी भस्म निकाल कर ब्राह्मणी के हाथ में देते हुए कहा- 'इसे खालो तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा ।' इतना कहकर वे तो वहाँ से चले गये ।
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ब्राह्मणी की एक पड़ोसिन स्त्री ने जब यह बात सुनी तो उसने कई प्रकार से भय दिखाकर भस्म खाने से रोक दिया । उसने उसे एक गोबर के गड्ढे में फेंक दी । बारह वर्ष के बाद मत्स्येन्द्रनाथजी पुनः उसी ग्राम में आ पहुँचे और उसी घर के आगे 'अलख' जगाया ।
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ब्राह्मणी के बाहर आने पर कहा- अब तो तेरा बेटा बारह वर्ष का हो गया होगा, देखें तो वह कहाँ है ? यह सुनते ही वह स्त्री घबरा गई और जैसा हुआ वह सब हाल यथार्थ रूप से नाथजी को कह दिया । मत्स्येन्द्रनाथ उसे साथ लेकर उस गड्डे के पास आये और 'अलख' शब्द बोला ।
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उसे सुनते ही बारह वर्ष का एक तेज पुंज बालक वहाँ प्रकट हो गया और मत्स्येन्द्रनाथ के चरणों में शिर रखकर प्रणाम किया । यही बालक आगे चलकर गोरख नायक और से प्रसिद्ध हुआ । मत्स्येन्द्रनाथजी ने उस समय से बालक को अपने साथ ही रखा और योग की संपूर्ण शिक्षा दी ।
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गोरक्षनाथजी ने गुरु-उपदेशानुसार साधन कर योग में विशेष अनुभव प्राप्त किया था । गोरक्षनाथजी के प्रधान दो शिष्य थे- १. गैनीनाथ और २. चर्पटनाथ । गोरक्षनाथजी महान् योगी और विद्वान् भी थे । आपके गोरक्षकल्प, गोरक्षसंहिता, गोरक्षशतक, विवेकमार्तंड आदि अनेक संस्कृत ग्रंथ भी मिलते हैं ॥३१३॥
(क्रमशः)

*४४. रस कौ अंग ८१/८४*

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*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४४. रस कौ अंग ८१/८४*
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रांम कहाई४ जिनि कहौ, सावधान सुंनि राखि ।
कहि जगजीवन भगति करि, गुरु सेवा रस चाखि ॥८१॥
(४. कहाई=कथा)
संत जगजीवन ज कहते हैं कि प्रभु राम की कथा को सुनकर सावधानी पूर्वक मनन करो । प्रभु भक्ति कर गुरु सेवा रुपी आनंदरस का भी पान करो ।
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अठ सिधि नौ निधि नांउं मंहि, बिन सेवा क्यूं पाइ ।
कहि जगजीवन जागि लहै जन, रांम रिदै लिव लाइ ॥८२॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि आठ सिद्धि व नौ निधि बिना सेवा के नहीं मिलती जीव अज्ञान निद्रा से जाग कर ही राम नाम से ह्रदय में लगन लगा सकता है ।
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कहि जगजीवन रांम रस, रसना हरि रस राचि ।
नर निरबांण निरमोह रहै, बिषै बंचि हरि राचि ॥८३॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि राम स्मरण रुपी आनंद को जिह्वा पर रंग लो यदि जीव मुक्त निर्मोही होकर रहे तो वह विषय रुपी विष से बचता है ।
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अम्रित रस आकास का, स्त्रवै प्रांण मंहि पूरि ।
कहि जगजीवन नांउं लिया हरि, बिघन जांहि सब दूरि ॥८४॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि आकाश से अमृत रस का स्त्राव होता है, जो प्राणों को मिलता है । हरि का नाम लेने से ही संत कहते हैं कि सब विध्न दूर हो जाते हैं ।
(क्रमशः)

सोमवार, 30 दिसंबर 2024

“श्रीरामकृष्ण - अहेतुक कृपासिन्धु”

