रविवार, 17 नवंबर 2024

= ८९ =

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*दादू जीवित मृतक होइ कर, मारग मांही आव ।*
*पहली शीश उतार कर, पीछे धरिये पांव ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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शिक्षकों से मिलता हूं तो सब जगह उनकी तकलीफ यही है कि विद्यार्थी सम्मान नहीं दे रहा है, आदर नहीं दे रहा है। लेकिन उसे पता ही नहीं है कि गुरु नाम का प्राणी बहुत और बात थी। शिक्षक वह नहीं था, जिसको आदर मिला था। शिक्षक बहुत और बात है। उसे आदर नहीं मिल सकता है। उसे आदर की आकांक्षा भी छोड़ देनी चाहिए और या फिर गुरु होने की हिम्मत जुटानी चाहिए।
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ऐसा नहीं है कि गुरु को आदर देना पड़े; बात उलटी है। जिसे हमें आदर देना ही पड़ता है उसको ही गुरु कहते हैं। जिसे आदर दिए बिना कोई रास्ता ही नहीं है, जो हमारे आदर को खींच ही लेता है, उसे ही हम गुरु कहते हैं। लेकिन शिक्षक और बात है। शिक्षक कुछ काम ही दूसरा कर रहा है। क्या काम शिक्षक कर रहा है आज ?
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वह जो मास प्रोडक्शन है, वह जो बड़े पैमाने पर आदमियों को ढालने की कोशिश चल रही है, वह जो बड़े-बड़े कारखाने हैं, प्राइमरी स्कूल से लेकर युनिवर्सिटी तक, उन सब कारखानों में जो आदमी को ढालने का प्रयास चल रहा है। शिक्षक उसमें नौकर है और वह जो काम वहां कर रहा है, वह काम किसी भी व्यक्ति की आत्मा को नहीं जगा पाता।
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गुरु वह है जो किसी की आत्मा को जगा दे, किसी के व्यक्तित्व को गरिमा दे दे, उसके बंद फूल खिल जाएं। शिक्षक वह है जो पुरानी पीढ़ियों के द्वारा अर्जित सूचनाओं को, नई पीढ़ी तक पहुंचाने का वाहन का काम कर दे और विदा हो जाए। शिक्षक सिर्फ पुरानी पीढ़ियों ने जो ज्ञान अर्जित किया है, उसे नई पीढ़ी तक जोड़ने का काम करता है, इससे ज्यादा नहीं। वह मध्यस्थ है।
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और वहां भी एक क्रांतिकारी घटना घट गई है। जीसस के मरने के बाद कोई साढ़े अट्ठारह सौ वर्षों में मनुष्य जाति का जितना ज्ञान बढ़ा था, उतना ज्ञान पिछले डेढ़ सौ वर्षों में बढ़ा है और पिछले डेढ़ सौ वर्षों में जितना ज्ञान बढ़ा था, उतना ज्ञान पिछले पंद्रह वर्षों में बढ़ा है। पंद्रह वर्षों में उतना ज्ञान बढ़ रहा है अब, जितने ज्ञान को बढ़ने के लिए पहले साढ़े अट्ठारह सौ वर्ष लगते थे।
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इसका एक बहुत गहरा परिणाम होना स्वाभाविक है, वह परिणाम यह हुआ है कि पहले, आज से दो सौ साल पहले बाप हमेशा बेटे से ज्यादा जानता था, गुरु हमेशा शिष्य से ज्यादा जानता था। आज ऐसा जरूरी नहीं है। आज संभावनाएं बिलकुल बदल गई हैं, क्योंकि बीस वर्ष में एक पीढ़ी बदलती है, और बीस वर्ष में नये ज्ञान का इतना विस्फोट हो जाता है कि बीस साल पहले जो शिक्षित हुआ था, वह अपने विद्यार्थी से भी पीछे पड़ जाता है।
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आज तो शिक्षक और विद्यार्थी में जो फर्क होता है, पहले तो फर्क होता था बहुत भारी, क्योंकि सारा ज्ञान अनुभव से उपलब्ध होता था। और ज्ञान थिर था, हजारों साल तक उसमें कोई बदलाहट नहीं होती थी। इसलिए शिक्षक बिलकुल आश्वस्त था। वह जरा भयभीत न था। वह बिलकुल मजबूती से जो कहता था, उसे जानता था कि वह ठीक है, कल भी ठीक था, कल भी ठीक रहेगा। हजारों साल से बातें ठीक थीं, अपनी जगह ठहरी हुई थीं।
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इधर पिछले सौ वर्षों में सब अस्त-व्यस्त हो गया है। वह शिक्षक का आश्वस्त रूप भी विदा हो जाएगा, हो ही गया है। आज वह जोर से नहीं कह सकता कि जो वह कह रहा है, वह ठीक ही है, क्योंकि बहुत डर तो यह है कि पंद्रह वर्ष पहले जब वह विश्वविद्यालय से पास होकर निकला था, तब जिसे ज्ञान समझा जाता था, पंद्रह साल में वह सब आउट आफ डेट हो गया, वह सब समय के बाहर हो गया है। उसमें से कुछ भी अब ज्ञान नहीं है।
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आज शिक्षक और विद्यार्थी के बीच अक्सर तो एक घंटे का फासला होता है। वह एक घंटे पहले तैयार करके आता है, एक घंटे बाद विद्यार्थी भी उतनी बातें जान लेता है। जहां इतना कम फासला होगा तो वहां बहुत ज्यादा आदर नहीं मांगा जा सकता। आदर फासले से पैदा होता है। सम्मान दूरी से पैदा होता है।
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कोई शिखर पर खड़ा है और हम भूमि पर खड़े हैं, तब सम्मान पैदा होता है। लेकिन जरा सा आगे कोई खड़ा है, और थोड़ी देर बाद हम भी उतने करीब पहुंच जाएंगे। पहले हमेशा ऐसा होता था कि बाप बेटे से ज्यादा ज्ञानी होता ही था, क्योंकि अनुभव से ही ज्ञान मिलता था। एक आदमी अस्सी साल जी लिया था तो उसके पास ज्ञान होता था। लेकिन आज हालत बहुत बदल गई है। आज उम्र से ज्ञान का कोई संबंध नहीं रह गया है।
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संभावना तो इस बात की है कि बेटा बाप से ज्यादा जान ले, क्योंकि बाप का जानना कहीं रुक गया होगा और बेटा अभी भी जान रहा है। और जो बाप ने जाना था वह सब जाना हुआ बदल गया है। अब नये जानने के बहुत से नये तथ्य सामने आ गए हैं।
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यह तथ्यों का एक्सप्लोजन इतनी तेजी से हुआ है कि बाप के भी पैर हिल गए हैं और उसके साथ शिक्षक के भी पैर हिल गए हैं। वे आश्वस्त नहीं रह गए हैं। और अब आज कोई सिर्फ उम्र के कारण, या आगे होने के कारण, या पहले जन्मे होने के कारण किसी बात को थोपना चाहेगा तो थोपना मुश्किल है। इसलिए आधुनिक शिक्षक को बहुत विनम्र होना पड़ेगा।
~ओशो

= ८८ =

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*जे जन आपा मेट कर, रहैं राम ल्यौ लाइ ।*
*दादू सब ही देखतां, साहिब सौं मिल जाइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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रामानुज एक गांव से गुजर रहे थे। एक आदमी ने आकर कहा कि मुझे परमात्मा को पाना है। तो उन्होंने कहां कि तूने कभी किसी से प्रेम किया है ? उस आदमी ने कहा की इस झंझट में कभी पडा ही नहीं। प्रेम वगैरह की झंझट में नहीं पडा। मुझे तो परमात्मा का खोजना है।
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रामानुज ने कहा: तूने झंझट ही नहीं की प्रेम की ? उसने कहा, मैं बिलकुल सच कहता हूं आपसे। वह बेचारा ठीक ही कहा रहा था। क्योंकि धर्म की दुनिया में प्रेम एक डिस्कवालिफिकेशन है। एक अयोग्यता है।
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तो उसने सोचा की मैं कहूं कि किसी को प्रेम किया था, तो शायद वे कहेंगे कि अभी प्रेम-व्रेम छोड़, वह राग-वाग छोड़, पहले इन सबको छोड़ कर आ, तब इधर आना। तो उस बेचारे ने किया भी हो तो वह कहता गया कि मैंने नहीं किया है। ऐसा कौन आदमी होगा, जिसने थोड़ा बहुत प्रेम नहीं किया हो ?
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रामानुज ने तीसरी बार पूछा कि तू कुछ तो बता, थोड़ा बहुत भी, कभी किसी को ? उसने कहा, माफ करिए आप क्यों बार-बार वही बातें पूछे चले जा रहे है ? मैंने प्रेम की तरफ आँख उठा कर नहीं देखा। मुझे तो परमात्मा को खोजना है।
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तो रामानुज ने कहा: मुझे क्षमा कर, तू कहीं और खोज। क्योंकि मेरा अनुभव यह है कि अगर तूने किसी को प्रेम किया हो तो उस प्रेम को फिर इतना बड़ा जरूर किया जा सकता है कि वह परमात्मा तक पहुंच जाए। लेकिन अगर तूने प्रेम ही नहीं किया है तो तेरे पास कुछ है नहीं जिसको बड़ा किया जा सके। बीज ही नहीं है तेरे पास जो वृक्ष बन सके। तो तू जा कहीं और पूछ।

