गुरुवार, 4 दिसंबर 2025

*१२. अथ विश्वास को अंग १/४*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१२. अथ विश्वास को अंग १/४*
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सुंदर तेरे पेट की, तोकौं चिंता कौंन ।
बिस्व भरन भगवंत है, पकरि बैठि तूं मौंन ॥१॥
योग क्षेम के निर्वाहक प्रभु : महाराज श्रीसुन्दरदासजी अज्ञानी पुरुष को समझा रहे हैं - अरे मूर्ख ! तूँ अपनी उदरपूर्ति की चिन्ता से क्यों व्यग्र है; इस का उत्तरदायित्व तो तेरे स्त्रष्टा उस विश्वम्भर भगवान् ने ले रखा है । तूँ तो एकान्त में बैठ कर मौन रह कर केवल उस भगवान् के पवित्र नाम का सतत स्मरण कर ॥१॥
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सुंदर चिंता मति करै, पांव पसारै सोइ ।
पेट दियौ है जिनि प्रभू, ताकौं चिंता होइ ॥२॥
अरे भाई ! तूँ उदरपूर्ति की चिन्ता क्यों कर रहा है ! यह चिन्ता तो उस प्रभु की ही है जिसने तुझ को यह पेट दिया है । तूँ तो पैर पसार कर (निश्चिन्त होकर) सो जा ॥२॥
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जलचर थलचर ब्योमचर, सबकौं देत अहार ।
सुंदर चिंता जिनि करै, निस दिन बारंबार ॥३॥
क्योंकि वह हमारा सिरजनहार जल, स्थल एवं आकाश में रहने वाले सभी प्राणियों को भोजन देता ही है । श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - अतः तूँ क्यों दिन रात अपनी उदरपूर्तिकी चिन्ता में लगा हुआ है । ऐसा न कर ॥३॥
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सुंदर प्रभुजी देत हैं, पाहन मैं पहुंचाइ ।
तूं अब क्यौं भूखौ रहै, काहै कौं बिललाइ ॥४॥
अरे ! वह प्रभु त्तो ऐसा समर्थ है कि पत्थर में रहने वाले प्राणी को भी भोजन पहुँचा देता है, तब तूँ कैसे भूखा रह पायगा । अतः तूँ इस के लिये व्यर्थ चिन्तित न हो ॥४॥
(क्रमशः)

उतराधे की रामत

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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१० आचार्य दिलेराम जी
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इस पटियाला के चातुर्मास में दादूवाणी की कथा, विद्वानों के भाषण, गायक संतों के पद गायन, आरती अष्टक, अन्य स्तोत्र गायन, जागरण, नाम संकीर्तन, संत सेवा आदि पुण्य कार्य जो चातुर्मास में होते हैं, वे सभी कार्य इस चातुर्मास में बहुत सुन्दर रुप से होने लगे । 
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उन सभी कार्यों में राजा, राज परिवार, प्रजा जन, संत, आदि सभी ने अच्छा भाग लिया । पटियाला नरेश ने आचार्य जी का बहुत सम्मान किया । राज कर्मचारी और राज परिवार के महानुभाव भी आचार्यजी के पास आकर अति श्रद्धा से आचार्यजी का दर्शन करके तथा उनके मुख से मधुर उपदेश सुनकर बहुत संतुष्ट होते थे ।
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पटियाला नरेश तथा राज परिवार की महात्मा ठंडेरामजी पर बहुत श्रद्धा थी और महात्मा ठंडेरामजी की आचार्य दिलेरामजी महाराज पर अति श्रद्धा थी । अत: अपने श्रद्धेय महात्मा ठंडेरामजी का अनुकरण करते हुये पटियाला नरेश और राज परिवार के लोग आचार्य जी का महान् सम्मान करते थे । 
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इस चातुर्मास में महात्मा ठंडेरामजी ने आचार्य दिलेरामजी महाराज के शिष्य मंडल का भी अभूतपूर्व आदर सत्कार किया था । आचार्य जी की भेंट आदि सभी कार्य इस चातुर्मास में श्‍लाघनीय हुये थे । सविधि चातुर्मास पूर्ण होने पर उतराधे महात्माओं ने उतराधे की रामत करने के लिये अति आग्रह पूर्वक प्रार्थना की । तब उन संतों की प्रार्थना स्वीकार करके उतराधे की रामत की । 
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इस उतराधे की रामत में उतराधे महात्माओं ने शिष्य मंडल के सहित आचार्य दिलेराम जी महाराज का अति सम्मान किया था । बहुत ही अच्छी सेवा की थी और अति उदारता पूर्वक भेंट दी थी । उन भेटों का परिचय नारायणा दादूधाम की बहियों के देखने से मिलता है । उन भेटों को देखते हुये उतराधे संतों की आचार्यजी के प्रति अटूट श्रद्धा का परिचय मिलता है । 
(क्रमशः)  

मंगलवार, 2 दिसंबर 2025

पटियाला चातुर्मास ~

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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१० आचार्य दिलेराम जी
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पटियाला चातुर्मास ~ 
आचार्य दिलेरामजी महाराज का प्रथम चातुर्मास पटियाला के उतराधे महात्मा ठंडेरामजी ने मनाया था । फिर आचार्य दिलेरामजी महाराज अपने शिष्य मंडल के सहित मार्ग की धार्मिक जनता को अपने दर्शन, सत्संग से कृतार्थ करते हुये पटियाला के पास पहुँचे तब महात्मा ठंडेरामजी को अपने आने की सूचना दी । 
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सूचना मिलते ही महात्मा ठंडेरामजी ने पटियाला नरेश से राजकीय स्वागत सत्कार की सामग्री वाद्य निशान आदि मंगवाकर बडे ठाट बाट के साथ भक्त मंडल के सहित संकीर्तन करते हुये आचार्य दिलेरामजी महाराज की अगवानी करने के लिये नगर से बाहर जहां आचार्यजी अपने शिष्य मंडल सहित विराजे हुये थे, वहां पहुँचे । 
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और आचार्य जी से मिलने की मर्यादा तथा शिष्टाचार पूर्वक प्रेम से भेंट चढाकर महात्मा ठंडेरामजी ने सत्यराम बोलकर आचार्य जी को दडंवत की । फिर आवश्यक प्रश्‍नोत्तर होने के पश्‍चात् आचार्य जी को हाथी पर बैठाकर नगर के मुख्य - मुख्य मार्गों से जनता को दर्शन कराते हुये अपने स्थान पर ले गये । 
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आचार्य दिलेरामजी महाराज तथा संत मंडल के दर्शन तथा भजन कीर्तन से धार्मिक जनता को अति आनन्द का अनुभव हुआ । जनता के लिये आज का संत दर्शन अभूतपूर्व था । स्थान पर पहुँचने पर सर्व प्रकार की सुविधायें सब संतों की इच्छानुसार कर दी गई । 
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आचार्यजी की सेवा में तो स्वयं ठंडेरामजी महाराज उपस्थित रहते थे । किसी प्रकार की त्रुटि नहीं रहने दी गई थी । नियत दिन से चातुर्मास का कार्य आरंभ हो गया । नगर की जनता को नियत समय के सत्संग की सूचना दे दी गई थी । जनता भी भारीमात्रा में सत्संग में भाग लेने लगी ।
(क्रमशः)  

