बुधवार, 6 नवंबर 2024

= ७६ =

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*जीवित मृतक साधु की, वाणी का परकास ।*
&दादू मोहे रामजी, लीन भये सब दास ॥*
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*साभार ~ @Umakant Dwivedi*
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दिन की आखिरी ट्रेन अगर स्टेशन से निकल गई तो फिर कल सुबह ही अगली ट्रेन मिलने की कल्पना किए एक बूढ़ी महिला के पैर तेजी से स्टेशन की तरफ बढ़े जा रहे थे किंतु स्टेशन पहुंचते पहुंचते आखिर ट्रेन छूट ही गई तो महिला निढ़ाल होकर एक बेंच पर बैठ गई,,उनके चेहरे पर चिंता के भाव थे,,
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एक कुली ने इसे देखा और माँ से पूछा।
- माईजी, आपको कहाँ जाना था ?
- मैं अपने बेटे के पास दिल्ली जाऊंगी....
- पर आज कोई ट्रेन नहीं माई अब कल सुबह मिलेगी ।
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महिला बेबस लग रही थी तो कुली ने कहा,,,, माई अगर आपका घर दूर हो तो यहीं प्रतीक्षालय में आपके लेटने का प्रबंध कर दूं और भोजन भी आपको पहुंच जाएगा, कोई दिक्कत की बात नहीं है,,,,,,,, वैसे दिल्ली में आपका बेटा क्या काम करता है ???
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माँ ने जवाब दिया कि मेरा बेटा रेल महकमे में काम करता है।
माई आप जरा बेटे का नाम बताइए,, देखूंगा अगर संपर्क संभव होगा तो तार(प्राचीन भारत का टेलीफोनिक सिस्टम) से आपकी बात करवा दूंगा,,,,, कुली ने कहा,,,
- वह मेरा लाल है, मैं उसे लाल ही बुलाती हूं मगर उसको सब लाल बहादुर शास्त्री कहते हैं ! (माँ ने जवाब दिया)
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वृद्ध महिला के मुंह से उनके बेटे का नाम सुनकर कुली के पैरों तले जमीन खिसक गई वो आवाक रह गया,, भागकर स्टेशन मास्टर के कमरे में पहुंचा और एक ही सांस में पूरी बात कह सुनाया। स्टेशन मास्टर तुरंत हरकत में आए कुछ लोगों से आनन फानन तार से बात की और अपने मातहतों के साथ भागकर बूढ़ी महिला के पास पहुंच गए,,,,,,,,
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महिला को सादर प्रणाम कर स्टेशन मास्टर ने पूछा,,,,,, मां जी आपके बेटे ने कभी आपको बताया नहीं की वो रेल महकमे में क्या काम करते हैं ???? बताया था ना मुझे,,, बोला था कि अम्मा मैं रेलवे के दिल्ली दफ्तर में छोटा सा मुलाजिम हूं !!
मां जी,,आपकी शिक्षा व संस्कारों ने आपके बेटे को बहुत बड़ा व महान बना दिया है,, जानना नहीं चाहेंगी कि आपके बेटे जी रेल महकमे में कौन सा काम करते हैं ???
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स्टेशन मास्टर की बात सुनके महिला के चेहरे पर विस्मय के भाव थे......
मां जी,,, इस पूरे भारत में जितनी ट्रेन चलती है और जितने मेरे जैसे लाखों रेलवे के मुलाजिम हैं उन सबके वो मुखिया और अगुआ हैं,, वो भारत के माननीय रेल मंत्री हैं। स्टेशन मास्टर व वृद्ध महिला के बीच चल रहे वार्तालाप के बीच ही स्टेशन का माहौल पूरी तरह बदल चुका था,,,
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सायरन की हुंकार के साथ जिले के पुलिस कप्तान जिला कलेक्टर सहित रेलवे पुलिस बल के जवान व अधिकारी स्टेशन पर पहुंच चुके थे एंबेसडर कार भी आ चुकी थी । वृद्ध मां को सलामी देते हुए उनको पूरे सम्मान के साथ रेलवे के सुरक्षा गार्डों के सुपुर्द कर शास्त्री जी के पास दिल्ली रवाना कर दिया गया।
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बनारस के छोटे से स्टेशन पर चल रहे इस बड़े घटनाक्रम से दिल्ली दरबार में बैठा वो "छोटे कद का बड़ा आदमी" पूरी तरह अनजान था........ ऐसे थे भारत मां के सच्चे सपूत श्री लाल बहादुर शास्त्री जी
साहित्यिक पत्रिका से प्राप्त प्रेरक प्रसंग का आवर्धित संस्करण!
*नमन, वंदन और श्रद्धा सुमन*

मंगलवार, 5 नवंबर 2024

= ७५ =

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*भ्रम कर्म जग बंधिया, पंडित दिया भुलाइ ।*
*दादू सतगुरु ना मिले, मारग देइ दिखाइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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ध्यान एक औषधि की भांति है। पहले तुम्हें बीमारी उत्पन्न करनी होगी, तब ध्यान की जरूरत होगी। यदि वहां रोग ही नहीं है तो ध्यान की जरूरत नहीं है। और यह कोई संयोग नहीं कि दवा(मेडिसिन) और ध्यान(मेडिटेसन) शब्द समान मूल से आते हैं। वह शब्द है मेडिसिन अर्थात उपचार करने के गुण पास होना। प्रत्येक बच्चा बुद्धिमान होकर ही जनम लेता है।
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और जिस क्षण बच्चे का जन्म होता है, हम उस पर आक्रमण कर देते हैं, और उसकी बुद्धिमत्ता को नष्ट कर देना प्रारम्भ कर देते हैं, क्योंकि राजनैतिक ढांचे के लिए, सामाजिक ढांचे के लिए और धार्मिक ढांचे के लिए बुद्धिमत्ता खतरनाक है। यह पोप के लिए खतरनाक है, यह पुरी के शंकराचार्य के लिए खतरनाक है, यह सभी धर्मों के लिए मठाधीशों के लिए खतरनाक है, यह नेता के लिए खतरनाक है, जो स्थिति अभी है उसके लिए और सामाजिक व्यवस्था के लिए खतरनाक है।
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बुद्धिमत्ता स्वाभाविक रूप से विद्रोही है। बुद्धिमत्ता को पराधीन बनने के लिए विवश नहीं किया जा सकता। बुद्धिमत्ता बहुत हठी और वैयक्तिक होती है। बुद्धिमत्ता को एक यांत्रिक अनुकरण में नहीं बदला जा सकता। लोगों की मौलिकता को नष्ट करना है और उन्हें उनकी कार्बन कापी में बदलना है, अन्यथा पृथ्वी पर जो सभी व्यर्थ की मूर्खता विद्यमान है, उसका होना असम्भव हो जायेगा।
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चूंकि पहले तुम्हें बुद्धिहीन बनाना है, तो तुम एक नेता की आवश्यकता होगी, अन्यथा वहां किसी नेता अथवा वहां किसी नेता अथवा पथ प्रदर्शक की ज़रूरत ही नहीं होती, तुम्हें किसी व्यक्ति का अनुसरण क्यों करना चाहिए ? तुम अपनी बुद्धिमत्ता का अनुसरण करोगे। यदि कोई व्यक्ति पथप्रदर्शक बनना चाहता है, तो उसे एक चीज़ करनी होगी उसे किसी तरह तुम्हारी बुद्धिमत्ता को नष्ट करना होगा। तुम्हें प्रामाणिक जड़ों से हिलाना होगा, तुम्हें भयभीत बनाना होगा।
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तुम्हें स्वयं अपने ही प्रति अनाश्वस्त होना होगा, ऐसा होना अनिवार्य है। केवल तभी नेता अथवा पथप्रदर्शक आ सकता है।यदि तुम बुद्धिमान हो, तो तुमअपनी समस्याएं स्वयं सुलझा लोगे। सभी समस्याओं को हल करने के लिए बुद्धिमत्ता पर्याप्त है। वास्तव में जो भी समस्याएं जीवन में सृजित होती हैं, तुम्हारे पास उन समस्याओं से कहीं अधिक बुद्धि होती है। यह एक प्रावधान है, यह परमात्मा का एक उपहार है।
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लेकिन वहां महत्वाकांक्षी लोग होते हैं। जो शासन करना चाहते हैं, जो आधिपत्य जमाना चाहते हैं: वहां महत्वाकांक्षी पागल लोग भी होते हैं—वे तुम्हारे अंदर भय सृजित करते हैं। भय एक मोरचे के समान है: वह सारी बुद्धिमत्ता को नष्ट कर देता है। यदि तुम किसी व्यक्ति की बुद्धिमत्ता को नष्ट करना चाहते हो, तो पहली आवश्यक चीज़ है कि भय सृजित करो, नर्क निर्मित कर दो जिससे लो डरने लगें।
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जब लोग भय के नर्क में होते हैं तो वे पुरोहित के पास जायेगें उसके आगे सिर झुकायेंगे। वे पंडित पुरोहित की बात सुनेंगे। यदि वे उसे नहीं सुनते है तो नर्क की ज्वाला है। स्वाभाविक रूप से वे भयभीत हैं। उन्हें नर्क की ज्वाला से अपनी रक्षा करनी है; इसके लिए पुरोहित की ज़रूरत है। पुरोहित अनिवार्य हो जाता है। क्योंकि तुम यह नहीं जानते कि क्या कल भी तुम्हारी बुद्धिमत्ता जीवन के साथ सफलतापूर्वक निपटने में समर्थ होगी अथवा नहीं। कौन जानता है ?
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तुम अपनी बुद्धिमत्ता के बारे में आश्वस्त नहीं हो, इसीलिए तुम संग्रह करते हो और लालची बन गए हो। और भय दोनों एक साथ समय बिताते हैं। इसी कारण स्वर्ग और नर्क दोनों एक साथ समय बिताते हैं। नर्क है भय और स्वर्ग है लालच।

