मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023

*शब्दस्कन्ध ~ पद #३०१*

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #३०१)*
*राग सोरठ ॥१९॥**(गायन समय रात्रि ९ से १२)*
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*३०१. धीमा ताल*
*मन रे, तेरा कौन गँवारा, जपि जीवन प्राण आधारा ॥टेक॥*
*रे मात पिता कुल जाती, धन जौबन सजन सगाती ।*
*रे गृह दारा सुत भाई, हरि बिन सब झूठा ह्वै जाई ॥१॥*
*रे तूँ अंत अकेला जावै, काहू के संग न आवै ।*
*रे तूँ ना कर मेरी मेरा, हरि राम बिना को तेरा ॥२॥*
*रे तूँ चेत न देखे अंधा, यहु माया मोह सब धंधा ।*
*रे काल मीच सिर जागे, हरि सुमिरण काहे न लागे ॥३॥*
*यहु औसर बहुरि न आवै, फिर मनिषा जन्म न पावै ।*
*अब दादू ढ़ील न कीजे, हरि राम भजन कर लीजे ॥४॥*
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भा०दी०-हे मन: ! अस्मिन् संसारे नास्ति कोऽपि तव । स्वजीवनाधारं प्राणस्वामिनं प्रभु भज । हे मनः ! मातृपितृपुत्रकलत्रजातिधनधान्यादिकं सर्वं मिथ्या, सर्वान् विहाय चान्तेऽवश्य- मेकाकिना त्वया गन्तव्यम् । न च कोऽपि सहागच्छति, न च गच्छति । त्रिविधतापपापापहारी भगवानेव तव सङ्गी । तव मम भावं मा कुरु कुत्राऽपि । त्वं विवेकविचारहीनोऽन्धोऽसि किम्? अत: सावधानो भूत्वा पश्य । सर्वकार्यजातं मायामोहजनकम् । तव शिरसि कालप्रेरितो मृत्युः समायातोऽस्ति । अनेकैः सुकृतकर्मभिस्त्वयेदृशं मनुष्यजन्म प्राप्तम् । अतो मा विलम्ब कुरु । जननमरणदुःखहरं श्रीरामं ध्यात्वा तं प्राप्नुहि ।
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उक्तं हि प्रबोधसुधाकरे-
चेतश्चञ्चलतां विहाय पुरत: संधाय कोटिद्वयं ।
तत्रैकत्र निधेहि सर्वविषयानन्यत्र च श्रीपतिम् ॥
विश्रान्तिर्हितमप्यहो क्वनु तयोर्मध्ये तदालोच्यताम् ।
युक्त्या वानुभवेन यत्र परमानन्दश्च तत्सेव्यताम् ॥
पुत्रान् पौत्रानथ स्त्रियोऽन्य युवतीर्वित्तान्यवोऽन्यद्धनम् ।
भोज्यादिष्वापि तारतम्यवशतो नालं समुत्कण्ठया ।
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हे मन ! इस संसार में तेरा कोई भी नहीं है । अपने जीवन के आधार प्राणों के स्वामी प्रभु को भज । रे मन ! माता, पिता, भाई, पुत्र, कलत्र, जाति, धन, धान्य आदि सभी मिथ्या हैं । उन सबको त्याग कर अन्त में विवश होकर अकेले को ही जाना है । न कोई साथ आता है, न कोई किसी के साथ जाता है । त्रिविध ताप और पापों को हरने वाले भगवान् ही तेरे साथी हैं । तव – मम भाव को त्याग दे ।
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क्या तू विवेक-विचारहीन अन्धा है ? सावधान होकर देख । संसार के सभी कार्य मोह ममता को पैदा करने वाले हैं । तेरे शिर पर तो काल से प्रेरित मृत्यु नाच रही है । ऐसा भजन का अवसर फिर नहीं आयेगा । जो कर्म तू कर रहा है, उनसे तुझे फिर मानव शरीर भी नहीं मिले । अतः देरी मत कर, जो जन्म मरण को हरने वाले राम हैं, उनका भजन कर, जिससे तुझे भगवान् प्राप्त हो जाय ।
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प्रबोधसुधाकर में लिखा है कि –
अरे, चित्त चंचलता को छोड़कर सामने तराजू के दोनों पलड़ों में एक में विषयों को और दूसरों में श्रीपति भगवान् को रख और फिर इसका विचार कर कि दोनों के बीच में विश्राम और हित किस में है ? फिर युक्ति और अनुभव से जहाँ पर परमानन्द मिले, उसी का सेवन कर । पुत्र, पौत्र, स्त्रियां, अन्य युवतियां, अपना धन और पराया धन और भोज्यादि पदार्थों में न्यूनाधिक भाव होने से कभी इनसे इच्छा शान्त नहीं होती, किन्तु जब चित्त में घनामृतानन्द सिन्धु विभु यदुनाथ श्रीकृष्ण चित्त में प्रकट होकर इच्छा पूर्वक विहार करते हैं, तब यह बात नहीं रहती क्योंकि उस समय चित्त स्वच्छन्द और निर्भय हो जाता है ।
(क्रमशः)

*साहिब सूं मन लायौ रे*

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*दादू सोई सेवक राम का, जिसे न दूजी चिंत ।*
*दूजा को भावै नहीं, एक पियारा मिंत ॥*
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*संत टीला पदावली*
*संपादक ~ ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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क्यूंन्हैं१ नींदौ म्हांनैं रे । 
थांकौ कीयौ थांनैं रे ॥टेक॥
साहिब सूं मन लायौ रे । 
टूकौ पांणीं षायौ रे ॥
छाजन रांम षंदायौ रे । 
सो म्हे अंगि लगायौ रे ॥
कुल क्रंम कोइ न२ कमायौ रे । 
कोई षोसि न षायौ रे ॥
न्यंदक३ कहै अबिचारी रे । 
टीला मांथैं मारी रे ॥२९॥
(पाठान्तर : १. क्यांन्हैं, २. ‘न’ नहीं है, ३. निन्दक)
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प्रतिपक्षियों एवं निन्दकों से कहते हैं, आप हमारी निन्दा क्यों करते हो । आपका कर्म आपके साथ है और हमारा कर्म हमारे साथ है । आप यदि कहते हो कि आपका मार्ग ही श्रेष्ठ तथा कल्याणकारी है तो वह आपको मुबारक हो । इसके विपरीत यदि हमारा मत गर्हित और अकल्याणकारी है तो वह हमारे लिए है । आप क्यों व्यर्थ ही दुखी हो रहे हो । कृपा करके हमारी निन्दा मत करो ॥टेक॥
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हमने अपना मन परात्पर-परमात्मा में संयोजित कर रखा है । हमको जैसा रुखा-सूखा रोटी का टुकड़ा मिलता है वैसा ही खाकर व पानी पीकर भगवद्भजन करते हैं । रामजी जैसा वस्त्र भेजता है हम उसी को उसका प्रसाद समझकर अंग पर धारण कर लेते हैं ।
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हमने वर्णकुलानुसार कोई भी कर्म अथवा कर्मों का संपादन नहीं किया है किन्तु लक्ष्य करने की बात यह भी है कि हमने किसी के माल को छीनकर खाया भी नहीं है । हम तो उसी सामान को वापरते हैं जो हमको सहज में अनायास ही मिल जाता है । हे निन्दकों ! आप अविचारित बातें कहते हैं । इसीलिए मैं टीला आपकी सिद्धान्तहीन बातों को आपके ही माथे मारता हूँ ॥२९॥
(क्रमशः)

सोमवार, 27 फ़रवरी 2023

*२८. काल कौ अंग ८५/८८*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२८. काल कौ अंग ८५/८८*
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संसै साल१ सरीर में, तम त्रिषना बिष वास ।
अजुगति२ असन३ लिया मरै, सु कहि जगजीवनदास ॥८५॥
(१. संसै साल=सन्देह रूप कष्ट)   {२. अजुगति=अयुक्त(असम्भव)}
(३. असन-भोजन)  
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हर वस्तु को संदेह की दृष्टि से देखना कष्टकारी है । और देह में तृष्णाओं का फिर वास होना और भी कष्टकारी है ।  यह सब बिना सोचे समझे किये गये भोजन की भांति कष्टकर है ।
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कहि जगजीवन क्यों मुवा, क्यों हरि जनम्या जाइ ?
यहु सन्देह निवारिये, रांम क्रिपा करि आइ ॥८६॥   
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु आप बताइये क्यों तो यह जीव मरता है फिर प्रभु के पास जाकर कर क्यों जन्मता है । हे, प्रभु आप कृपाकर आकर हमारे इस संदेह का निवारण कीजिये ।
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आसा तृषणा मोह मन, हरि तजि भ्रमै उदास ।
यों यहु जनमैं यों मरै, सु कहि जगजीवनदास ॥८७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि आशा तृष्णाओं और मोह के साथ प्रभु को भूलकर जीव भ्रमित हुआ डोलता है ।  इसलिए ही यह बार बार जन्मता और मरता है ।
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खातां सकै न बोलतां, देह अग्नि कलि काल ।
कहि जगजीवन रांम विमुख रहै, यों तन ग्रासै काल ॥८८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं की यह जीवन इतना अस्थिर है कि यह खाते या बोलते हुये भी काल का ग्रास बन सकता है जो प्रभु विमुख है उन्हें ऐसें ही काल ग्रसता है ।
(क्रमशः)  

