बुधवार, 19 नवंबर 2025

*१०. अथ तृष्णा को अंग १/४*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१०. अथ तृष्णा को अंग १/४*
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पल पल छीजै देह यह,  घटत घटत घटि जाइ । 
सुन्दर तृष्णा ना घटै,  दिन दिन नौतन थाइ ॥१॥
हमारा यह देह क्षण क्षण में क्रमशः क्षीण होता जा रहा है,  परन्तु एक हमारी यह तृष्णा(कामोपभोगलिप्सा) है कि यह घटने का नाम ही नहीं लेती । अपितु,  यह प्रतिदिन नित्य नये रूप से बढ़ती ही जाती है ॥१॥
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बालापन जोबन गयौ,  बृद्ध भये सब कोइ । 
सुन्दर जीरन ह्वै गये,  तृष्णा नव तन होइ ॥२॥
प्रत्येक मनुष्य का एक न एक दिन बचपन चला जाता है,  कुछ समय बाद उस की जवानी(युवावस्था) भी चली जाती है । एक समय आता है कि ये सब बूढे हो जाते हैं । श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - हमारे कथन का यही तात्पर्य है कि मनुष्य का समय पा कर सब कुछ जीर्ण हो जाता है; परन्तु उसकी तृष्णा नित्य नया शरीर पाती रहती है१ ॥२॥ 
{१. श्रीभर्तृहरि भी कहते हैं - 
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः,  
तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः ।
कालो न यातो वयमेव याताः,  
तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ॥ 
(वै० श० ७)}
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सुन्दर तृष्णा यौं बधै,  जैसैं बाढै आगि । 
ज्यौं ज्यौं नाखै फूस कौं,  त्यौं त्यौं अधिकी जागि ॥३॥
श्रीसुन्दरदासजी महाराज यह कहते हैं - मनुष्य की यह कामभोगों की तृष्णा (पाने की इच्छा) प्रतिदिन उसी तरह बढती जाती है;  जैसे एक बार जली हुई अग्नि ज्यों ज्यों घास डालते जाइये त्यों त्यों वह अधिक से अधिक प्रज्वलित होती जाती है ॥३॥
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जब दस बीच पचास सौ,  सहस्त्र लाख पुनि कोरि । 
नील पदम संख्या नहीं,  सुन्दर त्यौं त्यौं थोरि ॥४॥
किसी तृष्णालु के पास यदि दश, बीस, पचास, सौ रुपये हो जायँ तो वह हजार, लाख, करोड़ रुपये की आशा करने लगता है । इसके बाद, अरब, खरब या नील एवं पद्म तक की आशा करता हुआ जो कुछ धनसंग्रह हो जाय उसे कम ही समझता है ॥४॥
(क्रमशः) 

पटियाला चातुर्मास

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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८ आचार्य निर्भयरामजी
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पटियाला चातुर्मास  ~ 
वि. सं. १८६९ में ही आचार्य निर्भयरामजी का चातुर्मास पटियाले के संत तथा भक्तों के आग्रह से पटियाले में हुआ था । इस चातुर्मास में आचार्य जी के साथ उतराधे संत भी बहुत थे । पटियाला के राजा तथा प्रजा ने दादूवाणी के प्रवचन, संतों के दर्शन, जागरण, संकीर्तन, आरती, अष्टक, संत सेवा आदि पुण्य कार्यों में अति प्रीति सहित भाग लेकर अच्छा लाभ लिया था । 
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चातुर्मास का निमंत्रण देने वालों ने ११००)रु. आचार्य को भेंट किये थे । चातुर्मास समाप्ति पर महाराज से उतराधे संतों ने प्रार्थना की कि - अब आप उतराधे संतों के तथा भक्तों के ऊपर कृपा कर उतराध की रामत करें । आचार्य निर्भयरामजी महाराज ने संतों की उक्त प्रार्थना स्वीकार कर ली । 
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उतराध की रामत ~ 
फिर उन उतराधे संतों के साथ साथ ही उतराध की रामत आरंभ कर दी । उस रामत में दादूवाणी का प्रवचन सुनने में हरियाणा की धार्मिक जनता ने बहुत रुचि दिखाई । संत दर्शन, सत्संग, संत - सेवा आदि में अच्छा भाग लिया । जहां जाते थे वहां ही आनन्द की लहर उठने लगती थी । इस रामत में निर्गुण भक्ति का अच्छा प्रचार हुआ था । 
(क्रमशः)  

मंगलवार, 18 नवंबर 2025

भंडारी टीकमदास जी को वर देना

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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८ आचार्य निर्भयरामजी
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भंडारी टीकमदास जी को वर देना ~ 
भंडारी टीकमदास जी जब अधिक बीमार हो गये तब आचार्य निर्भयरामजी उनके पास गये और पूछा - आपकी क्या इच्छा है ? भंडारी टीकमदासजी ने कहा - महाराज मेरी तो यही इच्छा है कि - मैं प्रतिक्षण आपकी सेवा में लगा रहूँ और आपकी दृष्टि के नीचे ही रहूं । 
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तब आचार्य निर्भयरामजी महाराज ने कहा - तुम प्रतिक्षण मेरे पास ही रहोगे । फिर वि. सं. १८६८ कार्तिक कृष्ण ५ को भंडारी टीकमदासजी का देहान्त राजगढ में ही हो गया । राजगढ में आचार्य निर्भयरामजी ने भंडारी टीकमदासजी की स्मृति में एक तिबारा और एक कुई बनवाई थी । 
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वह कुई मनीकुई के नाम से अद्यापिस्थित है । और नारायणा दादूधाम में कुवा पर आचार्यों की स्मारक छत्रियों के सामने भंडारी टीकमदासजी की स्मारक छत्री बनवाई थी । इस प्रकार निर्भयरामजी महाराज ने अपने भक्त तथा गुरु भाई का सम्मान किया था ।
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जयपुर नरेश जगतसिंह से भेंट ~ 
वि. सं. १८६९ में चैत्र सुदी ७ को जयपुर नरेश जगतसिंह जी को आचार्य निर्भयरामजी के अकस्मात् दर्शन हो गये थे । उस समय जगतसिंहजी ने आचार्य जी को एक मोहर भेंट की थी । वे अधिक ठहर नहीं सके थे । किसी कार्यवश उनका शीघ्र ही नियत समय पर नियत स्थान पर पहुँचना था । किन्तु मार्ग में आचार्य जी का नाम सुनकर दर्शन करने ही आ गये थे ।
(क्रमशः) 