ओशो

= ८७ =

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*हमहीं हमारा कर लिया, जीवित करणी सार ।*
*पीछे संशय को नहीं, दादू अगम अपार ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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सुकरात को जहर दे कर मारा गया। अदालत ने सुकरात से कहा कि अगर तुम एक वचन दे दो कि तुम सत्य का प्रचार नहीं करोगे-जिसको तुम सत्य कहते हो, उसका प्रचार नहीं करोगे, चुप रहोगे-तो यह मृत्यु बचाई जा सकती है। हम तुम्हे माफ कर दे सकते हैं।
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सुकरात ने कहा, जीवन को तो मैं देख चुका। सब कोनों से पहचान लिया। पर्त-पर्त उघाड़ ली। और अगर मुझे जीने का मौका दिया जाए, तो मैं एक काम के लिए जीना चाहूंगा कि दूसरे लोगों को भी जीवन का सत्य पता चल जाए। और तो अब कोई कारण न रहा। मेरी तरफ से जीवन का काम पूरा हो गया। पकना था, पक चुका। मेरी तरफ से तो मृत्यु में जाने में कोई अड़चन नहीं है। वस्तुतः मैं तो जाना चाहूंगा। क्योंकि जीवन देख लिया, मृत्यु अभी अनदेखी पड़ी है।
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जीवन तो पहचान लिया, मृत्यु से अभी पहचान नहीं हुई। जीवन तो ज्ञात हो गया, मृत्यु अभी अज्ञात है, रहस्यमय है। उस मंदिर के द्वार भी खोल लेना चाहता हूं। मेरे लिए तो मैं मरना ही चाहूंगा, जानना चाहूंगा-मृत्यु क्या है? यह प्रश्न और हल हो जाए। जीवन क्या है, हल हो चुका। एक द्वार बंद रह गया है; उसे भी खोल लेना चाहता हूं। 
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और अगर मुझे छोड़ दिया जाए जीवित, तो मैं एक ही काम कर सकता हूं-और एक ही काम के लिए जीना चाहूंगा-और वह सत्य यह कि जो मैंने देखा है वह दूसरों को दिखाई पड़ जाए। अगर इस शर्त पर आप कहते हैं की सत्य बोलना बंद कर दूं तो जीवित रह सकता हूं, तो फिर मुझे मृत्यु स्वीकार है। मृत्यु सुकरात ने स्वीकार कर ली। जब उसे जहर दिया गया, वह जहर पीकर लेट गया।
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मित्र रोने लगे शिष्य दहाड़ने लगे पीड़ा में; आंसुओं की धारें बह गई। सुकरात ने आंख खोलीं और कहा की यह वक्त रोने का नहीं। मैं चला जाऊं, फिर रो लेना। फिर बहुत समय पड़ा है। ये क्षण बड़े कीमती हैं। कुछ रहस्य की बातें तुम्हें और बता जाऊं। जीवन के संबंध में तुम्हें बहुत बताया, अब मैं मृत्यु में गुजर रहा हूं, धीरे धीरे प्रवेश हो रहा है। सुनो !
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मेरे पैर ठन्डे हो गए हैं; पैर मर चुके हैं। जहर का प्रभाव हो गया। मेरी जांघ शून्य होती जा रही है। अब मैं पैरों का कोई अनुभव नहीं कर सकता, हिलाना चाहूं तो हिला नहीं सकता। वहां से जीवन विदा हो गया। लेकिन आश्चर्य ! मेरे भीतर जीवन में जरा भी कमी नहीं पड़ी है। मैं उतना ही जीवित हूं। जांघें सो गई, शून्य हो गई।

सुकरात ने अपने शिष्य को कहा, क्रेटो, तू जरा चिउंटी लेकर देख मेरे पैर पर। उसने चिउंटी ली। सुकरात ने कहा, मुझे पता नहीं चलता। पैर मुर्दा हो गए। आधा शरीर मर गया। लेकिन मैं तो भीतर अभी भी पूरा का पूरा अनुभव कर रहा हूं ! हाथ ढीले पड़ गए। हाथ उठते नहीं। गर्दन लटक गई। 
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आखिरी क्षण में भी, आंख जब बंद होने लगी, तब भी उसने कहा कि मैं तुम्हें एक बात कहे जाता हूं, याद रखना: करीब-करीब सब मर चुका है, आखिरी किनारा रह गया है हाथ में, लेकिन मैं पूरा का पूरा जिंदा हूं, मृत्यु मुझे छू नहीं पाई है। 
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जिसने जीवन को जान लिया, वह मृत्यु को जानने को उत्सुक होगा। क्योंकि मृत्यु जीवन का दूसरा पहलू है; छिपा हुआ हिस्सा है। चांद की दूसरी बाजू है, जो कभी दिखाई नहीं पड़ती।
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ओशो; सब सयाने एक मत

= ८६ =

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*अन्तर सुरझे समझ कर, फिर न अरूझे जाइ ।*
*बाहर सुरझे देखतां, बहुरि अरूझे आइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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एक मित्र मेरे पास आए और मुझसे बोले कि मुझे शांति चाहिए। ऋषिकेश हो आया, अरविंद आश्रम गया, रमन आश्रम गया, कहीं शांति नहीं मिली। सब धोखा है। किसी ने मुझे आपका नाम लिया, यहां मैं आया हूं। मैंने कहाः आप अभी पहले ही चले जाएं, नहीं तो मैं भी धोखा सिद्ध होने वाला हूं।
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उन्होंने कहाः क्यों ? मैंने कहाः आप अशांति सीखने किसके पास गए थे ? अरविंद आश्रम गए थे, रमन आश्रम गए थे, कहां गए थे ? अशांति सीखने कहीं भी नहीं गए थे। तो यह और अशांति बढ़ाएगी। एक अशांत आदमी माला जप रहा है, यह माला जपना और न्यूरोटिक करेगा उसे, क्योंकि वह है तो अशांत, अशांत कुछ भी करे, तो अशांति मिटेगी नहीं बढ़ेगी।
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सवाल शांति को पाने का नहीं है, सवाल अशांति को देखने का है कि मैं कैसे अशांति पैदा करता हूं ? हिरोशिमा कैसे पैदा हो जाता है ? हिंदुस्तान-पाकिस्तान कैसे पैदा हो जाते हैं ? महाराष्ट्र में असुर कैसे पैदा हो जाते हैं ? ब्राह्मण-शूद्र कैसे पैदा हो जाते हैं ? गरीब-अमीर कैसे पैदा हो जाता है ? उसे भीतर देखना है हमें। और वह देखने के लिए मेरी जो समझ है, दमन एक बुनियादी कारण रहा आदमी को अशांत करने का, एक।
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दूसरी बात, अब तक हमने आदमी को सुख की जगह दुख को वरन करने की शिक्षा दी है। सब आदमियों को हम यह सिखाते हैं कि दुख को वरन करना बड़ी कीमती बात है। अगर मैं नंगा खड़ा हो जाऊं तो ज्यादा कीमती आदमी हूं। एक दफा खाना खाऊं और ज्यादा कीमती आदमी हूं। कांटों पर लेट जाऊं और ज्यादा कीमती आदमी हूं।
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दुख को वरन करना, स्वेच्छा से स्वीकार करना बड़ी ऊंची बात है। लेकिन ध्यान रहे, जो आदमी भी दुख को वरन करने की आदत बनाएगा, वह जाने-अनजाने दूसरे के दुख के प्रति पहले से इनसेंसिटिव हो जाएगा। इसलिए हिंदुस्तान के संन्यासी और साधु हिंदुस्तान के दुख और दारिद्रय और दीनता के प्रति बिल्कुल ही बेपरवाह रहे। उसका कारण है कि वे तो दुखों को ही वरन किए हुए बैठे हैं, तो आप गरीब हो तो कोई बड़ी बात है, आपसे ज्यादा गरीब तो वे अपने हाथ से हैं।
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अगर आपको खटिया मिलती है सोने को तो मजे से सोओ, हम तो कांटों पर सो रहे हैं। हम तो कांटा बिछाए हुए है, तुम हो क्या ? तुम्हारी गरीबी तो बड़ी अमीरी है, तुम तो बड़े सुख भोग रहे हो, तुम झोपड़े में हो। और हर्जा क्या है ? और हम तो झाड़ के नीचे पड़े हुए हैं। हिंदुस्तान के महात्माओं और साधु-संन्यासियों में एक इनसेंसिटिव और डल माइंड पैदा हुआ है। उसका कारण यह था कि दुख का वरन।
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और सारी दुनिया में वह खयाल रहा कि दुख को वरन करो। जब दुख को आप वरन करते हैं, तो पहला परिणाम तो यह होता है कि दुख के प्रति संवेदना आपकी कम हो जाती है, और यह बड़ी खतरनाक बात है। क्योंकि जो आदमी दुख के प्रति संवेदना जिसकी कम हो गई है, वह युद्ध के प्रति संवेदना कम हो जाएगी, उसकी हिंसा के प्रति, जो हो रहा है हो रहा है।
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दूसरी बात है, जो आदमी दुख को स्वीकार कर लेता है और दुख को आदर देता है, ग्लोरीफाई करता है, वह आदमी जाने-अनजाने दूसरे को दुख देने के उपाय खोजेगा। वह सैडिस्ट हो ही जाएगा। एक बड़े मजे की बात है कि अगर मैं दुख वरन करूं और दुखी हो जाऊं, तो मैं चाहूंगा कि मैं तुमको भी दुखी करूं। दुखी आदमी दूसरे को दुखी ही कर सकता है। जो उसके पास है वही वह दूसरे को दे सकता है।
ओशो, सहज मिले अविनाशी-३

= ८५ =

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*दादू मुख की ना गहै, हिरदै की हरि लेइ ।*
*अन्तर सूधा एक सौं, तो बोल्याँ दोष न देइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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#नचिकेता को दिखाई पड़ने लगा। उपनिषद का ऋषि कहता है, नचिकेता में श्रद्धा का आवेश हो गया। असल में भोलापन श्रद्धा है। सरलता श्रद्धा है। नचिकेता कोई तर्क नहीं कर सकता, लेकिन तर्क की कोई जरुरत नहीं है। एक छोटे बच्चे को भी यह दिखाई पद रहा है कि इस गाय में से दूध तो निकलता नहीं है, इसे दान क्यों किया जा रहा है ?
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बाप नाराज होगा ही। क्योंकि यह बात चुभने वाली है। यह घाव को छूना है। बेटे अक्सर घाव को छू देते हैं। यह बाप को चुभने वाली बात है। यह तो बाप भी जानता है कि यह दूध नहीं देती, इसीलिए तो दान दे रहा है। अगर दूध अभी बाकी होता तो बाप ने दान दिया ही नहीं होता। बाप इतना नासमझ नहीं है, जितना नचिकेता है।
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शुद्ध आँख के लिए एक तरह की नासमझी चाहिए। समझदारी चालक हो जाती है। इसीलिए दुनिया जितनी समझदार होती जाती है, उतनी चालक होती जाती है। लोग मुझसे कहते हैं कि विश्वविद्यालयों से इतने लोग निकलते हैं पढ़-लिखकर तो दुनिया में चालाकी घटनी चाहिए, वह बढ़ रही है ! मैं कहता हूँ वह बढ़ेगी ही।
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क्योंकि समझदारी से चालाकी बढ़ती है, घटती नहीं। जब एक आदमी गणित ठीक-ठीक करने लगता है, तर्क ठीक-ठीक बिठाने लगता है, तो चालाकी बढ़ेगी, घटेगी नहीं। दुनिया जितनी सार्वभौम रूप से शिक्षित होगी, उतनी सार्वभौम रूप से चालक और कनिंग हो जाएगी। हो गई है। किसी भी व्यक्ति को शिक्षित कर दें और फिर भी वह भोला रह जाए तो समझें कि संत है। शिक्षित होते ही भोलापन खो जाता है।
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यह बाप भी जानता है; बाप होशियार है। गणित जानता है। वह जानता है कि गाय को दान ही तब देना, जब दूध समाप्त हो जाए। तो गाय के खोने से कुछ खोता भी नहीं और दान देने से कुछ मिलता है। दान दिया, यह वह परमात्मा के सामने खड़े होकर कहेगा कि हजार गौवें दान कर दीं।
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लेकिन तुम एक छोटे बच्चे को धोखा नहीं दे पा रहे हो, उस परमात्मा को धोखा दे पाओगे ? नचिकेता को लगा कि यह क्या हो रहा है ? इन जराशीर्ण गायों को देखकर उसमें आस्तिकता का उदय हुआ, भोलेपन का उदय हुआ, चालाकी का नहीं।
ओशो; कठोपनिषद

= ८४ =

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*सत्संगति मगन पाइये,*
*गुरु प्रसादैं राम गाइये ॥*
*आकाश धरणी धरीजे,*
*धरणी आकाश कीजे,*
*शून्य माहिं निरख लीजे ॥*
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*साभार ~ @Krishna Krishna*
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*एकांत..*