*रूप सनातन तज्ञ दुहुँ*

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*दादू साधु गुण गहै, औगुण तजै विकार ।*
*मानसरोवर हंस ज्यूं, छाड़ि नीर, गहि सार ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ सारग्राही का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*श्रीरूप सनातनजी*
*छप्पय-*
*रूप सनातन तज्ञ दुहुँ,*
*विषय स्वाद कीन्हो बवन ॥*
*पूर्व गौड़ बंगाल, तहां को सूबो होई।*
*वैभव भूप प्रमाण, खजाना असु गज जोई ॥*
*मिथ्या सब सुख मान, चाल वृन्दावन आये।*
*प्राप्त मांहि संतोष, कुंज करवा मन भाये ॥*
*तोषसंत राधव् हृदय, भक्ति करी राधारवन ।*
*रूप सनातन तज्ञ दुहुँ, *
*विषय स्वाद कीन्हों बवन ॥२५०॥*
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रूप और सनातन दोनों विद्वानों ने सांसारिक विषय स्वाद को वमन के समान त्याग दिया था। पूर्व दिशा के गौड़ बंगाल देश के सूबे का शासक हुसैनशाह के राज्य में आप दोनों उच्च पदों पर थे और बहुत ऐश्वर्य वाले थे। दोनों के खजाने में अश्व, हाथी आदि जो भी थे सो सब राजा के समान थे। एक समय रुपये गिनते-गिनते सब रात्रि व्यतीत हो गई थी।
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इससे दोनों को वैराग्य हो गया, उस सब सुख को मिथ्या मानकर अपने गुरुजी चैतन्य महाप्रभुजी की आज्ञा से दोनों वृन्दावन चले आये थे और यथालाभ संतोष से रहते थे। केवल एक करवा(जलपात्र) और वृन्दावन के कुञ्ज, ये दो ही इनको प्रिय लगते थे। इन दोनों ने संतों के हृदय को संतोष देने के लिये श्रीराधा- कृष्ण की गुप्त भक्ति और व्रज भूमि के गुप्त रहस्य का प्रकाश किया था अर्थात् व्रज के तीर्थों का निर्णय किया था।
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विशेष - रूप सनातन बंगाल के बादशाह हुसैनशाह के मंत्री थे। उस समय बंगाल की राजधानी गौड़ नगर में थी। ये दक्षिणी ब्राह्मण थे। अपने देश से आकर बंगाल के रामकेलि नाम गाँव में बस गये थे और अपने बुद्धि बल से इनने इतना ऊँचा पद प्राप्त कर लिया था जिससे राज्य में दबीर खास और साकर मल्लिक नाम से प्रसिद्ध थे। ये दोनों इनकी पदवियाँ थीं। सनातन का असली नाम 'अमर' और रूप का नाम 'संतोष' था।
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हुसैनशाह इनको अपना दाहिना हाथ समझता था। इन्होंने बहुत धन कमाया था। रामकेलि ग्राम में ये राजा कहलाते थे। इतना होने पर भी ये भगवान् के भक्त और उदार थे। साधु सेवा करते थे। इनके छोटे भाई 'अनुपम' घर रहते थे। ये दोनों बादशाह के पास गौड़ में रहते थे। चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन जाने के बहाने हजारों भक्तों के साथ हरि नाम ध्वनि करते हुए गंगाजी के किनारे किनारे गौड़ पहुँचे। तब अमर और संतोष उनकी शरण गये।
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चैतन्य महाप्रभु ने इनका नाम सनातन और रूप रखा। सनातन के परामर्श से महाप्रभु ने इतने लोगों के साथ वृन्दावन जाने का विचार छोड़ दिया और पीछे पुरी की और लौट गये। अब रूप सनातन को वैराग्य हो गया। उनका मन राज्य, वैभव और मंत्रित्व से हट गया। सनातन की अनुमति से रूप छुट्टी लेकर अपने घर रामकेलि चले आये। रूप और अनुपम दोनों अपना धन लुटा कर वृन्दावन के लिये तैयार हो गये।
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रूप, सनातन के संतान नहीं थी। अनुपम के 'जीव' नामक एक पुत्र था। उसे थोड़ा धन दे दिया। इधर सनातन को बादशाह ने कैद कर लिया। चैतन्य महाप्रभु की वृन्दावन की यात्रा का समाचार सुनकर दोनों वृन्दावन चल पड़े और सनातन को एक पत्र लिख दिया, हम वृन्दावन जा रहे हैं आप भी किसी प्रकार छुट्टी पाकर वृन्दावन आ जाना। आवश्यक व्यय के लिए दश हजार मोदी में रख दिये हैं।
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दोनों ही परम तपस्वियों के समान चलते हुए प्रयाग में महाप्रभु से आ मिले। महाप्रभु इनसे प्रेमपूर्वक मिले और कहा-सनातन छूट गये हैं तथा मेरे पास आ रहे हैं। कई दिन दोनों महाप्रभु के पास प्रयाग में रहे। रूप को महाप्रभु ने भक्ति तत्त्व समझाकर कहा-रूप मैं काशी जाता हूँ। तुम वृन्दावन जाओ।
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रूप और अनुपम वृन्दावन की ओर चले। रूप का पत्र पाकर सनातन भी रक्षकों को कुछ देकर निकल भागे और सात हजार मुहरें देकर उनकी सहायता से रातों रात गंगा के उस पार चले गये। ईशान नामक एक नौकर साथ था उसको वापस भेजा दिया। फिर आप हाजीपुर में आए वहाँ सनातन के बहनोई श्रीकान्त मिले। उनने इनको घर लौटाने का यत्न किया किन्तु इनने कहा-मैं घर ही जा रहा हूँ।
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सनातन ने अपनी पूर्व की सारी कथा श्रीकान्त को सुना दी। श्रीकान्त ने इनको बहुत समझाया, नहीं माने तब मार्ग व्यय तथा ओढ़ने की दुशाला लेने का आग्रह किया किन्तु इनने कुछ नहीं लिया। तब श्रीकान्त रोने लगे। इससे उनके संतोष के लिए एक कम्बल लेकर चल दिये। महाप्रभु के पास काशी पहुँचकर चन्द्रशेखर के मकान के पास आते ही सनातन को हरिनाम ध्वनि सुन पड़ी। वे चन्द्रशेखर के द्वार पर जाकर बैठ गये।
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महाप्रभु को ज्ञात हो गया कि सनातन द्वार पर बैठे हैं। चन्द्रशेखर को भेजकर बुलाया। सनातन आकर महाप्रभु के चरणों में पड़ गये। महाप्रभु ने उठकरउन्हें छाती से लगाया। फिर महाप्रभु ने कहा-इनका मस्तक मुण्डन करवाकर इन्हें स्नान कराओ और नये कपड़े दो । तपन मिश्र उनको नई धोती देने लगे तब सनातन ने कहा- मुझे तो आप कोई फटा पुराणा कपड़ा दो।
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सनातन का आग्रह देखकर मिश्र ने फटी धोती दी। सनातन ने उसको दो कौपीन बना ली। श्रीकान्त का दिया हुआ सुन्दर कम्बल गंगा तट एक गरीब को देकर उसके बदले में उससे उसकी फटी गुदड़ी लेकर ओढ ली। महाप्रभु ने लगातार सनातन को दो मास तक भक्ति की उत्तम शिक्षा देकर वृन्दावन जाने को कहा और रूप, अनुपम से मिलकर श्रीकृष्ण का कार्य करने को कहा। महाप्रभु नीलाचल चले गये।
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ये वृन्दावन आये तो ज्ञात हुआ कि रूप और अनुपम दूसरे मार्ग से काशी होते हुये देश को गये। वृन्दावन में सनातन एक वृक्ष के नीचे रहते थे। प्रतिदिन वन से सूखी लकड़ियां ले जाकर बाजार में बेचते, उसी से अपना निर्वाह करते थे। कुछ समय यहाँ निवास करके फिर महाप्रभु से मिलने के लिये नीलाचल की ओर चले गये। मार्ग में आपके चर्म रोग हो गया। आप नीलाचल में पहुँच कर हरिदासजी के ठहरे। महाप्रभु उनके यहाँ प्रतिदिन आते थे। वहाँ आये तब सनातन से प्रेमपूर्वक मिले और कहा- तुम्हारे दोनों भाई यहाँ आकर दश मास रहे थे।
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फिर रूप तो पीछे वृन्दावन लौट गये हैं और अनुपम यहीं कृष्ण को प्राप्त हो गये हैं। प्रभु ने कहा- तुम यहाँ हरिदासजी के पास ही रहो। महाप्रभु प्रतिदिन वहाँ आते ही थे। कुछ दिन में सनातन प्रभु- कृपा से रोग मुक्त हो गये। फिर महाप्रभु ने सनातन को वृन्दावन जाने की आज्ञा दी। सनातन वृन्दावन चले आये। रूप भी आप गये थे। दोनों ने मिलकर वृन्दावन के उद्धार का कार्य किया। दोनों ने अनेक ग्रंथों की रचना की। दोनों भाई भिक्षा माँगकर खाते थे ॥२५०॥
(क्रमशः)

रविवार, 26 फ़रवरी 2023

क्या हम ईश्वर को दयामय न कहें ?

