शुक्रवार, 20 जून 2025

श्री दादूवाणी भजनानंद ~ १


*🪷🙏卐 श्री परमात्मने नमः 卐🙏🪷* *🪔🌷श्री दादूदयालवे नमः🌷🪔*

 प्रेरणा प्रवाह ~ महंत महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज भजन ~ १ ~ मेरा गुरु ऐसा ज्ञान बतावे २ ~ कोई राम का राता रे ३ ~ संतों और कहो क्या कहिए ४ ~ मन चंचल मेरो ५ ~ नूर रह्या भरपूर ६ ~ शरण तुम्हारी आय परे ७ ~ जब घट परगट राम ८ ~ राम रस मीठा रे

गुरुवार, 29 मई 2025

*श्री दादूवाणी परिशिष्ट ~ नवम पारायण*




🪷🙏卐 श्री परमात्मने नमः 卐🙏🪷
🪔🌷श्री दादूदयालवे नमः🌷🪔
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सौजन्य ~ भक्तजनों द्वारा समर्पित संकलन एवं दादूराम धुन
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प्रेरणा प्रवाह ~ महंत महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज






 

*श्री दादूवाणी मूल पाठ ~ अष्टम पारायण*


🪷🙏卐 श्री परमात्मने नमः 卐🙏🪷
🪔🌷श्री दादूदयालवे नमः🌷🪔
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श्री दादूवाणी मूल पाठ ~ अष्टम पारायण
राग गुंड, राग विलावल, राग सूहा, (ग्रन्थ काया बेली) राग बसंत, राग भैरूं, राग ललित, राग जैतश्री, राग धनाश्री
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स्वर ~ स्वामी श्री भगवानदास जी तपस्वी, निवाई, राजस्थान(भारत)
प्रेरणा प्रवाह ~ महंत महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज





 

*श्री दादूवाणी मूल पाठ ~ सप्तम पारायण*


 🪷🙏卐 श्री परमात्मने नमः 卐🙏🪷

🪔🌷श्री दादूदयालवे नमः🌷🪔 . श्री दादूवाणी मूल पाठ ~ सप्तम पारायण राग रामकली, राग आसावरी, राग सिन्दूरा, राग देव गान्धार, राग कलींगडा, राग परजिया, राग भाणमली, राग सारंग, राग टोडी, राग हुसेनी बंगाल, राग नट नारायण, राग सोरठ . स्वर ~ स्वामी श्री भगवानदास जी तपस्वी, निवाई, राजस्थान(भारत) प्रेरणा प्रवाह ~ महंत महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज    • *श्री दादूवाणी मूल पाठ ~ सप्तम पारायण*  

*श्री दादूवाणी मूल पाठ ~ षष्ठम पारायण*


 🪷🙏卐 श्री परमात्मने नमः 卐🙏🪷
🪔🌷श्री दादूदयालवे नमः🌷🪔
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श्री दादूवाणी मूल पाठ ~ षष्ठम पारायण
राग गौड़ी, राग माली गौड़, राग कल्याण, राग कान्हड़ा, राग अडाणां, राग केदार, राग मारू
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स्वर ~ स्वामी श्री भगवानदास जी तपस्वी, निवाई, राजस्थान(भारत)
प्रेरणा प्रवाह ~ महंत महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज

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रविवार, 25 मई 2025

= १७७ =

*🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷*
*🌷🙏 卐 सत्यराम सा 卐 🙏🌷*
*दादू निराकार मन सुरति सौं, प्रेम प्रीति सौं सेव ।*
*जे पूजे आकार को, तो साधु प्रत्यक्ष देव ॥*
*साभार ~ @Subhash Jain*
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समस्त जीव ही नतमस्तक थे ऐसे बाबा मीणा संत "बाबा मल्ला" इन्हें जहाज़ वाले बाबा के नाम से जाना जाता है यह स्थान टहला क्षेत्र में पहाड़ों के बीचों-बीच में स्थित है !!
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मीना समाज के सिध्द संत थे 'बाबा मल्ला' बाबा का जन्म ग्राम - अलीपुर, तह.- बजूपाडा, ज़िला - दौसा में हुआ था और इन्होने जारवाल गोत्र में जन्म लिया, बाबा ने गृहस्थ जीवन को अपनाया और इनके बच्चे भी थे फिर जब इनके मन में बैराग उत्पन्न हुआ तो इन्होने बाणगंगा नदी के पास तपस्या की थी फिर सरिस्का के घने जंगलों में चले गए थे !!
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जानकार लोग बताते है कि शेर तो इनकी सुरक्षा करते थे और जब ये सो जाते थे तो शेर आकर इनके तलवे चाटा करते थे शेर इनकी आवाज़ सुनकर दौडे चले आते थे !!
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ये बाबा अपने आश्रम में आने वालो की सारी बातें पहले ही जान लेते थे ये बहुत बड़े 'माइंड रीडर' थे, बताते है कि इनके भंडारे में कभी माल खत्म नही होता था चाहे कितने भी लोग प्रसाद ग्रहण कर ले इनके छूने के बाद वहाँ पर कड़ाई में पानी डालकर पुए उतारे जाते थे और वे बेहद ही स्वादिष्ट बनते थे !!
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जब ये अंतर्ध्यान हुए तो वहाँ के जानवर बहुत बैचेंन हो गए थे और गाय,शेर आदि जंगली जानवर उन्हें आवाज़ दे दे कर पुकारते रहे थे काफी दिनों तक !!

मल्ला बाबा जैसे महान संत का जन्म मीणा वंश में हुआ जिससे पूरा मीणा समाज गर्व महसूस करता है तथा समस्त मीणा समाज कोटि कोटि नमन करता हूँ !!