वही व्यक्ति स्वयं के भीतर पहुंच सकता है, जो नितांत अकेला होने को राजी हो। और वहां हमारी छाती कंपती है। हम भीड़-भाड़ के आदी हैं। हमें संगी-साथी चाहिए। जरा अकेले छूट जाते हैं, बेचैनी होती है। अकेलापन काटता है। अखबार पढ़ने लगते हैं, रेडियो खोल कर बैठ जाते हैं, टेलीविजन देखने लगते हैं। रोटरी-क्लब चले, लायंस-क्लब चले। होटल में जाकर बैठ जाएंगे। कुछ करेंगे। कहीं उलझाएंगे अपने को। क्षण भर अपने को अकेला न छोड़ेंगे।
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और जो अपने को अकेला नहीं छोड़ सकता, वह कभी अपने को पहचान न सकेगा। और अपने को इतना अकेला छोड़ना होता है कि व्यक्ति तो रह ही न जाएं, विचार भी न रह जाएं, वासनाएं भी न रह जाएं, स्मृतियां भी न रह जाएं। भीतर कोई धुआं न रह जाए, कोई ऊहापोह न रह जाए। भीतर बिलकुल ही सन्नाटा छा जाए। यूं गहन सन्नाटा, ऐसी चुप्पी, कि टूटे न टूटे ! तब कहीं कोई अपने में डुबकी लगा पाता है। और तब पहचान होती है। उस पहचान के बाद जीवन में क्रांति हो जाती है।
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तुम ठीक कहते हो पार्थ प्रीतम: ‘ढूंढता हुआ तुम्हें पहुंच गया कहां-कहां !’
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वह आसान था। सभी यही कर रहे हैं। चल पड़े हैं, खोज में निकले हैं। ऐसे मन को सांत्वना भी मिलती रहती है कि हम खोजी हैं। कोई शास्त्रों में खोज रहा है, कोई सत्यों को सिद्धांतों में खोज रहा है, कोई शब्दों की जोड़-तोड़ में खोज रहा है, कोई तर्कों के जाल में खोज रहा है। कोई पूजा में, पाठ में, अंधविश्वासों में, तरह-तरह की धारणाओं में। सभी खोजी हैं इस अर्थ में। मगर शून्य में कोई भी नहीं खोज रहा है। क्योंकि जो शून्य में खोजता है, तत्क्षण पा जाता है। शून्य में खोजने का अर्थ होता है: खोजने वाला ही मिट जाए, तब खोज पूरी होती है।
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यह खोज बड़ी अनूठी है। यह खोज बड़ी विरोधाभासी है। यह यूं है जैसे पानी की बूंद सागर में उतर जाए। देखा है कभी सुबह-सुबह ओस की बूंद को कमल के पत्तों पर सूरज की रोशनी में चमकते हुए ? अब सरकी तब सरकी ! महावीर ने तो कहा ही है: आदमी का जीवन ऐसे है जैसे ओस की बूंद, घास के तिनके पर सधी; जरा सा झोंका हवा का आया कि गई। जरा पत्ता कंपा कि झील में डूब जाएगी। यूं मृत्यु तो तुम्हें डुबा ही लेगी। मृत्यु के पहले जो डूब सकता है, वही साहसी है, वही संन्यासी है।

ओशो ~ साहेब मिल साहेब भये, प्रवचन 5

शनिवार, 16 नवंबर 2024

= ८३ =

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*यहु मन बहु बकबाद सौं, बाय भूत ह्वै जाइ ।*
*दादू बहुत न बोलिये, सहजैं रहै समाइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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निरंतर बात करने की आदत से ऐसा लगता है कि जब हम मौन हो रहे हैं तो हम उन लोगों के प्रति कठोर हो रहे हैं जिनसे हम बात करते थे, लेकिन शायद ही आपको स्मरण आया होगा कि आपने अपने को छोड़ कर और कभी किसी से बात नहीं की है। जब आप दूसरे से बात करते हैं तो दूसरा सिर्फ बहाना है। जो बात आपको करनी है वही आप करते हैं और अगर आपको अकेले में छोड़ दिया जाए जहां कोई भी न हो तो आप दीवालों से वही बात शुरू कर देंगे।
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दूसरे लोग खूंटियों की तरह हैं जिन पर हम अपनी बातें टांग देते हैं। वे केवल बहाने हैं, उनसे कोई प्रयोजन नहीं है। एक आदमी सुबह से अखबार पढ़ लेता है और फिर तलाश में घूमता है कि कोई खूंटी मिल जाए, उसने जो पढ़ लिया है वह उससे बोल कर बता सके। और दिन भर हर आदमी पर खूंटी का प्रयोग करता है और टांगता चला जाता है।
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दूसरे आदमियों से बात करके हम उनके प्रति कोई करुणा और प्रेम जाहिर करते हों, तो यह गलत है खयाल। लेकिन मौन की गहराई में उतर कर जरूर ऐसा हो सकता है कि हमारे पास करने को कोई बात न रह जाए, टांगने को कोई बात न रह जाए। तब दूसरा व्यक्ति महत्वपूर्ण हो सकता है और हम उसके हित के लिए कुछ कह सकते हैं।
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दूसरे के हित के लिए जगत में जो भी विचार पैदा हुए हैं वे सदा मौन से पैदा हुए हैं। विचारों और बातों से भरे हुए लोग दूसरे का सिर्फ साधन की तरह उपयोग करते हैं। दूसरे की मौजूदगी में वह जो कचरा उनके दिमाग में भरा हुआ है उसे उड़ेलने की कोशिश करते हैं। दूसरा केवल टोकरी का काम करता है, खूंटी का काम करता है। दूसरे का इससे ज्यादा उपयोग नहीं है। नहीं, आप बात करके दूसरे के प्रति करुणा और प्रेम प्रकट नहीं करते हैं, लेकिन मौन की स्थिति में कभी यह हो सकता है कि आपको दूसरा दिखाई पड़े। उसका हित दिखाई पड़े, उसके लिए क्या जरूरी है यह दिखाई पड़े।
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अभी तो आपको क्या कहना आवश्यक है, आप महत्वपूर्ण हैं कहते समय, दूसरा नहीं। कभी आपने बातचीत करते समय खयाल किया है, जब दूसरा बोल रहा होता है तब आप केवल बहाना करते हैं कि मैं सुन रहा हूं। भीतर आप तैयारी करते हैं कि यह कब बंद हो जाए और मैं बोलना शुरू करूं। आप सिर्फ तलाश में होते हैं कि कब वह मौका मिल जाए कि मैं इसे बंद करूं और बोलूं।

ओशो; प्रभु की पगडंडियां--(प्रवचन--3)

= ८२ =

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*जब मैं रहते की रह जानी ।*
*भरम कर्म मोह नहिं ममता, वाद विवाद न जानूं ।*
*मोहन सौं मेरी बन आई, रसना सोई बखानूं ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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*कोउ कहे हरिदास हमारे जु यौं करि ठानत वाद-विवादू।*
#सुंदरदास कह रहे हैं: कबीर मिल गए, फिर क्या वाद-विवाद ? फिर पियो, फिर नाचो, फिर उत्सव मनाओ ! भर्तृहरि मिल गए, कि आदिनाथ, अब कहां उपद्रव में पड़े हो ? मंदिर अपनी ताकत लगा रहा है मस्जिद से लड़ने में। मस्जिद ताकत लगा रही है मंदिर से लड़ने में। नाचोगे कब ? प्रार्थना कब ? प्रार्थना कब होगी ? गाली-गलौज जारी है। मंदिरवाले मस्जिद को गाली दे रहे हैं, मस्जिदवाले मंदिर को गाली दे रहे हैं।
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प्रार्थना कब करोगे ? और ये गालियां जिन ओठों से निकल रही हैं, इन पर प्रार्थना आएगी कैसे ? ये ओंठ प्रार्थना के पात्र ही नहीं रह गए। सुंदरदास कहते हैं: और तौ संत सबै सिरि ऊपर। सुंदरदास कहते हैं कि मेरे सब संतों को नमस्कार ! मेरे सिर ऊपर! और तो संत सबै सिरि ऊपर। मेरे प्रणाम उनको। मेरे प्रणम्य हैं, मेरे वंदनीय हैं, लेकिन द्वार तो मुझे दादू से खुला है। सुंदर के उर है गुरु दादू।
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इसलिए इतना कहूंगा। विवाद नहीं है। फर्क समझना इस बात को। यह फर्क महत्वपूर्ण है। वे ये नहीं कह रहे हैं--कबीर गलत हैं। वे कहते हैं--मेरे प्रणम्य हैं, मेरे प्रमाण उनको। मगर रही जहां तक मेरी बात, मेरे दादू ने ही मुझे परमात्मा से मिलाया। यह मेरा दरवाजा है। जिनके लिए कबीर दरवाजे हैं, वे धन्यभागी हैं, वे उस द्वार से प्रवेश करें। मुझे मंदिर में मिला, मुझे मस्जिद में मिला कि गुरुद्वारे में। जिन्हें और कहीं मिल गया, मिला बस, यही बात सच है। यही बात काम की है। विवाद कुछ भी नहीं है। साधु चित्त का लक्षण है: विवाद का अभाव।
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और तो संत सबै सिरि ऊपर, सुंदर कै उर है गुरु दादू॥
लेकिन इतना निवेदन कर देते हैं कि सबके लिए मेरा सिर झुका है, लेकिन जहां तक मेरे हृदय की बात है, वहां दादू विराजमान हैं। मगर दादू विराजमान हो गए, कि दादू में सब विराजमान हो गए। नानक, कबीर, कृष्ण, क्राइस्ट--सब विराजमान हो गए। क्योंकि गुरुओं के रंग-ढंग कितने ही अलग हों, उनकी गुरुता एक है, उनके भीतर की महिमा एक है। जिसने एक को जाना, उसने सबको जान लिया।
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तुम एक सदगुरु से संबंध जोड़ लो, तुम्हारे सब सदगुरुओं से संबंध जुड़ गए। फिर विवाद संभव नहीं है। विवाद की फुर्सत किसे है ! ऊर्जा जब नाचने को हो गई, समय जब वसंत का आ गया, फिर कौन विवाद करता है !
ओशो; हरि बोलो हरि बोल--प्रवचन--09