= ७४ =

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*दादू अनुभव काटै रोग को, अनहद उपजै आइ ।*
*सेझे का जल निर्मला, पीवै रुचि ल्यौ लाइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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चित्त तो महत्वाकांक्षी है ही। इस महत्वाकांक्षा को हम क्या करें ? चित्त तो आगे होना चाहता है, लेकिन शायद कोई भूल हो रही है। रवींद्रनाथ ने गीत लिखे। मरने के कोई आठ दिन पहले किसी मित्र ने आकर पूछा कि आपने ये गीत क्यों लिखे ? किससे आप आगे होना चाहते थे ? रवींद्रनाथ ने कहा कि गीत मैंने इसलिए लिखे कि गीत मेरे आनंद थे। किसी से आगे और पीछे का सवाल न था।
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गीत मेरी खुशी थी। मेरा हृदय उनको गा कर आनंदित हुआ था। आगे और पीछे होने का सवाल न था। किसी से न आगे होना था, न किसी से पीछे। ‘वानगाग’ एक डच पेंटर था। किसी ने उससे पूछा, ‘क्यों तुमने ये चित्र बनाए ? क्यों किया पेंट ? क्यों इतनी मेहनत की ? क्यों अपना जीवन लगाया ?’ वानगाग ने कहा कि और किसी कारण से नहीं। मेरा हृदय चित्रों को बनाकर परमानंद को उपलब्ध हुआ है।
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महत्वाकांक्षा दूसरे से प्रतिस्पर्धा है, दूसरे से आगे होना है। लेकिन सच्ची शिक्षा मनुष्य को वह रहस्य सिखाएगी जिससे वह खुद से आगे होने में समर्थ हो जाए, रोज-रोज खुद से आगे, दूसरे से नहीं। कल सांझ को सूर्य जहां मुझे छोड़े, आज सुबह सूर्य उगते मुझे वहां न पाए। मैं अपने भीतर और गहरा चला जाऊं। जिस काम को मैंने चाहा है, उसमें मेरे पैर और दस सीढ़ियां नीचे उतर जाएं, जिस पहाड़ को मैंने चढ़ना चाहा है, मैं और दस कदम आगे चला जाऊं।
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किसी दूसरे से नहीं, अपने से। कल मैं जहां था, सांझ मुझे आगे पाए, तो मैं जीवित हूं। मुझे अपने को पार कर जाना है। लेकिन अब तक जो शिक्षा दी गई है वह, दूसरे को पार कर जाने की शिक्षा है। इसलिए दुनिया में घृणा है, इसलिए दुनिया में प्रेम नहीं है। एक ऐसी शिक्षा को जन्म देना है, जो व्यक्ति को खुद अपना अतिक्रमण सिखो। आदमी अपने को पार करे, दूसरे को नहीं। दूसरे से क्या प्रयोजन है ?
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दूसरे से क्या संबंध है ? मेरी खुशी रोज गहरी होती चली जाए। मेरे जीवन की बगिया में रोज नए-नए फूल खिलते चले जाएं। मैं रोज उस नई ताजी जिंदगी के अनुभव करता चला जाऊं। मुझे कुछ सृजन होता चला जाए। दूसरे के इसका कोई संबंध नहीं। एक-एक व्यक्ति ऐसा जिए जैसे जमीन पर अकेला होता, तो जीता। तभी शायद हम मनुष्य को प्रेम पैदा करने में सफल बना सकेंगे।
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क्योंकि मनुष्य जब अपने को प्यार करता है तो रोज-रोज उसके पास बांटने को, लुटाने को, बहुत कुछ इकट्ठा हो जाता है, रोज बांटता है फिर भी पाता है। भीतर और इकट्ठा होता चला जा रहा है, क्योंकि वह रोज अपने को प्यार करता जा रहा है, क्योंकि वह रोज अपने जीवन के नए शिखरों को स्पर्श करता जा रहा है। वह नए आकाश को छू रहा है। नए क्षितिज को पार कर रहा है।
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उसके पास बहुत इकट्ठा हो जाता है। उसे वह क्या करे ? उसे वह बांटता है। जो अपने को पार करने मग लगता है उसका जीवन एक बांटना ही हो जाता है। उसकी खुशी फिर बांटना हो जाती है और महत्वाकांक्षी की खुशी होती है संग्रह करने में। सबसे छीन लेना है और अपने पास इकट्ठा कर लेना है। जो व्यक्ति अपने को पार होने में समर्थ होता है उसकी खुशी हो आती है बांट देना, लुटा देना और हमेशा उसे ऐसा लगता है कि जितना मैं दे सकता था उससे मैं कम दे पाया।
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रवींद्रनाथ के मरने के पहले किसी ने उनको कहा कि तुमने तो इतने गीत गाए, कहते हैं दुनिया में किसी न न गाए। छह हजार गीत, और एक-एक गीत ऐसा जो संगीत में बांधा जा सके। तुम तो महाकवि हो। काई ऐसा नहीं हुआ अब तक, जिसने छह हजार गीत गाए होंगे जो संगीत में बंध जाएं। रवींद्रनाथ की आंखों में आंसू आ गए।
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पूछनेवाले ने समझा कि वे प्रशंसा से प्रभावित हो गए हैं लेकिन रवींद्रनाथ ने कहा, ‘मैं रो रहा हूं दुःख से। तुम कहते हो मैंने गीत गाए और इधर मैं, मौत करीब आते देख आंख बंद करके परमात्मा से प्रार्थना करता हूं कि हे परमात्मा, अभी तो मैं केवल साज बिठा पाया था, अभी गीत गाया कहां ? अभी तो तैयारी चलती थी। अभी तो मैं सितार ठोक-पीट कर तैयार कर पाया था। अब गाता और यह विदा का क्षण आ गया।
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मुझे एक मौका और देना कि जो मैंने इकट्ठा किया था उसे बांट सकूं। अभी तो बहुत-कुछ इकट्ठा था। मेरा हृदय एक बादल की तरह था जिसमें पानी भरा था और धरती प्यासी थी और मेरे विदा का वक्त आ गया और बदल ऐसी चली जाएगी भरी-भरी, और अब लुटा नहीं सकेगी जो उसके पास था। मैं तो उसे फूल की तरह था जो अभी कली था और जिसमें सुगंध बंद थी। अभी मैं खुलता और सुगंध बांटता। लोग कहते हैं मैंने गीत गाए, मैं तो अभी साज बिठा पाया था और यह विदा का वक्त आ गया।’
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जो आदमी लुटा देगा, जो बांटेगा निरंतर, वह अनुभव करेगा कि उससे ज्यादा उसके भीतर बहुत घनीभूत हो आया था जो और लुट जाना चाहता था। ऐसे व्यक्ति का जीवन प्रेम का जीवन है। आत्मदान प्रेम है। लेकिन बांटेगा कौन ? जो छीनने को उत्सुक नहीं है वही। दूसरे को देगा कौन ? जो दूसरे से आगे निकल जाने को आतुर नहीं हैं वही, दूसरे के लिए जीएगा कौन ? जो दूसरे के जीवन को पीछे नहीं हटा देता। लेकिन हमारा सारा सम्मान तो उनके लिए आता है जो दूसरे को हटा देते हैं।
ओशो - 6-घाट भुलाना बाट बिनु-(प्रवचन-05)
पांचवां-प्रवचन-(प्रेम नगर के पथ पर)

= ७३ =

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*राम रमत है देखे न कोइ,*
*जो देखे सो पावन होइ ॥*
*बाहिर भीतर नेड़ा न दूर,*
*स्वामी सकल रह्या भरपूर ॥*
*दादू हरि देखे सुख होहि,*
*निशदिन निरखन दीजे मोहि ॥*
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*साभार ~ @Krishna Krishna*
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🥀झीनी झीनी बिनी चदरिया🥀
कबीर कहते हैं,
सोइ चादर सुर नर मुनि ओढ़ी,
ओढ़ी के मैली कीनी चदरिया।
दास कबीर जतन से ओढ़ी,
ज्यों की त्यों धरि दीनी चदरिया।
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लेकिन दास कबीर ने बड़े सम्हाल कर ओढ़ी, बड़ी सावचेतता से ओढ़ी, बड़े जतन से, होश से ओढ़ी, बड़े ध्यान से ओढ़ी--और ज्यों की त्यों धरि दीनी चदरिया--जैसी दी थी परमात्मा ने, वैसी ही वापस कर दी। यह मोक्ष है। यह मुक्त की अवस्था है। तुम, जो मिलता है, उसे वैसा ही वापस कर देना बिना विकृत किए।
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बच्चा पैदा होता है, साफ चादर ले कर पैदा होता है। सब स्वच्छ, निर्दोष! फिर विकृति आनी शुरू होती, इकट्ठी होनी शुरू होती। बूढ़ा मरता है खंडहर की भांति, सब बरबाद! हाथ में कुछ भी उपलब्धि नहीं। जो पास था, वह भी गंवा कर। कबीर कहते हैं कि ज्ञानी भी करता है, लेकिन इतना उसको बचाए रखना है, जो मिला था। उस चादर को वैसा ही निर्दोष रखता है।
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कैसे रखोगे इस चादर को निर्दोष ? कबीर गृहस्थ हैं, पत्नी, बच्चा है, कमाते हैं, घर लाते हैं--फिर भी कहते हैं, दास कबीर जतन से ओढ़ी। कला क्या है इस चदरिया को बचा लेने की ? कला है : होश। कला है : विवेक। कला है : जाग्रत चेतना। करो--जो कर रहे हो, जो करना पड़ रहा है। जो नियति है, पूरी करो।
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भागने से कुछ प्रयोजन नहीं। लेकिन करते समय कर्ता मत बनो। साक्षी रहो, वहां कुंजी है। बाजार जाओ, दुकान करो, कर्ता मत बनो। मंदिर जाओ, प्रार्थना करो--कर्ता मत बनो। कर्ता परमात्मा को ही रहने दो, तुम काहे झंझट में…बीच में पड़ते हो। कर्ता एक--वही सम्हाले ! तुम साक्षी रहो। तुम जैसे अभिनेता हो--जैसे एक पार्ट तुम्हें मिला है, एक रोल ड्रामा के एक हिस्सा है, वह तुम्हें पूरा कर देना है।
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जैसे तुम राम बने, रामलीला में, तो जरूर तुम्हें रोना है। सीता चोरी जाएगी, वृक्ष से पूछना है, कहां है मेरी सीता, चीख--पुकार मचाना, सब करना है, लेकिन भीतर-भीतर न तुम्हारी सीता खोयी है, न कोई मामला है। अभिनय है। पर्दे के पीछे जाकर तुम फिर गपशप करोगे, चाय पियोगे। रावण से चर्चा करोगे--पर्दे के पीछे। पर्दे के बाहर धनुषबाण लेकर खड़े हो जाओगे।
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जीवन एक लीला है। अगर तुम जतन से चल सको, तो जीवन एक अभिनय है।
ओशो; सुन भई साधो--(प्रवचन-05)

