गुरुवार, 31 जनवरी 2013

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/४७-४९)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*दादू मनसा वाचा कर्मणा, आतुर कारण राम ।*
*सम्रथ सांई सब करै, परगट पूरे काम ॥४७॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! मन - वचन - कर्म से जो भक्त, प्रभु दर्शनों के लिए बिरह से व्याकुल रहते हैं, उन भक्तों के सन्मुख, समर्थ प्रभु प्रकट होकर सब काम पूर्ण करते हैं ॥४७॥ 
ये यथा मा प्रपद्यन्ते तान् तथैव यजाम्यहम् । 
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते । 
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ 
मेरे में जो स्थित रहै, करै निरंतर ध्यान । 
उन भक्तों के योग का, क्षेम स्वयं हि आन ॥ 
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*नारी पुरुषा देख करि, पुरुषा नारी होइ ।*
*दादू सेवक राम का, शीलवन्त है सोइ ॥४८॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अभिप्राय यह है कि पतिव्रता स्त्री, अपने पति के अतिरिक्त, दूसरे पुरुष को देखती है तो वह पुरुष उसको अपने समान स्त्री रूप ही दीखता है और अपने पति को ही पुरुष जानती है । ऐसे ही सच्चे परमेश्वर के पतिव्रत - धर्म को धारण करने वाले भक्त भी सम्पूर्ण स्त्री - पुरुषों व देवी - देवताओं को नि:संशय अपने समान प्रभु के दास(पुरुष) ही जानते हैं और वे नारी - पुरुष में अभेद रूप से "आतम सो परमात्मा" का ही भाव वर्तते हैं - "नारी पुरुष का नाम धर, इहि संशय भ्रम भुलान । सब घट एकै आतमा" जानते हैं और निष्काम भाव से पति परमेश्वर का पतिव्रत - धर्म धारण करने वाले भक्त भी एक निरंजन देव को ही अपना स्वामी जानते हैं ॥४८॥ 
विशेष - नौ द्वार के इस शरीर को जीवात्मा का "पुर" कहा जाता है, वह चाहे पुरुष का हो चाहे स्त्री का । उस पुर में शयन करने वाले जीव तत्व की संज्ञा पुरुष है, शरीर की नहीं ।
सुनकै बन्दी राबिया, जन चलि आये च्यार । 
शील एकता सब्रर सम, बीबी कही विचार ॥ 
दृष्टान्त - मुसलमानों में एक बन्दी राबिया नाम के भक्त हुए हैं । वह एक खुदा के पतिव्रत - धर्म में ही मस्त रहते थे और परमेश्वर को अपने हृदय में साक्षात्कार कर लिया था । चार देवता(शील, एकता, सब्र, सम) इनकी परीक्षा करने आये और बोले - हमको अपने हृदय में रखो । आप बोले - मेरे हृदय में तो एक परमेश्वर है और को जगह नहीं है । बीबी के पास चले जाओ । बीबी बोली - मेरा हृदय तो मियां आपसे पूर्ण हो रहा है, खाली नहीं है । चारों देवता राबिया के सामने नतमस्तक होकर बोले - आपको धन्य है, धन्य है । 
*आन लग्न व्यभिचार*
*पर पुरुषा रत बांझणी, जाणे जे फल होइ ।*
*जन्म बिगोवै आपना, दादू निष्फल सोइ ॥४९॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जो स्त्री आप तो बांझ है और अपने पति को नपुंसक समझकर पुत्र उत्पत्ति के लिये पर - पुरुषों से रति - सुख लेती है, तो भी पुत्र प्राप्त नहीं होता । पतिव्रत धर्म से विमुख होकर मानव - जीवन को व्यर्थ गँवाती है । इसी प्रकार परमार्थ पक्ष में ध्यान, धारणा, भक्ति, वैराग्य आदि के बिना नाना कामना रूप बांझपन को अपने में न जानकर और निरंजनदेव में असमर्थता का दोष अध्यास करके सकामी जिज्ञासुजन ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदिक देवी - देवताओं की ओर दौड़ते हैं, तथापि ज्ञान एवं मोक्षरूप फल की प्राप्ति के बिना ही मनुष्य के शरीर को वृथा ही गँवा देते हैं ॥४९॥ 
(क्रमशः)

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/४४-४६)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*पतिव्रत*
*दादू मनसा वाचा कर्मना, अंतर आवै एक ।*
*ताको प्रत्यक्ष राम जी, बातें और अनेक ॥४४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिन भक्तों की मन - वचन - कर्म से प्रभु में लय लगी है, उन भक्तों को परमेश्वर के स्वरूप का साक्षात्कार होता है, बाकी तो सब बातें करने वाले निरर्थक ही जन्म को गँवाते हैं ॥४४॥ 
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*दादू मनसा वाचा कर्मना, हिरदै हरि का भाव ।*
*अलख पुरुष आगे खड़ा, ताके त्रिभुवन राव ॥४५॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिन भक्तों के हृदय में मन - वचन - कर्म से प्रभु का स्मरण रहता है, उनके सन्मुख ही स्वयं परमेश्वर उनका कार्य करने को खड़े रहते हैं । ऐसे भक्तजनों को धन्य है ॥४५॥ 
कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा 
बुद्धयात्मना वाSनुसृतस्वभावात् । 
करोति यद्यत्सकलं परस्मै 
नारायणायेति समर्पयेत्तत् ॥ 
(भागवत - ११ - २ - ३६)
तन, मन, वचन, इन्द्रियों व बुद्धि से जो भी स्वाभाविक कर्म होते हैं, वे सब परमपुरुष नारायण भगवान् के अर्पण कर दो ।
ग्राम मीर खुशरो रहै, बाहिर और फकीर । 
ताको परचो ना भयो, मेह बरसायो मीर ॥ 
दृष्टान्त - एक गांव में मीर खुशरो रहते थे । वे ईश्वर के भक्त थे । अपना हार - श्रृंगार करके परमेश्वर को अपना पति मानते थे । एक रोज गांव के लोग वर्षा न होने से दुखी होकर, गांव के बाहर एक संत आये हुए थे, उनके पास गए और बोले - महाराज ! वर्षा नहीं होती है । क्या करें ? महात्मा बोले - मेरी तूंबी का जल है क्या जो बरसा दूँ ? सब लोग महात्मा को नमस्कार करके गांव की ओर आने लगे । रास्ते में मीर खुशरो मिले । इनको नमस्कार करके लोग बोले - आपने यह श्रृंगार किसके लिये किया ? मीर बोले - मेरे पति परमेश्वर के लिए । गाँव वाले बोले - आपके पति से पानी तो बरसवा दो । यह सुनकर मीर खुशरो अपने चूड़े पर हाथ रखकर बोले - "इस चूड़े की लाज रखना प्रभु !" यह बोलकर राग मेघ मल्हार गाई । तुरन्त पानी की भारी वर्षा होने लगी । जय - जयकार हो गया दुनिया में । जिसके हृदय में प्रभु का भाव होता है, उसके सामने ही प्रभु खड़े रहते हैं ।
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*दादू मनसा वाचा कर्मना, हरि जी सौं हित होइ ।*
*साहिब सन्मुख संग है, आदि निरंजन सोइ ॥४६॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जो भक्तजन मन - कर्म - वचन से हृदय में प्रभु का भाव धारण करके परमेश्वर से प्रीति करें, तो उनके सन्मुख ही माया - प्रपंच का आदि कारण, आप स्वयं निरंजनदेव, उनके साथ लगे हुए रहते हैं । एक क्षण - भर भी प्रभु उस भक्त का त्याग नहीं करते हैं ॥४६॥ 
(क्रमशः)

