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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१०. अथ तृष्णा को अंग १/४*
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पल पल छीजै देह यह, घटत घटत घटि जाइ ।
सुन्दर तृष्णा ना घटै, दिन दिन नौतन थाइ ॥१॥
हमारा यह देह क्षण क्षण में क्रमशः क्षीण होता जा रहा है, परन्तु एक हमारी यह तृष्णा(कामोपभोगलिप्सा) है कि यह घटने का नाम ही नहीं लेती । अपितु, यह प्रतिदिन नित्य नये रूप से बढ़ती ही जाती है ॥१॥
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बालापन जोबन गयौ, बृद्ध भये सब कोइ ।
सुन्दर जीरन ह्वै गये, तृष्णा नव तन होइ ॥२॥
प्रत्येक मनुष्य का एक न एक दिन बचपन चला जाता है, कुछ समय बाद उस की जवानी(युवावस्था) भी चली जाती है । एक समय आता है कि ये सब बूढे हो जाते हैं । श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - हमारे कथन का यही तात्पर्य है कि मनुष्य का समय पा कर सब कुछ जीर्ण हो जाता है; परन्तु उसकी तृष्णा नित्य नया शरीर पाती रहती है१ ॥२॥
{१. श्रीभर्तृहरि भी कहते हैं -
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः,
तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः ।
कालो न यातो वयमेव याताः,
तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ॥
(वै० श० ७)}
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सुन्दर तृष्णा यौं बधै, जैसैं बाढै आगि ।
ज्यौं ज्यौं नाखै फूस कौं, त्यौं त्यौं अधिकी जागि ॥३॥
श्रीसुन्दरदासजी महाराज यह कहते हैं - मनुष्य की यह कामभोगों की तृष्णा (पाने की इच्छा) प्रतिदिन उसी तरह बढती जाती है; जैसे एक बार जली हुई अग्नि ज्यों ज्यों घास डालते जाइये त्यों त्यों वह अधिक से अधिक प्रज्वलित होती जाती है ॥३॥
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जब दस बीच पचास सौ, सहस्त्र लाख पुनि कोरि ।
नील पदम संख्या नहीं, सुन्दर त्यौं त्यौं थोरि ॥४॥
किसी तृष्णालु के पास यदि दश, बीस, पचास, सौ रुपये हो जायँ तो वह हजार, लाख, करोड़ रुपये की आशा करने लगता है । इसके बाद, अरब, खरब या नील एवं पद्म तक की आशा करता हुआ जो कुछ धनसंग्रह हो जाय उसे कम ही समझता है ॥४॥
(क्रमशः)


















