रविवार, 31 अगस्त 2014

= विनती का अँग ३४ =(७९)

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*#श्रीदादूदयालवाणी०आत्मदर्शन*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
*विनती का अँग ३४* 
*करुणा*
*तुम को भावै और कुछ, हम कुछ किया और ।*
*मिहर करो तो छूटिये, नहीं तो नांहीं ठौर ॥७९॥*
टीका ~ हे परमेश्वर ! आपको तो सरलता, निश्छलता, निष्कपटता, प्रेमभाव, प्रेमाभक्ति इत्यादिक सद्गुणयुक्त भक्त प्रिय लगते हैं और हमने तो हे दयालु ! इनके विपरीत ही काम किए हैं । आप हमारे ऊपर दया करोगे, तभी हमारा जन्म - मरण आदि दुःखों से छुटकारा होगा, नहीं तो हमको कहीं भी ठिकाना नहीं हैं ॥७९॥
(क्रमशः)

= ७८ =

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卐 सत्यराम सा 卐
राम ! सुनहुन विपति हमारी हो, 
तेरी मूरति की बलिहारी हो ॥टेक॥ 
मैं जु चरण चित चाहना, 
तुम सेवक-सा धारना ॥१॥ 
तेरे दिन प्रति चरण दिखावना, 
कर दया अंतर आवना ॥२॥ 
जन दादू विपति सुनावना, 
तुम गोविन्द तपत बुझावना ॥३॥ 
----------------------------------
चरन साध के धोइ धोइ पीउ ॥ 
अरपि साध कउ अपना जीउ ॥ 
साध की धूरि करहु इसनानु ॥ 
साध ऊपरि जाईऐ कुरबानु ॥ 
साध सेवा वडभागी पाईऐ ॥ 
साधसंगि हरि कीरतनु गाईऐ ॥ 
अनिक बिघन ते साधू राखै ॥ 
हरि गुन गाइ अम्रित रसु चाखै ॥ 
ओट गही संतह दरि आइआ ॥ 
सरब सूख नानक तिह पाइआ ॥६॥ 
(SGGS 283) 
.
Wash the feet of the Holy, and drink this water. The feet of saint can be obtained at the second spiritual stage. They do not refer to physical feet. Dedicate your soul to the Holy. Take your cleansing bath in the dust of the feet of the Holy. To the Holy, make your life a sacrifice. Service to the Holy is obtained by great good fortune. In the Saadh Sangat, the Company of the Holy, the Kirtan(Divine Music) of the Lord's Praise is sung. From all sorts of dangers, the Saint saves us. Singing the Glorious Praises of the Lord, we taste the ambrosial essence. Seeking the Protection of the Saints, we have come to their door. All comforts, O Nanak, are so obtained. 
गुरु साहिब फरमा रहे हैं कि साध-सन्त के चरण को धोवो और उसकी धोवन(चरणामृत) का पान करो । अब ये चरण जिस्मानी चरण नहीं है बल्कि ये चरण तो ब्रह्म पद में मिलते हैं । तुलसीदास जी उन चरणों की सुन्दरता और ओजस्व का ऐसे वर्णन करते हैं कि उनके पैर के एक नाखून से ही करोड़ों मणियों की प्रकाश निकलता है । उनके पैरों के नूरानी प्रकाश में आत्मा जब स्नान करती है तो उसके जन्मों की मैल साफ़ हो जाती है ।अपना जीवन सन्तो पर न्योछावर कर दो । बहुत ही अच्छे भाग्य हों तो सन्तों की शरण प्राप्त होती है । उनकी संगत में राम-नाम की दिव्य धुन सुनाई देती है । सन्त हमें सभी आपदाओं से बचाते हैं और हमें जीवन की सही मंजिल नसीब होती है । 
.
भाई गुरुदास जी भी फरमाते हैं: 
बेद गिरंथ गुर हटि है जिसु लगि भवजल पारि उतारा । 
सतिगुर बाझु न बुझीऐ जिचरु धरे न प्रभु अवतारा । 
(vaar 1, Pauri 17) 
From that knowledge of the Vedas which gets man across the world ocean even the knowledgeable people get away. So long God does not descend on earth in the form of true Guru, no mystery can be understood.

= ७७ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
समदृष्टी शीतल सदा, अदभुत जाकी चाल । 
ऐसा सतगुरु कीजिये, पल में करे निहाल ॥ 
तौ करै निहालं, अद्भुत चालं, 
भया निरालं तजि जालं । 
सो पिवै पियालं, अधिक रसालं, 
ऐसा हालं यह ख्यालं ॥ 
पुनि बृद्ध न बालं, कर्म न कालं, 
भागै सालं चतुराशी । 
दादू गुरु आया, शब्द सुनाया, 
ब्रह्म बताया अविनाशी ॥ 
---------------------------
आत्मिक मंडलों की चढ़ाई के अनुसार सन्त तीन श्रेणियों में बाँटे जा सकते हैं: १. साध-गुरु २. सन्त सतगुरु ३. परम सन्त सतगुरु । साध-गुरु ऐसे महात्मा को कहा जाता है जो ओंकार(त्रिकुटी) या सूफियों के 'लाहूत' पद से पार चला गया हो । यह रूहानियत की दूसरी मंजिल है । मुसलमान फकीरों के अनुसार साध-गुरु वह है जो 'मुकामे हू' को पार कर चुका हो, जिसने रूह को सब मैलों से शुद्ध कर लिया हो । जिसने तीन गुण, पांच तत्त्व, पच्चीस प्रकृति, मन और माया के परदे, जिनके द्वारा रूह ढकी हुई थी, उतार दिए हों । गुरु अर्जुन देव जी ऐसे संतों के बारे में कहते हैं : 

साध की उपमा तिहु गुण से दूरि ॥ (आदि ग्रन्थ, प्र. २७२) 
साध गुरु वह है जिसने अपने आपको पहचान लिया है कि वह कुल मालिक का अंश है और उसमे समा जाने का यत्न करता है । यह आत्म-बोध के स्तर पर होता है। 

सन्त सतगुरु वह हस्ती हैं, जिसने प्रलय, महा प्रलय अर्थात ब्रह्म, पारब्रह्म के प्रभाव से परे सतलोक या 'मुकामे-हक' में निवास कर लिया हो । यह स्थिति रूहानियत की पांचवी मंजिल पर पहुँचने के बाद होती है । 

परम सन्त सतगुरु वे हैं जो कबीर साहिब के 'अनामी', गुरु नानक साहिब के 'निराले', गुरु रविदास के 'बेगमपुरा' पद में समा कर उस सबसे ऊँची हस्ती से एकमेक हो गये हैं । 

सन्त और परम सन्त में वैसे कोई बड़ा भेद नहीं है । केवल कहने-सुनने का भेद है । सब पूर्ण गुरु सन्त होते हैं पर सब सन्त गुरु नहीं होते । गुरु-पद का अधिकार कुल-मालिक किसी-किसी को प्रदान करता है । जिस प्रकार एल.एल.बी तो हर वकील कर लेता है पर जज कोई-कोई बनता है । 