= ७२ =

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*जब अंतर उरझ्या एक सौं, तब थाके सकल उपाइ ।*
*दादू निश्‍चल थिर भया, तब चलि कहीं न जाइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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चौथा प्रश्न : भगवान, एक बात मेरी समझ में नहीं आती कि जैसे आप बैठते हैं ठीक वैसे ही पूरे दो घंटा बैठे रहते हैं। आपके शरीर का कोई अंग हिलता ही नहीं, केवल एक हाथ हिलता है। और हम पांच मिनिट भी शांत नहीं बैठ पाते ।
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अमृत कृष्ण, वह एक हाथ भी तुम्हारी वजह से हिलाना पड़ता है। तुम्हारी अशांति के कारण। नहीं तो उसको भी हिलाने की कोई जरूरत नहीं है। तुम अगर शांत बैठ जाओ तो वह हाथ भी न हिले। तुम्हारा मन अशांत है तो उसकी प्रतिछाया शरीर पर पड़ती है। तुम्हारा शरीर तो तुम्हारे मन के अनुकूल होता है; उसकी छाया है।
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आनंद ने बुद्ध से पूछा है कि आप जैसे सोते हैं, जिस करवट सोते हैं, रात भर उसी करवट सोए रहते हैं ! आनंद कई रात बैठ कर देखता रहा--यह कैसे होता होगा ! स्वाभाविक है उसकी जिज्ञासा। उसने कहा : 'मैंने हर तरह से आपको जांचा। आप जैसे सोते हैं, पैर जिस पैर पर रख लिया, रात भर रखे रहते हैं। आप सोते हैं कि रात में यह भी हिसाब लगाए रखते हैं कि पांव उसी पर रहे, बदले नहीं। करवट नहीं बदलते !
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बुद्ध ने कहा : 'आनंद, जब मन शांत हो जाए तो शरीर को अशांत रहने का कोई कारण नहीं रह जाता।'
मुझे कोई चेष्टा नहीं करनी पड़ रही है यूं बैठने में। मगर कोई जरूरत नहीं है। लोग बैठे-बैठे करवटें बदलते रहते हैं। लोग कुर्सी पर बैठे रहते हैं और पैर चलाते रहते हैं, पैर हिलाते रहते हैं; जैसे चल रहे हों ! जैसे साइकिल चला रहे हों ! बैठे कुर्सी पर हैं, मगर उनके प्राण भीतर भागे जा रहे हैं।
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मन चंचल है, मन गतिमान है। उसकी छाया शरीर पर ही पडे़गी। जब मन शांत हो जाएगा तो शरीर भी शांत हो जाएगा। जरूरत होगी तो हिलाओगे, नहीं जरूरत होगी तो क्या हिलाना है ? इसमें कुछ रहस्य नहीं है, सीधी-सादी बात है यह। तुम जरूर अशांत होते हो। वह मैं जानता हूं। पांच मिनिट भी शांत बैठना मुश्किल है।
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असल में पांच मिनिट भी अगर तुम शांत बैठना चाहो तो हजार बाधाएं आती हैं। कहीं पैर में झुनझुनी चढे़गी, कहीं पैर मुर्दा होने लगेगा, कहीं पीठ में चींटियां चढ़ने लगेंगी। और खोजोगे तो कोई चींटी वगैरह नहीं है! बडा़ मजा यह है! कई दफा देख चुके कि चींटी वगैरह कुछ भी नहीं है, मगर कल्पित चींटियां चढ़ने लगती हैं। न मालूम कहां-कहां के खयाल आएंगे !
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हजार-हजार तरह की बातें उठेंगी कि यह कर लूं वह कर लूं, इधर देख लूं उधर देख लूं। मन कहेगा : 'क्या बुध्दू की तरह बैठे हो ! अरे उठो , कुछ कर गुजरो ! चार दिन की जिंदगी है, ऐसे ही चले जाओगे ? इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्ण-अक्षरों में नाम लिख जाए, ऐसा कुछ कर जाओ। ऐसे बैठे रहे तो चूक जाओगे। दूसरे हाथ मारे ले रहे हैं।'
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तुम्हारा मन भागा-भागा है, इसलिए शरीर भागा-भागा है। और लोग क्या करते हैं ? लोग उल्टा करते हैं। लोग शरीर को थिर करने की कोशिश करते हैं। इसलिए लोग योगासन सीखते हैं कि शरीर को थिर कर लें, तो मन थिर हो जाएगा। वे उल्टी बात करने की कोशिश कर रहे हैं। यह नहीं हो सकता। शरीर को थिर करने से मन थिर नहीं होता। मन थिर हो जाए तो शरीर अपने से थिर हो जाता है।
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मैंने कभी कोई योगासन नहीं सीखे। जरूरत ही नहीं है। ध्यान पर्याप्त है। और शरीर को अगर बिठालने की कोशिश में लगे रहे तो सफल हो सकते हो। सरकस में लोग सफल हो जाते हैं, मगर उनको तुम योगी समझते हो ? सरकस में लोग शरीर से क्या-क्या नहीं कर गुजरते ! सब कुछ करके दिखला देते हैं। लेकिन उससे तुम यह मत समझ लेना कि वे योगी हो गए। उनकी जिंदगी वही है, जो तुम्हारी है। शायद उससे गयी-बीती हो।
तुम अगर आसन भी सीख गए तो भी कुछ न होगा। लेकिन अगर भीतर मन ठहर गया तो सब अपने से ठहर जाता है।
ओशो; उड़ियो पंख पसार-- प्रवचन-10

= ७१ =

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*दादू बिगसि बिगसि दर्शन करै,*
*पुलकि पुलकि रस पान ।*
*मगन गलित माता रहै,*
*अरस परस मिलि प्राण ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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#कबीर के गुरु थे रामानंद। कबीर उनको नाचते देखते। तंबूरा बजता है, रामानंद नाचते हैं। कबीर उनके पास बैठते हैं। उनसे बहते आनंद के झरने का स्पर्श होता है। उनकी मस्ती, उनकी समाधिस्थ आनंद की दशा, सोते-जागते रामानंद को सब रूपों में देखते हैं। उस रूप में धीरे-धीरे अरूप की भनक पड़ने लगती है। रामानंद के पास होते-होते राम के पास होने लगते। क्योंकि रामानंद यानी राम को पा कर मिला आनंद।
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यह नाम बड़ा प्यारा है कबीर के गुरु का–रामानंद। जिसको मिल गया और जो उसके आनंद से भरा है। राम का पता नहीं है कबीर को, लेकिन रामानंद में घटे आनंद का पता है। वह घट रहा है। वह प्रतिपल बरस रहा है। वहां मेघ गरज ही रहे हैं। चहुं दिस दमके दामिनी। वहां तो बिजली चमक रही है। वह रामानंद के पास रोग लगता है। रामानंद संक्रामक बीमारी हो जाते हैं।
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जैसे बीमारियां पकड़ती हैं, वैसे स्वास्थ्य भी पकड़ती है। और जैसे बीमारियां पकड़ती हैं और बीमारियों के कीटाणु होते हैं, वैसे ही स्वास्थ्य के भी कीटाणु होते हैं और वैसे ही परमात्मा की धुन भी पकड़ती है। क्योंकि वह परम स्वास्थ्य है।
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रामानंद के पास एक नई पुलक उठने लगी। एक नई पुकार! कोई दूर से बुलाता है। पहचाना नहीं, जाना नहीं, लेकिन हृदय आंदोलित होता है। प्रीति लागी तुम नाम की। अभी तुम्हारा कुछ पता नहीं। अभी सिर्फ नाम सुना है। वह भी रामानंद से सुना है। लेकिन रामानंद में ऐसा घट रहा है, कि भरोसा आ रहा है कि वह नाम जरूर किसी का होगा। उसकी खोज करनी पड़ेगी।

ओशो; कहै कबीर दिवाना

सोमवार, 4 नवंबर 2024

*४४. रस कौ अंग ४९/५२*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४४. रस कौ अंग ४९/५२*
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रांम ह्रिदै लिव२ लाइ रहै, ते जन रसिया होंइ ।
कहि जगजीवन आप निरंजन, मिल खेलै मन मोंहि ॥४९॥
(२. लिव लाइ=लय समाधि लगाकर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो मन में राम नाम की लगन लगा लेते हैं, वे राम नाम रसिक होते हैं । उनसे परमात्मा आप स्वयं मिल कर क्रीडारत होते हैं, ऐसे जन प्रभु का भी मन मोह लेते हैं ।
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सोई रस पीवै मगन, जिस रस की मांहिं प्यास ।
हरिजन हरि रस हेत हरि, सु कहि जगजीवनदास ॥५०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि वह ही इस राम रस का पान करेगा जिसे इसकी चाह होगी । जो प्रभु के बंदे है वे  परमात्मा के आनंदरस से ही नेह करते हैं ।
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सरस बिरह बैराग हरि, सरस ग्यांन धरि ध्यांन ।
कहि जगजीवन सरस ए, रांम दरस रसपांन ॥५१॥ 
संत जगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु का ध्यान आनंदपूर्वक हो प्रभु विरह हो या संसार से वैराग्य या ज्ञान सबमें प्रभु का ही ध्यान हो ।
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सरस सु बांणी बंदगी, सरस कथा रस रूप ।
कहि जगजीवन सरस रस, पीवै प्रांण अनूप ॥५२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु की सेवा सरस वाणी द्वारा कथा भी सरस रुप में हो । इस अद्भुत आनंदरस को अनुपम जीव ही पान करते हैं ।
(क्रमशः)

*श्रीधर स्वामीजी की पद्य टीका*

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*दादू वाणी प्रेम की, कमल विकासै होहि ।*
*साधु शब्द माता कहैं, तिन शब्दों मोह्या मोहि ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*इन्दव-*
*श्रीधर स्वामीजी की पद्य टीका*
*पंडित व्राज१ रहे सु बड़े बड़,*
*भागवतम् कर टिप्पण२ रीजै ।*
*होत विचार पुरी हु बनारस,*
*जो सबके मन भाय लिखीजै ॥*
*तो सु प्रमाण करै विन्दु माधव,*
*बात भली धरि मंदिर दीजै ।*
*जाय धेरै हरि हाथन से करि,*
*दे सरवोपरि चालत धीजै३ ॥४२२॥*
जिस समय श्रीधर स्वामी ने भागवत की टीका लिखी थी, उस समय और भी बड़े बड़े पंडित देश में विराजे१ हुये थे । उन विद्वानों ने भी भागवत पर टीकायें२ लिखी थीं । वे सभी अपनो अपनी टीका की अन्य टीकाओं से श्रेष्ठ बताते हुए तथा अपनी बुद्धि की विचित्रता पर प्रसन्न होते हुये परस्पर विवाद करते थे ।
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फिर एक समय काशीपुरी में सब टीकाकर इकट्ठे हुए और कौन सी टीका श्रेष्ठ है-इस निर्णय के लिये सभा की । यह प्रस्ताव आया कि जो सबको प्रिय लगे वहीं बेह है ऐसा लिख दिया जाय । किन्तु यह तो पास नहीं हुआ, कारण सबको अपनी अपनी ही प्रिय लगती थी ।
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तब अन्तिम निर्णय हुआ कि इस सभा का सर्व संमति से महापंच भगवान् विन्दुमाधवजी को मान लिया जाय और ये जिसको प्रामाणिक बता दें उसी को श्रेष्ठ मान लिया जाय । सबने इस बात को अच्छी मान कर स्वीकार कर लिया । प्रथम सब टीका ग्रंथ मंदिर में रख दें ।
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तब सबने मध्याह्न भोग के बाद अपने अपने टीका ग्रंथ मंदिर में बराबर रख करके प्रार्थना करते हुये कि कौन टीका ग्रथ श्रेष्ठ है इसका निर्णय आप कृपा करके कर दीजिये । मंदिर बन्द कर दिया गया । दो मुहूर्त (चार घड़ी) के बाद मंदिर खोलकर देखा तो श्रीधरी टीका का ग्रन्थ सब टीकाओं के ऊपर रखा था और उस पर लिखा था- श्रीधरी सर्वश्रेष्ठ है । तब सबने उसी पर विश्वास किया और वही अधिक चली अर्थात् उसका ही अधिक प्रचार३ हुआ ।
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विशेष विवरण - श्रीधर स्वामी ईसा की दसवीं या ग्यारहवीं शताब्दी में भारत के किसी दक्षिण प्रदेश में जन्मे थे । इनके गाँव, माता पिता, जन्म तिथि आदि का निश्चित पता नहीं किसी इनके बचपन में ही माता पिता का देहान्त हो गया था । पढ़ाई की व्यवस्था नहीं होने से इनकी प्रतिभा प्रस्फुट नहीं हो सकी थी ।
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एक दिन ये एक ऐसे पात्र में तेल लिये जा रहे थे जिस का बुद्धिमान उपयोग नहीं करते हैं । उसी समय उस नगर का राजा और मंत्री परस्पर परमार्थ की चर्चा करते हुये उसी मार्ग से घूमने जा रहे थे । मंत्री कह रहा था-"भगवान् की भक्ति से अयोग भी सुयोग हो जाता है । कुपात्र भी सत्पात्र हो जाता है ।" उसी समय राजा की दृष्टि श्रीधर बालक पर पड़ी । राजा ने कहा- "क्या यह बालक हरि भक्ति से बुद्धिमान् हो सकता है ?" मंत्री ने बड़े विश्वास के साथ कहा- अवश्य ।
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हरि इच्छा ऐसी ही थी । बालक को परीक्षा के लिये हरि आराधना में लगाया । नृसिंह की उपासना कराई गई, भगवान् के दर्शन देकर इनको वेदादि का संपूर्ण ज्ञान और अनन्य भक्ति का वर दिया । फिर अन्तर्धान हो गये । फिर तो बड़े बड़े विद्वान् इनके आगे नतमस्तक होने लगे । राजा के यहाँ इनकी बड़ी प्रतिष्ठा हुई ।
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विवाह भी हुआ परन्तु इनका मन सब कुछ त्याग कर भजन करने की इच्छा करता था । किन्तु स्त्री की अनाथ दशा का स्मरण करके रुक जाते थे । कुछ दिन बाद इनकी स्त्री गर्भवती हुई और बच्चा जनमते ही मर गई । अब बच्चे के पालन-पोषण की चिन्ता लग गई । एक दिन गीता पाठ करते समय 'योगक्षेमं वहाम्यहम्' पाठ आया तब कुछ विश्वास दृढ़ हुआ ।
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बच्चे को भगवान् के आश्रय छोड़ कर भजन करने का निश्चय किया । घर से चलते समय फिर बच्चे पर दृष्टि पड़ी । उस शिशु को देखकर हृदय द्रवित हो गया । उसी समय इनके मकान की छत से एक पक्षी का अण्डा इनके सामने पड़ा और फूट गया । उससे बच्चा निकला और धीरे धीरे अपना मुख हिलाने लगा ।
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श्रीधरजी ने सोचा यह भूखा है इसको कुछ नहीं मिला तो मर जायगा । यह देख कर फिर हृदय में बल आ गया । ये सब कुछ भगवान् के भरोसे छोड़ कर चल दिये । काशी जाकर साधन द्वारा आत्मा का साक्षात्कार किया । फिर इनने गीता, भागवत और विष्णुसहस्रनाम पर टीकाए लिखीं, जो सर्वमान्य हैं । इनका जीवन भगवद्भजन और ग्रन्थों के पर्यालोचन में व्यतीत हुआ था ॥
(क्रमशः)