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*तिस घरि जाना वे, जहाँ वे अकल स्वरूप,*
*सोइ इब ध्याइये रे, सब देवन का भूप ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ पद्यांश. ४३६)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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श्रीरामकृष्ण - तो क्या हम ईश्वर को दयामय न कहें ? अवश्य कहना चाहिए जब तक हम साधना की अवस्था में हैं । उन्हें प्राप्त कर लेने पर अपने माँ-बाप पर जो भाव रहता है, वही उन पर भी हो जाता है । जब तक ईश्वर-लाभ नहीं होता, तब तक जान पड़ता है, हम बहुत दूर के आदमी हैं, दूसरे के बच्चे हैं ।
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"साधना की अवस्था में उनसे सब कुछ कहना चाहिए । हाजरा ने एक दिन नरेन्द्र से कहा था, 'ईश्वर अनन्त हैं । उनका ऐश्वर्य अनन्त है । वे क्या कभी सन्देश और केले खाने लगेंगे ? या गाना सुनेंगे ? यह सब मन की भूल है ।'
"सुनते ही नरेन्द्र मानो दस हाथ धँस गया ।
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तब मैंने हाजरा से कहा, 'तुम कैसे पाजी हो ? अगर बाल-भक्तों से ऐसी बात कहोगे तो वे ठहरेंगे कहाँ ?’ भक्ति के जाने पर आदमी फिर क्या लेकर रहे ? उनका ऐश्वर्य अनन्त हैं, फिर भी वे भक्ताधीन हैं, बड़े आदमी का दरवान बाबुओं की सभा में एक ओर खड़ा हुआ है, हाथ में एक चीज है - कपड़े से ढकी हुई, वह बड़े संकोच भाव से खड़ा हुआ है ।
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बाबू ने पूछा, 'क्यों दरवान, तुम्हारे हाथ में यह क्या है ?' दरवान ने संकोच के साथ एक शरीफा निकालकर बाबू के सामने रखा - उसकी इच्छा थी कि बाबू उसे खायँ । दरवान का भक्तिभाव देखकर बाबू ने शरीफा बड़े आदर के साथ ले लिया और कहा, 'वाह ! बड़ा अच्छा शरीफा है । तुम कहाँ से इतना कष्ट करके इसे लाये ?'
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"वे भक्ताधीन हैं । दुर्योधन ने इतनी खातिर की और कहा, 'महाराज, यहीं जलपान कीजिये ।' परन्तु श्रीठाकुरजी विदुर की कुटी पर चले गये । वे भक्तवत्सल हैं, विदुर का शाकान्न बड़े प्रेम से अमृत समझकर खाया ।
"पूर्ण ज्ञानी का एक लक्षण और है, - पिशाचवत् - न खाने पीने का विचार है, न शुचिता, न अशुचिता का ।
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पूर्ण ज्ञानी और पूर्ण मूर्ख, दोनों के बाहरी लक्षण एक ही तरह के हैं । पूर्ण ज्ञानी को देखो, गंगा नहाकर कभी मन्त्र जपता ही नहीं, ठाकुर-पूजा करते समय सब फूल एक साथ ठाकुरजी के पैरों पर चढ़ा दिये और चला आया, कोई तन्त्र मन्त्र नहीं जपा ।
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"जितने दिन संसार में भोग करने की इच्छा रहती है, उतने दिनों तक मनुष्य कर्मों का त्याग नहीं कर सकता । जब तक भोग की आशा है, तब तक कर्म हैं ।
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"एक पक्षी जहाज के मस्तूल पर अन्यमनस्क बैठा था । जहाज गंगागर्भ में था । धीरे-धीरे महासमुद्र में आ गया तब पक्षी को होश आया, उसने चारों ओर देखा, कहीं भी किनारा दिखलायी नहीं पड़ता था । तब किनारे की खोज करने के लिए वह उत्तर की ओर उड़ा । बहुत दूर जाकर थक गया । फिर भी किनारा उसे नहीं मिला । तब क्या करे, लौटकर फिर मस्तूल पर आकर बैठा । कुछ देर के बाद, वह पक्षी फिर उड़ा, इस बार पूर्व की ओर गया । उस तरफ भी उसे कहीं छोर न मिला ।
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चारों ओर समुद्र ही समुद्र था । तब बहुत ही थककर फिर जहाज के मस्तूल पर आ बैठा । फिर कुछ विश्राम करके दक्षिण ओर गया, पश्चिम ओर गया । पर उसने देखा कि कहीं ओर-छोर ही नहीं है । तब लौटकर वह फिर उसी मस्तूल पर बैठ गया । इसके बाद फिर नहीं उड़ा । निश्चेष्ट होकर बैठा रहा । तब मन में किसी प्रकार की चंचलता या अशान्ति नहीं रही । निश्चिन्त हो गया, फिर कोई चेष्टा भी नहीं रही ।"
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कप्तान – वाह ! कैसा दृष्टान्त है !
श्रीरामकृष्ण - संसारी आदमी सुख के लिए जब चारों ओर भटके फिरते हैं, और नहीं पाते, तो अन्त में थक जाते हैं । जब कामिनी और कांचन पर आसक्त होकर केवल दुःख ही दुःख उनके हाथ लगता है, तभी उनमें वैराग्य आता है - तभी त्याग का भाव पैदा होता है । बहुतेरे ऐसे हैं जो बिना भोग किये त्याग नहीं कर सकते ।
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कुटीचक और बहूदक, ये दो होते हैं । साधकों में भी बहुतेरे ऐसे हैं, जो अनेक तीर्थों की यात्रा किया करते हैं । एक जगह पर स्थिर होकर नहीं बैठ सकते । बहुत से तीर्थों का उदक अर्थात् पानी पीते है । जब घूमते हुए उनका क्षोभ मिट जाता है तब किसी एक जगह कुटी बनाकर स्थिर हो जाते हैं और निश्चिन्त तथा चेष्टाशून्य होकर परमात्मा का चिन्तन किया करते हैं ।
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"परन्तु संसार में कोई भोग भी क्या करेगा ? - कामिनी और कांचन का भोग ? वह तो क्षणिक आनन्द है । अभी है, अभी नहीं ।
"प्राय: मेघ छाये रहते हैं, वर्षा लगी हुई है; सूर्य नहीं दीख पड़ता । दुःख का भाग ही अधिक है । कामिनी-कांचनरूपी मेघ सूर्य को देखने नहीं देता ।
“कोई कोई मुझसे पूछते हैं, 'महाराज, ईश्वर ने क्यों इस तरह के संसार की सृष्टि की ? हम लोगों के लिए क्या कोई उपाय नहीं हैं ?'
(क्रमशः)

*श्री रज्जबवाणी पद ~ ११९*

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*कहा करूँ, मेरा वश नांही, और न मेरे अंग सुहाइ ।*
*पल इक दादू देखन पावै, तो जन्म जन्म की तृषा बुझाइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग मल्हार ७ (गायन समय वर्षा ऋतु)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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११९ । मत्त ताल 
ब्रह्म बिन निशदिन विपति विहात१,
दर्शन दूर परस२ पिव नांहिं, नहिं संदेश३ सुनात ॥टेक॥
पीर प्रचंड४ खंड५ कर नाखत, वैरी विरह विख्यात । 
सांई सुरति करो सुन्दरि दिशि, सोच न सिंह शंकात ॥१॥
नख शिख शूल मूल मन बेधत, बरणत बने न बात । 
झीनी६ झाल७ लाल८ बिन लपटत, सो क्यों हूं न बुझात ॥२॥
सब सुख हीन दीन दीरघ दुख, विसरी पांच रु सात । 
रज्जब रही चित्र पुतरी ह्वै, मान हुं सतरंज मात ॥३॥२॥
✦ ब्रह्म साक्षात्कार के बिना रात्रि दिन दु:ख से ही जाते१ हैं । प्रियतम के दर्शनों से मैं दूर ही हूँ, उनका चरण स्पर्श२ मुझे नहीं मिल रहा है । न वे कुछ समाचार३ ही सुना रहे हैं । 
✦ मेरे हृदय में भयंकर४ पीड़ा हो रही है । यह प्रसिद्ध शत्रु विरह हृदय के टुकड़े५ टुकड़े कर देगा । प्रभो ! मुझ सुन्दरी की ओर वृत्ति कीजिये । यह चिन्ता रूप सिंह मेरे शरीर को खाने में कुछ भी शंका नहीं कर रहा है अर्थात चिंता से शरीर सूखता जा रहा है । 
✦ नख से शिखा तक शरीर में पीड़ा है । यह दु:ख का मूल कारण विरह मन को विद्ध कर रहा है । मेरा दु:ख इतना बढ गया है कि - उसकी वार्ता का वर्णन भी मुझ से नहीं होता । प्रियतम८ प्रभु के बिना विरहाग्नि की सूक्ष्म६ ज्वालायें७ मेरे चारों ओर लग रही हैं । वह प्रभु के दर्शन बिना किसी प्रकार भी अन्य उपाय से नहीं बुझती । 
✦ मैं सम्पूर्ण सुखों से रहित रह कर दीन हो रही हूं, मेरे को बड़ा दु:ख है, मैं सात और पांच १२ भूषण पहनना भूल गई हूं अर्थात दश इन्द्रिय और मन बुद्धि इन बारह कॊ सुधारना भी भूल गई हूं । मैं अब चित्र लिखित पुतली सी हो रही हूँ । शतरंज के शाह का मोहरा चारों ओर से घिर जाने की सी दशा मेरी हो रही है । मुझ इस दु:ख से मुक्त होने का उपाय प्रभु दर्शन के बिना अन्य कोई भी नहीं दिख रहा है । 
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित राग मल्हार ७ समाप्तः । 
(क्रमशः) 