बुधवार, 30 जनवरी 2013

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/४१-४३)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*सारा दिल सांई सौं राखै, दादू सोई सयान ।*
*जे दिल बंटै आपना, सो सब मूढ़ अयान ॥४१॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जो पुरुष अपने अन्तःकरण की वृत्तियों को एक परमेश्वर में ही एकाग्र किये रहे, वही पुरुष बुद्धिमान् है । किन्तु जो पुरुष परमेश्वर से अपनी वृत्ति हटाकर माया प्रपंच में उलझावे, ऐसे पुरुष मूर्खा में अधम हैं ॥४१॥ 
सुलतानी गयो बलख तज, रह्यो एकान्त हि जाइ । 
सुत त्रिय गये दीदार को, नैंन बूंद बन जाइ ॥ 
दृष्टान्त - बलख बुखारे के बादशाह सुलतानशाह फूलों की सेज पर शयन किया करते थे । फूलों की शैया तैयार करने वाली बांदी एक रोज उस शैया पर लेट गई । तुरन्त गहरी निद्रा आ गई । बादशाह ने देखा तो हाथ में बेंत लेकर उसके जोर से मारा । बांदी तुरन्त खड़ी हो गई और हँसने लगी । बादशाह बोला - तूं हँसती क्यों है ? बांदी - मैंने इस सेज पर आधा घंटा शयन की होगी, उस पर मेरे एक बेंत पड़ी और जो इस सेज पर रोजाना सोते हैं और भोग भोगते हैं, उनके न मालूम कितनी बेंत पड़ेंगी ? इसलिए मुझे हँसी आ रही है । सुलतानशाह को तत्काल तीव्र वैराग्य हो गया और उसी समय राज को त्याग करके मालिक को याद करते हुए, एक हंडी और गुदड़ी हाथ में लेकर घूमते हुए दिल्ली में आ गए और एक भाड़ भूनने वाले के सामने खड़े हो गये । भाड़ भूनने वाला बोला, "कौन है ? कहाँ का है ? कहाँ रहता है ?" सुलतानशाह बोले - "जो हूँ तेरे सामने खड़ा हूँ, कहीं का नहीं हूँ, जहाँ ठहरा, वहीं का हूँ ।" "भाड़ झोंकेगा" ? शाह ने कहा - "हाँ, झोकूंगा ।" सेवक बनकर वह भाड़ झोंके और उसकी दुकान पर पड़ा रहे । भीतर ज्ञान और वैराग्य में मस्त बना रहे । एक ब्राह्मण को दुःखी देखकर बोला - "बलख बुखारा चला जा, तुझे एक हजार रूपया मिल जाएगा ।" लिख दिया कि इसको एक हजार रूपया दे देना । परन्तु मेरा पता नहीं बताना । ब्राह्मण वहाँ गया । शहजादा से मिला, पत्र दिया । शहजादा ने और सुल्तानशाह की बेगम ने ब्राह्मण को एक हजार की जगह दो हजार रुपया देकर सुलतानशाह का पता ले लिया । शहजादा अपनी माता के सहित दिल्ली घूमने आए । दिल्ली के बादशाह ने उनकी अगवानी की और पूर्वोक्त सब वृत्तान्त सुनाया । जिधर वह भाड़ झोंक रहा था, उधर ही हाथी की सवारी से आए । सुलतानशाह को देख कर बेगम बोली - 
जिन सिर एता भार, सो क्यूं झोंके भाड़ नै ।
(भार = बलख बुखारे की बादशाहत)
तब सुलतानशाह ने उधर देखा, अपनी गुदड़ी कंधे पर डाली, हंडी हाथ में उठाई और बोले - 
यातैं मरूं मैं भार, तातैं झोंकूं भाड़ नैं ।
(मैं भार = अहंकार से दबा) यह कह कर चल पड़े । ऐसे परमेश्वर के भक्त अपना दिल परमात्मा से लगाकर साबुत रहते हैं ।
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*दादू सारों सौं दिल तोरि कर, सांई सौं जोड़ै ।*
*सांई सेती जोड़ करि, काहे को तोड़ै ॥४२॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! देवी - देव, भैरूं - भूत, कुल - कुटुम्ब, माया - प्रपंचों से मन को हटा कर परमात्मा मही मन को लयलीन करिये । और जब परमात्मा में लीन हो जावे, तो फिर मन को विषय - वासनाओं की ओर आसक्त न होने दें अर्थात् मन को परमात्मा में ही एक रस बनाकर रखें ॥४२॥ 
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*साहिब देवै राखणा, सेवक दिल चोरै ।*
*दादू सब धन साह का, भूला मन थोरै ॥४३॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! परमेश्वर ने जीवात्मा पर दया करके मनुष्य शरीर रूपी धरोहर, कहिए धन दिया है नाम का स्मरण क रने के लिए और यह कहा है कि मेरी दी हुई धरोहर का दुरुपयोग नहीं करना । इस मनुष्य शरीर को सफल बनाकर मेरे स्वरूप में आकर मिल जाना । परन्तु यह अज्ञानी मानव, परमेश्वर से दिल को चुराकर माया - प्रपंच, रिद्धि - सिद्धि, कुल - कुटुम्ब, स्त्री - पुत्र आदिक में आसक्त रहता है । हे अज्ञानी जीव ! जो परमात्मा का सच्चिदानन्द स्वरूप है, वही रूप तेरा है, परन्तु तूने प्रमादवश, माया के प्रलोभन में फँसकर अपने अपार स्वरूप को भूल गया है । अब अपने स्वस्वरूप को संभाल कर आनन्दमय हो जा ॥४३॥ 
गोद लियो सुत जेठ, सर्वस सौंप्यो तास को । 
करि मूढ़मति नेठ, थैली ले न्यारी धरी ॥ 
दृष्टान्त - एक वैश्य कुल की बाई ने अपने जेठ का लड़का गोद ले लिया और उसे अपनी सारी सम्पत्ति, तिजोरी वगैरा सौंप दी । उसने अलग थोड़ा काम किया, एक हजार रुपया नफा मिला । उस एक हजार रुपये की थैली को दूसरी अलमारी में रख दिया । एक रोज उस बाई ने अलमारी देखी, तो उसमें रुपया रखा है । पूछा - यह रुपया कैसा है ? बोला - मां, मैंने अलग काम किया है, उसके नफे का यह मेरा रुपया है । बाई ने सोचा, इसके भाग्य में तो एक हजार रुपया ही है, मैंने इसको लाखों की सम्पत्ति संभलवा दी । यह तो कुछ दिन में सब सम्पत्ति नष्ट कर देगा । बाई ने धीरे - धीरे तिजोरी वगैरा सम्पूर्ण सम्पत्ति अपने काबू में कर ली और एक हजार रुपया अपनी तरफ से और देकर बोली - इस दो हजार से अपना अलग काम करो । फिर वह मूढ़ पछताने लगा ।
वैसे ही दृष्टान्त में परमेश्वर ने इस जीव को मनुष्य - देह रूपी बड़ी पूंजी सँभलाई है । अज्ञानी जीव, इससे विषय - वासना रूपी तुच्छ सुख प्राप्त करके राजी होने लगा । तब फिर परमेश्वर ने मनुष्य देहरूपी धरोहर को छीन लिया । 
(क्रमशः)

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/३८-४०)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*पर पुरुषा सब परहरै, सुन्दरी देखै जागि ।*
*अपणा पीव पिछाण करि, दादू रहिये लागि ॥३८॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! निष्कामी भक्तजन स्वस्वरूप का बोध करके माया के प्रपंच अर्थात् मायिक पदार्थों का तन - मन से त्याग कर देते हैं और पति परब्रह्म स्वरूप का साक्षात्कार करके उसी में अभेद होते हैं ।
सर्याति नृप की सुता, दई च्यवन को ब्याह ।
ते तीनों जल में बड़े, पीछे पति गई पाह ॥ 
दृष्टांत - सर्याति राजा की कन्या सरोवर पर घूमने गई । तीर पर बैठकर दोनों हाथों से पानी ले ले कर एक मिट्टी के टीले पर फेंकने लगी । वह मिट्टी धुलकर सफेद - सफेद आँखें निकल आईं । उसने एक तिनका लेकर आँखों में मारा, खून निकल पड़ा और समाधि से ऋषि उत्थान हो गए । लड़की डरने लगी । राजा सर्याति भी वहाँ आ गए और ऋषि को पूछा - आपका क्या नाम है ? उन्होंने कहा - मेरा च्यवन ऋषि नाम है । राजा ने विचार किया कि अब इनकी सेवा के लिए मैं अपनी लड़की को ही इनके पास दासी रूप से छोड़ दूँ । फिर राजा बोला - ऋषिराज ! यह लड़की आपको मैंने समर्पित कर दी है, यही आपकी सेवा करेगी । लड़की ने च्यवन ऋषि को अपना पति स्वीकार कर लिया । च्यवन ऋषि ने अश्विनी कुमारों का आह्वान किया और बोले, मेरे शरीर का कल्प करवाओ । अश्विनी कुमार एक पानी के कुण्ड में बहुत सी औषधियाँ डालकर च्यवन ऋषि सहित कुण्ड में उतर गए । वे तीनों महान् दिव्यरूप बन गए । कन्या ने अपने पतिव्रत धर्म के बल पर कहा - "मेरा पति अलग हो जाए" । तत्काल अश्विनी कुमार अलग हो गए और च्यवन ऋषि के साथ अपनी प्रीति करके वह कन्या आनन्द को प्राप्त हुई । ऐसे ही संतपुरुष परमात्मा रूपी पति को पहचान कर और उसके साथ अभेदतारूप आनन्द की अनुभूति करते हैं ॥३८॥ 
*आन पुरुष हूँ बहिनड़ी, परम पुरुष भरतार ।*
*हूँ अबला समझूं नहीं, तूं जानै करतार ॥३९॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! एक समय सतगुरू भगवान् के पास माया ने अपने सात रूप बनाये । आपने तब इस साखी से माया को उपदेश किया है कि हे बहिनड़ी ! हे माया ! हम तो पर पुरुष हैं, तेरा भर्तार स्वामी तो परमेश्वर है । इसलिए अपने चरित्रों से केवल प्रभु को ही रिझाइये । प्रत्युत्तर में, माया सतगुरु भगवान् से प्रार्थना करती है कि हे दयालु ! प्रभु से विमुख होने से मैं तो अबला हूँ आप ही कर्तार के भेद को जानते हो, सो आप मेरे लिए भी उपदेश करिये । यह कहकर माया नतमस्तक हो गई ॥३९॥ 
सात चरित माया किये, गुरु दादू ढिंग आइ । 
स्वामी यह साखी कही, लज्जित ह्वै उठि जाइ ॥ 
दृष्टान्त - जब दादूजी कर डाला(कल्याणपुर) की पहाड़ी पर केवल वनस्पति खाकर कठोर तपस्या कर रहे थे, तो इन्द्र घबड़ा गया और उसने अप्सरा रूप माया को तप - भंग करने के लिये दादूजी के पास भेजा । जब वह काम - जाग्रत हेतु हाव - भावादि चेष्टाएं करने लगी, किन्तु इनका दादूजी के निष्काम मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वे ध्यानावस्था में प्रभु भक्ति में तल्लीन रहे । तब माया ने सात प्रकार के चरित्र रच करके उनको तप से डिगाने के प्रयत्न किए, किन्तु वह अपना मनोरथ पूर्ण करने में असफल रही और हार - थक कर बैठ गई । तब दादूजी ने उससे कहा - "सब हम नारी, एक भरतार ।" इस अखिल ब्रह्मांड में निरंजन निराकार ही केवल पुरुषोंत्तम है, हम सब तो उस जगत्पति परमेश्वर की नारी रूप जीवात्मा है । अत: तुम मुझे पुरुष नहीं, अपनी बहिन कर जानों । मैं तो अभी निरी अबोध बाला हूँ, तुम्हारी इन चेष्टाओं का मन्तव्य समझती भी नहीं । आओ तुम भी उस सृष्टिकर्ता परमपुरुष पतिदेव का परिचय प्राप्त कर जानने का प्रयत्न करो । ये शब्द सुनकर माया अप्सरा बहुत लज्जित हुई और अपने अपराध की क्षमा याचना के साथ प्रणाम करके सुरलोक सिधार गई । 
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*जिसका तिसकौं दीजिये, सांई सन्मुख आइ ।*
*दादू नख शिख सौंप सब, जनि यहु बंट्या जाइ ॥४०॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह नख से शिखा पर्यन्त सम्पूर्ण शरीर जिस प्रभु का दिया हुआ है, निष्काम पतिव्रत - धर्म के द्वारा उस समर्थ के ही अर्पण करिये । क्योंकि यह उत्तम मानव शरीर कहीं माया - प्रपंच में नहीं उलझ जावे ॥४०॥ 
आपा सौंपे राम को, हरि अपनावै ताहि । 
जगन्नाथ जगदीश बिन, आपो दीजै काहि ॥ 
मत्तगयन्द
देत हि देत बोयो जु उगावत, 
भावत है भगवंत भलाई । 
कृपालु कबीर दई द्विज दोवटी, 
ताहि तैं ताके जु बालद आई ॥ 
धान की पोट धन्ना दई विप्रहिं, 
बीज बिना सु कृषि निपजाई । 
हो "रज्जब" रंग रह्यो दिये दान जु, 
दादूदयालु पैसा अर पाई ॥ 
-सुकृत का अंग 
(क्रमशः)