*श्रीरामकृष्ण की उच्च अवस्था*

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*दादू सबको बणिजै खार खल,*
*हीरा कोई न लेय ।*
*हीरा लेगा जौहरी,*
*जो माँगै सो देय ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(२)श्रीरामकृष्ण की उच्च अवस्था*
श्रीरामकृष्ण मास्टर से बातचीत कर रहे हैं । कामिनी के सम्बन्ध में अपनी अवस्था बतला रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - ये लोग कहते हैं, कामिनी और कांचन के बिना चल नहीं सकता । मेरी क्या अवस्था है, यह ये लोग नहीं जानते ।
"स्त्रियों की देह में हाथ लग जाता है तो ऐंठ जाता है, वहाँ पीड़ा होने लगती है । “यदि आत्मीयता के विचार से किसी के पास जाकर बातचीत करने लगता हूँ तो बीच में एक न जाने किस तरह का पर्दा-सा पड़ा रहता है; उसके उस तरफ जाया ही नहीं जाता ।
"कमरे में अकेला बैठा हुआ हूँ, ऐसे समय अगर कोई स्त्री आये तो एकदम बालक की-सी अवस्था हो जाती है और उसे माता की दृष्टि से देखता हूँ ।"
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मास्टर निर्वाक् होकर श्रीरामकृष्ण के पास बैठे हुए ये सब बातें सुन हैं | कुछ दूर भवनाथ के साथ नरेन्द्र बातचीत कर रहे हैं । भवनाथ ने विवाह किया है, अब नौकरी की खोज में हैं । काशीपुर के बगीचे में श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए अधिक नहीं आ सकते । श्रीरामकृष्ण भवनाथ के लिए बड़ी चिन्ता किया करते हैं । कारण, भवनाथ संसार में फँस गये हैं । भवनाथ की उम्र २३-२४ वर्ष की होगी ।
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श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से) - उसे खूब हिम्मत बँधाते रहना ।
नरेन्द्र और भवनाथ श्रीरामकृष्ण की ओर देखकर मुस्कराने लगे । श्रीरामकृष्ण इशारा करके फिर भवनाथ से कह रहे हैं - "खूब वीर बनो । घूँघट के भीतर अपनी स्त्री के आँसू देखकर अपने को भूल न जाना । ओह ! औरतें कितना रोती हैं ! - वे तो नाक छिनकने में भी रोती हैं !
(नरेन्द्र, भवनाथ और मास्टर हँसते हैं ।)
"ईश्वर में मन को अटल भाव से स्थापित रखना । वीर वह है, जो स्त्री के साथ रहने पर भी उससे प्रसंग नहीं करता । स्त्री के साथ केवल ईश्वरीय बातें करते रहना ।"
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कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण फिर इशारा करके भवनाथ से कह रहे हैं - “आज यहीं भोजन करना ।"
भवनाथ - जी, बहुत अच्छा । आप मेरी चिन्ता बिलकुल न कीजिये ।
सुरेन्द्र आकर बैठे । महीना वैशाख का है । भक्तगण सन्ध्या के बाद रोज श्रीरामकृष्ण को मालाएँ पहनाया करते हैं । सुरेन्द्र चुपचाप बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण ने प्रसन होकर उन्हें दो मालाएँ दीं । सुरेन्द्र ने प्रणाम करके मालाओं को पहले सिर पर धारण किया, फिर गले में डाल लिया ।
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सब लोग चुपचाप बैठे हुए श्रीरामकृष्ण को देख रहे हैं । सुरेन्द्र उन्हें प्रणाम करके खड़े हो गये । वे चलनेवाले हैं । जाते समय भवनाथ को बुलाकर उन्होंने कहा, 'खस की टट्टी लगा देना ।'
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*(३)श्रीरामकृष्ण तथा हीरानन्द*
श्रीरामकृष्ण ऊपरवाले कमरे में बैठे हैं । सामने हीरानन्द, मास्टर तथा दो-एक भक्त और हैं । हीरानन्द के साथ दो-एक मित्र भी आये हैं । हीरानन्द सिन्ध में रहते हैं । कलकत्ते के कॉलेज में अध्ययन समाप्त करके देश चले गये थे, अब तक वहीं थे । श्रीरामकृष्ण की बीमारी का समाचार पाकर उन्हें देखने के लिए आये हैं । सिन्ध देश कलकत्ते से कोई बाईस सौ मील होगा । हीरानन्द को देखने के लिए श्रीरामकृष्ण भी उत्सुक रहते थे ।
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श्रीरामकृष्ण हीरानन्द की ओर उँगली उठाकर मास्टर को इशारा कर रहे हैं । मानो कह रहे हैं - 'यह बड़ा अच्छा लड़का है ।'
श्रीरामकृष्ण - क्या तुमसे परिचय है ?
मास्टर - जी हाँ, है ।
श्रीरामकृष्ण - (हीरानन्द और मास्टर से) - तुम लोग जरा बातचीत करो, मैं सुनूँ ।
मास्टर को चुप रहते हुए देखकर श्रीरामकृष्ण ने पूछा - "क्या नरेन्द्र है ? उसे बुला लाओ ।"
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नरेन्द्र ऊपर श्रीरामकृष्ण के पास आकर बैठे ।
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र और हीरानन्द से) - तुम दोनों जरा बातचीत तो करो ।
हीरानन्द चुप हैं । बड़ी देर तक टाल-मटोल करके उन्होंने बातचीत करना आरम्भ किया ।
हीरानन्द - (नरेन्द्र से) - अच्छा, भक्त को दुःख क्यों मिलता है ?
हीरानन्द की बातें बड़ी ही मधुर हैं । जिन-जिन लोगों ने उनकी बातें सुनीं, उन सब को यह जान पड़ा कि इनका हृदय प्रेम से भरा है ।
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नरेन्द्र - इस संसार का प्रबन्ध देखकर यह जान पड़ता है कि इसकी रचना किसी शैतान ने की है । मैं इससे अच्छे संसार की सृष्टि कर सकता था ।
हीरानन्द - दुःख के बिना क्या कभी सुख का अनुभव होता है ?
नरेन्द्र - मैं यह नहीं कहता कि संसार की सृष्टि किस उपादान से की जाय, किन्तु मेरा मतलब यह है कि संसार का अभी जो प्रबन्ध दीख पड़ रहा है, वह अच्छा नहीं ।
"परन्तु एक बात पर विश्वास करने पर सब निपटारा हो जायगा । सब ईश्वर हैं, यह विश्वास किया जाय तो उलझन सुलझ जायेगी । ईश्वर ही सब कुछ कर रहे हैं ।"
हीरानन्द - यह कहना सहज है । 
(क्रमशः)

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2024

*श्री रज्जबवाणी, समता निदान का अंग १०*

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*दादू माला तिलक सौं कुछ नहीं, काहू सेती काम ।*
*अन्तर मेरे एक है, अहनिशि उसका नाम ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ भेष का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*समता निदान का अंग १०*
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हिन्दू की हद्द१ न ताव२ तुरक्क३ की, 
मुद्रा की मान्य४ न मौन सुहावै ।
माला न मेल नहीं तसबी सब, 
गेरू नहीं गति५ भस्म न भावै ॥
गूदड़ झूठ न नग्न नहीं कछु, 
मूढ़ मुग्ध६ सू मुंड खुसावै७ ।
पखापख८ प्रीति न भूलै सु भेषों हौ, 
रज्जब राम रटै सोई पावै ॥६॥
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प्रभु के भक्तों में न हिन्दुओं की मर्यादा१ होती है, न मुसलमानों३ की शक्ति२ होती है । न मुद्रा की मान्यता४ होती है, न मौन उन्हें प्रिय लगता है ।
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माला से ही उनका मेल नहीं होता है । न तसबीह आदि सब मुसलमानों के वाह्य चिन्ह उन्हें प्रिय लगते और न गेरूं से मुक्ति५ मानते, भस्म रमाना भी उन्हें प्रिय नहीं होता ।
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गूदड़ी रखना भी झूठा दंभ ही मानते हैं, नग्न भी नहीं रहते । कुछ मूर्ख६ प्रतिष्ठा के मोह में पड़कर शिर के बाल उखड़वाते७ हैं, वह भी उन्हें प्रिय नहीं होता है । 
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न भूल से सुन्दर भेषधारियों की पक्ष-विपक्ष८ में प्रीति करते, वे तो निरंतर राम का नाम ही रटते रहते हैं । जो समता पूर्वक नाम चिन्तन करते हैं वे ही नामी को प्राप्त करते हैं ।
(क्रमशः)