शब्दस्कन्ध ~ पद #३००

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #३००)*
*राग सोरठ ॥१९॥**(गायन समय रात्रि ९ से १२)*
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*३००. उपदेश चेतावनी । (धीमा ताल)*
*मन रे, राम रटत क्यों रहिये !*
*यहु तत बार बार क्यों न कहिये ॥टेक॥*
*जब लग जिह्वा वाणी, तो लौं जपिले सारंगपाणी ।*
*जब पवना चल जावे, तब प्राणी पछतावे ॥१॥*
*जब लग श्रवण सुणीजे, तो लौं साध शब्द सुण लीजे ।*
*श्रवणों सुरति जब जाई, ए तब का सुणि है भाई ॥२॥*
*जब लग नैंन हुँ पेखे, तो लौं चरण-कमल क्यों न देखे ।*
*जब नैनहुं कछु न सूझे, ये सब मूरख क्या बूझे ॥३॥*
*जब लग तन मन नीका, तो लौं जपिले जीवन जीका ।*
*जब दादू जीव आवै, तब हरि के मन भावै ॥४॥*
.
भा०दी०-हे मनस्त्वं धनमदान्धः सन् किमर्थं रामनामजपसाधनं विस्मरसि । इदं साधनन्तु सर्व-साधनेभ्यो गरीयः । अतो राम-नाम्नः प्रतिक्षणं चिन्तनेन भाव्यम् । यावत्ते जिह्वा शक्ति: साध्वी तावत्त्वं रामनामजपसाधनं कुरु । अन्यथा प्राणान्तकाले पश्चात्तापो भवेत् । यावच्छ्रवणेन्द्रिये शब्द-श्रवणशक्तिरप्रतिहता तावत्वं सतामुपदेशं शृणु । श्रवणशक्तिनष्टे तु कथं श्रोष्यसि । यावन्नेत्रयोः दर्शनशक्तिरप्रतिहता तावत्त्वं प्रभुचरणयोः सतां च दर्शनं कुरु । अन्यथेन्द्रियाणां शक्तिहासे : दर्शनं वन्दनं कथं भवेयुः । अत: स्वस्थेन मनसा वाचा शरीरेण हरिनामजपसाधने कुरु तदेवत्वं हरिप्रियो भविष्यसि ।
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श्रीमद्भागवते उक्तम्
ये ऐषां पुरुष साक्षादात्मप्रभवमीश्वरम् ।
न भजन्त्यवजानन्ति स्थानाद् भ्रष्टाः पतन्त्यधः ॥
द्विषन्तः परकायेषु स्वात्मानं हरिमीश्वरम् ।
मृतके सानुबन्धेऽस्मिन् बद्धस्नेहा: पतन्त्यधः ॥
एत आत्महनोऽशान्ता अज्ञाने ज्ञानमानिनः ।
सीदन्त्यकृतकृत्या वै कालध्वस्तमनोरथाः ॥
हित्वाऽत्यायासरचिता गृहापत्यसुहृच्छ्रियः ।
तमोविशन्त्यनिच्छन्तो वासुदेवपराङ्मुखाः ॥
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हे मन ! तू धन के मद से अंधा होकर राम नाम साधन को क्यों भूल रहा है ? यह-साधन तो सब साधनों से श्रेष्ठ है । अतः प्रतिक्षण रामनाम चिन्तन ही करना चाहिये । जब तक तेरी जिव्हा शक्ति ठीक है, तब तक तू राम नाम जप ले । अन्यथा प्राणान्त में पश्चाताप करना पड़ेगा ।
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जब तक तेरी श्रवणेन्द्रिय काम कर रही है, तब तक तुम सन्तों के उपदेशों को सुनो । शक्ति के नष्ट होने पर तू क्या कर सकेगा ? जब तक नेत्रों में देखने की शक्ति है, तब तक तू भगवान् के चरण कमलों का दर्शन कर तथा सन्तों के चरणों को देखले । अन्यथा इन्द्रियों की शक्ति के नष्ट हो जाने पर तू कैसे श्रवण, मनन, दर्शन कर सकेगा ? स्वस्थ मन वाणी से हरि नाम जप का साधन कर, तब ही तू परमात्मा का प्यारा होगा ।
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भागवत में लिखा है कि –
जो मनुष्य इन वर्ण, धर्मों, आश्रमों में रहने वाला है और हरि को नहीं भजता है, प्रत्युत उनका अनादर करता है, वह स्थान, वर्ण, आश्रम और मनुष्य योनि से गिर अजता है । यह शरीर मृतक ही है, इसके सम्बन्धी भी मिथ्या ही हैं । जो अपने शरीर से तो प्रेम करता है, दूसरे शरीर में रहने वाले सर्वशक्तिमान् भगवान् से द्वेष करता है, उन मूर्खों का अधःपतन हो जाता है ।
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अज्ञान को ही ज्ञान मानने वाले आत्मघातियों को कभी शान्ति नहीं मिलती । काल भगवान् उनके मनोरथों पर पानी फेरते रहते हैं । उनके कर्मों की परम्परा नहीं मिटती और उनके हृदय की जलन, विषाद कभी नहीं मिटेंगे । जो लोग अन्तर्यामी भगवान् कृष्ण से विमुख हैं, वे अत्यन्त परिश्रम करके जो स्त्री, पुत्र, धन आदि इकट्ठे करते हैं, उनको अन्त में सब कुछ छोड़ देना पड़ता है और न चाहने पर भी विवश होकर नरक में जाना पड़ता है, अतः भगवान् का भजन करना चाहिये ।
(क्रमशः)

गुर दादू समझाया रे

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*दादू मेरा तेरा बावरे, मैं तैं की तज बान ।*
*जिन यहु सब कुछ सिरजिया, करता ही का जान ॥*
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*संत टीला पदावली*
*संपादक ~ ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
===========
म्हे असा रे१ म्हे अेसा रे । 
थे सह जांणौं तैसा रे ॥टेक॥
गुर दादू समझाया रे । 
म्हे आंन नहीं भरमाया रे ॥
म्हांकै एक निरंजन देवा रे । 
ताकी सुर नर लागे२ सेवा रे ॥
काहे करौ लड़ाई रे । 
हम तुम नहीं सगाई रे ॥
टीलौ कहै बिचारी रे । 
यहु दहुं पषां थैं न्यारी रे ॥२८॥
(पाठान्तर : १. ‘म्हे अैसा रे’ एक बार ही है, २. ‘लागे’ नहीं है)
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हम ऐसे हैं, हम ऐसे हैं । आप सब भी हमको वैसा ही जाणो जैसा हम आपको बता रहे हैं ॥टेक॥
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प्रतिपक्षियों के कथन के उत्तर में टीलाजी कहते हैं, हमको गुरुमहाराज दादूजी ने भली प्रकार समझाया है । हम अन्यों द्वारा भ्रमित होने वाले नहीं हैं, अथवा अन्य इष्ट धारण करने के भ्रम में नहीं पड़ेंगे । हमारा इष्ट मात्र एक निरंजन देव है । तदतिरिक्त न हम किसी अन्य को जानते और न मानते हैं । हमारा निरंजन देव वही है जिसकी सेवा सुर नर सभी करते हैं ।
.
अरे ! आप हमसे क्यों लड़ाई कर रहे हो । आपका और हमारा एक होना सम्भव नहीं है । टीला विचार करके अपना निर्णीत मत कहता है, हमारा विचार दोनों पक्षों से विलक्षण है । वस्तुतः सन्तों का उपास्य न कोरे ज्ञान का विषय निर्गुण-निराकार है और न भक्तिसाध्य सगुण-साकार है । वह इन दोनों से न्यारा है । वह सैद्धान्तिक रूप में पूर्णतः निर्गुण-निराकार है किन्तु जब वह भक्तों की रक्षा करता है, उन पर कृपा करके उनके योगक्षेमों का वहन करता है; तब वह सगुण-निराकार है, भक्ति द्वारा साध्य है ।
.
अतः सन्तों का सिद्धांत सगुण-निराकार परमात्मा को मानने का है । वे पहले दास होकर भक्ति करते हैं । फिर ज्ञानी बनकर ऐक्य लाभ प्राप्त करते हैं । यही उनकी विलक्षणता और न्यारापन है ॥२८॥
(क्रमशः)

