शनिवार, 2 अगस्त 2025

१. गुरुदेव का अंग ६१/६४

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१. गुरुदेव का अंग ६१/६४*

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सुंदर गुरु सु रसाइनी, बहु बिधि करय उपाय । 
सद्गुरु पारस परसतें, लोह हेम ह्वै जाय ॥६१॥
महात्मा अपने कथन को आगे की चार साषियों से अधिक स्पष्ट कर रहे हैं - साधारण गुरु उस रसायनी वैदय के समान है जो शरीर की दुर्बलता एवं बुढापा दूर करने के लिए विविध रसायनों का प्रयोग रोगियों पर करता रहता है, भले ही उससे रोगियों का कष्ट दूर हो या न हो; परन्तु सद्‌गुरु उस पारस पत्थर के समान हैं जिस का स्पर्श पाते ही साधारण लोहा भी तत्काल दिव्य सुवर्ण में परिवर्तित हो ही जाता है ॥६१॥
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सुन्दर मसकति दार सौं, गुरु मथि काढै आगि । 
सद्गुरु चकमक ठोकतें, तुरत उठै कफ जागि ॥६२॥
साधारण गुरु उस पुरुष के समान है जो दो अरणियों को परिश्रमपूर्वक रगड़ कर अग्नि उत्पन्न करता है, परन्तु सद्‌गुरु उस चकमक पत्थर के समान हैं जिसकी एक रगड़ से अग्नि उत्पन्न होकर समीपस्थ सूत के गुच्छ को जला देती है ॥६२॥
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सुंदर गुरु जल खोदि कैं, नित उठि सींचै खेत । 
सद्गुरु बरसै इंद्र ज्यौं, पलक मांहिं सरसेत ॥६३॥
साधारण गुरु उस किसान के समान हैं जो नित्य प्रातः उठकर कूएँ से परिश्रमपूर्वक जल निकाल कर अपने खेतों को सींचता रहता है; परन्तु सद्‌गुरु उस मेघवृष्टि के समान हैं जो कुछ ही क्षण बरस कर क्षेत्र के समस्त सरोवरों को भर देती है ॥६३॥
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सुन्दर गुरु दीपक किये, घर मैं को तम जाइ । 
सद्‌गुरु सूर प्रकास तें, सबै अंधेर बिलाइ ॥६४॥
साधारण गुरु उस दीपक के समान हैं जो स्वयं टिमटिमाता हुआ एक छोटे से कमरे को ही जिस किसी प्रकार प्रकाश दे पाता है; परन्तु सद्गुरु उस सूर्य के समान है जिसके उदित होते ही समस्त संसार का अन्धकार तत्काल विनष्ट हो जाता है ॥६४॥
(क्रमशः)

करामात दिखाई

*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*॥आचार्य गरीबदासजी ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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गरीबदासजी नारायणा दादूद्वारा में आ गये । उस दिन रात्रि में नाथ मंडली के सभी नाथों के सेली, सींगी, कर्णमुद्रा, नाद आदि सभी वस्तुयें अपने आप ही लुप्त हो गई । तब घबराकर अंत में सब नाथों ने निश्‍चय किया कि कल गरीबदासजी आये थे, उनसे कुछ नाथों ने छे़डछाड की थी । हो सकता है उन्होंने ही यह अपनी करामात दिखाई है । अत: हमको उनके पास ही चलना चाहिये । उनकी कृपा से ही हमारे कर्ण मुद्रादि पुन: मिलेंगे । 
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फिर वे सब नाथ मिलकर नारायणा दादूधाम में आये और गरीबदासजी महाराज को प्रणाम करके आपनी करणी के लिये क्षमा याचना करते हुये बोले - भगवन् ! हमारे शरीरों पर रहने वाले सांप्रदायिक चिन्ह सब के सब लुप्त हो गये हैं । हम उनकी पुन: प्राप्ति के लिये ही आपके पास आये हैं । आप की कृपा से हमारे चिन्ह सेली, सींगी, कर्ण, मुद्रा, नाद आदि मिल सकते हैं । अत: आप अवश्य कृपा करें । 
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नाथों के नम्रता पूर्वक कहे हुये वचनों को सुन कर गरीबदासजी ने कहा - मेरे भजन करने की गुफा में आप लोगों की सभी वस्तुयें पडी हैं, आप लोग अपनी अपनी पहचान कर ले आओ । (गरीबदासजी की गुफा जो अब उनके नामसे प्रसिद्ध हैं, वे उसी में भजन करते थे) । नाथों ने गुफा में जाकर देखा तो उनको - सर्प बिच्छू आदि विषधर जन्तु ही दिखाई दिये । 
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उन्हें देखकर नाथ लोग पुन: गरीबदासजी के पास आये और प्रार्थना की कि - “महाराज ! आप अपनी माया को समेटो और हम को कर्ण मुद्रा आदि देने की कृपा करो ।” गरीबदासजी ने अब उनको सर्वथा नम्र जानकर कहा - सेली तो हम रक्खेंगे और कर्ण मुद्रा आदि आप लोगों की वस्तुयें जैसे लुप्त हुई थीं वैसे ही प्रकट हो जायेंगी । तुम अपने स्थान पर लौट जाओ किन्तु भविष्य में पुन: किसी भी व्यक्ति के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना” । नाथों ने गरीबदासजी की बात मानकर कह दिया कि आगे ऐसा नहीं करेंगे । 
(क्रमशः)