*विरह विनती ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू इस हियड़े ये साल,*
*पीव बिन क्योंहि न जाइसी ।*
*जब देखूँ मेरा लाल,*
*तब रोम रोम सुख आइसी ॥*
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*विरह विनती ॥*
निहौरौ राम निहौरौ रे, अब कै मानी मोरौ रे ॥टेक॥
धखै न धुँवाँ नीसरै रे, जलत न देखै कोइ ।
बरसि बुझावो रामजी, मेरा तौ तन सीतल होइ ॥
बिरह न बाहरि नीसरै रे, घुण ज्यूँ पंजर खाइ ।
यौं मन मेरा बेधिया, अब हा हा दरस दिखाइ ॥
रैंणि सबाई यौं रही रे, चितवत गई बिहाइ ।
चरण दिखावो रामजी, मेरा जनम अविरथा जाइ ॥
तूँ साधौं कै साधिलौ रे, भगति हेत कै भाइ ।
मेरी बरिया रामजी, अब येती बिलम न लाइ ॥
पाइ लागूँ बिनती करूँ रे, तूँ मेरै घरि आव ।
बहुतक दिन बिछुरें भये, अब बलि जाँउ बेर न लाव ॥
राम निहोरौ मानिये रे, जन की करौ सहाइ ।
दरसन दीजै दीन कौं, बषनां बलिहारी जाइ ॥२२॥
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निहोरौ = आग्रह युक्त प्रार्थना । निहौरौ = अनुग्रह । धखै = जलती है अग्नि । बरसि = जल की वर्षा करके, दर्शन देकर । घुण = गेहूँ आदि अन्न में कीड़े लग जाते हैं जिससे अन्न का दाना खोखला हो जाता है । मात्र बाहरी खोल रह जाता है । यहाँ विरह रूपी घुन ने पंजर रूपी शरीर को खोखला कर रखा है । बेधिया = बींध रखा है, मन विरह में पूर्ण रूप से निमग्न हो गया है । हा हा = दीनता-दर्शक उच्चारण किये गये शब्द । सबाई = सारी । चिंतवत = चिंतन । अविरथा = व्यर्थ । साधिलौ = सहायक । भगति = भक्त ॥
.
अबकी बार = इस मनुष्य जन्म में की गई आग्रह पूर्वक मेरी प्रार्थना को हे रामजी ! मान लीजिये और मुझे अनुग्रहित करिये । मेरी प्रार्थना है, “मुझे दर्शन देकर कृतार्थ करो ।”
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आपके दर्शनों के अभाव में मेरे शरीर-मन में विरह रूपी अग्नि धधक रही है किन्तु उस अग्नि का धुवाँ बाहर नहीं निकलता है । मेरी विरह का अनुभव मात्र मैं हूँ कर पा रही हूँ । इसका अनुभव अन्यों को नहीं है । हे रामजी ! दर्शन देकर मेरी विरहाग्नि को शांत करो ताकि मेरा शरीर-मन तो शीतल हो जाये ।
.
विरहाग्नि बाहर न निकलने के कारण अन्यों को अनुभूत नहीं होती है । इसकी स्थिति ठीक वैसी ही होती है जैसी घुने हुए अन्न की होती है । जो बाहर से साबुत सा दीखता है किन्तु अन्दर से खोखला होता है । मेरे शरीर की स्थिति भी ऐसी ही है जो बाहर से मोटा ताजा दीखता है किन्तु अन्दर से आपके अमिलनजन्य विरह से पूर्णरूपेण खोखला हो चुका है । मेरा मन पूर्णरूपेण विरहावृत्त हो चुका है । अतः मैं आपके सामने हा हा खाता हूँ, विनीत प्रार्थना करता हूँ कि आप मुझे दर्शन देवें ही देवें ।
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सारी रात्रि मैं विरह में डूबी रही तथा आपका चिन्तन करती रही । हे रामजी ! अब तो आप मुझे दर्शन दिखाओ क्योंकि मेरा जन्म=समय व्यर्थ ही व्यतीत हुए जा रहा है ।
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हे प्रभो ! आप साधुओं के हितकारी साथी तथा भक्तों के भाई हैं । आप साधुओं तथा भक्तों को दर्शन देकर सुखी करते रहे हैं । मेरी बारी आने पर आप इतनी देरी मत करिये । अब तत्काल दर्शन दीजिये ।
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मैं आपके पैरों पड़ती हूँ, दीनतायुक्त प्रार्थना करती हूँ कि आप मेरे घर पधारें । मुझे आपसे बिछुड़े हुए बहुत समय हो गया है; मैं आप पर बलि जाती हूँ; न्यौछावर होती हूँ; दर्शन देने में तनिक भी देरी मत करो ।
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हे रामजी ! मेरी प्रार्थना को मानकर मुझ भक्त की सहायता करो । दीन-हीन शरणागत को दर्शन दो । मैं बषनां आप पर बलि जाता हूँ ॥२२॥
(क्रमशः)

रविवार, 27 अक्तूबर 2024

*४४. रस कौ अंग ४५/४८*

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*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४४. रस कौ अंग ४५/४८*
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कहि जगजीवन निसा गत, दिन मंहि जाइ समाइ ।
रांम भगति करि जन लहै, हरि रस भैदै भाइ ॥४५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि रात जाने पर दिन में समा कर भी भक्त जन भक्ति में लीन रहते हैं उन्हें रात दिवस से कोइ फर्क नहीं पड़ता है । वे तो हरि स्मरण आनंद में ही मगन रहते हैं ।
.
रांम राति रस नांम सौं, रंग भरि रमै मुरारि ।
कहि जगजीवन रांम रुचि, ररंकार धुंनि च्यारि ॥४६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम रंग में आनंदरस में रंग कर मुरारी जी के भजन में जो रम जाये उसे चारो पहर राम रंकार की धुन सुनती है ।
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रस मंहि झूलै आतमां, रोम रोम धुंनि नांम ।
कहि जगजीवन नांम पिछांणै, रस पीवै रटि रांम ॥४७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम नाम के रस आनंद में रोम रोम से आनंद ध्वनि आती है । जो इस आनंद का महत्व पहचानते हैं वे ही राम रट कर इस रस का पान करते हैं ।
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रांम क्रिपा रस पीवतां, साखी सबद अनेक ।
कहि जगजीवन फहम१ करि, देखै तो हरि एक ॥४८॥
(१. फहम करि=समझ कर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जन जन राम कृपा से इस आनंदरस का पान कर अनेक साखी व सबद कहते सुनते हैं । समझ कर देखें तो प्रभु तो एक ही है ।
(क्रमशः)

*श्रीधरजी स्वामी*

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*मन ताजी चेतन चढै, ल्यौ की करै लगाम ।*
*शब्द गुरु का ताजणा, कोई पहुँचै साधु सुजान ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*श्रीधरजी स्वामी*
*छप्पय-*
*उत्कृष्ट-धर्म भागवत में, श्रीधर ने वर्णन कर्यो ॥*
*अज्ञानी त्रय कांड, मिले सब कोई भाखे ।*
*ज्ञानी अरु कर्मेष्ट, अर्थ को अनर्थ दाखै१ ॥*
*राखी भक्ति प्रधान, करी टीका विस्तीरन ।*
*अगम२ निगम३ अविरुद्ध, बहुरि भारत की सीरन४ ॥*
*कृपा सु परमानन्द की, माधव जी ऊपरि धरयो ।*
*उत्कृष्ट धर्म भागवत में, श्रीधर ने वर्णन करयो ॥३०३॥*
.
श्रीधर स्वामीजी ने श्रीमद्भागवत में परम धर्म(भागवद्धर्म) का यथार्थ वर्णन किया है अर्थात् भागवत में जैसा व्यासजी और शुकदेवजी का आशय था वही अपनी टीका द्वारा स्पष्ट किया है ।
.
सभी अज्ञानी लोग-कर्मकाण्ड, उपासना काण्ड और ज्ञान काण्ड, इन तीनों काण्डों को मिलाकर अर्थ करते थे । कारण अज्ञानी होने से तीनों का यथार्थ स्वरूप जानते ही नहीं थे । ज्ञानी (वेदान्ती) सब प्रसंगों को अपनी ओर खेंचते थे और कर्म को ही इष्ट मानने वाले पूर्व मीमांसक कर्मठ और अपनी ओर खेंचते थे, इस प्रकार अर्थ का अनर्थ करके बताते१ थे ।
.
किन्तु श्रीधर स्वामी ने जिन वाक्यों में भक्ति प्रधान थी, उनका अर्थ भक्ति प्रधान ही किया है । ज्ञान तथा कर्म की ओर नहीं खींचा है और विस्तारपूर्वक अर्थ किया है । आपकी भागवत की टीका आगम२(षट् शास्त्र) और वेदों के अनुकूल है और पंचम वेद३ महाभारत रूप सरोवर की तो मानो धारा४ ही हैं अर्थात् महा भारत से भी मिलती हुई है ।
.
आप पर अपने गुरु परमानन्दजी की तो सत्कृपा थी ही, भगवान् विन्दु माधवजी ने भी आपकी भागवत को सब टीकाओं के ऊपर रख कर श्रेष्ठ बताया था ॥३०३॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2024