शनिवार, 25 फ़रवरी 2023

*२८. काल कौ अंग ८१/८४*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२८. काल कौ अंग ८१/८४*
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जहां हेत तहां समावै, अस्थलि५ उभै निवास ।
हरिजन रांम जीव मति रांमा, सु कहि जगजीवनदास ॥८१॥
{५. अस्थलि=स्थल(कठोर एवं शुष्क भूमि)}
संतजगजीवन जी कहते है कि जहाँ प्रेम होता है वहां एक दूसरे के प्रति सहिष्णुता भी होती है । संत कहते हैं कि प्रभु के भक्त अपना जीव राम ही में मानते हैं और बुद्धि भी समझाते हुये कहते हैं कि जहां एक दूसरे के प्रति समाई होती है वहां शुष्क व कठोर भूमि में स्फुटन होता है ।
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कहि जगजीवन आपणीं, जे कोइ राखै मांम६ ।
रांम भगति करि जीतिये, महा रिपु वैरी कांम७ ॥८२॥
६. मांम=ममता(अहंकार) । ७. कांम=मैथुन की इच्छा ।  
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यदि कोइ अपनी ममता प्रभु में स्थित करदे तो प्रभु भक्ति से वह कठिन काम पर भी विजय पा सकता है ।
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कांम तिनहु का कहा करै, जिनके रांम निवास ।
सरण गया सुखिया भया, सु कहि जगजीवनदास ॥८३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि काम उन का क्या कर सकता है जिनके ह्रदय में राम जी का निवास है । जो उनकी शरण में जाता ही वह ही सुखी होता है ।
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कहि जगजीवन रांम जी, क्यों ए मरि मरि जाइ ? । 
क्यों ए बिछुटैं देह थैं, कहि समझावै आइ ? ॥८४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे, प्रभु जी आप ही आकर बताईये कि यह शरीर बार बार क्यों मरता है क्यों देह से जीव बिछड़ता है ।
(क्रमशः) 

*कोटि अजामिल वारत दुष्टन*

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*समाचार सत पीव का, कोइ साधु कहेगा आइ ।*
*दादू शीतल आत्मा, सुख में रहे समाइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ साधु का अंग)*
===========
*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*चैतन-श्याम सु नाम भयो जग,*
*ख्यात महंत जु देह धरी है।*
*गौड़ जितो नर भक्ति न जानत,*
*प्रेम समुद्र बुड़ाय हरी है ॥*
*संत शिरोमणि होत भये सब,*
*तारन को जग बात खरी है।*
*कोटि अजामिल वारत दुष्टन,*
*भक्ति निमग्न करे भु भरी है ॥३१४॥*
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श्रीकृष्णजी महन्त देह धारण करके "श्रीकृष्ण चैतन्य" नाम से जगत में प्रकट हुये हैं।
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जितना गौड़ बंगाल देश था, उसमें कोई भी हरि भक्ति को नहीं जानता था। वहाँ के सभी लोगों को आपने "हरि हरि" नाम जपने का उपदेश करके प्रभु-प्रेम समुद्र में डुबा दिया था।
.
आपके शिष्य प्रशिष्य तथा शिरोमणि संत हुए हैं। और सभी जगत् के प्राणियों का उद्धार करने वाले हुए हैं, यह बात सत्य है।
.
जिनकी दुष्टता पर कोटिन अजामिल के समान पापियों को निछावर कर दिया जाय, ऐसे दुष्टों को भी प्रभु प्रेम में निमग्न करके आपने भूमि में भगवद्भक्ति भर दी थी अर्थात् पृथ्वी पर भक्ति का अत्यधिक प्रचार किया था।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2023

'अहं' का त्याग

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*दादू मुझ ही मांही मैं रहूँ, मैं मेरा घरबार ।*
*मुझ ही मांही मैं बसूँ, आप कहै करतार ॥* 
*(#श्रीदादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
===============
साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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"केशव सेन से मैंने कहा था, 'अहं' का त्याग करना होगा । इस पर केशव ने कहा, "तो महाराज, दल फिर कैसे रह सकता है ?’
"मैंने कहा, यह तुम्हारी कैसी बुद्धि है, - तुम 'कच्चे मैं' का त्याग करो, - जो 'मैं' कामिनी और कांचन की ओर ले जाता है । परन्तु मैं 'पक्के मैं' - 'भक्त के मैं' - 'दास के मैं' का त्याग करने के लिए नहीं कहता । मैं ईश्वर का दास हूँ, - ईश्वर की सन्तान हूँ, इसका नाम है 'पक्का मैं’ । इसमें कोई दोष नहीं ।"
.
त्रैलोक्य - अहंकार का जाना बहुत कठिन है । लोग सोचते हैं, अहंकार मुझमें नहीं है ।
श्रीरामकृष्ण - कहीं अहंकार न हो जाय, इसलिए गौरी 'मैं' का प्रयोग ही नहीं करता था - 'ये' कहता था ! मैं भी उसकी देखा देखी 'ये' कहने लगा, 'मैंने खाया है' यह न कहकर कहता था, 'इसने खाया है ।’ यह देखकर एक दिन मथुरबाबू ने कहा, 'यह क्या है बाबा - तुम ऐसा क्यों कहते हो ? यह सब उन लोगों को कहने दो, उनमें अहंकार है । तुम्हारे कुछ अहंकार थोड़े ही है, तुम्हें इस तरह बोलने की कोई जरूरत नहीं ।’
.
"केशव से मैंने कहा, 'मैं' जाने का तो है ही नहीं, अतएव उसे दासभाव से पड़ा रहने दो - जैसे दास पड़ा रहता है । प्रह्लाद दो भावों से रहते थे । कभी 'सोऽहम्' का अनुभव करते थे - तुम्हीं 'मैं’ हो - मैं ही 'तुम' हूँ । फिर जब अहं-बुद्धि आती थी, तब देखते थे, मैं दास हूँ - तुम प्रभु हो । एक बार पक्का सोऽहम् अगर हो गया, तो फिर दासभाव से रहना आसान हो जाता है - मैं तुम्हारा दास हूँ इस भाव से ।
.
(कप्तान से) "ब्रह्मज्ञान होने पर कुछ लक्षणों से समझ में आ जाता है । श्रीमद्भागवत में ज्ञानी की चार अवस्थाओं की बातें लिखी हैं - पहली बालवत्, दूसरी जड़वत्, तीसरी उन्मत्तवत्, चौथी पिशाचवत् । पाँच साल के लड़के जैसी अवस्था हो जाती है । फिर कभी वह पागल की तरह व्यवहार करता है ।
.
“कभी जड़ की तरह रहता है । इस अवस्था में वह कर्म नहीं कर सकता, कर्म छूट जाते हैं । परन्तु अगर कहो कि जनक आदि ने तो कर्म किया था, तो असल बात यह है कि उस समय के आदमी कर्मचारियों पर भार देकर निश्चिन्त रहते थे, और उस समय के आदमी भी बड़े विश्वासी होते थे ।"
.
श्रीरामकृष्ण कर्मत्याग की बातें करने लगे और जिनकी काम पर आसक्ति है, उन्हें अनासक्त होकर कर्म करने का उपदेश देने लगे ।
श्रीरामकृष्ण - ज्ञान के होने पर मनुष्य अधिक कर्म नहीं कर सकता ।
त्रैलोक्य – क्यों ? पवहारी बाबा इतने योगी तो हैं, परन्तु लोगों के झगड़े और विवादों का फैसला कर दिया करते हैं - यहाँ तक कि मुकदमे का भी फैसला कर देते हैं । 
.
श्रीरामकृष्ण - हाँ, यह ठीक है, दुर्गाचरण डाक्टर इतना शराबी तो है, परन्तु काम के समय उसके होश दुरुस्त ही रहते हैं - चिकित्सा के समय किसी तरह की भूल नहीं होने पाती । भक्ति प्राप्त करके कर्म किया जाय तो कोई दोष नहीं होता । परन्तु है यह बड़ी कठिन बात, बड़ी तपस्या चाहिए ।
"ईश्वर ही सब कुछ कर रहे हैं, मैं यन्त्र स्वरूप हूँ । कालीमन्दिर के सामने सिक्ख लोग कह रहे थे, 'ईश्वर दयामय हैं ।' मैंने पूछा, 'दया किन पर करते हैं ?
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"सिक्खों ने कहा, 'महाराज, हम सब पर उनकी दया है ।'
"मैंने कहा, 'सब उनके लड़के हैं तो लड़कों पर फिर दया कैसी ? वे अपने लड़कों की देखरेख कर रहे हैं, वे नहीं देखेंगे तो क्या अड़ोसी-पड़ोसी आकर देखेंगे ?' अच्छा देखो, जो लोग ईश्वर को दयामय कहते हैं वे यह नहीं समझते कि वे किसी दूसरे के लड़के नहीं, ईश्वर की ही सन्तान हैं ।"
कप्तान - जी हाँ, ठीक है, पर वे ईश्वर को अपना नहीं मानते ।
(क्रमशः) 