*११. अधीर्य उरांहने को अंग २३/२५*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*११. अधीर्य उरांहने को अंग २३/२५*
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सुन्दर प्रभुजी पेट कौं, दूधाधारी होड़ । 
पाषंड करहिं अनेक बिधि, खांहिं सकल रस गोइ ॥२३॥
पेट के लिये साधुओं का पाषण्ड : हे प्रभो ! मैं देखता हूँ कि इस संसार में अपनी उदरपूर्ति के लिये कोई दूधाधारी साधक बना फिरता है और वैसा करते हुए वह लोक में पाषण्ड रच कर उपलब्ध सभी भोगों का उपभोग गुप्त रूप से करता रहता है ॥२३॥
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सुंदर प्रभुजी पेट कौ, साधै जाइ मसान । 
यंत्र मंत्र आराध करि, भरहिं पेट अज्ञान ॥२४॥
इसी प्रकार, प्रभु जी ! कोई दूसरा अज्ञानी साधक श्मशानसिद्धि का पाषण्ड रचता हुआ यन्त्र, मन्त्र की आराधना के व्याज से अपनी उदरपूर्ति के लिये नयी नयी युक्तियाँ निकालता रहता है ॥२४॥
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सुंदर प्रभुजी सब कह्यौ, तुम आगै दुख रोइ । 
पेट बिना ही पेट करि, दीनी खलक बिगोइ ॥२५॥
इति अधीर्य उरांहने को अंग ॥११॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - हे प्रभो ! इस प्रकार प्राणियों को पेट के कारण होने वाले सभी कष्ट आपके सामने संक्षेप में प्रस्तुत कर दिये हैं । मुझे ऐसा लगता है कि आपने यह पेट बिना किसी प्रयोजन के लगा कर इस संसार को नष्ट ही कर दिया ! ॥२५॥
इति अधीर्य उरांहना का अंग सम्पन्न ॥११॥
(क्रमशः) 

*११. अधीर्य उरांहने को अंग २०/२२*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*११. अधीर्य उरांहने को अंग २०/२२*
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सुन्दर प्रभुजी पेट कौं, बहु बिधि करहिं उपाइ । 
कौंन लगाई व्याधि तुम, पीसत पोवत जाइ ॥२०॥
उदरपूर्ति हेतु नवीन उपायों की खोज : हे प्रभो ! आज सभी प्राणी अपनी उदरपूर्ति के लिये कोई न कोई नया उपाय करते रहते हैं । आप ने इन सब को यह कैसी व्याधि(रोग) लगा दी कि इन का समस्त जन्म भोजन बनाने(पीसने, पोने में) ही व्यतीत हो जाता है ॥२०॥
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सुन्दर प्रभुजी सबनि कौं, पेट भरन की चिंत । 
कीरी कन ढूंढत फिरै, मांखी रस लै जंत ॥२१॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - सभी प्राणियों को अपने पेट भरने की ही चिन्ता बनी रहती है । इन में कीड़ी जैसा लघु कीट अपने लिये कन(भोजन का सूक्ष्म अंश) खोजता रहता है तो मधुमक्खी जैसा प्राणी अपनी उदरपूर्ति के लिये फूलों का रस खोजता रहता है ॥२१॥
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सुन्दर प्रभुजी पेट बसि, देवी देव अपार । 
दोष लगावै और कौं, चाहै एक अहार ॥२२॥
पेट के लिये देवताओं की चतुरता : हे प्रभो ! पृथ्वी के प्राणियों की ही बात क्यों की जाय, मैं समझता हूँ, स्वर्ग के अनन्त देवताओं की भी यही दशा है । वे तो यह भी चतुरता करते हैं कि वे उस भोजन के लिये दोष दूसरों के शिर डालकर वह प्राप्त भोजन(हवि) स्वयं खा जाते हैं ! ॥२२॥
(क्रमशः) 