*९. देहात्मा बिछोह को अंग २३/२५*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*९. देहात्मा बिछोह को अंग २३/२५*
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देह जीव यौं मिलि रहै, ज्यौं पांणी अरु लौंन । 
बार न लाई बिछुरतें, सुन्दर कीयौ गौंन ॥२३॥
यद्यपि जीवित अवस्था में इस देह का चेतन के साथ ऐसा सम्पर्क रहता है जैसे जल में नमक मिला रहता है; परन्तु इन दोनों को परस्पर पृथक् होने में कोई अधिक विलम्ब नहीं लगता । चेतन की सत्ता इस(देह) से तत्काल पृथक् हो जाती है ॥२३॥
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सुन्दर आइ शरीर मैं, जीव किये उतपात । 
निकसि गये या देह की, फेर न बूझी बात ॥२४॥
महाराज श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - चेतन(जीवात्मा) के साथ सम्पर्क होने के बाद, इस देह ने सांसारिक विषय भोगों की प्राप्ति के लिये बहुत उपद्रव किये हैं; परन्तु वह चेतन जब इस से पृथक् हो गया तब से किसी ने इस देह का हाल चाल भी नहीं पूछा ॥२४॥
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सुन्दर आयौ कौंन दिसि, गयौ कौनसी वोर । 
या किनहूं जान्यौ नहीं, भयौ जगत मैं सोर ॥२५॥
इति देहात्मा बिछोह को अंग ॥९॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - यह चेतन इस देह में किधर से आया ? और किधर चला गया ? ये दोनों ही बातें कोई नहीं जानता । फिर भी शास्त्रकारों ने व्यर्थ के मतवाद निरूपित कर भ्रम फैला रखा है* ॥२५॥ 
(*श्रीमद्भगवद्गीता में भी लिखा है -
अव्यक्तादीनि भूतानि, व्यक्तमध्यानि भारत !
अव्यक्तनिधनान्येव, तत्र का परिदेवना ॥ 
(अ० २, श्लो० २८)
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देहात्मा बिछोह का अंग सम्पन्न ॥९॥
(क्रमशः) 

रविवार, 16 नवंबर 2025

*९. देहात्मा बिछोह को अंग २०/२१*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*९. देहात्मा बिछोह को अंग २०/२१*
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चेतन मिश्री देह तृण, तुलत संग देहिं दांम । 
सुन्दर दोउ जुदे भये, तन तृण कोणैं काम ॥२०॥
लम्बे घास(तृण) के साथ यदि मिश्री को सम्पृक्त कर दिया जाय तो उस(तृण) का मूल्य(मोलभाव) बाजार में बढ़ जाता है । (राजस्थान में बीकानेर की फडां मिश्री आज भी प्रसिद्ध है ।) यदि उस दोनों को पृथक् कर दिया जाय तो उस तृण का कोई मूल्य नहीं रह जाता । यही स्थिति चेतनसम्पृक्त देह की भी समझना चाहिये ॥२०॥
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चेतनि तें चेतनि भई, अतिगति शोभित देह । 
सुन्दर चेतनि निकसतें, भई खेह की खेह ॥२१॥
हमारा यह देह, चेतन से सम्पर्क रहने तक ही, संज्ञावान्(सचेष्ट) एवं मनोहर प्रतीत होता है । सुन्दरदासजी कहते हैं - चेतन से सम्पर्क हटने पर इस देह का लोक में राख(भस्म) से भी अधिक तिरस्कार होने लगता है । क्योंकि मरने के बाद इस के जला दिये जाने पर यह 'मुर्दे की राख' कहलाता है ॥२१॥
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चेतनि ही लीयें फिरै, तन कौं सहज सुभाइ । 
सुन्दर चेतनि बाहरी, खैल भैल ह्वै जाइ ॥२२॥
लोक में इस देह की तभी तक उपयोगिता एवं औचित्य है जब तक यह चेतन के साथ सम्पृक्त है । जब भी इस का सम्पर्क चेतन से टूट जाता है तो किसी बाह्य सत्ता का साथ मिलने पर भी, इसकी ओर से सब कुछ खड़भड़(अस्त व्यस्त) एवं नष्ट भ्रष्ट हो गया समझिये ॥२२॥
(क्रमशः) 

