गुरुवार, 17 अक्तूबर 2024

*४४. रस कौ अंग ३३/३६*

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*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४४. रस कौ अंग ३३/३६*
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रांम बासना रांम रस, रांम स्वाद रुचि रांम ।
कहि जगजीवन रांम अंन७, रांम उदिक८ निज ठांम ॥३३॥
(७. अंन=अन्न) (८. उदिक=जल)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम ही वांछनीय है राम ही आनंदरस है राम ही अभ्यास है राम में ही रुचि है राम ही अन्नजल है । अपने तो सर्वत्र राम ही है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, रस मंहि रोगी देह ।
या है कोई सुभाव९ हरि, कै कहुं अनंत सनेह ॥३४॥
(९. सुभाव=स्वभाव, प्रकृति)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इस आनंद में देह क्षीण है तो कारण या तो अभ्यास अन्य है या अनुराग अन्यत्र है ।
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रांम रिदै रस नूर मंहिं, षट रस उतपति भोग ।
कहि जगजीवन नांउ हरि, जोग बियोगी रोग ॥३५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यदि ह्रदय में राम नाम हो और प्रभु मूर्ति मन में हो तो छ रस व सभी भोग विलास धरे हों तो भी श्रेष्ठ नाम ही है जो संतजन लेवें तो प्रभु वियोग में ही योग धारण करते हैं ।
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कहि जगजीवन जुगल रस, प्रव्रति१ निव्रिति२ नांम ।
पंच सुभाव३ नांम तजि, रांम कहै तहँ रांम ॥३६॥
(१. प्रविति=प्रवृत्ति=लोक व्यवहार) (२. निव्रिति=निवृत्ति=वैराग्य)
(३. पंच सुभाव=पाँचों इन्द्रियों के कर्म)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि संसार में ही दो प्रकार से ही आनंद है या तो प्रभु नाम में प्रवृत्ति बना कर या उससे निवृत हो संसार में लगकर । पांचों इन्द्रियों के आस्वदनों को त्याग कर जो जन राम कहते हैं वहां ही राम होते हैं ।
(क्रमशः)

