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*दादू पाती प्रेम की, बिरला बांचै कोइ ।*
*बेद पुरान पुस्तक पढै, प्रेम बिना क्या होइ ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(२)नरेन्द्र द्वारा श्रीरामकृष्ण का प्रचारकार्य*
श्रीरामकृष्णदेव के उस सार्वभौमिक सनातन हिन्दू धर्म का स्वामीजी ने किस प्रकार प्रचार करने की चेष्टा की थी, उसकी यहाँ पर हम थोड़ीसी चर्चा करेंगे ।
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*ईश्वर-दर्शन*
श्रीरामकृष्ण की पहली बात यह है कि ईश्वर का दर्शन करना होगा । कुछ मन्त्र या श्लोकों को कण्ठस्थ कर लेने का ही नाम धर्म नहीं है । भक्त यदि व्याकुल होकर उन्हें पुकारे, तभी ईश्वरदर्शन होता है । चाहे इस जन्म में हो या अगले जन्म में । उनके एक दिन के वार्तालाप की हमें याद आ रही है । दक्षिणेश्वर के कालीमन्दिर में वार्तालाप हो रहा था । रविवार, २६ अक्टूबर १८८४ ई.।
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श्रीरामकृष्णदेव काशीपुर के महिमाचरण चक्रवर्ती तथा अन्य भक्तों से कह रहे थे - "शास्त्र कितने पढ़ोगे ? केवल विचार करने से क्या होगा ? पहले उन्हें प्राप्त करने की चेष्टा करो । पुस्तकें पढ़कर क्या जानोगे ? जब तक बाजार में नहीं पहुँचते तब तक दूर से केवल हो-हो शब्द सुनायी देता है ।
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बाजार के पास पहुँचने पर कुछ दूसरा शब्द सुनायी पड़ेगा, और अन्त में बाजार के भीतर पहुँचकर साफ साफ देख सकोगे, सुन सकोगे 'आलू लो, पैसा दो ।'
"खाली पुस्तकें पढ़कर ठीक अनुभव नहीं होता । पढ़ने तथा अनुभव करने में बहुत अंतर है । ईश्वर-दर्शन के बाद शास्त्र, विज्ञान आदि सब कूड़ा-कर्कट जैसे लगते हैं ।
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"बड़े बाबू के साथ परिचय आवश्यक है । उनके कितने मकान, कितने बगीचे, कितने कम्पनी के कागज हैं - यह सब पहले से ही जानने के लिए इतने व्यग्र क्यों हो ? चाहे धक्का खाकर या दीवाल फाँदकर ही सही, किसी न किसी तरह बड़े मालिक के साथ एक बार परिचय तो कर लो, तब यदि इच्छा होगी, तो वे ही कह देंगे कि उनके कितने मकान हैं, कितने बगीचे हैं, कम्पनी के कितने कागज हैं । मालिक के साथ परिचय होने पर फिर नौकर-चाकर, द्वारपाल सभी लोग सलाम करेंगे ।"(सभी हँसे)
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एक भक्त - बड़े मालिक के साथ परिचय कैसे होता है ?
श्रीरामकृष्ण - उसके लिए कर्म चाहिए - साधना चाहिए । 'ईश्वर हैं' इतना कहकर बैठे रहने से काम न चलेगा । उनके पास जाना होगा । निर्जन में उन्हें पुकारो, यह कहकर प्रार्थना करो, 'हे प्रभो! दर्शन दो ।' व्याकुल होकर रोओ । कामिनी-कांचन के लिए जब पागल होकर घूम सकते हो तो उनके लिए भी जरा पागल बनो ।
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लोगों को कहने दो कि अमुक ईश्वर के लिए पागल हो गया । कुछ दिन सब कुछ छोड़कर उन्हें अकेले में पुकारो । केवल 'वे हैं' यह कहकर बैठे रहने से क्या होगा ? हालदारपुकुर में बड़ी-बड़ी मछलियाँ हैं । तालाब के किनारे पर केवल बैठे रहने से ही क्या मिल सकती हैं ? खुराक डालो । धीरे धीरे गहरे जल से मछलियाँ आयेंगी और जल हिलेगा । उस समय आनन्द आयगा । सम्भव है, मछली का कुछ अंश एक बार दिखायी भी दे और मछली को छलाँग मारते हुए भी देखो ।
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जब उसको प्रत्यक्ष देखा तो और भी आनन्द !
ठीक यही बात स्वामीजी ने शिकागो-धर्मसभा के सम्मुख कही है (अर्थात् धर्म का उद्देश्य है ईश्वर को प्राप्त करना, उनका दर्शन करना) –
"हिन्दू शब्दों और सिद्धान्तों के जाल में समय बिताना नहीं चाहता ।... वह ईश्वर का साक्षात्कार कर लेना चाहता है; कारण, ईश्वर के केवल प्रत्यक्ष दर्शन से ही समस्त शंकाएँ दूर हो सकती है ।
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अतः हिन्दू ऋषि आत्मा के विषय में, ईश्वर के विषय में यही सर्वोत्तम प्रमाण देते हैं कि 'मैंने आत्मा का दर्शन किया है, मैंने ईश्वर का दर्शन किया है ।' .... हिन्दुओं की सारी साधना-प्रणाली का लक्ष्य केवल एक ही है और वह है सतत अध्यवसाय द्वारा पूर्ण बन जाना, देवता बन जाना, ईश्वर के निकट पहुँचकर उनका दर्शन करना । और इस प्रकार ईश्वरसान्निध्य को प्राप्त कर उनका दर्शन कर लेना, उन्हीं 'स्वर्गस्थ पिता' के समान पूर्ण हो जाना - यही असल में हिन्दू धर्म है ।"
(क्रमशः)