स्वामी निर्भयरामजी, चरण शरण वक्तेश

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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८ आचार्य निर्भयरामजी
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फिर राजा निर्भयरामजी महाराज के चरणों में मस्तक रखकर बोला - स्वामिन् ! मुझे इस गो हत्या के पाप से बचाइये । निर्भयरामजी महाराज ने कहा - तुम मद्य मांस का परित्याग करो । आज आगे नहीं खाओ पीओगे तो हम बचा देंगे । राजा ने प्रतिज्ञा करली कि आगे मैं न शिकार करुंगा और न मद्य मांस खाऊं पीऊंगा । 
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कहा भी है -
“निर्भयरामजी जाय के, दरस्या मृग हि समान ।
राजा जब भलिका दिया, पडी गाय अरडान ॥
गो लख राजा कंपियो, धृग जीवन रज वंश ।
निर्भयरामजी दर्शन दिया, त्याग दिया मद मंस  ॥
(दौलतराम)
फिर राजा को अपने सामने दीन भाव से खडा देखकर निर्भयरामजी महाराज बोले - राजन् ! तुम अन्य सब काम छोडकर पहले गंगा स्नान कर आओ, इस पाप से मुक्त हो जाओगे । राजा ने आचार्य निर्भयरामजी महाराज की आज्ञा मानली और सीधे गंगा स्नान के लिये चले गये ।
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स्नान करने के पश्‍चात् राजा वक्तावरसिंह ने वहां निर्भयरामजी महाराज को हाथी की सवारी से जन समूह के साथ मार्ग में जाते देखा । जनता संकीर्तन करती जा रही थी और बीच - बीच में निर्भयरामजी महाराज की जय भी सुनने में आती थी । राजा ने पूछा - ये हाथी कौन का है ? उत्तर मिला नारायणा दादूधाम के आचार्य निर्भयरामजी महाराज का है । 
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उक्त वचन सुनकर राजा को अति आश्‍चर्य हुआ कि - आचार्य निर्भयरामजी यहां मेरे से पहले कैसे आ सकते थे ? उनको तो मैं राजगढ में छोडकर आया था किन्तु दीखते तो वे ही हैं । आश्‍चर्य तो होना ही था । निर्भयरामजी की योग शक्ति से राजा तो परिचित नहीं थे । योगियों के लिये तो यह साधारण सी बात है । वे अपनी योग शक्ति से ऐसी अनेक लीलायें दिखा सकते हैं । 
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राजा लौटकर राजगढ में आया और लोगों से पूछा - निर्भयरामजी महाराज गंगा स्नान के लिये गये हैं क्या ? सबने कहा नहीं वे तो यहां ही हैं, हम प्रतिदिन दर्शन सत्संग के लिये उनके पास जाते हैं । लोगों के उक्त वचनों को सुनकर राजा के मन में निश्‍चय हो गया कि - ये तो महान् संत हैं, इनके लिये कोई भी घटना असंभव नही हो सकती ।
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महान् संत ऐसे ही अपनी योग लीला भक्तों के कल्याण के लिये दिखा देते हैं । मेरे पर विशेष कृपा होने से मुझे वहां भी दर्शन दे दिया था । यह विचार अपने मन में करके राजा हर्षित हुआ । फिर निर्भयरामजी के दर्शन करने गया और १ मोहर १०५) रु. भेंट करके सत्यराम बोलकर दंडवत की । 
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फिर खडा होकर हाथ जोडे हुये बोला - 
आवन हुओ आपको, पावन कियो सु देश ।
स्वामी निर्भयरामजी, चरण शरण वक्तेश ॥
अलवर नरेश वक्तावरसिंह निर्भयरामजी को गुरु मानते थे, उन पर पूरी श्रद्धा रखते थे । सुनते हैं राजा ने निर्भयरामजी महाराज के चावा का वास ग्राम भी भेंट किया था । किन्तु निर्भयरामजी महाराज तो ग्राम लेते ही नहीं थे । उन्होंने नहीं लिया । 
(क्रमशः)  

शनिवार, 15 नवंबर 2025

अलवर नरेश का आना

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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८ आचार्य निर्भयरामजी
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राजगढ पधारना ~
वि. सं. १८६८ में आचार्य निर्भयरामजी महाराज राजगढ पधारे । वहां पर उस समय बहुत से उतराधे संत मिले । गोविन्ददासजी आचार्य निर्भयरामजी महाराज का स्वागत सामेला करने आये और ८००) रु. भेंट किये । ठंडीरामजी की ओर से ५००) रु. भेंट हुये । अन्य संत भक्तों ने भी श्रद्धा शक्ति अनुसार भेंटें कीं । 
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अलवर नरेश का आना ~ 
इन्हीं दिनों में अलवर नरेश वक्तावरसिंह राजगढ के पर्वतों में शिकार करने के लिये आये थे । वहां पर सुना कि नारायणा दादूधाम के आचार्य निर्भयरामजी महाराज यहां पधारे हुये हैं । यह सुनकर वक्तावर सिंह जी की इच्छा हुई कि - निर्भयरामजी महाराज का दर्शनकर के ही पर्वत पर चलेंगे । 
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इधर निर्भयरामजी महाराज को भी ज्ञात हुआ कि अलवर नरेश वक्तावर सिंह शिकार करने यहां हुये हैं । फिर अलवर नरेश वक्तावर सिंह निर्भयरामजी महाराज के दर्शन करने आये और दर्शन करके अति प्रसन्न हुये । 
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फिर जाने लगे तब निर्भयरामजी महाराज ने राजा को कहा - राजन् ! शिकार मारना अच्छा नहीं है, सभी प्राणियों में आत्मरुप से परमात्मा स्थित है । अत: सब पर दया ही करनी चाहिये कहा भी है - 
दई योग ऐसो भयो, कोइ न मिली शिकार । 
हेरत राजा थक गयो, तरिषा लगी अपार ॥
(दौलतराम)  
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फिर योगिराज निर्भयरामजी महाराज ने राजा को हिंसा से बचाने के लिये लीला रची । राजा के सामने मृग रुप में प्रकट हो गये । राजा ने मृग पर शस्त्र चलाया किन्तु शस्त्र लगते ही वह मृग गाय के रुप में बोलता हुआ पृथ्वी पर पडा । तब राजा अपने से गोहिंसा हुई समझकर भय से कांप गया और अपने मन में कहने लगा राजवंश को धिक्कार है । 
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कहा भी है - 
सुने अहिंसक बात नहिं, तो ही पश्‍चात्ताप ।
अलवर नृप वक्तेश को, हुआ अधिक संताप ॥
राजा को अति दु:ख में देखकर वहां निर्भयरामजी महाराज प्रकट हो गये । उन्हें देखकर राजा अति लज्जित होकर अपने मन में सोचने लगा, मैंने महात्मा की शिक्षा नहीं मानी उसी का परिणाम यह महापाप मुझे हुआ है । 
(क्रमशः) 

*९. देहात्मा बिछोह को अंग १७/१९*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*९. देहात्मा बिछोह को अंग १७/१९*
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नख सिख देह लगै भली, सुन्दर अधिक सुरूप । 
चेतनि हीरा चलि गयौ, भयौ अन्धेरा घूप ॥१७॥
यह मानव देह तभी तक प्रिय सुन्दर एवं मनोहर लगता है जब तक इस को प्रकाशित करने वाला हीरामणि इसमें रहकर इस को प्रकाशित करता रहता है । उस हीरा मणि के चले जाने पर इस मानव देह में घोर(= घुप) अन्धकार छा जाता है ॥१७॥
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सुन्दर देह सुहावनी, जब लगि चेतनि मांहिं । 
कोई निकट न आवई, जब यह चेतनि नांहिं ॥१८॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - संसार में इस मानव देह की शोभा तभी तक दिखायी देती है जब तक कि इसमें चेतन(आत्मा) विराजमान है । इस देह से चेतन के दूर होते ही, कोई मनुष्य इसके समीप भी नहीं आना चाहता ॥१८॥.
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चेतनि कै संयोग तें, होइ देह कौ तोल । 
चेतनि न्यारौ ह्वै गयौ, लहै न कोडी मोल ॥१९॥
इसमें चेतन(आत्मा) के उपस्थित रहने पर ही, इस देह का यथार्थतः मूल्याङ्कन(मोल तोल) हो सकता है । इस से चेतन के पृथक् होते ही इसको कोई कोडियों के भाव(सस्ते से सस्ता) भी खरीदने को तय्यार नहीं होता ॥१९॥
(क्रमशः) 