= ८१ =

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*दादू खेल्या चाहै प्रेम रस, आलम अंगि लगाइ ।*
*दूजे को ठाहर नहीं, पुहुप न गंध समाइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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*अहिंसा का गहन अर्थ यही है--अनुपस्थित व्यक्तित्व*
#महावीर की अहिंसा का यह अर्थ नहीं है कि दूसरे को दुख मत देना, क्योंकि महावीर तो कहते ही यह हैं कि दूसरे को न कोई दुख दे सकता है और न कोई सुख दे सकता है। महावीर की अहिंसा का यह भी अर्थ नहीं है कि दूसरे को मारना मत, मार मत डालना। क्योंकि महावीर भलीभांति जानते हैं कि इस जगत में कौन किसको मार सकता है, मार डाल सकता है। महावीर से ज्यादा बेहतर और कौन जानता होगा यह कि मृत्यु असंभव है। मरता नहीं कुछ।
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तो महावीर का यह मतलब तो कतई नहीं हो सकता कि मारना मत, मार मत डालना किसी को। क्योंकि महावीर तो भलीभांति जानते हैं। और अगर इतना भी नहीं जानते तो महावीर के महावीर होने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। लेकिन महावीर के पीछे चलने वाले बहुत साधारण....साधारण परिभाषाओं का ढेर इकट्ठा कर दिये हैं। कहते हैं, अहिंसा का अर्थ यह है कि मुंह पर पट्टी बांध लेना। कि अहिंसा का अर्थ यह है कि संभलकर चलना कि कोई कीड़ा न मर जाए, कि रात पानी मत पी लेना, कि कहीं कोई हिंसा न हो जाए।
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यह सब ठीक है। मुंह पर पट्टी बांधना कोई हर्जा नहीं है, पानी छानकर पी लेना बहुत अच्छा है। पैर संभालकर रखना, यह भी बहुत अच्छा है, लेकिन इस भ्रम में नहीं कि आप किसी को मार सकते थे। इस भ्रम में नहीं। मत देना किसी को दुख, बहुत अच्छा है। लेकिन इस भ्रम में नहीं कि आप किसी को दुख दे सकते थे। मेरे फर्क को आप समझ लेना। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप जाना और मारना और काटना; क्योंकि मार तो कोई सकते ही नहीं हैं यह मैं नहीं कह रहा हूं !
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महावीर की अहिंसा का अर्थ ऐसा नहीं है। महावीर की अहिंसा का अर्थ ठीक वैसा है जैसे बुद्ध के तथाता का। इसे थोड़ा समझ लें। महावीर की अहिंसा का अर्थ वैसा ही है जैसे बुद्ध के तथाता का। तथाता का अर्थ होता है टोटल एक्सेप्टेबिलिटी, जो जैसा है वैसा ही हमें स्वीकार है। हम कुछ हेर-फेर न करेंगे।
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अब एक चींटी चल रही है रास्ते पर, हम कौन हैं जो उसके रास्ते में किसी तरह का हेर-फेर करने जाएं ? अगर मेरा पैर भी पड़ जाए तो मैं उसके मार्ग पर हेर-फेर करने का कारण और निमित्त तो बन जाता है। और मार्ग बहुत है। वह चींटी अभी जाती थी। अपने बच्‍चों के लिए शायद भोजन जूटाने जा रही थी। पता नहीं उसकी अपनी योजनाओ का जगत हे। मैं उसके बीच में न आ जाऊं। ऐसा नहीं है कि न आने से मैं बच जाऊंगा। फिर भी आ सकता हूं।
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लेकिन महवीर कहते है मैं उसकी तरफ से बीच में न आऊं। जरूरी नहीं है कि मैं ही चींटी पर पैर रखूं, तब वह मरे। चींटी खुद मेरे पैर के नीचे आकर मर सकती है। वह चींटी जाने, वह उसकी योजना जाने। महावीर जानते हैं कि यह जीवन के पथ पर प्रत्येक अपनी योजना में संलग्न है। वह योजना छोटी नहीं है। वह योजना बड़ी है, जन्मों- जन्मों की है। वह कर्मो का बड़ा विस्तार है उसका।
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उसका अपने कर्मों की, फलों की लंबी यात्रा है। मैं किसी की यात्रा पर किसी भी कारण से बाधा न बनूं। मैं चुपचाप अपनी पगडंडी पर चलता रहूं। मेरे कारण निमित्त के लिए भी किसी के मार्ग पर कोई व्यवधान खड़ा न हो। मैं ऐसा हो जाऊं, जैसे हूं ही नहीं। अहिंसा का महावीर का अर्थ है कि मैं ऐसा हो जाऊं, जैसे मैं हूं ही नहीं। यह चींटी यहां से ऐसे ही गुजर जाती है जैसे कि मैं इस रास्ते पर चला ही नहीं था, और ये पक्षी इन वृक्षों पर ऐसे ही बैठे रहते हैं जैसे कि मैं इन वृक्षों के नीचे बैठा ही नहीं था। ये लोग, इस गांव के, ऐसे ही जीते रहते जैसे मैं इस गांव से गुजरा ही नहीं था । जैसे मैं नहीं हूं।
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महावीर का गहनतम जो अहिंसा का अर्थ है, वह है एब्सेंस, जैसे मैं नहीं हूं। मेरी प्रजेंस कहीं अनुभव न हो, मेरी उपस्थिति कहीं प्रगाढ़ न हो जाए, मेरा होना कहीं किसी के होने में जरा-सा भी अड़चन, व्यवधान न बने। मैं ऐसे हो जाऊं जैसे नहीं हूं। मैं जीते जी मर जाऊं मैं जीते जी मर जाऊं। हमारी सबकी चेष्टा क्या है ? अब इसे थोड़ा समझें तो हमें खयाल में आसानी से आ जाएगा, पर बहुत से आयाम से समझना पड़ेगा। हम सबकी चेष्टा क्या है कि हमारी उपस्थिति अनुभव हो, दूसरा जाने कि मैं हूं, मौजूद हूं।
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हमारे सारे उपाय हैं कि हमारी उपस्थिति प्रतीत हो। इसलिए राजनीति इतनी प्रभावी हो जाती है। क्योंकि राजनीतिक ढंग से आपकी उपस्थिति जितनी प्रतीत हो सकती है और किसी ढंग से नहीं हो सकती है। इसलिए राजनीति पूरे जीवन पर छा जाती है। अगर हम राजनीति का ठीक-ठीक अर्थ करें तो उसका अर्थ है, इस बात की चेष्टा कि मेरी उपस्थिति अनुभव हो। मैं कुछ हूं, मैं नाकुछ नहीं हूं। लोग जानें, मैं चुभूं, मेरे कांटे जगह-जगह अनुभव हों, लोग ऐसे न गुजर जाएं कि जैसे मैं नहीं था। और महावीर कहते हैं कि मैं ऐसे गुजर जाऊं कि पता चले कि मैं नहीं था, था ही नहीं।
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अब अगर हम इसे ठीक से समझें-- उपस्थिति अनुभव करवाने की कोशिश का नाम हिंसा है, वायलेंस है। और जब भी हम किसी को कोशिश करवाते हैं अनुभव करवाने की कि मैं हूं, तभी हिंसा होती है। चाहे पति अपनी पत्नी को बतला रहा हो कि समझ ले कि मैं हूं, चाहे पत्नी समझा रही हो कि क्या तुम समझ रहे हो कि कमरे में अखबार पढ़ रहे हो तो तुम अकेले हो! मैं यहां हूं। पत्नी अखबार की दुश्मन हो सकती है क्योंकि अखबार आड़ बन सकता है, उसकी अनुपस्थिति हो जाती है। अखबार को फाड़कर फेंक सकती है। किताबें हटा सकती है। रेडियो बंद कर सकती है।
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और पति बेचारा इसलिए रेडियो खोले है, अखबार आड़ा किये हुए है कि कृपा करके तुम्हारी उपस्थिति अनुभव न हो। हम सब इस चेष्टा में लगे हैं कि मेरी उपस्थिति दूसरे को अनुभव हो और दूसरे की उपस्थिति मुझे अनुभव न हो। यही हिंसा है। और यह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। 
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जब मैं चाहूंगा कि मेरी उपस्थिति आपको पता चले, तो मैं यह भी चाहूंगा कि आपकी उपस्थिति मुझे पता न चले क्योंकि दोनों एक साथ नहीं हो सकते। मेरी उपस्थिति आपको पता चले, वह तभी पता चल सकती है जब आपकी उपस्थिति को मैं ऐसे मिटा दूं, जैसे है ही नहीं। हम सबकी कोशिश यह है कि दूसरे की उपस्थिति मिट जाए और हमारी उपस्थिति सघन, कंडेंस्ड हो जाए। यही हिंसा है।
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अहिंसा इसके विपरीत है। दूसरा उपस्थित हो और इतनी तरह उपस्थित हो कि मेरी उपस्थिति से उसकी उपस्थिति में कोई बाधा न पड़े। मैं ऐसे गुजर जाऊं भीड़ से कि किसी को पता भी न चले कि मैं था। अहिंसा का गहन अर्थ यही है -- अनुपस्थित व्यक्तित्व। इसे हम ऐसा कह सकते हैं और महावीर ने ऐसा कहा है -- अहंकार हिंसा है और निरहंकारिता अहिंसा है। मतलब वही है -- वह दूसरे को अपनी उपस्थिति प्रतीत करवाने की जो चेष्टा है।
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कितनी कोशिश में हम लगे हैं, शायद सारी कोशिश यही है -- ढंग कोई भी हों। चाहे हम हीरे का हार पहनकर खड़े हो गये हों और चाहे हमने लाखों के वस्त्र डाल रखे हों और चाहे हम नग्न खड़े हो गये हों -- कोशिश यही है, क्या, कि दूसरा अनुभव करे कि मैं हूं। मैं चैन से न बैठने दूंगा। तुम्हें मानना ही पड़ेगा कि मैं हूं। महावीर की अहिंसा का अर्थ अगर हम गहरे में खोलें, गहरे में उघाड़ें, उसकी डेप्थ में, तो उसका यह अर्थ है कि जो है उसके लिए हम राजी हैं। हिंसा का कोई सवाल नहीं है, कोई बदलाहट नहीं है, कोई बदलाहट नहीं करनी है।
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आपने चांटा मार दिया, ठीक है। हम राजी हैं, हमें अब और कुछ भी नहीं करना है, बात समाप्त हो गयी। हमारा कोई प्रत्युत्तर नहीं। इतना भी नहीं जितना जीसस का है। जीसस कहते हैं, दूसरा गाल सामने कर दो। महावीर इतना भी नहीं कहते कि जो चांटा मारे, तुम दूसरा गाल उसके सामने करना, क्योंकि यह भी एक उत्तर है। एक "सार्ट आफ आंसर' है। है तो उत्तर-- चांटा मारना भी एक उत्तर है, दूसरा गाल कर देना भी एक उत्तर है। लेकिन तुम राजी न रहे, बात जितनी थी उतने से तुमने कुछ न कुछ किया।
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महावीर कहते हैं-- करना ही हिंसा है, कर्म ही हिंसा है। अकर्म अहिंसा है। चांटा मार दिया है, ठीक है जैसे एक वृक्ष से सूखा पत्ता गिर गया है। ठीक है, आप अपनी राह चले गये। एक आदमी ने चांटा मार दिया, आप अपनी राह चले गये। एक आदमी ने गाली दी, आपने सुनी और आगे बढ़ गये। क्षमा भी करने का सवाल नहीं है ... क्योंकि वह भी कृत्य है। कुछ करने का सवाल नहीं है। पानी में उठी लहर और अपने-आप बिखर जाती है। ऐसा ही चारों तरफ लहरें उठती रहेंगी कर्म की, बिखरती रहेंगी। तुम कुछ मत करना। तुम चुपचाप गुजरते जाना। पानी में लहर उठती है, मिटानी तो नहीं पड़ती, अपने से आप मिट जाती है।
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इस जगत में जो तुम्हारे चारों तरफ हो रहा है, उसे होते रहने देना है, वह अपने से उठेगा और गिर जाएगा। उसके उठने के नियम हैं, उसके गिरने के नियम हैं, तुम व्यर्थ बीच में मत आना। तुम चुपचाप दूर ही रह जाना। तुम तटस्थ ही रह जाना। तुम ऐसा ही जानना कि तुम नहीं थे।
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जब कोई चांटा मारे तब तुम ऐसे हो जाना कि तुम नहीं हो, तो उत्तर कौन देगा। गाल भी कौन करेगा, गाली कौन देगा, क्षमा कौन करेगा ? तुम ऐसा जानना कि तुम नहीं हो। तुम्हारी एब्सेंस में, तुम्हारी अनुपस्थिति में जो भी कर्म की धारा उठेगी वह अपने से पानी में उसकी लहर की तरह खो जाएगी। तुम उसे छूने भी मत जाना। हिंसा का अर्थ है, मैं चाहता हूं, जगत ऐसा हो।
ओशो; महावीर वाणी-(प्रवचन-04)