रविवार, 11 मई 2025

= १७६ =

*🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷*
*🌷🙏 卐 सत्यराम सा 卐 🙏🌷*
*नाहीं ह्वै करि नाम ले, कुछ न कहाई रे ।*
*साहिब जी की सेज पर, दादू जाई रे ॥*
*साभार ~ @Subhash Jain*
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"शुद्र, वैश्य, क्षेत्रीय, ब्राह्मण" ये चार व्यक्तित्व के ढंग है। शूद्र वह है,,,जो परम आलस्य से भरा है। जिसे कुछ करने की इच्छा नहीं है। कुछ होने की इच्छा नहीं है। खाना मिल जाये, वस्त्र मिल जायें, बस काफी है। वह जी लेगा। और जो इस तरह जी रहा है, वह शूद्र है। तुममें से अधिक लोग शूद्र की भांति जी रहे हैं। तुम किसी और को शूद्र मत कहना। तुम क्या कर रहे हो ? खाना-कपड़े, इनको कमा लेना। रात सो जाना, सुबह उठ कर फिर कमाने में लग जाना। जन्म से लेकर मृत्यु तक तुम्हारी प्रक्रिया शूद्र की है। इसलिए मनु कहते हैं कि हर आदमी शूद्र की भांति पैदा होता है। ब्राह्मणत्व तो एक उपलब्धि है।
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दूसरा वर्ग है,,, जिसके लिए जीवन लग जाये लेकिन धन इकट्ठा करना है, पद इकट्ठा करना है, वह वैश्य है। चाहे सब खो जाये, आत्मा बिक जाये उसकी, कोई हर्जा नहीं है, लेकिन तिजोरी भरनी चाहिए। आत्मा बिलकुल खाली हो जाये, लेकिन तिजोरी भरी होनी चाहिए। बैंक-बैलेंस असली परमात्मा है। धन असली धर्म है। वह भी तुम्हारे भीतर है। उसको मनु ने वैश्य कहा है। इस वैश्य शब्द को थोड़ा सोचो। जो स्त्री अपने शरीर को बेचती है, उसे हम वेश्या कहते हैं। *और जो अपनी आत्मा को बेचता है उसे मनु ने वैश्य कहा है। वह वेश्या से बुरी हालत में है।*
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एक तीसरा वर्ग है,,, जिसकी जिंदगी में अहंकार के सिवाय और कुछ भी नहीं है। जो किसी भी तरह, ‘मैं सब कुछ हूं’, बस, इस मूंछ पर ही ताव देता रहता है। वह क्षत्रिय है। वह हमेशा तलवार पर धार रखता रहता है। उसको अहंकार के सिवाय कोई रस नहीं। धन जाये, जीवन जाये, सब दांव पर लगा देगा। लेकिन दुनिया को दिखा देगा, कि मैं कुछ हूं। ना-कुछ नहीं। वह एक वर्ग है। तीसरी दौड़ अहंकार की दौड़ है, कि मैं सब कुछ हूं।
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और एक चौथा वर्ग है, जो सिर्फ ब्रह्म की तलाश में है। जो कहता है: और सब व्यर्थ है। न तो आलस्य का जीवन अर्थपूर्ण है, क्योंकि वह प्रमाद है। होश चाहिये। न धन के पीछे दौड़ अर्थपूर्ण है, क्योंकि वह कहीं भी नहीं ले जाती। उससे कोई कहीं पहुंचता नहीं। धन तो मिल जाता है, आत्मा खो जाती है। नहीं, ब्रह्म से कम पर राजी नहीं होना है। ब्राह्मण कहता है, तुम कुछ भी नहीं हो, तभी तो जीवन का परम धन उपलब्ध होगा।
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जब तुम नहीं रहोगे, तभी तो ब्रह्म उतरेगा। आलस्य तोड़ना है शूद्र जैसा; धन की दौड़ छोड़नी है वैश्य जैसी; अहंकार छोड़ना है क्षत्रिय जैसा; तब कभी कोई ब्राह्मण हो पाता है। ये चार व्यक्तित्व के ढंग हैं। ऐसे चार तरह के लोग हैं जमीन में।
इन चार में तुम बराबर बांट लोगे। पांचवां आदमी तुम न पाओगे। और चार से कम में भी काम न चलेगा, तीन से भी काम न चलेगा। इसलिए दुनिया में जितने भी मनुष्यों को बांटने के प्रयोग हुए हैं, सबने चार में बांटा है।
ओशो; दीया तले अंधेरा