गुरु संसार में मालिक के भेजे हुए प्रबंधकर्ता होते हैं जो मालिक से बिछड़ी आत्माओं को लेने के लिए उसके हुक्म से आते हैं । गुरु भी तीन प्रकार के हो सकते हैं - एक तो स्वत: यानी बने-बनाए सन्त सतगुरु जो वली मादरजाद होते हैं यानी जो जन्म से ही वली(सन्त) होते हैं: वे धुर दरगाह से ही आते हैं, जैसे कबीर साहिब, गुरु नानक साहिब आदि । ये हस्तियाँ जब आती हैं, परमार्थ का प्रवाह प्रारम्भ कर जाती हैं । उनकी परम्परा में कई गुरुमुख गुरु होते हैं जो उस परम्परा को जारी रखते हैं । कुछ पीढ़ियों के बाद यह कार्य घटता-घटता बिलकुल ख़त्म हो जाता है । फिर लोग कर्मकांड में फँस जाते हैं और उनकी वाणी का अपनी मन-मर्जी से अर्थ निकालते हैं । फिर कोई हस्ती कहीं और आकर परमार्थ का अथाह प्रवाह चलाती है । ऐसे सन्त-सतगुरु हर कौम में आते रहे हैं । दूसरी तरह के वो सन्त हैं जो इस मृत्यु लोक में अपने गुरु की दीक्षा के अनुसार अभ्यास करते हैं और अनामी पद तक पहुँच जाते हैं और मालिक के हुक्म से गुरु-पद प्राप्त करते हैं । वे लोग बनाने से नहीं बनते, बने हुए आते हैं । केवल नाम-मात्र के लिए ही इस जन्म में पूर्ण होते दिखाई देते हैं । तीसरी तरह के वो लोग होते हैं जो अपने गुरु की दया से परिपूर्ण होते हैं और वो उन्हें कुल-मालिक से अरदास करके गुरु पद का अधिकारी बना लेते हैं । गुरुमुख लोग वो होते हैं जो कई जन्मों से पूर्ण हो रहे हैं ।

७. विश्वास का अंग ~ ३

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
.
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*७. विश्वास का अंग* 
.
*नैकु न धीरज धारत है नर,*
*आतुर होई दसौं दिस धावै ।*
*ज्यौं पसु खैंचि तुड़ावत बंधन,*
*जौ लग नीर न आवै ही आवै ॥* 
*जानत नाहिं महामति मूरख,*
*जा घर द्वार धनी पहुंचावै ।* 
*सुन्दर आपु कियौ घड़ि भाजन,*
*सो भरि है मति सोच उपावै ॥३॥* 
*देहपात्र का रचयिता ही उसका पूरयिता* : हे नर ! तूँ कुछ तो धैर्य धारण कर ! क्यों व्यर्थ दुःखी होता हुआ इधर उधर दौड़ रहा है । 
जैसे किसी पशु के सामने जब तक चारा(खाद्य) न आ जाय तब तक वह अधीर होकर अपना बन्धन तुड़ाता रहता है । 
अरे महामति(अधिक बुद्धि वाले) मूर्ख ! तूँ यह क्यों नहीं समझता कि जिस प्रभु(संसार के स्वामी) ने तुझे यह घर द्वार दिया है वही तेरे लिये भोजन का भी प्रबन्ध करेगा । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - जिसने यह सुन्दर देहपात्र रचा है वही इसे भरने(रक्षा करने) का भी उपाय करेगा । अतः तूँ इस विषय में सोच सोच कर दुःखी न हो ॥३॥
(क्रमशः)

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सीकरी प्रसंग १४ वां दिन 
१४ वें दिन अकबर बादशाह ने पू़छा- निर्गुणाराम और अवतारों में क्या भेद है ? यह भी बताइये । दादूजी ने कहा- निर्गुणराम केवल सत्ता मात्र देता है और अवतार उत्पत्ति आदि कार्य करते हैं जैसे -
राजस कर उत्पत्ति करे, सात्विक कर प्रतिपाल । 
तामस कर परलै करे, निर्गुण कौतुकहार ॥ ५ ॥
( साक्षी भू. अं. ३५)
फिर ५४ के पद से राम का स्वरुप इस प्रकार बताया- 
५४. स्वरूप गति हैरान । वर्ण भिन्न ताल
ऐसा राम हमारे आवै, वार पार कोई अन्त न पावै ॥ टेक ॥
हलका भारी कह्या न जाइ, मोल माप नहीं रह्या समाइ ॥ १ ॥
कीमत लेखा नहीं परिमाण, सब पच हारे साधु सुजाण ॥ २ ॥
आगो पीछो परिमित नांहिं, केते पारिख आवहिं जाहिं ॥ ३ ॥
आदि अन्त मधि कहै न कोइ, दादू देखै अचरज होइ ॥ ४ ॥
फिर ये साखियां भी कही-
जामे मरे सु जीव है, रमता राम न होय । 
जामण मरण तैं रहित है, मेरा साहिब सोय ॥ १२ ॥
उठै न बैठे एक रस, जागे सोवे नांहिं ।
मरे न जीवे जगद्गुरु, सब उपज खपे उस मांहिं ॥ १३ ॥
( पीव पह. अंग २०)

= विं. त. ७/८ =

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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
.
*(“विंशति तरंग” ७/८)*
.
*आमेर रणवाश में दादूजी* 
दीन दयालु गुरु भव - सागर, 
सेवक तारण को तन धारी । 
यों कहि भेंट धरी चरणां परि, 
मोति रू लाल धरे भर थारी । 
आप कही बरताय करो पुन, 
आयसु पाय दिये तिहिं बारी । 
छाजन भोजन सूं जन सेवत, 
नौतम अम्बर बाँटत द्वारी ॥७॥ 
आप दीनदयालु हैं, भवसागर में सेवकों को तारने के लिये ही आपने तन धारण किया है । इस प्रकार कहकर पश्‍चात् राणी ने मोती लाल जुहारों से भरा थाल गुरुदेव को भेंट किया । श्री दादूजी ने उसे दीन गरीब ब्राह्मणों में वितरित करवा दिया । राणी ने छाजन - भोजन, नवतन अम्बरों से संतों का सत्कार किया ॥७॥ 
संत उछाव कर्यो कनकावति, 
अम्बपुरी सुख पावत सारे । 
आप अभै पद ताहि दियो गुरु, 
प्रीति लगी जग रीति निवारे । 
साधु समाज करें सतसंग जु, 
राम धुनी नित होय उचारे । 
दीन दयालु सुं भेंटत हैं जन, 
ज्यों शशि देखि कुमोद निहारे ॥८॥ 
राणी ने अति उत्साह से आमेर में संत महोत्सव का आयोजन किया । आमेर नगरवासियों में आनन्द छा गया । गुरुदेव ने रानी को अभयपद की साधना - विधि बताई, जिससे राणी का मन सांसारिक रीतियों से विरक्त होकर प्रभु प्रीति में लग गया । साधु समाज नित्य सत्संग करने लगे, रामधुनी की झड़ी सी लगी रहती । अनेक भक्त सेवक संतदर्शनों को आने लगे । श्री दादूजी का दर्शन पाकर वे इस तरह प्रफुल्लित होते, जैसे शशी को देखकर कुमुद होते है ॥८॥ 
(क्रमशः)
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||दादूराम सत्यराम||