= ८० =

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*दादू मन चित आतम देखिये, लागा है किस ठौर?*
*जहँ लागा तैसा जाणिये, का देखै दादू और ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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*गुरु नानक जयंती की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं*
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#नानक एक मुसलमान नवाब के घर मेहमान थे। नानक को क्या हिंदू क्या मुसलमान ! जो ज्ञानी है, उसके लिए कोई संप्रदाय की सीमा नहीं। उस नवाब ने नानक को कहा कि अगर तुम सच ही कहते हो कि न कोई हिंदू न कोई मुसलमान, तो आज शुक्रवार का दिन है, हमारे साथ नमाज पढ़ने चलो। नानक राजी हो गए। पर उन्होंने कहा कि अगर तुम नमाज पढ़ोगे तो हम भी पढ़ेंगे। नवाब ने कहा, यह भी कोई शर्त की बात हुई ? हम पढ़ने जा ही रहे हैं।
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पूरा गांव इकट्ठा हो गया। मुसलमान-हिंदू सब इकट्ठे हो गए। हिंदुओं में तहलका मच गया। नानक के घर के लोग भी पहुंच गए कि यह क्या कर रहे हो ? लोगों को लगा कि नानक मुसलमान होने जा रहे हैं। लोग अपने भय से ही दूसरों को भी तौलते हैं। नानक मस्जिद गए। नमाज पढ़ी गई।
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नवाब बहुत नाराज हुआ। बीच-बीच में लौट-लौट कर देखता था कि नानक न तो झुके, न नमाज पढ़ी। बस खड़े हैं। जल्दी-जल्दी नमाज पूरी की, क्योंकि क्रोध में कहीं नमाज हो सकती है! करके किसी तरह पूरी, नानक पर लोग टूट पड़े। और उन्होंने कहा, तुम धोखेबाज हो। कैसे साधु, कैसे संत ! तुमने वचन दिया नमाज पढ़ने का और तुमने की नहीं।
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नानक ने कहा, वचन दिया था, शर्त आप भूल गए। कहा था कि अगर आप नमाज पढ़ोगे तो मैं पढूंगा। आपने नहीं पढ़ी तो मैं कैसे पढ़ता ? नवाब ने कहा, क्या कह रहे हो ? होश में हो ? इतने लोग गवाह हैं कि हम नमाज पढ़ रहे थे। नानक ने कहा, इनकी गवाही मैं नहीं मानता, क्योंकि मैं आपको देख रहा था भीतर क्या चल रहा है। आप काबुल में घोड़े खरीद रहे थे।
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नवाब थोड़ा हैरान हुआ; क्योंकि खरीद वह घोड़े ही रहा था। उसका अच्छे से अच्छा घोड़ा मर गया था उसी दिन सुबह। वह उसी की पीड़ा से भरा था। नमाज क्या खाक ! वह यही सोच रहा था कि कैसे काबुल जाऊं, कैसे बढ़िया घोड़ा खरीदूं, क्योंकि वह घोड़ा बड़ी शान थी, इज्जत थी।
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और नानक ने कहा, यह जो मौलवी है तुम्हारा, जो पढ़वा रहा था नमाज, यह खेत में अपनी फसल काट रहा था। और यह बात सच थी। मौलवी ने भी कहा कि बात तो यह सच है। फसल पक गयी है और काटने का दिन आ गया है, गांव में मजदूर नहीं मिल रहे हैं और चिंता मन पर सवार है। तो नानक ने कहा, अब तुम बोलो, तुमने नमाज पढ़ी जो मैं साथ दूं ?
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तुम जबर्दस्ती नमाज पढ़ लो, तुम जबर्दस्ती ध्यान कर लो, तुम जबर्दस्ती पूजा-प्रार्थना कर लो, क्या तुम कर रहे हो इसका कोई मूल्य नहीं है। क्या तुम्हारे भीतर चल रहा है ? तुम पत्थर की मूर्ति की तरह बैठ जाओ, इससे क्या होगा ? शरीर को साध लोगे, इससे क्या मन सधेगा ? मन में तो वही चलता रहेगा जो चल रहा था। और भी जोर से चलेगा। क्योंकि जब शरीर काम में लगा था तो शक्ति बंटी थी। अब शरीर बिलकुल निष्क्रिय है, सारी शक्ति मन को मिल गई। अब मन में और जोर से विचार उठेंगे।
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इसलिए लोग जब भी ध्यान करने बैठते हैं तब ज्यादा विचार उठते हैं। पूजा करने बैठते हैं तब बाजार का बहुत खयाल आता है। जब भी बैठते हैं, घंटी वगैरह बजाते हैं मंदिर में जा कर, तभी पाते हैं कि भीतर न मालूम क्या खराबी है ! ऐसे सब ठीक चलता है। सिनेमा में बैठ जाएं, मौन आ जाता है। थोड़ी शांति हो जाती है। लेकिन मंदिर-मस्जिद में, गुरुद्वारे में बिलकुल शांति नहीं।

ओशो; एक ओंकार सतनाम

= ७९ =

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*दादू बँध्या जीव है, छूटा ब्रह्म समान ।*
*दादू दोनों देखिये, दूजा नांही आन ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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मनुष्य के पास विवेक है, लेकिन बंधन में है ! और जिसका विवेक बंधन में है, वह सत्य तक नहीं पहुंच सकता। हमें सोच लेना है-एक-एक व्यक्ति को सोच लेना है कि हमारा विवेक बंधन में तो नहीं है ? अगर मन में कोई भी सम्प्रदाय है, तो विवेक बंधन में है। अगर मन में कोई भी शास्त्र है, तो विवेक बंधन में है। अगर मन में कोई भी महात्मा है, तो विवेक बंधन में है। 
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और जब मैं ऐसा कहता हूं तो लोग सोचते हैं, शायद मैं महात्माओं और महापुरुषों के विरोध में हूं। मैं किसी के विरोध में क्यों होने लगा ? मैं किसी के भी विरोध में नहीं हूं। बल्कि सारे महापुरुषों का काम ही यही रहा है कि आप बंध न जायें। सारे महापुरुषों की आकांक्षा यही रही है कि आप बंध न जायें। और जिस दिन आपके बंधन गिर जायेंगे, तो आपको पता चलेगा कि आप भी वही हो जाते हैं, जो महापुरुष हो जाते हैं।

महापुरुष मुक्त हो जाता है, और हम अजीब पागल लोग हैं, हम उसी मुक्त महापुरुष से बंध जाते हैं ! समस्त वाद बांध लेते हैं। वाद से छूटे बिना जीवन में क्रांति नहीं हो सकती। लेकिन यह खयाल भी नहीं आता कि हम बंधे हुए लोग हैं।
ओशो

बुधवार, 13 नवंबर 2024

*(४)गुह्य कथा*

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*दादू देखौं निज पीव को, और न देखौं कोइ ।*
*पूरा देखौं पीव को, बाहिर भीतर सोइ ॥७५॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(४)गुह्य कथा*
श्रीरामकृष्ण अर्न्तर्मुख हैं । पास ही हीरानन्द और मास्टर बैठे हैं । कमरे में सन्नाटा छाया हुआ है । श्रीरामकृष्ण की देह में घोर पीड़ा हो रही है । भक्तगण जब एक-एक बार देखते हैं, तब उनका हृदय विदीर्ण हो जाता है । परन्तु श्रीरामकृष्ण ने सब को दूसरी बातों में डालकर उधर से मन हटा रखा है । बैठे हुए हैं, श्रीमुख से प्रसन्नता टपक रही है ।
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भक्तों ने फूल और माला लाकर समर्पण किया है। फूल लेकर कभी सिर पर चढ़ाते हैं, कभी हृदय से लगाते हैं, जैसे पाँच वर्ष का बालक फूल लेकर क्रीड़ा कर रहा हो । जब ईश्वरी भाव का आवेश होता है, तब श्रीरामकृष्ण कहा करते हैं कि शरीर में महावायु ऊर्ध्वगामी हो रही है । महावायु के चढ़ने पर ईश्वरानुभव होता है । यह बात सदा वे कहा करते हैं । अब श्रीरामकृष्ण मास्टर से बातचीत कर रहे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - वायु कब चढ़ गयी, मुझे मालूम भी नहीं हुआ ।
“इस समय बालकभाव है, इसीलिए फूल लेकर इस तरह किया करता हूँ । क्या देख रहा हूँ, जानते हो ? शरीर मानो बाँस की कमानियों का बनाया हुआ है और ऊपर से कपड़ा लपेट दिया गया है । वही मानो हिल रहा है । भीतर कोई है इसीलिए हिल रहा है ।”
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“जैसे बिना बीज और गूदे का कद्दू । भीतर कामादि आसक्तियाँ नहीं हैं, सब साफ है । और –”
श्रीरामकृष्ण को बातचीत करते हुए कष्ट हो रहा है । बहुत ही दुर्बल हो गये हैं । वे क्या कहने जा रहे हैं इसका अनुमान लगाकर मास्टर शीघ्र ही कह उठे - “और भीतर आप ईश्वर को देख रहे हैं ।”
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श्रीरामकृष्ण - भीतर बाहर दोनों जगह देख रहा हूँ - अखण्ड सच्चिदानन्द ।
सच्चिदानन्द इस शरीर का आश्रय लेकर इसके भीतर भी हैं और बाहर भी । यही मैं देख रहा हूँ ।
मास्टर और हीरानन्द यह ब्रह्मदर्शन की बात सुन रहे हैं । कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण उनकी ओर सस्नेह दृष्टि करके बातचीत करने लगे ।
(क्रमशः)