= १७५ =

*🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷*
*🌷🙏 卐 सत्यराम सा 卐 🙏🌷*
*दादू कहिए कुछ उपकार को,*
*मानै अवगुण दोष ।*
*अंधे कूप बताइया, सत्य न मानै लोक ॥*
*साभार ~ @Subhash Jain*
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“भारत में मैं कई राजनेताओं को जानता था, लेकिन मैंने उनमें कोई भी दिमाग नहीं देखा। सरल सी बातें, जिन्हें कोई भी समझ सकता है, जिन्हें समझने के लिए कोई महान प्रतिभा नहीं चाहिए, वे बातें भी ये नेता नहीं समझते।
मेरे एक मित्र भारतीय सेना के सेनापति थे। जब पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया, तो इस व्यक्ति – जिनका नाम था जनरल चौधरी – ने प्रधानमंत्री से पलटवार की अनुमति मांगी; यह आवश्यक था, केवल रक्षात्मक रहना कोई मदद नहीं करने वाला था। यह तो एक सामान्य सैन्य रणनीति है; अगर आप रक्षात्मक हो जाते हैं, तो आप पहले ही हार चुके हैं। सबसे अच्छा तरीका आक्रामक होना है।
अगर पाकिस्तान ने कश्मीर के एक हिस्से पर हमला किया था, तो चौधरी का विचार था कि हम पाकिस्तान पर चार या पाँच मोर्चों से हमला करें। इससे वे भ्रमित हो जाएंगे, बिखर जाएंगे, उन्हें समझ नहीं आएगा कि अपनी सेना कहाँ भेजें। उनका हमला विफल हो जाएगा क्योंकि उन्हें अपने देश की सारी सीमाओं की रक्षा करनी होगी।
लेकिन राजनेता ! प्रधानमंत्री नेहरू ने उन्हें सूचित किया – ‘सुबह 6 बजे तक इंतजार करो।’ जनरल चौधरी ने मुझे बताया कि उन्हें सेना से निकाल दिया गया – सार्वजनिक रूप से नहीं। सार्वजनिक रूप से उन्हें सम्मानपूर्वक सेवानिवृत्त किया गया, लेकिन उन्हें दरअसल निकाल दिया गया। उनसे कहा गया – ‘या तो तुम इस्तीफा दो या हम तुम्हें निकाल देंगे।’
कारण यह था कि उन्होंने सुबह 5 बजे ही पाकिस्तान पर हमला कर दिया – आदेश से एक घंटा पहले। वह समय बिल्कुल उपयुक्त था; 6 बजे तक तो सूरज निकल आता, लोग जाग चुके होते। 5 बजे हमला करने से दुश्मन पूरी तरह घबरा जाता – और उन्होंने वैसा ही किया – पूरा पाकिस्तान काँप उठा। वे लाहौर से सिर्फ 15 मील दूर थे – जो पाकिस्तान का सबसे बड़ा शहर है।
पूरी रात नेहरू और उनकी कैबिनेट इस बात पर चर्चा करते रहे – करना है या नहीं करना। और सुबह 6 बजे तक भी कोई निर्णय नहीं लिया गया था। उन्होंने रेडियो पर सुना – ‘जनरल चौधरी लाहौर में प्रवेश कर रहे हैं।’ यह बात राजनेताओं के लिए बहुत ज़्यादा हो गई। उन्होंने उन्हें रोक दिया – लाहौर से मात्र 15 मील पहले। 
और मैं देख सकता हूँ कि यह कितनी बड़ी मूर्खता थी। अगर जनरल ने लाहौर पर कब्जा कर लिया होता, तो कश्मीर और भारत की समस्या हमेशा के लिए सुलझ गई होती। अब यह कभी नहीं सुलझने वाली – जो कश्मीर का हिस्सा पाकिस्तान ने कब्जा किया है – और वह इसीलिए हुआ क्योंकि जनरल चौधरी को वापस बुला लिया गया, ‘क्योंकि भारत एक अहिंसक देश है और तुमने आदेश का इंतजार नहीं किया।’
उन्होंने उनसे कहा – ‘मैं सैन्य रणनीति समझता हूँ, आप नहीं समझते। सुबह 6 बजे तक आपका आदेश कहाँ था ? पाकिस्तान पहले ही कश्मीर के एक सुंदर हिस्से पर कब्जा कर चुका है – और आप बस पूरी रात चर्चा ही करते रहे। यह कोई ऐसी बात नहीं है जिस पर चर्चा की जाए – यह युद्धभूमि पर तय की जाती है। अगर आपने मुझे लाहौर पर कब्जा करने दिया होता तो हम सौदेबाज़ी की स्थिति में होते। अब हम सौदेबाज़ी की स्थिति में नहीं हैं। आपने मुझे रोक दिया। मुझे लौटना पड़ा।’
संयुक्त राष्ट्र ने युद्धविराम रेखा तय कर दी। अब 40 सालों से UN की सेनाएँ वहाँ गश्त कर रही हैं, उस ओर पाकिस्तानी सेनाएँ गश्त कर रही हैं, इस ओर भारतीय सेनाएँ। 40 साल – सिर्फ बकवास ! और संयुक्त राष्ट्र में वे अब भी चर्चा करते हैं लेकिन कोई निष्कर्ष नहीं निकलता।
और जिस क्षेत्र पर पाकिस्तान ने कब्जा कर लिया है, उसे अब वापस नहीं लिया जा सकता क्योंकि युद्धविराम हो चुका है। उन्होंने अपनी संसद में यह तय कर लिया है कि जिस भूभाग पर उन्होंने कब्जा किया है, वह अब पाकिस्तान में सम्मिलित है। अब वे अपने नक्शों में उसे पाकिस्तान का हिस्सा दिखाते हैं। वह अब ‘अधिकृत क्षेत्र’ नहीं रहा, वह पाकिस्तान का हिस्सा बन चुका है।
मैंने जनरल चौधरी से कहा था – ‘यह तो बहुत ही सरल बात थी कि तुम्हें सौदेबाज़ी की स्थिति में रहना चाहिए था। अगर तुमने लाहौर पर कब्जा कर लिया होता, तो वे तुरंत कश्मीर छोड़ने के लिए तैयार हो जाते, क्योंकि वे लाहौर नहीं गंवा सकते थे। या फिर अगर युद्धविराम होता, तो कोई बात नहीं – लाहौर हमारे पास रहता। किसी भी स्थिति में हमारे पास कुछ सौदेबाज़ी के लिए होता। भारत के पास अब कुछ नहीं है – फिर पाकिस्तान क्यों परवाह करेगा ?’
लेकिन राजनेताओं के पास निश्चित ही दिमाग नहीं होता।”
— ओशो (From Darkness to Light, 1987)

= १७४ =

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*🌷🙏 卐 सत्यराम सा 卐 🙏🌷*
*दादू सरवर सहज का, तामें प्रेम तरंग ।*
*तहँ मन झूलै आत्मा, अपणे सांई संग ॥*
*साभार ~ @Krishna Krishna*
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*"इश्क़ और प्रेम – ये दो शब्द दिखने में पास-पास लगते हैं,लेकिन इनके बीच की दूरी उतनी ही है जितनी सतह और गहराई में होती है।* इश्क़ बाहर की यात्रा है – आँखों से शुरू होती है, कल्पनाओं में भटकती है, और आकांक्षाओं में उलझ जाती है। इश्क़ में चाह होती है – किसी को पाने की, किसी को बाँधने की, और जहां चाह होती है, वहाँ भय भी होता है – खो देने का। इसीलिए इश्क़ बेचैन करता है, थका देता है।
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लेकिन प्रेम... प्रेम भीतर की यात्रा है। प्रेम में पाने का कोई आग्रह नहीं, प्रेम में बस बहाव है – देना, और फिर भी खाली न होना। प्रेम आत्मा का संगीत है – जो शब्दों से परे है। प्रेम में तुम दूसरे को नहीं, खुद को मिटा देते हो। और वही मिट जाना – मिल जाना बन जाता है। इश्क़ में तुम किसी और में खुद को देखना चाहते हो, प्रेम में तुम खुद को भूल जाते हो – और वही भूलना, ध्यान है।
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*जब इश्क़ जागरूकता में रूपांतरित हो जाता है,तो वह प्रेम बन जाता है।और प्रेम... प्रेम तो परमात्मा की सुगंध है।"*
~ओशो 💞💞