करुणा
तुम को भावै और कुछ, हम कुछ किया और ।
मिहर करो तो छूटिये, नहीं तो नांहीं ठौर ॥ ७९ ॥
टीका ~ हे परमेश्वर ! आपको तो सरलता, निश्छलता, निष्कपटता, प्रेमभाव, प्रेमाभक्ति इत्यादिक सद्गुणयुक्त भक्त प्रिय लगते हैं और हमने तो हे दयालु ! इनके विपरीत ही काम किए हैं । आप हमारे ऊपर दया करोगे, तभी हमारा जन्म - मरण आदि दुःखों से छुटकारा होगा, नहीं तो हमको कहीं भी ठिकाना नहीं हैं ॥ ७९ ॥

शनिवार, 30 अगस्त 2014

ना वह जामै ना मरै


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卐 सत्यराम सा 卐
ना वह जामै ना मरै, ना आवै गर्भवास ।
दादू ऊंधे मुख नहीं, नरक कुंड दस मास ॥ 
कृत्रिम नहीं सो ब्रह्म है, घटै बधै नहिं जाइ ।
पूरण निश्चल एक रस, जगत न नाचे आइ ॥ 
उपजै विनशै गुण धरै, यहु माया का रूप ।
दादू देखत थिर नहीं, क्षण छांहीं क्षण धूप ॥ 
जे नांही सो ऊपजै, है सो उपजै नांहि ।
अलख आदि अनादि है, उपजै माया मांहि ॥

= ७६ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
पहली प्राण विचार कर, पीछे पग दीजे । 
आदि अंत गुण देख कर, दादू कुछ कीजे ॥ 
पहली प्राण विचार कर, पीछे चलिये साथ । 
आदि अंत गुण देखकर, दादू घाली हाथ ॥ 
पहली प्राण विचार कर, पीछे कुछ कहिये । 
आदि अंत गुण देखकर, दादू निज गहिये ॥ 
----------------------------------------- 
Our every action speaks and we have to answer our soul.... 
We listen voice of soul in inner silence. 
Its important to commune with inner... 
Mundane desires drag us on path of falsehood.. 
We forget our aim and objective. 

When we follow inner voice we won't deviate.... 
SO we have to follow path of truth... 
That's the only truth in life. 

Om

७. विश्वास का अंग ~ २

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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*७. विश्वास का अंग* 
.
*धीरज धारी बिचार निरंतर,*
*तोहि रच्यो सु तौ आपुहि अैहै ।* 
*जेतिक भूख लगी घट प्रांन ही,*
*तेतिक तूं अनयासहि पैहे ॥* 
*जौ मन मैं तृष्णा करि धावत,*
*तौ तिहुँ लोक न खात अघैहै ।* 
*सुन्दर तूं मत सोच करै कछु,*
*चंच दई सोई चूंनि हुं दैहै ॥२॥* 
*मुखदाता ही भोजनदाता भी* : तूँ धैर्य के साथ निरन्तर विचार कर कि जिसने तेरी सृष्टि की है, वह स्वयं तुझे भोजन देने के लिये अपने आप आयगा । 
प्राण धारण के लिये तेरे शरीर में जितनी भूख है, उतने खाद्य को तूँ अनायास प्राप्त कर लेगा । 
हाँ, यदि तूँ अपने मन में व्यर्थ की तृष्णा पालेगा, ऐसे तो भाई ! समस्त संसार का खाद्य भी तेरे सम्मुख रख दिया जाय, तब भी तेरा पेट नहीं भरेगा । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - जिसने मुख(चोँच) दी है वह चून(आटा) भी देगा । चिन्ता न कर ॥२॥
(क्रमशः)

= विं. त. ५/६ =

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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“विंशति तरंग” ५/६)*
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अम्बपती - गृहिणी कनकावति, 
भाव भयो कब स्वामिहु देखू । 
पीहर ताहिं पिंपाड़ तणे पुनि, 
तासु रठोड़ सुता जु परेखु ॥ 
राज - पुरोहित लेन पठे गुरु, 
पाद - सरोजहिं देखि विशेषू । 
शीश निवायकरी तिन्ह वन्दन, 
आज भलो दिन स्वामिकुं पेखू ॥५॥ 
इसी अवसर पर आमेर - नरेश की रानी कनकावती के मन में श्री दादूजी के दर्शनों की अभिलाषा जागी । पींपाड़ - नरेश कनकसिंह राठौड़ की पुत्री कनकावती ने श्रद्धाभक्ति से प्रेरित होकर अपने राजपुरोहित को श्री दादूजी की सेवा में भेजा और प्रार्थना की - हे गुरुदेव ! चरण - कमलों का दर्शन देकर कृतार्थ कीजिये । राजपुरोहित ब्रह्मभट्ट ने गुरुदेव के चरणों में शीश निवाकर रानी कनकावती की विनती अर्ज की ॥५॥ 
*राणी ने आपके दर्शन पाकर ही अन्न - जल ग्रहण करने का निश्‍चय किया है । आमेर रानी को दर्शन~ * 
अम्बपुरी चलु आप दया करि, 
सेवक संग सबै सुखदाता । 
ता दिन ही सुनि आप पधारत, 
अम्बपुरी गुरुदेव विख्याता ॥ 
भीतर जाय दिये गुरु दर्शन, 
जोरत पाणि निवावत माथा । 
रानि कहे कनकावति धन्य जु, 
दर्शन पाय मिटे तन तापा ॥६॥ 
दयालु संत उसी समय आमेर के लिये प्रस्थान कर गये, और उसी दिन आमेर महल के रनिवास में पहुँचकर कनकावती को दर्शन दिये । राणी ने हाथ जोड़कर शीश निवाया, और अपने को धन्य - धन्य कहते हुये निवेदन किया - हे गुरुदेव ! आपके पधारने से मेरा सब सन्ताप मिट गया ॥६॥
(क्रमशः)

= विनती का अँग ३४ =(७८)

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टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
*विनती का अँग ३४* 
साहिब सौं मिल खेलते, होता प्रेम सनेह । 
प्रकट दर्शन देखते, दादू सुखिया देह ॥७८॥ 
टीका ~ हे विरहीजनों ! यदि हमारे अन्तःकरण में परमेश्वर का, विरह के सहित पूर्ण प्रेम होता, तो हम विरहीजन, परमेश्वर का प्रकट दर्शन पाकर अपने शरीर में सुखी होते ॥७८॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