शुक्रवार, 1 अगस्त 2025

१. गुरुदेव का अंग ५७/६०

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१. गुरुदेव का अंग ५७/६०*

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बोलत बोलत चुप भया, देखत मूंदै नैंन । 
सुन्दर पावै एक को, यहु सद्‌गुरु की सैंन ॥५७॥
इस स्थिति का संकेत : श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - जब कोई उत्कृष्ट साधक उस परमतत्त्व का वर्णन करते हुए चुप(मौन) हो जाता है, अथ वा उस का साक्षात्कार करते करते उसके नेत्र मुंद जाते हैं, इस अनुपम स्थिति की ओर ही सद्‌गुरु का सङ्केत रहता है ॥५७॥
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मूरख पावै अर्थ कौं, पंडित पावै नांहि । 
सुन्दर उलटी बात यह, है सद्गुरु कै मांहि ॥५८॥
अज्ञानी, ज्ञानी एवं सद्‌गुरु में विपर्यय : शास्त्रों में अप्रवीण परन्तु साधना में तत्पर अतएव संसार से विमुख मूर्ख तत्त्वज्ञान प्राप्त कर लेता है; परन्तु शब्दज्ञान में प्रवीण कहलाने वाला और दिव्यज्ञान रहित तथाकथित पण्डित उस तत्त्वज्ञान को नहीं समझ पाता - यह विपर्यय(उलटी बात) सद्‌गुरु के लिये भी समझनी चाहिये । अर्थात् सद्‌गुरु का शास्त्रज्ञान में प्रवीण होना आवश्यक नहीं है* ॥५८॥ (*क्या इस साषी के माध्यम से श्रीसुन्दरदासजी अपने गुरु के प्रति कोई विशिष्ट संकेत तो नहीं कर रहे )
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जो कोउ विद्या देत है, सो बिद्या गुरु होइ ।
जीव ब्रह्म मेला करै, सुन्दर सद्‌गुरु सोइ ॥५९॥ 
विद्यागुरु एवं सद्‌गुरु में भेद : जो केवल शास्त्र का ज्ञान कराता है वह 'विद्यागुरु' कहलाता है तथा जो जीव एवं ब्रह्म(आत्मा एवं परमात्मा) का अभेद ज्ञान कराता है वह 'सद्‌गुरु' कहलाता है ॥५९॥
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गुरु शिष्य हि उपदेश दे, यह गुरु शिष व्यवहार । 
शब्द सुनत संसय मिटै, सुन्दर सद्‌गुरु सार ॥६०॥
साधारण गुरु शिष्य को उपदेश(साधारण शिक्षा) देकर अपना व्यवहार निभाता है; परन्तु सद्‌गुरु वे हैं जिनका ज्ञानोपदेश सुनते ही शिष्य को तत्त्वज्ञान हो जाय । यही सद्‌गुरु का वैशिष्ट्य समझना चाहिये ॥६०॥
(क्रमशः)

नाथों का मान मर्दन

*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*॥आचार्य गरीबदासजी ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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*= नाथों का मान मर्दन =*
एक समय एक नाथों की मंडली मौजमाबाद में आई थी । उन्होंने गरीबदासजी को भी निमंत्रण देकर बुलवाया । गरीबदासजी जब अश्‍व पर चढे हुये वहां पहुँचे तो एक नाथ ने उनसे कहा - आपके गुरु दादूजी ने तो कहा है -
दादू सब ही गुरु१ किये, पशु पक्षी वनराय ।  
तीन लोक गुण पंच से, सब ही मांहिं खुदाय ॥  
उक्त वचन से सूचित होता है - दादूजी ने तो पशु पक्षियों को भी गुरु माना है और यह अश्‍व पशु ही है । इस पर आप बैठते हैं तो अपने दादागुरु पर ही आपका बैठना सिद्ध होता है । 
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यह सुनकर गरीबदासजी ने उस नाथ संत को कहा - आपको दादूजी महाराज के उक्त वचन का अर्थ समझ में नहीं आया है । जो इस वचन में दादूजी महाराज का तात्पर्य है सो आप ध्यान से सुनेंगे तब आपको उक्त साखी का अर्थ समझ में आयेगा । इस का अर्थ यह है - पशु, पक्षी, वन पंक्ति आदि सभी उस महान्१ मेरे गुरु के रचे हुये हैं । तीन गुण और पंचभूतों से आदि सभी में ईश्‍वर निमित्त कारण चेतन तथा उपादान कारण माया रुप से विद्यमान है, और कारण ही उपास्य है, कार्य नहीं । यह अर्थ न समझकर आपने अपनी कल्पना से अर्थ किया है वह विद्वान संतों को कैसे मान्य हो सकता है ? उक्त अर्थ सुनकर वे नाथ संत मौन रहे । 
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कहा भी है - 
“गरीबदासजी असवार लख, करी खेचरी नाथ ।  
अर्थ फेरि उत्तर दियो, रहे राम रंग साथ ॥ ”  
फिर गरीबदासजी मौजमाबाद से नारायणा दादूधाम को आने लगे तब एक नाथ ने उनके घोडे की गति रोक दी, वह वहां ही खडा रह गया, आगे चलाने पर भी नहीं चल सका तब गरीबदासजी जान गये कि इस सामने खडे हुये नाथ ने इसकी गति रोक दी है । फिर गरीबदासजी ने ‘सत्यराम’ मंत्र बोलकर घोडे के कंधे पर एक थप्पी मार कर कहा - चल । इतना कहते ही घोडा शीघ्र गति से चल दिया । तब नाथों ने सोचा गरीबदासजी है तो करामाती ।
(क्रमशः)

 

गुरुवार, 31 जुलाई 2025

१. गुरुदेव का अंग ५३/५६

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१. गुरुदेव का अंग ५३/५६*

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षट सत सहश्र इकीस है, मनका स्वासो स्वास । 
माला फेरै राति दिन, सोहं सुन्दरदास ॥५३॥
श्रेष्ठ माला का जप : विद्वज्जन प्रमाणित करते हैं कि प्रत्येक मनुष्य प्रत्येक दिन रात में २१६००श्वास लेता है । साधक को चाहिये कि वह प्रत्येक श्वास को माला का मणियाँ समझकर उसी पर राम नाम का स्मरण करे । उसके लिये यही श्रेष्ठ 'मालाजप' है ॥ ५३॥ [तुल०: "स्वासै स्वास संभालतां इक दिन मिलि है आइ ।"- श्रीदादूवाणी, २/६]

ज्ञान तिलक सोहै सदा, भक्ति दई गुरु छाप । 
ब्यापक विष्णु उपासना, सुन्दर अजपा जाप ॥५४॥
श्रेष्ठ तिलक : साधक को अपने ललाट पर, गुरु द्वारा प्रदत्त अनन्या प्रेमा भक्ति की अमिट छाप को ही, 'तिलक' समझना चाहिये ।
अजपा जाप : महाराज श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - उस सर्वव्यापक निरञ्जन निराकार की निरन्तर उपासना (भक्ति) ही श्रेष्ठ 'अजपा जाप' है ॥५४॥

सुन्दर सूता जीव है, जाग्या ब्रह्म स्वरूप । 
जागन सोवन तें परै, सद्गुरु कह्या अनूप ॥५५॥
गुरूपदेश की विशेषता : यहाँ जीव की स्थिति स्वप्नावस्था के समान है, और ब्रह्म की स्थिति जाग्रदवस्था के समान । श्रीसुन्दरदासजी का कथन है कि हमारे सद्‌गुरु ने स्वप्न एवं जाग्रदवस्था के भी आगे की अनुपम स्थिति का उपदेश किया है ॥५५॥

सुन्दर समुझै एक है, अन समझै कौं द्वीत । 
उभै रहित सद्‌गुरु कहै, सो है बचनातीत ॥५६॥
अज्ञानी ब्रह्म एवं जीव को द्वैत(भिन्न) समझता है और ज्ञानी एक(अद्वैत) समझता है । परन्तु सद्‌गुरु इस द्वैत, अद्वैत अवस्था से ऊपर(दोनों से भिन्न) वचनातीत (वर्णनातीत = अनिर्वचनीय) स्थिति का उपदेश करते हैं ॥५६॥
(क्रमशः) 