१० आचार्य दिलेराम जी

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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अथ अध्याय ८  
१० आचार्य दिलेराम जी
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दिलेरामजी आचार्य निर्भयरामजी महाराज की सेवा में रहते थे । निर्भयरामजी महाराज ने जीवनदासजी को अपना उत्तराधिकारी बनाया था तब दिलेरामजी को जीवनदासजी की गोद में बैठा दिया था । उसका तात्पर्य यह था - कि जीवनदासजी के ब्रह्मलीन होने पर दिलेरामजी ही गद्दी के अधिकारी होगें । 
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यह बात समाज के मुख्य - मुख्य महानुभावों को ज्ञात थी ही । इससे जीवनदासजी महाराज के ब्रह्मलीन होने पर वि. सं. १८७७ मार्ग शुक्ला अष्टमी से दिलेरामजी ही आचार्य माने गये । मार्गशीर्ष शुक्ला ११ वि. सं. १८७७ को समाज ने दिलेरामजी को आचार्य पद पर अभिषिक्त किया ।
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उस समय जयपुर नरेश ने टीका के दस्तूर की अपनी परंपरा की रीति के अनुसार घोडा, शाल, शिरोपाव और भेंट के रुपये अपने मंत्री के द्वारा भेजे थे । उसने आचार्य दिलेरामजी की भेंट किये । इसी प्रकार अलवर नरेश ने - हाथी, शाल, सिरोपाव(सिर से पाव तक पहनने के वस्त्र), पारचा का थान(रेशमी कपडे का थान) पाग तथा भेंट के रुपये अपने मंत्री द्वारा भेजे । 
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बीकानेर नरेश ने भी घोडा, शाल और सिरोपाव मंत्री द्वारा भेजे । किशनगढ नरेश ने - शाल, सिरोपाव आदि भेजे । खेतडी नरेश ने शाल और भेंट के रुपये भेजे । उक्त प्रकार राजस्थान के अनेक बडे छोटे नरेशों की भेंट अपनी अपनी कुल परंपरा के अनुसार हो जाने के पश्‍चात् श्री दादूपंथ के महन्त, संतों की अपनी - अपनी मर्यादा के अनुसार भेंटें हुई । 
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फिर भेंटों का कार्य समाप्त हो जाने पर श्री स्वामी दादू दयालु महाराज की जय बोलकर आचार्य दिलेरामजी की जय बोली । फिर प्रसाद भेंटों वालों को बांट करके अन्य सबको बांटा गया । पश्‍चात् सभा विसर्जन कर दी गई । दिलेरामजी महाराज अपने से पूर्व के दो भजनानन्दी आचार्य निर्भयरामजी और जीवनदासजी की सेवा में रहे हुये थे । 
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सदा उनका सत्संग करते रहे थे और आप भी आचार्य पद से पूर्व अधिकतर भजन विचार और प्राप्ति के पश्‍चात् तो अपने साधन भजन के लिये बहुत अधिक समय मिलने लगा । व्यावहारिक कार्य तो अब आपको करने पडते ही नहीं थे ।
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व्यावहारिक कार्य पूर्व काल से ही भंडारी लोग करते आ रहे थे । अत: सब काम भंडारी ही करते कराते थे । आप तो ब्रह्म भजन और उपदेश ही करते थे । आचार्य दिलेराम जी अति दयालु और मिलनसार महात्मा थे । आप निज समाज के तथा अन्य समाज के प्रत्येक व्यक्ति के साथ प्रेम का व्यवहार करते थे । 
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दादूपंथी शिष्य मंडल तथा अन्य गृहस्थी सेवक सती आप में अटूट श्रद्धा रखते थे । आपके दयालु, उदार तथा सद् - व्यवहार को देखकर शिष्य मंडल के शिष्यों ने अपने - अपने स्थान में आपके अनेक चातुर्मास कराये थे । चातुर्मास के समय में आपके साथ १०० से अधिक ही साधु रहते थे । आपके चातुर्मास मर्यादा पूर्वक बहुत ही सुन्दर होते थे । सब को आनन्द ही आनन्द प्राप्त होता था ।
(क्रमशः) 

सोमवार, 1 दिसंबर 2025

ब्रह्मलीन होना ~

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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९ आचार्य जीवनदास जी
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आचार्य जीवनदासजी महाराज ने खेतडी का चातुर्मास समाप्त कर सहर्ष नारायणा दादूधाम के लिये प्रस्थान किया । मार्ग के ग्रामों की भक्त जनता को अपने दर्शन सत्संग से कृतार्थ करते हुये नारायणा दादूधाम में पधार गये ।  
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ब्रह्मलीन होना ~ इन्दव - 
“दादुदयालु कृपाल भये तब, 
जीवन यूं मन मांहिं विचारी ।
द्वैत उपाधि मिटाइ दिई सब, 
आप स्वरुप की सुद्धि संभारी ॥
श्‍वास उश्‍वास उठयो उर तें, 
तब जानि मिथ्या तद यो तन मारी ।
बैठि विवान कियो जय यान जु, 
जाय मुक्ति की पौरि उधारी ॥१॥”
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खेतडी चातुर्मास से आकर कुछ समय पश्‍चात् ६ वर्ष २ मास १२ दिन गद्दी पर विराज कर वि. सं. १८७७ मार्ग शीर्ष . शुक्ला अष्टमी बुधवार को आचार्य जीवनदासजी महाराज नारायणा दादूधाम में ही ब्रह्मलीन हो गये । 
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आचार्य जीवनदासजी महाराज गद्दी पर अल्पकाल ही रहे । इनके समय में परम शांति ही रही । इनकी तपस्या दादूवाणी का प्रचार और धर्मोपदेश आदि कार्यो से ये निज समाज में तथा धार्मिक जनता में बहुत प्रशंसनीय हुये । सभी आपके उक्त कार्यों से प्रसन्न रहे । अत: आचार्य जीवनदासजी महाराज सर्व हितैषी, लोकप्रिय आचार्य हुये हैं ।  
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गुण - गाथा ~ मनहर - 
जीवों के जीवन रुप जगदीश जग मांहीं,
अस्ति भाति प्रियरुप व्यापक प्रकाश है ।
सर्वाधार सर्ववित सर्वेश्‍वर सार रुप,
सत्य शिव सुन्दर विनाशी में अनाश है ।
उसी परब्रह्म रुप राम में विलीन कर,
मन को सतत भव भोग से निराश है । 
‘नारायण’ नारायणा दादूधाम के प्रसिद्ध,
दादू पंथ आचारज श्री जीवनदास है ॥१॥
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दोहा - 
गुरुवर निर्भयराम के रहे निरंतर पास ।
जीव हितैषी बन गये, इससे जीवनदास ॥२॥
जीवन जगदाधार के, तन से ही थे दास ।
आत्म रुप से ब्रह्म थे, दे न सके गुण त्रास ॥३॥
परम मित्र थे जीव के, जग में जीवनदास ।
सदा सभी को सुख दिया, दी न किसी को त्रास ॥४॥
जीवन जी की जीवनी, जीवों को सुखकार ।
‘नारायण’ निर्दंभ अति, देखें सुजन विचार ॥५॥
इति श्री सप्तम अध्याय समाप्त: ७
(क्रमशः) 