मंगलवार, 29 जनवरी 2013

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/३५-७)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*पतिव्रता गृह आपने, करै खसम की सेव ।*
*ज्यों राखै त्यों ही रहै, आज्ञाकारी टेव ॥३५॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! पतिव्रता स्त्री अपने घर में अपने पति को परमेश्वर रूप जानकर उसकी चैतन्य रूप से उपासना करती है और स्थूल शरीर से स्थूल शरीर की सेवा करती है । जैसे पति अपनी आज्ञा में रखता है, वैसे ही आज्ञा में बनी रहती है । इस प्रकार अपने पति की सेवा करती है । वैसे ही दार्ष्टान्त में, प्रभु के अनन्य भक्तों के एक परमेश्वर का ही पतिव्रत है । वे परमेश्वर के भक्त अनन्य भाव से प्रभु का ही सर्व व्यवहार बर्तते हैं । एक प्रभु आज्ञा की ही उन्हें धारणा है । उनको धन्य है ॥३५॥ 
"निरुध्य चेन्द्रियग्रामं मन: संरुध्य चानघ । 
पतिं देववच्चापि चिन्तयन्त्य स्थिता हि या: ॥"
मातापित्रोश्च शुश्रुषा स्त्रीणां भर्तरि च द्विज !
स्त्रीणां धर्मात्सुधाराद्धि नान्यं पश्यामि दुष्करम् ॥ - महाभारत
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*सुन्दरी विलाप*
*दादू नीच ऊँच कुल सुन्दरी, सेवा सारी होइ ।*
*सोई सुहागिन कीजिये, रूप न पीजे धोइ ॥३६॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! व्यवहार में जैसे कुल, गोत्र आदि से ऊँच - नीच भाव होता है, वैसे ही परमार्थ में आभास बुद्धि की भक्तिरूप सेवा परायणता ही ऊँच - नीच, कुल, जाति आदिक हैं । जैसे व्यवहार में पतिव्रत - धर्म ही सुहाग है, ऐसे ही परमार्थ में निष्काम भक्ति करना ही सुहाग है, हे सज्जनो ! निष्काम भक्ति के बिना "रूप न पीजे धोइ" व्यवहार में सेवा के बिना अति सुन्दर रूप का क्या करें ? परमार्थ में सकाम सेवा एवं देवी - देवताओं की सेवा रूप सुन्दरता निष्फल है अथवा परमेश्वर और परमेश्वर के अनन्य भक्तों के लिये नीच - ऊँच आदिक भेद नहीं हैं । भक्ति ही भक्तों का सुहाग और रूप है ॥३६॥ 
व्याधस्याचरणं धु्रवस्य च वयो विद्या गजेन्द्रस्य का । 
कुब्जाया: किं नाम रूपमधिकं किं तत्सुदाम्नो धनम् ।
का वा जाति: विदुरस्य यादवपते: उग्रस्य किं पौरूषम् । 
भक्त्या तुष्यति केवलं न तु गुणैर्भक्तिप्रियो माधव: ॥ 
(व्याध अच्छे आचरण वाला भी नहीं था, बालक ध्रुव की अवस्था भी कठिन तपस्या करने की नहीं थी, गजेन्द्र शिक्षित भी नहीं था, कुब्जा दासी कोई रूपवती भी नहीं थी, सुदामा गरीब ब्राह्मण था, विदुर उच्चकुल का नहीं था, यादवों का राजा उग्रसेन पौरुषशाली नहीं था । फिर भी भगवान् ने इनकी भक्ति श्रद्धा पर प्रसन्न होकर इन पर कृपा की ।)
रूप बिना नारी भली, सेवा में इकतार । 
अति सुन्दरि सेवा बिना, जगन्नाथ सिर छार ॥ 
सदना अरु रैदास के, कुल कारण नहिं कोइ । 
प्रभु आये सब छोड़कर, बिप्र बैस्नों रोइ ॥ 
दृष्टांत - भक्त सदन कसाई और भक्त रैदास जी चमार थे, इनके विषय में सभी लोग जानते हैं । ये भगवान् के निष्कामी भक्त थे । इनकी भक्ति से भगवान् वश में हुए सदना कसाई शालग्राम की मूर्ति(पत्थर) से माँस तोला करता था । एक वैष्णव भक्त ने सदना से कहा - शालग्राम भगवान् से माँस तोलना ठीक नहीं । अत: यह सालग्राम मुझे दे दो । घर जाकर वैष्णव भक्त ने पवित्र रीति से प्रसाद बनाकर शालग्राम जी के भोग लगाया, परन्तु वैरागी साधु की सेवा - पूजा से अप्रसन्न हुए । रात्रि को स्वप्न में वैष्णव से भगवान् ने कहा - तुम मुझे सदना के पास ही पहुँचा दो मुझे वही अच्छा लगता है । भक्त सदन कसाई की भक्ति ने भगवान् को आकर्षित किया अर्थात् भगवान् सदन कसाई के पास आ गये । वैसे ही रैदास जी चमार थे । वे सालग्राम जी की पूजा करते थे । ब्राह्मणों ने राजा से शिकायत की शूद्र को भगवान् सालग्राम की मूर्ति की पूजा का अधिकार नहीं है । राजा - भगवान् न्याय करेंगे । वैष्णवों और रैदास के बीच में मूर्ति रखी, रैदास जी की भक्ति के वशीभूत होकर भगवान् काशी में ब्राह्मणों को त्याग कर रैदास जी की गोद में आ बैठे । भगवान् तो जाति - पाँति को नहीं मानते, केवल एक भक्ति का ही नाता मानते हैं ।
जाति पाँति पूछो मत कोई, हरि को भजै सु हरि का होई ॥ 
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*दादू जब तन मन सौंप्या राम को, ता सन क्या व्यभिचार ।*
*सहज शील संतोंष सत, प्रेम भक्ति लै सार ॥३७॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! संत पुरुषों ने अपना तन, मन, धन, सर्वस्व प्रभु के अर्पण किया है । उनको व्यभिचार, माया आसक्ति से क्या काम है ? क्योंकि परमेश्वर के भक्तों को मन, वाणी, शरीर द्वारा स्वप्न में भी विषय - विकार, मायावी पदार्थों में आसक्ति नहीं होती है, अथवा हे जिज्ञासुओं ! जब तन, मन आदि सर्वस्व प्रभु के अर्पण कर दिये, तो अब प्रभु से सकामता रूप व्यभिचार क्या करिये ? क्योंकि स्वयं प्रभु ही तुम्हारी योग - क्षेम आदि सर्व कामना पूर्ण करेंगे । तुम तो निद्र्वन्द्व ब्रह्मचर्य, संतोंष, सत, प्रेमा भक्ति द्वारा श्रेष्ठ निष्काम स्वभाव से प्रभु में लय लगाइये ॥३७॥ 
(क्रमशः)