गरीब गंगा

*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*॥आचार्य गरीबदासजी ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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*= गरीब गंगा =* 
गरीबदासजी महाराज एक समय कोट ग्राम के पास चाखा नामक स्थान में ठहरे हुये थे और उस समय एक पंडित के साथ तीर्थ तथा संतों के विषय में कुछ विचार चल रहा था । पंडित ने कहा - संत भी तीर्थों में जाते हैं । गरीबदासजी ने कहा - तीर्थ भी संतों के पास आ जाते हैं । पंडित ने कहा - यदि इस समय आपके पास यहां गंगा जी प्रकट हो जायें तब तो मैं आपका कथन सत्य मान सकता हूँ । 
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इतना कहते ही वहां जल प्रवाह रूप से गंगा जी प्रकट हो गई । फिर उस जल प्रवाह का नाम गरीब गंगा प्रसिद्ध हो गया । सुनते हैं पर्व के दिन यात्रियों का मेला भी गरीब गंगा पर लगता है । कहा भी है - 
“मानत हैं भल तीर्थ भी, संतन का उत्कर्ष ।
प्रकटी गरीब दास हित, गंगा जी सह हर्ष ॥ १४ ॥द्द.त.९॥
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उक्त गंगा पर एक समय ग्रीष्म ॠतु में एक संत प्रात: काल तीन बजे स्नान करने आये थे । उस दिन वहां का एक ठाकुर रात्रि को गंगा पर ही रह गया था । संत स्नान करके कौपीन धो रहे थे, तब उस ठाकुर ने संतजी को पूछा - आप कहाँ रहते हैं ? ठाकुर का उक्त प्रश्न सुन कर संत कौपीन को वहां ही छोडकर वहां से विचर गये । 
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फिर ठाकुर ने प्रात: काल सूर्योदय होने पर गरीबगंगा के आस - पास रहने वाले एक व्यक्ति से पूछा - यहां स्नान करने प्रात:तीन बजे कौन संत आते हैं ? उसने कहा - एक दादू पंथी संत प्रतिदिन ही तीन बजे प्रात: काल स्नान करने यहां आते हैं । किन्तु वे किसी से बोलते नहीं हैं । ठाकुर ने कहा - मैंने उनसे पूछा था आप कौन हैं ? पर उन्होंने मेरे प्रश्‍न का उत्तर भी नहीं दिया और कौपीन भी यहां छोड गये । 
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उस व्यक्ति ने कहा - वे भजनानन्दी अन्तर्मुख रहने वाले संत हैं, किसी बोलते नहीं हैं । उन की कौपीन जहां वे छोड गये हैं वहां ही रहने दो, वे कल स्नान करने आयेंगे, तब ले जायेंगे । इस कथा से सूचित होता है कि गरीबगंगा का स्नान करना उच्चकोटि के संत भी अच्छा मानते हैं ।
(क्रमशः) 

मंगलवार, 29 जुलाई 2025

१. गुरुदेव का अंग ४९/५२

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१. गुरुदेव का अंग ४९/५२*
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स्वयं ब्रह्म सद्‌गुरु सदा, अमी शिष्य बहु संति । 
दान दियौ उपदेश जिनि, दूरि कियौ भ्रम हंति ॥४९॥
मेरे सद्‌गुरु स्वयं ब्रह्मस्वरूप हैं, तथा वे अपने प्रिय सन्त शिष्यों को ज्ञानोपदेश द्वारा अमृतमय रामरस पिलाते रहते हैं । उन ने अपने शिष्यों को राम नाम का उपदेश कर उनके अन्तःकरण का द्वैतभ्रमरूप समस्त अज्ञानान्धकार नष्ट कर दिया ॥४९॥
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राग द्वेष उपजै नहीं, द्वैत भाव को त्याग । 
मनसा वाचा कर्मना, सुन्दर यहु बैराग ॥५०॥
वैराग्य का लक्षण : जिस जिज्ञासु को किसी भी सांसारिक विषय के प्रति आसक्ति नहीं होती, राग द्वेष नहीं होता, जो समस्त द्वैतभाव को मनसा वाचा कर्मणा हृदय से त्याग चुका है, महाराज श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं इस संसार में वही सच्चा वैराग्यवान कहलाता है ॥५०॥
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सदा अखंडित एक रस, सोहं सोहं होइ । 
सुन्दर याही भक्ति है, बूझै बिरला कोइ ॥५१॥
भक्ति का लक्षण : जिस साधक के हृदय में निरन्तर निर्विघ्न रूप से सोऽहम (वह मैं ही हूँ) की भावना उठती रहे, इसी भावना को 'भक्ति' कहते हैं । इस भक्ति की यथार्थता(तत्त्व) हजारों में कोई एक ही भक्त ही जान सकता है । (यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः - गीता) ॥५१॥
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अहं भाव मिटि जात है, तासौं कहिये ज्ञान । 
बचन तहां पहुंचै नहीं, सुन्दर सो विज्ञान ॥५२॥
ज्ञान का लक्षण : सद्गुरु के जिस उपदेश से साधक शिष्य का संसार के प्रति अहन्तव(ममत्व) मिट जाय उसी(उपदेश) को 'ज्ञान' कहते हैं ।
विज्ञान का लक्षण : जिस सद्‌गुरु के उपदेश वचन के खण्डन के लिये किसी तथाकथित पण्डित की तर्कोक्ति समर्थ न हो उसी गुरुवचन को 'विज्ञान' कहते हैं ॥५२॥
(क्रमशः) 

योग - क्षेम

                                             