*श्री रज्जबवाणी, भजन प्रताप का अंग ११*

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*फल पाका बेली तजी, छिटकाया मुख मांहि ।*
*सांई अपना कर लिया, सो फिर ऊगै नांहि ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*अथ भजन प्रताप का अंग ११*
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केले को नाश भयो फल लागत,
कागज नाश भयो फल पाये ।
पाप को नाश भयो पुण्य ऊगत,
बीछिनि नाश भयो सुत जाये ॥
फूल को नाश भयो फल आवत,
रैन को नाश भयो दिन आये ।
हो तैसे ही नाश भये जन रज्जब,
जामन मरन जगतपति ध्याये१ ॥१॥
भगवद् भजन का प्रताप दिखा रहे हैं -
फल लगने पर केले को काट दिया जाता है, इससे वह नष्ट हो जाता है । कागज में लिखित कार्य पूरा हो जाना रूप फल प्राप्त होने पर कागज फाड़ दिया जाता है, इससे वह नष्ट हो जाता है ।
पुण्य उदय होने पर पाप नष्ट हो जाता है । बीछिनि की संतान उसका पेट फाड़ कर जन्मती है इससे से वो नष्ट हो जाती है ।
फल आते ही फूल नष्ट हो जाता है । दिन के आते ही रात्रि नष्ट हो जाती है ।
हे सज्जनो ! वैसे ही जगतपति प्रभु का स्मरण करने से जन्म मरण नष्ट हो जाते हैं ।
(क्रमशः)

*स्वात्मकथन ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*यहु घट बोहित धार में, दरिया वार न पार ।*
*भैभीत भयानक देखकर, दादू करी पुकार ॥*
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*स्वात्मकथन ॥*
मेरा मन यौं डरै रे, अैसा डरै न कोइ ।
अबही तैं डरता रहौं, ज्यूँ डर बहुरि न होइ ॥टेक॥
सुणौं नहीं संसार की रे, डरताँ कोई बाइ ।
कानि कथा हरि की करी, मति या बीसरि जाइ ॥
अब डरताँ बोलौं नहीं, और नहीं डर कोइ ।
रसना बाणी राम की, मति दूजी बाणी होइ ॥
पाणी पीवौं न अब डरौं रे, डर मेरा मन माहिं ।
हरि अखि्यर हिरदै लिख्या, मति वै धोया जाहिं ॥
इन बातनि थैं हूँ डर्यौ रे, सो तुम्ह करौ सहाइ ।
सरणैं राखौ रामजी, ज्यूँ बषनां का डर जाइ ॥२४॥
मेरा मन पूर्व में किये कुकर्मों पर विचार कर-करके भयंकर रूप से डरता है किन्तु संसार के अन्य लोग बिल्कुल डरते नहीं है । मैंने सद्गुरु महाराज का उपदेस सुनकर अब से ही डरना प्रारम्भ कर दिया है जिससे कि आगे पुनः न डरना पड़े ।
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मैं डरता हुआ संसार के संसारासक्त लोगों की कोई भी बाइ = बात अब सुनता नहीं हूँ क्योंकि मुझे डर है कि परमात्मा ने जो कान संसार की बातें न सुनने के लिये बनाकर हरि-कथा सुनने के लिये बनाये हैं, वे संसार की चिकनी-चुपड़ी बातों को सुनकर परमात्म-कथा सुनना न बंद कर दें ।
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अब मैं संसारियों से डर के कारण बोलता भी नहीं हूँ क्योंकि परमात्मा ने जो वाणी रामजी का गुणानुवाद गाने के लिये दी है वह रामजी का गुणानुवाद गाना छोड़कर संसारी = वाणी = संसार की बातें करने में न लग जाये ।
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मैं अब डर के कारण पानी भी नहीं पीता हूँ क्योंकि मेरे मन में डर है कि मेरे हृदय में जो राम-नाम अक्षर लिखे हुए हैं, वे कहीं धूल न जायें । बषनांजी कहते हैं, ऊपर कही हुई बातों के कारण में बहुत डरा हुआ हूँ ।
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अतः हे परम प्रियतम परमात्मा ! मेरी सहायता करो; मुझे अपनी शरण में रहने का स्थान दो जिससे मेरा डर चला जाये । गीता में सात्विक सम्पत्तियों की चर्चा करते समय सर्वप्रथम अभय को ही गिनाया गया है । जबतक भक्त/साधक के मन में भय विद्यमान रहेगा तब तक वह परमात्मा की ओर अनन्यभाव से मुड़ नहीं पायेगा । अतः भक्त का प्रथम लक्षण निर्भय = डर रहित होना है । (“अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोग व्यवस्थिति ।” १६/१)
(क्रमशः)

मंगलवार, 12 नवंबर 2024

*४४. रस कौ अंग ५३/५६*

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*४४. रस कौ अंग ५३/५६*
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प्रांणी पीवै प्रेम जल, तज्यौ बिषै रस आंन ।
कहि जगजीवन अलख पिछांणै, रांम कहौ गुरु ग्यांन ॥५३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीवात्मा प्रेम रुपी जल का पान करते हैं । वे सभी विषय त्यागते हैं । वे प्रभु को पहचान कर गुरु ज्ञान से प्रभु स्मरण ही करते हैं ।
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पंच बदन३ पंद्रह नयन, शिंभू देव सरीर३ ।
कहि जगजीवन हरि भगत, पीवै अम्रित नीर ॥५४॥
(३-३. पंच बदन ...सरीर-पुराणों के अनुसार शिव(आदिनाथ) देवता के शरीर में पाँच मुख एवं पन्द्रह नेत्र होते हैं ॥५४॥)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि आदि देव शिव के पांच मुख व पन्द्रह नैत्र हैं जो प्रभु भक्त हैं वे इस प्रकार दर्शन रुपी अमृत रस का पान करते हैं ।
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चत्रभुज४ मूरति बिष्नु तन, सात्विक रूप सरीर४ ।
कहि जगजीवन हरि भगत, पीवै अम्रित नीर ॥५५॥
(४-४. चत्रभुज...सरीर-पुराणों के अनुसार सात्त्विक रूप वाले विष्णु देवता का शरीर चार भुजाओं वाला होता है ॥५५॥)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि विष्णुजी चार भुजा धारी हैं । वे सात्विक हैं । प्रभु भक्त इस प्रकार ही उनके दर्शन अमृत जल का पान करते हैं ।
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च्यार१ बदन ब्रह्मा रचे, बांणी वेद सरीर१ ।
कहि जगजीवन वहाँ गुरु दादू, पीवै अम्रित नीर ॥५६॥
(१-१. च्यार बदन...सरीर-पुराणों के अनुसार वेदों के रचियता ब्रह्मा चतुर्मुख रूप में प्रसिद्ध है ॥५६॥)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि पुराणों के अनुसार ब्रह्मा ने चार मुख से चार वेद उच्चारण किये उस ज्ञान रुपी अमृतजल का पान हमारे गुरु महाराज दादू जी ने किया ।
(क्रमशः)

*संन्यासी भक्त*

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*दादू फिरता चाक कुम्हार का, यों दीसे संसार ।*
*साधुजन निहचल भये, जिनके राम अधार ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*संन्यासी भक्त*
*छप्पय-*
*भक्त भागवत धर्म रत, इते संन्यासी सब सिरे ॥*
*रामचन्द्रिका सुष्ठ, दमोदर तीरथ गाई ।*
*चितसुख टीका करी, सु भक्ति प्रधान बताई ॥*
*नृसिंहआरण्य चन्द्रोदय, हरि भक्ति बखानी ।*
*माधव मधुसूदन-सरस्वती, गीता गानी ॥*
*जगदानन्द प्रबोधानन्द, रामभद्र भव जल तिरे ।*
*भक्त भागवत धर्म रत, इते संन्यासी सब सिरे ॥३०४॥*
यह छप्पय मूल छप्पय २७० की संख्या में आ गया है, इसकी टीका वहाँ देखें । इससे सब भक्त संन्यासी होने से संन्यास दर्शन में पुनः दे दिया है ऐसा ही ज्ञात होता है । नहीं तो पुनरावृत्ति की क्या आवश्यकता थी ! ॥३०४॥
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*छप्पय-*
*सरल शिरोमणि सुधर्मी, इते संन्यासी भक्ति पक्ष ॥*
*माधव मोह विवेक, कियो भिन भिन कर न्यारो ।*
*मधुसूदन सरस्वती, मान मद तज्यो पसारो ॥*
*प्रबोधानन्द रत ब्रह्म, रामभद्र राम रच्यो है ।*
*जगदानन्द जगदीश भज, जन्म मरणादि बच्यो है ।*
*श्रीधर विष्णुपुरी विचित्र, जन राघव अन१ तज दूध भक्ष२ ।*
*सरल शिरोमणि सुधर्मी, इते संन्यासी भक्ति पक्ष ॥३०५॥*
इतने संन्यासी सरल स्वभाव, भक्ति पक्ष वाले संन्यासियों में शिरोमणि और श्रेष्ठ भागवतधर्म को धारण करने वाले हुए हैं । १. माधव सरस्वतीजी ने मोहविवेक ग्रन्थ रचा है । उसमें विभिन्न युक्तियों द्वारा प्राणियों को मोह से अलग करके भगवद्भक्ति में लगाने का प्रयास किया है ।
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२. मधुसूदन सरस्वतीजी ने अपने गुरु श्रीविश्वेश्वर सरस्वतीजी की कृपा से सन्मान और विद्यामद तथा राजा द्वारा दिया हुआ सर्वस्व त्याग दिया था । आप बड़े सिद्ध योगी थे ।
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वीरसिंह नामक राजा के संतान नहीं थी । उसे एक रात में स्वप्न में सुनाई दिया कि इन मधुसूदन यति की सेवा करो संतान हो जायगी । खोज करने से ज्ञात हुआ वे एक नदी तट पर पृथ्वी में समाधिस्थ हैं । खोजने पर समाधिस्थ संत मिले । राजा ने स्वप्न के रूप को मिला कर निश्चय किया कि यही मधुसूदन यति हैं ।
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राजा ने वहाँ एक मंदिर बनवा दिया । तीन वर्ष बाद आपकी समाधि टूटी तब राजा के दिये हुए संपूर्ण पसारे को त्याग कर आप तीर्थाटन को चल दिये । आपके विद्यागुरु माधव सरस्वती थे । आप मुगल सम्राट् शाहजहाँ के समय विद्यमान थे ।
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आपके १. सिद्धान्तविन्दु, २. संक्षेपशारीरिक की व्याख्या, ३. अद्वैतसिद्धि, ४. अद्वैतरत्नरक्षण, ५. वेदान्तकल्पलतिका, ६. गूढार्थदीपिका गीता की टीका, ७. प्रस्थानभेद, ८. महिम्नस्तोत्र की टीका, ९. भक्तिरसायन ग्रन्थ हैं । ३. प्रबोधानन्दजी ब्रह्मरत रहे हैं, इनकी कथा पद्य टीका ३७५ में आ गई है । ४. रामभद्रजी रामजी में ही अनुरक्त रहे हैं ।
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५. जगदानन्दजी जगदीश्वर का भजन करके जन्म मरणादि संसार दुःख से बचे हैं । ६. श्रीधरजी की कथा मूल छप्पय ३०३ और पद्म टीका ४२२ में आ गई है । ७ विष्णुपुरीजी भी विचित्र भक्त हो गये हैं । इनने अन्न छोड़ कर दूध का ही पान किया था । विष्णुपुरीजी की कथा मूल छप्पय २७१ और पद्य टीका ३७६ में आ गयी है ॥३०५॥
(क्रमशः)