*११. अधीर्य उरांहने को अंग १७/१९*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*११. अधीर्य उरांहने को अंग १७/१९*
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सुंदर प्रभुजी पेट यह, राखै कछू न मांन । 
बन मैं बैठे जाइ कैं, उठि भागै मध्यांन ॥१७॥
हे प्रभो ! यह पेट किसी का भी मान सम्मान सुरक्षित नहीं रहने देता । इस ने बड़े बड़े योगी ध्यानियों को भी अपनी साधना से, आधे मार्ग में पहुँचते पहुँचते ही(मध्याह्न में ही), भगा दिया है ॥१७॥
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सुन्दर प्रभुजी पेट बसि, चौरासी लख जंत । 
जल थल कै चाहैं सकल, जे आकाश बसंत ॥१८॥
सम्पूर्ण जगत् पेट के अधीन : हे प्रभो ! संसार के ये सभी चौरासी लाख जीव जन्तु, फिर भले ही वे जलचर हों, या स्थलचर हों, या आकाशचारी ही क्यों न हों, सभी इस पेट के अधीन दिखायी देते हैं ॥१८॥
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सुन्दर प्रभुजी पेट इनि, जगत कियौ सब भांड । 
कोई पंचामृत भखै, कोई पतरा मांड ॥१९॥
पेट के कारण पाषण्ड : हे प्रभो ! इस पेट ने सभी प्राणियों को पाषण्ड से जीवित रहने के लिये बाध्य कर दिया है । इन में सभी पाषण्ड करते हुए कोई केवल पञ्चामृत पीकर तपस्या का अभिनय कर रहा है तो कोई चावल का मांड पीकर साधना का ढोंग कर रहा है ॥१९॥
(क्रमशः)

शनिवार, 29 नवंबर 2025

*११. अधीर्य उरांहने को अंग १३/१६*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*११. अधीर्य उरांहने को अंग १३/१६*
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सुन्दर प्रभुजी पेट इनि, जगत कियौ सब ख्वार । 
को खेती को चाकरी, कोई बनज ब्यौपार ॥१३॥ 
हे प्रभो ! इस पेट के कारण हमारी खेती, नौकरी, चाकरी, वाणिज्य एवं व्यवसाय - सब कुछ विनाश के कगार पर पहुँच गया है ॥१३॥
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सुन्दर प्रभुजी पेट इनि, जगत कियौ सब दीन । 
अन्न बिना तलफत फिरै, जैसैं जल बिन मीन ॥१४॥
प्रभुजी ! इस पेट ने समस्त जगत् को ऐसा दीन हीन एवं असहाय बना दिया है कि यह भोजन के लिये वैसे ही दिन रात तड़पता रहता है जैसे जल के बिना कोई मछली तड़पा करती है ॥१४॥
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सुन्दर प्रभुजी पेट बसि, भये रंक अरु राव । 
राजा राना छत्रपति, मीर मलिक उमराव ॥१५॥
उदर के लिये सभी कर्तव्यच्युत : श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - इस पेट ने दरिद्र एवं चक्रवर्ती राजा, राना, छत्रपति, बड़े बड़े अधिपति, भूमिपति एवं सामन्तों आदि सभी को अपने अधीन कर रखा है ॥१५॥
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बिद्याधर पंडित गुनी, दाता सूर सुभट्ट । 
सुंदर प्रभुजी पेट इनि, सकल किये खटपट्ट ॥१६॥ 
इस पेट ने बड़े बड़े विद्वानों, पण्डितों को, ज्ञानी, गणियों को, दाता शूर वीर एवं योद्धाओं को भी अपने कर्तव्य कर्म से हिला कर रख दिया है(च्युत कर दिया है) ॥१६॥
(क्रमशः) 

खेतडी का चातुर्मास

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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९ आचार्य जीवनदास जी
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खेतडी का चातुर्मास 
कान्हड दासजी को सूचना दी । सूचना मिलते ही कान्हडदास जी भक्त जनता के साथ वाद्य बजाते, संकीर्तन करते हुये बडे ठाट बाट से आचार्य जीवनदासजी महाराज के सामने आये और सामाजिक रीति रिवाज के अनुसार आचार्यजी का दर्शन कर सत्यराम बोलते हुये भेंट चढाकर साष्टांग दंडवत की । 
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जनता के लोगों ने भी अपनी अपनी रुचि अनुसार प्रणाम की व भेंटें चढाई । फिर समयोचित प्रश्‍नोत्तर के पश्‍चात् अति आदर सत्कार के साथ नियत स्थान पर ले जाकर ठहराया । जल आदि आवश्यक सेवा का प्रबन्ध पहले ही कर दिया गया था । फिर उचित समय पर संतों की रुचि के अनुसार भोजन की व्यवस्था हो गई । 
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संतों की सेवा संबन्धी सभी प्रकार की व्यवस्था सुचारु रुप से कर दी गई । चातुर्मास का सत्संग आरंभ होने के दिन की सूचना नगर में करा दी गई । नियत दिन के नियत समय प्रात: काल सर्व प्रथम श्री दादूवाणी की पूजा करके दादूवाणी की कथा आरंभ की गई । आज आरंभ के दिन भी खेतडी की धार्मिक जनता ने सत्संग में अच्छा भाग लिया । 
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कथा के पश्‍चात् गायक संतों ने कथा प्रसंग के अनुसार ही उच्च कोटि के संतों के पद गाये फिर नाम संकीर्तन तथा प्रसाद बांटना आरंभ हुआ । जब तक प्रसाद बांटा गया तब तक संकीर्तन होता रहा । प्रसाद सब के आ गया तब स्वामी दादू दयालजी की जय बोलकर सत्संग समाप्त कर दिया गया । 
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फिर सब श्रोता आचार्यजी आदि संतों को दंडवत प्रणाम यथा योग्य करके अपने - अपने स्थानों को चले गये । उक्त प्रकार ही मध्य दिन में जिस ग्रंथ की कथा होती थी उसमें भी कथा का उक्त क्रम ही रहता था । सायंकाल आरती, अष्टक अन्य स्तात्रों के गायन के पश्‍चात् आचार्यजी को दंडवत तथा अन्य सब संतों को यथायोग्य सत्यराम कर नामध्वनि करते थे । 
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‘दादूराम’ मंत्र की एक घंटा ध्वनि होती थी । बीच - बीच में नाम महिमा के संतों के वचन, साखी, अरिल आदि पद्य भी बोले जाते थे । फिर सब संत अपनी एकांतिक साधना अपने - अपने आसनों पर जाकर करते थे । कोई भक्त भोजन के लिये ग्राम में अपने घर संत मंडल के सहित आचार्यजी को बुलाना चाहता था तो आचार्य जी की जाने की मर्यादा के साथ ले जाता था । 
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सवारी से तथा वाद्य बजाते हुये और संकीर्तन करते हुये संत तथा भक्त लोग साथ - साथ जाते थे । उसी प्रकार सन्मान के सहित आसन पर पहुँचाया जाता था । प्रत्येक चातुर्मास का नियम यही रहता था । बिना विशेष काम के कोई भी संत नगर में नहीं जा सकता था । भोजन के समय सब साथ ही जाते थे और साथ ही आते थे । उक्त मर्यादा के साथ ही आचार्यों के प्रत्येक चातुर्मास होते थे । 
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चातुर्मास समाप्ति पर कान्हड दासजी ने आचार्यजी को उनके मर्यादा के अनुसार भेंट, भंडारी आदि की मर्यादा के अनुसार उनका सत्कार, सब संतों की मर्यादानुसार वस्त्र, नारायणा दादूधाम के सदाव्रत के लिये दिल खोलकर धन राशि दी और पूर्ण सम्मान के साथ सबको विदा किया । उक्त प्रकार खेतडी का चातुर्मास बहुत सुन्दर हुआ । 
(क्रमशः)