*श्री रज्जबवाणी पद ~ ११८*

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*दादू तलफै पीड़ सौं, बिरही जन तेरा ।*
*ससकै सांई कारणै, मिलि साहिब मेरा ॥*
===================
*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग मल्हार ७ (गायन समय वर्षा ऋतु)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
११८ विरह दु:ख । त्रिताल
राम बिना श्रावण सह्यो न जाय,
काली घटा काल ह्वै आई, दामिनी दग्धे माय१ ॥टेक॥
कनक अवास२ वास सब फीके, बिन पिय के सु प्रसंग ।
महा विपति बेहाल लाल३ बिन, लागो विरह भुवंग४ ॥१॥
सूनी सेज हेज५ कहुं कासौं, अबला धरै न धीर ।
दादुर६ मोर पपीहा बोले, ते मारत हैं तीर ॥२॥
सकल श्रृंगार भार ह्वै लागे, मन भाव कछु नांहि ।
रज्जब रंग कौन से कीजे, जे पिव नांहीं मांहि ॥३॥१॥
११८-११९ में अपना विरह दु:ख दिखा रहे हैं -
✦ राम के दर्शन बिना श्रावण मास सहा नहीं जा रहा है । हे माई१ ! यह काली घटा काल रूप होकर दु:ख देने में लगी हुई है, बिजली जला रही है ।
✦ प्रियतम राम के मिलन प्रसंग बिना सुवर्ण के महलों२ का निवास आदि सब भोग फीके लग रहे हैं । प्रियतम३ प्रभु के बिना मुझ पर महा विपत्ती आ रही है । मैं दु:ख से व्याकुल हूं, विरह-सर्प४ खाने के पीछे लग रहा है । मेरी हृदय शय्या आपके बिना शून्य है ।
✦ मैं प्रेम५ की बात किससे कहूँ । आपके बिना मैं अबला नारी धैर्य नहीं धारण कर सकती । मेंढक६ मोर और चातक पक्षी जो बोलते हैं, सो तो मानो मेरे बाण मार रहे हैं ऐसा खेद दे रहे हैं । जब प्रियतम हृदय में नहीं हैं तब प्रेम७ किससे किया जाय ।
✦ अत: संपूर्ण साधन रूप श्रृंगार भार रूप होकर दु:ख देने लगे हैं । मन को कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है ।
(क्रमशः)

शब्दस्कन्ध ~ पद #२९९

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #२९९)*
*राग सोरठ ॥१९॥**(गायन समय रात्रि ९ से १२)*
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*२९९. विरही(ललित ताल)*
*विरहणी वपु न सँभारै ।*
*निशदिन तलफै राम के कारण, अंतर एक विचारै ॥टेक॥*
*आतुर भई मिलन के कारण, कहि कहि राम पुकारै ।*
*सास उसास निमिष नहिं विसरै, जित तित पंथ निहारै ॥१॥*
*फिरै उदास चहुँ दिशि चितवत, नैन नीर भर आवै ।*
*राम वियोग विरह की जारी, और न कोई भावै ॥२॥*
*व्याकुल भई शरीर न समझै, विषम बाण हरि मारे ।*
*दादू दर्शन बिन क्यों जीवै, राम सनेही हमारे ॥३॥*
.
भादी०-वियोगिजनो विरहावस्थायां शरीरध्यासमपि विस्मरति । यथा गोपिका व्यत्यस्त- वस्त्राभरणा: कृष्णान्तिकं ययुः । स्वप्रियं भगवन्तमेव स्मरन् विलपन् व्याकुलो भवति । कथं मे प्रभुदर्शनं भवेदित्येवं रूपेण तस्य मनसि विचारधारोल्लसति । प्रभुदर्शनाय तन्मनो व्याकुलं भवति । पौन: पुन्येन राम रामेति नामोच्चारणं कुर्वन् दर्शनाय प्रार्थयते । श्वासोश्वासबेलायामपि रामं न विस्मरति । किन्तु तदागमनमार्ग प्रतीक्षन् प्रतिक्षणं रौदति । खिन्न: सन् इतस्ततो भ्रमति । चतुर्दिक्षु पश्यति । नेत्राभ्यामश्रुजलं विमुञ्चति । दर्शनाभावेन विरहाग्नौ सततं ज्वलति । नान्यत्किमपि प्रियं रोचते तस्मै । व्याकुली भवति नहि शरीरदशामपि जानाति । यतोहि वियोगबाणाघातैः प्रबलै पीडितोऽस्ति । हे राम! त्वमेव वद । त्वां विना कथमहं जीवेयम् । अस्मिन् भजने निर्विषयया वृत्त्या भाव्यं साधकेनेति निरूपितम् ॥ सैव सुस्थिरावृत्तिरैशं पदमीक्षितुमर्हा ।
.
वियोगी जन को विरहावस्था में शरीर की सुधि(अध्यास) नहीं रहती है, जैसे-गोपियों को नहीं रहा, वे उलटे-सुलटे कपड़े पहन कर भगवान् के पास पहुँचती थीं । इससे अनुमान होता है कि उनको शरीर का भान ही नहीं था, प्रेम में उन्मत्त हो रही थी । ऐसे विरही भक्तों के मन में “भगवान् के दर्शन मुझे कैसे होंगे?” ऐसी विचारधारा चलती रहती है । 
.
प्रभु के दर्शन के लिये उनका चित्त व्याकुल रहता है । बार बार “हे राम ! हे राम !” इन शब्दों को बोलता हुआ दर्शनों की प्रार्थना करता रहता है । श्वास-प्रश्वास लेते हुए भी भगवान् को नहीं भूलता और उनके आने के मार्ग को देखता हुआ रोता रहता है । दुःखी होकर इधर उधर घूमता रहता है । चारों दिशाओं में देखता रहता है । नेत्रों में अश्रुधारा बहती रहती है । 
.
दर्शनों के अभाव में विरहाग्नि में जलता रहता है । उसे कुछ भी प्रिय नहीं लगता, व्याकुल रहता है । शरीर की दशा को भी नहीं जानता क्योंकि वियोग वाणों से पीड़ित रहता है । हे राम ! आप ही कहिये कि मैं आपके दर्शनों के बिना कैसे जीवित रहूंगा? इस भजन में मनोवृत्ति को निर्विषय रखना चाहिये । निर्विषया वृत्ति ही सुस्थिर रह सकती है और वृत्ति की स्थिरता में ही प्रभु को देख सकता है । 
(क्रमशः)

*गुर दादू की बलि बलि जांउं*

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*दादू हमको सुख भया, साध शब्द गुरु ज्ञान ।*
*सुधि बुधि सोधी समझकर, पाया पद निर्वाण ॥*
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*संत टीला पदावली*
*संपादक ~ ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
===========
गुरि म्हारै अैसा गुण किया ।
विष षातां अंम्रित ले दिया ॥टेक॥
षलि षातां मिश्री ले दीई ।
साहिब जांणि इती उनी कीई ॥
ऊजड़ जातां बाट बताई ।
सैंन दिई जिव लियौ बुलाई ॥
कूप परत जिव लीयौ राषि ।
दया करी दीयौ नहिं नाषि ॥
गुर दादू की बलि बलि जांउं ।
टीला जिहिं दीयौ हरि नांउं ॥२७॥
.
मेरे गुरुमहाराज ने मेरे ऊपर ऐसा उपकार किया है कि जिसके कारण मैं विष का पान करने के स्थान पर अमृत का पान करने लगा हूँ क्योंकि उन्होंने विषय-भोग रूपी विष को छुड़ाकर रामनाम रूपी अमृत का उपदेश दिया है ।
.
पहले में खल खा रहा था किन्तु उन्होंने मुझे खाने को मिश्री दी । मैं साहिब रूप परात्पर-परब्रह्म को जान गया, उन्होंने इतना उपकार मेरे ऊपर किया । मैं ऊजड़=कष्टदाई अराजमार्ग पर जा रहा था किन्तु उन्होंने मुझे राजमार्ग बता दिया । मुझे राजमार्ग के संकेत बताकर मेरे विषयों में भटकते मन को राजमार्ग रूपी रामनाम स्मरण करने के मार्ग पर लगा दिया ।
.
मेरा मन कुवे में पड़ने जा रहा था किन्तु गुरुमहाराज ने मुझे गिरने से बचा लिया । मेरे ऊपर दया करके मुझे अपनी शरण में रख लिया । मुझे उन्होंने डूबने को ढकेला नहीं । टीला गुरुमहाराज दादूजी के चरणों में बार-बार न्यौछावर होता है जिन्होंने मुझको परात्पर-परब्रहम-हरि का निर्मल नाम प्रदान किया ॥२७॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2023

*२८. काल कौ अंग ७७/८०*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२८. काल कौ अंग ७७/८०*
.
आइ करी कारीगरी, ते पनि ढ़ाहि२ रांम ।
कहि जगजीवन घर कर्या, कहाँ धूलि कै धाम ॥७७॥
(२. ढाही=नष्ट कर दी)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव की कितनी ही कलाकारी क्यों न हो उसे रामजी उसी प्रकार ढहा देते हैं जैसे धूल के घर  बालक बनाते तो हैं पर फिर वे ढह जाते हैं ।
.
हरि बिन ए सब झूंठ है, घर मंदिर गढ़ कोट ।
कहि जगजीवन ऊबरैं, जे रहै रांम की वोट३ ॥७८॥
(३. वोट=शरण) 
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु के बिना सब घर मंदिर किले सब झूठ हैं । वे ही पार पाते हैं जो प्रभु शरण में रहते हैं ।
.   
कहि जगजीवन धरी४ पर, धर्या धरी का अंस ।
ते सब आंन धर्या रह्या, जब हरि खेल्या हंस ॥७९॥
(४. धरी=स्थिर वस्तु)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इस धरती पर सब  धरती धारक का ही अंश है । जब परमात्मा रुपी हंस खेलते हैं, जब हंस उड़ जाता है तो सब धरा ही रह जाता है ।
.
मांटी मांटी सौं मिली, स्वास स्वास में बास ।
हंस समाना हेत हरि, सु कहि जगजीवनदास ॥८०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु की दी हुयी मिट्टी मिट्टी में ही मिल जाती है । हर सांस में उसकी सुगंध रहती है । कृपालु हरि हंस जैसे अपने परों से जीव की रक्षा करते हैं ।
(क्रमशः)

