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*स्वांगी साधु बहु अन्तरा, जेता धरणी आकाश ।*
*साधु राता राम सौं, स्वांगी जगत की आश ॥*
*साभार ~ @ध्यान अभियान आश्रम
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मैंने सुना है, एक गांव में एक फकीर है। उस गांव का राजा रात को निकलता है कभी, तो बार-बार उस फकीर को देखता है कि नीम के वृक्ष के नीचे वह सर्दी की रातों में ठिठुरता रहता है। फिर उसने गांव में पता लगाया। उसके वजीरों ने कहा, वह साधारण आदमी नहीं है, वह बहुत, बहुत अदभुत व्यक्ति है; कहीं पहुंच गया, कुछ पा लिया, कुछ हो गया है उसकी जिंदगी में। तो सम्राट ने एक रात उससे जाकर कहा कि आप यहां न पड़े रहें, मेरे मन में बड़ी श्रद्धा का उदय हुआ है, चलें आप राजमहल में, वहीं निवास करें।
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राजा ने सोचा--शायद न भी सोचा हो, लेकिन अचेतन में कहीं छाया रही होगी--कि संन्यासी तो फौरन कहेगा, राजमहल ? मैं नहीं जा सकता हूं। हम फकीर हैं, हम झोपड़ों में सड़क के किनारे पड़े रहते हैं। राजमहल हमारे लिए नहीं है। लेकिन सम्राट यह कह ही रहा था कि तभी वह फकीर उचका और राजा के घोड़े पर सवार हो गया। और उसने कहा, चलिए, किस तरफ चलें ?
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राजा को बड़ी मुश्किल हो गई। श्रद्धा एकदम समाप्त हो गई। उसने कहा कि मैंने कहा भी नहीं और यह आदमी राजी हो गया ! यह कैसा संन्यासी है ? लेकिन अपने ही शब्द वापस लेने में भी तो देर लग जाती है। अब एकदम से कैसे शब्द वापस ले ले ! मन तो वहीं खट्टा हो गया। क्योंकि भोगी जो हैं वे सिर्फ त्यागियों को पूज सकते हैं। भोगियों की पूजा ने ही त्यागियों को पैदा किया हुआ है।
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इसलिए जिसकी धन से जितनी ज्यादा लोलुपता होगी, वह उस आदमी के पास जाकर पैर छुएगा जिसने धन को लात मार दी होगी। वह इसलिए पैर छुएगा कि हां, यह है कुछ आदमी। यह पहुंच गया वहां जहां मुझे भी पहुंचना चाहिए। जो आदमी स्त्रियों के पीछे दीवाना होगा, वह ब्रह्मचारी के जाकर पैर पड़ेगा। वह कहेगा कि यह है आदमी। हम अपने से उलटे को पूजते हैं।
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और अगर पूजा लेनी हो तो आम लोग जैसे हैं उससे उलटे होना जरूरी हो जाता है। अगर वे पैर से चलते हैं तो आप शीर्षासन करिए, फिर पूजा मिलनी शुरू हो जाती है। पूजा सिर्फ उलटे को मिलती है। और जो उलटा है, वह बदला हुआ नहीं है। सिर के बल खड़े हो जाइए चाहे पैर के बल, आदमी आप वही हैं। आदमी नहीं बदल जाता सिर के बल खड़े होने से।
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राजा बहुत मुश्किल में पड़ गया, लेकिन निमंत्रण दिया था तो फकीर को घर ले गया। अच्छे से अच्छा महल था, फकीर को ठहरा दिया। लेकिन श्रद्धा चली गई। क्योंकि श्रद्धा भोगी की त्यागी में हो सकती है। और धीरे-धीरे श्रद्धा मिटती गई। क्योंकि जो भी खाने को कहा, उसने खाना ले लिया; जहां भी सोने को कहा, वह सो गया--मखमली गद्दे थे तो स्वीकार कर लिए।
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तब तो राजा ने कहा, बात सब खराब हो गई। मैं बड़ी गलती में पड़ गया। मैं किस तरह के आदमी को ले आया ! छह महीने बाद राजा ने एक दिन जाकर उस फकीर को कहा कि एक सवाल मेरे मन में उठा है, पूछ लूं ? वह सवाल यह है कि मुझमें और आपमें अब फर्क क्या है ? उस संन्यासी ने कहा, तुम छह महीने बाद पूछ रहे हो, सवाल तो उसी रात उठ गया था।