शुक्रवार, 28 नवंबर 2025

प्रश्‍नोत्तर का लाभ

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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९ आचार्य जीवनदास जी
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अलवर नरेश जब भी आचार्य जीवनदासजी महाराज के पास आते थे तब आचार्य जी के सामने फर्श पर बैठकर के ही शास्त्र चर्चा करते थे । आचार्यजी के सामने राजा आसन पर नहीं विराजते थे । 
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अलवर नरेश आचार्य जी से पूर्ण परिचित थे । कारण अलवर नरेश ने आचार्य निर्भयरामजी महाराज का मेला किया था और राजगढ में ही आपको आचार्य पद पर अभिषिक्त किया था । अत: अलवर नरेश आचार्य जी से पूर्व परिचित होने से इनकी संतता को पहचानते थे, इससे इन पर बहुत श्रद्धा रखते थे । इनके सामने आसन पर नहीं बैठते थे । 
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उक्त प्रकार अलवर नरेश महाराज से निशंक होकर प्रश्‍नोत्तर का लाभ लेते थे । फिर आचार्य जी अलवर से पधारने लगे तब राजा ने आने जाने का सब खर्च भन्डारी जी को दिया और आचार्य जीवनदासजी महाराज के एक हाथी और एक दुशाला भेंट किया तथा कुछ द्रव्य नारायणा दादूधाम के सदाव्रत के लिये दिया । फिर बहुत सम्मान के साथ अलवर नरेश ने तथा अलवर की जनता ने आपको विदा किया । 
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फिर आप अपने दर्शन सत्संग से मार्ग के लोगों का भला करते हुये नारायणा दादूधाम में पधार गये । यहाँ भी प्रतिदिन दादूवाणी की कथा, कीर्तन, आरती दैनिक कार्यक्रम सदा ही चलते रहते थे । यह तो नियम ही रहा है कि जहां आचार्य हो वहां दादूवाणी की कथा तो अवश्य होती ही है । 
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मेडता की रामत वि. सं. १८७७ में नारायणा दादूधाम से रामत करने मेडता की और पधारे । मार्ग के सेवक तथा धार्मिक जनता को अपने दर्शन तथा उपदेशों से कृतार्थ करते हुये मेडता पधारे । मेडता में भी नारायणा दादूधाम के समान ही साधना का क्रम रहता था । 
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प्रात: ब्राह्म मुहूर्त्त में उठकर शारीरिक क्रियाओं से निवृत होकर ब्रह्मभजन करना, प्रकाश होने पर दादूवाणी का पाठ करना फिर दादूवाणी की कथा करना तथा सुनना पश्‍चात् सुनी कथा का मनन करना, मध्य दिन में भोजन करना, कुछ विश्राम करके २ से ४ तक सत्संग करना फिर शारीरिक क्रिया करना, भ्रमण करना, भोजन, आरती, अष्टक, नाम संकीर्तन फिर निज २ आसन पर ब्रह्म भजन, शयन के समय ब्रह्म - भजन करते करते ही शयन करना । 
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यही क्रम आचार्यजी तथा आचार्यजी के साथ रहने वाले संत मंडल का सदा रहता था । नारायणा दादूधाम, मेडता दादूधाम रामत, चातुर्मास आदि सभी समय में उक्त साधना क्रम चलता था । वि. सं. १८७७ का चातुर्मास कान्हड दासजी ने खेतडी का मनाया था । इसलिये मेडता की रामत करके चातुर्मास के लिये खेतडी की ओर प्रस्थान किया । मार्ग के ग्रामों की धार्मिक जनता को अपने दर्शन सत्संग से पवित्र करते हुये खेतडी पहुँचे । 
(क्रमशः) 

*११. अधीर्य उरांहने को अंग ९/१२*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*११. अधीर्य उरांहने को अंग ९/१२*
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चूल्हा भाठी भार महिं, इंधन सब जरि जाइ । 
त्यौं सुन्दर प्रभु पेट यह, कबहूं नहीं अघाइ ॥९॥
हे प्रभो ! आपने यह पेट तो हमारे शरीर में ऐसा लगा दिया कि इसमें बड़े बड़े चूल्हे, भट्ठियाँ इन्धन सहित जल कर भस्म हो जाती हैं परन्तु तब भी हमने इस को भरा(पूर्ण) हुआ कभी नहीं देखा ! ॥९॥
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बम्बई थलहि समुद्र मैं, पानी सकल समात । 
त्यौं सुन्दर प्रभु पेट यह, रहै खात ही खात ॥१०॥
जैसे भूमि(स्थल) पर गिरा हुआ समस्त जल बांबी(बिल) के माध्यम से समुद्र(पाताल) में समा जाता है; उसी प्रकार, इस पेट में खाया हुआ समस्त भोज्य पदार्थ पता नहीं कहाँ चला जाता है कि यह दिन रात खाता ही खाता दिखायी देता है ॥१०॥
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असुर भूत अरु प्रेत पुनि, राक्षस जिनि कौ नांव । 
त्यौं सुन्दर प्रभु पेट यह, करै खांव ही खांव ॥११॥
महाराज श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - यह पापी पेट बड़े बड़े नामी, असुर, भूत, प्रेत एवं राक्षसों के समान दिन रात "खाऊँ, खाऊँ" ही करता रहता है ॥११॥
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सुन्दर प्रभुजी पेट की, चिंता दिन अरु राति । 
सांझ खाइ करि सोइये, फिरि मांगै परभाति ॥१२॥ 
उदपूर्ति की चिन्ता : महाराज कहते हैं - हे प्रभो ! हम को तो दिन रात हमारी इस खाली पेट की चिन्ता ही सताती रहती है । यह सायङ्काल खाकर सोता है, तो भी प्रातः काल जागने के साथ पुनः भोजन माँगना आरम्भ कर देता है ॥१२॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 27 नवंबर 2025