सोमवार, 28 जनवरी 2013

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/३२-३४)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*पतिव्रता निष्काम*
*साहिब जी का भावता, कोई करै कलि मांहि ।*
*मनसा वाचा कर्मना, दादू घटि घटि नांहि ॥३२॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! इस भंयकर कलि - काल में पति को भाने वाले काम करने वाली और पतिव्रत - धर्म में स्थित कोई बिरली ही सुन्दरी रहती है । उसी प्रकार परमात्मा रूप पति को भाने वाले काम मन - वचन - कर्म से कोई बिरले ही जीवात्मा करते हैं । यह पतिव्रत - धर्म घट - घट सम्पूर्ण मनुष्यों में और सर्व स्त्रियों में नहीं होता है । निष्कामी भक्ति और सुहागिनी स्त्रियों में ही यह धर्म स्थिर रहता है ॥३२॥ 
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*आज्ञा मांहैं बैसै ऊठै, आज्ञा आवै जाइ ।*
*आज्ञा मांहैं लेवै देवै, आज्ञा पहरै खाइ ॥३३॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! निष्काम पतिव्रत - धर्म धारण करने वाली सुहागिन स्त्री, पतिरूप परमेश्वर की आज्ञा से बैठती है, उठती है, पहनती है, खाती है, लेना - देना आदि सम्पूर्ण काम करती है, वही सच्ची पतिव्रता है । पति की आज्ञा में ही अपने तन और मन को सदैव रखती है । वैसे ही जीवात्मारूप पतिव्रता परमेश्वर रूप पति की आज्ञा से अपने तन - मन आदि को पवित्र बनाकर परमेश्वर की सेवा रूप आराधना में लगाये रहती है । परमेश्वर की आज्ञा में ही उनका सम्पूर्ण व्यावहारिक और पारमार्थिक काम होता है, वही धन्य है ।
पतिव्रता खाती त्रिये, कोऊ जन देखत जाइ । 
घृत छाणत हेलो दियो, त्यों ठाड़ी भई आइ ॥ 
दृष्टान्त - एक नगर में खाती भक्त था । एक रोज एक संत आये । उसने संत को नमस्कार किया । परस्पर प्रश्न उत्तर होने लगे । खाती बोला - मेरी स्त्री पतिव्रता है । उस समय वह स्त्री कपड़े में घी डाल कर छान रही थी । संत बोले - उसको बुलाओ । खाती ने आवाज दी "यहाँ आना" । जिस स्थिति में थी, वैसे ही दोनों हाथों में घी भरा हुआ कपड़ा पकड़े ही चली आई । घी नीचे गिरता रहा । पति बोले - वापिस ही चले जाओ । वैसे ही जाकर काम करने लगी । यह लीला देखकर सन्त ने मन में निश्चय किया और बोले - यह देवी सच्ची पतिव्रता ही है, इसका कल्याण होगा अर्थात् यह अखण्ड सुहाग प्राप्त करेगी । दार्ष्टान्त में, हे जिज्ञासुओं ! जीवात्मारूप पतिव्रता स्त्री, परमेश्वर रूप पति की आज्ञा से व्यवहार और परमार्थ के सम्पूर्ण काम करके परमात्मा रूप पति का अखण्ड सुहाग प्राप्त कर लेती है । उनका फिर परमेश्वर से कभी वियोग नहीं होता ॥३३॥ 
नारी धर्म पतिव्रत ही, इक माना जाय महान । 
पतिव्रत बिन नारी का, भव में नहीं है मान ॥ 
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*आज्ञा मांही बाहर भीतर, आज्ञा रहै समाइ ।*
*आज्ञा मांही तन मन राखै, दादू रहै ल्यौ लाइ ॥३४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! निष्काम पतिव्रत - धर्म में स्थिर रहने वाली पतिव्रता स्त्री, पति की आज्ञा से बाहर और भीतर के सम्पूर्ण व्यावहारिक और पारमार्थिक काम करती है । अपने तन-मन को पति की सेवा रूप आज्ञा में सदैव बनाए रखती है । दार्ष्टान्त में, वैसे ही जीवात्मारूप सुन्दरी निष्काम भक्तजन परमेश्वर रूप पति की आज्ञा में समाये हुए रहते हैं और अपने तन - मन का उपयोग परमात्मारूप पति की आज्ञा में करते हैं, वे ही सच्चे भक्त हैं । उनको परमात्मारूप पति का साक्षात्कार रूप सच्चे सुख प्राप्त होता है । अथवा जो विवेकी पुरुष, शरीर के सर्व प्रारब्ध भोगों में प्रभु की आज्ञा मानकर हर्ष - शोक आदि में समान रहते हैं, अपना सर्व व्यवहार ईश्वर पर छोड़ देते हैं, उन्हें धन्य है ॥३४॥ 
छन्द - 
बैठे हैं निराणै स्वामी, उठे हैं आमेर तैं जू, 
आये सीकरी से अरु, गये उत जानिये ।
आल्हण की कामरी, लई है गुरु आज्ञा मान, 
झारी जल दियो पादू, सांची मन आनिये ।
चोलो गुजराती आयो, पहर्यो है गुरु आज्ञा मान, 
पायो परसाद जो, सरौंज को जु मानिये ।
बाहर गुफा से आये, भीतर उत्थौं ही गये, 
गुरु स्वामी अैसे रहे, और सब जानिये ॥ 
दृष्टान्त - हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मऋषि दादू दयाल महाप्रभु अपने आप को परमात्मा की आज्ञा में सदैव रखते थे । शेष नागरूप में परमेश्वर की आज्ञा से नरैना में त्रिपोलिया से खेजड़ा जी स्थान पर आकर बैठे और परमेश्वर की आज्ञा से आमेर से उठे । परमेश्वर की आज्ञा से सीकरी अकबर बादशाह के यहाँ गये । उसे ४० दिन तक उपदेश दिया । बादशाह और राजा भगवतदास मानसिंह के बहुत आग्रह करने पर भी वहाँ नहीं ठहरे और परमेश्वर की आज्ञा से वापिस आमेर आये । परमेश्वर की आज्ञा से आल्हण भक्त की कामरी भेंट करी हुई रख ली । परमेश्वर की आज्ञा से अपनी झारी का जल प्रसाद रूप में उसको पिलाया । गुजरात से तेजानन्द जी के हाथ बणजारों द्वारा भेजा हुआ चोला आया, परमेश्वर की आज्ञा से उसको धारण कर लिया । परमेश्वर की आज्ञा से सिरौंज ग्राम के मोहन दफ्तरी द्वारा भेजा थाल का प्रसाद ग्रहण किया । परमेश्वर की आज्ञा से सिन्ध देश से आई रम्भामाता को आमेर में गुफा से बाहर आकर और दर्शन देकर फिर गुफा में चले गए । ऐसे ब्रह्मऋषि गुरुदेव ने परमेश्वर रूप पति की आज्ञा में व्यावहारिक और पारमार्थिक सम्पूर्ण कार्य किया । इसी प्रकार और भी संत परमेश्वर के हुए । वे सब ब्रह्मऋषि की भाँति परमेश्वर रूप पति का पतिव्रत रूप धर्म धारण किया है । अर्थात् अपने को परमेश्वर की आज्ञा में सदैव बनाये रखे हैं । 
(क्रमशः)

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/२९-३१)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*सुन्दरी विलाप*
*जिसकी खूबी, खूब सब, सोई खूब सँभार ।*
*दादू सुन्दरी खूब सौं, नखशिख साज सँवार ॥२८॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिस परमेश्वर की सत्ता से यह सम्पूर्ण जगत सत्तावान् होकर प्रतीत हो रहा है,उसी परमेश्वर का आप स्मरण करिये । हे सुन्दरी रूप जीवात्मा ! पूर्वोक्त प्रकार से परमेश्वर से मिलकर नख से शिखा पर्यन्त आप अपने मनुष्य - जन्म को सफल बनाओ ॥२८॥ 
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*दादू पंच आभूषण पीव कर, सोलह सब ही ठांव ।*
*सुन्दरी यहु श्रृंगार करि, ले ले पीव का नांव ॥२९॥* 
टीका - हे जिज्ञासु जीवात्मारूप सुन्दरी ! आप अपनी पंच ज्ञानेन्द्रियों को पवित्र बना कर और मन की सोलह कलाओं का मार्जन करके अर्थात् जिस प्रकार पतिव्रता स्त्रियों के पांच आभूषण होते हैं और सोलह श्रृंगार(वस्त्र, अंजन, मेंहदी, जाबक, मांग, शीशफूल, नथनी, कान की बाली, हाथ का कंगन, पांव की पाजेब) सुहागिन स्त्री करती है, वैसे ही पूर्वोक्त प्रकार से इन सबको परमेश्वर रूप पति के स्वरूप में सुसज्जित करिये और फिर परमेश्वर का नाम स्मरण करो । इसी में आपका कल्याण है ॥२९॥ 
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*यहु व्रत सुन्दरी ले रहै, तो सदा सुहागिनी होइ ।*
*दादू भावै पीव कौं, ता सम और न कोइ ॥३०॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जो जीव का आत्मा रूप सुन्दरी, परमेश्वर रूप पति का पतिव्रत धर्म धारण करके और पति की आराधना करती है अर्थात् स्मरणरूपी सेवा करती रहती है, वह सच्ची सुहागिनी है और वही पीव को अत्यन्त ही प्रिय है । उसी का जन्म धन्य - धन्य है ॥३०॥ 
(क्रमशः)

