बुधवार, 10 दिसंबर 2025

घरट आदि का निर्माण ~

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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१० आचार्य दिलेराम जी
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घरट आदि का निर्माण ~ 
सेठ ज्वाला प्रसाद ने जो धन भेंट किया था, उससे घरट और अन्य कई भवनों का तथा भंडार का निर्माण आचार्य दिलेरामजी महाराज ने करवाया । संत समुदाय तथा भक्तों का अधिक आवागमन होने कारण आटा अधिक लगता था और सदाव्रत में भी बांटा जाता था, इससे आटा पीसने के लिये घरट की आवश्यकता हो रही थी ।
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और संतों के निवास के लिये भवनों की आवश्यकता हो रही थी । खीचडा कूटने के लिये भी ऐसे ऊंखल मूसल की भी बहुत आवश्यकता थी जो थोडे समय में बहुत कूट सके । उक्त सभी आवश्यकताओं को आचार्य दिलेरामजी ने पूर्ण किया था । 
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विशाल दादू मंदिर का निर्माण ~ 
जन समुदाय बहुत आता था मंदिर बहुत छोटा था । अत: आचार्य दिलेराम जी की इच्छा होती थी कि - मंदिर विशाल होना चाहिये । यही विचार सेवक लोग भी पहले से ही कर रहे थे कि अब मंदिर विशाल बनवाना ही चाहिये । किन्तु बातें ही चल रही थी, बनवाने की योजना अभी नहीं बनी थी । 
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इन्हीं दिनों में पटियाला(पंजाब) के महात्मा ठंडेरामजी के हृदय में नारायणा में विशाल दादू मंदिर बनवाने के लिये प्रभु ने प्रेरणा की । फिर उन्होंने आचार्य दिलेरामजी से मिलकर उनको कहा - मेरे हृदय में प्रभु की प्रेरणा हो रही है कि - नारायणा दादूधाम में दादूदयाल जी महाराज का विशाल मंदिर बनवाया जाय । 
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महात्मा ठंडेराम जी का उक्त वचन सुनकर आचार्य दिलेराम जी ने कहा - अवश्य बनवाइये, रामजी की ऐसी ही आज्ञा है । फिर भवन निर्माण कला में कुशल कारीगरों से परामर्श करके मंदिर का नक्शा बनवाया गया । मकराणा के पत्थर के लिये आचार्य दिलेरामजी ने अपने एक भंडारी जी को पत्र देकर जोधपुर भेजा । 
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पत्र में लिखा था - श्रीमान् जोधपुर नरेश को नारायणा दादूधाम के आचार्य दिलेराम का सत्यराम शुभाशीर्वाद । आपके पास भंडारी जी को इसलिये भेजा गया है कि नारायणा दादूधाम में दादूदयाल जी महाराज का विशाल मंदिर बनवाने की योजना है । अत: आपके राज्य के मकराणे का पत्थर मंदिर के लिये आपसे चाहते हैं । आपका शुभचिन्तक आचार्य दिलेराम ।
(क्रमशः)   

*१३. अथ देह मलिनता गर्ब प्रहार कौ अंग १/४*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१३. अथ देह मलिनता गर्ब प्रहार कौ अंग १/४*
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सुन्दर देह मलीन है, राख्यौ रूप संवारि । 
ऊपर तें कलई करी, भीतरि भरी भंगारि ॥१॥
देह की मलिनता : महाराज श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - रे मानव ! यद्यपि तेरा यह शरीर बाह्य दृष्टि से सर्वथा सुन्दर प्रतीत हो रहा है, क्योंकि तूं ने इसको स्वच्छ वस्त्रों एवं मनोरम आभूषणों से सजा कर इस पर गन्धद्रव्यों का लेप(कलई) कर रखा है; परन्तु इसके अन्तःप्रदेश में मल मूत्र आदि मलिन पदार्थ एवं कूड़ा कर्कट(त्याज्य वस्तुएँ) ही भरा हुआ है ॥१॥
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सुन्दर देह मलीन है, प्रकट नरक की खांनि । 
ऐसी याही भाकसी, तामैं दीनौ आंनि ॥२॥
तेरा यह देह इतना मलिन(गन्दा) लगता है कि मानो यह अतिशय मलिन वस्तुओं का ढेर ही हो । यह तो प्रत्यक्ष नरक ही दिखायी देता है और ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जैसे किसी भले आदमी को एक गन्दे गड्ढे(भाकरी) में डाल दिया गया हो ॥२॥
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सुन्दर देह मलीन अति, बुरी बस्तु को भौंन । 
हाड मांस को कौथरा, भली बस्तु कहि कौंन ॥३॥
तेरा यह शरीर ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोई घृणित वस्तुओं का भण्डार हो । यह तो एक प्रकार से अस्थि एवं मांस का थैला(कोथला) ही लगता है । इस में किसी के मन को प्रसन्न करने वाली कोई भी वस्तु दिखायी नहीं देती ॥३॥
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सुन्दर देह मलीन अति, नख शिख भरै बिकार । 
रक्त पीप मल मूत्र पुनि, सदा बहै नव द्वार ॥४॥
तेरे इस शरीर में नख से शिखा पर्यन्त विकार(दोष) ही भरे हुए हैं । इस के नौ द्वारों से रक्त, मवाद, मल, मूत्र आदि मलिन पदार्थ ही निरन्तर बहते रहते हैं ॥४॥
(क्रमशः)  

*१२. विश्वास को अंग २३/२५*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१२. विश्वास को अंग २३/२५*
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सुन्दर जाकैं जो रच्यौ, सोई पहुंचै आइ । 
कीरी कौं कन देत है, हाथी मन भरि खाइ ॥२३॥
श्रीसुन्दरदासजी का कथन है कि उस सिरजनहार ने जिस के प्रारब्ध में जितना लिख दिया है, वह उस को मिलेगा ही । तदनुसार, वह प्रभु 'चींटी को कण एवं हाथी को मण' जितनी खाद्य पदार्थ की मात्रा पहुँचाता ही रहता है । तथा वे प्राणी उसी से सन्तुष्ट रहते हैं ॥२३॥
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सुन्दर जल की बूंद तैं, जिनि यह रच्यौ सरीर । 
सोई प्रभु या कौ भरै, तूं जिनि होड़ अधीर ॥२४॥
जिस स्रष्टा ने एक शुक्रविन्दु से इतना बड़ा शरीर रच दिया है उसी का वह उत्तरदायित्व भी है कि वह इसका पालन पोषण भी करे । हे प्राणी ! इसके लिये तूँ क्यों अपना धैर्य त्याग रहा है ! ॥२४॥
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सुन्दर अब बिस्वास गहि, सदा रहै प्रभु साथ । 
तेरौ कियौ न होत है, सब कुछ हरि कै हाथ ॥२५॥ 
इति विश्वास को अंग ॥१२॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - अरे मूर्ख प्राणी ! मेरे इतना समझाने के बाद तो तूँ विश्वास कर ले कि वह सर्वव्यापक प्रभु सदा तेरे साथ रहता है । क्योंकि इसमें तेरा किया कुछ नहीं है, सब कुछ उसी की इच्छा से हो रहा है१ ॥२५॥ 
(१ ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन ! तिष्ठति ।
भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥ 
(भ. गी., अ. १८, श्लो. ६१))