*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*॥आचार्य गरीबदासजी ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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कुछ वर्ष के पश्‍चात् वे संत पुन: नारायणा दादूधाम में गरीबदासजी के दर्शन करने आये । तो वहां उन्होंने देखा कि संत पहले से भी इस समय बहुत अच्छी हो रही है । फिर उनके मन में संकल्प हुआ कि - यह उस पारस का ही प्रताप हो सकता है । फिर एक दिन एकान्त में गरीबदासजी को प्रणाम करके बोले - “स्वामिन ! अब तो आपको संतों के योग - क्षेम की किंचित् भी चिन्ता नहीं करनी पडती होगी ? कारण - पारस आप के पास है, किसी की आशा करनी ही नहीं पडती होगी ? 
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गरीबदासजी ने कहा - कैसा पारस । संत जीने कहा - “मैं आपको भेंट कर गया था, वह आपके पास है । गरीबदासजी ने कहा - उस पत्थर के टुकडे को तो मैंने उसी दिन गरीबदास कूप में डाल दिया था । यह सुनकर संतजी को अति दु:ख हुआ । संतजी ने सोचा - वह देव पदार्थ था, अब उसका मिलता अति कठिन है । मुझे यह ज्ञात नहीं था कि ये इसे ऐसे ही फेंक देंगे । ऐसा जानता तो मैं कभी भी इनको भेंट नहीं करता, पर अब क्या बने । यह सोच कर वे अत्यन्त दु:ख में निमग्न हो गये । 
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गरीबदासजी ने उनको अति दु:खी देखकर कहा - संत जी ! उस पत्थर के टुकडे के लिये आप इतने दु:खी क्यों हो रहे हैं । उसमें ऐसी क्या विषेशता थी ? संतजी ने कहा - भगवन् ! वह लोहे को स्पर्शमात्र से सोना बना देता था । इसीलिये मैंने आपको भेंट किया था कि ये संत इससे सोना बना कर संतो की सेवा इच्छानुसार करते रहेंगे । गरीबदासजी ने कहा - बस लोहे को सोना बनाने की ही विषेशता थी और तो कुछ नहीं थी । संत जी ने कहा - वह कमती थी क्या ? लोहे का सोना तो अन्य प्रकार से बन ही नहीं सकता । 
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तब गरीबदासजी ने उसे अपने लोहे का चिमटा मेरे हाथ में दीजिये । संतजी ने दिया  । गरीबदासजी ने उसे अपने ललाट के लगाकर संतजी को कहा - देखिये यह लोहे का है या सोने का । लोहे के चिमटे को ललाट के लगाते ही सोने का होते देखकर संत समझ गये कि ये तो उच्चकोटि के संत हैं । इन्हें पारस की क्या आवश्यकता थी ? फिर गरीबदासजी ने कहा - संतजी ! हमारा प्रारब्ध ही पारस है । उसी से संतो का और हमारा योग - क्षेम भगवत् कृपा से निर्विध्न होता ही रहता है ।
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फिर तो संतजी का सब दु;ख सहसा ही मन से निकल गया, वे अति प्रसन्न भासने लगे । फिर तो वे इच्छानुसार नारायणा दादूधाम में निवास करके कुछ दिन के पश्‍चात् वहां से विचर गये । उक्त घटना से भी ज्ञात होता है कि गरीबदासजी का ईश्‍वर विश्‍वास महान् था । गरीबदासजी पूर्ण संतोषी संत थे । उन्हें संग्रह करना तो सर्वथा ही अभीष्ट नहीं था ।
(क्रमशः) 

सोमवार, 28 जुलाई 2025

१. गुरुदेव का अंग ४५/४८

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१. गुरुदेव का अंग ४५/४८*
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सुन्दर सद्‌गुरु श्रम बिना, दूरि किया संताप । 
शीतलता हृदये भई, ब्रह्म बिराजै आप ॥४५॥
मेरे सद्‌गुरु ने अपने ज्ञानोपदेश द्वारा, अनायास ही बिना किसी श्रम के मेरे समस्त मानसिक सन्ताप दूर कर दिये । इस कारण, अब मेरे हृदय में ब्रह्मज्ञान के उदित होने से अनुपम शीतलता(शान्ति) आ गयी ॥४५॥

परमातम सौं आतमा, जुदे रहे बहु काल । 
सुन्दर मेला करि दिया, सद्‌गुरु मिले दयाल ॥४६॥
बहुत समय से मेरा यह जीवात्मा अज्ञानावरण के कारण, सर्वव्यापक परमात्मा से स्वयं को भिन्न मान रहा था; परन्तु जब सद्‌गुरु ने कृपा कर मुझ को ज्ञानोपदेश किया, उसके तत्काल बाद ही यह जीवात्मा स्वयं को परमात्मा से अभिन्न(तद्रूप) मानने लगा ॥४६॥

परमातम अरु आतमा, उपज्या यह अविवेक । 
सुन्दर भ्रम तें दोइ थे, सद्‌गुरु कीये एक ॥४७॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं- पहले मुझ में अविद्यान्धकार के कारण यह अविवेक = भ्रमात्मक अज्ञान था कि मेरा आत्मा उस(सर्वव्यापक) परमात्मा से भिन्न है; परन्तु कृपालु गुरुदेव ने अद्वैतप्रतिपादक ज्ञानोपदेश के माध्यम से मेरा वह भेदभ्रम सर्वथा दूर कर दिया ॥४७॥

हम जांण्यां था आप थें, दूरि परै है कोइ । 
सुन्दर जब सद्‌गुरु मिल्या, सोहं सोहं होइ ॥४८॥
हमने पहले समझ रखा था कि हमारी सत्ता उस निरञ्जन निराकार परमात्मा(आप) से पृथक् हैं; परन्तु सद्‌गुरु के दर्शन होने पर उनके सदुपदेश से हमारा वह भ्रमज्ञान विलुप्त हो गया । और ज्ञाननेत्र खुल जाने से हमें अब 'वह मैं हूँ'- ऐसा ज्ञान हो गया ॥४८॥
(क्रमशः)

संत न संग्रह करत हैं

*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*॥आचार्य गरीबदासजी ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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गरीबदासजी के निवास के लिए एक स्थान बनवाया । उसमें भी शिलालेख है । उक्त दोनों शिला लेखों में उक्तवृतान्त ही होना चाहिये । वे इस समय कली आदि के कारण साफ-साफ नहीं पढे जाते हैं । एक नौबतखाना और एक महाद्वार तथा महाद्वार के सामने एक विशाल चबूतरा बनाया जो गरीबदासजी के चबूतरे के नाम से प्रसिद्ध है ।
मंगलदासजी जाखल की ढांणी जमात उदयपूर वालों ने अपने रचित गुरु पद्धति में प्रधान गायक तानसेन का भी नारायणा में आकर गरीबदासजी के दर्शन तथा संगीत संबन्धी विचार करना लिखा है । गरीबदासजी अपने समय के राजस्थान के प्रधान संगीतज्ञ माने जाते थे । उनकी वीणा अब तक भी दर्शनार्थ नारायणा दादूधाम में सुरक्षित रखी हुई है ।
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एक समय एक संत गरीबदासजी की महिमा सुनकर गरीबदासजी के दर्शन करने नारायणा दादूधाममें आये । गरीबदासजी के दर्शन करके तथा उनकी संत सेवा की पद्धति देखकर अति प्रसन्न हुये । उनके पास एक पारस पत्थर का टुकडा था । उन्होनें सोचा यह गरीबदासजी को भेंट कर देना चाहिये । यह यहां के योग्य ही है। इससे यहां सदा संतों की सेवा होती रहेगी । 
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फिर उन्होनें श्रद्धा पूर्वक गरीबदासजी को प्रणाम करके एकान्त स्थान में अकेले गरीबदासजी को वह पारस भेंट कर दिया और कहा - यह पारस, आपके यहां संत सेवा के कार्य में काम आयेगा । गरीबदासजी ने कहा - संत जी ! हमें पारस नहीं चाहिये । अपना पारस आप ही शीघ्र उठा लें । संतों का प्रारब्ध उनके साथ ही रहता है, उसी से उनकी सेवा होती है । 
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किन्तु संत जी ने कहा - भगवन् ! मैंने तो संकल्प कर लिया था कि इसे आपकी भेंट करूँ, सो कर दिया । अब मैं नहीं उठाऊँगा । फिर गरीबदासजी को प्रणाम करके वे विचर गये । फिर गरीबदासजी ने यह सोचकर कि इसको पास रखना तो एक बीमारी ही लगाना है । फिर गरीबदासजी उसी समय किसी को न बताकर उस पारस खंड को स्वयं ही हाथ में लेकर गरीबदास कूप में डाल आये । कहा भी है - 
“संत न संग्रह करत हैं, स्थिर प्रारब्ध हि मान । 
पारस डाला कूप में, गरीबदास सुजान ॥४४॥द्द.त.२॥
(क्रमशः) 