रविवार, 27 जनवरी 2013

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/२६-८)

॥दादूराम सत्यराम॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*साहिब रहतां सब रह्या, साहिब जातां जाइ ।*
*दादू साहिब राखिये, दूजा सहज स्वभाइ ॥२६॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! राम के पतिव्रत धर्म के रहते हुए सभी कुछ जप, तप, तीर्थ, व्रत, दान, पुण्य, सार्थक हो जाते हैं । और कदाचित् मानव परमेश्वर से विमुख रहे तो, उसके सम्पूर्ण शुभकर्म और मनुष्य जन्म की(देही) सौंज व्यर्थ ही नाश हो जाती है । इसलिये साधनों द्वारा एक राम का ही पतिव्रत - धर्म धारण करिये, बाकी भक्ति आदि तो स्वभाव से ही प्राप्त हो जाती है । इसलिए निष्कामभाव से ही राम का पतिव्रत - धर्म धारण करिये ॥२६॥ 
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*मन चित मनसा पलक में, सांई दूर न होइ ।*
*निष्कामी निरखै सदा, दादू जीवन सोइ ॥२७॥* 
टीका - हे जिज्ञासुजन ! अपने मन, चित्त - वृत्ति, मनसा द्वारा एक क्षण भी परमेश्वर के स्मरण से अलग नहीं रहते हैं । ऐसे साधक निष्काम भाव से प्रभु में लय लगाकर परमेश्वर का साक्षात्कार करते हैं और उन्हीं भक्तों का जन्म सार्थक होता है ॥२७॥ 
पयोद ! वारि ददासि वा न त्वदेकचित्त: पुनरेष चातक: ।
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*कथनी बिना करणी*
*जहाँ नाम तहँ नीति चाहिये, सदा राम का राज ।*
*निर्विकार तन मन भया, दादू सीझै काज ॥२८॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! राम के भक्तों को सदैव राम की आज्ञानुसार ही व्यवहार करना चाहिए, उनके हृदय में ही राम - राज्य रहता है । इस प्रकार जिन जिज्ञासुओं के तन - मन - इन्दियाँ निर्विकार, निश्चल होकर परमेश्वर में स्थिर रहते हैं । उनके सम्पूर्ण मानव - जन्म के कार्य सिद्ध हो जाते हैं ॥२८॥
(क्रमशः)

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/२३-२५)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*दादू तन मन मेरा पीव सौं, एक सेज सुख सोइ ।*
*गहिला लोग न जाणही, पच पच आपा खोइ ॥२२॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मवेत्ता मुक्तजन तन - मन को परमेश्वर में एकाग्र करके हृदयरूपी सेज पर सुखपूर्वक आत्म - स्वरूप में निश्चल भाव से सहज समाधि में स्थित होकर ब्रह्मभाव को प्राप्त होते हैं । परन्तु संसारीजन इस तÎव को नहीं समझकर बाह्य विषयों में ही पच - पचकर आत्मतÎव को खो बैठते हैं और महापुरुषों की निन्दा करते हैं ॥२२॥ 
चोखो एक चमार, पंढरपुर बीठल हरी । 
दोनों जीमत लार, मूढ न जाने तास गति ॥ 
दृष्टान्त - पंडलपुर में चोखाराम चमार परमेश्वर का भक्त था । एक रोज रसोई बनाकर भीतर घी का बर्तन लेने गया । एक कुत्ता आया, सब फुलके मुँह में पकड़कर चल दिया । पीछे से इन्होंने देखा । ये बोले - महाराज, ठहरो ! कोरी मत खाओ, चुपड़ने दो । आगे कुत्ता और पीछे घी का बर्तन लिए चोखाराम चले जा रहे हैं । नगर के बाहर जंगल में दोनों पहुँच गए । कुत्ते में भगवान् प्रकट होकर बोले - चोखाराम ! कुत्ते में भी तू मुझे ही देखता है । चोखाराम बोला - कुत्ते में क्या देखता हूँ । आप तो मुझे सम्पूर्ण ब्रह्मांड में दिखाई दे रहे हो । भगवान् बोले - "तैने मुझे कुत्ते रूप में प्रकट किया है, मैं रोज तेरे साथ कुत्ते रूप से प्रकट होकर भोग लगाया करूँगा । रसोई बनती, चोखाराम कहते - भगवन् ! प्रसाद पाओ । यह कहते ही भगवान् कुत्ते रूप से प्रकट हो जाते । दोनों साथ ही जीमते । बहिर्मुख दुनियावी जीव हँसते और कहते, "चोखाराम पागल हो गया । कुत्ते के साथ भोजन करता है ।" मूढ लोग इस विषय को क्या जानें ? संतों की निन्दा करते रहते हैं ।
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*दादू एक हमारे उर बसै, दूजा मेल्या दूर ।*
*दूजा देखत जाइगा, एक रह्या भरपूर ॥२३॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! हमारे एक भगवान् का ही पतिव्रत है और "दूजा मेल्या दूरि." तीर्थ, व्रत, अन्य देवी - देवता की उपासना, सकाम कर्म, इन सब साधनों को त्यागकर हमने एक परमेश्वर में ही लय लगाई है । अन्य सब साधन विनाशी हैं । माया और माया का कार्य प्रपंच यह सब परिवर्तनशील है, देखते - देखते ही विनाश हो जाएँगे । सर्वव्यापक परमेश्वर ही अविनाशी स्वरूप है । हम तो उसी में लय लगाकर स्थित रहते हैं । आप भी उसमें लय लगाइये ॥२३॥ 
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*निश्चल का निश्चल रहै, चंचल का चल जाइ ।*
*दादू चंचल छाड़ि सब, निश्चल सौं ल्यौ लाइ ॥२४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! निश्चल परमेश्वर है, उसके सेवक, कहिए भक्त भी निश्चल स्वरूप में लय लगाकर निश्चल होते हैं । चंचल माया और माया रचित देवी - देवताओं के उपासक जन्म - जन्मान्तरों में भ्रमते रहते हैं । इसलिये हमने तो इनको छोड़कर निश्चल अविनाशी परब्रह्म का पतिव्रत - धर्म धारण करके उसी में स्थित रहते हैं । आप भी उसी में लय लगाकर स्थिर रहो ॥२४॥ 
चला लक्ष्मी चलं प्राणं, चलन्ति वित्त - यौवनम् । 
चलाचले तु संसारे, धर्ममेको हि निश्चल: ॥ 
(क्रमशः)