बुधवार, 16 अक्तूबर 2024

= ६२ =

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*साचा शब्द कबीर का, मीठा लागै मोहि ।*
*दादू सुनतां परम सुख, केता आनन्द होहि ॥*
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*साभार ~ @Ramraj Riyar*
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#कबीर_नहीं_देखा
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उस दिन घोर रात थी, तभी शहंशाह के कुछ सिपाई आये और उन्होंने दरवाजा खटखटाया, दरवाजा एक व्यक्ति के द्वारा खोला गया, जैसे ही सिपाहियों ने उस व्यक्ति को देखा तो उससे कहा कि, कल सुबह तुम्हें शहंशाह के दरबार में हाजिर होना है, आ जाना, वो तुमसे मिलना चाहते हैं, वो साधारण सा दिखने वाला व्यक्ति असाधारण व्यक्तित्व का मालिक था, बोला कि मैं आ जाऊँगा..सिपाही ये सुनकर चले गए, और वो व्यक्ति भी निश्चिंत होकर सो गया..
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कहते हैं उस व्यक्ति का नाम कबीर था, जिसका अर्थ होता है-- महान...और उसमें महानता का ये गुण कूट कूटकर भरा था.. सुबह हुई तो कबीर ने तैयार होना शुरू किया, उन्होंने सूफी संतों की तरह ही सफेद वस्त्र पहने और सर पर एक साफा भी सूफियों की तरह ही बाँधा, फ़िर वे घर के आँगन में गए, जहाँ अक्सर मोर नृत्य करते हुए अपने पंख छोड़ जातीं थीं, कबीर ने एक मोरपंख उठाया और भगवान कृष्ण की तरह ही उसे अपने मुकुट अर्थात् सर पे बाँधे साफे में लगा लिया..यहाँ ध्यान देने वाली बात ये है कि जीवन भर वे रामतत्व को खोजते रहे थे, पर आज वे श्याम तत्व को अपने माथे पे रखे हुए थे..
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माथे पर चंदन घिसकर लगाया जो हिंदू मान्यताओं के अनुसार हिंदू लगाया करते थे फिर उसके बाद कबीर ने अपनी आँखों में सुरमा लगाया, क्योंकि मान्यता है कि पैगम्बर मोहम्मद साहब अपनी आँखों में सुरमा लगाते थे, और उनके द्वारा किया गया हर कार्य, धार्मिक दृष्टिकोण से मुसलमानों के लिए सुन्नत होता है.. अब अंत में उन्होंने शहंशाह के दरबार में जाने से पहले अपने गुरु का ध्यान किया, तो गुरु ने चेतना दी..कबीर पुरानी यादों में खो गए और उस दिन के पास पहुँच गए जब वे अपने गुरु से पहली बार मिले थे..
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कहानी कुछ ऐसी है कि उनके गुरु संत रामानन्द एक उच्च कोटि के ब्राह्मण थे और भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त..कबीर जब उनकी प्रतिभा और प्रसिद्धि सुनकर शिष्य बनने उनके पास पहुँचे तो संत रामानन्द ने कबीर को शिष्य बनाने से इंकार कर दिया, तो कबीर ने एक युक्ति खोजी, संत रामानन्द रोज सुबह ब्रह्ममुहूर्त में काशी के पंचगंगा घाट पे गंगा में स्नान करने आते थे, तो एक दिन कबीर आकर उसी घाट की सीढ़ियों पे लेट गए, भोर में अंधेरा होता ही है....
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संत रामानंद अपनी मस्ती में राम-राम उच्चारित करते हुए चले आ रहे थे, सो जैसे ही उनका पाँव सीढ़ियों पर लेटे हुए कबीर पर पड़ा सो संत रामानंद जी के मुख से निकलने वाले शब्द राम-राम के उच्चारण और तेज हो गए.. और वे स्वयं से बोले राम-राम, ना जाने किस जीव पे पाँव रखा हो गया, कहते हैं कबीर ने उसी क्षण से राम नाम को अपना गुरुमंत्र मान लिया, जब रामानंद जी का पाँव कबीर पे पड़ा तो संत रामानंद ने उठाकर उस जीव को देखना चाहा कि कहीं उसे कोई चोट न पहुँची हो..
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इसी क्रम में संत रामानंद जी के गले से एक तुलसीमाला कबीर के गले में आ गिरी थी, जब रामानंद जी ने पूछा कि तुम ठीक तो हो, चोट तो नहीं लगी, तो कबीर ने संत रामानंद जी के पैर पकड़ लिए और कहा नहीं लगी, पर वहाँ अवश्य लगी है, जहाँ कई जन्मों के पुण्यों से कभी-कभी लगती है..और वे उठकर वहाँ से निकल गए, कबीर ने तय किया कि आज से यही मेरा गुरुमंत्र है और ये माला मेरे गुरु का सच्चा आशीर्वाद है, कबीर ने वो माला अपने पास रख ली..आज पता नहीं क्यों कबीर को अपने गुरु के आशीर्वाद और चेतना से उसी माला की याद आयी है, और कबीर ने वो माला अपने गले में धारण कर ली है..
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अब कबीर शहंशाह के दरबार में जाने के लिए पूरी तरह तैयार हो चुके हैं, उनका भेष आज अजीब है, जो इससे पहले उन्होंने कभी नहीं बनाया है, लोग उन्हें घूर घूर कर देख रहे हैं, और सोच रहे हैं कि आज इसे पता चलेगा कि हिंदू और मुसलमानों की आस्था से खेलना कितना महँगा है, हिन्दू सोच रहे हैं कि हमेशा राम-राम करता है पर कभी मंदिर नहीं जाता, और मुसलमान सोच रहे हैं कि जाति से मतलब कबीर को पालन पोषण करने वाले दंपत्ति चूंकि मुस्लिम थे, तो इस नाते वे भी मुस्लिम हुए, परंतु कबीर कभी नमाज पढ़ने भी मस्जिद नहीं जाते थे...
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सो आज हर कोई खुश था कि आज कबीर को सच में अपनी करनी का पता चलेगा.. कबीर कहते थे कि--
जो तू ब्राह्मण ब्रम्हाणी को जाया, और राह दे काहे न आया..
जो तू तुरक तुरकनी को जाया, पेटहि काहे न सुन्नति कराया..
मतलब अगर ब्राह्मण ब्रम्हा के मुख से उत्पन्न हुए हैं तो जन्म किसी और रास्ते से लेकर ये सिद्ध क्यों नहीं करते, ये सुनकर आज हिन्दू उनके विरोध में हैं.. और मुसलमान खुद को कहने वाले जन्म से ही सुन्नत कराके क्यों नहीं आ जाते, क्या ईश्वर को कोई अक्ल नहीं रही होगी इंसानी रचना को बनाते वक्त, तब ये सुनकर मुसलमान उनके विरोधी हो जाते हैं..
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वे कर्मकांडों, आडंबरों, बलि आदि के भी विरोधी हैं, जिससे समाज एक बड़ा वर्ग आज उनका विरोधी है, और आज मन ही मन भयंकर खुश है कि जो आज कबीर शहंशाह से ऐसी बातें करेगा तो अवश्य ही दंडित होगा.. नोट -- कबीर के जन्म के बारे में एक मान्यता यह भी है कि वे एक तालाब में एक कमल के फूल पे एक मुस्लिम दंपत्ति को पहली बार दिखे थे, वो दंपत्ति ही उन्हें अपने साथ अपना पुत्र मानकर(चूंकि उस दंपत्ति की कोई संतान न थी) ले आया था..
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कबीर आज सुबह से तैयार होने में व्यस्त हैं जिस व्यक्ति ने जीवनभर बाहर की चीजों और शरीर को नश्वर कहा, आज वो इतने चाव से अपनी वेशभूषा और खुद को तैयार करने में लगा है, सुबह से तैयार होते होते शाम हो चुकी थी और कहते हैं कि उस दिन सुबह के बुलाये हुए कबीर शाम को जाकर शहंशाह के दरबार में पहुँचे थे..शहंशाह ने भी ऐसी अजीबोगरीब वेशभूषा कभी किसी की नहीं देखी थी, क्योंकि न वो हिन्दू ही दिख रहे थे और न मुस्लिम ही दिख रहे थे.. तब शहंशाह ने सबसे पहले कबीर से पूछा कि, तुम काफ़िर का मतलब समझते हो ? और जानते भी हो कि काफ़िर होना कितना बड़ा गुनाह है..
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तब कबीर बोले--
कबीर सोइ पीर है, जो जाने पर पीर
जो पर पीर न जानई, सो काफ़िर बेपीर..
मतलब काफ़िर शब्द का मतलब किसी धर्म विशेष से नहीं, बस उस मनुष्य से है जो मनुष्य होकर भी एक दूसरे मनुष्य की पीड़ा को नहीं समझता, और जो समझता है, वही पीर है मतलब संत है, मतलब जिसने सन्मार्ग की ओर अपना मुख कर रखा है..
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शहंशाह ये सुनकर चिढ़ गया कि इसने तो इस दृष्टिकोण से उल्टा मुझे ही काफ़िर कह दिया.. तब शहंशाह ने फ़िर सोचा और उस समय के एक पहुँचे हुए मौलवी शेख तकी की ओर देखा कि वे अपने वाक चातुर्य से कबीर को फँसा लें, तब शेख तकी ने कबीर से कहा कि तुम हर दम राम-राम करते रहते हो, मान भी लें कि तुम हिन्दू हो, परंतु हिंदुओं में भी मान्यता है कि एक योग्य गुरु से दीक्षा लेकर ही मनुष्य बोध को प्राप्त होता है, तुमने कब और किससे दीक्षा ली..?
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तब कबीर बोले-- कोई भी गुरु अपने हाथों से किसी शिष्य को दीक्षा देता है, जिसमें स्पर्श दीक्षा भी शामिल होती है, पर मेरी कहानी इस मामले में भी विलक्षण ही है, मेरे गुरु ने मुझे अपने पाँव से दीक्षित किया है, बल्कि उन्होंने तो अपने आप को ही मुझ पर रख दिया है, और उनका इतना प्रेम मुझ पर देखकर कि कोई गुरु अपने शिष्य को भूमि मानकर उस पर खड़ा ही हो जाये मतलब स्वयं को उसे ही समर्पित कर दे, राम ने मेरे गुरु के गले की माला मेरे गले में पहना दी, आप इस वक्त जो माला मेरे गले में देख रहे हैं, ये वही माला है..
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शेख तकी भी ऐसा अद्भुत वृत्तांत सुनकर दंग और मौन हो गए.. शहंशाह और भी क्रोधित हो गया बोला कि फिर तुम ही बताओ कि तुम कौन हो ? हिंदू हो, मुस्लिम हो या फिर कोई और ?
तब कबीर बोले--
पाँच तत्व का पूतरा, मानुष धरिया नाँव
एक कला के बीछुरे, बिकल होत सब ठाँव..
मतलब पंचतत्वों से बना यह जीव या शरीर है, जिसे मनुष्य नाम दिया गया, पर एक सद्बुद्धि के बिना यह हर जगह पीड़ित ही रहता है..
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तब शहंशाह बोला कि फिर सद्बुद्धि क्या है ?? तो कबीर बोले--
दिया न खता न किया पयाना, मंदिर भया उजार
मरि गए सो जन मरि गए, बाँचे बाँचनहार..
मतलब इस संसार में सभी लोग सांसारिकता को सहेजने में लगे हैं, जबकि वो नश्वर है, वे किसी को कुछ भी देना नहीं चाहते, पर जब कोई जीव मर जाता है, तो उसके द्वारा सहेजा गया वैभव, धन आदि कोई दूसरा ही उपयोग करता है, यही क्रम चलता रहता है..जो समय रहते उसका सच्चा उपयोग सीख लेता है..वही सद्बुद्धि धारणशील प्राणी कहा जाता है..
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तब शहंशाह क्रोध में बोला कि जब तुम इतने ही बड़े ज्ञानी हो तो घर घर जाकर दुनिया भर में घूमकर चेतना क्यों नहीं जगाते, क्यों केवल अपने ही घर में बैठकर लोगों को उपदेश देते रहते हो ?? तब कबीर बोले--
पानी पियावत क्या फिरो, घर घर सायर बारि
तृषावंत जो होयगा, पीवेगा झख मारि..
मतलब कबीर कहते हैं कि इस संसार में सभी अपने आपको ज्ञान का सागर समझते हैं, अपने मन में अहंकार को लेके चलते हैं, जो अपने अहंकार भाव को जीतकर मेरे पास आएगा, मैं उसे सत्यभाव के पास अवश्य ले जाऊँगा, पर मैं पहले से ये काम घर घर जाकर क्यों करूँ..
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तब शहंशाह ने और भी बहुत से प्रश्न कबीर से किये, जो इस लेख में, मेरे लिए संभव नहीं कि मैं लिख पाऊं.. अंत में शहंशाह ने कबीर से पूछा कि तुम्हें मैंने सुबह बुलाया था और तुम शाम ढलने पे आये हो, क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुमने गलत किया ?? तब कबीर बोले कि रास्ते में आ रहा था तो मैंने एक दृश्य देखा बस उसी के आश्चर्य में पड़ गया और समय का भान न रहा, तो शहंशाह बोला कि ऐसा क्या देखा तुमने ??
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तब कबीर बोले कि-- मैंने सुई की नोंक जितनी पतली जगह में से कई हाथी, घोड़ों को निकलते हुए देखा, तो शहंशाह हँसा भी और क्रुद्ध भी हुआ, बोला मेरे साथ मजाक करते हो, तो कबीर बोले शहंशाह, मैं सच कह रहा हूँ, तब शहंशाह बोला कि सिद्ध कर सकते हो, तो कबीर बोले कि-- स्वर्ग और नरक प्राप्ति के बीच दोनों के बीच बड़ा फासला है.. यदि हम सूर्य और चंद्र को, एक सुई के दो सिरे मानकर इसके बीच ये सारा अंतरिक्ष मान लें, तो इस अन्तरिक्ष में कई हाथी और घोड़े गुजर रहे हैं, जो हमारी आंखों की छोटी सी पुतली से भी हम देख सकते हैं, ये आश्चर्य नहीं तो क्या है..
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चलती चक्की देखकर, दिया कबीरा रोय
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय..
मतलब आकाश और धरती एक चक्की के दो पाट हैं और इसके बीच अनंत जीव दिन रात पिस रहे हैं मतलब उनका जन्म मृत्यु जारी है.. तब उस दिन शहंशाह पहली बार ऐसी बातें सुनकर सोच में पड़ गया और मुस्कुराते हुए कबीर से पूछा कि क्या तुम्हें डर नहीं लगता, क्या इससे बचने के लिए कोई युक्ति खोज ली है तुमने ??
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तो कबीर बोले--मेरे पुत्र(कई मान्यताओं में वे शिष्य भी कहे जाते हैं) से किसी ने यही पूछा, तो उसने जबाब दिया --
चलती चक्की देखकर, दिया कमाल हँसाय
जो कीला से चिपको रहो, ताकों काल न खाए..
मतलब चक्की भी उन दानों को पीसने से छोड़ देती है, जो चक्की के कीले से चिपक जाते हैं, ये वही कीला है, जो चक्की के दोनों पाटों को जोड़ता है..
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कबीर कहते हैं कीला से मतलब स्वयं के आत्मचेतन राम से है, उसी की शरण में चिपके रहोगे तो मुक्ति संभव हो सकती है..
रामहु केर मर्म नहीं जाना....
मतलब कबीर कहते हैं कि राम का किसी ने मर्म नहीं जाना है..
तब शहंशाह पूछता है कि, तेरे राम का मर्म क्या है ??
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तब कबीर कहते हैं कि एक बार मैं काशी में गंगा में नहा रहा था, नहाकर अपने लोटे को वहीं पास में मिट्टी से अच्छी तरह धोकर लौट ही रहा था कि, एक अच्छा व्यापारी सा दिखने वाला सेठ आया और स्नान करने लगा, अपने साथ वो लोटा लाना भूल गया था सो उसे स्नान में असुविधा हो रही थी सो मैंने उससे कहा कि मेरा लोटा ले लो, स्नान में सुविधा होगी, चूंकि वो ऊँचे कुल का था तो मुझ पर चिल्लाया...
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तुम नीची जाति के होकर भी मुझसे लोटे के लिए पूछते हो, यदि तुम्हारा लोटा लिया तो मैं कभी भी शुद्ध नहीं हो सकूँगा, तुम्हारा लोटा अशुद्ध है, तब मैंने उससे कहा कि इस लोटे को मैंने इसी गंगा किनारे की गीली मिट्टी से अंदर और बाहर इसी गंगा के जल से धोया है, यदि ये फिर भी शुद्ध न हुआ तो तुम तो इस गंगा में केवल बाहर से ही स्नान कर रहे हो, अपनी आत्मा को तो स्नान करा ही नहीं रहे हो, तो फिर तुम कैसे शुद्ध हो सकते हो..तो वो चिढ़ गया और मुझे अपशब्द कहते हुए चला गया..
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जिस हृदय में मनुष्य के लिए मनुष्य में प्रेम नहीं, वो कभी भी राम के मर्म को नहीं समझ सकता..
कबीर कहते हैं कि--
जो मैं ऐसा जानता, प्रीति करे दुख होय
नगर ढिंढोरा पीटता, प्रेम न करियो कोय..
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परंतु कबीर कहते हैं, जबकि मैंने इसकी जगह ये देखा कि--
कारी पियरी दुहहु गाई, ताकर दूध देहु बिलगाई..
छाडु कपट नर अधिक सयानी, कहहिं कबीर भजु सारंग पानी..
मतलब काली और पीली गाय के दूध को मिला दिया जाए तो उन्हें फिर अलग अलग पहचाना नहीं जा सकता कि कौन सा दूध किस गाय का है..
इस संसार में हर मनुष्य अपने बुद्धि चातुर्य से अपने ही धर्म को श्रेष्ठ साबित करने में लगा है, जो इसे छोड़कर अपने सारंगपानी मतलब अपने आत्मतत्व को भजता है, वही दूध के मिल जाने जैसे प्रेमतत्व को समझ पाता है..
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कहते हैं कि शहंशाह कबीर के जबाबों से बहुत प्रसन्न हुआ और उन्हें छोड़ दिया गया पर एक मान्यता ये भी है कि अब तक शहंशाह समझ चुका था कि कबीर से बातचीत में जीतना संभव नहीं है, सो उसने फिर कबीर की 52 प्रकार की परीक्षाएँ लीं थीं, जिनमें उनके साथ हिंसा भी की गई थी..पर कहते हैं हर हाल में जीत कबीर की ही हुई..
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जीवन भर कबीर लोगों को सच्चे राम का मर्म समझाते रहे, जब अंत समय आया तो अपने जन्मस्थान काशी को छोड़कर पास में ही एक छोटे कस्बे मगहर में जाने लगे, उस समय मान्यता थी कि मगहर में मरने वाला नरक में जाता है और गधा बनता है, जबकि काशी के बारे में आज भी ये मान्यता है कि-- (काशी मरणानमुक्ति) अर्थात् काशी में मरने वाले को मुक्ति मिलती है.. लोगों ने कबीर से कहा कि आप क्यों मगहर जा रहे हैं तब कबीर बोले--
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(लोका मति के भोरा रे, जो काशी तन तजै कबीरा, तौ रामहि कौन निहोरा रे..) मतलब काशी लोगों को उकसा रही है कि जीवन भर पाप करो, और अंत समय यहाँ आके मर जाओ तो मुक्ति मिलेगी, यदि मैंने जीवन भर राम को भजा है, और यदि मैं काशी की वजह से मुक्ति को पा जाऊँ तो फिर जीवन भर मेरा राम को भजने का क्या प्रयोजन निकला..
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तब लोग बोले तो आप क्या सोचते हैं ? तो कबीर बोले--
मन मथुरा, दिल द्वारका, काया कासी जाणि
दसवाँ द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछांणि..
मतलब मन को मथुरा, दिल को द्वारका और देह को ही काशी जानो, दसवाँ द्वार ब्रम्हा रंध्र ही देवालय है, उसी में परम चेतना की खोज करो..
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कहते हैं कबीर साहब का शरीर जब नहीं रहा, तो हिन्दू और मुसलमानों में उनके शरीर का अंतिम क्रियाकर्म करने की होड़ हुई, पर जब वे कबीर साहब के शरीर के पास पहुँचे तो चादर से ढके उनके शरीर की जगह बस चादर से ढके कुछ फूल मिले, जिन्हें हिन्दू और मुसलमानों ने आपस में बाँटकर वहीं पास पास में एक मंदिर और मस्जिद बना दी, जो आज भी है..
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अभी कुछ साल पहले मैं उस जगह गया था, जिसे कबीर का समाधि स्थल कहा जाता है, मंदिर और मस्जिद को इतने पास पास देखकर, एक व्यक्ति का दोनों ही समाज में महत्व और आदर देखकर एक अजीब सा सुकून मिला था, जिसे शब्दों में नहीं लिख सकता हूँ.. कई मित्रों ने मुझसे कहा था कि मैं मेरे जीवन के सभी चार पसंदीदा किरदारों के बारे में सभी को बताऊँ, सबसे पहले मैंने अपनी लिस्ट में से गौतम बुद्ध के विषय में लिखा था जो मेरी पसंदीदा लिस्ट में तीसरे नंबर पे आते हैं और आज मैं, मेरी लिस्ट के चौथे पसंदीदा किरदार कबीर से सभी को मिलवाता हूँ..
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मैंने अपनी इस छोटी सी ज़िन्दगी में कई व्यक्ति देखे जो खुद को हिंदू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, पारसी, बौद्ध आदि कहते हैं, कोई स्वयं को नास्तिक और निरंकारी कहते हैं, और भी ना जाने कितने पंथों और धर्मों को मानने और जीने वाले लोग देखे हैं.. पर मैं सच कहता हूँ खुद को इंसान कहने वाला, मैंने कोई नहीं देखा, सच कहूँ तो मैंने उस स्थल पे कबीर को महसूस करने के सिवा फिर कभी किसी के अंदर कोई कबीर नहीं देखा..
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मैंने एक इंसान को एक फूल पे पैदा होते, ज़िन्दगी भर लोगों को फूलों के इत्र जैसा ज्ञान देते और अंत में अपने शरीर की जगह भी फूलों को छोड़ते हुए फिर कभी नहीं देखा.. सच कहूँ तो मैंने फिर कभी कोई कबीर नहीं देखा..