*सीकरी प्रसंग दशम दिन(२)*

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*सीकरी प्रसंग दशम दिन(२)*
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पद सुनकर तुलसी ब्राह्मण अपनी आशा को अपूर्ण जान कर लौट गया । बादशाह ने कुसंग के प्रभाव से प्रभावित होकर दादूजी की शक्ति देखने की योजन बनाई । अपने दरबार को पूर्णरूप से भर जाने पर वीरबल के द्वारा, दादूजी की बुलवाया । वीरबल दादूजी की योगशक्ति को जानता था, अतः उसे अकबर के षड्यंत्र से कु़छ भी चिन्ता नहीं थी ।
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दादूजी ने अपनी योग शक्ति से अकबर बादशाह का षड्यंत्र पहले ही जान लिया था, फिर दादूजी ने प्रभु का ध्यान किया तब ध्यान में प्रभु की आज्ञा मिल गई कि तुम बादशाह के दरबार में निशंक जाओ । दादूजी ने वीरबल को कहा - तुम चलो, हम आते हैं । वीरबल ने जाकर सूचना दी उसी समय दादूजी भी कु़छ शिष्यों के साथ दरबार में पहुंच गये ।
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दादूजी ने वहां की स्थिति देखकर प्रभु से कहा -
*ज्यों यहु समझै त्यों कहो, यहु जीव अज्ञानी ।*
*जेती बाबा तैं कही, इन इक न मानी ॥२७॥*
दादू परचा(चमत्कार) मांगे लोक सब,
कह हम को कु़छ दिखलाय ।
समर्थ मेरा सांइयां, ज्यों समझे त्यों समझाय ॥२७॥
(समर्थता अंग २१)
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उक्त साखियां उच्चारण करते ही ईश्वर ने दरबार के मध्य आकाश में तेज पुंजमय एक तखत स्थित करके दादूजी को उस पर बैठा दिया और शिष्यों को दादूजी के पीछे तखत पर खड़ा कर दिया । वह तखत पृथ्वी को स्पर्श नहीं कर रहा था । बादशाह के सम्मुख अधर आकाश में स्थित सबको दूसरे सूर्य के समान भास रहा था ।
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उसे देखकर अकबर बादशाह अपने तख़त से नीचे उतर कर पृथ्वी पर आकर बोला - करामात कहर(भयंकर) है भारी । काजी मुल्ला आदि भी बोले - हम मुरीद तुम पीर हमारे । फिर तेजोमय तख़त अदृश्य हो गया । दादूजी बादशाह के तख़त पर विराज गये ।
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उसे अद्भुत चमत्कार से बादशाह का अज्ञानांधकार नष्ट हो गया । उसने कहा - मेरी आशा पूर्ण हो गई, मानो मुझे खुदा ही मिल गये । मैंने काजी मुल्लाओं के कहने से भ्रम में पड़कर यह सब किया था किन्तु अब मैं आपको गुरु ही मानता हूं ।
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तब दादूजी ने कहा -
चोर न भावे चांदणा, जनि उजियारा होय ।
सुते का सब धन हरुं, मुझे न देखे कोय ॥१६८॥
सूरज साक्षी भूत है, सांच करे सु प्रकाश ।
चोर डरे चोरी करे, रैणि तिमिर का नाश ॥१६७॥
(साँच अंग १३)
फिर बादशाह अकबर ने दादूजी की स्तुति की सो श्रीदादूचरितामृत के पृष्ठ ४०८ में देखें । यहां तो दादूवाणी के प्रसंग ही लिखे जाते हैं ।

= ७५ =

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卐 सत्यराम सा 卐
पंच तत्त्व का पूतला, यहु पिंड सँवारा । 
मंदिर माटी मांस का, बिनशत नहिं बारा ॥ 
हाड़ चाम का पिंजरा, बिच बोलणहारा । 
दादू तामें पैस कर, बहुत किया पसारा ॥ 
बहुत पसारा कर गया, कुछ हाथ न आया । 
दादू हरि की भक्ति बिन, प्राणी पछताया ॥ 
-------------------------------------- 
साभार : Mahant Ramgopal Das Tapasvi

सत्य राम सा 
कारीगर करतार क हुन्दर हद किया, 
दस दरवाजा राख शहर पैदा किया । 
नख सिख महल बनाय क दीपक जो दिया, 
हरिहाँ भीतर भरी भँगार क ऊपर रँग किया ॥ 
परमात्मा जगत का अभिन्न निमितोपादान कारण है । बाजीद कहते है, कर्ता = कारीगरी करके जगत को बनाया । 
दशद्वार बनाकर शरीर रूपी शहर बनाया । महल रूपी शरीर को नख से लेकर शिखा तक बनाकर उसमें आत्मा रूपी दीपक जोड़ = प्रज्वलित कर दिया । उसके अन्दर में तो भंगार = गंदी - संदी, सड़ी - गली वस्तुएँ भरी है, किंतु ऊपर रंग रूपी अच्छी चमड़ी लगा दी है ।

= ७४ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
७२. राज मृगांक ताल 
नीके राम कहत है बपुरा । 
घर मांही घर निर्मल राखै, 
पंचों धोवै काया कपरा ॥टेक॥ 
सहज समर्पण सुमिरण सेवा, 
तिरवेणी तट संजम सपरा । 
सुन्दरी सन्मुख जागण लागी, 
तहँ मोहन मेरा मन पकरा ॥१॥ 
बिन रसना मोहन गुण गावै, 
नाना वाणी अनुभव अपरा । 
दादू अनहद ऐसे कहिये, 
भक्ति तत्त यहु मारग सकरा ॥२॥ 
================== 
साभार : Pravesh K. Singh

“...जीवात्मा के ऊपर चार जड़ शरीर हैं| इसी के लिए संत कबीर साहब के वचन में ‘घूँघट’ शब्द आया है| इन चारों को खोल दें, तो फिर ईश्वर-दर्शन में कोई रुकावट नहीं| इसी को गुरु नानक साहब दूसरी तरह से कहते हैं – 
घरि महि घरि देखाइ देइ 
सो सतगुरु परखु सुजाणु | 
स्थूल में सूक्ष्म, सूक्ष्म में कारण और कारण में महाकारण व्यापक है| इसी को संत दादू दयालजी ने कहा है – 
घर माहैं घर निर्मल राखै, 
पंचौं धोवै काया कपरा | 
घर में घर को पवित्र रखो और पाँचो कायरूप कपडों को धो डालो| स्थूल की पवित्रता बाहरी शौच और अंतःकरण की शुद्धता से होती है| स्थूल की लपेट सूक्ष्म पर से उतर गयी, सूक्ष्म पवित्र हो गया| इसी प्रकार कारण और महाकारण के सम्बन्ध में समझिये| चेतनमय शरीर तब धुल गया, जब महाकारण उस पर से उतर गया| कहने का ढंग अलग-अलग है, किन्तु सब हैं एक तरह| जैसे कई बाजाओं के तारों को एक समान कसकर रखिये, तो सबसे एक ही तरह की ध्वनि निकलेगी| मालूम होता है की इन सब संतों ने एक ही तरह की आत्मोन्नति की थी और एक ही तरह की साधना की थी| केवल कहने का ढंग अलग-अलग है| इन शरीर-रुपी कपड़ों से, घूँघट से जो अपने को नहीं निकलता, वह घर में घर को नहीं देखता और वह ईश्वर को कभी नहीं पा सकता|” 
– महर्षि मेंहीं परमहंस