इति विश्वास का अंग सम्पन्न ॥१२॥
(क्रमशः)  

जहाज तारना ~

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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१० आचार्य दिलेराम जी
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जहाज तारना ~
आचार्य दिलेरामजी महाराज एक दिन ध्यान में स्थित थे । उसी समय उनको एक अपने भक्त की आर्त प्रार्थना सुनाई दी । प्रार्थना करने वाला रामगढ का सेठ ज्वाला प्रसाद अग्रवाल था । उसका माल से भरा जहाज किसी कारण से डूबने लगा था । उसी में ज्वाला प्रसाद भी था । उसे डूबने से बचाने के उपाय थे, सो सब कर लिये गये थे किन्तु उन उपायों से जहाज बचने की आशा नहीं बँधी । 
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जहाज चलाने वाले लोगों ने जिन देवताओं को मनाने की बात सुनाई उनको भी मनाया किन्तु जहाज नहीं बच रहा था, उसके डूबने के चिन्ह ही बढते जा रहे थे । ज्वाला प्रसाद आचार्य दिलेराम जी महाराज पर बहुत श्रद्धा रखता था और उनकी अद्भुत महिमा भी जानता था तथा कुछ प्रत्यक्ष देख भी चुका था । 
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अत: उसने आचार्य दिलेरामजी महाराज से आर्त स्वर में प्रार्थना करी - हे आचार्य दिलेराम जी महाराज ! मैं आपकी शरण हूँ, मेरे इस जहाज को डूबने से बचाइये । इसके डूबने से होने वाले घोर संकट से मेरी रक्षा कीजिये । इस के डूबने से मेरा सर्वस्व नष्ट हो जायगा और में भयंकर विपत्ति में पड जाऊगां । 
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कृपा करिये मेरे इस जहाज को तारिये । ज्वाला प्रसाद को घोर संकट में तथा अपनी शरण आया जानकर आचार्य दिलेराम जी ने अपने ध्यान में परमात्मा से जहाज तारने के लिये प्रार्थना की । परमात्मा ने अपने परम भक्त की प्रार्थना सुनकर उस जहाज को तार दिया । 
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कहा भी है - 
दिलेरामजी महाराज जी गादी बैठा जाय ।
अगरवाला सेठ का, त्यारा जहाज सुभाय ॥
(दौलतराम)  
सुन्दरोदय में भी कहा है - 
“स्वामी श्री दिलेरामजी, तारी जहाज समुंद ।”
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अर्थात् ज्वाला प्रसाद अग्रवाल सेठ के सुन्दर भाव को देखकर उसका जहाज आचार्य दिलेराम जी ने गादी पर बैठे हुये ही प्रभु से प्रार्थना करके तथा अपने सुरती रुप शरीर से समुद्र में जाकर तार दिया था । फिर सेठ का जहाज आनन्द से समुद्र से पार हो गया । घर जाकर सेठ ने बहुत सा धन लेकर नारायणा दादूधाम की यात्रा के लिये प्रस्थान किया ।
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दादूद्वारे में जाकर आचार्य दिलेरामजी के दर्शन करने गया । दर्शन करके भेंट चढाकर सत्यराम बोलने हुये साष्टांग दंडवत की फिर हाथ जोडकर आचार्यजी के सामने बैठ गया फिर अपने जहाज की रक्षा की घटना सुनाते हुये सबको कहा - जहाज डूबता देखकर आचार्य दिलेराम जी महाराज से मैंने प्रार्थना की थी कि रक्षा करो तब आपसे जहाज पर दर्शन देकर कहा - भय मत करो, भगवत् कृपा से तुम्हारा जहाज अब नहीं डूबेगा । 
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सबने कहा - उस समय तो महाराज यहां ही थे किन्तु सेठ भी कहता था कि - उस समय जहाज पर मैंने दर्शन किये थे । अत: कुछ संतों ने आचार्यजी से पूछा कि भक्त कहता है कि आचार्यजी ने जहाज पर दर्शन दिये थे, यह सत्य है क्या ? आचार्यजी ने कहा - सत्य ही है । फिर संत समझ गये कि महाराज अपनी योग शक्ति से दूसरा देह धारण करके जहाज पर पधारे होंगे । योगियों के लिये यह कोई बात नहीं है । 
(क्रमशः)  

सोमवार, 8 दिसंबर 2025

राजगढ गमन ~

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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१० आचार्य दिलेराम जी
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राजगढ गमन ~
राजगढ में आचार्य निर्भयरामजी महाराज के समय का ही स्थान है । वह नारायणा दादूधाम के आचार्यों का निजी स्थान है और वहां तथा उस प्रान्त के निर्भयरामजी के समय से ही प्रजा तथा राजा दोनों नारायणा दादूधाम पर परम श्रद्धा रखते थे । अत: मेडता की भांति आचार्य कभी - कभी वहां भी जाते रहते थे । 
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आचार्य दिलेरामजी जब राजगढ(अलवर राज्य) में पधारे तो अलवर नरेश को ज्ञात हुआ कि आचार्य दिलेरामजी राजगढ पधारे हुये हैं और उनके सत्संग दर्शन से राजगढ की जनता आनन्द लूट रही है तब अलवर नरेश भी राजगढ आये अपनी परंपरागत मर्यादा के समान ही सुवर्ण मुद्रा चढाकर आचार्यजी को प्रणाम किया और आपके वचनामृत का भी पान किया । 
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फिर राजा राजगढ जब तक रहे तब तक प्रतिदिन दर्शन सत्संग के लिये आते रहे । उन्हीं दिनों में घाटडा के महन्त रामदासजी भी आचार्यजी के दर्शनार्थ आये और अच्छा किया । इसी प्रकार उस प्रदेश के अन्य संत भी आते ही रहते थे ।
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आचार्य जीवनदासजी की पूजा बाँटना ~
वि. सं. १८८० के फाल्गुण शुक्ला में मेले के समय आचार्य दिलेरामजी ने अपने गुरु आचार्य जीवनदासजी महाराज के चरण छत्री में पधराये और पूजा बांटी । कदाचित् यह शंका हो कि लगभग तीन वर्ष के पश्‍चात् चरण पधराया और पूजा बांटी गई । यह देर क्यों हुई ? 
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इसका उत्तर अनुमान से यही ज्ञात होता है कि - इस समय दादू पंथ के संतों की संख्या बहुत बढ गई थी । पूर्व के आचार्यों ने धन संग्रह किया नहीं था । वे दादूजी महाराज के इस उपदेश के अनुसार रहते थे ~ 
“रोक न राखे झूंठ न भाखे, दादू खर्चे खाय । 
नदी पूर प्रवाह ज्यों, माया आवे जाय ।” 
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संग्रह करना अच्छा नहीं मानते थे और दिलेरामजी महाराज भी पूर्वाचार्यों के समान ही भजनानन्दी संतोषी महात्मा थे । जो स्वत: भेंट आदि के द्वारा आता था । उसमें से नारायणा दादूधाम का सदाव्रत, भंडार खर्च और स्थान की अन्य सेवाओं से बच जाता होगा वही संग्रह करते होंगे । तीन वर्ष में इतना संग्रह हो गया होगा तब छत्री में चरण पधरा करके पूजा भी बांट दी गई थी । इससे संख्या की अधिकता से धन पूजा के लिये अधिक संग्रह की प्रतिक्षा ही कारण हो सकता हैं । 