गुरुवार, 1 मई 2025

*'हिन्दू धर्म' से उधृत*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
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*दादू दूजा कहबे को रह्या, अन्तर डारा धोइ ।*
*ऊपर की ये सब कहैं, मांहि न देखै कोइ ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*'हिन्दू धर्म' से उधृत*

अमरीका के अनेक स्थानों में स्वामीजी ने भाषण दिया और सभी स्थानों में उन्होंने यही एक बात कही । हार्टफोर्ड (Hartford) नामक स्थान में उन्होंने कहा था – "... जो दूसरी बात मैं तुम्हे बतलाना चाहता हूँ, वह यह है कि धर्म केवल सिद्धान्तों या मतवादों में नहीं है । ... सभी धर्मों का चरम लक्ष्य है - आत्मा में परमात्मा की अनुभूति । यही एक सार्वभौमिक धर्म है । समस्त धर्मों में यदि कोई सार्वभौमिक सत्य है तो वह है ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन करना ।
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परमात्मा और उनकी प्राप्ति के साधनों के सम्बन्ध में विभिन्न धर्मों की धारणाएँ भिन्न भिन्न भले ही हों, पर उन सब में वही एक केन्द्रीय भाव है । सहस्र विभिन्न त्रिज्याएँ भले ही हों, पर वे सब एक ही केन्द्र में मिलती है, और यह केन्द्र है ईश्वर का साक्षात्कार - इस इन्द्रियग्राह्य जगत् के पीछे, इस निरन्तर खाने-पीने और थोथी बकवास के पीछे, इन उड़ते छायास्वप्नों और स्वार्थ से भरे इस संसार के पीछे वर्तमान किसी सत्ता की अनुभूति ।
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समस्त ग्रन्थों और धर्ममतों के अतीत, इस जगत् की असारता से परे वह विद्यमान है, जिसकी अपने भीतर ईश्वर के रूप में प्रत्यक्ष-अनुभूति होती है । कोई व्यक्ति संसार के समस्त गिर्जाघरों में आस्था भले ही रखता हो, अपने सिर में समस्त धर्मग्रन्थों का बोझा लिये भले ही घूमता हो, इस पृथ्वी की समस्त नदियों में उसने भले ही बप्तिस्मा लिया हो, फिर भी यदि उसे ईश्वर दर्शन न हुआ हो तो मैं उसे घोर नास्तिक ही मानूँगा । ..."
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स्वामीजी ने अपने राजयोग नामक ग्रन्थ में लिखा है –
"... सभी धर्माचार्यों ने ईश्वर को देखा था । उन सभी ने आत्मदर्शन किया था, अपने अनन्त स्वरूप का सभी को ज्ञान हुआ था, अपनी भविष्य अवस्था देखी थी, और जो कुछ उन्होंने देखा था, उसी का वे प्रचार कर गये हैं । भेद इतना ही है कि प्रायः सभी धर्मों में, विशेषतः आजकल के, एक अद्भुत दावा हमारे सामने उपस्थित होता है; वह यह है कि इस समय ये अनुभूतियाँ असम्भव हैं; जो धर्म के प्रथम संस्थापक हैं, बाद को जिनके नाम से उस धर्म का प्रवर्तन और प्रचलन हुआ है, केवल उन थोड़े आदमियों को ही ऐसा प्रत्यक्षानुभव सम्भव हुआ था, अब ऐसे अनुभव के लिए रास्ता नहीं रहा, फलतः अब धर्मों पर केवल विश्वास भर कर लेना होगा ।
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मैं इसको पूरी शक्ति से अस्वीकृत करता हूँ । यदि संसार में किसी प्रकार के विज्ञान के किसी विषय की किसी ने कभी प्रत्यक्ष उपलब्धि की है, तो इससे इस सार्वभौमिक सिद्धान्त पर पहुँचा जा सकता है कि पहले भी कोटि-कोटि बार उसकी उपलब्धि की सम्भावना थी, बाद को भी अनन्त काल तक उसकी उपलब्धि की सम्भावना रहेगी । समवर्तन ही प्रकृति का बली नियम है । एक बार जो घटित हुआ है, वह फिर घटित हो सकता है । ..."
(क्रमशः)

बुधवार, 30 अप्रैल 2025

*साँच चाणक का अंग १४*

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*कहबा सुनबा मन खुशी, करबा औरै खेल ।*
*बातों तिमिर न भाजई, दीवा बाती तेल ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साँच का अंग)*
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*श्री रज्जबवाणी सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*साँच चाणक का अंग १४*
साखी कही सु कहा कहैं आखि१,
कहै जु श्लोक सु लोक न पायो । 
जोरे२ कवित्त न वित्त जुर्यो तत्व, 
गीत गयें३ गति४ मांहि न आयो ॥
गाथा सु ग्रंथ ग्रथ्यो नहिं गोविन्द,
पाठ पदौं पद में न समायो । 
हो रज्जब राम रटे बिन बाद५, 
सँवारि६ सवैये सु ह्वै न सवायो७ ॥१५॥
जिनने साखी बना कर कही है सो साखी क्या उनकी साक्षी१ देंगी ? जिनने श्लोक बनाकर कहे हैं उनने भी प्रभु लोक नहीं पाया है । 
कवित्त जोड़ने२ से तत्त्व ज्ञान रूप धन नहीं जुड़ता । गीत गाने३ से मुक्ति४ की अवस्था में नहीं आता । 
गाथा तो ग्रथित की किंतु गोविन्द से मन को नहीं गूंथा तब क्या है ? पदों का पाठ रचने से प्रभु पद में नहीं समाता है । 
राम नाम के चिंतन बिना व्यर्थ५ सवैये बनाकर६ कोई श्रेष्ठ७ नहीं होता । 
(क्रमशः)