७. विश्वास का अंग ~ १

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
.
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*७. विश्वास का अंग* 
.
*इन्दव छन्द -*
*होहि निचिंत करै मन चिंत हि,* 
*चंच दई सोई चिंत करैगौ ।* 
*पांव पसारि पर्यो किन सोवत,* 
*पेट दियौ सोइ पेट भरैगौ ॥* 
*जीव जिते जल के थल के पुनि,* 
*पाहन मैं पहुंचाइ धरैगौ ।* 
*भूख ही भूख पुकारत है नर,* 
*सुन्दर तूं कहा भूख मरैगौ ॥१॥* 
*तेरा स्रष्टा ही तेरी चिन्ता करेगा* : तूँ निश्चिन्त हो जा, कोई चिन्ता न कर; क्योंकि जिसने चौंच दी है, वही तुझे भोजन देने की भी चिन्ता करेगा । 
तूँ पैर पसार कर क्यों नहिं सोता, जिस प्रभु ने यह पेट दिया है वही इस को(खाद्य पदार्थ से) भरने का भी प्रयास करेगा । 
इस संसार में जल या स्थल में रहने वाले जितने भी जीव हैं उन की बात तो छोड़, अपितु इतना समझ ले कि वह प्रभु तो पत्थर में रहने वाले जीवों के हेतु भी खाद्य का प्रबन्ध कर देता है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - अरे मूर्ख प्राणी ! क्यों तूं 'भूखा हूँ', 'भूखा हूँ' चिल्ला रहा है ! उस दयालु प्रभु के रहते हुए तूँ भूखा कैसे मर सकताहै ? ॥१॥
(क्रमशः)
#daduji 

सीकरी प्रसंग द्वादश दिन

१२ वें दिन अकबर बादशाह ने पू़छा- वह तेजोमय तखत कहां से आया था ? दादूजी ने कहा- वह तो प्रभु का हम भजन करते हैं उन प्रभु ने हमारी लज्जा रखने के लिये भेजा था और उन्होंने उसे उसी क्षण छिपा दिया । अकबर ने पू़छा - वह प्रभु कहां हैं ? दादूजी ने कहा - 
दादू राजिक रिजिक लीयें खड़ा, देवे हाथों हाथ । 
पूरक पूरा पास है, सदा हमारे साथ ॥ २० ॥
( विश्वास अंग १९)
अकबर बादशाह ने कहा - साहिब अपने भक्तों की पालना करते हैं किन्तु आप तो न तसवीह फेरते, कुरान भी नहीं पढ़ते, सिजदा भी नहीं करते फिर आपकी पालना कैसे करता होगा ? दादूजी ने कहा - 
काया महल में नमाज गुजारुं, तहँ और न आवण पावे । 
मन मणके कर तसवीह फेरु, साहिब के मन भावे ॥ ४२ ॥
दादू दिल दरिया में गुस्ल हमारा, ऊजूकर चित्त लाऊं ।
साहिब आगे करुं बंदगी, बेर-बेर बलि जाऊं ॥ ४३ ॥
पचों संग संभालू सांई, तन मन तो सुख पाऊं ।
प्रेम पियाला पिवजी देवें, कलमा यह ले लाऊ ॥ ४४ ॥
( साँच अंग १३ )
काया मसीत कर पंच जमाती, मन ही मुल्ला इमाम । 
आप अलेख इलाही आगे, तहां सिजदा करे सलाम ॥ २२७ ॥
(परिचय अंग ४)
उक्त रहस्य मय उपदेश सुनकर अकबर ने कहा - इस रहस्य को मुसलमान भी नहीं जानते । वे तो एक पक्ष में बंधे रहते हैं, अतः उनके विचार भी सीमित ही रहते हैं । आपने तो पक्षपात रहित यथार्थ तत्व का कथन किया है । अब आप मुझे निर्गुण ब्रह्म का परिचय भी दें । तब बादाह को ९५ का पद-
९५. वस्तु निर्देश । चौताल
निर्मल तत्त निर्मल तत्त निर्मल तत्त ऐसा ।
निर्गुण निज निधि निरंजन, जैसा है तैसा ॥ टेक ॥
उतपत्ति आकार नांही, जीव नांही काया ।
काल नांही कर्म नांही, रहिता राम राया ॥ १ ॥
शीत नांही घाम नांही, धूप नांही छाया ।
बाव नांही वर्ण नांही, मोह नांही माया ॥ २ ॥
धरणी आकाश अगम, चंद सूर नांही ।
रजनी निशि दिवस नांही, पवना नहीं जांही ॥ ३ ॥
कृत्रिम घट कला नांही, सकल रहित सोई ।
दादू निज अगम निगम, दूजा नहीं कोई ॥ ४ ॥
उक्त पद से निर्गुण ब्रह्मका स्वरुप समझाया । फिर अकबर ने धन्य-धन्य कहकर दादूजी की भूरि-भूरि प्रसंशा की । पश्चात् सत्संग समाप्त हो गया ।

= विं. त. ३/४ =

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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
.
*(“विंशति तरंग” ३/४)*
*बिचूण पधारे गुरुदेव* 
संत मिलाप भये सुख सेवक, 
स्वामिजु वासर तीन रहे हैं । 
होत विदा गुरु आय बिचूण हिं, 
भैरूं सुसेवक भाव लहे हैं ॥ 
मोहनदास करी गुरु - सेवा, 
दोय दिनां लगि संत रहे हैं । 
बागड़ तोल जु पुन्यण ल्यावत, 
स्वामिहु अम्बुज पाँव गहे हैं ॥३॥ 
संतों और सेवकों का मिलाप होने पर सर्वत्र आनन्द छा गया । तीन दिवस विराजकर श्री दादूजी बिचूण ग्राम की ओर पधार गये । वहाँ भैरूं नामक सेवक ने अतीव श्रद्धाभाव से सेवा की । मोहनदास ने भी गुरुसेवा में प्रीति दिखाई । बिचूणग्राम में गुरुदेव दो दिन विराजे । पश्‍चात् तोलाराम बागड़ उन्हें पुन्यण ग्राम में ले आया । चरणकमल पखाल कर अर्चना की ॥३॥ 
*रतनपुरा ग्राम में पधारे* 
आसन पे पधराय गुरु तब, 
दे परिदक्षिण आरति वारे । 
पाँव पखालि पिये सब तोय जु, 
धन्य कहे दिन भाग हमारे ॥ 
आप अभै गति ताहिं दई शुभ, 
रत्नपुरे तब आप पधारे । 
टील लघू जु गुपाल रु छींतर, 
सेवक उच्छव की हरि प्यारे ॥४॥ 
गुरुदेव को आसन पर विराजमान कर प्रदक्षिणा की, दीपथाल से आरती उतारी । फिर सब परिवार ने चरणोदक पीकर अपने को धन्य समझा । तोलाराम बागड़ को अभय गति का वरदान देकर गुरुदेव रत्नपुरा ग्राम में पधारे । वहाँ टीलाजी, लघु गोपाल जी और छीतर सेवक ने अति उत्साह से गुरुदेव का स्वागत किया ॥४॥ 
(क्रमशः)