*नीर चढ्यो बहु नाव दिखावत*

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🌷🙏🇮🇳 *#भक्तमाल* 🇮🇳🙏🌷
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*दादू डरिये लोक तैं, कैसी धरहिं उठाइ ।*
*अनदेखी अजगैब की, ऐसी कहैं बनाइ ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*जान अवेश१ हि शिष्य गये महि२,*
*मोह मुदग्गर ग्रन्थ उचार्यो । *
*कान पर्यो तन त्याग बरे३ निज,*
*दास नये अपनों पन पार्यो ॥*
*जीत जती नृप पै चढ जावत,*
*बैठ करें चिक४ मायक डार्यो ।*
*नीर चढ्यो बहु नाव दिखावत,*
*वेग चढ़ो नहिं बूड़त धार्यो ॥४२०॥*
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शंकराचार्य जितने काल की अवधि शिष्यों को बता गये थे, सो काल व्यतीत हो गया किन्तु गुरुजी अपने शरीर में नहीं आये । तब शिष्यों ने विचार किया कि कहीं दारादि के मोहावेश१ में समय का ज्ञान नहीं रहा है । फिर शिष्यों ने राजदरबार के भीतर२ जाकर 'मोह मुद्रर' ग्रंथ उच्चारण करके राजा को सुनाया ।
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श्रवणों में पड़ते ही राजा का शरीर त्यागकर अपने शरीर में प्रवेश४ किया । दिया सेवक शिष्यों ने आप को प्रणाम करते हुये कहा आयात कर आपके शरीरया, उसको पूरा कर दिया इससे हमको अति प्रसन्नता है ।" आपने कहा- "तुमने भी मेरी आज्ञा का पालन किया है, इससे मुझे भी प्रसन्नता है ।"
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फिर शंकराचार्यजी ने भारती के कामशास्त्र सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर देकर उसे जीता । पश्चात् जैन जतियों को जीता । जैन जतियों ने निश्चय किया कि अब हम शंकराचार्य से हार गये हैं । राजा शंकराचार्य का मत ग्रहण करेगा । अतः हम राजा को शंकराचार्य के सहित मार डालें । तब कोई कुमंत्रणा करके शिष्यों के सहित मायावी जतियों का गुरु, राजा तथा शंकराचार्य के पास बहुत ऊँची छत पर जा बैठा ।
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फिर उसने सब पर अपनी माया का पड़दा४ डाल कर सबको दिखाया कि प्रलय कालीन समुद्र के समान पानी बढ़ता आ रहा है और वह छत के पास आ गया है । तब उसने उस जल में एक बहुत बड़ी मायिक नौका भी दिखाई और वह तैरती हुई छत के पास आ लगी । जतियों ने गुरु ने राजा से कहा- "शीघ्र इस नौका पर चढ़ो, नहीं चढ़ोगे तो जल की धारा में डूब जाओगे" ॥
(क्रमशः)

मंगलवार, 15 अक्तूबर 2024

*(२)नरेन्द्र के प्रति उपदेश*

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*ऐसा कोई एक मन, मरै सो जीवै नाहिं ।*
*दादू ऐसे बहुत हैं, फिर आवै कलि माहिं ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(२)नरेन्द्र के प्रति उपदेश*
दिन के नौ बजे का समय है । श्रीरामकृष्ण मास्टर के साथ वार्तालाप कर रहे हैं । कमरे में शशि भी हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - नरेन्द्र और शशि ये दोनों क्या कह रहे थे ? क्या विचार कर रहे थे ?
मास्टर – (शशि से) – क्या बातें हो रही थीं, जी ?
शशि – शायद निरंजन ने कहा है ?
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श्रीरामकृष्ण – ईश्वर नास्ति-अस्ति, ये सब बातें हो रही थीं ?
शशि - (सहास्य) - नरेन्द्र को बुलाऊँ ?
श्रीरामकृष्ण – बुला ।
नरेन्द्र आकर बैठे ।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - तुम भी कुछ पूछो । क्या बातें हो रही थीं ? – बता ।
नरेन्द्र - पेट कुछ ठीक नहीं है । उन बातों को अब और क्या कहूँ ?
श्रीरामकृष्ण - पेट अच्छा हो जायगा ।
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मास्टर - (सहास्य) - बुद्ध की अवस्था कैसी है ?
नरेन्द्र - क्या मुझे वह अवस्था हुई है जो मैं बतलाऊँ ?
मास्टर - ईश्वर हैं, इस सम्बन्ध में वे क्या कहते हैं ?
नरेन्द्र - ईश्वर हैं, यह बात कैसे कह सकते हो ? तुम्हीं इस संसार की सृष्टि कर रहे हो । बर्कले ने क्या कहा है, जानते हो ?
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मास्टर - हाँ, उन्होंने कहा है, 'Esse is percipi' (बाह्य वस्तुओं का अस्तित्व उनके अनुभव होने पर ही निर्भर है)। जब तक इन्द्रियों का काम चल रहा है, तभी तक संसार है ।
श्रीरामकृष्ण - न्यांगटा कहता था, मन ही से संसार की उत्पत्ति है और मन ही में उनका लय भी होता है ।
“परन्तु जब तक 'मैं' है तब तक सेव्य-सेवक का भाव ही अच्छा है ।”
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नरेन्द्र - (मास्टर से) - विचार अगर करो, तो ईश्वर हैं यह कैसे कह सकते हो ? और विश्वास पर अगर जाओ तो सेव्यसेवक मानना ही होगा । यह अगर मानो - और मानना ही होगा - तो दयामय भी कहना होगा ।
"तुमने केवल दुःख को ही सोच रखा है । उन्होंने जो इतना सुख दिया है, इसे क्यों भूल जाते हो ? उनकी कितनी कृपा है ! उन्होंने हमें बड़ी बड़ी चीजें दी हैं - मनुष्य-जन्म, ईश्वर को जानने की व्याकुलता और महापुरुष का संग । 'मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुष-संश्रयः ।' " (सब लोग चुप हैं)
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श्रीरामकृष्ण – (नरेन्द्र से) – परन्तु मुझे बहुत साफ अनुभव होता है कि भीतर कोई एक है ।
राजेन्द्रलाल दत्त आकर बैठे । वे होमिओपैथिक मत से श्रीरामकृष्ण की चिकित्सा कर रहे हैं । औषधि आदि की बातें हो जाने पर, श्रीरामकृष्ण मनोमोहन की ओर उँगली के इशारे से बतला रहे हैं ।
डाक्टर राजेन्द्र - ये मेरे ममेरे भाई के लड़के हैं ।
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नरेन्द्र नीचे आये हैं । आप ही आप गा रहे हैं - (भावार्थ) - "प्रभो, तुमने दर्शन देकर मेरा समस्त दुःख दूर कर दिया है और मेरे प्राणों को मोह लिया है । तुम्हें पाकर सप्त लोक अपना दारुण शोक भूल जाते हैं, फिर, नाथ, मुझ अति दीन-हीन की बात ही क्या ? ....
नरेन्द्र को पेट की कुछ शिकायत है, मास्टर से कह रहे हैं - 'प्रेम और भक्ति के मार्ग में रहने पर देह की ओर मन आता है । नहीं तो मैं हूँ कौन ? मैं न मनुष्य हूँ, न देवता हूँ; न मेरे सुख हैं, न दुःख हैं ।'
.
रात के नौ बजे का समय हुआ । सुरेन्द्र आदि भक्तों ने श्रीरामकृष्ण को फूलों की माला लाकर समर्पण की । कमरे में बाबूराम, सुरेन्द्र, लाटू, मास्टर आदि हैं । श्रीरामकृष्ण ने सुरेन्द्र की माला स्वयं अपने गले में धारण कर ली । सब लोग चुपचाप बैठे हैं ।
.
श्रीरामकृष्ण एकाएक सुरेन्द्र को इशारे से बुला रहे हैं । सुरेन्द्र जब पलंग के पास आये, तब उस प्रसादी माला को लेकर श्रीरामकृष्ण ने सुरेन्द्र को पहना दिया ।
माला पाकर सुरेन्द्र ने प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण फिर उन्हें इशारा करके पैरों पर हाथ फेरने के लिए कह रहे हैं । कुछ देर तक सुरेन्द्र ने उनके पैर दबाये ।
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श्रीरामकृष्ण जिस कमरे में हैं, उसकी पश्चिम ओर एक पुष्करिणी(तालाब) है । इस तालाब के घाट में कई भक्त खोल करताल लेकर गा रहे हैं । श्रीरामकृष्ण ने लाटू से कहला भेजा, 'तुम लोग कुछ देर हरिनाम-कीर्तन करो ।'
मास्टर और बाबूराम आदि अभी भी श्रीरामकृष्ण के पास बैठे हैं । वे वहीं से भक्तों का गाना सुन रहे हैं ।
.
श्रीरामकृष्ण गाना सुनते सुनते बाबूराम और मास्टर से कह रहे हैं, 'तुम लोग नीचे जाओ । उनके साथ मिलकर गाना और नाचना ।' वे लोग भी नीचे आकर कीर्तनवालों के साथ गाने लगे ।
कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण ने फिर आदमी भेजा । उससे उन्होंने कीर्तन के खास-खास पद गवाने के लिए कह दिया ।
कीर्तन समाप्त हो गया । सुरेन्द्र भावावेश में आकर गा रहे हैं । गाना शंकर के सम्बन्ध में है ।
(क्रमशः)

*श्री रज्जबवाणी, समता निदान का अंग १०*

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*सब आया उस एक में, डाल पान फल फूल ।*
*दादू पीछे क्या रह्या, जब निज पकड़या मूल ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ निष्कर्मी पतिव्रता का अंग)*
================
सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
समता निदान का अंग १०
काष्ठ रु लोह पाषाण की पावक, 
एक हि रूप रु एक सी ताती१ ।
वृक्ष अठारह भार सु बहु विधि, 
पान के पान मधुर मधु२ जाती ॥
मच्छ अनेक अनेक हि जाति के, 
जामत३ एक जु नीर संधाती४ ।
हो रज्जब राम को नाम भजे जु, 
सो आतम एक जु एक सौं राती५ ॥२॥
.
काष्ठ लोह और पत्थर का अग्नि एक रूप ओर एक सा ही उष्ण१ होता है ।