= ७० =

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*दादू तो पीव पाइये, करिये मंझे विलाप ।*
*सुनि है कबहुँ चित्त धरि, परगट होवै आप ॥*
=============
*साभार ~ @Subhash Jain*
.
किसने कहा तुम्हें कि रोना कमजोरी का लक्षण है ? मीरा खूब रोयी है! चैतन्य की आंखों से झर—झर आंसू बहे ! नहीं, कमजोरी के लक्षण नहीं हैं—भाव के लक्षण हैं; भाव की शक्ति के लक्षण हैं। और ध्यान रखना, भाव विचार से गहरी बात है। खयाल रखना, आंसू जरूरी रूप से दुःख के कारण नहीं होते। हालांकि लोग एक ही तरह के आंसुओ से परिचित हैं जो दुःख के होते हैं।
.
करुणा में भी आंसू बहते हैं। आनंद में भी आंसू बहते हैं। अहोभाव में भी आंसू बहते हैं। कृतज्ञता में भी आंसू बहते हैं। आंसू तो सिर्फ प्रतीक हैं कि कोई ऐसी घटना भीतर घट रही है जिसको सम्हालना मुश्किल है—दुःख या सुख; कोई ऐसी घटना भीतर घट रही है जो इतनी ज्यादा है कि ऊपर से बहने लगी। फिर वह दुःख हो, इतना ज्यादा दुःख हो कि भीतर सम्हालना मुश्किल हो जाये तो आंसुओ से बहेगा। आंसू निकास हैं। या आनंद घना हो जाये तो आनंद भी आंसुओ से बहेगा। आंसू निकास हैं।
.
आंसू जरूरी रूप से दुःख या सुख से जुड़े नहीं हैं—अतिरेक से जुड़े हैं। जिस चीज का भी अतिरेक हो जायेगा, आंसू उसी को लेकर बहने लगेंगे। तो जो रोये, उनके भीतर कुछ अतिरेक हुआ होगा; उनके हृदय पर कोई चोट पड़ी होगी; उन्होंने कोई मर्मर सुना होगा अज्ञात का; दूर अज्ञात की किरण ने उनके हृदय को स्पर्श किया होगा; उनके अंधेरे में कुछ उतरा होगा; कोई तीर उनके हृदय को पीड़ा और आह्लाद से भर गया—रोक न पाये वे अपने आंसू।
.
और रोना बड़ी शक्ति है। एक बहुत अनूठी दिशा को मनुष्य—जाति ने खो दिया है—विशेषकर मनुष्यों ने खो दिया है, पुरुषों ने, स्त्रियों ने थोड़ा बचा रखा है, स्त्रियां धन्यभागी हैं। मनुष्य की आंख में, पुरुष हो कि स्त्री, एक—सी ही आंसुओं की ग्रंथियां हैं। प्रकृति ने आंसुओ की ग्रंथियां बराबर बनायी हैं। इसलिए प्रकृति का तो निर्देश स्पष्ट है कि दोनों की आंखें रोने के लिए बनी हैं।
.
लेकिन पुरुष के अहंकार ने धीरे—धीरे अपने को नियंत्रण में कर लिया है। धीरे— धीरे पुरुष सोचने लगा है कि रोना स्त्रैण है; सिर्फ स्त्रियां रोती हैं। इस कारण पुरुष ने बहुत कुछ खोया है—भक्ति खोयी, भाव खोया। इस कारण पुरुष ने आनंद खोया, अहोभाव खोया। इस कारण पुरुष ने दुःख की भी महिमा खोयी; क्योंकि दुःख भी निखारता है, साफ करता है।
.
ओशो: अष्‍टावक्र: महागीता–(भाग–1) प्रवचन–4.

= ६९ =

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*दादू शब्दैं ही मुक्ता भया, शब्दैं समझे प्राण ।*
*शब्दैं ही सूझे सबै, शब्दैं सुरझे जाण ॥*
=============
*साभार ~ @Subhash Jain*
.
एक आदमी मेरे पास आया और उसने मुझे आकर कहा, कि मैं बहुत अशांत हूं। शांति का कोई रास्ता बताइए। मेरे पैर पकड़ लिए। मैंने कहा, पैर से दूर रखो हाथ। क्योंकि मेरे पैरों से तुम्हारी शांति का क्या संबंध हो सकता है ? सुना नहीं कहीं और मेरे पैर को कितने ही काटो-पीटो, कुछ पता नहीं चलेगा कि तुम्हारी शांति मेरे पैर में कहां।
.
वह आदमी बहुत चौंका। उसने कहा, आप थे, क्या बात कहते हैं ! मैं ऋषिकेश गया वहां शांति नहीं मिली। अरविंद आश्रम गया वहां शांति नहीं मिली। अरुणाचल हो कर आया। रमण के आश्रम में चला गया वहां शांति नहीं मिली। कहीं शांति नहीं मिली। सब ढोंग-धतूरा चल रहा है। किसी ने मुझे आपका नाम लिया, तो मैं आपके पास आया हूं।
.
मैंने कहा, तुम उठो दरवाजे के एकदम बाहर हो जाओ। नहीं तो तुम जाकर कल यह भी कहोगे, वहां भी गया, वहां भी शांति नहीं मिली। और मजा यह है कि जब तुम अशांत हुए थे, तुम किस आश्रम में गए थे ? किस गुरु से पूछने गए थे अशांत होने के लिए ? तुमने किससे शिक्षा ली थी अशांत होने की ? मेरे पास आए थे ? किसके पास गए थे पूछने कि मैं अशांत होना चाहता हूं ? गुरुदेव, अशांत होने का रास्ता बताइए ?
.
अशांत सज्जन आप खुद हो गए थे, अकेले काफी थे। और अब शांत नहीं हैं, जैसे कि हमने आपको अशांत किया हो ? आप हमसे पूछने आए थे ? नहीं-नहीं, आपसे तो पूछने नहीं आया। किससे पूछने गए थे ? किसी से पूछने नहीं गए। तो मैंने कहा, ठीक से समझने की कोशिश करो, कि खुद अशांत हो गए हो, कैसे हो गए हो, किस बात से हो गए हो, उसकी खोज करो। पता चल जाएगा, इस बात से हो गए। वह बात करना बंद कर देना। शांत हो जाओगे। शांत होने की कोई विधि थोड़े ही होती है।
.
अशांत होने की विधि होती है। और अशांत होने की विधि जो छोड़ देता है, वह शांत हो जाता है। मुक्त होने का कोई रास्ता थोड़े ही होता है। अमुक्त होने का रास्ता होता है। बंधने की तरकीब होती है। जो नहीं बंधता, वह मुक्त हो जाता है।
जीवन संगीत ~ ओशो

= ६८ =

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*समता के घर सहज में, दादू दुविध्या नांहि ।*
*सांई समर्थ सब किया, समझि देख मन मांहि ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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मैंने एक बहुत पुरानी कहानी सुनी है… यह यकीनन बहुत पुरानी होगी क्योंकि उन दिनों ईश्वर पृथ्वी पर रहता था. धीरे-धीरे वह मनुष्यों से उकता गया क्योंकि वे उसे बहुत सताते थे. कोई आधी रात को द्वार खटखटाता और कहता, “तुमने मेरे साथ ऐसा क्यों किया ? मैंने जो चाहा था वह पूरा क्यों नहीं हुआ ?” सभी ईश्वर को बताते थे कि उसे क्या करना चाहिए… हर व्यक्ति प्रार्थना कर रहा था और उनकी प्रार्थनाएं विरोधाभासी थीं.
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कोई आकर कहता, “आज धूप निकलनी चाहिए क्योंकि मुझे कपड़े धोने हैं.” कोई और कहता, “आज बारिश होनी चाहिए क्योंकि मुझे पौधे रोपने हैं”. अब ईश्वर क्या करे ? यह सब उसे बहुत उलझा रहा था. वह पृथ्वी से चला जाना चाहता था. उसके अपने अस्तित्व के लिए यह ज़रूरी हो गया था. वह अदृश्य हो जाना चाहता था.
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एक दिन एक बूढ़ा किसान ईश्वर के पास आया और बोला, “देखिए, आप भगवान होंगे और आपने ही यह दुनिया भी बनाई होगी लेकिन मैं आपको यह बताना चाहता हूं कि आप सब कुछ नहीं जानते: आप किसान नहीं हो और आपको खेतीबाड़ी का क-ख-ग भी नहीं पता. और मेरे पूरे जीवन के अनुभव का निचोड़ यह कहता है कि आपकी रची प्रकृति और इसके काम करने का तरीका बहुत खराब है. आपको अभी सीखने की ज़रूरत है.”
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ईश्वर ने कहा, “मुझे क्या करना चाहिए ?”
किसान ने कहा, “आप मुझे एक साल का समय दो और सब चीजें मेरे मुताबिक होने दो, और देखो कि मैं क्या करता हूं. मैं दुनिया से गरीबी का नामोनिशान मिटा दूंगा !”
ईश्वर ने किसान को एक साल की अवधि दे दी. अब सब कुछ किसान की इच्छा के अनुसार हो रहा था. यह स्वाभाविक है कि किसान ने उन्हीं चीजों की कामना की जो उसके लिए ही उपयुक्त होतीं. उसने तूफान, तेज हवाओं और फसल को नुकसान पहुंचानेवाले हर खतरे को रोक दिया.
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सब उसकी इच्छा के अनुसार बहुत आरामदायक और शांत वातावरण में घटित हो रहा था और किसान बहुत खुश था. गेहूं की बालियां पहले कभी इतनी ऊंची नहीं हुईं ! कहीं किसी अप्रिय के होने का खटका नहीं था. उसने जैसा चाहा, वैसा ही हुआ. उसे जब धूप की ज़रूरत हुई तो सूरज चमका दिया; तब बारिश की ज़रूरत हुई तो बादल उतने ही बरसाए जितने फसल को भाए. 
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पुराने जमाने में तो बारिश कभी-कभी हद से ज्यादा हो जाती थी और नदियां उफनने लगतीं थीं, फसलें बरबाद हो जातीं थीं. कभी पर्याप्त बारिश नहीं होती तो धरती सूखी रह जाती और फसल झुलस जाती… इसी तरह कभी कुछ कभी कुछ लगा रहता. ऐसा बहुत कम ही होता जब सब कुछ ठीक-ठाक बीतता. इस साल सब कुछ सौ-फीसदी सही रहा.
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गेहूं की ऊंची बालियां देखकर किसान का मन हिलोरें ले रहा था. वह ईश्वर से जब कभी मिलता तो यही कहता, “आप देखना, इस साल इतनी पैदावार होगी कि लोग दस साल तक आराम से बैठकर खाएंगे.”
लेकिन जब फसल काटी गई तो पता चला कि बालियों के अंदर गेहूं के दाने तो थे ही नहीं! किसान हैरान-परेशान था… उसे समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यों हुआ. उसने ईश्वर से पूछा, “ऐसा क्यों हुआ ? क्या गलत हो गया ?”
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ईश्वर ने कहा, “ऐसा इसलिए हुआ कि कहीं भी कोई चुनौती नहीं थी, कोई कठिनाई नहीं थी, कहीं भी कोई उलझन, दुविधा, संकट नहीं था और सब कुछ आदर्श था. तुमने हर अवांछित तत्व को हटा दिया और गेंहू के पौधे नपुंसक हो गए. कहीं कोई संघर्ष का होना ज़रूरी था. कुछ झंझावात की ज़रूरत थी, कुछ बिजलियां का गरजना ज़रूरी था. ये चीजें गेंहू की आत्मा को हिलोर देती हैं.”
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यह बहुत गहरी और अनूठी कथा है. यदि तुम हमेशा खुश और अधिक खुश बने रहोगे तो खुशी अपना अर्थ धीरे-धीरे खो देगी. तुम इसकी अधिकता से ऊब जाओगे. तुम्हें खुशी इसलिए अधिक रास आती है क्योंकि जीवन में दुःख और कड़वाहट भी आती-जाती रहती है. तुम हमेशा ही मीठा-मीठा नहीं खाते रह सकते – कभी-कभी जीवन में नमकीन को भी चखना पड़ता है. यह बहुत ज़रूरी है. इसके न होने पर जीवन का पूरा स्वाद खो जाता है I
ओशो, द परफेक्ट मास्टर, खंड 2