= विनती का अँग ३४ =(७७)

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*#श्रीदादूदयालवाणी०आत्मदर्शन*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
*विनती का अँग ३४* 
*छिन बिछोह* 
*साहिब सौं मिल खेलते, होता प्रेम सनेह ।* 
*दादू प्रेम सनेह बिन, खरी दुहेली देह ॥७७॥* 
टीका ~ हे साहिब ! यदि हमारे अन्तःकरण में विरह के सहित, आपका पूर्ण प्रेम होता तो, विरहीजन आपसे अभेद होकर खेलते । परन्तु पूर्ण प्रेम और आप परमेश्वर की प्रीति के बिना, यह हमारा शरीर परम दुःखदायक हो रहा है ॥७७॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 28 अगस्त 2014

= ७३ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
शब्द सरोवर सुभर भर्या, हरि जल निर्मल नीर । 
दादू पीवै प्रीति सौं, तिन के अखिल शरीर ॥ 
शब्दों मांहिं राम-रस, साधों भर दीया । 
आदि अंत सब संत मिलि, यों दादू पीया ॥ 
-------------------------------------------- 
साभार : Majisha Mandir Keriya

"SATSANG" Is A School, 
"SANGAT" Is A Class, 
"SPIRITUAL CENTER" Is A Campus, 
"WE" R Student, 
"NAAM" Is Syllabus, 
"SIMRAN" Is Test 
"SHABAD" Is Practical, 
"SATGURU" Is Teacher

= ७२ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
हीरे हीरे तेज के, सो निरखै त्रय लोइ । 
कोइ इक देखै संत जन, और न देखै कोइ ॥ 
नैन हमारे नूर मां, तहॉं रहै ल्यौ लाइ । 
दादू उस दीदार को, निसदिन निरखत जाइ ॥ 
दादू नैनहुँ आगे देखिये, आत्म अंतर सोइ । 
तेज पुंज सब भरि रह्या, झिलमिल झिलमिल होइ ॥ 
------------------------------------------------- 
M Hari Prasad ~ "ALERT TO THE THIRD EYE" 

"It is only a matter of fixing one's thinking on the point which lies exactly between the two eyes. Then all is well. The light is something extremely mobile. When one fixes the thought on the mid-point between the two eyes, the light streams in of its own accord." 

Remember, not concentrating but just remaining alert, just a slight alertness. Look at the tip of the nose and remain slightly alert to the third eye. In fact, the moment you look at the tip of the nose you will become alert to the third eye, because that is the other pole of the nose. One pole, the outer pole, is the tip, the end; the other end of the nose is joined with the third eye. The moment you become aware of the tip you will suddenly become aware of the other end too. But just remain aware, effortlessly aware. You need not be worried. Just open the window and wait. Light is such a moving phenomenon that if the window is open it is going to move in. In fact, it has been knocking on the window for many many lives, but the window has not opened and it cannot force it open. 

OSHO

६ . अधीरज उराहनैं को अंग ~ १२


॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
.
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*६ . अधीरज उराहनैं को अंग*
.
*पेट ही कै बसि रंक पेट ही कै बसि राव,*
*पेट ही कै बसि और खांन सुलतांन है ।* 
*पेट ही कै बसि योगी जंगम संन्यासी सेख,* 
*पेट ही कै बसि बनवासी खात पांन है ॥* 
*पेट ही कै बसि रिषि मुनि तपधारी सब,* 
*पेट ही कै बसि सिद्ध साधक सुजांन है ।* 
*सुन्दर कहत नहिं काहू कौ गुमांन रहै,* 
*पेट ही कै बसि प्रभु सकल जिहांन है ॥१२॥*
॥ इति अधीरज उलहानैं कॊ अंग ॥६॥ 
*समस्त संसार पेट के आधीन* : ये राजा और रंक सब अपने पेट के अधीन हैं । बड़े बड़े रईस एवं जमीन्दार भी पेट के ही वश में हैं । 
ये संसार के योगी, जंगम, संन्यासी, शेख आदि सभी साधक पेट के ही कारण वनवास(एकान्तवास) करते हुए वायुभक्षण कर रहे हैं । 
ऋषि, मुनि, तपस्वी, ज्ञानी, सिद्ध, साधक - ये सब भी पेट के ही वश में हैं । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - हे प्रभो ! यदि आप इन प्राणियों के पेट न लगाते तो किसी को भी वृथाभिमान करने का अवसर न मिलता; क्योंकि इस समय यह समस्त संसार पेट के अधीन होकर ऐसा कर रहा है; अन्यथा न करता ॥१२॥
॥ अधीरज उलहना का अंग संपन्न ॥६॥
(क्रमशः)
#daduji 

सीकरी प्रसंग एकादश दिन 

११ वें दिन बादशाह ने वीरबल को भेजकर सत्संग के लिये दादूजी को बुलवाया । वीरबल ने जाकर प्रार्थना की और कहा- आपने बादशाह को तेजोमय तख़त दिखाकर हिन्दू धर्म की रक्षा की है । दादूजी ने कहा- हमने तो कु़छ नहीं किया था । वह तो संतों का योग क्षेम करने वाले राम की ही लीला थी । वे ही-
देवे लवे सब करे, जिन सिरजे सब लोय । 
दादू बंदा महल में, शोभा करे सब काये ॥ १६ ॥
(साक्षी भूत अं. ३५)
फिर वीरबल ने कहा- पधारिये । दादूजी ने कहा- अब हम वहां जाकर क्या करेंगे ? वहां वे ही वक्ता अधिक जाते हैं, जिनको धनादि की इच़्छा हो । सत्संग की इच़्छा हो तो अब बादशाह को स्वयं ही आना चाहिये । यह कह कर साखी बोली -
रुप राग गुण अणसेर, जहँ मायातहँ जाय । 
विद्या अक्षर पंडिता, तहां रहै घर छाय ॥ २७ ॥
( माया अंग १२)
दादूजी का उक्त वचन सुनकर वीरबल लौट आया और दादूजी का वचन बादशाह को सुना दिया । फिर अकबर बादशाह स्वयं ही दादूजी के पास गया और बोला - मेरी भूल हुई है आप तो क्षमाशील संत हैं । क्षमा ही करेंगे । दादूजी ने कहा-
दादू यह तो दोजख देखिये, काम क्रोध अहंकार ।
रात दिवस जरबो करे, आपा आग्न विकार ।
फिर अकबर ने कहा- आपने हमको महान् चमत्कार दिख दिया है । 
दादूजी ने कहा-
करे कारवे सांइयां, जिन दिया औजूद ।
दादू बंदा बीच में, शोभा को मौजूद ॥
काजी मुल्ला आदि के कहने से तुमको संतों का अनादर नहीं करना चाहिये ।
दादू जब ही साधु सताइये, तब ही ऊँघ पलट ।
आकाश धँसै, धरती खिसै, तीनों लोक गरक ॥ ३ ॥
दादू जिहिं घर निंदा साधु की, सो घर गये समूल ।
तिनकी नींव न पाइये, नांव न ठांव न धूल ॥ ४ ॥
दादू निंदा नाम न लीजिये, स्वप्नै ही जनि होइ ।
ना हम कहैं, न तुम सुनो, हमैं जनि भाषै कोइ ॥ ५ ॥ 
( निन्दा अंग ३२)
उक्त तीनों साखियां सुनकर अकबर ने कहा- अब आगे ध्यान रखूंगा । अब आप बताइये- १- ईश्वर की जाति क्या है ? २- ईश्वर को प्रिय क्या है ? ३- ईश्वर का शरीर क्या है ? ४- ईश्वर का रंग क्या है ?
दादूजी ने कहा- 
दादू इश्क अलह की जाति है, इश्क अलह का अंग ।
इश्क अल्लाह वजूद है, इश्क अलह का रंग ॥
अपने प्रश्‍नों के उचित उत्तर सुनकर बादशाह अति प्रसन्न हुआ और सोचा- इनकी सेवा अवश्य करनी चाहिये किन्तु ये लेते तो कु़छ भी नहीं है । फिर सोचा- मेरा कुरान पढ़ा हुआ तोता ये ले लें तो उसका रत्न जटित पींजरा इनकी सेवा में जा सकता है । फिर बादशाह ने कहा- मेरा तोता कुरान पढ़ा हुआ है आपको कुरान सुनाय करेगा । उसे आप स्वीकार करें । तब दादूजी ने कहा-
दादू यह तन पींजरा, मांहीं मन सूवा ।
एक नाम अल्लाह का, पढ़ हाफिज हुआ ॥ ५९ ॥
दादू अलफ एक अल्लाह का, जे पढ़ जाने कोय ।
कुरान कतेवा इलम सबहि, पढ़कर पूरा हाये ॥ ५५ ॥
( स्मरण अंग २ )