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*देही मांही देव है, सब गुण तैं न्यारा ।*
*सकल निरंतर भर रह्या, दादू का प्यारा ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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भक्तों ने मिठाइयाँ लाकर श्रीरामकृष्ण के सामने रखीं । उनमें से एक छोटासा टुकड़ा ग्रहण करके श्रीरामकृष्ण ने सुरेन्द्र के हाथ में प्रसाद की थाली दी और कहा, 'दूसरे भक्तों को भी प्रसाद दे दो ।' सुरेन्द्र नीचे गये । प्रसाद नीचे ही दिया जायगा ।
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श्रीरामकृष्ण (केदार से) - तुम समझा देना । जाओ बकझक करने की मनाही कर देना ।
मणि पंखा झल रहे हैं । श्रीरामकृष्ण ने पूछा, 'क्या तुम नहीं खाओगे ?' उन्होंने प्रसाद पाने के लिए नीचे मणि को भी भेज दिया ।
सन्ध्या हो रही है । गिरीश और श्री 'म' (मास्टर) तालाब के किनारे टहल रहे हैं ।
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गिरीश - क्यों जी, सुना है, तुमने श्रीरामकृष्ण के सम्बन्ध में कुछ लिखा है ?
श्री 'म' - किसने कहा आपसे ?
गिरीश - मैंने सुना है । क्या मुझे दोगे - पढ़ने के लिए ?
श्री 'म' - नहीं, जब तक मैं यह न समझ लूँ कि किसी को देना उचित है, मैं न दूँगा । वह मैंने अपने लिए लिखा है, किसी दूसरे के लिए नहीं ।
गिरीश - क्या बोलते हो ?
'श्री 'म' - जब मेरा देहान्त हो जायगा तब पाओगे । “श्रीरामकृष्ण - अहेतुक कृपासिन्धु”
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सन्ध्या होने पर श्रीरामकृष्ण के कमरे में दीपक जलाये गये । ब्राह्मभक्त श्रीयुत अमृत बसु उन्हें देखने के लिए आये हैं । श्रीरामकृष्ण उन्हें देखने के लिए पहले ही से उत्सुक थे । मास्टर तथा दो चार भक्त और बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण के सामने केले के पत्ते में बेला और जुही की मालाएँ रखी हुई हैं । कमरे में सन्नाटा छाया है । एक महायोगी मानो चुपचाप योगयुक्त होकर बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण एक-एक बार मालाओं को उठा रहे हैं । जैसे गले में डालना चाहते हो ।
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अमृत - (सस्नेह) - क्या मालाएँ पहना दूँ ?
मालाएँ पहन लेने पर श्रीरामकृष्ण अमृत से बड़ी देर तक बातचीत करते रहे । अमृत अब चलनेवाले हैं ।
श्रीरामकृष्ण - तुम फिर आना ।
अमृत - जी, आने की तो बड़ी इच्छा है । बड़ी दूर से आना पड़ता है, इसलिए हमेशा मैं नहीं आ सकता ।
श्रीरामकृष्ण - तुम आना, यहाँ से बग्घी का किराया ले लिया करना ।
अमृत के लिए श्रीरामकृष्ण का यह अकारण स्नेह देखकर भक्तगण आश्चर्यचकित हो गये ।
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दूसरे दिन शनिवार हैं, २४ अप्रैल । श्री 'म' अपनी स्त्री तथा सात साल के लड़के को लेकर श्रीरामकृष्ण के पास आये हैं । एक साल हुआ, उनके एक आठ वर्ष के लड़के का देहान्त हो गया है । उनकी स्त्री तभी से पागल की तरह हो गयी है । इसीलिए श्रीरामकृष्ण कभी कभी उसे आने के लिए कहते हैं ।
रात को श्रीमाताजी ऊपरवाले कमरे में श्रीरामकृष्ण को भोजन कराने के लिए आयी । श्री 'म' की स्त्री उनके साथ साथ दीपक लेकर गयी ।
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भोजन करते हुए श्रीरामकृष्ण उससे घर-गृहस्थी की बातें पूछने लगे । फिर उन्होंने कुछ दिन श्रीमाताजी के पास आकर रहने के लिए कहा, इसलिए कि इससे उसका शोक बहुत-कुछ घट जायगा । उसके एक छोटी लड़की थी । श्रीमाताजी उसे मानमयी कहकर पुकारती थीं । श्रीरामकृष्ण ने उसे भी ले आने के लिए कहा ।
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श्रीरामकृष्ण के भोजन के पश्चात् श्री 'म' की स्त्री ने उस जगह को साफ कर दिया । श्रीरामकृष्ण के साथ कुछ देर तक बातचीत हो जाने के बाद श्रीमाताजी जब नीचे के कमरे में गयीं, तब श्री 'म' की स्त्री भी उन्हें प्रणाम करके नीचे चली आयी ।
रात के नौ बजे का समय हुआ । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ उसी कमरे में बैठे हैं । गले में फूलों की माला पड़ी हुई है । श्री 'म' पंखा झल रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण गले से माला हाथ में लेकर अपने-आप कुछ कह रहे हैं । उसके पश्चात् प्रसन्न होकर उन्होंने श्री 'म' को वह माला दे दी ।
(क्रमशः)