रविवार, 27 जुलाई 2025

१. गुरुदेव का अंग ४१/४४

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१. गुरुदेव का अंग ४१/४४*
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सुन्दर सद्‌गुरु शब्द तें, सारे सब बिधि काज । 
अपना करि निर्वाहिया, बांह गहे की लाज ॥४१॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - मेरे सद्गुरु ने मुझे सहारा देने के लिये अपने सङ्कल्प का महत्त्व समझ कर मुझ को राम नाम का उपदेश करते हुए मेरा इस जगत् से उद्धार आदि समस्त कार्य पूर्ण कर दिये । इस प्रकार उन ने मुझ को अपना समझ कर मेरी बांह पकड़ने की लज्जा रख ली ॥४१॥
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सुन्दर सद्गुरु शब्द सौं, दीया तत्व बताइ । 
सोवत जाग्या स्वप्न तें, भ्रम सब गया बिलाइ ॥४२॥
उन ने मुझ को एक 'राम' शब्द के द्वारा गम्भीर आध्यात्मिक तत्व का सार पूर्णतः समझा दिया । अब मेरी स्थिति ऐसी हो गयी है कि मैं स्वप्नावस्था से जाग्रदवस्था में लौट आया हूँ । इसके परिणामस्वरूप मेरे मन का समस्त सांसारिक भ्रमजाल पूर्णतः विनष्ट हो गया है ॥४२॥
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सुन्दर जागे भाग सिर, सद्‌गुरु भये दयाल । 
दूरि किया विष मंत्र सौं, थकत भया मन ब्याल ॥४३॥
गुरुकृपा का फल : श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - सद्‌गुरु की इस अनुपम कृपा से मेरे तो मानो भाग्य ही जग गये ! उन ने अपने भवविषनाशक राममन्त्र से मेरे मन रूपी सर्प का भयङ्कर विषयवासना रूप विष भी सर्वथा दूर कर दिया ॥४३॥
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सुन्दर सद्‌गुरु उमंगि कै, दीनी मौज अनूप । 
जीव दशा तैं पलटि करि, कीये ज्ञान स्वरूप ॥४४॥
मेरे सद्‌गुरु ने अपने शब्दोपदेश द्वारा मुझ में भवसागर को पार करने का उत्साह पैदा कर मेरे हृदय को आह्लादित कर दिया । उसके परिणामस्वरूप अब मैं अपनी जीवदशा को भूल कर ब्रह्मज्ञानमय हो चुका हूँ ॥४४॥
(क्रमशः)

गरीबसागर

*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*॥आचार्य गरीबदासजी ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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चौथे दिन अजमेर को जाना था इससे अपना दूत भेज कर गरीबदासजी महाराज से प्रार्थना की कि - भगवन् ! आज हम को यहां से अजमेर जाना है । अन्य दिनों से कुछ समय पहले ही दर्शन देने की कृपा अवश्य करें । गरीबदासजी ने आज्ञा दे दी आ सकते हैं । तब बादशाह ने यात्रा के प्रबन्धक सज्जनों को कहा - आज यहां से अजमेर चलना है, तैयार हो जाओ । मैं गरीबदासजी के दर्शन करके आता हूँ । 
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फिर बादशाह जहांगीर गरीबदासजी के पास गया । प्रणाम करके हाथ जोडकर सामने बैठ गया और बोला - भगवन् ! आपके दर्शन और सत्संग से मुझे बहुत सुख हुआ है किन्तु मेरे मन में यह तो अभिलाषा बनी ही रह गई कि मैं संतों की कुछभी सेवा नहीं कर सका । यदि आप यहां पर लोकोपकार का कोई कार्य या स्थान की ऐसी कोई सेवा जिससे संतों के साधन भजन में कोई विध्न नहीं हो, सो बतायें तो उसे ही करके मैं संतोष धारण करूंगा । 
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तब गरीबदासजी ने कहा - यह तो ठीक है - यहां एक कूप बनादो और स्थान की भी जो अति आवश्यक ही ऐसी कुछ सेवा कर सकते हो, जिससे संतो के भजन-साधन में विध्न नहीं हो । फिर बादशाह जहांगीर ने एक कूप, गरीबदासजी के निवास के लिये एक स्थान, नौबत खाना एक महाद्वार के सामने एक चबूतरा इतनी सेवा की स्वीकृति गरीबदासजी से प्राप्त कर ली । 
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इससे अधिक सेवा संतों ने स्वीकार नहीं की थी । अत: बादशाह अपनी इस तुच्छ सेवा को ही महान् मानकर संतुष्ट हो गया था । इतनी सेवा की स्वीकृति लेकर तथा गरीबदासजी के सत्संग परम संतुष्ट होकर बादशाह जब चौथे दिन जाने लगा तब उसने सदाव्रत के लिये १००००)रु. भेंट किये और गरीबदासजी को दुशाला भेंट किया और प्रार्थना की कि - कभी आप दिल्ली पधारना । 
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उक्त सेवा के लिये एक मंत्री को नियुक्त करके बादशाह अजमेर को चले गये । उस मंत्री ने बादशाह की आज्ञा के अनुसार एक कूप बनवाया जिसमें शिलालेख भी उसी समय का लगा है । उस कूप का नाम गरीबसागर रखा गया । जो अब तक उसी नाम से प्रसिद्ध है और अच्छी स्थिति में है ।
(क्रमशः) 