अठारह भार वनस्पति के वृक्ष बहुत प्रकार के हैं किंतु किंतु सब पत्तों के स्थान पर पत्ते ही आते हैं और सब जाति के वृक्षों का शहद२ मीठा ही होता है ।

मच्छ अनेक जाति के और अनेक होते हैं किंतु एक ही जल में जन्मते३ हैं और एक ही साथ४ रहते हैं ।

ऐसे ही जो राम का नाम भजते हैं वे जीवात्मा सब एक ही हैं और एक ही प्रभु के अनुरक्त५ हैं ।
(क्रमशः)

*शरणागति ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*शरण तुम्हारी अंतर वास,*
*चरण कमल तहँ देहु निवास ॥*
*अब दादू मन अनत न जाइ,*
*अंतर वेधि रह्यो ल्यौ लाइ ॥*
=============
*शरणागति ॥*
हरि चरणां मैं बासौ म्हारौ । 
भागौ मीणौं माँच सहारौ ॥टेक॥
बाबौ बाहर सगली पालै । 
जिहिं बासै कोइ हाथ न घालै ॥
चहुँ दिसि दौड़ै चहुँ दिसि धावै । 
भागि नासि हरि चरणां आवै ॥
सुर नर साध सिधाँ का डेरा । 
सरणैं राख्या बडा बडेरा ॥
पारब्रह्म मैं परबत पायौ । 
बषनौं वोट तुम्हारी आयौ ॥१८॥
.
वासौ = निवास । मीणौं = मिथ्या । माँच = संसार । बाबौ = मन । सगली = सभी का । बाहर = बहिर्मुख हुआ । जिहिं बासै = जहाँ परमात्मा बसता है । वस्तुतः परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है । “हरि व्यापक सर्वत्र समाना । प्रेम तैं प्रगट होइ मैं जाना ॥” किन्तु प्रारम्भिक अवस्था में साधक परमात्मा को एकदेशीय जानकर ही उसकी आराधना करता है । जैसा गीता में कहा है “ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ॥” १८/६१ ॥ हाथ न घालै = परमात्मा की ओर कोई उन्मुख होता ही नहीं । नासि = नष्ट करके । परबत = पर्वत; यहाँ अद्वितीय । वोट = आश्रय, शरण में ॥
.
बषनांजी इस पद में भी स्वात्मकथन ही कर रहे हैं । वे कहते हैं, मेरा निवास हरि के चरणों में है । अर्थात् मैंने सर्वतोभावेन हरि की शरण का अवलम्बन कर लिया है जिससे मेरे मन में विद्यमान मिथ्या संसार का आश्रय समाप्त हो गया है ।
.
संसारी मन स्वयं को ही स्वतंत्र कर्त्ता-धर्त्ता मानकर संपूर्ण संसार का पालक बनता है किन्तु उस परमात्मा की ओर आकर्षित = उन्मुख नहीं होता है जो समस्त संसार का अभिन्न कर्त्ता-धर्त्ता-संहर्त्ता है ।
.
मन चारों ओर दौड़ता है; चारों ओर रमता है; किन्तु संतुष्ट कहीं नहीं होता है । अंततः अपना अमूल्य समय नष्ट करके भागकर हरि की शरण का आश्रय लेता है ।
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उस अशरण-शरण दीनबंधु ने बड़े-बड़े पापी और पुण्यात्माओं को अपनी शरण में रखा है । उसकी शरण में देवता, मनुष्य, साधु और सिद्ध सभी का निवास है ।
.
मैंने पर्वत सदृश अशरणशरण अद्वितीय एक परब्रह्म परमात्मा का रहस्य जान लिया है । अतः हे परमात्मन् ! मैं बषनां आपकी शरण में आ गया हूँ । आप मुझे स्वीकार करो ॥१८॥
(क्रमशः)

सोमवार, 14 अक्तूबर 2024

*४४. रस कौ अंग २९/३२*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४४. रस कौ अंग २९/३२*
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कहि जगजीवन रांमजी, घटि घटि घात अनेक ।
आतम अस्थल एक रस, अबिगत परस न एक ॥२९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु हर हृदय में अनेक विचार है जो हरि स्मरण पर चोट करते हैं । और प्रभु का निवास तो आत्मा में है जहां कोइ नहीं पहुंच सकता है ।
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एक निरंजन एक घर, सिव सक्ती दोइ नांम ।
रूप बिलावै६ अरु रहै, जगजीवन सौ रांम ॥३०॥
(६. बिलावै=नष्ट हो)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि परमात्मा का एक घर है जिसके शिव व शक्ति दो नाम है जिसका स्वरूप रहे या नष्ट हो काम तो राम से ही है ।
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जे रसिया लीन रहै, रांम नांम गुंन गाइ ।
कहि जगजीवन सरस सौ, रस मंहि की चाहि ॥३१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो प्रभु नाम रसिक जन है वे स्मरण में ही मग्न रहते हैं उन्हें उस सुन्दर रस में से भी राम रस की, राम स्मरण की प्रबल इच्छा बनी रहती है ।
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एक बासना रांम रस, एक स्वाद एक रस ।
कहि जगजीवन एक भजि, हरि मंहि भोग अनेक ॥३२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि एक ही इच्छा है जो राम नाम की है वह ही स्वाद या आदत बन गया है वह ही आनंद है । संत कहते हैं कि उस एक का ही स्मरण उचित है वैसे पृथ्वी पर अनेक भोग विलास है उनसे बचें ।
(क्रमशः)

*श्रीशंकराचार्यजी की पद्य टीका*

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*निश्‍चल ते चालै नहीं, प्राणी ते परिमाण ।*
*साथी साथैं ते रहैं, जाणैं जाण सुजाण ॥*
*ते निर्गुण आगुण धरी, मांहैं कौतुकहार ।*
*देह अछत अलगो रहै, दादू सेव अपार ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
.
*श्रीशंकराचार्यजी की पद्य टीका*
*इन्दव-*
*राम समुख्ख किये विमुखी नर,*
*ले जग में प्रभुता विसतारी ।*
*जैन-जती सब फैल रहे जग,*
*हाथ न आवत बात विचारी ॥*
*देह तजी नृप के तन पैसत,*
*ग्रंथ दियो करि मोह निवारी ।*
*शिष्यन से कहि देह अवेशहि,*
*देखि सुनावहु आत तयारी ॥४१९॥*
.
भगवान् से विमुख मनुष्यों को भगवान् के सन्मुख किया और उनको अपना कर जगत् में प्रभुता का विस्तार किया था ।
.
सब जगत् में जैन धर्मानुयायी जती लोग फैल रहे थे उनको जीता, मंडन मिश्र को शास्त्रार्थ में जीता; किन्तु मण्डनमिश्र की धर्मपत्नी भारती ने कहा- मिश्र अभी आधे ही हारे हैं, मुझे शास्त्रार्थ में जीतने से ही आप विजयी हो सकते हैं । उसने शास्त्रार्थ करते समय सोचा अन्य शास्त्रों की चर्चा में तो ये मेरे हाथ नहीं आ रहे हैं अर्थात् नहीं हार रहे हैं ।
.
अतः उसने काम शास्त्र संबंधी प्रश्न किये । उसके प्रश्न सुनकर सर्वज्ञ शंकराचार्यजी ने विचार किया-" इनका उत्तर देता हूँ तो यति धर्म में दोष आयेगा । लोग कहेंगे ये बाल ब्रह्मचारी हैं, इनको इन बातों का कैसे पता लगा- यह सोच कर मेरे यतीत्व में संशय करेंगे । और उत्तर नहीं देना इनसे हारना होगा । अतः उनने कुछ समय के अवकाश के बाद शास्त्रार्थ करने की माँग की । भारती ने स्वीकार कर लिया ।
.
फिर आप अमरु राजा को मृतक देखकर मोह को दूर करने वाला "मोह मुद्गर" लघु ग्रंथ रचकर तथा अपने शिष्यों को देकर बोले- "मैं इस राजा के शरीर में प्रवेश करता हूँ । यदि उचित समय पर अपने शरीर में पुनः नहीं आऊँ, राजा के शरीर में ही कहीं मोहावेश से मेरी आसक्ति हो जाय, ऐसा देखो तो तत्काल मेरे पास आकर मुझे यह ग्रन्थ सुनाना । इसके सुनते ही मैं आने की तैयारी करूँगा"॥
(क्रमशः)

= ६१ =

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*दादू जे तैं अब जाण्या नहीं, राम नाम निज सार ।*
*फिर पीछै पछिताहिगा, रे मन मूढ गँवार ॥*
=============
*साभार ~ @Subhash Jain*
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छठवीं–यह वह पुस्तक है जिसके बारे में मैं हमेशा से चर्चा करना चाहता था; इसे मेरे सुबह के अंग्रेजी प्रवचन के लिए चुना भी गया था। मैं पहले ही इस पर हिंदी में बोल चुका हूं और इसका भी अनुवाद किया जा सकता है। पुस्तक शंकराचार्य द्वारा लिखी गई है–इस समय वाला मूढ़ नहीं, बल्कि आदि शंकराचार्य, जो असली हैं।
.
पुस्तक एक हजार साल पुरानी है, इसमें सिवाय एक छोटे से गीत के और कुछ भी नही है: ‘‘भजगोविन्दम्‌ मूढ़मते–हे मूढ़…’’ अब, देवगीत, ध्यान से सुनो: मैं तुमको नहीं कह रहा हूं, यह पुस्तक का शीर्षक है। ‘‘भजगोविन्दम्‌’’–गोविंद को भजो–‘‘मूढ़मते,’’ हे मूढ़। हे मूढ़, गोविंद को भजो।
.
लेकिन मूढ़ नहीं सुनते हैं। वे कभी किसी की नहीं सुनते हैं, वे बहरे हैं। और अगर वे सुन भी लें, तो उनकी समझ में नहीं आता। वे जड़बुद्धि हैं। और अगर वे समझ भी लें, तो वे अनुसरण नहीं करते; और जब तक तुम अनुसरण नहीं करते, तब तक समझ अर्थहीन है। समझना केवल तभी समझना कहा जाएगा जब तक कि वह तुम्हारे अनुसरण से सिद्ध न हो जाए।
.
शंकराचार्य ने अनेक पुस्तकें लिखी हैं, लेकिन उनमें से कोई भी इस गीत जितनी सुंदर नहीं हैं: ‘‘भजगोविन्दम्‌ मूढ़मते।’’ इन तीन या चार शब्दों पर मैं बहुत बोल चुका हूं, लगभग तीन सौ पेज। किंतु तुम्हें पता है कि मुझे गीत गाना कितना पसंद है; अगर मुझे मौका मिले तो मैं निरंतर गाता ही रहूं। लेकिन मैं यहां किसी भी तरह इस पुस्तक का उल्लेख करना चाहता था।
~ पन्द्रहवां प्रकरण,
मेरी प्रिय रही पुस्तकें, ओशो.