शनिवार, 26 जनवरी 2013

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/१९-२२)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*सब सुख मेरे साँइयाँ, मँगल अति आनन्द ।* 
*दादू सज्जन सब मिले, जब भेंटे परमानन्द ॥१९॥* 
भगवान् ही मेरे सँपूर्ण साँसारिक सुख हैं । मँगलमय भगवान् ही मेरे उत्तम लोकों का अति आनन्द हैं । जब परमानन्द रूप ब्रह्म से मिलन होता है तब सभी दैवी गुण रूप सज्जनों का मिलन भी आप ही हो जाता है ॥१९॥
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*दादू रीझै राम पर, अनत न रीझै मन ।*
*मीठा भावै एक रस, दादू सोई जन ॥२०॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! हमारा मन राम के अद्भुत स्वरूप दर्शनों में ही मग्न रहता है और निःसार मायिक पदार्थों में अब प्रवृत्त नहीं होता है । हे संतों ! जिनको परमेश्वर ही मीठा(सुखरूप) लगता है और जो भक्त एकरस होकर भगवान् में ही मग्न रहते हैं, वे ही परमेश्वर के भक्त धन्य हैं ॥२०॥ 
गुरु दादू आमेर में, तहाँ गये बाजिन्द । 
फूल सराह्यो देख करि, ये सब माया निंद ॥ 
प्रसंग - ब्रह्मऋषि दादू दयाल जी महाराज आमेर में निवास करते थे । किसी भक्त ने एक गुलाब का फूल लाकर महाराज को भेंट किया । इतने में ही बाजींद जी आए और महाराज को प्रणाम किया । फूल को देखकर बोले - गुरुदेव ! यह बड़ा सुन्दर फूल है । गुरुदेव बोले - बाजींद जी, संतों का मन तो राम के स्वरूप पर रीझता है, मायिक पदार्थों पर नहीं रीझता । इसकी क्या सराहना करते हो ? बाजींद जी गुरुदेव के चरणों में नतमस्तक हो गए ।
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*दादू मेरे हृदय हरि बसै, दूजा नांही और ।*
*कहो कहाँ धौं राखिये, नहीं आन को ठौर ॥२१॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! हमारे अन्तःकरण में तो एक प्रभु का ही निवास है । ऐसी अवस्था में अब द्वैतभाव नहीं प्रतीत होता है । माया और माया के प्रपंच की एक श्वास भी स्फुरणा नहीं फुरती है । हे संतों ! इस "धौं" कहिए, इस लय को और कहाँ लगाइये ? क्योंकि भगवान् का पतिव्रत - धर्म धारण करने पर माया प्रपंच और अहंभाव को कहीं भी स्थान नहीं है ॥२१॥ 
छन्द - 
होइ अनन्य भजै भगवंत ही, 
और कछू उर में नहीं राखै । 
देवि रु देव जहाँ लग हैं, 
डरके तिनसूं कहि दीन न भाखै ।
योग हु यज्ञ व्रतादि क्रिया, 
तिनकूं तो नहीं स्वपने अभिलाखै । 
सुन्दर अमृत पान कियो तब, 
तो कहु कौन हलाहल चाखै ॥ 
जगन्नाथ मन एक हो, सो ले दियो मुरारि । 
और ठौर कहाँ लाइये, मन न भये द्वै च्यारि ॥ 
बसरै बीबी राबिया, मुहम्मद कही जमाइ । 
मेरे हिरदै आप हैं दूजा कहाँ समाई ॥ 
चित्त जु लागा मित्त सूं, मित्त समाना चित्त । 
एकहि एक समाइया, दूजे ठाहर कित्त ॥ 
दृष्टान्त - बसरा नगर में ईश्वर की परम भक्त बीबी राबिया रहती थी । एक समय मुहम्मद साहब ने उससे कहा - तुम हमको अपने हृदय में दोस्त के रूप में रखो । तब राबिया बाई बोली - मेरे दिल में परमात्मा के अलावा और किसी दूसरे के लिये कोई जगह नहीं बची है, अत: आपको कहाँ रखूँ ? और द्वैत तो दु:ख की जड़ है । सन्त एक प्रभु को छोड़कर अन्य किसी का ध्यान नहीं करते, इसीलिये वे सदा परमानन्द में खोये रहते हैं । यह उत्तर सुनकर मुहम्मद साहब गद्गद् हो गये । 
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*दादू नारायण नैना बसै, मनही मोहन राइ ।*
*हिरदा मांही हरि बसै, आतम एक समाइ ॥२२॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! हमारे नेत्रों में केवल नारायण ही बसता है, अर्थात् हमारे नेत्र समस्त जगत - प्रपंच को नारायण स्वरूप करके ही देखते हैं और हमारा मन परमेश्वर चिंतन में लयलीन रहता है । एवं अन्तःकरण में एक हरि का ही निवास है और आत्मरूप से सब शरीरों में परमेश्वर ही समाये हुए हैं । पूर्वोक्त प्रकार से परमेश्वर का पतिव्रत - धर्म धारण करके मुक्तजन एक रस भगवान् में ही समाये हुए हैं ॥२२॥ 
तन पिव मन पिव नैन पिव, रुंधी सब ठांम । 
हौं तो नाहीं बलि गई, रोम रोम तव नाम ॥ 
पतिव्रता को पीव बिन, अन्य कछु नहीं भाइ । 
माता सीता का चरित, सम्यक यह दर्शाइ ॥ 
(क्रमशः)

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/१६-८)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*दादू एक सगा संसार में, जिन हम सिरजे सोइ ।*
*मनसा वाचा कर्मणा, और न दूजा कोइ ॥१६॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिस परमेश्वर ने हमको पैदा किया है, वही दयालु परमेश्वर हमारा इस संसार में परम हितैषी है । इसलिए मन, वचन और कर्म(काया) से हम उसी एक परमेश्वर में लय लगावें । हमें मायिक पदार्थों का कोई भरोसा नहीं है । इसलिए स्वयं निष्काम होकर निष्कर्म परमेश्वर का ही नाम - स्मरण करिये ॥१६॥ 
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*स्मरण नाम नि:संशय*
*सांई सन्मुख जीवतां, मरतां सन्मुख होइ ।*
*दादू जीवन मरण का, सोच करै जनि कोइ ॥१७॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिन निष्कर्म भक्तों के एक राम का ही पतिव्रत है, उनका जीवन और मरण केवल राम के ही आसरे है और राम का स्मरण करते हुए भक्तजनों को स्थूल संघात के संयोग - वियोग से कोई हर्ष - शोक नहीं होता है ॥१७॥ 
जीया जोलौं, हरि भज्या, राम रिझाया अैन । 
मूवां तो मंगल भया, हरि मारग में चैन ॥ 
जीवैं तो हरिगुण गाइ हैं, मरैं तो मिलि हैं तोहि । 
दोन्यू बातां रामजी, सुख उपजत है मोहि ॥ 
बहुत जीने का हर्ष न होइ, बेग मरण का भय नहीं कोइ । 
जगन्नाथ संशय बिन स्मरण, करता करै सु होइ ॥ 
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*पतिव्रत
*साहिब मिल्या तो सब मिले, भेंटे भेंटा होइ ।*
*साहिब रह्या तो सब रहे, नहीं तो नाहीं कोइ ॥१८॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अपना स्वामी परमेश्वर मिले तो सम्पूर्ण सम्पत्ति प्राप्त होती है और परमेश्वर के मिलने से ही सबसे मिलाप हो जाता है । ऐसा होने से ही मनुष्य - जन्म की सफलता है । एक परमेश्वर का ही पतिव्रत रहे, तो सर्व साधन स्वतः सिद्ध हो जाते हैं अन्यथा परमेश्वर के पतिव्रत बिना नाना प्रयत्न - पूर्वक साधन करना भी व्यर्थ है ॥१८॥ 
(क्रमशः)

शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/१३-५)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*तूं सत्य तूं अविगत तूं अपरंपार, तूं निराकार तुम्हचा नाम ।*
*दादू चा विश्राम, देहु देहु अवलम्बन राम ॥१३॥* 
टीका - हे गोविन्द ! आप सत्य हो । आप अविगत्य हो । आप अपरंपार हो । आप निराकार स्वरूप हो । हमारे तो आपका ही नाम है । हे गोविन्द ! हम तो आप में ही विश्राम चाहते हैं । हे गोविन्द ! आप के नाम का और स्वरूप का हमको अवलम्बन देओ ॥१३॥ 
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*दादू राम कहूँ ते जोड़बा, राम कहूँ ते साखि ।*
*राम कहूँ ते गाइबा, राम कहूँ ते राखि ॥१४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अपने मन को स्वस्वरूप राम में लगाना ही हमारे अक्षरों का जोड़ना है और राम का कहना ही अर्थात् स्मरण करना ही साखी कहना है अर्थात् साक्षी बनाना है और हे साक्षीस्वरूप राम ! आपका नाम - स्मरण ही हमारे कंठ से गायन करना है । राम का कहना ही हमारे लिए आप द्वारा रक्षा करना है अथवा दैवी सम्पदा के गुणों का रखना है ॥१४॥ 
.
*दादू कुल हमारे केशवा, सगा तो सिरजनहार ।*
*जाति हमारी जगद्गुरू, परमेश्वर परिवार ॥१५॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे व्यवहार में संसारीजनों को कुल का, सगा सम्बन्धियों का, जाति परिवार आदि का अवलंबन रहता है, वैसे ही भक्तजनों को सम्पूर्ण आधार एक परमेश्वर का ही है अर्थात् ब्रह्मऋषि कहते हैं कि हमारा कुल - कुटुम्ब भगवान् केशव ही है और सिरजनहार ही हमारा सगा सम्बन्धी है । जगद्गुरु(गर्भावस्था में सबको उपदेश करने वाला) परमात्मा ही हमारी जाति है और परम ऐश्वर्ययुक्त ईश्वर ही हमारा सम्पूर्ण परिवार है ॥१५॥ 
(क्रमशः)

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/१०-१२)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
.
*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*तुम्हीं आमची जीवनी, तुम्हीं आमचा जप ।*
*तुम्हीं आमचा साधन, तुम्हीं आमचा तप ॥१०॥*
टीका - हे गोविन्द ! आप ही हमारे जीवनरूप हो । आप ही हमारे जप रूप हो । आप ही हमारे सम्पूर्ण साधन रूप हो । आप ही हमारे तप रूप हो ॥१०॥ 
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*तुम्हीं आमचा शील, तुम्हीं आमचा संतोष ।*
*तुम्हीं आमची मुक्ति, तुम्हीं आमचा मोक्ष ॥११॥* 
टीका - हे गोविन्द ! आप ही हमारे ब्रह्मचर्यरूप हो और आप ही हमारे संतोंष रूप हो । आप ही हमारे मुक्ति(चारों मुक्ति) रूप हो और आप ही हमारे मोक्षरूप हो ॥११॥ 
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*तुम्हीं आमचा शिव, तुम्हीं आमची शक्ति ।*
*तुम्हीं आमचा आगम, तुम्हीं आमची उक्ति ॥१२॥* 
टीका - हे गोविन्द ! आप ही हमारे शिव कल्याणस्वरूप हो । आप ही हमारे शक्ति महामायारूप हो । आप ही हमारे आगे की जानने वाले हो । आप ही हमारे वेद वाक्य रूप हो ॥१२॥ 
(क्रमशः)