शुक्रवार, 14 नवंबर 2025

*९. देहात्मा बिछोह को अंग १३/१६*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*९. देहात्मा बिछोह को अंग १३/१६*
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सुन्दर देह हलै चलै, चेतनि के संजोग । 
चेतनि सत्ता चलि गई, कौंन करै रस भोग ॥१३॥
इस मानवदेह का समग्र कर्म(हलचल) तभी तक सम्पन्न होता है जब तक इस देह का सम्पर्क चेतन(आत्मा) के साथ रहता है । श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - जब इस देह से चेतन की सत्ता पृथक् हो जाती है तो इसमें सांसारिक भोगों को भोगने वाला कौन रह जाता है ! ॥१३॥
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हलन चलन सब देह कौ, चेतनि सत्ता होइ । 
चेतनि सत्ता बाहरी, सुन्दर क्रिया न होइ ॥१४॥
इस देह की बाह्य एवं आन्तरिक क्रियाओं का उचित सञ्चालन तभी तक होता रहता है, जब तक इस का अन्तःस्थित चेतन से सम्बन्ध रहता है । श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - उस अन्तःस्थित चेतन से सम्बन्ध टूटने पर किसी बाह्य सत्ता द्वारा इस का सञ्चालन हो पाना असम्भव है ॥१४॥
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सुन्दर देह हलै चलै, जब लगि चेतनि लाल । 
चेतनि कियौ प्रयान जब, रूसि रहै ततकाल ॥१५॥
इस देह में तभी तक सञ्चालन क्रिया उचित ढंग से होती रहती है, जब तक इस में सब का प्रिय लाल(लाड़ला) बैठा हुआ है । उस चेतन के हटते ही इस देह की हस्त, पाद आदि सभी इन्द्रियाँ तत्काल रूठ कर अपना कार्य बन्द कर देती हैं ॥१५॥
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चम्बक सत्ता कर जथा, लोहा नृत्य कराइ । 
सुन्दर चम्बक दूरि ह्वै, चञ्चलता मिटि जाइ ॥१६॥
श्रीसुन्दरदासजी अपने कथन को चुम्बक के दृष्टान्त से परिपुष्ट कर रहे हैं - जैसे (जथा = यथा) लोह धातु से निर्मित वस्तु चुम्बक के सहारे से लोक में नाचती कुदती हैं; और उस चुम्बक के दूर हटते ही उन की चलन क्रियाएँ रुक जाती है । वैसे ही इस देह की समस्त क्रियाओं का चलन(चञ्चलता) भी, चेतन के दूर होते ही, निवृत्त हो जाता है ॥१६॥
(क्रमशः)

शिवरामजी का भंडारा

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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८ आचार्य निर्भयरामजी
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अलवर नरेश का भंयकर रोग शिवरामदास जी की कृपा से नष्ट हुआ था । राजा ने शिवरामजी का भंडारा किया था और शिवरामदासजी की चादर गोविन्ददासजी को उढाई थी । किन्तु उनके योग - क्षेम का कोई प्रबन्ध नहीं किया था । 
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गोविन्ददासजी जब बसवा आचार्य निर्भयरामजी महाराज के पास गये हुये थे तब अलवर नरेश को सहसा स्मरण आया कि - गोविन्ददासजी का निर्वाह कैसे होता है, इसका पता लगाना चाहिये । फिर राजा ने अपना एक विशेष व्यक्ति गोविन्ददासजी के पास भेजा । 
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किन्तु गोविन्ददासजी स्थान पर नहीं मिले । आसपास के लोगों से पूछा तो ज्ञात हुआ उनका निर्वाह का कोई साधन नहीं हैं, इसीलिये कहीं गये होंगे । उस व्यक्ति ने उक्त बात राजा के पास जाकर सुना दी । तब राजा ने एक व्यक्ति को गोविन्ददासजी के स्थान पर नियुक्त कर दिया - और उसे आज्ञा दे दी कि - गोविन्ददाजी जब आयें तब आते ही उनको मेरे पास ले आओ । 
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गोविन्ददासजी निर्भयराम जी महाराज की आज्ञा से सीधे स्थान पर ही आये । उनके आते ही उक्त पुरुष ने राजा की आज्ञा सुना दी और उनको राजा के पास ले गया । राजा ने उनका अच्छा सत्कार किया और योग - क्षेम के लिये नया गांव बोंलका( हरि कृष्ण पुरा, तहसील राजगढ में) भेंट किया और बाग लगाने के लिये १३ बीघा भूमि और दी । 
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कहा भी है - 
संतों के सु प्रसाद से, होता जीव निहाल ।
निर्भयराम की कृपा से, गोविन्द मालामाल ॥३७॥द्द.त. ११
वि. सं. १८७२ में आसोज सुदी ५ को सम्मान व गांव गोविन्ददासजी को जयपुर राज्य से भी मिले । 
(क्रमशः)