रविवार, 13 अक्तूबर 2024

= ६० =

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*दादू जल में गगन,*
*गगन में जल है, पुनि वै गगन निरालं ।*
*ब्रह्म जीव इहिं विधि रहै, ऐसा भेद विचारं ॥*
=============
*साभार ~ @Subhash Jain*
.
प्रश्न: परसों ही आपने कहा कि अपने को जाने बिना अर्थी नहीं उठने देना। यह चुनौती तीर की तरह हृदय में चुभ गयी। हम कैसे शुरू करें ?
ओशो ~
मनुष्य का अर्थ होता है, जो मनन करे। और आदमी का अर्थ होता है, जो मिट्टी का बना है। अंग्रेजी में भी मनुष्य का पर्यायवाची है, ह्युमन। होना नहीं चाहिए। इस देश में आदमी के होने की पहचान है, उसके मनन की क्षमता। इसलिए हम उसे कहते हैं मनुष्य। मनन की अनेक दिशाएं हो सकती हैं। चित्रकार भी सोचता है, मूर्तिकार भी सोचता है, दार्शनिक भी सोचता है, धर्मगुरु भी सोचता है, वैज्ञानिक भी सोचता है।
.
लेकिन ये सारी सोचने की प्रक्रियाएं बाहर की तरफ जाती हैं। ये किसी और विषय की तरफ इंगित करती हैं। जिसको हमने ज्ञानी कहा है वह अपने सारे सोचने की दिशाओं को भीतर की तरफ मोड़ लेता है। वह सिर्फ अपने संबंध में ही सोचता है। उसके लिए जगत में कुछ और सोचने योग्य नहीं है।, हो भी नहीं सकता। क्योंकि जिसे अपना ही पता नहीं है उसे किसी और चीज का क्या पता हो सकता है ?
.
जिस चिंतन और मनन के लिए मैंने तुमसे कहा है उसमें पहली बात है कि सब तरफ से अपने विचारों को खींचकर अपने पर ही आमंत्रित कर लेना। और एक जादू घटित होता है जिसकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। तुम सोच सकते हो केवल उसी चीज के संबंध में जिसके संबंध में तुमने पढ़ा हो, सुना हो, किसी ने कुछ कहा हो। तुम अपने संबंध में क्या सोचोगे ?
.
तो जैसे ही व्यक्ति सारे बाह्य चिंतन छोड़ देता है और उसकी आंखें सिर्फ अपनी ही रूप पर टिक जाती हैं...इसलिए मैंने कहा, एक जादू घटित होता है: तुम अपने संबंध में सोच नहीं सकते। वहां सोचना शून्य हो जाता है। वहां सिर्फ देखना शेष रह जाता है। इसलिए हमने इस देश में उस घड़ी को दर्शन की घड़ी कहा है, चिंतन की नहीं।
.
तुम देखते तो कि तुम कौन हो लेकिन सोचने को कुछ बाकी नहीं। तुम जो भी हो, पूरे के पूरे खुले हो और नग्न हो। और यही आत्म-पहचान तुम्हें जीवन के सार तत्व से परिचित करा देती है, उस अमृत से परिचित करा देती है जिसका कोई अंत नहीं है। इस ज्ञान की परमदशा को हमने समाधि कही है। व्याधि से मुक्त, स्वस्थ।स्वास्थ्य का अर्थ होता है, स्वयं में स्थित हो जाना, स्वस्थ हो जाना। इसका किसी घाव के भरने से संबंध नहीं है।
.
तुम हो, लेकिन अपने से भागे-भागे तुम हो, लेकिन अपने से दूर-दूर। तुम हो, लेकिन तुम्हें पता नहीं है कि तुम कहां हो। जिस दिन तुम स्वस्थ हो जो हो, स्थिर हो जाते हो, अपनी चेतना में ठहर जाते हो जैसी कोई दीए की ज्योति निष्कंप ठहर जाए, कोई हवा का झोंका उसे हिलाए नहीं, वैसी ज्योति की भांति जब तुम अपने भीतर ठहर जाते हो तो जो प्रकाश का आविर्भाव होता है, जो किरण विकीर्णित होती हैं, उसे ही मैंने मरने के पहले अपने को जानना कहा है।
ओशो = कोंपले फिर फूंट आयी

= ५९ =

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*दादू कोटि अचारिन एक विचारी,*
*तऊ न सरभर होइ ।*
*आचारी सब जग भर्या, विचारी विरला कोइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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मैं जैन घर में पैदा हुआ। तो बचपन में मुझे कभी रात्रि को भोजन करने का सवाल नहीं उठा। कोई करता ही न था घर में, इसलिए बात ही नहीं थी। मैं पहली दफा पिकनिक पर कुछ हिंदू मित्रों के साथ पहाड़ पर गया। उन्होंने दिन में खाना बनाने की कोई फिकर ही न की। मुझ अकेले के लिए कोई चिंता का कारण भी न था। मैं अपने लिए जोर दूं यह भी ठीक न मालूम पड़ा।
.
रात उन्होंने भोजन बनाया। दिनभर पहाड़ का चढ़ाव, दिनभर की थकान, भयंकर मुझे भूख लगी। और रात उन्होंने खाना बनाया। उनके खाने की गंध, वह मुझे आज भी याद है। ऊपर-ऊपर मैंने हां-ना किया कि नहीं, रात कैसे खाना खाऊंगा, लेकिन भीतर तो चाहा कि वे समझा-बुझाकर किसी तरह खिला ही दें। उन्होंने समझा-बुझाकर खिला भी दिया। लेकिन मुझे तत्क्षण वमन हो गया, उलटी हो गई।
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उस दिन तो मैंने यही समझा कि रात का खाना इतना पापपूर्ण है इसीलिए उलटी हो गई। लेकिन उनको तो किसी को भी न हुई। संस्कार की बात थी। कोई रात के खाने से संबंध न था। कभी खाया न था, और रात खाना पाप है, वह धारणा; तो किसी तरह खा तो लिया, लेकिन वह सब शरीर ने फेंक दिया, मन ने बाहर फेंक दिया। शील से इन घटनाओं का कोई संबंध नहीं है, मन की धारणाओं से संबंध है।
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तुम जो मानकर चलते हो, जो तुम्हारे विचार में बैठ गया है, उसके अनुकूल चलना आचरण है, उसके प्रतिकूल चलना दुराचरण है। शील क्या है ? शील है, जब तुम्हारे मन से सब विचार समाप्त हो जाते हैं और निर्विचार दशा उपलब्ध होती है, शुन्यभाव बनता है, ध्यान लगता है, उस ध्यान की दशा में तुम्हें जो ठीक मालूम होता है, वही करना शील है। और वैसा शील सारे जगत में एक सा होगा। उसमें कोई संस्कार के भेद नहीं होंगे, समाज के भेद नहीं होंगे।
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चरित्र हिंदू का अलग होगा, मुसलमान का अलग होगा, ईसाई का अलग होगा, जैन का अलग होगा, सिक्ख का अलग होगा। शील सभी का एक होगा। शील वहां से आता है जहां न हिंदू जाता, न मुसलमान जाता, न ईसाई जाता। तुम्हारी गहनतम गहराई से, अछूती कुंवारी गहराई से, जहां किसी ने कभी कोई स्पर्श नहीं किया, जहा तुम अभी भी परमात्मा हो, वहां से शील आता है।
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जैसे अगर तुम थोड़ी सी जमीन खोदो तो ऊपर-ऊपर जो पानी मिलेगा वह तो पास की सड़कों से बहती हुई नालियों का पानी होगा, जो जमीन ने सोख लिया है-चरित्र। चरित्र होगा वह। फिर तुम गहरा कुआ खोदो, इतना गहरा कुआ खोदो जहा तक नालियों का पानी जा ही नहीं सकता, तब तुम्हें जलस्रोत मिलेंगे, वे सागर के हैं। तब तुम्हें शुद्ध जल मिलेगा।
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अपने भीतर इतनी खुदाई करनी है कि विचार समाप्त हो जाएं, निर्विचार का तल मिल जाए। वहां से तुम्हारे जीवन को जो ज्योति मिलेगी वह शील की है।चरित्र में ? कोई बड़ी सुगंध नहीं होती। चरित्र तो प्लास्टिक के फूल हैं, चिपका लिए ऊपर से, सज-धज गए श्रृंगार कर लिया। दूसरों को दिखाने के लिए अच्छे, लेकिन परमात्मा के सामने काम न पड़ेंगे।
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शील ऐसे फूल हैं जो तुमने चिपकाए नहीं, तुम्हारे भीतर लगे, उगे, उमगे, तुम्हारे भीतर से आए। जिनकी जड़ें तुम्हारे भीतर छिपी हैं। उन्हीं फूलों को तुम परमात्मा के सामने ले जाने में समर्थ हो सकोगे। जो समाज ने दिया है, वह मौत छीन लेगी। क्योंकि जो समाज ने दिया है, वह जन्म के बाद दिया है। उसे तुम मौत के आगे न ले जा सकोगे। जन्म और मौत के बीच ही उसकी संभावना है।
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लेकिन अगर शील का जन्म हो जाए तो उसका अर्थ है, तुमने वहां पाया अब जो जन्म के पहले था, जब तुम पैदा भी न हुए थे। उस शुद्ध चैतन्य से आ रहा है। अब मृत्यु के आगे भी ले जा सकोगे। जो जन्म के पहले है, वह मृत्यु के बाद भी साथ जाएगा। शील को उपलब्ध कर लेना इस जगत की सबसे बड़ी क्रांति है।
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कौन है गुमराह-कौन भटका हुआ है ? कौन आगाहे-मंजिल है-और कौन है जिसे मंजिल का पता है ? हजारों यात्री दल हैं जिंदगी के राजपथ पर। तुम कैसे पहचानोगे ? चरित्र के धोखे में मत आ जाना। दुश्चरित्र को तो छोड़ ही देना, चरित्रवान को भी छोड़ देना। शीलवान को खोजना।
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ऐसा समझो। एक सूफी फकीर हज की यात्रा को गया। एक महीने का मार्ग था। उस फकीर और उसके शिष्यों ने तय किया कि एक महीने उपवास रखेंगे। पाच-सात दिन ही बीते थे कि एक गांव में पहुंचे, कि गांव के बाहर ही आए थे कि गांव के लोगों ने खबर की कि तुम्हारा एक भक्त गाव में रहता है, उसने अपना मकान, जमीन सब बेच दिया। गरीब आदमी है।
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तुम आ रहे हो, तुम्हारे स्वागत के लिए उसने पूरे गांव को आमंत्रित किया है भोजन के लिए। सब बेच दिया है ताकि तुम्हारा ठीक से स्वागत कर सके। उसने बड़े मिष्ठान बनाए हैं। फकीर के शिष्यों ने कहा, यह कभी नहीं हो सकता, हम उपवासी हैं, हमने एक महीने का उपवास रखा है। हमने व्रत लिया है, व्रत नहीं टूट सकता। लेकिन फकीर कुछ भी न बोला।
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जब वे गांव में आए और उस भक्त ने उनका स्वागत किया, और फकीर को भोजन के लिए निमंत्रित किया तो वह भोजन करने बैठ गया। शिष्य तो बड़े हैरान हुए कि यह किस तरह का गुरु है ? जरा से भोजन के पीछे व्रत को तोड़ रहा है! भूल गया कसम, भूल गया प्रतिज्ञा कि एक महीने उपवास करेंगे। यह क्या मामला है ? लेकिन जब गुरु ने ही इंकार नहीं किया तो शिष्य भी इंकार न कर सके। करना चाहते थे।
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समारोह पूरा हुआ, रात जब विश्राम को गए तो शिष्यों ने गुरु को घेर लिया और कहा कि यह क्या है ? क्या आप भूल गए ? या आप पतित हो गए ? उस गुरु ने कहा, पागलो ! प्रेम से बड़ी कहीं कोई तीर्थयात्रा है ? और इसने इतने प्रेम से, अपनी सब जमीन-जायदाद बेचकर, सब लुटाकर-गरीब आदमी है-भोजन का आयोजन किया, उसे इंकार करना परमात्मा को ही इंकार करना हो जाता। क्योंकि प्रेम को इंकार करना परमात्मा को इंकार करना है।
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रही उपवास की बात, तो क्या फिकर है, सात दिन आगे कर लेंगे। एक महीने का उपवास करना है न ? एक महीने का उपवास कर लेंगे। और अगर कोई दंड तुम सोचते हो, तो दंड भी जोड़ लो। एक महीने दस दिन का कर लेंगे। जल्दी क्या है ? और मैं तुमसे कहता हूं कि तुम्हारी यह अकड़ कि हमने व्रत लिया है और हम अब भोजन न कर सकेंगे, अहंकार की अकड़ है। यह प्रेम की और धर्म की विनम्रता नहीं।
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यहां फर्क तुम्हें समझ में आ सकता है। शिष्यों का तो केवल चरित्र है, गुरु का शील है। शील अपना मालिक है, वह होश से पैदा होता है। चरित्र अपना मालिक नहीं है, वह अंधानुकरण से पैदा होता है। जब कभी तुम्हें जीवन में कोई शीलवान आदमी मिल जाए, तो समझ लेना यही चरण पकड़ लेने जैसे हैं। 
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चरित्रवान के धोखे में मत आ जाना, क्योंकि चरित्रवान तो सिर्फ ऊपर-ऊपर है। भीतर बिलकुल विपरीत चल रहा है। फर्क कैसे करोगे ? चरित्रवान को तुम हमेशा अकड़ा हुआ पाओगे। क्योंकि, इतना कर रहा हूं ! तो अहंकार मजबूत होता है। चरित्रवान को तुम हमेशा तना हुआ पाओगे, तनाव से भरा पाओगे। क्योंकि कर रहा है, कर रहा है, कर रहा है। फल की अपेक्षा कर रहा है। 
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शीलवान को तुम हमेशा विश्राम में पाओगे। शीलवान इसलिए नहीं कर रहा है कि आगे कुछ मिलने को है। शीलवान इसलिए कर रहा है कि करने में आनंद है। शीलवान को तुम प्रफुल्लित पाओगे। शीलवान अपनी तपश्चर्या की चर्चा न करेगा। अपने उत्सव के गीत गाएगा। शीलवान तुम्हें आनंदित मालूम पड़ेगा।
ओशो; एस धम्‍मो सनंतनो-(प्रवचन-19)