*च्यार भुजा पट बाहु दिखावत*

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*तब हंसा मन आनंद होइ,*
*वस्तु अगोचर लखै रे सोइ ।*
*जा को हरि लखावै आप,*
*ताहि न लिपैं पुन्य न पाप ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ पद्यांश. ४०५)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*प्रेम हुवै कब हेम डरौ१ तन,*
*अंग खुलें कब हूँ बध जावै ।*
*और नई आसवाँ२ पिचकारनि,*
*लाल प्रिया युग भाव समावै ॥*
*ईश्वरता सु प्रमाण करो,*
*जगनाथ हु छेतर देखन आवै ।*
*च्यार भुजा पट बाहु दिखावत,*
*बात अनूपम ग्रंथ हु गावै ॥३१३॥*
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आपको कभी प्रेमावेश होता था तब आपका गौर शरीर तप्त स्वर्ण के पिंड१ के समान लाल हो जाता था। कभी प्रेम से संधियाँ खुल कर अंग फूल जाते थे।
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आपकी एक और ही प्रेम की नई रीति थी कि प्रेम के आंसू२ इस प्रकार चलते थे कि मानो श्रीलाल जी की तथा प्यारीजी की युगल पिचकारी छूटती हैं। इस प्रकार प्रेम भाव के समुद्र में आप डूबे रहते थे।
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यदि कहो कि मूल में इनकी ईश्वरता का कथन किया है, सो प्रमाणित करो, तो जगन्नाथ क्षेत्र का दर्शन करने आप आये तब वहाँ सब को एक समय प्रेम नृत्य करते-करते चतुर्भुज होकर आपने दर्शन दिया था।
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तब लोगों ने कहा-चतुर्भुज होना तो इस क्षेत्र का प्रभाव ही है। तदनन्तर आप ने षट् भुज होकर दर्शन दिया था। आपने जो हितोपदेश जीवों को दिया सो बड़ा अनुपम है। उसका गायन ग्रंथों में कवियों ने किया है।
(क्रमशः)

बुधवार, 22 फ़रवरी 2023

*अहंकार ही विनाश का कारण तथा ईश्वर-लाभ में विघ्न है*

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*आपा पर सब दूर कर, राम नाम रस लाग ।*
*दादू अवसर जात है, जाग सकै तो जाग ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ निष्काम पतिव्रता का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(४)अहंकार ही विनाश का कारण तथा ईश्वर-लाभ में विघ्न है*
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सब बैठे हुए हैं । कप्तान और भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण बातचीत कर रहे हैं । इसी समय ब्राह्मसमाज के जयगोपाल सेन और त्रैलोक्य आये, प्रणाम करके उन्होंने आसन ग्रहण किया । श्रीरामकृष्ण हँसते हुए त्रैलोक्य की ओर देखकर बातचीत कर रहे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - अहंकार है, इसीलिए तो ईश्वर के दर्शन नहीं होते । ईश्वर के घर के दरवाजे के रास्ते में अहंकाररूपी ठूँठ पड़ा हुआ है । इस ठूँठ के उस पार गये बिना कमरे में प्रवेश नहीं किया जा सकता ।
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“एक आदमी प्रेतसिद्ध हो गया था । सिद्ध होकर उसने पुकारा नहीं कि भूत आ गया । आकर कहा, 'बतलाओ, कौनसा काम करना होगा ? अगर नहीं कह सकोगे तो तुम्हारी गरदन मरोड़ दूँगा ।' उस आदमी ने, जितने काम थे, एक एक करके सब करा लिये । फिर उसे कोई नया काम ही नहीं सूझता था । प्रेत ने कहा, 'अब तुम्हारी गरदन मरोड़ता हूँ ।' उसने कहा, 'जरा ठहरो, अभी आया ।'
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इतना कहकर वह अपने गुरु के पास गया और उनसे कहा, 'महाराज, मैं बड़ी विपत्ति में हूँ, और सब हाल कह सुनाया । तब गुरु ने कहा, 'तू एक काम कर, उसे एक छल्लेदार बाल सीधा करने के लिए दे ।' प्रेत दिन-रात वही काम करने लगा । पर छल्लेदार बाल भी कभी सीधा होता है ? ज्यों का त्यों टेढ़ा बना रहा । इसी तरह अहंकार भी देखते ही देखते गया और देखते ही देखते फिर आ गया ।
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"अहंकार का त्याग हुए बिना ईश्वर की कृपा नहीं होती ।
"जिस मकान में कोई काम-काज (ब्राह्मण-भोजन, विवाह आदि) रहता है तो जब तक भण्डार में कोई भण्डारी बना रहता है, तब तक मालिक का चक्कर उधर नहीं लगता । पर जब भण्डारी स्वयं भण्डार छोड़कर चला जाता है, तब मालिक उस भण्डार-घर में ताला लगा देता है और उसका इन्तजाम खुद करने लगता है ।
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"ईश्वर मानो बच्चे का वली - बच्चा अपनी जायदाद खुद नहीं सम्हाल सकता । राजा उसका भार लेते हैं । अहंकार के गये बिना ईश्वर भार नहीं लेते ।
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"वैकुण्ठ में श्रीलक्ष्मी और नारायण बैठे हुए थे । एकाएक नारायण उठकर खड़े हो गये । श्रीलक्ष्मी चरणसेवा कर रही थीं । उन्होंने पूछा, 'महाराज, कहाँ चले ?' नारायण ने कहा, "मेरा एक भक्त बड़ी विपत्ति में पड़ गया है, उसकी रक्षा के लिए जा रहा हूँ ।' यह कहकर नारायण चले गये । परन्तु उसी समय फिर आ गये । लक्ष्मी ने पूछा, 'भगवन्, इतनी जल्दी कैसे आ गये ?'
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नारायण ने हँसकर कहा, 'प्रेम से विह्वल वह भक्त रास्ते से चला जा रहा था । रास्ते में धोबियों ने सूखने के लिए कपड़े फैलाये थे । वह भक्त उन कपड़ों के ऊपर से जा रहा था, यह देखकर लाठी लेकर धोबी लोग मारने के लिए चले, इसीलिए मैं गया था ।' श्रीलक्ष्मी ने पूछा, 'तो इतनी जल्दी फिर कैसे आ गये ?' नारायण ने हँसते हुए कहा, 'जाकर मैंने देखा, उस भक्त ने धोबियों को मारने के लिए खुद ही पत्थर उठा लिया है । (सब हँसते हैं) इसीलिए मैं फिर नहीं गया ।’
(क्रमशः)

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ ११७*

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*दूजा नहीं और को ऐसा, गुरु अंजन कर सूझे ।*
*दादू मोटे भाग हमारे, दास विवेकी बूझे ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग गुंड(गौंड) ६ (गायन समय - वर्षा ॠतु सब समय)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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११७ सत व्यवहार । दीपचन्दी
आये मेरे पारब्रह्म के प्यारे,
त्रिगुण रहित निर्गुण निज सुमिरत,
सकल स्वांग१ गहि२ डारे ॥टेक॥
माला तिलक करैं नहिं कबहूं, सब पाखंड पचिहारे ।
साँचे साध रहत सादी गति३, सकल लोक में सारे ॥१॥
नाम प्रताप प्रपंच न माने, षट् दर्शन सौ न्यारे ।
भज भगवंत भेष सब त्यागे, एक साँच के गारे४ ॥२॥
जिनके दर्श परस५ सुख उपजे, सो आये चल द्वारे ।
जन रज्जब जगपति सौं ऊंचे, प्राण उधारण हारे ॥३॥११॥
संत व्यवहार दिखा रहे हैं -
✦ परब्रह्म के प्यारे संत हमारे पधारे हैं, वे तीनों गुणों से रहित, निज स्वरूप निर्गुण का ही स्मरण करते हैं । सभी भेषों१ को उठा२ कर दूर डाल दिया है अर्थात कोई प्रकार का भेष चिन्ह नहीं रखते ।
✦ माला नहीं पहनते, तिलक कभी भी नहीं करते । सभी पाखंड वाले पच पच कर हार गये हैं किंतु उनके फंदे मे नहीं आये । सच्चे संत तो सभी लोकों के सभी स्धानों में सादी चेष्टा३ से ही रहते हैं ।
✦ नाम चिन्तन के प्रताप से प्रपंच का सन्मान नहीं करते । जोगी, जंगम, सेवड़े, बौद्ध, संन्यासी, शेष, इन छ: प्रकार के भेष धारियों से अलग ही रहते हैं । भगवान का भजन करके सब भेष त्याग दिये हैं । एक सत्य में ही गलित४ अर्थात निमग्न रहते हैं ।
✦ जिनके दर्शन और चरण स्पर्श५ से हृदय में सुख उत्पन्न होता है, वे संत स्वयं ही चल कर हमारे द्वार पर आये हैं । वास्तव में प्राणियों का उद्धार करने वाले संत जगतपति प्रभु से भी श्रेष्ठ हैं ।
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित गुंड राग ६ समाप्तः ।
(क्रमशः)