= ६७ =

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*दादू जब ही राम बिसारिये, तब ही मोटी मार ।*
*खंड खंड कर नाखिये, बीज पड़ै तिहिं बार ॥*
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*साभार ~ @Ashokbhai Hindocha
*एक ज्ञानवर्धक एवं उपयोगी प्रस्तुति !!!!!!!*
एक बार उद्धव जी ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा हे "कृष्ण"आप तो महाज्ञानी हैं, भूत, वर्तमान व भविष्य के बारे में सब कुछ जानने वाले हो आपके लिए कुछ भी असम्भव नही, मैं आपसे मित्र धर्म की परिभाषा जानना चाहता हूँ, उसके गुण धर्म क्या क्या हैं।
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भगवान बोले उद्धव सच्चा मित्र वही है जो विपत्ति के समय बिना मांगे ही अपने मित्र की सहायता करे। उद्धव जी ने बीच मे रोकते हुए कहा "हे कृष्ण" अगर ऐसा ही है तो फिर आप तो पांडवों के प्रिय बांधव थे, एक बांधव के रूप में उन्होंने सदा आप पर विश्वास किया किन्तु आपने सच्चे मित्र की जो परिभाषा दी है उसके अनुरूप मित्रता नहीं निभाई। आप चाहते तो पांडव जुए में जीत सकते थे।
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आपने धर्मराज युधिष्ठिर को जुआ खेलने से क्यों नही रोका ? ठीक है आपने उन्हें नहीं रोका, यदि आप चाहते तो अपनी दिव्य शक्ति के द्वारा पासे को धर्मराज के पक्ष में भी तो कर सकते थे लेकिन आपने भाग्य को धर्मराज के पक्ष में भी नहीं किया। आप कम से कम उन्हें धन, राज्य और स्वयं को हारने के बाद भी तो रोक सकते थे उसके बाद जब धर्मराज ने अपने भाइयों को दांव पर लगाना शुरू किया, तब तो आप सभाकक्ष में पहुँच सकते थे।
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किंतु आपने ये भी नहीं किया । इसके बाद जब दुष्ट दुर्योधन ने पांडवों को भाग्यशाली कहते हुए द्रौपदी को दांव पर लगाने हेतु प्रेरित किया और जीतने पर हारा हुआ सब कुछ वापस कर देने का लालच दिया कम से कम तब तो आप हस्तक्षेप कर ही सकते थे। 
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लेकिन इसके स्थान पर आपने तब हस्तक्षेप किया जब द्रौपदी लगभग अपनी लाज खो रही थी, तब जाकर आपने द्रोपदी के वस्त्र का चीर बढ़ाकर द्रौपदी की लाज बचाई किंतु ये भी आपने बहुत देरी से किया उसे एक पुरुष घसीटकर भरी सभा में लाता है, और इतने सारे पुरुषों के सामने निर्वस्त्र करने के लिए छोड़ देता है. जब आपने संकट के समय में पांडवों की सहायता की ही नहीं की तो आपको आपदा बांधव(सच्चा मित्र) कैसे कहा जा सकता है ? क्या यही धर्म है।
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भगवान श्री कृष्ण बोले - हे उद्धव सृष्टि का नियम है कि जो विवेक से कार्य करता है विजय उसी की होती है उस समय दुर्योधन अपनी बुद्धि और विवेक से कार्य ले रहा था किंतु धर्मराज ने तनिक मात्र भी अपनी बुद्धि और विवेक से काम नही लिया इसी कारण पांडवों की हार हुई। भगवान कहने लगे कि हे उद्धव - दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए धन तो बहुत था, लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नहीं आता था, इसलिए उसने अपने मामा शकुनि से द्यूत क्रीडा करवाई यही तो उसका विवेक था ।
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धर्मराज भी तो इसी प्रकार विवेक से कार्य लेते हुए ऐसा सोच सकते थे और अपने चचेरे भाई को पासा देकर उनसे चाल चलवा सकते थे या फिर ये भी तो कह सकते थे कि उनकी तरफ से श्री कृष्ण यानी मैं खेलूंगा। जरा विचार करो कि अगर शकुनी और मैं खेलते तो कौन जीतता ? पांसे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार,चलो इसे भी छोड़ो, उन्होंने मुझे खेल में शामिल नहीं किया, इसके लिए तो उन्हें क्षमा भी किया जा सकता है लेकिन उन्होंने विवेक हीनता से एक और बड़ी गलती तब की जब उन्होंने मुझसे प्रार्थना की, कि मैं तब तक सभाकक्ष में न आऊँ, जब तक कि मुझे बुलाया न जाए क्योंकि ये उनका दुर्भाग्य था कि वे मुझसे छुपकर जुआ खेलना चाहते थे।
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इस प्रकार उन्होंने मुझे अपनी प्रार्थना से बाँध दिया। मुझे सभाकक्ष में आने की अनुमति नहीं थी इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर बहुत समय तक प्रतीक्षा कर रहा था कि मुझे कब बुलावा आता है। पांडव जुए में इतने डूब गए कि भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव सब मुझे भूल गए और मुझे बुलाने के स्थान पर केवल अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे। अपने भाई के आदेश पर जब दुशासन द्रोपदी को बाल पकड़कर घसीटता हुआ सभाकक्ष में लाया तब वह अपने सामर्थ्य के अनुसार जूझती रही, तब भी उसने मुझे नहीं पुकारा।
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उसकी बुद्धि तब जागृत हुई, जब दुशासन ने उसे निर्वस्त्र करना प्रारंभ किया। जब उसने स्वयं पर निर्भरता छोड़कर 'हरि, हरि, अभयम कृष्णा, अभयम' की गुहार लगाते हुए मुझे पुकारा तो में बिना बिलम्ब किये वहां पहुंचा। हे उद्धव इस स्थिति में तुम्हीं बताओ मेरी गलती कहाँ रही। उद्धव जी बोले कृष्ण आपका स्पष्टीकरण प्रभावशाली अवश्य है, किन्तु मुझे पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई, क्या मैं एक और प्रश्न पूछ सकता हूँ ?

कृष्ण की अनुमति से उद्धव ने पूछा – इसका अर्थ यह हुआ कि आप तभी आओगे, जब आपको बुलाया जाएगा। क्या संकट से घिरे अपने भक्त की मदद करने आप स्वतः नहीं आओगे। भगवान मुस्कुराये - उद्धव सृष्टि में हर किसी का जीवन उसके स्वयं के कर्मों के प्रतिफल के आधार पर चलता है। मैं इसमें प्रत्यक्ष रूप से कोई हस्तक्षेप नही करता। मैं तो केवल एक 'साक्षी' हूँ जो सदैव तुम्हारे साथ रहकर जो हो रहा है उसे देखता रहता हूँ, यही ईश्वर धर्म है।'
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भगवान को ताना मारते हुए उद्धव जी बोले "वाह वाह, बहुत अच्छा कृष्ण", तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप हमारे नजदीक खड़े रहकर हमारे सभी कर्मों को देखते रहेंगें हम पाप पर पाप करते जाएंगे और आप हमें रोकने के स्थान पर केवल देखते रहेंगे। आप क्या चाहते हैं कि हम भूल करते करते पाप की गठरी बांधते रहें और उसका फल भोगते रहें।
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भगवान बोले – उद्धव, तुम धर्म और मित्रता को समीप से समझो, जब तुम समझकर अनुभव कर लोगे कि मैं तुम्हारे साथ हर क्षण रहता हूँ, तो क्या तुम पाप कर सकोगे ? तुम पाप कर ही नही सकोगे और अनेक बार विचार करोगे की मुझे विधाता देख रहा है किंतु जब तुम मुझे भूल जाते हो और यह समझने लगते हो कि तुम मुझसे छुपकर कुछ भी कर सकते हो, तुम्हे कोई देख नही रहा तब ही तुम संकट में फंसते हो।
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धर्मराज का अज्ञान यह था उसने समझा कि वह मुझ से छुपकर जुआ खेल सकता हैअगर उसने यह समझ लिया होता कि मैं प्रत्येक प्राणी मात्र के साथ हर समय उपस्थित रहता हूँ तो क्या वह जुआ खेलते। और यदि खेलते भी तो जुए के उस खेल का परिणाम कुछ और नहीं होता। 
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भगवान के उत्तर से उद्धव जी अभिभूत हो गये और बोले – प्रभु कितना रहस्य छुपा है आपके दर्शन में। कितना महान सत्य है ये ! पापकर्म करते समय हम ये कदापि विचार नही करते कि परमात्मा की नज़र सब पर है कोई उनसे छिप नही सकता,और उनकी दृष्टि हमारे प्रत्येक अच्छे बुरे कर्म पर है।
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परन्तु इसके विपरीत हम इसी भूल में जीते रहते हैं कि हमें कोई देख नही रहा। प्रार्थना और पूजा हमारा विश्वास है जैसे ही हम यह विश्वास करना शुरू करते हैं कि भगवान हर क्षण हमें देख रहे हैं, उनके बिना पत्ता तक नहीं हिलता तो परमात्मा भी हमें ऐसा ही आभास करा देते हैं कि वे हमारे आस पास ही उपस्तिथ हैं और हमें उनकी उपस्थिति का आभास होने लगता है.हम पाप कर्म केवल तभी करते हैं जब हम भगवान को भूलकर उनसे विमुख हो जाते हैं।