कर्मचारी संज्ञा ~ 
उस समय की संत संख्या का परिचय दादू द्वारे के कर्मचारियों के विभिन्न नाम भी देते हैं । देखिये - उस समय आचार्यजी के पास रह कर रुपयों आदि का काम करते थे वे मालके भंडारी कहलाते थे । कोठार से सामान तोलने वाले तथा सदाव्रत देने वाले मूठी के भंडारी कहलाते थे । 
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जमातों को सामान देने वाले मेहु़डा भंडारी कहलाते थे । संत संख्या अधिक होने से मेले में अधिकतर कच्चा सामान देते थे । अत: घी देने वाले घीया । गु़ड देने वाले गुडिया । ताखडी में बाट बदलने वाले बाट बदल आदि संज्ञा होती थी । इसी प्रकार भिन्न - भिन्न व्यक्ति देते थे तब ही समय पर देने का कार्य पूर्ण होता था । 
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यह सब अधिक संख्या के कारण किया जाता था । इसी प्रकार लकडी की छडी लेकर बुलाने जाता है, उसे हलकारा कहते हैं और चांदी की छडी रखता है उसे कोटवाल कहते हैं । आचार्यजी की सेवा में रहने वाले की हजूरिया कहते हैं । इत्यादिक संज्ञाओं से भी ज्ञात होता है दादूपंथ के संतों की संख्या अधिक होने से ही व्यवहार की सुगमता के लिये उक्त संज्ञायें रखी गई थी । 
(क्रमशः) 

*१२. विश्वास को अंग २०/२२*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१२. विश्वास को अंग २०/२२*
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सुन्दर जाकी सृष्टि यह, ताकै टोटौ कौंन । 
तूं प्रभु के बिस्वास बिन, परै न हांडी लौंन ॥२०॥
श्रीसुन्दरदासजी महाराज कहते हैं - जिस सर्वप्रथम प्रभु ने इतनी विशाल सृष्टिरचना की है, उस के घर में क्या टोटा(धन का अभाव) हो सकता है । यदि तूँ प्रभु पर विश्वास नहीं करेगा तो तुझे अपने घर की हांड़ी में रखने योग्य नमक भी नहीं मिलेगा !१ ॥२०॥ (१ श्रीसुन्दरदासजी के समय में नमक कम से कम मूल्य में खरीदने योग्य कोई खाद्य पदार्थ न रहा होगा, तभी यह उदाहरण दिया है ।)

सुन्दर जिनि प्रभु गर्भ मैं, बहुत करी प्रतिपाल । 
सो पुनि अजहूं करत है, तूं सोधै धनमाल ॥२१॥ 
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - जिस सर्वसमर्थ प्रभु ने गर्भावस्था में तेरी रक्षा सावधानीपूर्वक की है, वही आज भी उसी प्रकार तेरी रक्षा कर रहा है ! तो भी, तूँ उसे भूल कर धन-सम्पति के अर्जन में ही लगा हुआ है ! ॥२९॥
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सुन्दर सबकौं देत है. चंच संवानी चौंनि । 
तेरै तृष्णा अति बढी, भरि भरि ल्यावत गौंनि ॥२२॥
वह सिरजनहार प्रभु सभी प्राणियों को, उनके मुख में जा सकने योग्य, खाद्य सामग्री की व्यवस्था अवश्य करता ही रहता है । परन्तु इसके विपरीत, तेरे मन की तृष्णा इतनी अधिक बढ़ गयी है कि तूँ(अपार धन सम्पत्ति के संग्रह हेतु) अपने घर में विक्रय योग्य पदार्थों की गूंण(बोरियाँ) भर भर कर बैलों पर लाद कर ला रहा है ! ॥२२॥
(क्रमशः) 

रविवार, 7 दिसंबर 2025

*१२. विश्वास को अंग १७/१९*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१२. विश्वास को अंग १७/१९*
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सुन्दर मच्छ समुद्र मैं, सौ जोजन बिसतार । 
ताहू कौं भूलै नहीं, प्रभु पहुंचावनहार ॥१७॥
इसी प्रकार, समुद्र में सौ सौ योजन लम्बे विशालकाय मच्छ कच्छ रहते हैं, उनको भी वह महाप्रभु कभी विस्मृत नहीं करता, उनकी खाद्य सामग्री भी यथास्थान पहुँचाता ही है; फिर तूँ अपने विषय में क्यों चिन्ता करता है ! ॥१७॥
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सुन्दर मनुषा देह मैं, धीरज धरत न मूरि । 
हाइ हाइ करतौ फिरै, नर तेरै सिर धूरि ॥१८॥
अरे ! तूँ ने तो मनुष्य देह प्राप्त किया है, फिर भी तुझ को कुछ भी धैर्य नहीं है कि तूँ अपनी खाद्य सामग्री के विषय में – हा ! यह कहाँ मिलेगी ! ? - ऐसे बिलखता हुआ दिन रात इधर उधर दौड़ रहा है । तुझे धिक्कार है !! ॥१८॥
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सुन्दर सिरजनहार कौं, क्यौं न गहै बिस्वास । 
जीव जंत पोखै सकल, कोउ न रहत निरास ॥१९॥
अरे प्राणी ! तूँ अपने उस सिरजनहार पर क्यों नहीं विश्वास करता, जब कि तूँ देख रहा है कि वह संसार के समस्त जीव जन्तुओं का यथोचित्त पालन पोषण कर रहा है । वह अपनी ओर से किसी को भी निराश नहीं कर रहा ! ॥१९॥
(क्रमशः)