*श्री रज्जबवाणी, साँच चाणक का अंग १४*

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*भक्ति न जाणै राम की, इन्द्री के आधीन ।*
*दादू बँध्या स्वाद सौं, ताथैं नाम न लीन ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साँच का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक का अंग १४
विरक्त रूप धर्यो वपु बाहर,
भीतर भूख अनन्त विराजी१ ।
ऊपरि सौं पनहि२ पुनि त्यागी जु,
मांहि तृष्णा तिहिं लोक की साजी७ ॥
कपट कला करि लोक रिझायो हो,
रोटी को ठौर करी देखी ताजी३ ।
हो रज्जब रूप रच्यो ठग को जिय४,
साधु लखै सब लाखी५ रु पाजी६ ॥१॥
सत्य और चुभने वाली बातें कह रहे हैं - बाहर से तो विरक्त का रूप धारण कर रखा है और भीतर अनन्त भूख बैठी१ है ।
ऊपर से तो जूता२ त्याग कर तथा पैसा त्याग कर त्यागीजी बना है किंतु हृदय में तीनों लोकों की भोगों की तृष्णा सजा७ रखी है ।
देखो, ऐसे त्यागी कपट रूप कला से लोकों को प्रसन्न करके रोटी के लिये नवीन३ स्थान तैयार कर लेते हैं ।
हे सज्जनों ! हृदय४ में तो ठग का रूप बना रखा है, किंतु बाहर से सब लोग साधु देखते हैं और होता है वह अत्याधिक५ दुष्ट६ ।
(क्रमशः)