गुरुवार, 24 जनवरी 2013

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/७-९)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*तुम्हीं आमची पूजा, तुम्हीं आमची पाती ।*
*तुम्हीं आमचा तीर्थ, तुम्हीं आमची जाती ॥७॥* 
टीका - हे गोविन्द ! तुम्हीं हमारे पूजा रूप हो और तुम्हीं पूजा करने वाले हो । आप ही तुलसी जल रूप हों, हमारे तुलसी पत्र रूप आप ही हो । आप ही हमारे तीर्थरूप हो और आप ही हमारे तीर्थ में यात्री रूप हो ॥७॥ 
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*तुम्हीं आमचा नाद, तुम्हीं आमचा भेद ।*
*तुम्हीं आमचा पुराण, तुम्हीं आमचा वेद ॥८॥* 
टीका - हे गोविन्द ! हे गुसांई ! आप ही हमारे शब्दरूप हो और आप ही हमारे सब कुछ जानने वाले भेदस्वरूप हो । आप ही हमारे पुराण रूप हो और आप ही हमारे वेद और वेद का ज्ञानरूप हो ॥८॥ 
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*तुम्हीं आमची युक्ति, तुम्हीं आमचा योग ।*
*तुम्हीं आमचा वैराग्य, तुम्हीं आमचा भोग ॥९॥* 
टीका - आप ही हमारे शास्त्रों की युक्तिरूप हो और आप ही हमारे हठयोग रूप हो । आप ही हमारे वैराग्यरूप हो, आप ही के लिए हमने वैराग्य लिया है । आप ही हमारे अनेक भोगरूप हो और आप ही भोक्तारूप हो ॥९॥ 
(क्रमशः)

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/४-६)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*दादू मन अपना लै लीन कर, करणी सब जंजाल ।*
*साधू सहजैं निर्मला, आपा मेट संभाल ॥४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! बाह्य कर्मों की जो साधना है, वह तो केवल जंजाल रूप है । इसलिए अहंकार को मेट कर अपने शुद्ध स्वरूप का स्मरण करिये ॥४॥ 
सर्वारम्भा हि दोषेण, धूमेनाग्निरिवावृता: । - गीता 
(अग्नि में धुएँ की तरह सभी कर्मों में दोष भरे हैं ।)
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*दादू सिद्धि हमारे सांइयां, करामात करतार ।*
*ऋद्धि हमारे राम है, आगम अलख अपार ॥५॥* 
टीका - ब्रह्मऋषि दादू दयाल महाराज अपने को ही उपलक्षण करके जिज्ञासुओं के प्रति उपदेश करते हैं कि हमारे तो केवल एक सांई का ही पतिव्रत है और वह कृपालु परमेश्वर ही हमारे लिए ऋद्धि - सिद्धि हैं, वे ही करामात हैं और हमारे आगम(भविष्य की जानने वाले) शास्त्र, वेद और ज्योतिष आदि अलख अपार एक परमेश्वर ही हैं ॥५॥ 
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*गोविन्द गोसांई तुम्हीं आमचे गुरु, तुम्हे अमचां ज्ञान ।*
*तुम्हे अमचे देव, तुम्हे अमचा ध्यान ॥६॥* 
टीका - हे गोविन्द ! हे गुसांई ! हमारे तो आप ही गुरु हो, आप ही गुरु का ज्ञान हो । आप ही देव हो और आप ही ध्यान स्वरूप हो ॥६॥ 
देव सु स्वयं प्रकाश हे, साक्षी देवही सोइ । 
और देव अदेव सब, साक्षी बिना न कोइ ॥ 
(क्रमशः)

बुधवार, 23 जनवरी 2013

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/१-३)

॥दादूराम सत्यराम॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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अब "लै" के बाद में "निष्कर्म दादू दीन." इस सूत्र के व्याख्यान स्वरूप "निष्कर्म पतिव्रता' के अंग का निरूपण करते हैं । निष्कर्म, कहिए सकल सुख, दुःख आदि और गुण-विकारों से रहित पति परमेश्वर हेतु पतिव्रत रखना अथवा जो पुरुष निष्कर्म, निद्र्वन्द्व, निष्काम भाव होकर प्रभु का पतिव्रत रखते हैं, उनका नाम ही पतिव्रता जानिये । प्रस्तुत प्रकरण में परमेश्वर का निष्कर्म स्वरूप और निष्कर्म पतिव्रता के प्रभु पतिव्रत के अंग स्वरूप लक्षण कहेंगे ।
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*मंगलाचरण*
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवतः ।
वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगत: ॥१॥ 
टीका - हे हमारे निष्कर्म पति स्वामी निरंजन देव ! आपको हम बारम्बार नमो नमो करते हैं और निष्कर्म पतिव्रत - धर्म का उपदेश करने वाले गुरुदेव को भी हम नमस्कार करते हैं और जिन साधुओं ने परमेश्वर का निष्काम पतिव्रत - धर्म धारण किया है, उन सब संतों को भी हम वंदना करते हैं । इस प्रकार हरि, गुरु, संतों को नमस्कार, वन्दना, प्रणाम करके निष्कर्म निरंजनदेव का पतिव्रत - धर्म धारण कर "पारंगतः" इस संसार से पार होकर निरंजन को प्राप्त होते हैं ॥१॥ 
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एक तुम्हारे आसरे, दादू इहि विश्वास ।
राम भरोसा तोर है, नहिं करणी की आस ॥२॥ 
टीका - हे हमारे प्रभु ! हे नाथ ! हे हमारे स्वामी ! हमको तो एक आपकी ही भक्त वत्सलता और दयालुता का आधार है । आपके विश्वास पर ही तो हमारे इस शरीर में श्वास अटक रहे हैं अर्थात् इस नर - तन की सफलता का हमें तो आप एक परमेश्वर के दर्शनों का ही विश्वास है । हे नाथ ! दान, तीर्थ, व्रत आदि करणी का हमें कोई भी विश्वास नहीं है बल्कि आपकी दया-सिन्धुता का ही एक मात्र भरोसा है । अभिप्राय यह है कि परमेश्वर के अपार अनन्त स्वरूप को जानने की साधनाएँ इस जीवात्मा से जन्म - जन्मान्तरों में भी सम्भव नहीं हैं । इसी से हम अपनी करणी का क्या विश्वास करें, क्योंकि जब तक अपनी करणी का विश्वास है, तब तक जीवात्मा में अहंत्व भाव बना रहता हैऔर जब तक जिज्ञासु में अहंत्व भाव है, तब तक जीवन की सफलता नहीं है । इसलिए अब साखी के अन्तिम चरण से श्री सतगुरु भगवान् के जिज्ञासुजनों को निष्कर्म भाव का उपदेश किया है ॥२॥ 
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रहणी राजस ऊपजै, करणी आपा होइ ।
सबथैं दादू निर्मला, सुमिरण लागा सोइ ॥३॥ 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! "रहणी", कहिए शील(ब्रह्मचर्य) व्रतादिक की धारणा से तो रजोगुण उत्पन्न होता है और "करणी", कहिए यज्ञ तप आदि के करने से अहंकार उत्पन्न होता है । इसलिये अब जो पुरुष निष्काम भावसे राम - नाम के स्मरण में लीन रहते हैं, वही सबसे श्रेष्ठ हैं ॥३॥ 
करणी रूप धरणी में, प्रबल मोह नरेश ।
"जगन" जगत पति नांव बिन, वृथा करै कलेश ॥
(क्रमशः)