*११. अधीर्य उरांहने को अंग ५/८*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*११. अधीर्य उरांहने को अंग ५/८*
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और ठौर सौं काढि मन, करिये तुम कौं भेट । 
सुन्दर क्यौं करि छूटिये, पाप लगायौ पेट ॥५॥
मन जैसी चञ्चल इन्द्रिय को भी हम अन्य विषयों से हटा कर आप के नामस्मरण में लगा देते हैं; परन्तु इस पापी पेट के विषय में तो हम भी अभी तक नहीं समझ पाये कि इस के जञ्जाल से हम कैसे छूटें ? ॥५॥
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कूप भरै बापी भरै, पूरि भरै जल ताल । 
सुन्दर प्रभु पेट न भरै, कौंन कियौ तुम ख्याल ॥६॥
उदर की दुष्पूरता : प्रभु जी ! संसार के सभी कुए, बावड़ी या बड़े से बड़े तालाब समय पाकर जल से भरे हुए देखे जाते हैं; परन्तु आपने हमारे शरीर में यह पेट ऐसा लगा दिया कि यह तो कभी भरता ही नहीं दिखायी देता ॥६॥
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नदी भरहिं नाला भरहिं, भरहिं सकल की नाड । 
सुन्दर प्रभु पेट न भरहिं, कौंन करी यह षाड ॥७॥
हे प्रभो ! संसार में सभी छोटे बड़े नदी नाले, ताल तलैया एक न एक दिन भरे हुए दिखायी दे जाते हैं; परन्तु आपने हमारे शरीर में यह पेट ऐसा विचित्र खड्डा बना दिया कि यह तो कभी भरा हुआ दिखायी ही नहीं देता ! ॥७॥
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खंदक खास बुखार पुनि, बहुरि भरहिं घर हाट । 
सुन्दर प्रभु पेट न भरहिं, भरियहि कोठी माट ॥८॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं कि, हे प्रभी ! बड़ी बड़ी खंदकें(खड्डे), बुखारियाँ, दुकानें या बड़े बड़े घर या घड़े एक न एक दिन जल, धन या सांसारिक विषयभोग के साधनों से परिपूर्ण देखे जाते हैं, परन्तु इस पेट को भरा हुआ कभी नहीं देखा ! ॥८॥
(क्रमशः)  

सदाव्रत के निमित्त शामलपुरा ग्राम

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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९ आचार्य जीवनदास जी
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वि. सं. १८७३ में जयपुर नरेश जगतसिंह जी ने नारायणा दादूधाम दादूद्वारे के सदाव्रत के निमित्त शामलपुरा ग्राम का पक्का पट्टा श्रीस्वामीजी महाराज के पास भेजा । महाराज जीवनदासजी ने इसको अस्वीकार नहीं किया । यह समझकर स्वीकार कर लिया कि सदाव्रत तो चलता रहना अच्छा ही है । 
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आपसे पूर्व के ८ आचार्यों ने नारायणा दादूधाम के सदाव्रत के लिये भेंट तो स्वीकार की थी किन्तु ग्राम स्वीकार नहीं किये थे । कारण - ग्रामों की व्यवस्था करना, उनसे कर उगाहना आदि झंझट संतों को अच्छे नहीं लगते थे । जीवनदास जी महाराज ने समय की स्थिति देखकर ग्रहण कर लिया था और उसकी आय दैनिक सदाव्रत में लगा दी जाती थी ।
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वि. सं. १८७६ में अलवर नरेश ने आचार्य जीवनदासजी को निमंत्रण देकर अलवर बुलाया । राजा के निमंत्रण से आचार्य जीवनदासजी अपने संत मंडल के सहित अलवर पधारे । अलवर पहुँचने पर, राजा को सूचना भेजी । सूचना मिलते ही अलवर नरेश स्वयं ही राजकीय ठाटबाट से आचार्यजी की अगवानी करने आये । 
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आचार्य जीवनदासजी महाराज के दर्शन करके सत्यराम बोलकर यथोचित भेंट चढाकर प्रणाम किया । फिर परस्पर शिष्टाचार रुप प्रश्‍नोत्तर होने के पश्‍चात् महान् सम्मान सत्कार से आचार्यजी को साथ लेकर राजा नगर में आये और नगर के मुख्य - मुख्य भागों से आचार्य जी की सवारी को ले जाकर एक सुन्दर और एकान्त स्थान में ठहराया और सेवा संबन्धी सब प्रकार का प्रबन्ध सुचारु रुप से करा दिया । 
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फिर प्रतिदिन दादूवाणी की कथा, विद्वान संतों के भाषण, गायक संतों के भजन गायन, नाम संकीर्तन, आरती, संत सेवा आदि दैनिक पुण्य कार्यों में अलवर की जनता सप्रेम भाग लेने लगी । 
(क्रमशः)  

बुधवार, 26 नवंबर 2025

इन्दौर की जनता

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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९ आचार्य जीवनदास जी
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आचार्य जीवनदासजी महाराज से राजा ने प्रार्थना की कि - महाराज ! कुछ दिन आप इन्दौर में और ठहरिये । महाराज जीवनदासजी ने कहा - यहां कई दिन से ठहर रहे हैं अब तो जाने का ही विचार है । फिर भी यदि आप सत्संग में आकर लाभ लेना चाहें तो और भी ठहर सकते हैं । 
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राजा ने कहा मैं भी आ सका तब तो आ ही जाऊंगा और मैं कदाचित् कार्यवश नहीं आ सकूं तो आपके सत्संग का लाभ तो यहां की जनता अत्यधिक ले रही है । अत: मेरी प्रार्थना है कि - आप यहां जनता तथा मेरे कल्याण के लिये इन्दौर में कुछ दिन और विराजें । राजा की उक्त प्रार्थना सुनकर आचार्य जीवनदासजी महाराज ने कहा - अच्छा आपका आग्रह है तो ठहर जायेगें ।
फिर राजा ने संत मंडल सहित आचार्य जी की सब प्रकार की सेवा का प्रबन्ध सुचारु रुप से सरकार की ओर से कर दिया । राजा नहीं आ सकता था उस दिन अपने मंत्री को भेजकर सेवा आदि के विषय में पता लगाकर आवश्यकता होती वही पूरी कर दी जाती थी । 
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समय - समय पर विशेष रसोई और भेंट भी भेजते रहते थे । आचार्य जीवनदास जी महाराज को ठहराने का आग्रह राजा ने इसलिये किया था कि - इन्दौर की जनता को कुछ दिन और सुन्दर सत्संग मिलता रहे । महाराज जीवनदासजी ने भी इसीलिये राजा की प्रार्थना स्वीकार करी थी । 
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जीवनदासजी महाराज और अन्य विद्वान् संत तथा गायक संतों से वाणी प्रवचन, भाषण, गायन आदि श्रवण करके जनता ने अपना बोध बढाया था । फिर कुछ समय पश्‍चात् आचार्य जीवनदासजी महाराज इन्दौर से जाने लगे तब इन्दौर नरेश ने उचित भेंट आदि देकर बहुत आदर के साथ संत मंडल के सहित आचार्य जी को विदा किया । 
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फिर इन्दौर से चलकर अपने दर्शन सत्संग द्वारा मार्ग के लोगों का कल्याण करते हुये आचार्य जीवनदासजी महाराज अपने संत मंडल के सहित नारायणा दादूधाम में पधार गये और यहाँ ही भजन करने लगे ।  
(क्रमशः) 