जयपुर चातुर्मास ~

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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१० आचार्य दिलेराम जी
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जयपुर चातुर्मास ~ 
वि. सं. १८८० में आचार्य दिलेरामजी महाराज शिष्य मंडल के सहित चातुर्मास करने को आषाढ शुक्ला १० मी को जयपुर पधारे । अपनी परंपरा को मर्यादा के अनुसार जयपुर नरेश को अपने आने की सूचना दी । तब जयपुर राज्य की ओर से अगवानी के लिये दारोगा बिशनरामजी लवाजमा निशान, हाथी, अरबी बाजा, नक्कारे आदि लेकर सामने आये । 
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जयपुर राजाओं की परंपरागत मर्यादा के समान आचार्यजी को प्रणामादि करने के पश्‍चात् आचार्यजी को हाथी पर बैठाकर बाजे गाजे के साथ बडे ठाठ - बाट से चले । साथ - साथ संत मंडल तथा भक्त मंडल संतों के पद गाते हुये चल रहे में ठहराया । उस प्रकार लाकर रामरतन जी के एक सुन्दर बगीचे में एकान्त स्थान में ठहराया । 
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उस समय जयपुर राज्य के प्रधानमंत्री सामोद के रावल वैरीशालजी थे । बगीचे में ठहरने के पश्‍चात् रावल वैरीशालजी दर्शन करने आये और आचार्यजी के दर्शन सत्संग से संतुष्ट होकर गये । फिर शिष्य मंडल के सहित आचार्यजी को राजमहल में पधारने का निमंत्रण दिया । फिर पालकी में बैठकर सत्कार के साथ राजमहाल को ले चले । साथ - साथ संत मंडल संकीर्तन करते हुये चल रहा था ।
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राजमहल के पास पहुँचने पर जयपुर नरेश स्वयं महल के बाहर आकर आचार्य दिलेरामजी को प्रणाम करके सत्कार पूर्वक शिष्य मंडल के सहित महल के भीतर ले गये । फिर वहां भोजन के लिये मर्यादापूर्वक सब संतों की पंक्ति लगाई गई । जीमते समय राज - राणियों ने तथा राजमहल की माताओं ने आचार्यजी के सहित सब संतों के दर्शन महल की अटारियों से किये ।
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जीमने के पश्‍चात् सब संतों के सहित आचार्यजी को एक दिव्य महल में बैठाकर राजा ने अपनी परंपरा के समान आचार्यजी को भेंट दी । आचार्यजी ने परंपरागत अपनी मर्यादा के अनुसार राजा को एक दुशाला पर प्रसाद रखकर दिया । पश्‍चात् राजा ने सत्कार पूर्वक आचार्यजी को विदा किया । राजमहल से बाहर आकर फिर आये थे उसी प्रकार पालकी में विराज कर अपने आसन पर पधारे । 
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इसके पश्‍चात् आश्‍विन शुक्ल पुर्णिमा को जयपुर नरेश जयसिंह जी स्वयं ही आचार्य जी के दर्शन करने बगीचे में आये और सप्रेम प्रणाम करते हुये सुवर्ण मुद्रा भेंट करके यथोचित आसन पर विराजे तथा कुछ समय तक सत्संग किया । फिर प्रणाम करके लौट गये । यह चातुर्मास श्रीरामरतनजी ने करवाया था । 
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चातुर्मास में जयपुर की धार्मिक जनता ने सुरुचि पूर्वक सत्संग किया था । चातुर्मास मर्यादा पूर्वक बहुत ही अच्छा हुआ था । चातुर्मास समाप्ति पर रामरतनजी ने सब संतों को वस्त्र दिये और आचार्य दिलेरामजी को उचित भेंटें देकर चातुर्मास की पद्धति के अनुसार सबको संतुष्ट करके रामरतन जी ने आचार्यजी को विदा किया था ।
वहां से आचार्य दिलेरामजी महाराज गोविन्ददासजी के स्थान में पधारे । उन्होंने  आचार्य जी का अच्छा सम्मान किया और यथोचित भेंट की । फिर आचार्य जी का शिष्य मंडल के सहित आमेर दादूधाम की यात्रा करके चारमास में नारायणा दादूधाम में पधार गये । कुछ समय तक विराजकर फिर आपने राजगढ जाने का विचार किया ।  
(क्रमशः) 

शनिवार, 6 दिसंबर 2025

कोटा गमन ~

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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१० आचार्य दिलेराम जी
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कोटा गमन ~ 
बूंदी से चलकर आचार्य दिलेरामजी शिष्य मंडल के सहित जिज्ञासुओं को ब्रह्मभक्ति का उपदेश करते हुये कोटा के पास पधारे । तब कोटा जिज्ञासुओं केशरीसिंहजी आचार्य दिलेरामजी महाराज को शिष्य मंडल के सहित राजकीय स्वागत सत्कार से अगवानी करके कोटा नगर में लाये और सुन्दर तथा एकान्त स्थान में ठहराया और सब प्रकार की सेवा का सुचारु रुप से प्रबन्ध कर दिया । सत्संग होने लगा । 
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कोटा की धार्मिक जनता दादूवाणी के मधुर प्रवचनों को सुनकर अपने को कृत - कृत्य समझने लगी । फिर एक दिन कोटा नरेश ने आचार्य जी को सुवर्ण मुद्रा चढाकर गुरु उपदेश ग्रहण किया । फिर आचार्य दिलेरामजी जब तक कोटा में रहे तब तक कोटा नरेश आचार्य जी के पास जाकर उनके मुख से मधुर उपदेश सुनते रहे थे । उस समय कोटा नरेश आचार्य जी में अति श्रद्धा रखते थे । 
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कोटा में स्थित दादूपंथी नागे साधुओं ने भी आचार्य दिलेरामजी का अच्छा सम्मान किया था । उस समय कोटा में महन्त संतोषदासजी, महन्त हरदासजी, महन्त कूंजदासजी तथा जमातों के साधु निवास करते थे । सभी साधुओं ने बहुत सम्मान के साथ हजारों रुपये आचार्य दिलेरामजी की भेंट करके अति श्रद्धा का परिचय दिया था ।  
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रामत में ठाकुर अजीतसिंह के जाना ~
फिर कोटा से आचार्य दिलेरामजी शिष्य मंडल के साथ माखूजी महाराज के थांबे के महन्त किशनदासजी के मकान में पधारे । उन्होंने भी शिष्य मंडल के सहित आचार्य जी को अच्छी सेवा की । फिर आचार्य जी ने ब्रह्मभक्ति का प्रचार करते हुये मेवाड तथा मारवाड की रामत की । 
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इसी रामत में सान्दरिया के ठाकुर अजीतसिंहजी शिष्य मंडल के सहित आचार्य दिलेरामजी को अति आग्रह करके अपने ग्राम में ले गये । संत मंडल के सहित आचार्यजी की अच्छी सेवा की और ५५१) रु. भेंट करके गुरु उपदेश ग्रहण किया । उक्त प्रकार रामत करते हुये फाल्गुण शुक्ला पंचमी को सामेला के साथ नारायणा दादूधाम, दादूद्वारे में प्रवेश किया । फिर मेले का कार्यक्रम होता रहा । 
(क्रमशः)  