*सांसारिक ऐश्वर्यादि की नश्वरता ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*ऐसो राजा सोई आहि,*
*चौदह भुवन में रह्यो समाहि ।*
*दादू ताकी सेवा करै,*
*जिन यहु रचिले अधर धरै ॥*
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*सांसारिक ऐश्वर्यादि की नश्वरता ॥*
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पिरथी परमेसर की सारी ।
कोइ राज अपनैं सिर ऊपरि, भार लेहु मति भारी ॥टेक॥
पिरथी कारणि कैरौं पांड़ौं, करते झूझ दिनाई ।
मेरी मेरी करि करि मूये, निहचै भई पराई ॥
जाकै गिरह पाइड़ै बांध्यै, कूवै मींच उसारी ।
ता रावण की ठौर न ठाहर गोबिन्द गरब प्रहारी ॥
केते राजा राज बईठे, केते छत्र धरैंगे ।
दिन द्वै चारि मुकाम भया है, फिरि भी कूच करैंगे ॥
अटल एक राजा अबिनासी, जाकी लोक अनंत दुहाई ।
दादू१ कह पिरथी है ताकी, नहीं तुम्हारी भाई ॥२९॥१
(१.दोनों हस्तलिखित प्रतियों में इस पद की छाप बषनां के स्थान पर दादू ही मिली है । मंगलदासजी की पुस्तक में छाप बखनां है)
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यह सारी पृथिवी परमेश्वर की है । इसका असली और एक छत्र स्वामी परमेश्वर है । किसी भी राजा को इसे अपनी निजी सम्पत्ति मानकर अपने शिर पर भारी भार नहीं लेना चाहिये ।
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वस्तुतः अपनी मानने के कारण अनेकों लोगों का दमन-नियंत्रण करना पड़ता है । दमन करने में प्रजाजनों को शारीरिक, मानसिक सभी प्रकार की प्रताड़ना सहनी पड़ती है जिसका पाप राजा को लगता है और परलोक में उस पाप को भुगतना पड़ता है । इस पृथिवी के लिये ही कौरव तथा पांडव दिन-प्रतिदिन युद्ध किया करते थे । वे दोनों ही इसको मेरी-मेरी कहते-कहते ही मार गये किन्तु आगे जाकर निश्चय ही यह उनकी न रहकर पराई = दूसरों की हो गई ।
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जिसकी चारपाई के पाये से नौ ग्रह बंधे रहते थे, जिसने मृत्यु को कूवे = पाताल में भेज दिया था, उस रावण की ठौर = पृथिवी का आज नामोनिशान तक नहीं है । वस्तुतः गोविन्द गर्वप्रहारी है । वह उस व्यक्ति के गर्व को यथासमय समाप्त कर देता है जो उस परमात्मा की वस्तु को बिना उसके दिये अपनी मानता है । “तैर्दात्तानप्रदायैम्यो यो भुङ्क्तेस्तेन एव सः” ॥ गीता ३/१२ ॥
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कितने ही राजा राजसिंहासन पर आसीन हुए हैं । कितने ही आसीन होंगे । उन सभी का दो चार दिन = कुछ समय ही इस पृथिवी पर रहना हुआ है और जो आगामी समय में छत्रधारण करेंगे वे भी अंततः यहाँ से प्रस्थान करेंगे ही ।
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वास्तव में अटल = अविनाशी राजा एकमात्र रामजी है जिसका राज पृथिवी लोक में ही नहीं अनंत लोकों में है । हे राजा लोगों ! यह पृथिवी तुम्हारी नहीं है । यह तो परमेश्वर की है इसे अपनी मानकर व्यर्थ ही अपने ऊपर भार मत बढ़ाओ ॥२९॥
(क्रमशः)