बुधवार, 23 अक्तूबर 2024

*श्रीरामकृष्ण तथा कामिनी-कांचन*

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*दादू सो धन लीजिये, जे तुम सेती होइ ।*
*माया बांधे कई मुए, पूरा पड़या न कोइ ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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बगीचे के दुमँजले कमरे में भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण बैठे हुए हैं । शरीर अधिकाधिक अस्वस्थ होता जा रहा है । आज फिर डाक्टर महेन्द्र सरकार और डाक्टर राजेन्द्र दत्त देखने के लिए आये हैं । कमरे में राखाल, नरेन्द्र, शशि, मास्टर, सुरेन्द्र, भवनाथ तथा अन्य बहुतसे भक्त बैठे हैं ।
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बगीचा पाकपाड़ा के बाबुओं का है । किराये से है, ६०-६५ रुपये देने पड़ते हैं । भक्तों में जो कम उम्र के हैं, वे बगीचे में ही रहते हैं । दिन-रात श्रीरामकृष्ण की सेवा वहीं किया करते हैं । गृही भक्त भी बीचबीच में आते हैं और उनकी सेवा किया करते हैं । वहीं रहकर श्रीरामकृष्ण की सेवा करने की इच्छा उन्हें भी है, परन्तु अपने-अपने कार्य में लगे रहने के कारण सदा वहाँ रहकर वे उनकी सेवा नहीं कर सकते ।
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बगीचे का खर्च चलाने के लिए अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार वे आर्थिक सहायता देते हैं । अधिकांश खर्च सुरेन्द्र ही देते हैं । उन्हीं के नाम से किराये पर बगीचे की लिखा-पढ़ी हुई है । एक रसोइया और दासी, ये दो नौकर भी सदा वहीं रहते हैं ।
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*श्रीरामकृष्ण तथा कामिनी-कांचन*
श्रीरामकृष्ण - (डाक्टर सरकार आदि से) - बड़ा खर्च हो रहा है ।
डाक्टर - (भक्तों की ओर इशारा करके) - ये सब लोग तैयार भी तो हैं । बगीचे का सम्पूर्ण खर्च देते हुए भी इन्हें कोई कष्ट नहीं है । (श्रीरामकृष्ण से) अब देखो, कांचन की आवश्यकता आ पड़ी ।
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से) - बोल ना ?
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श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र को उत्तर देने की आज्ञा दे रहे हैं । नरेन्द्र चुप हैं । डाक्टर फिर बातचीत कर रहे हैं ।
डाक्टर - कांचन चाहिए । और फिर कामिनी भी चाहिए ।
राजेन्द्र डाक्टर - इनकी स्त्री इनके लिए खाना पका दिया करती हैं ।
डाक्टर सरकार - (श्रीरामकृष्ण से) – देखा ?
श्रीरामकृष्ण - ( जरा मुस्कराकर) - है लेकिन बड़ा झंझट ।
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डाक्टर सरकार - झंझट न रहती, तो सब लोग परमहंस हो गये होते ।
श्रीरामकृष्ण - स्त्री छू जाती है, तो तबीयत अस्वस्थ हो जाती है ! और जिस जगह छू जाती है, वहाँ बड़ी देर तक सींगी मछली के काँटे के चुभ जाने के समान पीड़ा होती रहती है ।
डाक्टर - यह विश्वास तो होता है, परन्तु अपनी ओर से देखता हूँ तो कामिनी और कांचन के बिना काम ही नहीं चलता ।
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श्रीरामकृष्ण - रुपया हाथ में लेता हूँ तो हाथ टेढ़ा हो जाता है - साँस रुक जाती है । रुपये से अगर कोई विद्या का संसार चला सके, ईश्वर और साधुओं की सेवा कर सके, तो उसमें दोष नहीं रह जाता ।
"स्त्री लेकर माया का संसार करने से मनुष्य ईश्वर को भूल जाता है । जो संसार की माँ हैं, उन्हीं ने इस माया का रूप - स्त्री का रूप धारण किया है । इसका यथार्थ ज्ञान हो जाने पर फिर माया के संसार पर जी नहीं लगता । सब स्त्रियाँ यों पर मातृज्ञान के होने पर मनुष्य विद्या का संसार कर सकता है । ईश्वर के दर्शन हुए बिना स्त्री क्या वस्तु है । यह समझ में नहीं आता ।"
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होमियोपैथिक दवा का सेवन करके श्रीरामकृष्ण कुछ दिनों से जरा अच्छे रहते हैं । राजेन्द्र - अच्छे होकर आपको स्वयं होमियोपैथिक डाक्टरी करनी चाहिए, नहीं तो फिर इस मानव-जीवन का क्या उपयोग होगा ? (सब हँसते हैं ।)
नरेन्द्र - जो मोची का काम करता है, वह कहता है कि इस संसार में चमड़े से बढ़कर और कोई चीज नहीं है ! (सब हँसे)
कुछ देर बाद दोनों डाक्टर चले गये ।
(क्रमशः)

*श्री रज्जबवाणी, समता निदान का अंग १०*

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*अपना अपना कर लिया, भंजन माँही बाहि ।*
*दादू एकै कूप जल, मन का भ्रम उठाहि ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साँच का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*समता निदान का अंग १०*
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जाति कुजाति रु उत्तम मध्यम,
जाति के जोर न ज्योति को ज्वै१ है ।
बेड़ी भली नहिं सोने रु लोह की,
पाँय परै कछु पंथ न ह्वै है ॥
नींद को नाश न जौंन२ अँधेरे में,
सूर बिन सुख नीद हि स्वै३ है ।
हो रज्जब राम मिलै नहीं ऐसे जु,
जोलौं न प्रेम को बौंहडो४ ब्बे५ है ॥५॥
सुजाति, कुजाति, उत्तम, मध्यम जाति के बल से प्रभु प्राप्त नहीं होते, वे तो ज्ञान ज्योति को ही देखते१ हैं, अर्थात ब्रह्म ज्ञान होने पर ही ब्रह्म साक्षात्कार होता है ।
जैसे बेड़ी सुवर्ण की हो या लोहे की हो दोनों अच्छी नहीं हैं, पैरों में पड़ने पर दोनों से ही मार्ग चलना नहीं होता, अर्थात नहीं चला जाता । वैसे ही सुजाति और कुजाति दोनों का ही अभिमान साधक जो प्रभु प्राप्ति के साधन मार्ग में नहीं चलने देता है ।
जो२ अंधेरी रात्रि होती है उसमें भी निद्रा का नाश नहीं होता, सूर्य के अभाव में सुख की निद्रा में सोते३ हैं । वैसे ही कुजाति होने पर भी प्रभु प्राप्ति का आनन्द लेते हैं ।
हे सज्जनों ! जब तक हृदय भूमि में प्रेम रूप वृक्ष नहीं बोते५ हैं, तब तक ऐसी जाति आदि के अभिमान से राम नहीं मिलते हैं ।
(क्रमशः)

*आनंदा हरि आनंदा*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*झिलमिल झिलमिल तेज तुम्हारा,*
*परगट खेलै प्राण हमारा ॥*
*नूर तुम्हारा नैनों मांही,*
*तन मन लागा छूटै नांही ॥*
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*आचार्य प्रशंसा ॥*
आनंदा हरि आनंदा ।
हिलि मिलि ऐकै बैन बजावै, गरीबदास अरु गोबिंदा ॥टेक॥
दरिगह माँहि दूसरौ दादू, बोलै मीठी बाणी ।
एक शब्द मैं सब कुछ बूझ्या, साह सलेम बिनाणी ॥
सेवग कै घटि स्वामी बोल्या, सबहिन कै मनि भावै ।
पातिसाहि का जिनि मन मोह्या, औराँ की कौंण चलावै ॥
हरम सबै दरसनि आई, सबही चीर उतारा ।
गरीबदास का दरसन कीया, धनि धनि भाग हमारा ॥
जे थे दुष्ट मुष्ट करि लीने, ग्यान खड़ग परहारे ।
सुणि करि कथा कहण सब लागे, हाँजी हाँजी सारे ॥
नगर नराणैं आनँद हूवौ, साधाँ मंगल गाया ।
बषनां कहै बिगसता हसता, गरीबदास घरि आया ॥२१॥
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बैन = बीणा; यहाँ “कार्य” से तात्पर्य है । गरीबदासजी गोविंद स्वरूप हैं, क्योंकि “ब्रह्मविद्ब्रम्हैव भवति” मुण्डकोपनिषद् ॥ “जानत तुम्हहि तुम्हहि होइ जाहीं ॥” मानस ॥ “ब्रह्म रूप अहि ब्रह्मविद, ताकी वाणी वेद ॥” विचारसागर ॥ गोविन्द और गरीबदास दोनों अभिन्न होने से एक ही काम करते हैं, दरिगह = नरायणा का दादूमन्दिर । बूझ्या = समझ गया । बिनाणी = विज्ञानी; विशिष्ट ज्ञानी ॥ “ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः “ गीता ७/२ ॥ यहाँ ज्ञान परोक्षज्ञान का तथा विज्ञान अपरोक्षज्ञान का वाचक है । बषनांजी ने सलीम को बिनाणी = विज्ञानी कहकर विचक्षण ज्ञानी कहा है । किन्तु यहाँ यह स्पष्टता के साथ समझ लेना चाहिये कि एक शब्द में समझने में सलीम की महानता नहीं है अपितु महानता गरीबदासजी की है कि उनमें ऐसी विलक्षण प्रतिभा थी कि उन्होंने सलीम जैसे राजनीतिक व्यक्ति को भी एक ही शब्द सुनाकर विज्ञानी बना दिया । दादूजी ने रज्जबजी आदि अनेकों संत शिष्यों को एक शब्द सुनाकर ही विज्ञानी बना दिया था । हरम = बादशाह का रणवास; बादशाह की सभी स्त्रियाँ, दासियाँ और साथ के अन्य मातहतों की स्त्रियाँ आदि । चीर = परदा, घूँघट । मुष्ट = मुठ्ठी में कर लिये; वश में कर लिये । हारे = दुष्ट हार गये थे । बिगसता = प्रफुल्लित होते हुए ।
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गोविन्द स्वरूप गरीबदासजी एक ही कार्य, हिलि-मिलि = समभाव से अखंडानंद रूप हुए अखंडानंद स्वरूप का स्मरण करते हैं ।
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वे दादूमन्दिर में वीणा बजाते और उस पर गाते हुए तथा सत्संगियों के मध्य मीठी वाणी में चर्चा करते हुए दादू जैसे ही लगते हैं; मानों वे दादूजी ही हों । विज्ञानी सलीमशाह की गरीबदासजी ने एक ही शब्द में समस्त आध्यात्मिक शंकाएँ निर्मूल कर दीं ।
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उस समय ऐसा लग रहा था मानों गरीबदासजी(सेवक) के मुख से स्वयं परब्रह्म परमात्मा ही बोल रहा है । वे मधुर वचन सबही को प्रिय लग रहे थे । उन्होंने बादशाह सलीमशाह के मन को मोहित कर लिया था फिर और श्रोताओं की तो कौन कहे ।
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बादशाह का सारा जनाना घूंघट हटाकर गरीबदासजी के दर्शनार्थ आया था । उन्होंने गरीबदासजी का दर्शन करके अपने भाग्य को धन्य कहा ।
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जो दुष्ट-विरोधी थे, उनको ज्ञान रूपी खड़ग से हराकर गरीबदासजी ने अपने वश में कर लिया । गरीबदासजी की कथा को सुनकर सभी = प्रशंसक व विरोधी हाँजी-हाँजी = प्रशंसा, कथा बहुत श्रेष्ठ है, हम आपकी अधीनता स्वीकार करते हैं, करने लगे ।
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यह आनंदप्रद उत्सव ग्राम नारायणा में संपन्न हुआ । साधु - संतों ने मंगलगान किये । बषनांजी कहते हैं, उस समय प्रफुल्लित = आनन्दित होते हुए प्रसन्नमुद्रा में गरीबदासजी दादूमंदिर में पधारे ॥२१॥
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अन्तर्कथा : भारत का शहंशाह सम्राट जहाँगीर अजमेर के मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह में सिजदा करने को आया था । जब नरायणा गाँव आया, तब उसे बताया गया की इस गाँव में एक पहुँचा हुआ फकीर रहता है ।
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उसके गुरु से शहंशाह अकबर ने भी फतहपुर सीकरी में भेंट करके आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किया था । आपको भी इस फकीर-साधु का दर्शन तथा सत्संग-लाभ लेना चाहिये । तब जहाँगीर ने अपनी स्वीकृति प्रदान करी थी । दोनों के मध्य सत्संग हुआ जिसकी कुछ झलक उक्त पद्य में विद्यमान है ।
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जाते समय जहाँगीर ने सेवा फरमाने की प्रार्थना की किन्तु अपरिग्रही गरीबदासजी ने भेंट लेने से इंकार कर दिया । जब बादशाह माना ही नहीं तब एक जलस्त्रोत कूप तथा एक मकान स्वीकार करने को तैयार हुए ।
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कूप का नाम गरीबसागर ख्यात हुआ जो आज भी दादूधाम नरायना में विद्यमान है । जो मकान बनाया वह कुछ समय पूर्व तक अच्छी स्थिति में था अब धीरे-धीरे देखभाल के अभाव में जर्जर होता जा रहा है । वह दादूधाम के वायव्यकोण में अवस्थित है ।
(क्रमशः)