*१२. विश्वास को अंग १३/१६*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१२. विश्वास को अंग १३/१६*
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सुन्दर ऐसै रामजी, ताकौं जानत नांहिं । 
पहुंचावत है प्रान कौं, आपुहि बैठौ मांहिं ॥१३॥
उस प्रभु की अपरिमित सामर्थ्य से तूं परिचित नहीं है । वे तो स्वयं, बैठे ही बैठे तुम्हारे प्राणधारण हेतु, तुम तक तुम्हारी जीविका पहुँचा देते हैं ॥१३॥
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सुन्दर प्रभुजी निकट है, पल पल पोखै प्रांन । 
ताकौं सठ जानत नहीं, उद्यम ठांनै आंन ॥१४॥
वे तुम्हारे प्रतिपालक प्रभु सर्वदा(पल पल) तुम्हारे समीप ही रहते हैं, उनको तुम अपनी मूर्खतावश पहचान नहीं रहे हो ! अपितु, उसके बदले में, अपनी रक्षा हेतु स्वयं नित्य नवीन व्यर्थ के उपाय(उद्यम) खोजते फिर रहे हो ! ॥१४॥
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सुन्दर पशु पंखी जितै, चूंन सबनि कौं देत । 
उनकै सोदा कौंन सो, कहौ कौंन से खेत ॥१५॥
वह प्रभु संसार के सभी छोटे बड़े पशु पक्षियों को, उनकी स्थिति के अनुसार, भोजन पानी देता रहता है । उन पशु पक्षियों ने किस व्यापारी से सोदा(समझौता) किया था कि वह उनको उतनी खाद्य सामग्री पहुँचाता रहे । या वे पशु किन खेतों के स्वामी थे कि वहाँ से उनकी वह खाद्य सामग्री उपलब्ध हो जाती थी ॥१५॥
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सुन्दर अजिगर परि रहै, उद्यम करै न कोइ । 
ताकौं प्रभुजी देत हैं, तूं क्यौं आतुर होइ ॥१६॥
इसी बात को श्रीसुन्दरदासजी दृष्टान्तपूर्वक समझाते हैं - हम लोक में देखते हैं कि अजगर जैसा बृहत्काय सर्प अपने भोजन की प्राप्ति के लिये कोई प्रयास नहीं करता; तो भी उस को प्रतिदिन उसका आहार मिलता ही है; इसी प्रकार, हे प्राणी ! वे सर्वसमर्थ प्रभु तेरा भी ध्यान रखेंगे, तूँ क्यों अपने भोजन के लिये चिन्तित है ! तूं भी उस पर विश्वास रख ! ॥१६॥
(क्रमशः)  

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2025

*१२. विश्वास को अंग ९/१२*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१२. विश्वास को अंग ९/१२*
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सुन्दर दौरै रिजक कौं, सौ तौ मूरष होइ । 
यौं जानै नहिं बावरौ, पहुंचावै प्रभु सोइ ॥९॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - उस पुरुष को इस संसार में मूर्ख ही समझना चाहिये जो भोजन-प्राप्ति के लिये इधर उधर दौड़ता है; क्योंकि वह अज्ञानी यह बात समझता ही नहीं कि उसका प्रभु उसके लिये नियत भोजन उस के पास स्वयं ही पहुँचा देगा ॥९॥
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सुन्दर समुझि बिचार करि, है प्रभू पूरनहार । 
तेरौ रिजक न मेटि है, जानत क्यौं न गवांर ॥१०॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - अरे प्राणी ! तूँ अच्छी तरह विचार कर यह समझ ले कि वह प्रभु ही सब के भोजन की पूर्ति करता है अतः वह प्रभु तेरे अंश का भोजन तुझे क्यों नहीं देगा – तूँ यह क्यों नहीं समझता ! ॥१०॥
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सुन्दर निस दिन रिजक कौं, बादि मरै नर झूरि । 
तुझे रिजक दे रामजी, जहां तहां भरपूरि ॥११॥
अरे मूर्ख ! तूँ दिन रात अपनी उपभोग्य सामग्री की खोज में क्या चिन्तित रहता है ! वह तो जितने तेरे भाग्य में लिखी हुई है उतनी वे प्रभु तेरे सम्मुख अवश्य पहुँचा देंगे ॥११॥
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सुन्दर जो मुख मूंदि कैं, बैठि रहै एकंत । 
आनि खवावै रामजी, पकरि उघारै दंत ॥१२॥
यदि तूं एकान्त में मौन बैठ कर केवल उस प्रभु का नाम स्मरण करता रहे तो वे सर्वसमर्थ प्रभु तेरे जीवननिर्वाह के लिये स्वयं सब कुछ देते रहेंगे ॥१२॥
(क्रमशः)  

बूंदी गमन ~

*#daduji*
*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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१० आचार्य दिलेराम जी
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बूंदी गमन ~ 
उक्त प्रकार रामत द्वारा ब्रह्मभक्ति का प्रचार करते - करते आचार्य दिलेरामजी महाराज शिष्य मंडल के सहित बूंदी नगर के आसपास के ग्रामों में पहुँचे, तब बूंदी नरेश को ज्ञात हुआ कि - नारायणा दादूधाम के आचार्य दिलेरामजी महाराज अपने शिष्य मंडल के सहित बूंदी के आसपास के ग्रामों में ब्रह्मभक्ति का उपदेश करके प्रणियों को कल्याण मार्ग में प्रवृत कर रहे हैं । 
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तब बूंदी नरेश ने आचार्य दिलेरामजी को बूंदी पधारने का निमंत्रण भेजा । आचार्यजी ने निमंत्रण स्वीकार कर लिया । फिर बूंदी पधारे और अपनी मर्यादा के अनुसार नगर के बाहर ठहर कर राजा को अपने आने की सूचना दी । 
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सूचना मिलते ही बूंदी नरेश बिशनसिंह जी राजकीय लवाजमा के साथ बडे ठाटबाट से अपनी धार्मिक प्रजा के सहित संकीर्तन करते हुये आचार्य दिलेरामजी की अगवानी करने के लिये आये और अपनी कुल परंपरा अनुसार आचार्य को भेंट चढाकर प्रजा के सहित नरेश ने प्रणाम किया । 
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फिर उचित प्रश्‍नोत्तर होने के पश्‍चात् आचार्य जी को हाथी पर विराजमान कराके संकीर्तन करते हुये नगर के मुख्य - मुख्य भागों से जनता को आचार्य जी तथा संत मंडल का दर्शन कराते हुये ले गये । एक सुन्दर और एकान्त स्थान में ठहराया और संत सेवा का प्रबन्ध सुचारु रुप से करा दिया गया । 
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फिर एक दिन नरेश सुवर्ण मुद्रा चढाकर गुरु उपदेश आचार्य दिलेरामजी महाराज से ग्रहण किया और जब तक बूंदी में रहे तब तक राजा प्रजा ने प्रेम सहित सत्संग किया । जब आचार्य जी की बूंदी से अन्य स्थान को जाने की इच्छा हुई तब अति आदर सत्कार से राजा प्रजा ने सप्रेम भेंटें चढाकर आचार्य जी को विदा किया ।
(क्रमशः)  