शनिवार, 26 जुलाई 2025

१. गुरुदेव का अंग ३७/४०

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१. गुरुदेव का अंग ३७/४०*
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कर्मकांड के बचन सुनि, आंटी परी अनेक । 
सुन्दर सुनै उपासना, तब कछु होइ बिबेक ॥३७॥
साथ ही यह भी होता है कि उन वेद वचनों को आदर्श मान कर तदनुसार आचरण करता हुआ प्राणी पूर्व की अपेक्षा अधिक से अधिक उलझनों में उलझता जाता है । श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं कि जब किसी पूर्व पुण्यवश किसी को गुरु द्वारा 'राम' शब्द की उपासना का उपदेश मिल जाय तब उस प्राणी को स्वहित, अहित का विवेक(विचार) होता है ॥३७॥
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सुन्दर सद्गुरु जब मिलै, पेच बतावै आइ । 
भिन्न भिन्न करि अर्थ कौं, आंटी दे सुरझाइ ॥३८॥
तब कोई सद्‌गुरु आकर उस को उपदेश करते हुए वेदवचनों का सम्यग्ज्ञान करा कर इस के सांसारिक भ्रमजाल(आंटी) को नष्ट करते हैं ॥३८॥
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अंत वेद के बचन तें, उपजै ज्ञान अनूप । 
सुन्दर आंटी सुरझि कैं, तब ह्वै ब्रह्म स्वरूप ॥३९॥
वह ऐसा निर्मलचित्त प्राणी किसी सद्‌गुरु के मुख से वेदान्त-वाक्यों का श्रवण करता है और उस के हृदय में अनुपम ज्ञान उद्भूत होता है तब वह मनन चिन्तन करते हुए साधना द्वारा एक दिन ब्रह्म की सदृशता धारण कर लेता है ॥३९॥
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गोरखधंधा लोह मैं, कडी लोह ता मांहि । 
सुन्दर जाने ब्रह्म मैं, ब्रह्म जगत द्वै नांहिं ॥४०॥
अद्वैतवाद का स्पष्टीकरण : श्रीसुन्दरदासजी महाराज गोरखधन्धे के दृष्टान्त से अद्वैतवाद के सिद्धान्त को पुष्ट कर रहे हैं - जैसे गोरखधन्धा लोहनिर्मित है, तथा उसकी कड़ियाँ(श्रृङ्खला) भी लोह की ही बनी हुई है; उसी प्रकार यहाँ ब्रह्म एवं जगत् में भी कोई भेद नहीं है; क्योंकि वह ब्रह्म ही समस्त जगत् में व्याप्त है । अतः इन दोनों में भी कोई द्वैत नहीं है ॥४०॥
(क्रमशः)

नाद बिन्दु ले उधरै धरे

*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*॥आचार्य गरीबदासजी ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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उक्त साखियों का प्रवचन विस्तार से करके गरीबदासजीने बादशाह जहांगीर को समझाया फिर सत्संग का समय समाप्त हो जाने से बादशाह गरीबदासजी को प्रणाम करके अपने सामन्तों के साथ डेरे पर चला गया ।
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तीसरे दिन बादशाह गरीबदासजी से स्वीकृति मंगवाकर गरीबदासजी के पास गया । प्रणाम करके हाथ जोडकर सामने बैठ गया । फिर अवकाश देखकर बोला - भगवन् ! योगी लोग परमात्मा को किन साधनों से प्राप्त करते हैं, आज आप यही मुझे समझाने की कृपा करें । कारण आप समर्थ संत हैं । 
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परमयोगेश्‍वर दादूजी महाराज के द्वारा आपने सभी कुछ प्राप्त किया है । सभी अध्यात्म विषय आपको हाथ के आमले के समान संशय रहित ज्ञात है । आप प्राणी को अवश्य संशय बना देते हैं । अत: आप कृपा करके उक्त प्रश्‍न का उत्तर दें । बादशाह जहांगीर का उक्त प्रश्‍न सुनकर गरीबदासजी बोले -  
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नाद बिन्दु ले उधरै धरे, 
सहज योग हठ निग्रह नाहीं, पवन फेरि घट मांहिं भरे ॥टेक॥  
त्रिकुटी संधि ध्यान नहिं चूके भँवर गुफा क्यों भूले ।  
द्वै स्वर साध अनूप अराधे, सुख - सागर में झूले ॥१॥
इड़ा पिंगला साध सुषमन नारी, त्रिवेणी संग मिलावे । 
नौं से नवासी फेरि अपूठा, दशवें द्वारि समावे ॥२॥
अधै रु ऊधैं ताली लागे, चन्द्र सूर सम कीन्हा । 
अष्ट कमल दल मांहीं विगसै, ज्योति स्वरुपी चीन्हा ॥३॥  
रोम रोम धुनि उठी सहज में, परिचय प्राण सु पीवे ।
‘गरीबदासजी’ गुरु मुख ह्वै सूझी, जो जाणे सो जीवे ॥४॥ 
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उक्त पद का विस्तार पूर्वक प्रवचन करके गरीबदासजी ने बादशाह जहांगीर को योगियों के साधनों का परिचय दिया । बादशाह गरीबदासजी के प्रवचन से अति प्रभावित हुआ और सत्संग का समय समाप्त हो जाने से गरीबदासजी को प्रणाम करके अपने सामन्तों के साथ अपने डेरे पर चला गया । 
(क्रमशः)

१. गुरुदेव का अंग ३३/३६

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१. गुरुदेव का अंग ३३/३६*
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सुन्दर सद्गुरु यों कह्या, शब्द सकल का मूल । 
सुरझै एक बिचार तें, उरझै शब्दस्थूल ॥३३॥
गुरुदेव ने तब हम को यही उपदेश किया कि यह एक 'राम' शब्द ही समस्त भवरोगों की एकमात्र औषध है । इस 'राम' शब्द के सतत चिन्तन, मनन(विचार) से ही सांसारिक स्थूल शब्दों की वास्तविकता (मिथ्यात्व) प्रकट हो पाती है ॥३३॥
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सुन्दर ताला शब्द का, सद्‌गुरु खोल्या आइ । 
भिन्न भिन संमुझाय करि, दीया अर्थ बताइ ॥३४॥
गुरुदेव ने भवसागर में डुबकी खाते हुए हमारे लिये उस गम्भीर 'राम' शब्द का ताला(गूढ अर्थ) खोलते हुए(पृथक् पृथक् स्पष्ट रूप से विवरण करते हुए) उस की विस्तृत यथार्थता बतायी ॥३४॥

गोरखधंधा वेद है, वचन कडी बहु भांति । 
सुन्दर उरझ्यौ जगत सब, बर्णाश्रम की पांति ॥३५॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - यह वैदिक कर्मकाण्डपद्धति तो एक प्रकार का गोरखधन्धा* है, जिसमें विविध मन्त्र अनेक प्रकार के भौतिक सुख प्रदान की बात करते हैं । जब कि वे सभी सुख प्राणी को और अधिक जगञ्जञ्जाल(वर्णाश्रमपद्धति) में जकड़ देते हैं ॥३५॥
(*१. गोरखधंधा - १. लोहे के कुछ तार या कड़ियाँ; जो एक में जोड़ कर पुनः पृथक् न की जा सकें; २. गोरखपन्थी साधुओं के हाथ में रहने वाला डण्डा, जिसमें बहुत सी पेच वाली तथा जल्दी न सुलझने वाली कड़ियाँ जड़ी रहती है; ३. पहेली; ४. झमेला)
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क्रिया कर्म बहु बिधि कहे, बेद वचन विस्तार । 
सुन्दर समुझै कौंन बिधि, उरझि रह्यौ संसार ॥३६॥
उन वेद वचनों के पालन से वर्णाश्रम व्यवस्था में नाना प्रकार के क्रियाकलाप उद्धृत होने लगते हैं । उन सब क्रियाकलापों(कर्म-समूहों) को साधारण प्राणि कैसे यथार्थतः समझ सकता है । उसका परिणाम यह होता है कि सभी सांसारिक प्राणी उन्हीं उलझनों में उलझकर रह जाते हैं ॥३६॥
(क्रमशः)