सोमवार, 11 नवंबर 2024

= ७८ =

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*पीछे को पग ना भरे, आगे को पग देइ ।*
*दादू यहु मत शूर का, अगम ठौर को लेइ ॥*
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*साभार ~ @Gurcharan Singh Saluja*
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गिद्ध की प्रजाति का एक पक्षी है, नाम भूल रहा हूँ। वह अंडे देने के लिए किसी ऊंचे पर्वत की चोटी पर चला जाता है। जोड़ा वहीं अंडे देता है, मादा अंडों को सेती है, और एक दिन बच्चे अंडा तोड़ कर बाहर निकलते हैं। उसके अगले दिन सारे बच्चे घोसले से निकलते और नीचे गिर पड़ते हैं। एक दिन के बच्चे हजारों फिट की ऊंचाई से गिरते हैं। 
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नर-मादा इस समय सिवाय चुपचाप देखते रहने के और कुछ नहीं कर सकते, वे बस देखते रहते हैं। बच्चे पत्थरों से टकराते हुए गिरते हैं। कुछ ऊपर ही टकरा कर मर जाते हैं, कुछ नीचे गिर कर मर जाते हैं। उन्ही में से कुछ होते हैं जो एक दो बार टकराने के बाद पंखों पर जोर लगाते हैं और नीचे पहुँचने के पहले पंख फड़फड़ा कर स्वयं को रोक लेते हैं। बस वे ही बच जाते हैं। बचने वालों की संख्या दस में से अधिकतम दो ही होती है।
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अब आप उस पक्षी के जीवन का संघर्ष देखिये ! जन्म लेने के बाद उनके दस में से आठ बच्चे उनके सामने दुर्घटना का शिकार हो कर मर जाते हैं, पर उनकी प्रजाति बीस प्रतिशत जीवन दर के बावजूद करोड़ों वर्षों से जी रही है। संघर्ष इसको कहते हैं।
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एक और मजेदार उदाहरण है। जंगल का राजा कहे जाने वाला शेर शिकार के लिए किए गए अपने 75% आक्रमणों में असफल हो जाता है। मतलब वह सौ में 75 बार फेल होता है। अब आप इससे अपने जीवन की तुलना कीजिये, क्या हम 75% फेल्योर झेल पाते हैं ? नहीं ! इतनी असफलता तो मनुष्य को अवसाद में धकेल देती है। पर शेर अवसाद में नहीं जाता है। वह 25% मार्क्स के साथ ही जंगल का राजा है।
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इसी घटना को दूसरे एंगल से देखिये ! शेर अपने 75% आक्रमणों में असफल हो जाता है, इसका सीधा अर्थ है कि हिरण 75% हमलों में खुद को बचा ले जाते हैं। जंगल का सबसे मासूम पशु शेर जैसे बर्बर और प्रबल शत्रु को बार बार पराजित करता है और तभी लाखों वर्षों से जी रहा है। 
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उसका शत्रु केवल शेर ही नहीं है, बल्कि बाघ, चीता, तेंदुआ आदि पशुओं के अलावे मनुष्य भी उसका शत्रु है और सब उसे मारना ही चाहते हैं। फिर भी वह बना हुआ है। कैसे ? वह जी रहा है, क्योंकि वह जीना चाहता है। हिरणों का झुंड रोज ही अपने सामने अपने कुछ साथियों को मार दिए जाते देखते हैं, पर हार नहीं मानते। 
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वे दुख भरी कविताएं नहीं लिखते, हिरनवाद का रोना नहीं रोते। वे अवसाद में नहीं जाते, पर लड़ना नहीं छोड़ते। उन्हें पूरे जीवन में एक क्षण के लिए भी मनुष्य की तरह चादर तान कर सोने का सौभाग्य नहीं मिलता, बल्कि वे हर क्षण मृत्यु से संघर्ष करते हैं। यह संघर्ष ही उनकी रक्षा कर रहा है।
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जंगल में स्वतंत्र जी रहे हर पशु का जीवन आज के मनुष्य से हजार गुना कठिन और संघर्षपूर्ण है। मनुष्य के सामने बस अधिक पैसा कमाने का संघर्ष है, पर शेष जातियां जीवित रहने का संघर्ष करती हैं। फिर भी वे मस्त जी रहे होते हैं, और हममें से अधिकांश अपनी स्थिति से असंतुष्ट हो कर रो रहे हैं।
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अच्छी खासी स्थिति में जी रहा व्यक्ति अपने शानदार कमरे में बैठ कर वाट्सप पर अपनी जाति या सम्प्रदाय के लिए मैसेज छोड़ता है कि "हम खत्म हो जाएंगे"। और उसी की तरह का दूसरा सम्पन्न मनुष्य झट से इसे सच मान कर उसपर रोने वाली इमोजी लगा देता है। दोनों को लगता है कि यही संघर्ष है। वे समझ ही नहीं पाते कि यह संघर्ष नहीं, अवसाद है।

= ७७ =

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*दादू कहै, सदिके करूँ शरीर को, बेर बेर बहु भंत ।*
*भाव भक्ति हित प्रेम ल्यौ, खरा पियारा कंत ॥*
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*साभार ~ @Krishna Krishna*
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*अहोभाव*
प्रेम को तो वे पाप कहते हैं और प्रार्थना को पुण्य कहते हैं। और तुमने कभी गौर से नहीं देखा कि अगर प्रेम पाप है, तो प्रार्थना भी पाप हो जाएगी। क्योंकि प्रार्थना प्रेम का ही परिशुद्ध रूप है। माना कि प्रेम में कुछ अशुद्धियां हैं, लेकिन पाप नहीं है। सोना अगर अशुद्ध हो तो भी लोहा नहीं है। सोना अशुद्ध हो तो भी सोना है। अशुद्ध होकर भी सोना सोना है। रही शुद्ध करने की बात, सो शुद्ध कर लेंगे।
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कूड़े-करकट को जला देंगे, सोने को आग से गुजार लेंगे; जो व्यर्थ है, असार है, जल जाएगा आग में; जो सार है, जो शुद्ध है, बच जाएगा। प्रेम और प्रार्थना में उतना ही फर्क है जितना अशुद्ध सोने और शुद्ध सोने में। मगर दोनों ही सोना हैं, यह मैं जोर देकर कहना चाहता हूं। इस पर मेरा बल है। यही आने वाले भविष्य के मनुष्य के धर्म की मूल भित्ति है।
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अतीत ने प्रार्थना और प्रेम को अलग-अलग तोड़ दिया था। और उसका दुष्परिणाम हुआ। उसका दुष्परिणाम यह हुआ कि प्रेम दूषित हो गया, कलुषित हो गया, निंदित हो गया। एक तरफ प्रेम को अपराध बना दिया हमने; तो जो प्रेम में थे, उनकी आत्मा का अपमान किया, उनके भीतर आत्मनिंदा पैदा कर दी। और इस जगत में इससे बड़ी कोई दुर्घटना नहीं है कि किसी व्यक्ति के भीतर आत्मनिंदा पैदा हो जाए।
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तो प्रेम के कारण हमने पापी पैदा कर दिया दुनिया में। प्रेम पाप है, तो जो भी प्रेम करते हैं, सब पापी हैं। और कौन है जो प्रेम नहीं करता? कोई पत्नी को करता है, कोई पति को, कोई बेटे को, कोई भाई को, कोई मित्र को। शिष्य भी तो गुरु को प्रेम करते हैं! गुरु भी तो शिष्यों को प्रेम करता है! यहां जितने संबंध हैं, वे सारे संबंध ही किसी न किसी अर्थ में प्रेम के संबंध हैं। संबंध मात्र प्रेम के हैं। तो हमने सभी को पापी कर दिया। सारा संसार हमने पाप से भर दिया, एक छोटी सी भूल करके कि प्रेम पाप है।
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और दूसरा दुष्परिणाम हुआ कि जब प्रेम पाप हो गया, तो प्रार्थना हमारी थोथी हो गई, उसमें प्राण न रहे, औपचारिक हो गई। प्राण तो प्रेम से मिल सकते थे, तो प्रेम को तो हमने पाप कह दिया। जीवन तो प्रेम से मिलता प्रार्थना को, तो जीवन के तो हमने द्वार बंद कर दिए। प्रेम की ही भूमि से प्रार्थना रस पाती है, तो हमने भूमि को तो निंदित कर दिया और प्रार्थना के वृक्ष को भूमि से अलग कर लिया। भूमि वृक्षहीन हो गई और वृक्ष मुर्दा हो गया। ये दो दुर्घटनाएं घटीं। प्रेम पाप हो गया और प्रार्थना थोथी हो गई।
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मैं तुमसे कहता हूं, यह घोषणा करता हूं कि प्रेम पुण्य है। लेकिन मुझे गलत मत समझ लेना। जब मैं प्रेम को पुण्य कहता हूं तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि बस प्रेम पर रुक जाना है। जब मैं प्रेम को पुण्य कह रहा हूं तो सिर्फ यही कह रहा हूं कि प्रेम में सोना छिपा है। कचरा भी है। लेकिन जो कचरा है, वह प्रेम नहीं है। वह विजातीय है।
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वह सोना नहीं है। कूड़ा-करकट होगा, मिट्टी होगी, कुछ और होगा। विरह की अग्नि से गुजारो इसे। और तुम धीरे-धीरे पाओगे कि तुम्हारे हाथों में प्रार्थना का पक्षी लग गया है, जिसके पंख हैं, जो आकाश में उड़ सकता है। जो इतना हलका है! क्योंकि सारा बोझ कट गया, सारी व्यर्थता गिर गई। जिस दिन तुम प्रार्थना को अनुभव कर पाओगे, उस दिन तुम धन्यवाद दोगे अपने सारे प्रेम के संबंधों को, क्योंकि उनके बिना तुम प्रार्थना तक कभी नहीं आ सकते थे।
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तुम धन्यवाद दोगे प्रेम के सारे कष्टों को, सुखों को, मिठास के अनुभव और कडुवाहट के अनुभव; जहर और अमृत, प्रेम ने दोनों दिए, उन दोनों को तुम धन्यवाद दोगे। क्योंकि जहर ने भी तुम्हें निखारा और अमृत ने भी तुम्हें सम्हाला और यह घड़ी अंतिम आ सकी सौभाग्य की कि प्रेम प्रार्थना बना। प्रेम जब प्रार्थना बनता है तो परमात्मा के द्वार खुलते हैं। प्रेम पाप नहीं है। और किसी बुद्धपुरुष ने प्रेम को पाप नहीं कहा है।
ओशो