= ५८ =

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*दादू है को भय घणां, नाहीं को कुछ नाहीं ।*
*दादू नाहीं होइ रहु, अपणे साहिब माहिं ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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तीन फकीर एक बड़ी यात्रा पर थे, वे एक मरुस्थल से गुजरते थे, मरुस्थल लंबा था और उनकी आशा से ज्यादा लंबा निकला। उनका भोजन चूक गया, उनका पानी चूक गया। और अभी कोई आशा नहीं दिखाई पड़ती थी कि कितनी यात्रा और शेष रह गई है। शायद वे भटक गए थे। एक सांझ जब वे रात को रुके, तो उनके पास केवल एक रोटी का टुकड़ा और एक छोटी सी बोतल पानी की बची थी।
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तीनों लोगों को उतना पानी पूरा नहीं हो सकता था, तीनों लोगों को उतनी रोटी से कोई मतलब हल नहीं होता था। तो उन तीनों ने सोचा, बजाय इसके कि हम तीनों इसे खाएं और तीनों समाप्त हो जाएं, यह उचित होगा कि एक इसे खा ले, शायद वह मंजिल तक पहुंच जाए। दिन, दो दिन की उसे ताकत मिल जाए। लेकिन कौन खाए इसे ? उन तीनों में विवाद हो गया कि कौन खाए इसे ? कोई निर्णय नहीं हो सका।
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तो उन तीनों ने यह सोचा कि हम सो जाएं; एक ने सुझाव दिया कि हम तीनों सो जाएं और रात जो भी सपने हमें दिखाई पड़ें सुबह हम अपने सपने बताएं, और जिसने श्रेष्ठतम सपना देखा होगा वह रोटी और पानी का सुबह अधिकारी हो जाएगा।
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वे तीनों सो गए। फिर सुबह दूसरे दिन उठे, उनमें से एक ने पहले अपना सपना बताया कि मैंने बहुत ही श्रेष्ठ सपना देखा, मैंने देखा सपने में परमात्मा खड़ा है और वह यह कह रहा है कि तेरा आज तक का जीवन अत्यंत पवित्र है, तेरा अतीत एक पवित्रता की कहानी है, तू ही रोटी और पानी के खाने का हकदार है।
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फिर दूसरे फकीर ने कहा कि मैंने भी सपना देखा और मैंने देखा कि अंतरिक्ष से कोई आवाज गूंजती है कि तू ही हकदार है रोटी और पानी का, क्योंकि तेरा भविष्य बहुत उज्जवल है। आने वाले दिनों में तेरे भीतर बड़ी संभावनाएं प्रकट होने को हैं, तुझसे जगत का, लोक का बहुत कल्याण होगा, इसलिए तू ही हकदार है रोटी और पानी का।
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फिर उन दोनों ने तीसरे मित्र से कहा कि तुमने क्या देखा ? उसने कहा : मुझे न तो कोई आवाज सुनाई पड़ी, न कोई परमात्मा दिखाई पड़ा, न कोई मुझसे बोला, मुझे तो मेरे भीतर से यह खबर आई कि तू उठ और जाकर रोटी और पानी खा ले। तो मैं तो खा भी चुका हूं। ये तीन फकीर हैं। इनमें एक अतीत की कथा को श्रेष्ठ समझ रहा है, दूसरा भविष्य के आने वाले दिनों को; लेकिन एक वर्तमान के क्षण को ही जी लिया है, जी चुका है।
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आनंद के अनुभव को वे लोग उपलब्ध नहीं होते जो पीछे लौट कर देखते रहते हैं, वे लोग भी नहीं जो आगे का सोचते रहते हैं, केवल वे ही लोग जो प्रतिक्षण जीते हैं, प्रतिक्षण। और जीवन में जो भी उपलब्ध है प्रतिक्षण उसे पी लेते हैं और स्वीकार कर लेते हैं। और इसे इस भांति स्वीकार कर लेते हैं कि जैसे इसके आगे कोई क्षण नहीं, जैसे इसके आगे कोई जीवन नहीं, जैसे यह अंतिम निपटारे का क्षण है। जो पीछे लौट-लौट कर देखते रहते हैं उनके वर्तमान का क्षण हाथ से छूट जाता है।
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जो आगे-आगे सपने देखते रहते हैं उनका भी वर्तमान का क्षण हाथ से छूट जाता है। और स्मरण रहे, कि वर्तमान के क्षण के अतिरिक्त, वर्तमान के क्षण के अतिरिक्त किसी चीज का कोई अस्तित्व नहीं है। वर्तमान का क्षण ही है केवल, वही द्वार बन सकता है अनुभव का, आनंद का, प्रभु का।
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तीव्र जीवन चाहिए वर्तमान के क्षण पर केंद्रित। वर्तमान के क्षण पर घनीभूत तीव्र जीवन चाहिए। जितना तीव्र जीवन होगा उतने ही आनंद की झलकें मिलनी शुरू हो जाएंगी।
ओशो; शून्य समाधि

शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2024

= ५७ =

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*दादू है को भय घणां, नाहीं को कुछ नाहीं ।*
*दादू नाहीं होइ रहु, अपणे साहिब माहिं ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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मैं असंतुष्ट हूं; हर बात से असंतुष्ट। और कभी—कभी सोचता हूं कि शायद आनंद मेरे भाग्य में ही नहीं। ऐसा आदमी ही कभी नहीं हुआ कि आनंद जिसके भाग्य में न हो। हालाकि ऐसे आदमी करोड़ों हैं जो आनंद को अनुभव नहीं कर पाते। लेकिन भाग्य को दोष मत देना। यह अपना दोष भाग्य के कंधों पर मत फेंको। यह तरकीब मत करो। दोषी तुम हो, भाग्य नहीं। तुम्हारे भाग्य के तुम ही निर्माता हो।
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तुम असंतुष्ट हो तो अपने असंतोष को समझने की कोशिश करो कि क्यों असंतुष्ट हूं। तुम कारण खोज लोगे। उन कारणों को मत दोहराओ, असंतोष खो जाएगा। लेकिन कारण तुम खोजना नहीं चाहते। क्योंकि हो सकता है कारण तुम्हीं होओ, तुम्हारा होना ही कारण हो; यह तुम्हारा मैं जो संतुष्ट होना चाहता है, यही कारण हो; तो तुम उस खतरे को मोल नहीं लेना चाहते हो किसी पर दोष डाल दो।
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आदमी सदियों से दोष टालता रहा है। बहाने बदल लेता है, लेकिन दोष टालता है। पहले कहता था तो भाग्य। तुम पुराने ढंग के आदमी मालूम होते हो— भाग्य, भगवान ! फिर लोग बदले, लेकिन कुछ ज्यादा नहीं बदले। मार्क्स ने कहा कि अगर तुम दुखी हो, तो समाज जिम्मेवार है। अब यह समाज भी वैसे ही थोथा शब्द है जैसे भाग्य, कुछ फर्क नहीं पड़ा।
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मार्क्स में मैं कोई बड़ी क्रांति नहीं देखता। क्योंकि असली क्रांति एक ही है कि तुम टालो मत, तुम दूसरे पर मत फेंको, दूसरे के कंधे पर बंदूक रखकर मत चलाओ, बहाने मत खोजो, साक्षात करो सीधी—सीधे, अपने जीवन के रोग का ठीक—ठीक विश्लेषण करो, डायग्नोसिस करो, निदान करो, तो चिकित्सा भी हो सके, उपचार भी हो सके। लेकिन तुम बीमार हो और तुम कहते हो भाग्य। तो डाक्टर के पास जाने की कोई जरूरत नहीं, दवा लेने की कोई जरूरत नहीं—भाग्य की कोई दवा तो होती नहीं।
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या तुम कहते हो समाज। अब समाज बदलेगा तब बदलेगा, तब तक तुम न बचोगे। फिर फ्राँयड आया और फ्राँयड ने कहा कि न समाज, न भाग्य बल्कि तुम्हारा बचपन; तुम्हारी मां, तुम्हारे पिता, उन्होंने तुम्हें ऐसे गलत संस्कार दिये, उन्होंने तुम्हें इस तरह से दमित किया, इसलिए तुम उलझे हो। अब यह तो तब दुबारा मां—बाप मिलें और बेहतर मां—बाप मिलें ! तो यह तो भूल हो चुकी, अब इसमें कोई उपाय नहीं।
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फ्राँयड ने कहा है—आदमी कभी सुखी नहीं हो सकता है। कैसे होगा ? तुमने जो विधि बतायी, वह ऐसी है जो कि हो ही चुकी। तुमने पहली भूल कर ही दी कि अपने मां—बाप को चुना—ढंग के मां—बाप चुनने थे। मगर तुम चुनते कैसे ढंग के मा—बाप ? तुम थे कहा ? तुमने चुने कब ? यह तो घटना घटी। अब तो घट गयी, अब पीछे लौटने का कोई उपाय नहीं। अब तो किसी तरह अपने को राजी कर लो, समझा—बुझा लो और चला लो, गुजार लो।
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न तो फ्राँयड ने कोई क्रांति की है, न मार्क्स ने कोई क्रांति की है। क्रांति तो की है बुद्ध ने। क्रांति तो की है महावीर ने। क्रांति तो की है कृष्ण ने, पतंजलि ने, जीसस ने। क्या क्रांति की ? उन्होंने कहा कि तुम्हारा हाथ है तुम्हारे असंतोष में। समझो। क्यों तुम असंतुष्ट हो, क्यों हर चीज तुम्हें असंतुष्ट करती है ? पहली तो बात, तुम्हारी मांगे असंभव होंगी। जैसे एक सज्जन मेरे पास आए और उन्होंने कहा कि मुझे किसी स्त्री में रस नहीं आता, मैं एक परम सुंदर स्त्री चाहता हूं। एक पूर्ण स्त्री चाहता हूं।
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मैंने उन से कहा कि मैंने एक कहानी सुनी है एक आदमी की, वह भी पूर्ण स्त्री खोजना चाहता था। जिंदगीभर खोजता रहा, नहीं मिली। तो मित्रों ने पूछा कि तुमने जिंदगीभर खोजी और नहीं मिली? उसने कहा—ऐसा नहीं है कि नहीं मिली, मिली, एक बार मिली। तो फिर क्या हुआ ? तो उसने कहा कि दुर्भाग्य मेरा कि वह पूर्ण पुरुष खोज रही थी।
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अब तुम पूर्ण स्त्री खोजने चले हो, इसकी बिना फिक्र किये कि तुम पूर्ण पुरुष हो या नहीं। पूर्ण पुरुष हो जाओ तो शायद पूर्ण स्त्री मिल जाए—शायद तुम्हारे पड़ोस में ही रहती हो। पूर्ण को पूर्ण दिखायी पड़ता है। अपूर्ण को तो पूर्ण दिखायी भी नहीं पड़ सकता, दिखायी भी पड़ जाए तो पहचान में नहीं आ सकता।
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अब तुम अगर पूर्ण स्त्री खोजने चले, तो दुख में रहोगे। तुम्हारी मांगे असंभव हैं, तो असंतोष होगा। मागों को सीमा में लाओ आदमी की। तुम मांगते ही चले जाते हो। तुम इसकी फिकिर ही नहीं करते कि मैं क्या मांग रहा हूं; यह मिल भी सकेगा कि नहीं ! तुम शाश्वत जीवन मांगते हो। यह देह सदा रहनी चाहिए। फिर मौत आती है तो असंतोष होता है। तुम कहते हो, यश मुझे ऐसा मिले जो सदा रहे। मगर हवा बदल जाती है।
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तुम्हारी लहर कभी चली, फिर किसी और की लहर चलने लगती है। आखिर किसी और की भी लहर चलने दोगे कि नहीं चलने दोगे ! तुम्हारी ही तुम्हारी चलती रहे तो बाकी लोग असंतुष्ट रह जाएंगे। और जब तुम्हारी चली थी तो किसी की रुक गयी थी, वह तुम भूल गये ? वह असंतुष्ट हो गया था। यश तो क्षणभंगुर होगा। यह तो पानी की लहर है—आयी और गयी।
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अब तुम चाहो कि यह शाश्वत हो जाए; तुम चाहो कि गुलाब का फूल जो सुबह खिला, अब कभी मुर्झाए न, तो फिर तुम प्लास्टिक के फूल खरीदो, तुम असली गुलाब न चाहो। लेकिन प्लास्टिक का फूल नकली मालूम पड़ता है, उस से दिल भरता नहीं। अब तुम एक असंभव मांग कर रहे हो। असली फूल से नकली फूल जैसे होने की मांग कर रहे हो। यह हो नहीं सकता, तो असंतोष होगा।
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परसों एक युवती पश्चिम से आयी। रोने लगी, कहने लगी कि जब मैं वहां से चली थी तो बड़ी आशाएं लेकर चली थी। यहां आयी हूं तो मैं अपने को बहुत साधारण पाती हूं। तो दुखी हो रही हूं। उसकी हालत समझो, वही तुम्हारी हालत होगी। चली होगी अपने घर से तो सोचा होगा कि जब आश्रम में पहुंचेगी, तो बैडबाजा बजेगा, कोई हाथी वगैरह पर बिठालकर जुलूस निकाला जाएगा, कोई स्वागत किया जाएगा।
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सभी के मन मे ऐसी धारणाएं होती हैं। सभी ऐसी कल्पनाओं में जीते है। फिर ये कल्पनाएं पूरी नहीं होतीं। न कोई जुलूस निकालता, न कोई हाथी—घोड़े पर बिठालता, न कोई बैडंबाजे बजाता—एकदम से लगता है, अरे, मैं साधारण ! जब चली होगी तो अपने गांव में अकेली संन्यासिनी थी। यहां आयी तो देखा कि यहा एक हजार संन्यासी। स्वभावत: एक संन्यासी हो एक गांव में तो सबकी नजर उस पर पड़ेगी।
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जहां एक हजार संन्यासी हों, कौन देखता है ? एक हजार संन्यासी में चेहरा ही खो जाएगा। सब गैरिक वस्त्रधारी एक जैसे मालूम होते है। साधारण मालूम होने लगी होगी। अब पीड़ित हो रही है। लेकिन पीड़ा किस कारण हो रही है ? असाधारण होने की आकांक्षा की थी। विशिष्ट होने की आकांक्षा की थी। उसी आकांक्षा ने यह कष्ट पैदा किया है। इसको न समझोगे तो कष्ट जारी रहेगा। अपनी साधारणता को स्वीकार करो।
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सुना नहीं तुमने शांडिल्य ने कहा कि परमात्मा विशिष्ट नहीं है, साधारण है, अविशिष्ट है। ऐसे ही तुम भी साधारण हो जाओ। झेन फकीर लिंची से किसी ने पूछा कि तुम्हारी साधना क्या है? उसने कहा, जब भूख लगती है तो खाना खा लेता, जब प्यास लगती तो पानी पी लेता, और जब नींद आती तब सो जाता। 
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तो पूछने वाले ने कहा, लेकिन यह तो सभी साधारण लोग करते हैं ! तो लिंची ने कहा, मैं कौन असाधारण हूं ? मैं साधारणों में भी साधारण हूं। उस आदमी ने पूछा, फिर फायदा क्या है ? लिंची ने कहा, फायदा बहुत है, संतुष्ट हूं। और क्या फायदा। तुम अगर जीवन की छोटी—छोटी चीजों में रस लेने लगो, तो संतुष्ट हो जाओ।
~आचार्य रजनीश ओशो~अथातो भक्ति जिज्ञासा (शांडिल्य) प्रवचन--14

= ५६ =

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*काल झाल में जग जलै, भाज न निकसै कोइ ।*
*दादू शरणैं साच के, अभय अमर पद होइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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#शंकर जब छोटे थे, तब मां ने उन्हें संन्यास लेने की अनुमति न दी। परंतु एक दिन नदी में स्नान करते समय शंकर को मगरमच्छ ने पकड़ लिया। शंकर ने मरने से पहले मां से संन्यास लेने की अनुमति मांगी। अनुमति मिली और शंकर बच गए ! कृपया इस घटना पर कुछ प्रकाश डालें।
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घटना का कोई मूल्य नहीं है। घटना हुई भी हो, ऐसा जरूरी नहीं है। लेकिन जो अर्थ है, वह समझने जैसा है। और इसे सदा स्मरण रखना कि बुद्धपुरुषों के जीवन में जो घटनाएं हैं, वे घटनाएं कम हैं, प्रतीक ज्यादा हैं; उनमें छिपा कुछ राज है। वे ऐतिहासिक हों, न हों–आध्यात्मिक हैं। समय की धारा में वैसा घटा हो, न घटा हो, लेकिन चैतन्य की धारा में वैसा घटता है।
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बुद्धपुरुषों को इतिहास के माध्यम से मत समझना; काव्य, अनुभव के माध्यम से समझना। अन्यथा बड़ी जड़ता पैदा होती है। यही छोटी सी बोध-कथा है। ‘शंकर छोटे थे, तब मां ने उन्हें संन्यास लेने की अनुमति न दी।’ बहुत सी बातें छिपी हैं। मां यानी ममता, मां यानी मोह। मोह और संन्यास लेने की आज्ञा दे, अति कठिन है। क्योंकि संन्यास का अर्थ तो मोह की मृत्यु होगी।
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संन्यास का अर्थ ही यह है कि व्यक्ति परिवार से मुक्त हो रहा है–मां अब मां न होगी, पिता अब पिता न होंगे, भाई अब भाई न होंगे। इसलिए तो जीसस ने बार-बार कहा है, जो मेरे साथ चलना चाहता हो, उसे अपनी मां को, अपने पिता को इनकार करना होगा; जो मेरे साथ चलना चाहता हो, उसे अपने परिवार का परित्याग करना होगा। यदि तुम परिवार को न छोड़ सको, तो जीसस के परिवार के हिस्से नहीं बन सकते।
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संन्यास का अर्थ है कि यह जो जन्म और मृत्यु के बीच में घिरा हुआ जीवन है, यह व्यर्थ है। अगर जीवन ही व्यर्थ है, तो जिस मां ने जन्म दिया, वह तो व्यर्थ हो गई। उसने तो जीवन को जन्म दिया ही नहीं, एक सपने को विस्तार दिया। तो संन्यास तो मूलतः जीवन से मुक्ति है। और जीवन की मुक्ति का अर्थ हुआ–मां से मुक्ति, पिता से मुक्ति, परिवार से मुक्ति, समाज से मुक्ति। यह सब व्यर्थ हुआ। तो मां तो कैसे आज्ञा दे !
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संन्यास की आज्ञा और मां दे–असंभव है; अति कठिन है। मोह से तो संन्यास की आज्ञा नहीं मिल सकती; ममता से आज्ञा नहीं मिल सकती। जीवन जहां से आया है, उसी स्रोत से, तुम जीवन से मुक्त होना चाहो, इसकी आज्ञा मांगो–असंभव है। ‘शंकर छोटे थे, तभी मां ने उन्हें संन्यास लेने की अनुमति न दी।’
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और ध्यान रखना, चाहे तुम कितने ही बड़े हो जाओ, मां के लिए छोटे ही रहोगे। मां से तो बड़े न हो पाओगे। जिसने तुम्हें जन्म दिया, उससे तो तुम छोटे ही रहोगे। तुम सत्तर साल के हो जाओ, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। शंकर छोटे थे, इसका कुल अर्थ इतना ही है कि जब भी किसी संन्यास की आकांक्षा से भरे खोजी ने मां से आज्ञा मांगी, तभी मां को लगा–छोटा बच्चा, और ऐसे दूभर मार्ग पर जाना चाहता है ! मां ने रोकना चाहा है।
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‘शंकर छोटे थे, तभी मां ने उन्हें संन्यास लेने की अनुमति न दी। परंतु एक दिन नदी में स्नान करते समय शंकर को मगरमच्छ ने पकड़ लिया।’ लेकिन जीवन की नदी में आज नहीं कल, दुख पकड़ता है। जीवन की नदी में ही मिलन होता है मृत्यु से भी। तुम कोई मृत्यु को मिलने नहीं जाते हो नदी। तुम तो स्नान करने गए थे; तुम तो तैरने का सुख लेने गए थे; तुम तो सुबह की ताजगी लूटने गए थे।
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कोई संसार में मरने को थोड़े ही जाता है ? कोई जीवन की धार में मगरमच्छों से मिलने थोड़े ही जाता है ? जाता तो सुख की तलाश में है; खजानों की खोज में है; सफलता, यश, प्रतिष्ठा, महिमा के लिए है। लेकिन पकड़ा जाता है मगरमच्छों से। आज नहीं कल, मौत पकड़ती है। और जितना बोधवान व्यक्ति होगा, उतने जल्दी यह स्मरण आता है कि यह नदी तो ऊपर-ऊपर है, भीतर मौत छिपी है।
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मगरमच्छ यानी भीतर छिपी मौत। ऊपर से जल की ऐसी पवित्र धार मालूम होती है, भीतर मौत प्रतीक्षा कर रही है। ऊपर से कितना लुभावना लगता है और नदी कैसी भोली-भाली लगती है। और भीतर मौत दांव लगाए बैठी है! जो जितना होशियार है, जितना बुद्धिमान है, जितना चैतन्यपूर्ण है, उतने जल्दी ही दिखाई पड़ जाएगा।
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शंकर को बहुत जल्दी दिखाई पड़ गया। तुम्हें अगर देर तक दिखाई न पड़े, तो समझना कि बुद्धिमत्ता क्षीण है, बहुत बोध नहीं है; मिट्टी की पर्तें जमी हैं तुम्हारे दर्पण पर और तुम्हारी बुद्धि धुएं से भरी है। अन्यथा जल्दी ही दिख जाएगा। शंकर को दिख गया कि इस जीवन में तो मौत के सिवाय कुछ मिलेगा नहीं। इतनी ही बात है कथा में। और जब तक मौत ही स्पष्ट न हो जाए, तब तक ममता से छुटकारा नहीं होता, तब तक मां से छुटकारा नहीं है।
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इसे थोड़ा समझो। एक तरफ मां है, मां यानी जन्म; दूसरी तरफ मौत है, मौन यानी अंत। अगर मौत दिख जाए तो ही मां से छुटकारा है; अंत दिख जाए तो ही जन्म व्यर्थ होता है। तो संन्यास का अर्थ है–मौत का दर्शन, मृत्यु की प्रतीति।
ओशो; भज गोविंदम मूढमते