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उसने कहा, क्या मतलब ? संन्यासी ने कहा, जब मैं घोड़े पर सवार हुआ था, तभी सवाल उठ गया था। लेकिन बड़े कमजोर आदमी हो, पूछने में भी छह महीने लगा दिए ! उस राजा ने कहा, शायद आप ठीक कहते हैं, सवाल तो उसी वक्त उठ गया था।
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तो उसी वक्त पूछ लेना था, उस फकीर ने कहा। कैसे कमजोर आदमी हो ! फिर राजा ने कहा, अब आज तो बता दें, कि अब मुझमें और आपमें फर्क क्या है ? फकीर ने कहा, सच में ही फर्क जानना है, तो चलो उसी जगह चलें जहां से यह सवाल उठा था। वहीं जवाब दे दूंगा। वे गए गांव के बाहर, उस झाड़ के नीचे, फिर वे चलते ही गए। राजा ने कहा, वह झाड़ भी निकल गया, अब आप जवाब दे दें।
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उस फकीर ने कहा, थोड़े और आगे, थोड़े और आगे। फिर वे गांव की सीमा-रेखा पर पहुंच गए, जहां राजा का राज्य समाप्त हो जाता था। नदी थी, फकीर ने कहा, नदी भी पार कर लें। उस राजा ने कहा, लेकिन मतलब क्या है ? अब जवाब दीजिए, दोपहर हो गई, धूप सिर पर चढ़ गई। उस फकीर ने कहा, जवाब मेरा यही है कि अब मैं तो आगे जाता हूं, तुम भी साथ चलते हो ?
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उस राजा ने कहा, मैं कैसे जा सकता हूं ? मेरी पत्नी, मेरे बच्चे, मेरा राज्य ! उस फकीर ने कहा, तो मैं तो जाता हूं। अगर फर्क दिखाई पड़े तो देख लेना। तुम्हारे महल में मैं था, लेकिन तुम्हारा महल मेरे भीतर न था। तुम सिर्फ महल में नहीं हो, महल भी तुम्हारे भीतर है।
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अब कहां है महल तुम्हारा ? कहां है पत्नी ? कहां हैं तुम्हारे बच्चे ? लेकिन तुम कहते हो कि मुझे लौटना पड़ेगा--मेरी पत्नी, मेरे बच्चे, मेरा महल ! मेरा कुछ भी नहीं है। मैं तुम्हारे महल में मेहमान था, मैं तुम्हारे महल का मालिक न था। महल के भीतर था मैं, लेकिन महल मेरे भीतर न था। अच्छा मैं जाऊं ?
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राजा के मन में श्रद्धा का फिर उदय हुआ। श्रद्धा के उदय होने में भी देर नहीं लगती, जाने में भी देर नहीं लगती। वह एकदम संन्यासी के पैर पकड़ लिया और उसने कहा, महाराज, कहां मुझे छोड़ कर जाते हैं ! वापस चलें।
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उसने कहा, मैं फिर घोड़े पर सवार हो सकता हूं, लेकिन श्रद्धा का अंत हो जाएगा। अब तुम मुझे जाने दो। मुझे कोई कठिनाई नहीं है, मैं लौट सकता हूं। लेकिन तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। छह महीने मैं तो बड़े मजे में सोया, तुम बड़ी मुसीबत में रहे।
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फिर सवाल उठ जाएगा, अगर मैं लौटा। तो अब मत लौटाओ। मैं तो लौट सकता हूं, क्योंकि मेरे लिए यह दिशा और वह दिशा, सब बराबर है। इधर जाऊं कि इधर जाऊं, कि कहीं न जाऊं, कोई फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन तुम मुसीबत में पड़ जाओगे।
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इस आदमी को मैं संन्यासी कहता हूं। जो संसार से भयभीत है वह संन्यासी नहीं है। लेकिन जो संसार में ऐसे रहने लगा, जैसे मेहमान है, अतिथि है; जो संसार में ऐसे रहने लगा कि संसार चारों तरफ है, लेकिन उसके भीतर नहीं है; वह आदमी संन्यस्त है।
~आचार्य रजनीश "ओशो"
"समाधि के द्वार पर-प्रवचन-१"