= विं. त. १/२ =

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स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
.
*(“विंशति तरंग” १/२)*
.
*इन्दव छन्द~श्री दादूजी सांभर में*
संत समाज चले मँडली सँग, 
साँभर में गुरुदेव पधारे ।
सन्मुख आय सबै पुरवासिजु, 
हिन्दु रू तुर्क मिले जन सारे ।
साँझ समै पहुँचे गुरु आसन, 
मंगलाचार उछाव अपारे ।
संत सबै मिलि आरति गावत, 
राम धुनी तहँ हो ररंकारे ॥१॥
संत मंडली सहित साँभर नगर में पधारने पर गुरुदेव श्री दादूजी का नगरवासियों ने अति उत्साह से स्वागत किया, सन्मुख आये । हिन्दु और मुस्लमान सभी ने मिलकर मंगलाचार किया, उत्सव मनाया । साँझ समय गुरुदेव अपने आसन पर पधारे । सभी संतों और सेवकों ने मिलकर आरती गाई और रामधुनी सहित कीर्तन किया । संतों ने राम - राम का जाप किया ॥१॥
.
साँभर सेवक दास महेश जु, 
गोविन्द लाल दमोदर भाई ।
खेमानन्द तहाँ हरिदास जु, 
टीकम और दमोदर आई ।
देव सुसेवक भक्त जु आवत, 
स्वामिहु प्रीति करें अधिकाई ।
होत विलास कथा नित नौतम, 
पाद - सरोजहिं देखि लुभाई ॥२॥ 
साँभर सेवकों में से महेश, गोविन्दलाल, दामोदर, खेमानन्द, हरिदास, टीकमदास, दामोदर द्वितीय तथा देवाराम ने गुरुचरणों में अत्यन्त प्रीति के साथ वन्दना की । नित्य - सत्संग और कथा का आयोजन होने लगा । गुरुचरणों को निरख कर सभी आह्लादित हो गये ॥२॥
(क्रमशः)

= विनती का अँग ३४ =(७६)

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टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
*विनती का अँग ३४* 
*तुम्हीं तैं तुम को मिलैं, एक पलक में आइ ।*
*हम तैं कबहुँ न होइगा, कोटि कल्प जे जाइ ॥७६॥*
टीका ~ हे प्रभु ! आपकी कृपा से तो हम, आपको एक पलक में मिल सकते हैं । और हम अपने करणी कर्त्तव्य से तो, करोड़ों कल्प बीतने पर भी आपको नहीं मिल सकते ॥७६॥
ध्यान करे जन प्रीति सौं, बैठि आमली हेठ ।
नारद सौं कही कब मिलै, पूछो हरि सौ नेठ ॥
दृष्टान्त ~ एक आमली के नीचे बैठकर साधु परमेश्वर का ध्यान करता था । परन्तु मन में भक्ति का अहंकार ले रखा था । एक रोज नारद जी आये और संत को नमस्कार किया और बोले ~ मैं नारद हूँ, भगवान के पास कोई समाचार भेजने हों तो, मैं ले जाऊं । साधु बोले ~ भगवान से बोल देना कि आपका खूब तप - जप कर चुके हैं, आप उसको अब जल्दी दर्शन देकर आपके धाम में ले आना । 
नारद जी ने भगवान से जाकर उपरोक्त सब कुछ सुना दिया । भगवान बोले ~ नारद जी ! मैं उसको अभी नहीं मिलूंगा । उसको आप बोल देना कि जितने इमली के पत्ते हैं, उतने तेरे जन्म और होंगे, तब भगवान तेरे को दर्शन देंगे । जब नारद जी आकर, साधु से वही बात बोले ~ तब साधु एकदम भड़क उठा और माला को तोड़ डाली, आसन को फेंक दिया और भगवान् के नाम - स्मरण को छोड़कर, खोटे कर्म करने लगा । 
(क्रमशः)