चावा का वास बक्शीश ~

*#daduji*
*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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१० आचार्य दिलेराम जी
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चावा का वास बक्शीश ~ 
दिलेराम जी महाराज के पूर्व के आचार्यों तक अलवर नरेश की ओर से १५०) रु. मासिक दादूद्वारे के संतों के भोजनार्थ आते थे । आचार्य दिलेरामजी महाराज के बैठने के दूसरे वर्ष में अलवर नरेश ने अपने गुप्तचर से पता लगवाया कि दादूद्वारे नारायणा में भंडार का मासिक खर्च कितना होता है । 
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उसने आकर देखा और ठीक पता लगाकर अनुमान करके जाकर कहा - वहां तो बहुत से संत निवास करते हैं और सब भजनानन्दी तथा दादूवाणी के विचार में ही लगे रहते हैं । तब अलवर नरेश ने १५०) रु. मासिक तो बन्द कर दिया.... 
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और वि. सं. १८७८ फाल्गुण शुक्ला ३ को भंडार खर्च के लिये चावा का वास बक्शीश करने का पट्टा राज्य की ओर से कराकर तथा उस पर राज्य को मोहर लगाकर उस पत्र को बन्द कर दिया और अपने कर्मचारी द्वारा नारायणा दादूधाम के भंडारी के पास भेज दिया गया । तब से उस ग्राम की आय भंडारी खर्च में लगने लगी ।
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शेखावटी, राजावाटी रामत ~ 
वि. सं. १८७९ में आचार्य दिलेरामजी महाराज ने शिष्य मंडल के आग्रह से ब्रह्म भक्ति का प्रचार करने के लिये शेखावटी और राजावाटी प्रदेशों की रामत की । इस रामत में स्थान - स्थान पर श्रीदादूवाणी के उपदेशों द्वारा धार्मिक जनता को निर्गुण परब्रह्म की भक्ति में लगाया । निज समाज के स्थानधारी साधुओं ने तथा उदार हृदय धनी मानी गृहस्थ सज्जनों ने शिष्य मंडल के सहित आचार्य दिलेरामजी महाराज का बहुत स्वागत समादर किया । 
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साथ के विद्वान संतों के वचनामृत तथा गायक संतों द्वारा संतों के पदों को सुनकर धार्मिक जनता ने अपने को कृतार्थ समझा । इस रामत में ग्रामों की जनता ने सप्रेम सत्संग में भाग लिया था इससे शिष्य मंडल के सहित आचार्यजी को भी बहुत प्रसन्नता हुई थी और धार्मिक जनता ने अपूर्व आनन्द का अनुभव किया था । 
(क्रमशः) 

गुरुवार, 4 दिसंबर 2025

*१२. विश्वास को अंग ५/८*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१२. विश्वास को अंग ५/८*
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सुन्दर धीरज धारि तूं, गहि प्रभु कौ बिश्वास । 
रिजक बनायौ रामजी, आवै तेरै पास ॥५॥
तूँ उस प्रभु पर अटूट विश्वास रखता हुआ धैर्य धारण किये रह; क्योंकि तेरे लिये निश्चित भोजन उस प्रभु के द्वारा तेरे पास अवश्य पहुँच जायगा ॥५॥
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काहै कौं परिश्रम करै, जिनि भटकै चहुं ओर । 
घर बैठैं ही आइ है, सुंदर सांझ कि भोर ॥६॥
क्यों तूँ व्यर्थ श्रम कर रहा है, या उदरपूर्ति के लिये इधर उधर घूम रहा है ! श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - जो तेरे भाग्य में है वह प्रातः या सायं तेरे पास स्वयं आ जायगा ॥६॥
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रिजक बनायौ रामजी, का पै मेट्यौ जाइ । 
सुंदर धीरज धारि तूं, सहजि रहेगौ आइ ॥७॥
भगवान् ने जो भोजन तुम्हारे निमित्त कर दिया है उसे कोई नष्ट नहीं कर सकता । अतः तूँ धैर्य रख; क्योंकि वह निश्चित ही तुझ को मिल जायगा ॥७॥
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चंच संवारी जिनि प्रभू, चूंन देइगो आंनि । 
सुंदर तूं बिश्वास गहि, छांडि आपनी बांनि ॥८॥
जिस प्रभु ने खाने के लिये यह मुख बनाया है, वह उसके लिये भोजन भी अवश्य भेजेगा । अतः तूं विश्वास रख; और सर्वत्र अपना सन्देह करने का स्वभाव छोड़ दे ॥८॥
(क्रमशः) 

*१२. अथ विश्वास को अंग १/४*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१२. अथ विश्वास को अंग १/४*
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सुंदर तेरे पेट की, तोकौं चिंता कौंन ।
बिस्व भरन भगवंत है, पकरि बैठि तूं मौंन ॥१॥
योग क्षेम के निर्वाहक प्रभु : महाराज श्रीसुन्दरदासजी अज्ञानी पुरुष को समझा रहे हैं - अरे मूर्ख ! तूँ अपनी उदरपूर्ति की चिन्ता से क्यों व्यग्र है; इस का उत्तरदायित्व तो तेरे स्त्रष्टा उस विश्वम्भर भगवान् ने ले रखा है । तूँ तो एकान्त में बैठ कर मौन रह कर केवल उस भगवान् के पवित्र नाम का सतत स्मरण कर ॥१॥
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सुंदर चिंता मति करै, पांव पसारै सोइ ।
पेट दियौ है जिनि प्रभू, ताकौं चिंता होइ ॥२॥
अरे भाई ! तूँ उदरपूर्ति की चिन्ता क्यों कर रहा है ! यह चिन्ता तो उस प्रभु की ही है जिसने तुझ को यह पेट दिया है । तूँ तो पैर पसार कर (निश्चिन्त होकर) सो जा ॥२॥
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जलचर थलचर ब्योमचर, सबकौं देत अहार ।
सुंदर चिंता जिनि करै, निस दिन बारंबार ॥३॥
क्योंकि वह हमारा सिरजनहार जल, स्थल एवं आकाश में रहने वाले सभी प्राणियों को भोजन देता ही है । श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - अतः तूँ क्यों दिन रात अपनी उदरपूर्तिकी चिन्ता में लगा हुआ है । ऐसा न कर ॥३॥
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सुंदर प्रभुजी देत हैं, पाहन मैं पहुंचाइ ।
तूं अब क्यौं भूखौ रहै, काहै कौं बिललाइ ॥४॥
अरे ! वह प्रभु त्तो ऐसा समर्थ है कि पत्थर में रहने वाले प्राणी को भी भोजन पहुँचा देता है, तब तूँ कैसे भूखा रह पायगा । अतः तूँ इस के लिये व्यर्थ चिन्तित न हो ॥४॥
(क्रमशः)