गुरुवार, 13 नवंबर 2025

*९. देहात्मा बिछोह को अंग ९/१२*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*९. देहात्मा बिछोह को अंग ९/१२*
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हँसै न बोलै नैंक हूं, खाइ न पीवै देह । 
सुन्दर अंनसन ले रही, जीव गयौ तजि नेह ॥९॥
इस देह के प्राण से रहित होने पर, यह देह न हँसता है, न किसी से कुछ बात करता है, न खाता ही है, न पीता है । उस समय यह देह जीवित प्राणी के सभी कर्मों से रहित हो जाता है ॥९॥ (तु०-सवैया ग्र०, ९/३)
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पाथर से भारी भई, कौंन चलावै जाहि । 
सुन्दर सो कतहूं गयौ, लीयें फिरतौ ताहि ॥१०॥
प्राणवियोग के अनन्तर, यह मानव देह पत्थर से भी अधिक भार वाली हो गयी । सुन्दरदासजी महाराज पूछते हैं - इस का वह सञ्चालक कहाँ गया जो इस का सुगमता से सञ्चालन करता था ? ॥११॥
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सुन्दर पांणी सींचतौ, क्यारी कंणकै हेत । 
चेतनि माली चलि गयौ, सूक्यौ काया खेत ॥११॥
श्रीसुन्दरदासजी पूछते हैं - इस देह – उद्यान का वह माली कहाँ चला गया, जो अपनी जीवनयात्रा चलाने के लिये अन्न उत्पादन हेतु प्रत्येक वृक्षपंक्ति को जल से सींचता था ! वह चेतन(आत्मा) माली कहाँ है । उस के विना तो यह काया रूप खेत अब सर्वथा सूख गया है ॥११॥
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ज्यौं कौ त्यौं ही देखिये, सकल देह कौ ठाट । 
सुन्दर को जांणै नहीं, जीव गयौ किहिं बाट ॥१२॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते है - इस देह का, प्राणों से वियुक्त होने पर भी, समस्त आकार प्रकार, पूर्ववत्(प्राण-संयोग के समय का) ही हमें दिखायी दे रहा है । इसके हाथ, पैर, नाक कान हमें पूर्ववत् ही दिखायी दे रहे हैं । तो भी इस का स्थायी निवासी(रहने वाला) किस मार्ग से किधर निकल गया ! - यह कोई नहीं जानता ॥१२॥
(क्रमशः) 

गोविन्ददासजी का आना ~

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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८ आचार्य निर्भयरामजी
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गोविन्ददासजी का आना ~
आचार्य निर्भयराम जी महाराज वसवा में दादूवाणी के प्रवचनों द्वारा धार्मिक जनता को ज्ञानामृत का पान करा रहे थे । उन्हीं दिनों में शिवरामदासजी राजगढ वालों के शिष्य गोविन्ददासजी ने अपने गुरुदेव शिवरामदासजी के ब्रह्मलीन होने पर उनका महोत्सव करके उनकी चद्दर तो ओढ ली थी किन्तु अब इनके योग - क्षेम का साधन इनके पास नहीं था । 
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इसलिये गोविन्ददासजी ने विचार किया - यहां पडे पडे क्या करेंगे ? चलें चारों धामों की यात्रा ही कर आयें । यात्रा करने जाने लगे तो ज्ञात हुआ नारायणा दादूधाम के आचार्य निर्भयराम जी महाराज वसवा में आये हुये हैं । तब गोविन्ददासजी ने सोचा वसवा होते हुये चलें जिससे आचार्य के दर्शन भी हो जायेंगे । 
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फिर गोविन्ददासजी आचार्य निर्भयरामजी महाराज के पास गये । दर्शन करके सत्यराम बोलते हुये साष्टांग की फिर हाथ जोडकर सामने बैठ गये ।  आचार्य निर्भयराम जी ने उनके कुशल समाचार पूछे और आसन को देखकर कहा - कहां जाने की तैयारी करके आये हो ? 
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गोविन्ददासजी ने कहा - महाराज ! राजगढ रहने पर योग - क्षेम भी ठीक नहीं चल रहा है । अत: मैंने सोचा यहां पडे पडे क्या करेंगे ? चारों धामों की यात्रा ही कर आयें । इसलिये चारों धामों की यात्रा करने जा रहा हूँ । आचार्य निर्भयराम जी ने गोविन्ददासजी की स्थिति सुनी और कुछ विचार करके गोविन्ददासजी को कहा - मेरी बात ध्यान से सुनो - 
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गोविन्ददासजी को शुभाशीर्वाद ~
चारों धामों की यात्रा करने का विचार तो तुम्हारा अच्छा ही है किन्तु तुम अपने योग - क्षेम की चिन्ता भी मत करो । तुम तो साधु होकर भी राज करोगे । और बहुतों का योक्ष - क्षेम करोगे । तुम्हें अपने योग - क्षेम की चिन्ता का कोई भी प्रसंग नहीं आयेगा । परन्तु अब तुम जहां से आये हो वहां ही लौट जाओ । 
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यह कहकर आचार्य निर्भयराम जी महाराज गोविन्द दासजी को बताशों का प्रसाद देने लगे । तब गोविन्ददासजी ने प्रसाद के लिये अपना अंगोछा बिछा दिया । आचार्य निर्भयरामजी प्रसाद देने लगे । दो चार मुट्ठी बताशों की अंगोछे में पडने पर गोविन्ददासजी ने कहा - बस महाराज ! किन्तु आचार्य ने कहा यहां दादू दयालजी का भंडार है, बहुत से बताशे लो यह कहकर आचार्य जी ने उसका अंगोछा बताशों से भर दिया । 
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फिर गोविन्ददासजी बताशों से भरे हुये अंगोछे को उठाने लगे तो अकस्मात् अंगोछा का एक पल्ला छूट गया और बताशे पृथ्वी पर फैल गये । उनसे गोविन्ददासजी का मन व्याकुल होकर भयभीत हो गया । 
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तब आचार्य निर्भयरामजी महाराज ने कहा - भय मत करो, जैसे ये बताशे फैले हैं, वैसे ही तुम्हारा शिष्य समूह और माया फैलेगी । परन्तु तुम अब जहां से आये वहां ही शीघ्र चले जाओ । राजा से तुमको सम्मान मिलेगा । फिर गोविन्ददास जी आचार्य निर्भयरामजी को दंडवत सत्यराम करके राजगढ ही लौट गये । यात्रा करने नहीं गये ।
(क्रमशः)  