कर्म कटे दर्शन किये

*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*॥आचार्य गरीबदासजी ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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गरीबदासजी महाराज ने अपनी उक्त साखियों का अच्छी प्रकार प्रवचन करके बादशाह को सुनाया । इससे बादशाह जहांगीर को अति प्रसन्नता हुई । फिर उसने कहा - अब तो मैं आज्ञा चाहता हूँ, बहुत समय हो गया है । आपके भजन - साधन में भी विध्न नहीं होना चाहिये । कल फिर आकर आप का सत्संग करूँगा । 
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ऐसा कहकर बादशाह ने गरीबदासजी को प्रणाम किया और अपने सामन्तों के साथ अपने डेरे पर आ गया और शारीरिकक्रियाओं से निवृत होकर रात्रि को विश्राम किया फिर दूसरे दिन गरीबदासजी से मिलने का समय ज्ञात करा कर गरीबदासजी के पास गया । प्रणाम करके सामने बैठ गया । 
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फिर हाथ जोड कर बोला - भगवन् ! प्राणी के कर्म बन्धन का नाश किस साधन से होता है ? यही आप मुझे बताने की कृपा करें । कारण - यह बात संत ही यथार्थ रूप से बता सकते हैं ।
बादशाह का उक्त प्रश्‍न सुनकर गरीबदासजी ने कहा -
कर्म कटे दर्शन किये, समझे सांचा ब्रह्म ।
सत्संगति उपकार यह, भागे कलि विष भर्म ॥  
उक्त साखी का विस्तार से प्रवचन करके गरीबदासजी मौन हो गये । 
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तब बादशाह जहांगीर ने कहा - भगवन् ! मैं यह तो समझ गया कि - सत्य स्वरुप परमात्मा के स्वरुप को विचार द्वारा समझ कर उसका आत्म रुप से साक्षात्कार किया जाता है, तब सभी संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं किन्तु प्राणियों की रुचि भिन्न भिन्न होती है । परमात्मा का उन प्राणियों के साथ कैसा व्यवहार होता है ? अब आप इसी को मुझे समझाने की कृपा करें ।
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बादशाह का उक्त प्रश्‍न सुनकर गरीबदासजी बोले -  
समता रूपी राम है, सब से एकै भाइ ।  
जा कै जैसे प्रीति है, तैसी करे सहाइ ॥  
भजन भाव समान जल, भरि दे सागर पीव । 
जैसी उपजे तन तृषा, ते तो पावे पीव ॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 25 जुलाई 2025

१. गुरुदेव का अंग २९/३२

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१. गुरुदेव का अंग २९/३२*
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बेद नृपति की बंदि मैं, आइ परें सब लोइ । 
निगहबांन पंडित भये, क्यों करि निकसै कोइ ॥२९॥
इस संसार में सभी बुद्धिमान् जन वेद रूप नृपति(राजा) के बन्दी(बन्धक) बने हुए हैं । अर्थात् वेदबोधित कर्मकाण्ड के आचरण में फंसे हुए हैं । उस के लिये विवेकी जनों को गम्भीर विचार करना पड़ता है कि इस भ्रमजाल से कैसे मुक्त हुआ जाय ! ॥२९॥

सद्गुरु भ्राता नृपति कै, बेडी काटै आइ । 
निगहबांन देखत रहैं, सुन्दर देहिं छुडाइ ॥३०॥
यह तो भला कहो उस वेदनृपति के भ्राता स्वरूप हमारे सद्‌गुरु का कि उन ने सज्ज्ञानोपदेश देकर हम को उस भीषण कर्मबन्धन से मुक्त कर दिया ॥३०॥

सुन्दर सद्गुरु शब्द का, ब्यौरि बताया भेद । 
सुरझाया भ्रम जाल तें, उरझाया था बेद ॥३१॥
गुरूपदेश : महाराज श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - हमारे पूजनीय गुरुदेव ने साक्षात् पधार कर हम को 'राम' शब्द का क्रमशः विवरणसहित सदुपदेश किया कि उस के प्रभाव से सुदृढ कर्मबन्धन से मुक्त हो पाये; अन्यथा वेद के उस कर्मकाण्ड ने हम को भवचक्र में ऐसा उलझा दिया था कि हम जैसे दीन हीन प्राणियों का उस से मुक्त होना असम्भव ही था ॥३१॥

वेद मांहिं सब भेद हैं, जानें बिरला कोइ । 
सुन्दर सो सद्गुरु बिना, निरवारा नहि होइ ॥३२॥
क्योंकि वेद के कर्मकाण्ड की उस पद्धति में ऐसी भेदवादी गुत्थियाँ उलझी हुई हैं कि सद्गुरु के अतिरिक्त अन्य किसी के द्वारा उन(उलझी हुई गुत्थियों) से मुक्ति दिलाना हमें तो असम्भव ही लगता है ॥३२॥
(क्रमशः)

जहांगीर को उपदेश

*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*॥आचार्य गरीबदासजी ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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कहा भी है -                                  
लोभ कभी होता नहीं, संतों के मन मांहिं ।
सांभर अरु अजमेर को, गरीब दीन्हें नाहिं ॥१०८॥ द्द.त. ११   
फिर भी बादशाह जहांगीर ने आग्रह पूर्वक प्रार्थना की - भगवन् ! कुछ तो लेने की कृपा सेवक पर अवश्य कीजिये । तब गरीबदासजी ने उसे मौन कराने के लिये अपने आसन का एक कौना उठा कर कहा - “इसके नीचे देखो क्या है ।” बादशाह ने देखो तो उसे दिव्य अश्‍व दिखाई दिये । बादशाह ने कहा - दो विचित्र घोडे दिखाई दे रहे हैं । तब गरीबदासजी ने कहा - “यदि देना ही चाहते हो तो ऐसे घोडे तुम्हारी इच्छा हो उतने ही दे सकते हो ।” 
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यह सुनकर बादशाह मौन हो गया । कारण - वैसे घोडे उसने कभी देखे भी नहीं थे । इससे वह समझ गया कि - संत लेना नहीं चाहते हैं तब ही ऐसा कहते हैं । उक्त प्रकार गरीबदासजी का त्याग देखकर बादशाह जहांगीर को गरीबदासजी अतिप्रिय लगे फिर उसने गरीबदासजी के चरणों में अपना सिर रखकर क्षमा - याचना करते हुये कहा - “भगवन् ! ऐसे घोडे तो न मेरे पास हैं और न मिल ही सकते हैं । अत: देना कैसे संभव हो सकता है । मैं समझ गया हूँ आप लेना नहीं चाहते हैं किन्तु मेरा भला जिससे हो वैसा उपदेश तो आप अवश्य करें । शिक्षा देना तो संतों का मुख्य काम ही है । बादशाह की यह प्रार्थना सुनकर गरीबदासजी महाराज ने बादशाह को उपदेश किया -    .                       
जहांगीर को उपदेश                             
साखी - साधू संगति अनुसरे, ताका बुरा न होय ।                
काल मीच यम दुख टले, गंज सके नहिं कोय ॥                  
(अनुसरे - अनुसरण करे । गंज - नाश) 
सुकृत मारग चालतां, विध्न बचै संसार ।                      
दुख कलेश छूटे सबै, जे कोइ चले विचार ॥ 
(क्रमशः) 