उतराधे की रामत

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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१० आचार्य दिलेराम जी
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इस पटियाला के चातुर्मास में दादूवाणी की कथा, विद्वानों के भाषण, गायक संतों के पद गायन, आरती अष्टक, अन्य स्तोत्र गायन, जागरण, नाम संकीर्तन, संत सेवा आदि पुण्य कार्य जो चातुर्मास में होते हैं, वे सभी कार्य इस चातुर्मास में बहुत सुन्दर रुप से होने लगे । 
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उन सभी कार्यों में राजा, राज परिवार, प्रजा जन, संत, आदि सभी ने अच्छा भाग लिया । पटियाला नरेश ने आचार्य जी का बहुत सम्मान किया । राज कर्मचारी और राज परिवार के महानुभाव भी आचार्यजी के पास आकर अति श्रद्धा से आचार्यजी का दर्शन करके तथा उनके मुख से मधुर उपदेश सुनकर बहुत संतुष्ट होते थे ।
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पटियाला नरेश तथा राज परिवार की महात्मा ठंडेरामजी पर बहुत श्रद्धा थी और महात्मा ठंडेरामजी की आचार्य दिलेरामजी महाराज पर अति श्रद्धा थी । अत: अपने श्रद्धेय महात्मा ठंडेरामजी का अनुकरण करते हुये पटियाला नरेश और राज परिवार के लोग आचार्य जी का महान् सम्मान करते थे । 
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इस चातुर्मास में महात्मा ठंडेरामजी ने आचार्य दिलेरामजी महाराज के शिष्य मंडल का भी अभूतपूर्व आदर सत्कार किया था । आचार्य जी की भेंट आदि सभी कार्य इस चातुर्मास में श्‍लाघनीय हुये थे । सविधि चातुर्मास पूर्ण होने पर उतराधे महात्माओं ने उतराधे की रामत करने के लिये अति आग्रह पूर्वक प्रार्थना की । तब उन संतों की प्रार्थना स्वीकार करके उतराधे की रामत की । 
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इस उतराधे की रामत में उतराधे महात्माओं ने शिष्य मंडल के सहित आचार्य दिलेराम जी महाराज का अति सम्मान किया था । बहुत ही अच्छी सेवा की थी और अति उदारता पूर्वक भेंट दी थी । उन भेटों का परिचय नारायणा दादूधाम की बहियों के देखने से मिलता है । उन भेटों को देखते हुये उतराधे संतों की आचार्यजी के प्रति अटूट श्रद्धा का परिचय मिलता है । 
(क्रमशः)  

मंगलवार, 2 दिसंबर 2025

पटियाला चातुर्मास ~

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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१० आचार्य दिलेराम जी
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पटियाला चातुर्मास ~ 
आचार्य दिलेरामजी महाराज का प्रथम चातुर्मास पटियाला के उतराधे महात्मा ठंडेरामजी ने मनाया था । फिर आचार्य दिलेरामजी महाराज अपने शिष्य मंडल के सहित मार्ग की धार्मिक जनता को अपने दर्शन, सत्संग से कृतार्थ करते हुये पटियाला के पास पहुँचे तब महात्मा ठंडेरामजी को अपने आने की सूचना दी । 
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सूचना मिलते ही महात्मा ठंडेरामजी ने पटियाला नरेश से राजकीय स्वागत सत्कार की सामग्री वाद्य निशान आदि मंगवाकर बडे ठाट बाट के साथ भक्त मंडल के सहित संकीर्तन करते हुये आचार्य दिलेरामजी महाराज की अगवानी करने के लिये नगर से बाहर जहां आचार्यजी अपने शिष्य मंडल सहित विराजे हुये थे, वहां पहुँचे । 
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और आचार्य जी से मिलने की मर्यादा तथा शिष्टाचार पूर्वक प्रेम से भेंट चढाकर महात्मा ठंडेरामजी ने सत्यराम बोलकर आचार्य जी को दडंवत की । फिर आवश्यक प्रश्‍नोत्तर होने के पश्‍चात् आचार्य जी को हाथी पर बैठाकर नगर के मुख्य - मुख्य मार्गों से जनता को दर्शन कराते हुये अपने स्थान पर ले गये । 
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आचार्य दिलेरामजी महाराज तथा संत मंडल के दर्शन तथा भजन कीर्तन से धार्मिक जनता को अति आनन्द का अनुभव हुआ । जनता के लिये आज का संत दर्शन अभूतपूर्व था । स्थान पर पहुँचने पर सर्व प्रकार की सुविधायें सब संतों की इच्छानुसार कर दी गई । 
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आचार्यजी की सेवा में तो स्वयं ठंडेरामजी महाराज उपस्थित रहते थे । किसी प्रकार की त्रुटि नहीं रहने दी गई थी । नियत दिन से चातुर्मास का कार्य आरंभ हो गया । नगर की जनता को नियत समय के सत्संग की सूचना दे दी गई थी । जनता भी भारीमात्रा में सत्संग में भाग लेने लगी ।
(क्रमशः)  

*११. अधीर्य उरांहने को अंग २३/२५*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*११. अधीर्य उरांहने को अंग २३/२५*
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सुन्दर प्रभुजी पेट कौं, दूधाधारी होड़ । 
पाषंड करहिं अनेक बिधि, खांहिं सकल रस गोइ ॥२३॥
पेट के लिये साधुओं का पाषण्ड : हे प्रभो ! मैं देखता हूँ कि इस संसार में अपनी उदरपूर्ति के लिये कोई दूधाधारी साधक बना फिरता है और वैसा करते हुए वह लोक में पाषण्ड रच कर उपलब्ध सभी भोगों का उपभोग गुप्त रूप से करता रहता है ॥२३॥
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सुंदर प्रभुजी पेट कौ, साधै जाइ मसान । 
यंत्र मंत्र आराध करि, भरहिं पेट अज्ञान ॥२४॥
इसी प्रकार, प्रभु जी ! कोई दूसरा अज्ञानी साधक श्मशानसिद्धि का पाषण्ड रचता हुआ यन्त्र, मन्त्र की आराधना के व्याज से अपनी उदरपूर्ति के लिये नयी नयी युक्तियाँ निकालता रहता है ॥२४॥
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सुंदर प्रभुजी सब कह्यौ, तुम आगै दुख रोइ । 
पेट बिना ही पेट करि, दीनी खलक बिगोइ ॥२५॥
इति अधीर्य उरांहने को अंग ॥११॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - हे प्रभो ! इस प्रकार प्राणियों को पेट के कारण होने वाले सभी कष्ट आपके सामने संक्षेप में प्रस्तुत कर दिये हैं । मुझे ऐसा लगता है कि आपने यह पेट बिना किसी प्रयोजन के लगा कर इस संसार को नष्ट ही कर दिया ! ॥२५॥
इति अधीर्य उरांहना का अंग सम्पन्न ॥११॥
(क्रमशः) 