बुधवार, 12 नवंबर 2025

शेखावटी की रामत

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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८ आचार्य निर्भयरामजी
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शेखावटी की रामत ~
वि. सं. १८६५ में आचार्य निर्भयराम जी महाराज ने शेखावटी की रामत की । रामत करते - करते आप रामगढ पधारे । वहां पोद्दार भक्तों ने आपका बहुत अच्छा सामेला स्वागत सत्कार किया और सुन्दर और एकान्त स्थान में ठहराकर सेवा का सुचारु रुप से प्रबन्ध किया । 
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पोद्दार सेवकों की दादूवाणी और अपनी परंपरा के आचार्य निर्भयराम जी पर तो अटूट श्रद्धा थी ही किन्तु अब उनके सभी परिवारों को आचार्य जी के दर्शन और सत्संग से अति आनन्द प्राप्त हो रहा था । वे संत दर्शन सत्संग और संत सेवा तीन प्रकार का लाभ एक साथ ही ले रहे थे । यह प्रसंग उनके विशाल भाग्य का ही द्योतक है ।
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पोद्दार सेवकों ने जब तक आचार्य निर्भयराम जी महाराज रामगढ में विराजे तब तक पूर्ण श्रद्धा भक्ति से अच्छी सेवा की और जब महाराज रामगढ से जाने का विचार करने लगे तब सेठों ने दिल खोल कर अच्छी भेंट दी । उन भेंटो का सब द्रव्य आचार्य निर्भयराम जी महाराज ने नारायणा दादूधाम के सदाव्रत विभाग को वहां रामगढ में ही प्रदान कर दिया । इससे पोद्दार सेवकों की श्रद्धा निर्भयराम जी महाराज पर पहले से दूनी हो गई । त्याग का ऐसा ही प्रभाव होता है ।
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दौलतपुरा चातुर्मास ~
वि. सं. १८६७ में दौलतपुरा में चातुर्मास किया । इस चातुर्मास में भी श्री दादूवाणी के प्रवचन, जागरण, संकीर्तन आदि पुण्य कार्य बहुत अच्छी प्रकार होते रहे । फिर दौलतपुरा का चातुर्मास समाप्त करके भक्तों व संतों की विशेष प्रार्थना व अत्यधिक आग्रह करने से राजावाटी की रामत करने का निश्‍चय किया गया ।  
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राजावाटी की रामत ~
राजावाटी की रामत में कालाडैरा के महन्त हरिराम जी ने मंडल के सहित आचार्य निर्भयराम जी महाराज को अति आग्रह से दो दिन अपने यहां रक्खा और मंडल के सहित आचार्यजी की अच्छी सेवा की । जनता को दादूवाणी के प्रवचन, आचार्य जी के सहित सब संतों के दर्शन सत्संग से अति लाभ हुआ । 
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जनता ने भी श्रद्धा भक्ति से आचार्य जी तथा संतों की सेवा की । कालाडैरा से विचरने लगे तब महन्त हरिराम जी ने आचार्य निर्भयराम जी को १००१) रु. भेंट किये । फिर भ्रमण करते आचार्य निर्भयराम जी महाराज मंडल के सहित वसवा पधारे । 
(क्रमशः) 

*९. देहात्मा बिछोह को अंग ५/८*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*९. देहात्मा बिछोह को अंग ५/८*
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सुन्दर लोग कुटंब सब, रहते सदा हजूरि । 
प्रान गये लागे कहन, काढौ घर तें दूरि ॥५॥
माता, पिता स्त्री या भाई की ही बात क्यों करें, इस के प्राण रहते हुए इस का समस्त कुटुम्ब इस के सम्मुख विनम्र भाव से खड़ा रहता था; परन्तु आज इस के प्राण निकल जाने पर, सब मिल कर एक स्वर से कह रहे हैं कि इस को शीघ्र से शीघ्र घर से बाहर(दूर) करो ॥५॥ (तु०-सवैया ग्र०, ९/३)
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देह सुरंगी तब लगै, जब लग प्राण समीप । 
जीव जोति जाती रही, सुन्दर बिदरंग दीप ॥६॥
यह देह तो तभी तक सुरूप(सुन्दर) लगती है, जब तक इस में प्राण रहते हैं । प्राणों से वियुक्त होने पर इसे कोई देखना भी नहीं चाहता । व्यवहार में भी हम देखते हैं कि ज्योतिर्मय दीपक ही सब को मनोरम लगता है । बुझे हुए दीपक को कौन देखना चाहेगा; क्योंकि अब वह बदरङ्ग(कुरूप) हो चुका है ॥६॥ (तु० - सवैया ग्र०९/१)
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चमक दमक सब मिटि गई, जीव गयौ जब आप । 
सुन्दर खाली कंचुकी, नीकसि भागौ सांप ॥७॥
इस शरीर में प्राण रहने तक ही इस शरीर की चमक दमक(आभा, कान्ति) लोगों को प्यारी लगती है । प्राण निकल जाने पर तो यह शरीर सर्प द्वारा त्यागी केंचुली(कञ्चक) के तुल्य निरर्थक ही लगता है ॥७॥
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श्रवन नैंन मुख नासिका, ज्यौं के त्यौं सब द्वार । 
सुन्दर सो नहिं देखिये, अचल चलावणहार ॥८॥
शरीर से प्राणों के निकल जाने पर भी, इस के कान, नाक, चक्षु एवं मुख आदि सभी द्वार पूर्ववत् दिखायी देते हैं, परन्तु एकमात्र वह(प्राण) नहीं दिखायी देता जो इस(शरीर) का स्थायी(अविनाशी) सञ्चालक है ॥८॥ (तु० - सवैया ग्र०, ९/६-७ ॥)
(क्रमशः) 