बुधवार, 23 जुलाई 2025

१. गुरुदेव का अंग २५/२८

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१. गुरुदेव का अंग २५/२८*
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सुन्दर सद्‌गुरु पलक मैं, दूरि करै अज्ञांन । 
मन बच क्रम यज्ञास ह्वै, शब्द सुनैं जो कांन ॥२५॥
इतना ही नहीं, वे सद्‌गुरु शब्दोपदेश द्वारा मनसा वाचा कर्मणा जिज्ञासु की अविद्या(अज्ञान) का आवरण नष्ट कर देते हैं; वह उस शब्दोपदेश के प्रभाव से उपदेशश्रवण के तत्काल बाद, ब्रह्मचिन्तन में तत्पर हो जाता है ॥२५॥
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सुन्दर सद्‌गुरु के मिलै, भाजि गई सब भूख । 
अमृत पान कराइ कैं, भरी अधूरी कूख ॥२६॥
जिज्ञासु की मनोदशा : श्रीसुन्दरदासजी सद्‌गुरु के मिलने पर अपनी मनोदशा का वर्णन कर रहे हैं - सद्‌गुरु के दर्शन होते ही मेरी सांसारिक विषयवासनाओं की तृष्णा(भूख) सर्वथा नष्ट हो गयी; क्योंकि उनने मुझ को ज्ञानोपदेश रूप अमृतपान कर मेरा खाली पेट(हृदय) कण्ठ तक पूर्ण कर(भर) दिया । (अब उस में तिलभर भी कोई रिक्त स्थान नहीं रह गया कि उसमें कुछ अन्य भोज्य वस्तु रखी जाय ।) ॥२६॥
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सुन्दर सद्‌गुरु जब मिल्या, पडदा दिया उठाइ । 
ब्रह्म घौंट मांहें सकल, जग चित्राम दिखाइ ॥२७॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - सद्‌गुरु ने मुझ को दर्शन देते ही मेरे हृदय से अज्ञान का आवरण सर्वथा दूर कर दिया । तथा उन ने राम(निरञ्जन) रस का ऐसा स्वाद लगा दिया कि उस के सम्मान अन्य कोई वस्तु मुझ को रुचिकर ही नहीं लगती । अब तो मुझ को यह समस्त जगत् भी इन्द्रजाल के तुल्य कृत्रिम प्रतीत होता है ॥२७॥
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सुन्दर सद्‌गुरु सारिखा, कोऊ नहीं उदार । 
ज्ञान खजीना खोलिया, सदा अटूट भँडार ॥२८॥
वे कहते हैं - सद्‌गुरु के समान मुझको कोई अन्य उदारहृदय पुरुष नहीं मिला, जिनने मेरे लिये अपना अक्षय ज्ञानोपदेश-भण्डार खोल दिया ॥२८॥
(क्रमशः)  

हम तुम्हारे परगने नहीं लेंगे

*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*॥आचार्य गरीबदासजी ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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उस वर्षा से शीघ्र ही तालाब भर गया । बादशाह के तंबुओं में भी पानी भर गया और तंबू बहने लगे । तब बादशाह के सेवकों ने आकर बादशाह जहांगीर को कहा - तंबूओं में पानी भर गया है, पशु बहने लगे हैं । थोडी देर में तंबू भी अवश्य बह जायेंगे और मानव भी बह सकते हैं । वर्षा शीघ्र बन्द होनी चाहिये । अब यदि अधिक वर्षा होगी तो बहुत हानि हो सकती है । 
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बादशाह जहांगीर ने सेवकों की उक्त बातें सुनकर गरीबदासजी के चरणों में अपना मस्तक रखते हुये उनसे प्रार्थना की - भगवन् ! वर्षा शीघ्र ही बन्द नहीं हुई तो साथ के लोग डूब मरेंगे तथा तंबू आदि सब बह जायेंगे । आप तो सब को सुख देने वाले संत हैं और ईश्‍वर के स्वरुप ही हैं, आप ईश्‍वर से भिन्न नहीं है । अत: अवश्य हम लोगों की रक्षा कीजिये ।
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बादशाह जहांगीर की उक्त प्रार्थना सुनकर गरीबदपसजी ने वीणा तथा गाना बन्द कर दिया, फिर वर्षा भी बन्द हो गई । वर्षा बन्द होने पर सब को निश्‍चय हो गया कि अब हमारी रक्षा हो जायेगी । बादशाह जहांगीर के मन में गरीबदासजी का कोई चमत्कार देखने की भी इच्छा थी वह भी पूरी हो गई । उक्त वर्षा वर्षाना रूप चमत्कार को देख कर बादशाह जहांगीर गरीबदासजी से बहुत प्रभावित हो गया था । 
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इससे उस ने हाथ जोड कर गरीबदासजी से प्रार्थना की - भगवन् ! मैं सांभर और अजमेर आप की भेंट कर रहा हूँ, कृपा करके मेरी यह तुच्छ भेंट स्वीकार करिये । किन्तु गरीबदासजी अस्वीकार करते हुये बोले - तुम्हारे उक्त परगने ग्रहण करना रूप हमारा कार्य न तो प्रभु को प्रिय होगा और न हमारे लिये ही हितकर होगा । 
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प्रभु समझेंगे कि मेरा भरोसा छोड कर बादशाह से जीविका ग्रहण करना भक्त के लिये विध्न रूप ही है और यह हम को भी ज्ञात है कि परिग्रह का परिणाम भगवद्-भजन में निश्‍चय ही विध्न कारक होता है और भगवद् भजन में विध्न होना हमें भी अभीष्ट नहीं है तथा हमारे गुरुदेव दादूजी की भी ऐसी आज्ञा नहीं है । अत: हम तुम्हारे परगने नहीं लेंगे ।
(क्रमशः)