गुरुवार, 10 अक्तूबर 2024

नरेन्द्र आदि भक्तों के संग में

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*ज्यों था त्यों होइ आवा ॥*
*संधे संधि मिलाई, जहाँ तहाँ थिति पाई ॥*
*सब अंग सबही ठांहीं, दादू दूसर नांहीं ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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परिच्छेद १३८~नरेन्द्र के प्रति उपदेश
(१)नरेन्द्र आदि भक्तों के संग में
श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ काशीपुर के बगीचे में हैं । शरीर बहुत ही अस्वस्थ है, परन्तु सदा ही व्याकुल भाव से ईश्वर के निकट भक्तों की कल्याणकामना किया करते हैं । आज शनिवार है, चैत्र की शुक्ला चतुर्दशी, १७ अप्रैल १८८६ । पूर्णिमा लग गयी है ।
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कुछ दिनों से नरेन्द्र लगातार दक्षिणेश्वर जा रहे हैं । वहाँ पंचवटी में ईश्वर-चिन्तन, ध्यान-साधना आदि किया करते हैं । आज शाम को वे लौटे, साथ में श्रीयुत तारक और काली भी हैं ।
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रात के आठ बजे का समय होगा । चाँदनी और दक्षिणी वायु ने उद्यान को और भी मनोहर बना दिया है । भक्तों में से कितने ही नीचे के कमरे में बैठे हुए ध्यान कर रहे हैं । नरेन्द्र मणि से कह रहे हैं - 'ये लोग अब छूट रहे हैं, (अर्थात् ध्यान करते हुए उपाधियों से मुक्त हो रहे हैं) ।
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कुछ देर बाद मणि ऊपरवाले कमरे में श्रीरामकृष्ण के पास जाकर बैठे । श्रीरामकृष्ण ने उनसे पीकदान और अँगौछे धो लाने के लिए कहा । वे पश्चिमवाले तालाब से चन्द्रमा के प्रकाश में सब धोकर ले आये ।
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दूसरे दिन सबेरे श्रीरामकृष्ण ने मणि को बुला भेजा । गंगास्नान करके श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने के पश्चात् वे छत पर गये हुए थे ।
उनकी स्त्री पुत्र के शोक से पागल हो रही है । श्रीरामकृष्ण ने उसे बगीचे में आकर प्रसाद पाने के लिए कहा ।
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श्रीरामकृष्ण इशारे से बतला रहे हैं - “उसे यहाँ आने के लिए कहना । गोद में जो लड़का है, उसे भी ले आवे, - और यहाँ आकर भोजन करे ।"
मणि - जी । ईश्वर पर उसकी भक्ति हो तो बहुत अच्छा है ।
श्रीरामकृष्ण इशारा करके बतला रहे हैं - "नहीं, शोक भक्ति को हटा देता है । और इतना बड़ा लड़का था !
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“कृष्णकिशोर के भवनाथ की तरह दो लड़के थे, युनिवर्सिटी की दो-दो परीक्षाएँ पास की थीं । जब उनका देहान्त हुआ, तब कृष्णकिशोर इतना बड़ा ज्ञानी, परन्तु फिर भी सम्हल न सका ! मुझे ईश्वर ही ने नहीं दिया, मेरा भाग्य !
"अर्जुन इतना बड़ा ज्ञानी था, साथ कृष्ण थे । फिर भी अभिमन्यु के शोक से बिलकुल अधीर हो गया ।
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“किशोरी भला क्यों नहीं आता ?"
एक भक्त - वह रोज गंगा नहाने जाया करता है ।
श्रीरामकृष्ण - यहाँ क्यों नहीं आता ?
भक्त - जी, आने के लिए कहूँगा ।
श्रीरामकृष्ण - (लाटू से) - हरीश क्यों नहीं आता ?
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मास्टर के घर की ९-१० साल की दो लड़कियाँ श्रीरामकृष्ण को गाना सुना रही हैं । इन लड़कियों ने उस समय भी श्रीरामकृष्ण को गाना सुनाया था, जब श्रीरामकृष्ण मास्टर के श्यामपुकुर के तेलीपारावाले मकान में पधारे थे । श्रीरामकृष्ण उनका गाना सुनकर बहुत ही सन्तुष्ट हुए थे । श्रीरामकृष्ण के पास गाना हो जाने पर भक्तों ने लड़कियों को नीचे बुलाकर फिर गवाया ।
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श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - अपनी लड़कियों को अब गाना मत सिखाना । आप ही आप ये गावें तो और बात है । जिस-तिस के पास गाने से लज्जा जाती रहेगी । स्त्रियों के लिए लज्जा बड़ी आवश्यक है ।
.
श्रीरामकृष्ण के सामने पुष्पपात्र में फूल-चन्दन लाकर रखा गया । श्रीरामकृष्ण पलंग पर बैठे हुए हैं । फूल-चन्दन से वे अपनी ही पूजा कर रहे हैं । सचन्दन पुष्प कभी मस्तक पर धारण कर रहे हैं, कभी कण्ठ में, कभी हृदय में और कभी नाभिस्थल में ।
.
मनोमोहन कोन्नगर से आये । श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर आसन ग्रहण किया । श्रीरामकृष्ण अब भी अपनी पूजा कर रहे हैं । अपने गले में उन्होंने फूलों की माला डाल ली ।
कुछ देर बाद मानो प्रसन्न होकर मनोमोहन को निर्माल्य प्रदान किया । मणि को भी एक फूल दिया ।
(क्रमशः)

*श्री रज्जबवाणी, समता निदान का अंग १०*

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*सबै सयाने कह गये, पहुँचे का घर एक ।*
*दादू मार्ग माहिं ले, तिन की बात अनेक ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साँच का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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समता निदान का अंग १०
जैन जोग अरु शेख सन्यासी, 
सु भक्त बौद्ध भगवंत हि धावैं१ ।
बोवत बीज परै धर क्यों हूं, 
अंकूर उदै होय ऊंचे ही आवैं ॥
नौ कुली नाग परे नव खंड में, 
पंख लहैं सोइ चंदन जावैं ।
दशों दिशि नीर बहैं सरिता सब, 
रज्जब सोइ समुद्र समावैं ॥१॥
अंत में सब में समता आती है और समता से ही प्रभु प्राप्त होते हैं, यह कह रहे हैं -
जैन जोगी, शेख सन्यासी, भक्त, बौद्ध ये सब नाना भेद रखते हुये भी भगवत उपासना में सम हैं ।
बीज बोते समय पृथ्वी पर कैसे भी पड़ें अंकुर तो सब का निकल कर आकाश की ओर ऊंचा ही जाता है ।
पृथ्वी के नौ खंडों में नव प्रकार के कुल वाले सर्प पड़े हैं किंतु पंख प्राप्ति रूप समता को प्राप्त होते हैं वे ही चंदन पर जाते हैं ।
दशों दिशाओं की सब नदियों में जल बहता है किंतु अंत में समुद्र में मिल कर सब सम हो जाता है । वैसे ही प्रभु प्राप्ति के मार्ग में सब सब सम हो जाते हैं ।
(क्रमशः)

*स्वात्मकथन ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
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*सब हम देख्या सोध कर, वेद कुरानों माँहि ।*
*जहाँ निरंजन पाइये, सो देश दूर, इत नांहि ॥*
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*स्वात्मकथन ॥*
जिहिं गढ़ि चढ़ि रह्या मेरा मन मेवासी ।
तिहिं गढ़ि चढ़ि जम जीति न जासी ॥टेक॥
सो गढ़ निगम अगम गढ़ आगै । 
तिहि गढ़ि कहीं लगाव न लागै ॥
पाच पचीस येक घरि आणैं । 
भेद भलै कोइ बिरला जाणैं ॥
चंद सुरज सो नहीं उलांड्या । 
तहाँ बषनां मेवासा मांड्या ॥१७॥
मेवासी = दुर्धर्ष युद्धा; लुटेरा; यहाँ ऐसे मुमुक्षु से तात्पर्य है जिसने समस्त प्रत्यवार्यो = विघ्नों को समाप्त करके स्वात्मतत्त्व का अपरोक्ष कर लिया है । निगम = वेद । अगम = आगम; तंत्रादि आगमशास्त्र । लगाव = ऊपरी आचरण; यहाँ किसी का भी प्रभाव काम नहीं करता, से तात्पर्य है । मकान में प्लास्टर, सफेदी आदि करने से मकान सुन्दर दीखने लगता है किन्तु परमात्मा रूपी गढ़ पर किसी अन्य के लेपन की आवश्यकता नहीं है क्योंकि परमात्मा स्वयं सिद्ध है, अप्रितम है, सबकी अंतिम अवधि है । “ओऽम नमः सिद्धम्” ओऽम स्वरूप परमात्मा जो स्वयं सिद्ध है को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ कातंत्र व्याकरण में भेद = रहस्य, साक्षात्कार । उलांड्या = उल्लंघन किया । मेवासा = मोर्चा, युद्ध; मांड्या = किया ।
.
बषनांजी अपनी स्थिति का दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं, मेरा निजात्मचिंतन = रत मन जिस गढ़ रूपी परमात्मा में निमग्न है उस गढ़ रूपी मुक्तात्मा रूपी गढ़ वेद तथा शास्त्रों की पहुँच से परे हैं । इस गढ़ पर अन्य किसी का कोई वश भी नहीं चल पाता है ।
.
इस गढ़ रूपी परमात्मा का रहस्य = साक्षात्कार वही विरला साधक कर सकता है जिसने पांचों ज्ञानेन्द्रियों तथा उनकी पच्चीसों प्रकृतियों का प्रवाह संसार की ओर से हटाकर एक परमात्मा की ओर मोड़ दिया है ।
.
जिस गढ़ = स्थान का चंद्रमा और सूर्य भी उत्क्रमण नहीं कर पाए उस स्थान पर मैं बषनां ने अपना मोरचा संभाल रखा है ॥१७॥
(क्रमशः)