*११. अथ अधीर्य उरांहने को अंग १/४*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*११. अथ अधीर्य उरांहने को अंग १/४*
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देह रच्यौ प्रभु भजन कौं, सुन्दर नख सिख साज । 
एक हमारी बात सुनि, पेट दियौं किंहिं काज ॥१॥
उदर निर्माणविषयक जिज्ञासा : हे प्रभो ! आप ने हमारे समस्त शरीर की नख से शिखा पर्यन्त सुन्दर विधि से अलंकृत कर रचना कर दी - यह तो आपने बहुत उचित किया; परन्तु यहाँ हमारा आप से यही पूछना है कि आपने हमारे इस शरीर में यह पेट किस प्रयोजन से लगा दिया ? ॥१॥ (अधीर्य = अधैर्य । उराहना = उपालम्भ)
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श्रवन दिये जस सुनन कौं, नैन देखने संत । 
सुन्दर सोभित नासिका, मुख सोभन कौं दंत ॥२॥
जैसे आपने इस(शरीर) में श्रवण(कान) की रचना की तो इन से हमारा सन्तों के उपदेश सुनने का प्रयोजन सिद्ध होता है; नेत्रों से हम सन्तों के दर्शन करते हैं; नासिका से हमारे मुख की शोभा बनी हुई है; दाँतों से भी हमारे मुख की शोभा में वृद्धि ही हुई है ॥२॥
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हाथ पांव हरि कृत्य कौं, जीभ जपन कौं नाम । 
सुन्दर ये तुम सौं लगै, पेट दियौ किंहिं काम ॥३॥
हाथ एवं पैरों से हमें आप की तथा सन्तों की सेवा करने में बहुत सहायता मिलती है; जिह्वा से आप का नाम जपते हैं । अतः हे प्रभो ! ये सब उपकरण तो आपने हमारे शरीर में उचित ही लगाये; परन्तु आपने इस शरीर में यह पेट किस प्रयोजन से लगा दिया - यह हमारी समझ में अभी तक नहीं आया ॥३॥
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सुन्दर कीयौ साज सब, समरथ सिरजनहार । 
कौंन करी यह रीस तुम, पेट लगायौ लार ॥४॥
हे सृष्टि के समर्थ रचयिता ! आपने हमसे यह किस जन्म की शत्रुता का प्रतिशोध(बदला) लिया कि आपने हमारे शरीर में यह पेट लगा दिया ! ॥४॥
(क्रमशः)  

मंगलवार, 25 नवंबर 2025

मध्य प्रदेश(मालवा) की रामत

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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९ आचार्य जीवनदास जी
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मध्य प्रदेश(मालवा) की रामत ~
वि. सं. १८७२ में मालवा(मध्य प्रदेश) के भक्तों ने प्रार्थना की कि - आप रामत करने मालवा में पधारें । फिर बहुत आग्रह करने पर महाराज जीवनदासजी ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और नारायणा दादूधाम से अपने मंडल के सहित मालवा की रामत करने पधारे । आपके साथ कई विद्वान व गायक संत भी थे ।
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इससे जहां जाते थे वहां ही दादूवाणी की कथा, विद्वानों के भाषण, गायक संतों के भजन, नाम संकीर्तन, आरती, अष्टक, संत दर्शन, संत सेवा आदि पारमार्थिक कार्य होते रहते थे । उक्त कार्यों के द्वारा जनता के मनों में आनन्द की लहरें उठती थीं । सब लोग आनन्द में घूमने लगते थे । उक्त प्रकार जनता का कल्याण करते हुये आचार्य जीवनदासजी महाराज अपने संत मंडल के सहित शनै: शनै: इन्दौर पहुँच गये ।
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इन्दौर सत्संग ~
इन्दौर में सत्संग होने लगा । धार्मिक जनता दादूवाणी के प्रवचनों से सुख शांति का अनुभव करने लगी । गायक संतों के भजन श्रवण का भी जनता पर भारी प्रभाव पडा । विद्वान् संतों के भाषणों से शिक्षित वर्ग को अति आनन्द होने लगा । संपूर्ण नगर में इस आगत संत मंडल की कीर्ति फैल गई ।
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वहां के राजा को भी उनके मंत्री ने कहा - आजकल नारायणा दादूधाम के आचार्य जीवनदासजी अपने संत - मंडल के साथ नगर में आये हुये हैं । उनके द्वारा जनता को सत्संग का अपूर्व लाभ मिल रहा है । मंत्री का उक्त वचन सुनकर राजा ने कहा - नारायणा दादूधाम के आचार्य आये हैं तब तो मुझे भी उनके दर्शन सत्संग से लाभ प्राप्त करना है । मैं भी अवश्य जाऊंगा ।
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फिर दूसरे दिन इन्दौर नरेश आचार्य जीवनदासजी के दर्शनार्थ आये और अपनी पूर्व की परंपरा के समान ही जीवनदासजी महाराज का सन्मान सत्कार किया । फिर जीवनदासजी महाराज ने राजा को उपदेश दिया जिससे राजा को अच्छा संतोष प्राप्त हुआ ।  
(क्रमशः)