*अज्ञान-निशा-नाश ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*जाग रे सब रैण बिहांणी,*
*जाइ जन्म अंजलि को पाणी ॥*
*घड़ी घड़ी घड़ियाल बजावै,*
*जे दिन जाइ सो बहुरि न आवै ॥*
*सूरज चंद कहैं समझाइ,*
*दिन दिन आयु घटती जाइ ॥*
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*अज्ञान-निशा-नाश ॥*
सोइ जागे रे सोइ जागे रे, राम नाम ल्यौ लागे रे ॥टेक॥
आप अलंबण नींद अयाणा, जागत सूता होइ सयाणा ।
तिहि बरियाँ गुर आया, जिनि सूता जीव जगाया ॥
थी तौ रैंणि घणैंरी, नींद गई तब मेरी ।
डरताँ पलक न लाऊँ, हूँ जाग्यौ और जगाऊँ ॥
सोवत सुपिना माँहिं, जागूँ तौ कछु नाहीं ।
सुरति की सुरति बिचारी, तब नेहा नींद निवारी ॥
एक सबद गुर दीया, तिहिं सोवत बैठा कीया ।
बषनां साध सभागा, जे अपनैं पहरै जागा ॥४४॥
“या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥
गीता २/६९॥
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जिनकी चित्तवृत्ति रामनाम में लग जाती है वही जागा हुआ कहा जाता है, वास्तव में वही विवेकवान कहा जाता है । अज्ञान निद्रा में आकंठ डूबे हुए अज्ञानी भी स्वात्मतत्त्व का आश्रय ले लेने पर विवेकी होकर ब्रह्मात्मैक्य रूपी ज्ञान सम्पन्न होकर स्वात्मस्थ हो जाते हैं । (अन्यों की स्थिति बताकर अब बषनांजी अपनी स्थिति बताते हैं)
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जब संसार के अनेकों लोग अज्ञान रूपी निशा में सोये हुए पड़े थे, तब सद्गुरु महाराज का अवतरण इस पृथिवी पर हुआ । उन्होंने अनेकों अज्ञानी जीवों को रामनाम स्मरण के मार्ग पर लगाकर वैराग्य-भक्ति-ज्ञान सम्पन्न बना दिया । उससमय मेरे में भी अपार अज्ञान था किन्तु गुरु महाराज के ज्ञानोपदेश से मेरी अज्ञता रूपी निशा का सर्वथा नाश हो गया ।
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परमात्म-चिंतन छूटकर पुनः संसार-चिंतन न होने लगे, इस डर से डरकर मैं तनिक देर के लिये भी नींद का आश्रय नहीं लेता; विषयों का चिंतन तो दूर अनासक्तभाव से भी उनका भोग नहीं करता । मैं स्वयं भी संसार तथा संसार के भोगविलासों से सर्वथा दूर रहकर परमात्म-चिंतनरत रहता हूँ, अन्यों को भी परमात्म-चिंतन की ओर लगाता हूँ ।
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अज्ञान रूपी निद्रा में सोने पर स्वप्ने रूपी संसार की सत्ता सत्यवत् प्रतीत होती है किन्तु जैसे ही गुरुज्ञान का आश्रय पाकर मैं रामनाम आश्रित होता हूँ वैसे ही सारा संसार ही नाशवान, क्षणिक तथा अप्रिय लगने लगता है । जब से मैंने चित्तवृत्ति की स्थिति का विचार किया है, जब से मन को नियंत्रित करने का प्रयत्न करना प्रारम्भ किया है तब से ही संसार के प्रति संस्कार रूप से विद्यमान राग रूपी निद्रा को त्याग दिया है ।
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गुरु महाराज ने रामनाम रूपी एक शब्द का स्मरण-मनन का उपदेश दिया । उसी ने मुझ सोते हुए को जाग्रत कर दिया । बषनां कहता है, वही साध = साधक सौभाग्यवान है जो अपने पहरे = अपने मनुष्य जन्म के अवसर पर चेतकर रामनाम स्मरण में लग गया ॥४४॥
“मोह निसा सब सोवनिहारा ।
देखिय सपन अनेक प्रकारा ॥
मानहूँ तबहि जीव जग जागा ।
जब सब विषय विलास बिरागा ॥”
मानस॥
(क्रमशः)

रविवार, 27 अप्रैल 2025

श्री दादूवाणी मूल पाठ ~ पञ्चम पारायण


*श्री दादूवाणी मूल पाठ ~ पञ्चम पारायण* 
 ~卐卐 श्री दादूवाणी दर्शन 卐卐~ 卐 Shri Daduvani Darshan 卐 
 🪷🙏卐 श्री परमात्मने नमः 卐🙏🪷 
🪔🌷श्री दादूदयालवे नमः🌷🪔 
 . 
श्री दादूवाणी मूल पाठ ~ पञ्चम पारायण शूरातन का अंग, काल का अंग, सजीवन का अंग, पारिख उपजन का अंग, दया निर्वैरता का अंग, सुन्दरी का अंग, कस्तूरिया मृग का अंग, निन्दा का अंग, निगुणा का अंग, बिनती का अंग, साक्षीभूत का अंग, बेली का अंग, अबिहड़ का अंग 
 . 
स्वर ~ स्वामी श्री भगवानदास जी तपस्वी, 
निवाई, राजस्थान(भारत) 
प्रेरणा प्रवाह ~ महंत महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
 • 
*श्री दादूवाणी मूल पाठ ~ पञ्चम पारायण*


= १७३ =

*🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷*
*🌷🙏 卐 सत्यराम सा 卐 🙏🌷*
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*जिसकी सुरति जहाँ रहै, तिसका तहँ विश्राम ।*
*भावै माया मोह में, भावै आतम राम ॥*
*साभार ~ @Chetan Ram*
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🍁*आसक्ति का परिणाम*🍁