बुधवार, 27 अगस्त 2014

*सीकरी प्रसंग दशम दिन(१)*

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
.
*सीकरी प्रसंग दशम दिन(१)*
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दशवें दिन तुलसी ब्राह्मण प्रातःकाल ही दादूजी के पास आया और बोला - आज बादशाह तुम्हारे से अतिरुष्ट है, आप उनकी सेवा करो । इत्यादिक अनेक बातें कहकर दादूजी को डराना चाहा किन्तु दादूजी उसकी बातों से लेश मात्र भी नहीं डरे और -
३९१. समर्थ लीला । तिलवाड़ा
*ऐसो राजा सेऊँ ताहि,*
*और अनेक सब लागे जाहि ॥टेक॥*
*तीन लोक ग्रह धरे रचाइ,*
*चंद सूर दोऊ दीपक लाइ ।*
पवन बुहारे गृह आँगणां, छपन कोटि जल जाके घरां ॥१॥
राते सेवा शंकर देव, ब्रह्म कुलाल न जानै भेव ।
कीरति करणा चारों वेद, नेति नेति न विजाणै भेद ॥२॥
सकल देवपति सेवा करैं, मुनि अनेक एक चित्त धरैं ।
चित्र विचित्र लिखैं दरबार, धर्मराइ ठाढ़े गुण सार ॥३॥
रिधि सिधि दासी आगे रहैं, चार पदारथ जी जी कहैं ।
सकल सिद्ध रहैं ल्यौ लाइ, सब परिपूरण ऐसो राइ ॥४॥
खलक खजीना भरे भंडार, ता घर बरतै सब संसार ।
पूरि दीवान सहज सब दे, सदा निरंजन ऐसो है ॥५॥
नारद गावें गुण गोविन्द, करैं शारदा सब ही छंद ।
नटवर नाचै कला अनेक, आपन देखै चरित अलेख ॥६॥
सकल साध बाजैं नीशान, जै जैकार न मेटै आन ।
मालिनी पुहुप अठारह भार, आपण दाता सिरजनहार ॥७॥
ऐसो राजा सोई आहि, चौदह भुवन में रह्यो समाहि ।
दादू ताकी सेवा करै, जिन यहु रचिले अधर धरै ॥८॥
उसे सुनाकर अपनी निर्भयता का पिरचय उसे दिया ।
.
उक्त पद सुनकर तुलसी ब्राह्मण ने कहा -
यहां ज्ञान जानें नहीं, तुमको देशी मार ।
कै को हजरत शरण लो, नांहिं भागो ढूंढार ॥
तुलसी का उक्त वचन सुनकर दादूजी ने अपनी निष्ठा बताने को -
२५१. झपताल
हरि भजतां किमि भाजिये, भाजे भल नांहीं ।
भाजे भल क्यूँ पाइये, पछतावै मांहीं ॥टेक॥
सूरा सो सहजैं भिड़ै, सार उर झेलै ।
रण रोकै भाजै नहीं, ते बाण न मेलै ॥१॥
सती सत साचा गहै, मरणे न डराई ।
प्राण तजै जग देखतां, पियड़ो उर लाई ॥२॥
प्राण पतंगा यों तजै, वो अंग न मोड़ै ।
जौवन जारै ज्योति सूं, नैना भल जोड़ै ॥३॥
सेवक सो स्वामी भजै, तन मन तजि आसा ।
दादू दर्शन ते लहैं, सुख संगम पासा ॥४॥

= ७१ =


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
साधु मिलै तब ऊपजै, हिरदै हरि का भाव । 
दादू संगति साधु की, जब हरि करै पसाव ॥ 
साधु मिलै तब ऊपजै, हिरदै हरि का हेत । 
दादू संगति साधु की, कृपा करै तब देत ॥ 
साधु मिलै तब ऊपजै, प्रेम भक्ति रुचि होइ । 
दादू संगति साधु की, दया कर देवै सोइ ॥ 
साधु मिलै तब ऊपजै, हिरदै हरि की प्यास । 
दादू संगति साधु की, अविगत पुरवै आस ॥ 
साधु मिलै तब हरि मिलै, सब सुख आनन्द मूर । 
दादू संगति साधु की, राम रह्या भरपूर ॥ 
------------------------------------------
Mata Rani Bhatiyani Mandir Majisha Mandir Keriya

साध कै संगि अगोचरु मिलै ॥ 
साध कै संगि सदा परफुलै ॥ 
साध कै संगि आवहि बसि पंचा ॥ 
साधसंगि अम्रित रसु भुंचा ॥ 
साधसंगि होइ सभ की रेन ॥ 
साध कै संगि मनोहर बैन ॥ 
साध कै संगि न कतहूं धावै ॥ 
साधसंगि असथिति मनु पावै ॥ 
साध कै संगि माइआ ते भिंन ॥ 
साधसंगि नानक प्रभ सुप्रसंन ॥२॥ 
सरलार्थ : साधू की संगति से वह प्रभु मिल जाता है जो मन-इन्द्रियों की पहुँच से परे है| साधू की संगति द्वारा जीव सदा प्रसन्न रहता है| साधू की संगति करने से काम, क्रोध, लोभ. मोह, अहंकार वश में आ जाते है| साधू की सन्ति से जीव सबकी चरण धूलि बन जाता है| साधु की संगति करनेवाला मधुर वचन बोलता है| साधू की सन्ति करनेवाले के मन की भटकन समाप्त हो जाती है और उसका मन स्थिर हो जाता है| जीव साधु की संगति द्वारा माया से निर्लेप होकर प्रभु की प्रसन्नता प्राप्त कर लेता है| 

Jai shree radhey krishna 

= ७० =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू मैं दासी तिहिं दास की, जिहिं संगि खेलै पीव । 
बहुत भाँति कर वारणें, तापर दीजे जीव ॥ 
दादू लीला राजा राम की, खेलैं सब ही संत । 
आपा पर एकै भया, छूटी सबै भरंत ॥ 
दादू आनंद सदा अडोल सौं, राम सनेही साध । 
प्रेमी प्रीतम को मिले, यहु सुख अगम अगाध ॥ 
---------------------------------------- 
साभार : Tanuja Thakur shared Forum for Hindu Awakening's photo. 
**Story - All Saints are one** 
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Samartha Ramdas Swami was a great Saint who lived a few centuries ago in a village called Jambgaon in Maharashtra, India. In Hishonour, the people of Jambgaon, till today celebrate His birth anniversary during the nine-day festival of God Rām (Rāmnavami) every year. 

At that time, there lived an old couple called Balkrushna and Putanabai, who were great devotees of Shrī Rām and Samartha RamdasSwami. They would spend their days chanting (repeating God's Name) and praying. Every year, they would chant and walk all the way from their village to Jambgaon, to take part in this festival and to pay respects to Samartha Ramdas Swami. They had been doing this for the last 60 years. 

However, one year, while returning from the festival, they found it very difficult to walk further, due to old age. So they prayed to Ramdas Swami, "Swamiji, from now on we will not be able to take part in the festival. Due to old age, we will not be able to walk for such a long distance. However, we are very grateful that we could travel every year for the last sixty years only because of your grace." 

Next morning, Swamiji appeared in Balkrushna's dream. He said to Balkrushna, "Dear Balkrushna, do not worry. Celebrate the festival in your city. I will visit you there." Balkrushna was very happy by this dream. 

A year passed. According to the guidance given, the couple started making preparations to celebrate the festival in their home. Eight days of the festival passed. Balkrushna and Putanabai eagerly waited for Swamiji's visit. 

However, when the rituals for the ninth day started, unexpectedly, another great Saint, Shrī Gajanan Mahārājvisited their celebrations. Balkrushna and Putanabai were surprised to see Him, but were very happy to have the satsang (company) of a Saint and welcomed Him wholeheartedly. 

As Balkrushna was paying respects to Shri Gajanan Maharaj, he suddenly saw Samartha Ramdas Swami in His place. After a few moments, he could not see Ramdas Swami, and saw Shri Gajanan Maharaj again. Balkrushna was very confused, because he kept seeing Ramdas Swami and Shri Gajanan Maharaj one after another.  

Finally, Ramdas Swami appeared to him and said, "Dear Balkrushna, I have come to visit you today, as promised." 
From this episode, Balkrushna realised that though Saints look different from outside, they are all one and the same. 

Moral: 
We too, may feel that the various Saints or Deities are different from each other due to the way they look, guide behave, etc. However, if we develop faith like Balkrushna and Putanabai, we too, will experience that all Saints are one, being the forms of the same God. Daily chanting (repeating) of God’s Name is a sure way to develop such faith.