*११. अधीर्य उरांहने को अंग २०/२२*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*११. अधीर्य उरांहने को अंग २०/२२*
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सुन्दर प्रभुजी पेट कौं, बहु बिधि करहिं उपाइ । 
कौंन लगाई व्याधि तुम, पीसत पोवत जाइ ॥२०॥
उदरपूर्ति हेतु नवीन उपायों की खोज : हे प्रभो ! आज सभी प्राणी अपनी उदरपूर्ति के लिये कोई न कोई नया उपाय करते रहते हैं । आप ने इन सब को यह कैसी व्याधि(रोग) लगा दी कि इन का समस्त जन्म भोजन बनाने(पीसने, पोने में) ही व्यतीत हो जाता है ॥२०॥
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सुन्दर प्रभुजी सबनि कौं, पेट भरन की चिंत । 
कीरी कन ढूंढत फिरै, मांखी रस लै जंत ॥२१॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - सभी प्राणियों को अपने पेट भरने की ही चिन्ता बनी रहती है । इन में कीड़ी जैसा लघु कीट अपने लिये कन(भोजन का सूक्ष्म अंश) खोजता रहता है तो मधुमक्खी जैसा प्राणी अपनी उदरपूर्ति के लिये फूलों का रस खोजता रहता है ॥२१॥
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सुन्दर प्रभुजी पेट बसि, देवी देव अपार । 
दोष लगावै और कौं, चाहै एक अहार ॥२२॥
पेट के लिये देवताओं की चतुरता : हे प्रभो ! पृथ्वी के प्राणियों की ही बात क्यों की जाय, मैं समझता हूँ, स्वर्ग के अनन्त देवताओं की भी यही दशा है । वे तो यह भी चतुरता करते हैं कि वे उस भोजन के लिये दोष दूसरों के शिर डालकर वह प्राप्त भोजन(हवि) स्वयं खा जाते हैं ! ॥२२॥
(क्रमशः) 

१० आचार्य दिलेराम जी

*#daduji*
*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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अथ अध्याय ८  
१० आचार्य दिलेराम जी
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दिलेरामजी आचार्य निर्भयरामजी महाराज की सेवा में रहते थे । निर्भयरामजी महाराज ने जीवनदासजी को अपना उत्तराधिकारी बनाया था तब दिलेरामजी को जीवनदासजी की गोद में बैठा दिया था । उसका तात्पर्य यह था - कि जीवनदासजी के ब्रह्मलीन होने पर दिलेरामजी ही गद्दी के अधिकारी होगें । 
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यह बात समाज के मुख्य - मुख्य महानुभावों को ज्ञात थी ही । इससे जीवनदासजी महाराज के ब्रह्मलीन होने पर वि. सं. १८७७ मार्ग शुक्ला अष्टमी से दिलेरामजी ही आचार्य माने गये । मार्गशीर्ष शुक्ला ११ वि. सं. १८७७ को समाज ने दिलेरामजी को आचार्य पद पर अभिषिक्त किया ।
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उस समय जयपुर नरेश ने टीका के दस्तूर की अपनी परंपरा की रीति के अनुसार घोडा, शाल, शिरोपाव और भेंट के रुपये अपने मंत्री के द्वारा भेजे थे । उसने आचार्य दिलेरामजी की भेंट किये । इसी प्रकार अलवर नरेश ने - हाथी, शाल, सिरोपाव(सिर से पाव तक पहनने के वस्त्र), पारचा का थान(रेशमी कपडे का थान) पाग तथा भेंट के रुपये अपने मंत्री द्वारा भेजे । 
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बीकानेर नरेश ने भी घोडा, शाल और सिरोपाव मंत्री द्वारा भेजे । किशनगढ नरेश ने - शाल, सिरोपाव आदि भेजे । खेतडी नरेश ने शाल और भेंट के रुपये भेजे । उक्त प्रकार राजस्थान के अनेक बडे छोटे नरेशों की भेंट अपनी अपनी कुल परंपरा के अनुसार हो जाने के पश्‍चात् श्री दादूपंथ के महन्त, संतों की अपनी - अपनी मर्यादा के अनुसार भेंटें हुई । 
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फिर भेंटों का कार्य समाप्त हो जाने पर श्री स्वामी दादू दयालु महाराज की जय बोलकर आचार्य दिलेरामजी की जय बोली । फिर प्रसाद भेंटों वालों को बांट करके अन्य सबको बांटा गया । पश्‍चात् सभा विसर्जन कर दी गई । दिलेरामजी महाराज अपने से पूर्व के दो भजनानन्दी आचार्य निर्भयरामजी और जीवनदासजी की सेवा में रहे हुये थे । 
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सदा उनका सत्संग करते रहे थे और आप भी आचार्य पद से पूर्व अधिकतर भजन विचार और प्राप्ति के पश्‍चात् तो अपने साधन भजन के लिये बहुत अधिक समय मिलने लगा । व्यावहारिक कार्य तो अब आपको करने पडते ही नहीं थे ।
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व्यावहारिक कार्य पूर्व काल से ही भंडारी लोग करते आ रहे थे । अत: सब काम भंडारी ही करते कराते थे । आप तो ब्रह्म भजन और उपदेश ही करते थे । आचार्य दिलेराम जी अति दयालु और मिलनसार महात्मा थे । आप निज समाज के तथा अन्य समाज के प्रत्येक व्यक्ति के साथ प्रेम का व्यवहार करते थे । 
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दादूपंथी शिष्य मंडल तथा अन्य गृहस्थी सेवक सती आप में अटूट श्रद्धा रखते थे । आपके दयालु, उदार तथा सद् - व्यवहार को देखकर शिष्य मंडल के शिष्यों ने अपने - अपने स्थान में आपके अनेक चातुर्मास कराये थे । चातुर्मास के समय में आपके साथ १०० से अधिक ही साधु रहते थे । आपके चातुर्मास मर्यादा पूर्वक बहुत ही सुन्दर होते थे । सब को आनन्द ही आनन्द प्राप्त होता था ।
(क्रमशः)