एक संन्यासी था विरक्त भाव से शान्ति से जंगल में रहते हुए ईश्वर प्राप्ति हेतु तप करता रहता था। एक दिन वहाँ से इक राहगीर व्यापारी गुजरा और उसने विश्राम हेतु एक रात वहीं उन संन्यासी की कुटिया में बितायी।
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वह संन्यासी के स्वभाव व सेवा से बहुत प्रसन्न हुआ और जाने से पहले उस व्यापारी ने संन्यासी को एक सुंदर कम्बल दान में दिया। संन्यासी को वह कम्बल बहुत आकर्षक लगा।
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वह उसे बार-बार छू कर निहारता रहता। ऐसा सुन्दर व कोमल कम्बल उसने कभी नहीं देखा था, वह अब हर क्षण उस कम्बल को नज़रों के सामने रखता। अतः संन्यासी का दिनों दिन उस कम्बल से लगाव गहरा होता गया।
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अब उसको हर समय कम्बल की चिंता सताती कि वह ख़राब या गन्दा न हो जाये, या फिर कहीं कोई और उसे चुरा न ले आदि। समय के साथ साथ ऐसा परिवर्तन हुआ कि जो श्रद्धा – प्रेम व लगाव उसके मन में परमात्मा के लिये था उसका स्थान अब उस कम्बल ने लिया था।
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अंततः कम्बल के प्रति आसक्ति के परिणामस्वरूप जब उसकी मृत्यु का क्षण आया तब भी उस समय उसके मन में अंतिम ख़्याल केवल कम्बल का ही आया।
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जिसके कारणवंश वह संन्यासी जो परमात्मा से अत्यंत प्रेम करता था परन्तु कम्बल के प्रति गहन आसक्ति की वजह से उसके जीवन व हृदय में परमात्मा का स्थान दूसरे नम्बर पर हो गया था और वह कम्बल अब उसकी पहली प्राथमिकता हो गया था, अत: प्राण त्यागते समय भी केवल कम्बल का विचार ही उसके मन में उत्पन्न हुआ।
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जैसाकि श्रीकृष्ण ने गीता के 8:5 श्लोक में कहा है कि जो कोई भी, मृत्यु के समय, अपने शरीर को छोड़ते समय केवल मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह मुझे व मेरा स्वभाव प्राप्त कर लेता है। इसमें कोई संदेह नहीं है।
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परन्तु उस संन्यासी को परमात्मा से अधिक लगाव सांसारिक वस्तु — एक कम्बल से हो गया था अंततः उसी का ही ख़्याल उसे मरते समय आया।
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परिणामस्वरूप अब वह संन्यासी अगले जन्म मे पतंगा (कपड़े का कीड़ा – moth) बन कर पैदा हुआ। और लगभग अगले एक सौ जन्मों तक जब तक वह कम्बल कीड़ों द्वार खा कर पूर्णतः नष्ट नहीं हो गया तब तक वह संन्यासी बार-बार वही पंतगे का कीट बन कर पैदा होता रहा।
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अब इस कहानी के आधार पर अगर हम इस तथ्य का अवलोकन करें कि जीवन में हमें जो भी मिलता है क्या वह ईश्वर की कृपा है या हमारे कर्मों का फल! तो हम पाते हैं कि ईश्वर की कृपा तो सब के लिए बराबर मात्रा में बहती है परन्तु इस अस्थायी तथा नश्वर संसार के असंख्य सांसारिक आकर्षण व लगाव वह छतरियाँ हैं.... जिन्हें हम अपने सर पर छतरी की तरह खुला रखते हैं और परमात्मा की उस कृपा को स्वयं तक पहुँचने से स्वयं ही रोक देते हैं।
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ईश्वर ने अपनी लीला द्वारा हर वस्तु का निर्माण किया है, व उनसे आनन्द पाने के लिये हमें इन्द्रियां भी प्रदान की है। व उसके साथ-साथ परमात्मा ने हमारे क्रमिक विकास व उसे (पूर्ण परमात्मा) जो जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है को प्राप्त करने के लिये – हमारे हृदय में सदा अतृप्त रहने वाली एक तड़प व बेचैनी का भाव भी भर दिया है।
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जिसके कारण हम इस संसार में जब भी परमात्मा के अलावा कुछ भी और प्राप्त करते हैं तो निश्चितता कुछ समय के पश्चात हमारे मन में उस वस्तु के प्रति असंतुष्टी का भाव या फिर उसे खोने का भय शीघ्र ही उत्पन्न हो कर हमें बेचैन करने लगता है..!!

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2025

*४६. परमारथ कौ अंग १७/२०*

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*४६. परमारथ कौ अंग १७/२०*
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सौंज सकल ले राखिये, सुख का सागर मांहि ।
जगजीवन तौं जीविये, कोई दुख व्यापै नांहि ॥१७॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि सब साधन रखें जो सच्चे साधक को रखने चाहिए तभी अथाह सुख मिलता है संत कहते हैं इस प्रकार जीवन से कोइ दुख नहीं व्यापता है ।
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नर निरमल तेई गिनौ, जे लहैं पराई पीर३ ।
कहि जगजीवन रांमजी, धनि ते भांनै भीर४ ॥१८॥
(३. पीर=पीड़ा, दुःखमय अनुभूति)   {४.भीर=भीड़(विपत्ति,संकट)} 
संत जगजीवन जी कहते हैं कि वे ही मनुष्य निर्मल हैं जो पराई पीड़ा जानते हैं । तभी परमात्मा उनके हर कष्ट दूर करते हैं ।
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कहि जगजीवन रांमजी, पररमारथ हरि नांम ।
कहि जगजीवन विणजता५, सरि आवै सब काम ॥१९॥
(५. विणजतां=व्यापार करते हुए)
संत जगजीवन जी कहते हैं कि सबसे अच्छा व्यापार प्रभु का नाम है जिसके व्यापार से सब काम पूर्ण होते हैं ।
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धरम धजा परमारथी, धर्म नांव सत पारि ।
कहि जगजीवन बैठि तहां, निरमल नूर निहारि६ ॥२०॥ 
(६. निहारि=निरीक्षण कर)
संत जगजीवन जी कहते हैं कि धर्म की ध्वजा यानि धर्म में अग्रणी परमार्थी ही हैं । इससे ही सत्य पार पहुंच पाता है । और धर्म धारण कर सत्य का आलम्बन ले कर ही जीव जीव प्रभु के तेज के दर्शन कर पाते हैं ।
(क्रमशः)

श्री दादूवाणी मूल पाठ ~ चतुर्थ पारायण

*🪷🙏卐 श्री परमात्मने नमः 卐🙏🪷* *🪔🌷श्री दादूदयालवे नमः🌷🪔* . *श्री दादूवाणी मूल पाठ ~ चतुर्थ पारायण* *भेष का अंग, साधु का अंग, मध्य का अंग, सारग्राही का अंग, विचार का अंग, विश्वास का अंग, पीव पिछान का अंग, समर्थता का अंग, शब्द का अंग, जीवित मृतक का अंग* . *स्वर ~ स्वामी श्री भगवानदास जी तपस्वी, निवाई, राजस्थान(भारत)* *प्रेरणा प्रवाह ~ महंत महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज* *https://youtu.be/g8OW9l2ArLo*