*१०. तृष्णा को अंग २३/२५*

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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१०. तृष्णा को अंग २३/२५*
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सुन्दर तृष्णा चूहरी, लोभ चूहरौ जांनि । 
इनके भीटें होत है, ऊँचे कुल की हांनि ॥२३॥
यह तृष्णा मैला ढोने वाली स्त्री(चूहड़ी) के समान है, तथा इस का पति लोभ मैला ढोने वाला(चूहड़ा) है । इन दोनों के स्पर्श से भी सभ्य पुरुष को दूर करना चाहिये, अन्यथा उसके उच्च कुलस्थ प्रतिष्ठा की हानि ही होगी ॥२३॥
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सुंदर तृष्णा सर्पणी, लोभ सर्प कै साथ । 
जगत पिटारा मांहि अब, तूं जिनि घालै हाथ ॥२४॥
यह तृष्णा यदि काली नागिन(सर्पिणी) है तो इस का पति लोभ काला नाग है । यह समस्त जंगत् इन दोनों का पिटारा(वास स्थान) है । इस में कोई भी बुद्धिमान् आदमी हाथ न डाले; अन्यथा इन के विषमय दंश के प्रभाव से स्वस्थ पुरुष भी मृत्यु का ग्रास बन जायगा ॥२४॥
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सुन्दर तृष्णा है छुरी, लोभ खड्ग की धार । 
इनतें आप बचाइये, दोनौं मारणहार ॥२५॥ 
इति तृष्णा को अंग ॥१०॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - यदि तृष्णा छुरी(छोटा घातक अस्त्र) है तो लोभ को तेज धार वाली तलवार समझो । बुद्धिमान् आदमी इन दोनों से स्वयं को बचाये रखें: अन्यथा ये दोनों तो स्वभावतः हत्यारे हैं, पता नहीं कब कोई इन के लक्ष्य पर आ जाय ! ॥२५॥
इति तृष्णा का अंग सम्पन्न ॥१०॥
(क्रमशः) 

सोमवार, 24 नवंबर 2025

९ आचार्य जीवनदास जी

*#daduji*
*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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अथ अध्याय ७, ९ आचार्य जीवनदास जी
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स्वामी जीवनदासजी अपने से पूर्वाचार्य निर्भयरामजी महाराज के सबसे बडे व प्रिय शिष्य थे । इन्होंने अपने गुरुदेव आचार्य निर्भयरामजी महाराज की पूर्ण श्रद्धा भक्ति से अच्छी सेवा की थी । ये भजनानन्दी महात्मा थे । 
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इनका अधिकतर समय भजन करने में तथा दादूवाणी के पाठ व विचार में जाता था । ये व्यर्थ की बातें कभी भी नहीं करते थे और अपने अधीन रहने वाले संतों को भी व्यर्थ बातें करने का अवकाश नहीं देते थे । भजन, वाणी पाठ व विचार में ही लगाये रखते थे । इनका उक्त साधुता का व्यवहार देखकर तथा शांत सरल स्वभाव देखकर आचार्य निर्भयरामजी ने पहले ही निश्‍चय कर लिया था कि यह जीवनदास ही आचार्य पद के योग्य हैं ।
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इसी से आचार्य निर्भयरामजी महाराज ने अपने शरीरान्त से १५ दिन पहले ही आचार्य पद दे दिया था किन्तु माने तो गये आचार्य निर्भयराम जी के ब्रह्मलीन होने से दिन वि. सं. १८७१ आश्‍विन कृष्णा ८ बृहस्पति वार से तथा समाज की प्रथा के अनुसार वि. सं. १८७१ आश्‍विन कृष्णा ११ रविवार को राजगढ में ही गद्दी पर विराजे । 
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जीवनदास जी महाराज भी अपने पूर्व आचार्यों के समान ही महान् महात्मा थे । आचार्य निर्भयराम जी महाराज की सेवा में चिरकाल तक रहने के कारण आप सभी व्यवहार को अच्छी प्रकार जानते ही थे । फिर भी आप बाह्य व्यवहार में भाग न लेकर पूर्वाचार्यों के समान संपूर्ण समय भजन, विचार, उपदेश में ही व्यतीत करते थे । 
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श्री जीवन जी राजगढ मीर खान जुध जान ।  
करुना हरि जप चौतरे नागा जैत जहान ॥
(सुन्दरोदय)  
बाह्य व्यवहार के कार्य तो सब भंडारी लोग ही सदा से करते आये हैं वैसे ही इन के समय में भी सब काम भंडारी ही करते थे । आप सदा भजन में ही लगे रहते थे ।  
(क्रमशः) 

*१०. तृष्णा को अंग २०/२२*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१०. तृष्णा को अंग २०/२२*
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सुन्दर तृष्णा डाइनी, डाकी लोभ प्रचंड ।
दोऊ काढैं आंखि जब, कंपि उठै ब्रह्मंड ॥२०॥
अयि तृष्णे ! तूँ अपने इस विकराल रूप में राक्षसी के समान लग रही है । तेरा लोभ भी अतिशय डाकी(पेटू = बहुत अधिक खाने वाला) है । तथा तेरा क्रोध इतना भयङ्कर है कि जब तू क्रोध से अपनी आँखें निकालकर लोगों को दिखाती है तब समग्र ब्रह्माण्ड भय से काँप उठता है ॥२०॥
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सुंदर तृष्णा भांडिनी, लोभ बडौ अति भांड । 
जैसौ ही रंडुवौ मिल्यौ, तैसी मिलि गई रांड ॥२१॥
श्रीसुन्दरदासजी महाराज कहते हैं - अयि तृष्णे ! तूँ तो बहुत चतुर विदूषक(मजाकिया) लगती है, तथा तेरा यह लोभ तुझ से भी बढ़कर(विशेष) भांड है । तुम दोनों की जोड़ी देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि तुझ रांड(वेश्या) को तेरे ही समान यह रंडुवा(वेश्यागामी) मिल गया ॥२१॥
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सुंदर तृष्णा कोढनी, कोढी लोभ भ्रतार । 
इनकौं कबहुं न भींटिये, कोढ लगै तन ख्वार ॥२२॥
महाराज श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - यह तृष्णा घृणित कुष्ठ रोग से ग्रस्त के समान है और इस का पति लोभ भी कुष्ठ रोगी ही है । किसी भले(रूपवान्) पुरुष को इन दोनों का स्पर्श भी नहीं करना चाहिये; अन्यथा इन का स्पर्श करने वालों को भी यह घृणित कुष्ठ रोग लग जायगा, उससे उन का रूपवान् शरीर भी विकृत हो जायगा ॥२२॥
(क्रमशः)