रविवार, 10 नवंबर 2024

= ७६ =

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*भक्ति निराली रह गई, हम भूल पड़े वन माहिं ।*
*भक्ति निरंजन राम की, दादू पावै नांहिं ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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प्रश्न: गुरु के सत्संग की तो आप रोज-रोज महिमा गाते हैं, पर प्रकृति के सत्संग की कभी-कभी ही चर्चा करते हैं। क्या गुरु प्रकृति से भी अधिक संवेदनशील द्वार है ? कृपा करके समझाए।
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प्रकृति है--सोया परमात्मा; और गुरु है--जागा परमात्मा। गुरु का अर्थ क्या होता है ? गुरु का अर्थ होता है: जिसके भीतर प्रकृति परमात्मा बन गई। तुम सोए हो; प्रकृति सोयी है; इन दोनों सोए हुओं का मेला भी बैठ जाए, तो भी कुछ बहुत घटेगा नहीं। दो सोए आदमियों में क्या घटनेवाला है ? दो साए हुई स्थितियों में क्या घटनेवाला है ? तुम अभी प्रकृति से तालमेल बिठा ही न सकोगे।
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तुम जागो, तो प्रकृति को भी तुम देख आओ। तुम जागो, तो प्रकृति में भी तुम्हें जगह-जगह परमात्मा का स्फुरण मालूम पड़े। पत्ते-पत्ते में, कण-कण में उसकी झलक मिले--लेकिन तुम जाओ तो। तुम अभी गुलाब के फूल के पास जाकर बैठ भी जाओ, तो क्या होना है ! तुम सोचोगे दुकान की। तुम अगर गुलाब के संबंध में थोड़ी बहुत सोचने की कोशिश करोगे, तो वह भी उधार होगा।
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तुम अभी जागे नहीं। तुम अभी अपनी प्रति नहीं जागे, तो गुलाब के फूल के प्रति कैसे जागोगे ? जो अपने प्रति जागता है, वह सब के प्रति जाग सकता है। और जो अपने प्रति सोया है, वह किसी के प्रति जाग नहीं सकता। और गुलाब का फूल गुरु नहीं बन सकता। क्योंकि गुलाब का फूल तुम्हें झकझोरेगा नहीं। गुलाब का फूल खुद ही सोया है, वह तुम्हें कैसे जगायेगा ?
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गुरु का अर्थ है--जो तुम्हें झकझोर, जो तुम्हारी नींद को तोड़े। तुम मीठे सपनों में दबे ही। कल्पनाओं में डूबे हो। जो अलार्म की तरह तुम्हारे ऊपर बजे; जो तुम्हें सोने दे...। एक बार तुम्हें जागरण का रस लग जाए, एक बार तुम आंख खोल कर देख लो कि क्या है, कि कोई बात नहीं है। फिर प्रकृति में भी परमात्मा है।
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इसलिए कभी-कभी मैं प्रकृति की बात करता हूं, लेकिन ज्यादा नहीं। क्योंकि तुम से प्रकृति की बात करी व्यर्थ है। तुम्हें इन वृक्षों में क्या दिखाई पड़ेगा ? वृक्ष ही दिखाई पड़ जाए, तो बहुत। वृक्षों से ज्यादा तो दिखाई नहीं पड़ेगा। तुम्हें मनुष्यों में नहीं दिखाई पड़ता--मनुष्यों से ज्यादा कुछ ! तो वृक्षों में वृक्षों में ज्यादा कैसे दिखाई पड़ेगा; तुम्हें अपने में नहीं दिखाई पड़ता कुछ भी।
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शुरुआत अपने से करनी होगी। और किसी जीवित गुरु के साथ हो लेने में सार है। गुरु का काम बड़ा धन्यवाद शून्य काम है। कोई धन्यवाद भी नहीं देता ! नाराजगी पैदा होती है। क्योंकि गुरु अगर तुम्हें जगाये, तो गुस्सा आता है। तुम गुरु भी ऐसे तलाशते हो, जो तुम्हारी नींद में सहयोगी हों। इसलिए तुम पंडित-पुरोहित को खोजते हो। वे खुद ही सोए हैं; घुर्रा रहे हैं नींद में; वे तुम्हारे लिए भी शामक दवा बन जाते हैं।
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जाग्रत गुरु से तुम भागोगे; सदा से भागते रहे हो; नहीं तो अब तक तुम कभी के जाग गए होते। बुद्ध से भागे; महावीर से भागे; कबीर से भागे होओगे। जहां तुम्हें कोई जागा व्यक्ति दिखाई पड़ा होगा, वहां तुमने जाना ठीक नहीं समझा; तुम भागते रहे हे। तभी तो अभी तक बच गये, नहीं तो कभी के जाग जाते। तुम पकड़ते ऐसे लोगों का सहारा हे, जो तुम्हारी नींद न तोड़ें।
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तुम कहते हो: ठीक है। धर्म भी हो जाए, और जैसे हम है, वैसे के वैसे भी बने रहे। तुम सोचते हो कि चलो, थोड़ा कुछ ऐसा भी कर लो कि अगर परमात्मा हो, तो उसके सामने भी मुंह लेकर खड़े होने का उपाय रह जाए; कि हमने तेरी प्रार्थना की थी, पूजा की थी। अगर हमने न की थी, तो हमने एक पुरोहित रख लिया था नौकरी पर, उसने की थी; मगर हमने करवाई थी--सत्य-नारायण की कथा। प्रसाद भी बंटवाया था !
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मगर भगवान न हो, तो कुछ हर्जा नहीं है; दो-चार-पांच रुपये का प्रसाद बंट गया; दो-चार-पांच रुपए पुरोहित ले गया; कोई हर्जा नहीं है। वह जो दस-पांच का खर्चा हुआ, उसको भी तुम बाजार में उपयोग कर लेते हो; क्योंकि जो आदमी रोज-रोज सत्य नारायण की कथा करवा देता है, उसकी दुकान ठीक चलती है। लोग सोचते हैं: सत्य नारायण की कथा करवाता है, तो कम से कम सत्य नारायण में थोड़ा भरोसा करता होगा। सत्य बोलता होगा। कम लुटेगा। कम धोखा देगा।
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यहां भी लाभ है--सत्य नारायण की कथा से। लोग समझने लगते हैं: धार्मिक हो, तो तुम आसानी से उनकी जेब काट सकते हो। उनको भरोसा आ जाए कि आदमी ईमानदार है, मंदिर जाता है, पूजा-प्रार्थना करता है, तो सुविधा हो जाती है; प्रतिष्ठा मिलती है। यहां भी लाभ है। और अगर कोई परमात्मा हुआ, तो वहां भी लाभ ले लेंगे।
ओशो
कन थोरे कांकर घने #6

गुरुवार, 7 नवंबर 2024

निर्वाणषट्क

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*दादू देखु दयालु को, बाहरि भीतरि सोइ ।*
*सब दिसि देखौं पीव को, दूसर नाहीं कोइ ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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नरेन्द्र मधुर स्वर से निर्वाणषट्क कह रहे हैं –
ॐ मनोबुद्ध्ययहंकारचित्तानि नाहं न च श्रोत्रजिव्हे न च घ्राणनेत्रे ।
न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥१॥
न च प्राणसंज्ञो न वै पंचवायुर्न वा सप्तधातुर्न वा पंचकोषः ।
न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायुश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥२॥
न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः ।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥३॥
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं न मन्त्रो न तीर्थो न वेदा न यज्ञाः ।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ताश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥४॥
न मृत्युर्न शंका न मे जातिभेदः । पिता नैव में नैव माता न जन्म ।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥५॥
अहं निर्विकल्पो निराकाररूपो विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम् ।
न चासंगतं नैव मुक्तिर्न मेयश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥६॥
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हीरानन्द – वाह !
श्रीरामकृष्ण ने हीरानन्द को इसका उत्तर देने के लिए कहा ।
हीरानन्द - एक कोने से घर को देखना जैसा है, वैसा ही घर के बीच में रहकर भी देखना है । 'हे ईश्वर ! मैं तुम्हारा दास हूँ' - इससे भी ईश्वर का अनुभव होता है और 'मैं वही हूँ, सोऽहम्' - इससे भी ईश्वर का अनुभव होता है । एक द्वार से भी कमरे में जाया जाता है और अनेक द्वारों से भी जाया जाता है । सब लोग चुप हैं । हीरानन्द ने नरेन्द्र से गाने के लिए अनुरोध किया ।
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नरेन्द्र कौपीनपंचक गा रहे हैं –
वेदान्तवाक्येषु सदा रमन्तो भिक्षान्नमात्रेण च तुष्टिमन्तः ।
अशोकमन्तः करणे चरन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ॥१॥
मूलं तरोः केवलमाश्रयन्तः पाणिद्वयं भोक्तुममन्त्रयन्तः ।
कन्यामिव श्रीमपि कुत्सयन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ॥२॥
स्वानन्दभावे परितुष्टिमन्तः सुशान्तसर्वेन्द्रियवृत्तिमन्तः ।
अहर्निशं ब्रह्मणि ये रमन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ॥३॥
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श्रीरामकृष्ण ने ज्योंही सुना - 'अहर्निशं ब्रह्मणि ये रमन्तः' कि धीरे धीरे कहने लगे - 'अहा !' और इशारा करके बतलाने लगे कि यही योगियों का लक्षण है ।
नरेन्द्र कौपीनपंचक समाप्त करने लगे –
देहादिभावं परिवर्तयन्तः स्वात्मानमात्मन्यवलोकयन्तः ।
नान्तं न मध्यं न बहिः स्मरन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ॥४॥
ब्रह्माक्षरं पावनमुच्चरन्तः ब्रह्माहमस्मीति विभावयन्तः ।
भिक्षाशिनो दिक्षु परिभ्रमन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ॥५॥
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नरेन्द्र फिर गा रहे हैं - “परिपूर्णमानन्दम् ।
अंगविहीनं स्मर जगन्निधानम् ।
श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्वाचो ह वाचम् ।
वागतीतं प्राणस्य प्राणं परं वरेण्यम् ।"
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नरेन्द्र ने एक गाना और गाया ।
इस गाने में कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार की हैं ~
"तुझसे हमने दिल है लगाया, जो कुछ है सो तू ही है ।
हरएक के दिल में तू ही समाया, जो कुछ है सो तू ही है ।
जहाँ देखा नजर तू ही आया, जो कुछ है सो तू ही है ।"
"हरएक के दिल में' यह सुनकर श्रीरामकृष्ण इशारा करके कह रहे हैं कि वे हरएक के हृदय में हैं, वे अन्तर्यामी हैं ।
‘जहाँ देखा नजर तू ही आया’ यह सुनकर हीरानन्द नरेन्द्र से कह रहे हैं, “सब तू ही है, अब 'तुम तुम' हो रहा है । मैं नहीं, तुम ।
नरेन्द्र - तुम मुझे एक दो, मैं तुम्हें एक लाख दूँगा । (अर्थात्, एक के मिलने पर आगे शून्य रखकर एक लाख कर दूगा ।) तुम ही मैं, मैं ही तुम, मेरे सिवा और कोई नहीं है ।
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यह कहकर नरेन्द्र अष्टावक्रसंहिता से कुछ श्लोकों की आवृत्ति करने लगे । सब लोग चुपचाप बैठे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (हीरानन्द से, नरेन्द्र की ओर संकेत करके) - मानो म्यान से तलवार निकालकर घूम रहा है ।
(मास्टर से, हीरानन्द की ओर संकेत करके) "कितना शान्त है ! सँपेरे के पास विषधर साँप जैसे फन फैलाकर चुपचाप पड़ा हो !"
(क्रमशः)