शब्दस्कन्ध ~ पद #२९८

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #२९८)*
*राग सोरठ ॥१९॥*
*(गायन समय रात्रि ९ से १२)*
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*२९८. स्मरण (उत्सव ताल)*
*कोली साल न छाड़ै रे, सब घावर काढ़ै रे ॥टेक॥*
*प्रेम पाण लगाई धागै, तत्त्व तेल निज दीया ।*
*एक मना इस आरंभ लागा, ज्ञान राछ भर लीया ॥१॥*
*नाँहीं व नली भर बुणकर लागा, अंतरगति रंग राता ।*
*ताणैं बाणें जीव जुलाहा, परम तत्व सौं माता ॥२॥*
*सकल शिरोमणि बुनै विचारा, सान्हां सूत न तोड़ै ।*
*सदा सचेत रहै ल्यौ लागा, ज्यौं टूटै त्यौं जोड़ै ॥३॥*
*ऐसे तनि बुनि गहर गजीना, सांई के मन भावै ।*
*दादू कोली करता के संग, बहुरि न इहि जग आवै ॥४॥*
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भादी०-साधको जीवस्तन्तुवायो ब्रह्मभजनरूपपट निर्मातुं हृदयस्थानं न जहाति । वृत्तिरूप- तन्तुभ्यो मलविक्षेपादिसकलदोषजातं पृथक् कुरुते तेष्वेव तन्तुषु प्रभु-प्रेमरूपां महणतां योजयते । तत्वचिन्तनरूपस्नेहद्वारा प्रकाशितं तं साक्षिरूपं दीपप्रकाशमाश्रित्यैकतानेनेदं ब्रह्म भजनरूपं परं निर्मातुमारभते ।
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ज्ञानरूपवेमादिकमाश्रयते । नामरूपायां नलिकायां वृतिरूपान् तन्तून् विभर्ति । नामाकारवृत्तिरूपो भवतीति यावत् । इत्थं नलिकां प्रपूर्य पटं निर्माति । अन्त: प्रभुप्रेम्णा परिपूर्णो भवति रज्यते च तत् प्रभु-प्रेम्णा । जीवरूपोऽयं तन्तुवायोवृत्तिसूत्रं परमतत्वरूपे निर्माणविधौ योजयन् मग्न इवाभाति । 
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अतोऽयं जीवतन्तुवायोवृत्तिसूत्रं ब्रह्मभजनरूपे परे संयोज्य न पुन: पृथक् कुरुते, तत् साधुनि ति । सदा तेन सावधानेन स्ववृत्तिं ब्रह्मभजने योजयमानेन भूयते । यदि केनचित्कारणेन वृत्तिर्भज्यते तर्हि सद्यो योजयते । एवं निर्माणविधिद्वारा प्रगाढं भजनरूपं वस्त्रं निर्मात्यसौ । तदैव हि तद्ब्रह्ममनसे रोचते रञ्जयति च तन्मनः । अन्ते चैवं पटनिर्माणकारी तन्तुवायोऽभेद-भावेन ब्रह्म सायुज्यमेत्य न पुनर्भवाय कल्प्यते ।
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इस भजन में श्री दादूजी महाराज जुलाहा और उसके वस्त्र के दृष्टान्त से साधक और उसका भजन तथा ब्रह्मप्राप्ति का वर्णन कर रहे हैं । कपड़ा बुनने वाला जुलाहा ही यहां पर जीव है और ब्रह्मभजन ही कपड़ा बनाना है । जुलाहा उस कपड़े को बनाते हुए हृदयस्थान को नहीं छोड़ता है । वृत्तिरूप तागों से मलविक्षेप आदि सारे दोषों को दूर कर देता है ।
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फिर उन्हीं तागों में प्रभु प्रेमरूपी चिकनाई(पाण) लगाता है । तत्वचिन्तन रूप स्नेह द्वारा प्रकाशित साक्षिरूप दीपप्रकाश को लेकर एकतानता से इस ब्रह्म भजनरूप कपड़े को बनाना प्रारम्भ करता है । ज्ञान रूप वेमादिकों का आश्रय लेता है और नामरूप नलिका में वृत्तिरूप तागों को धारण करता है । इस प्रकार नलिका को वृत्तिरूप तागों से पूर्ण करके उनको प्रेम के रंग से रंगता है ।
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जीवरूप यह जुलाहा वृत्तिरूप तागों को ब्रह्म तत्वस्वरूप निर्माण विधि में लगता हुआ आमग्न सा हो जाता है । अतः जीवरूप जुलाहा वृत्तिरूप सूत को ब्रह्मभजनरूप कपड़े में लगाकर फिर अलग नहीं करता तो वह भजन अच्छा होता है । सदा ही सावधान होता हुआ अपनी वृत्ति को ब्रह्मभजन में लगाता रहता है । यदि किसी कारण से वृत्ति भंग हो जाय तो तत्काल फिर जोड़ देता है ।
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इस प्रकार निर्माण की विधि द्वारा प्रकट भजनरूपी वस्त्र को बनाता है । तब ही ब्रह्म को यह जीव-जुलाहा अच्छा लगता है और उसका मन प्रसन्न होता है । अन्त में इस प्रकार वस्त्र बनाने वाला जीवरुपी जुलाहा अभेद भाव से ब्रह्म सायुज्य को प्राप्त करके फिर संसार में नहीं आता । 
(क्रमशः)

*म्हारौ रे यहु म्हारौ रे*

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*दादू काया कारवीं, देखत ही चल जाइ ।*
*जब लग श्‍वास शरीर में, राम नाम ल्यौ लाइ ॥*
*दादू काया कारवीं, मोहि भरोसा नांहि ।*
*आसन कुंजर शिर छत्र, विनश जाहिं क्षण मांहि ॥*
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*संत टीला पदावली*
*संपादक ~ ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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म्हारौ रे यहु म्हारौ रे । 
कैंता ल्यावौ थारौ रे ॥टेक॥
नागौं आवै नागौ जाई । 
ताथैं साहिब सूं ल्यौ लाई ॥
चलतां कछू न आवै साथि । 
ताथैं दीजै अपणैं हाथि ॥
लेषौ चोषौ काहै करै । 
तूं तौ बात कहत ही मरै ॥
टीला मूरिष चेते नांहिं । 
यूंही१ जनम गवावै कांइ ॥२६॥
(पाठान्तर : १. यौंही)
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मूर्ख प्राणी ‘यह मेरा है’, ‘यह मेरा है’ ही कहता रहता है किन्तु बताओ, आखिर तूं यह तेरा कहाँ से लाया है ॥टेक॥
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तू नंगा ही तो आता है और नंगा ही जाता है । तेरा कुछ भी नहीं है । कुछ भी था नहीं और कुछ भी रहेगा नहीं । तेरा अपना कुछ है तो वह मात्र और मात्र रामजी है । अतः उसी में अपनी लय=वृत्ति को संस्थापित कर । जो भी धन-सम्पत्ति, माल-खजाना तेरे पास है वह मरते समय कुछ भी साथ नहीं जाएगा । अतः उसमें से जितना अपने हाथ से दान कर सकता है उतना कर दे ।
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क्यों इसका हिसाब-किताब करता है । अरे ! तू तो बात कहते-कहते ही मर जाएगा । टीला कहता है, अरे ! मूर्ख ! सावधान क्यों नहीं होता है । क्यों मनुष्य जैसे अमूल्य जन्म को व्यर्थ ही गँवाता है ॥२६॥
(क्रमशः)

सोमवार, 20 फ़रवरी 2023

*२८. काल कौ अंग ७३/७६*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२८. काल कौ अंग ७३/७६*
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जगजीवन सूछीम करै, जैसा सूछीम बाल ।
तैसे ही आकार रहै, तो पुनि ग्रासै काल ॥७३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि साधक जीव को बाल जितना ही पतला ही कर सूक्ष्म कर ले तभी सुरक्षित है अन्यथा काल ग्रसेगा ही ।
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रांम भगति बिन जीव कूं, देखत ग्रासै काल ।
कहि जगजीवन रांम रटि, तजै न माया जाल ॥७४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम जी की भक्ति के बिना जीव को देखते ही काल ग्रसित कर लेता है । संत कहते हैं कि माया जाल त्याग कर राम स्मरण करें ।
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कहि जगजीवन काल हरि, बाड़ी१ बेगा आइ ।
काचा पाका ना गिणैं, मन माया फल खाइ ॥७५॥
{१. बाड़ी=वाटिका(फलों का उद्यान)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि काल हरा भरा बाग देख कर जैसे उसे नष्ट करने जीव आजाते हैं वैसे ही काल भी आजाता है । फिर वह कच्चा पक्का कुछ नहीं देखता मन के माया रुपी सभी फल खा जाता है ।
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औरूं* वो दिन आवसी, औरूं बोल हरि सत्ति ।
कहि जगजीवन बूझ सी, जब दिवलै घट सी बत्ति* ॥७६॥
(*-*. पुनः वह दिन आयगा, जब तेरी मृत्यु होगी, और तेरे पीछे लोग ‘रामनाम सत्त है’- बोलते हुए चलेंगे; क्योंकि तैल और बाती बिना दीपक नहीं जला करता, बुझ ही जाता है ॥७६॥)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जैसै दीपक से तेल समाप्त हो जाने पर वह बुझ जाता ऐसे ही जीव से जब सत्यस्वरूप आत्म निकल जाता है तब लोग उसके पीछे भी फिर राम का नाम ही सत्य कहते हुये चलते हैं ।
(क्रमशः)