*मात देख गात अश्रुपात*

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*राम नाम बिन जीव जे, केते मुये अकाल ।*
*मीच बिना जे मरत हैं, तातैं दादू साल ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*मनहर-*
*मात देख गात अश्रुपात उरु फाटि रोई,*
*सूरत सहारी नपरत गोपीचन्द की ।*
*आकृत१ करत जल बूंद परी पीठ पर,*
*माता आई रोती नजर वा नरेन्द की ॥*
*हाय हाय करत हजूर गयो हाथ जोड़,*
*कौन चूक मात मेरी बात कहो जिन्द की ।*
*बात यह तात तेरो गात ऐसो हो तो सुन,*
*राघो कहै राम बिन देह भई गंद की ॥३१९॥*
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गोपीचन्द को उसकी माता मैणावती ग्रीष्मकाल में एक दिन शीतल१ जल से स्नान करा रही थी । उन्हीं दिनों गोपीचन्द की मृत्यु का दिन समीप आ रहा था । मैणावती को वह ज्ञात था । इसलिये उसने अपने मन में सोचा गोपीचन्द के इस सुन्दर शरीर का वियोग होने वाला ही है । यह स्मरण आते ही गोपीचन्द की आकृति के भावी वियोग से व्यथित होकर वह रोने लगी ।
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तब गोपीचन्द की पीठ पर आँसुओं की गर्म गर्म बूंदें पड़ीं । उसने स्नान करते हुए, यह जानने के लिये कि गर्म गर्म बूंदें कहाँ से पड़ीं ऊपर देखा तो अपनी माता ही रोती हुई उस राजा की दृष्टि में आई ।
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तब वह 'हाय । हाय! बड़ा दुःख है' ऐसा बोलकर तथा हाथ जोड़‌कर माता के सामने खड़ा हो गया और पूछने लगा- “माताजी ! मेरी कौन सी ऐसी भूल हुई है जिससे व्यथित होकर आप रो शही हैं । आप अति शीघ्र अपने हृदय की बात निसंकोच मुझे कहें ? क्या बात है ?”
माता मैणावती ने कहा- “पुत्र । बात तो यह है कि तेरा ऐसा सुन्दर शरीर था, यह सुनकर मुझे तथा सभी सम्बन्धियों को आगे दुःख समुद्र में डूबना पड़ेगा । कारण- भगवान् की भक्ति के बिना यह गंदी वस्तुओं से बना हुआ देह किसी काम का नहीं है अर्थात् शीघ्र ही नष्ट होने वाला है । अतः तुमको विरक्त होकर भगवद्भक्ति हो करना चाहिये ।”
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आगे की कथा जालन्धरनाथजी की कथा में आ गयी । अपनी माता के उपदेश से गोपीचन्द जालन्धरनाथजी के शिष्य हो गये और प्रायः भर्तृहरि के साथ रहते हैं । दोनों ही राजा अब तक अमर माने जाते हैं और दोनों पूर्व आश्रम में मामा भानजे थे, यह प्रसिद्ध है ॥
(क्रमशः)

*श्री दादूवाणी मूल पाठ ~ तृतीय पारायण*




🪷🙏卐 श्री परमात्मने नमः 卐🙏🪷 🪔🌷श्री दादूदयालवे नमः🌷🪔 . श्री दादूवाणी मूल पाठ ~ तृतीय पारायण निष्काम पतिव्रता का अंग, चेतावनी का अंग, मन का अंग, सूक्ष्म जन्म का अंग, माया का अंग, साँच का अंग . स्वर ~ स्वामी श्री भगवानदास जी तपस्वी, निवाई, राजस्थान(भारत) प्रेरणा प्रवाह ~ महंत महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज

*श्री दादूवाणी मूल पाठ ~ द्वितीय पारायण*

🪷🙏卐 श्री परमात्मने नमः 卐🙏🪷 🪔🌷श्री दादूदयालवे नमः🌷🪔

 . श्री दादूवाणी मूल पाठ ~ द्वितीय पारायण विरह का अंग, परिचय का अंग, जरणा का अंग, हैरान का अंग, लै का अंग 

 स्वर ~ स्वामी श्री भगवानदास जी तपस्वी, निवाई, राजस्थान(भारत) 
 *श्री दादूवाणी मूल पाठ ~ द्वितीय पारायण*
प्रेरणा प्रवाह ~ महंत महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज

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मंगलवार, 22 अप्रैल 2025

*श्री दादूवाणी मूल पाठ ~ प्रथम पारायण*


🪷🙏卐 श्री परमात्मने नमः 卐🙏🪷 🪔🌷श्री दादूदयालवे नमः🌷🪔

 . श्री दादूवाणी मूल
पाठ ~ प्रथम पारायण निवेदन, गुरुदेव का अंग, स्मरण का अंग . 

स्वर ~ स्वामी श्री
भगवानदास जी तपस्वी, निवाई, राजस्थान(भारत) प्रेरणा प्रवाह ~ महंत महामंडलेश्वर संत
श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज • *श्री दादूवाणी मूल पाठ ~ प्रथम पारायण*

शुभ ~ दीपावली



॥ दादूराम ~ सत्यराम ॥
प्रिय निजात्मन,
/\ सत्यराम, शुभ दीपावली :)

*श्री दादू पञ्च धाम* दर्शन एवं भजन



दर्शन एवं भजन, श्री दादू पञ्च धाम 
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 स्वर ~ संत श्री मन्नादास जी, लालसोट, राजस्थान(भारत)
 प्रेरणा प्रवाह ~ गुरुवर्य महंत महामंडलेश्वर संत श्री १०२ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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 *श्री दादू पञ्च धाम*
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 ३७७. आशीर्वाद । षड़ताल (#श्रीदादूवाणी)
धन्य धन्य तूँ धन्य धणी, तुम्ह सौं मेरी आइ बणी ॥टेक॥
धन्य धन्य तूँ तारे जगदीश, सुर नर मुनिजन सेवैं ईश । 
धन्य धन्य तूँ केवल राम, शेष सहस्र मुख ले हरि नाम ॥१॥
धन्य धन्य तूँ सिरजनहार, तेरा कोई न पावै पार ।
 धन्य धन्य तूँ निरंजन देव, दादू तेरा लखै न भेव ॥२॥