मंगलवार, 11 नवंबर 2025

९. देहात्मा बिछोह को अंग १/४

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*९. देहात्मा बिछोह को अंग१, १/४*
(१. श्रीसुन्दरदासजी ने अपने सवैया ग्रन्थ में भी इसी नाम से इस अंग का निरूपण किया है । अन्तर इतना ही है कि वहाँ इस विषय का विस्तृत निरूपण है तो यहाँ वही बात सूत्र रूप में कही गयी है । अतः उचित यही होगा कि पाठक उस अङ्ग को सम्मुख रख कर ही इन साषियों को पढें । हम भी यहाँ यथाप्रसङ्ग वहाँ के छन्दों की क्रम सङ्ख्या, प्रत्येक साषी के बाद, सूचित कर रहे हैं । - स. ।)
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दोहा
सुन्दर देह परी रही, निकसि गयौ जब प्रान ।
सब कोऊ यौं कहत हैं, अब लै जाहु मसान ॥१॥
महाराज श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - जब इस शरीर से प्राण निकल जाते हैं तब यह शरीर(देह) यहीं पड़ा रह जाता है । उस समय उस निष्प्राण शरीर को देखने वाले सभी दर्शकों के मुख से यही शब्द निकलते हैं - "अब यह शरीर हम लोगों के लिये निष्प्रयोजन(व्यर्थ) हो गया, अतः इसे यहाँ से श्मशान ले जाकर भस्म(राख) कर दो" ॥२॥ (तु०- सवैया ग्रन्थ, ९/३) ।
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माता पिता लगावते, छाती सौं सब अंग ।
सुन्दर निकस्यौ प्रान जब, कोउ न बैठे संग ॥२॥
जब तक इस शरीर में प्राण थे तब तक इस के माता पिता भी स्नेहवश इसको अपनी छाती से चिपकाये रखते थे । श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - परन्तु इस से प्राण निकल जाने पर, इस के पास कोई भी बैठना नहीं चाहता ॥२॥ (तु० - सवैया ग्र०, ९/३)
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सुन्दर नारी करत ही, पिय सौं अधिक सनेह ।
तिनहूं मन मैं भय धस्यौ, मृतक देखि करि देह ॥३॥
श्रीसुन्दरदासजी महाराज कहते हैं - इस की स्त्री, इसकी जीवित अवस्था में, सबसे अधिक इस से स्नेह का प्रदर्शन करती थी; परन्तु आज वह भी, इस के प्राणरहित हो जाने से, इस देह से भय मान रही है ॥३॥ (तु०- सवैया ग्र०, ९/४)
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सुन्दर भइया कहत हौ, मेरी दूजी बांह ।
प्राण गयौ जब निकसि कैं, कोउ न चंपै छांह ॥४॥
इस के जीवित रहते हुए, इस का बडा भाई इस के विषय में कहता था कि यह तो मेरी दूसरी भुजा है; परन्तु आज इस के प्राण निकल जाने पर, इससे इतनी घृणा करता है कि वह इस की छाया का भी स्पर्श नहीं चाहता ॥४॥ (तु० सवैया ग्र०, ९/८)
(क्रमशः)

ठाकुर मेघसिंह जी का कायापलट

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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८ आचार्य निर्भयरामजी
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वि. सं. १८६२ में आचार्य निर्भयराम जी ने काठे़डा की रामत की । धार्मिक जनता को दादूवाणी के उपदेशों से प्रभु भक्ति में लगाते हुये डिग्गी पधारे । वहां के ठाकुर मेघसिंहजी आचार्य निर्भयराम जी डिग्गी में आगमन सुनकर अति प्रसन्न हुये और आचार्य निर्भयराम जी के दर्शन करने गये । 
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आचार्य निर्भयराम जी के दर्शन और सत्संग से ठाकुर मेघसिंह जी के हृदय में बोध जाग्रत हुआ । फिर तो जो पहले उन्होंने आसपास के प्रदेश में हलचल मचा रखी थी उसको समाप्त कर दिया और अपने प्राप्त वैभव में प्रसन्न रह कर भगवान् की भक्ति करने लग गये । 
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आचार्य निर्भयराम जी के सत्संग से ठाकुर मेघसिंह जी का कायापलट ही हो गया । वि. सं. १८६४ में राज कर्मचारी नारायणा दादूधाम के टहलुवों को कष्ट देने लगे थे अर्थात् बेगार आदि लेने लगे थे । टहलुवों ने आचार्य निर्भयराम जी ने इस आशय का एक पत्र लिखकर जयपुर नरेश के पास भेजा । फिर वहां से जयपुर नरेश ने एक पट्टा कराकर आचार्य जी के पास भेज दिया । 
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उस पट्टे की नकल यहां देते है देखिये -
श्री राम जी ~
मोहर सवाई जगतसिंह जी ~
श्री दीवान वचनात करवा निराणा का ओहदादार चौधरी कानुगो हदसे अत्र कस्बा मजकूर में दादूद्वारो छै, तीं की टहल कमीन करै छै - नाई, खाती कुम्हार, चमार वगैरह स्थान वण्यो जदसूं कमीण मजकूरई राज की बेगार माफ छै । सो आगे कोई स्थान का टहलुवा सूं बेगार वगैरह की कोई तरह की खेचल कराणा नहीं । 
मिति पोस सुदी ५ सं. १८६४ का । 
(क्रमशः)

सोमवार, 10 नवंबर 2025

*८. नारी पुरुष श्लेष को अंग २४/२६*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*८. नारी पुरुष श्लेष को अंग २४/२६*
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सुन्दर नारी पतिव्रता, तजै न पिय कौ संग । 
पीव चलै सहिगामिनी, तुरत करै तन भंग ॥२४॥
(नारी एवं नाडी दोनों के ही पक्ष में-) यह नारी ऐसे पतिव्रत धर्म का निर्वाह करती है कि वह जीवनपर्यन्त पति साथ निभाती है । तथा मृत्यु के समय वह भी तत्काल अपना शरीर त्याग देती है ॥२४॥
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दैव बिछोह करै जबहिं, तब कोई बस नांहिं । 
सुन्दर नेह न निर्बहै, आपु आपु कौं जांहि ॥२५॥
यदि प्रारब्धवश जीवन के मध्य में ही उस का पुरुष से वियोग हो जाय तो उस में उस का कोई वश नहीं चलता । तब उन के प्रेम का पूर्ण निर्वाह नहीं हो पाता । उस समय, वे अपने अपने कर्मानुसार, पृथक् पृथक् चल देते हैं ॥२५॥
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इनि साषी पच्चीस मैं, नारी पुरुष प्रसङ्ग । 
सुन्दर पावै चतुर अति, तीन अर्थ तिनि सङ्गः ॥२६॥
इति नारी पुरुप श्लेप कौ अंग ॥८॥
महात्मा श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - पाठक को इन उपर्युक्त २५ साथियों में प्रत्येक साषी के तीन तीन अर्थ जानने चाहियें - १. नारी के पक्ष में, २. नाड़ी के पक्ष में, तथा ३. आध्यात्मिक पक्ष में ।
आध्यात्मिक पक्ष में - पुरुष का अर्थ होगा - परमात्मा, नारी का अर्थ यथाप्रसङ्ग होगा - आत्मा, प्रकृति या माया ॥२६॥
(क्रमशः)
 