रविवार, 29 दिसंबर 2024

= १३५ =

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*दादू जिहिं बरियां यहु सब भया,*
*सो कुछ करो विचार ।*
*काजी पंडित बावरे, क्या लिख बांधे भार ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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🌹ओशो ने बताया कुम्भ मेले का महत्व🌹
इसमें कई बातें हैं। पहली बात जो समझ लेने की है वह यह कि ये जो करोड़ लोग इकट्ठे हो गए हैं एक अभीप्सा और एक आकांक्षा से, एक प्रार्थना से, एक ध्वनि, एक धुन करते हुए आ गए हैं, यह एक पूल बन गया चेतना का। यह एक करोड़ लोगों का पूल हो गया चेतना का। यहां अब व्यक्ति नहीं हैं।
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अगर कुंभ में देखें तो व्यक्ति दिखाई नहीं पड़ता। भीड़, निपट भीड़, जहां कोई चेहरा नहीं है। चेहरा बचेगा कहां इतनी भीड़ में ? निपट भीड़ रह गई, फेसलेस। एक करोड़ आदमी इकट्ठा हैं। कौन कौन है, अब कोई अर्थ नहीं रह गया। कौन राजा है, कौन रंक है, अब कोई मतलब नहीं रह गया। कौन गरीब है, कौन अमीर है, कोई मतलब नहीं रह गया, फेसलेस हो गया सब। 
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और ये एक करोड़ आदमी एक ही अभीप्सा से एक विशेष घड़ी में इकट्ठे हुए हैं--एक ही प्रार्थना से, एक ही आकांक्षा से। इन सबकी चेतनाएं एक-दूसरे के भीतर प्रवाहित होनी शुरू होंगी। अगर एक करोड़ लोगों की चेतना का पूल बन सके, एक इकट्ठा रूप बन जाए, तो इस चेतना के भीतर परमात्मा का प्रवेश जितना आसान है उतना आसान एक-एक व्यक्ति के भीतर नहीं है। यह बड़ा कांटैक्ट फील्ड है।
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आदमी की चेतना कितना बड़ा कांटैक्ट फील्ड निर्मित करती है, परमात्मा का अवतरण उतना आसान हो जाता है। क्योंकि वह इतनी बड़ी घटना है ! उस बड़ी घटना के लिए, जितनी जगह हम बना सकें उतनी उपयोगी है। इंडिविजुअल प्रेयर तो बहुत बाद में पैदा हुई--व्यक्तिगत प्रार्थना। प्रार्थना का मूल रूप तो समूहगत है। 
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वैयक्तिक प्रार्थना तो तब पैदा हुई जब एक-एक आदमी को भारी अहंकार पकड़ना शुरू हो गया। और किसी के साथ पूल-अप होना मुश्किल हो गया कि किसी के साथ हम एक हो जाएं। और इसलिए जब से इंडिविजुअल प्रेयर दुनिया में शुरू हुई तब से प्रेयर का फायदा खो गया। असल में प्रेयर इंडिविजुअल नहीं हो सकती। हम इतनी बड़ी शक्ति का आवाहन कर रहे हैं कि हम जितना बड़ा क्षेत्र दे सकें उसके अवतरण के लिए, उतना ही सुगम होगा।
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तो तीर्थ उस बड़े क्षेत्र को निर्मित करते हैं। फिर खास घड़ी में करते हैं, खास नक्षत्र में करते हैं, खास दिन पर करते हैं, खास वर्ष में करते हैं। वे सब सुनिश्चित विधियां थीं। यानी उस घड़ी में, उस नक्षत्र में पहले भी कांटैक्ट हुआ है; और जीवन की सारी व्यवस्था पीरियाडिकल है।
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इसे भी समझ लेना चाहिए। जीवन की सारी व्यवस्था पीरियाडिकल है। जैसे कि वर्षा आती है, एक खास दिन पर आ जाती है। और अगर आज नहीं आती खास दिन पर, तो उसका कारण यह है कि हमने छेड़छाड़ की है। अन्यथा दिन बिलकुल तय थे, घड़ी तय थी, सब तय था, वह उस वक्त आ जाती थी।
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गर्मी आती थी खास वक्त, सर्दी आती थी खास वक्त, वसंत आता था खास वक्त--सब बंधा था। शरीर भी बिलकुल वैसा ही काम करता है। स्त्रियों का मासिक धर्म है, वह ठीक चांद के साथ चलता रहता है। ठीक अट्ठाइस दिन में उसे लौट आना चाहिए। 
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अगर बिलकुल ठीक है, शरीर स्वस्थ है, तो वह अट्ठाइस दिन में लौट आना चाहिए। वह चांद के साथ यात्रा कर रहा है। वह अट्ठाइस दिन में नहीं लौटता, तो क्रम टूट गया है व्यक्तित्व का, भीतर कहीं कोई गड़बड़ हो गई है। सारी घटनाएं एक क्रम में आवर्तित होती हैं।
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तो अगर किसी एक घड़ी में परमात्मा का अवतरण हो गया, तो उस घड़ी को हम अगले वर्ष के लिए फिर नोट कर सकते हैं। और संभावना उस घड़ी की बढ़ गई, वह घड़ी जो है वह ज्यादा पोटेंशियल हो गई, उस घड़ी में परमात्मा की धारा पुनः प्रवाहित हो सकती है। इसलिए पुनः-पुनः उस घड़ी में तीर्थ पर लोग इकट्ठे होते रहेंगे सैकड़ों वर्षों तक।
ओशो प्रवचन माला
Gahre Pani Paith (गहरे पानी पैठ) 02