प्रभात प्रार्थना दादू पालका धाम



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 🌹🙏 ॐ नमो नारायण 🙏🌹 
🌿🌻 शुभ~दिवस 🌻🌿
 🇮🇳🦚🇮🇳.🇮🇳🦚🇮🇳.🇮🇳🦚🇮🇳
 . 
श्री दादूपालकां धाम प्रभात प्रार्थना

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2025

*(२)नरेन्द्र द्वारा श्रीरामकृष्ण का प्रचारकार्य*

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*दादू पाती प्रेम की, बिरला बांचै कोइ ।*
*बेद पुरान पुस्तक पढै, प्रेम बिना क्या होइ ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(२)नरेन्द्र द्वारा श्रीरामकृष्ण का प्रचारकार्य*
श्रीरामकृष्णदेव के उस सार्वभौमिक सनातन हिन्दू धर्म का स्वामीजी ने किस प्रकार प्रचार करने की चेष्टा की थी, उसकी यहाँ पर हम थोड़ीसी चर्चा करेंगे ।
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*ईश्वर-दर्शन*
श्रीरामकृष्ण की पहली बात यह है कि ईश्वर का दर्शन करना होगा । कुछ मन्त्र या श्लोकों को कण्ठस्थ कर लेने का ही नाम धर्म नहीं है । भक्त यदि व्याकुल होकर उन्हें पुकारे, तभी ईश्वरदर्शन होता है । चाहे इस जन्म में हो या अगले जन्म में । उनके एक दिन के वार्तालाप की हमें याद आ रही है । दक्षिणेश्वर के कालीमन्दिर में वार्तालाप हो रहा था । रविवार, २६ अक्टूबर १८८४ ई.।
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श्रीरामकृष्णदेव काशीपुर के महिमाचरण चक्रवर्ती तथा अन्य भक्तों से कह रहे थे - "शास्त्र कितने पढ़ोगे ? केवल विचार करने से क्या होगा ? पहले उन्हें प्राप्त करने की चेष्टा करो । पुस्तकें पढ़कर क्या जानोगे ? जब तक बाजार में नहीं पहुँचते तब तक दूर से केवल हो-हो शब्द सुनायी देता है ।
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बाजार के पास पहुँचने पर कुछ दूसरा शब्द सुनायी पड़ेगा, और अन्त में बाजार के भीतर पहुँचकर साफ साफ देख सकोगे, सुन सकोगे 'आलू लो, पैसा दो ।'
"खाली पुस्तकें पढ़कर ठीक अनुभव नहीं होता । पढ़ने तथा अनुभव करने में बहुत अंतर है । ईश्वर-दर्शन के बाद शास्त्र, विज्ञान आदि सब कूड़ा-कर्कट जैसे लगते हैं ।
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"बड़े बाबू के साथ परिचय आवश्यक है । उनके कितने मकान, कितने बगीचे, कितने कम्पनी के कागज हैं - यह सब पहले से ही जानने के लिए इतने व्यग्र क्यों हो ? चाहे धक्का खाकर या दीवाल फाँदकर ही सही, किसी न किसी तरह बड़े मालिक के साथ एक बार परिचय तो कर लो, तब यदि इच्छा होगी, तो वे ही कह देंगे कि उनके कितने मकान हैं, कितने बगीचे हैं, कम्पनी के कितने कागज हैं । मालिक के साथ परिचय होने पर फिर नौकर-चाकर, द्वारपाल सभी लोग सलाम करेंगे ।"(सभी हँसे)
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एक भक्त - बड़े मालिक के साथ परिचय कैसे होता है ?
श्रीरामकृष्ण - उसके लिए कर्म चाहिए - साधना चाहिए । 'ईश्वर हैं' इतना कहकर बैठे रहने से काम न चलेगा । उनके पास जाना होगा । निर्जन में उन्हें पुकारो, यह कहकर प्रार्थना करो, 'हे प्रभो! दर्शन दो ।' व्याकुल होकर रोओ । कामिनी-कांचन के लिए जब पागल होकर घूम सकते हो तो उनके लिए भी जरा पागल बनो ।
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लोगों को कहने दो कि अमुक ईश्वर के लिए पागल हो गया । कुछ दिन सब कुछ छोड़कर उन्हें अकेले में पुकारो । केवल 'वे हैं' यह कहकर बैठे रहने से क्या होगा ? हालदारपुकुर में बड़ी-बड़ी मछलियाँ हैं । तालाब के किनारे पर केवल बैठे रहने से ही क्या मिल सकती हैं ? खुराक डालो । धीरे धीरे गहरे जल से मछलियाँ आयेंगी और जल हिलेगा । उस समय आनन्द आयगा । सम्भव है, मछली का कुछ अंश एक बार दिखायी भी दे और मछली को छलाँग मारते हुए भी देखो ।
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जब उसको प्रत्यक्ष देखा तो और भी आनन्द !
ठीक यही बात स्वामीजी ने शिकागो-धर्मसभा के सम्मुख कही है (अर्थात् धर्म का उद्देश्य है ईश्वर को प्राप्त करना, उनका दर्शन करना) –
"हिन्दू शब्दों और सिद्धान्तों के जाल में समय बिताना नहीं चाहता ।... वह ईश्वर का साक्षात्कार कर लेना चाहता है; कारण, ईश्वर के केवल प्रत्यक्ष दर्शन से ही समस्त शंकाएँ दूर हो सकती है ।
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अतः हिन्दू ऋषि आत्मा के विषय में, ईश्वर के विषय में यही सर्वोत्तम प्रमाण देते हैं कि 'मैंने आत्मा का दर्शन किया है, मैंने ईश्वर का दर्शन किया है ।' .... हिन्दुओं की सारी साधना-प्रणाली का लक्ष्य केवल एक ही है और वह है सतत अध्यवसाय द्वारा पूर्ण बन जाना, देवता बन जाना, ईश्वर के निकट पहुँचकर उनका दर्शन करना । और इस प्रकार ईश्वरसान्निध्य को प्राप्त कर उनका दर्शन कर लेना, उन्हीं 'स्वर्गस्थ पिता' के समान पूर्ण हो जाना - यही असल में हिन्दू धर्म है ।"
(क्रमशः)