लावा चातुर्मास

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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८ आचार्य निर्भयरामजी
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दादू जी का वचन देखिये - 
“रोक न राखे झूठ न भाखे, दादू खर्चे खाय ॥
नदी पूर प्रवाह ज्यों, माया आवे जाय ॥”
संतों की अर्थ नीति सदा से यही रही है । निर्भयराम जी महाराज भी ऐसा ही करते थे ।  
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लावा चातुर्मास
वि. सं. १८५९ में आचार्य निर्भयराम जी महाराज का चातुर्मास लावा में हुआ था । उस चातुर्मास में भी सदा की भांति सत्संग वाणी प्रवचन, जागरण, कीर्तन आदि का कार्य बहुत अच्छा रहा । लावा की जनता ने सत्संग का महान् आनन्द प्राप्त किया और शक्ति के समान संतों की सेवा का भी लाभ लिया । 
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लावा का चातुर्मास समाप्त करके आचार्य निर्भयराम जी महाराज ने अजमेर मेरवाडे की रामत की । इस रामत में दादूवाणी के उपदेशों से हजारों मानवों ने परमात्मा के नाम चिन्तन में मन लगाया और दुर्गुणों को छोडकर सद्गुणों को अपनाया । 
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उक्त प्रकार से निर्भयराम जी महाराज के उपदेश तथा दर्शन से, वे जिधर जाते थे उधर धार्मिक जनता लाभ ही उठाती थी ।  जोधपुर राज्य की रामत वि. सं. १८६० में जोधपुर राज्य की रामत करी । जोधपुर नरेश को प्रसाद भेजा । राजा ने प्रसाद लेकर आचार्य निर्भयराम जी को एक हाथी भेंट किया । हाथी को सेवा में भेजकर पत्र भी दिया । 
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उसकी नकल - मोहर श्री परमेश्‍वर जी सहाय छै । स्वस्ति श्री सर्वोपमा विराजमान स्वामी जी श्री निर्भयराम जी चरण कमलों में जोधपुर से भंडारी गंगाराम व सिंघी इन्दराज लिखायत दंडवत वांचसी । अठारा समाचार श्री श्री रै तेज प्रताप सूं भला छै, आपरा सदा आरोग्य चाहीजे । अपरंच कागद आपरो आयो, समाचार वांचिया । 
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श्री हुजूर ने प्रसाद दुशालों में लियो सो मालुम कियो । श्री दरबार से हाथी एक आपरै मेलियो छै सो पहुंचसी, कामकाज हो सो लिखाया करावसी । सं. १८६० रा पोष सुदी १ । उक्त प्रकार नारायणा दादूधाम के आचार्य जिस राज्य में पधारते थे उसके राजा को सूचित कर देते थे कि हम तुम्हारे राज्य में भगवान् की भक्ति का प्रचार करने के लिये आये हुये हैं । सो तुम को ध्यान रहे । 
(क्रमशः)

रविवार, 9 नवंबर 2025

टीकमदास जी भंडारी के चातुर्मास

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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८ आचार्य निर्भयरामजी
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टीकमदास जी भंडारी के चातुर्मास ~
आचार्य निर्भयराम जी महाराज का वि. सं. १८५३ का चातुर्मास नारायणा दादूधाम के भंडारी टीकमदास जी ने मनाया था । टीकमदास जी निर्भयराम जी महाराज के भक्त थे और गुरु भाई भी थे । 
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निर्भयराम जी महाराज १०० मूर्तियों के साथ टीकमदासजी भंडारी के चातुर्मास में विराजे थे । इस चातुर्मास में श्री दादूवाणी के सुन्दर प्रवचन, जागरण, कीर्तन आदि पारमार्थिक कार्य बहुत ही सुन्दर रुप से हुये थे । टीकमदास जी ने आचार्य जी के भेंट रु. ११०१) किया था । 
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जयपुर नरेश की रसोई ~
वि. सं. १८५५ से पूर्व जयपुर राज्य की नारायणा दादूधाम के मेले की रसोई का प्रबन्ध जयपुर राज से ही हुआ करता था । जो भी खर्च लगता था वह राज की तरफ से ही लगता था किन्तु इस वर्ष रसोई के ७५० झाडशाही रुपये बांध दिय गये । 
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नवाई के महन्त संतोषदासजी जयपुराधीश की तरफ से लाये थे । इसी वर्ष के मेले में आचार्य निर्भयरामजी महाराज ने अपने बडे शिष्य जीवन दास जी को अपने उत्तराधिकारी के पद पर नियुक्त कर दिया और पूजा भी बांट दी ।
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जयपुर चातुर्मास
वि. सं. १८५६ में आचार्य निर्भयराम जी महाराज चातुर्मास करने के लिये जयपुर पधारे । जयपुर राज्य की ओर से पेशवाई के वास्ते स्वरुपचन्द दारोगा ड्यो़ढी लवाजमा, हाथी, निशान अर्वीबाजा घोडा, नक्कारा आदि लेकर आये । 
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मोती डूंगरी से लेकर रुई की मंडी में सहजरामजी के अस्थल तक पहुँचा दिये । सहजरामजी मसकीनदासोत थे, उनका अस्थल वर्तमान उदयपुर जमात वालों की हवेली के सामने था । फिर श्रीमती महाराणी जी की तरफ से १ मोहर ५) रु. भेंट के आये ।
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जयपुर के साधुओं की ओर से रसोइयां भेंट होती रही । फिर मिति भादवा बदी ७ को महाराज कुमार दर्शन करने आये । २ मोहर भेंट की । तब आचार्य निर्भयराम जी महाराज ने महाराज कुमार को युवराज पदवी का एक दुपट्टा उढाया और प्रसाद दिया । 
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फिर महाराज निर्भयराम जी ने ४३ मोहर और ४०००) रु. की कीमत से मेडता में मकान और मंदिर बनाया । निर्भयराम जी महाराज प्राप्त धन को रोक कर नहीं रखते थे । वे दादू जी महाराज के निम्न वचन को स्मरण रखते थे । इससे जो आता था उसे खर्च कर देते थे । 
(क्रमशः)