= लै का अंग =(७/४३-४५)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*आदि अंत मधि एक रस, टूटै नहीं धागा ।*
*दादू एकै रह गया, तब जाणी जागा ॥४३॥* 
टीका - इस रीति से सर्व अवस्थाओं में एक रस होकर ब्रह्म में अखंड तदाकार रूप वृत्ति रहने पर मुक्तजन अद्वैत ब्रह्मस्वरूप होते हैं । इतनी कसौटी पूरी होवे, तो समझिए कि यह जीवात्मा अज्ञान - निद्रा से जागा है और उसे स्वस्वरूप बोध हुआ है ॥४३॥ 
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*जब लग सेवग तन धरै, तब लग दूसर आहि ।*
*एकमेक ह्वै मिलि रहै, तो रस पीवन तैं जाइ ॥४४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जब तक जिज्ञासुजनों को थोड़ा भी देह अध्यास है, तब तक परमेश्वर से द्वैतभाव है और जब मुक्तजन देह अध्यास बिसार कर परमेश्वर से अभेद होवें, तो अद्वैत अमृत वा अपूर्व आत्मानन्द का अनुभव करते हैं । ब्रह्मऋषि सतगुरु से द्वैतवादी और अद्वैतवादी संत पूछते हैं कि हे दयानिधे, "जब तक सेवक तन धरै." अर्थात् सेवक - सेव्यभाव है, तब तक तो भक्ति - रस निमित्त द्वैतभाव व्यापता है और जब सेवक - सेव्यभाव भूलकर स्वस्वरूप में अभेद होवे तो "रस पीवन तैं जाइ" अर्थात् भेद - भक्ति का अपूर्व रस प्राप्त नहीं होता है । आप कृपा करके इसका यथार्थ निर्णय करिये ॥४४॥ 
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*ये दोनों ऐसी कहैं, कीजे कौन उपाइ ।*
*ना मैं एक, न दूसरा, दादू रहु ल्यौ लाइ ॥४५॥* 
इति लै का अंग सम्पूर्ण ॥अंग ७॥साखी ४५॥ 
टीका - "हे जिज्ञासुओं !" प्रस्तुत साखी उपरोक्त साखी के उत्तर में कही गई है । श्री ब्रह्मऋषि सतगुरु परमेश्वर से विनय करते हैं कि हे प्रभु ! "ये दोनों" कहिए भेद - भक्ति रस को पीने वाले भक्तजन और अद्वैतवादी ब्रह्मज्ञानियों में पूर्वोक्त प्रकार से परस्पर विवाद है । आप ही यह निर्णय करिये । प्रत्युत्तर में भगवान् का उपलक्षण करके, महाप्रभु उपदेश करते हैं कि हे जिज्ञासुजनों ! "मैं, मेरा आत्मस्वरूप ब्रह्म" न तो एक है और न दूसरा है अर्थात् पूर्ण समर्थ प्रभु भेदवादी भक्तों को तो भेद-भक्ति द्वारा अपूर्व भक्ति रस पिलाते हैं और भिन्न स्वरूप प्रतीत होते हैं, एवं अद्वैतवादी मुक्तजनों से अभिन्न एक रूप होकर अद्वैतामृत का परमानन्द अनुभव कराते हैं, फिर उनमें द्वैतभाव नहीं है । अर्थात् अनिर्वचनीय ब्रह्मतत्व में एकत्व और अनेकत्व का संख्याभाव ही असम्भव है । परमेश्वर तो सर्व समर्थ और पूर्ण दयालु हैं । इसलिये हे भाइयों ! परमेश्वर में अखंड लय लगाओ । जो जिस जगह, जिस स्थिति में, अद्वैत या द्वैत की जैसी निष्ठा है, वहाँ ही प्रभु उनके लिए वैसे ही प्रकट हो जाएँगे ।
माननीय तो मान कर, जेतो कंत सुहाइ । 
लाख टकां की पानड़ी; तो पहरीजे पांइ ॥ 
इति लै का अंग टीका और दृष्टान्तों सहित सम्पूर्ण ॥अंग ७॥साखी॥४५॥ 
(क्रमशः)

मंगलवार, 22 जनवरी 2013

= लै का अंग =(७/४०-४२)

॥दादूराम सत्यराम॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*एक मना लागा रहै, अंत मिलेगा सोइ ।*
*दादू जाके मन बसै, ताको दर्शन होइ ॥४०॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! निश्चल मन करके, आत्मस्वरूप में लय लगाकर, उसी में अभेद हो जाओ । जिसका मन अनन्य भाव से परमेश्वर में ही लयलीन रहता है, उन पुरुषों को ही परमेश्वर का साक्षात्कार दर्शन होता है ॥४०॥ 
"न तच्चिन्तनं तत्कथं अन्योSन्यं तत प्रबोधनम् । 
तदेकपरत्वं च ब्रह्माभ्यासं विदुर्बुधा ॥ "
(विद्वानों ने ब्रह्म का चिन्तन, कथन व परस्पर "सत्यराम" अभिवादन को ही ब्रह्माभास बतलाया है ।)
एक मनां एको दिसा, हरि को बिड़द गहिये । 
"नामदेव" नाम जहाज है, भौसागर तिरिये ॥ 
नाम निरंजन जीव है, सोधो मध्य श्वास । 
जन "रजजब" वे क्यूं रहैं, बिन आये उन पास ॥ 
जल में बसै कमोदिनी, चन्द बसै आकास । 
जो जाके मन मैं बसै, सो ताही के पास ॥ 
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*दादू निबहै त्यौं चलै, धीरै धीरज मांहि ।*
*परसेगा पीव एक दिन, दादू थाके नांहि ॥४१॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिस साधन द्वारा तुम्हारा मन स्वस्वरूप में एकाग्र होवे, उसी प्रकार लय लगाइये और भीतर हृदय में धीरज धरके यह विश्वास रखो कि कृपालु परमेश्वर का कभी न कभी एक दिन अवश्य दर्शन होगा । परन्तु प्रभु की भक्ति से कभी भी उदास नहीं होना ॥४१॥ 
प्रयाणकाले मनसाSचलेन । 
भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव । 
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमाविश्व सम्यक् 
स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥ 
टींटोड़ी अंडा धरै सागर लिये डुबाय । 
श्रद्धा करि थाकि नहीं, समुन्दर दीन्हे लाय ॥ 
दीरध काल, निरंतर श्रद्धा, मन उछाह हिरदै विश्वास । 
पंच प्रकार रहै उर जाके, "रज्जब" राम मिलन की आस ॥ 
आतुर तासूँ आखड़ै, आलस किये अकाज । 
"जगन्नाथ" धीरज धरै, बरतन ब्रह्म विराज ॥ 
दृष्टान्त - एक टींटोड़ी ने समुद्र के किनारे अंडे दिये । एक दिन समुद्र ने अपनी झाल से उन अंडों को अपने अंदर डुबा लिया । टींटोड़ी को समुद्र पर क्रोध आया और वह उसे सुखाने का प्रयत्न करने लगी । अपने पंजों और चौंच से समुद्र में रेत डालने लगी । दूसरे पक्षियों ने भी सोचा कि कल को समुद्र हमारे अंडे भी डुबो सकता है, अत: सभी टींटोड़ी की सहायता करने लगे और सबने समुद्र में रेत डालना शुरु कर दिया । पक्षियों की यह लीला देखकर नारदजी गरुड़जी के पास गये और बोले - पक्षिराज ! आपकी प्रजा पर यह मुसीबत आई हुई है, अत: आपको उनकी सहायता अवश्य करनी चाहिये,गरुड़जी ने अपने स्वामी भगवान् विष्णु से अपनी प्रजा को सताने के बारे में समुद्र की शिकायत की । भगवान् अपने सेवक की आर्त - वाणी सुनकर समुद्र पर अग्निबाण साधने लगे तो समुद्र घबड़ा गया और टींटोड़ी के अंडे वापस लौटाकर क्षमायाचना की ।
दृष्टांत - जैसे टींटोड़ी ने पूर्ण श्रद्धा व विश्वास के साथ समुद्र की विशालता की परवाह न करते हुए अपने काम में जुट गई और अन्त में सफलता प्राप्त की, वैसे ही साधक को परमेश्वर की प्राप्ति के लिए कठिन से कठिन साधना में भी पूर्ण लगन, श्रद्धा और विश्वास के साथ लग जाना चाहिये तभी परमेश्वर की प्राप्ति होगी ।
.
*लय*
*जब मन मृतक ह्वै रहै, इन्द्री बल भागा ।*
*काया के सब गुण तजै, निरंजन लागा ॥४२॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जब मन मृतक, निश्चल, गुणातीत हुआ, तो इन्द्रियादिक का भी विषय - प्रवृत्ति रूप बल नहीं रहता है और शरीर के अध्यास से मुक्त होकर जीवनमुक्त पुरुष निर्गुण ब्रह्म में लयलीन रहते हैं ॥४२॥ 
(क्रमशः)

= लै का अंग =(७/३७-९)

॥दादूराम सत्यराम॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*यों मन तजै शरीर को, ज्यों जागत सो जाइ ।*
*दादू बिसरै देखतां, सहज सदा ल्यौ लाइ ॥३७॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिस प्रकार जागते - जागते निद्रा आ जाती है, तब शरीर को भूल जाते हैं । ऐसे ही मुक्तजनों का यह मन, इस स्थूल शरीर के अध्यास को भूलकर जागृत अवस्था में ही सम्पूर्ण प्रपंच को विसार कर सहज स्वरूप में लय लगाकर ब्रह्मरूप हो जाता है ॥३७॥ 
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*जिहि आसन पहली प्राण था, तिहि आसन ल्यौ लाइ ।*
*जे कुछ था सोई भया, कछू न व्यापै आइ ॥३८॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह प्राणधारी जीव, आत्मा ब्रह्म स्वरूप को भूलकर मायावी प्रपंच में आसक्त हो रहा है । इसलिए इस प्रपंच का त्याग करके अपना स्वरूप ब्रह्म में लय लगाओ, तब निरावरण होकर उस निर्वाण पद को प्राप्त होंगे । फिर ऐसे पुरुषों पर माया - प्रपंच का किंचित् भी प्रभाव नहीं पड़ता । "जिहि आसन", कहिए गर्भ आसन अर्थात् गर्भ में जो परमात्मा से कोल किया था, उसको पूरा कर और "सत्संग आसन" अर्थात् सत्संग में जाकर नित्य - अनित्य का विचार कर ॥३८॥ 
उपजन आसन = आत्माकार उपजन से ब्रह्म आसन = स्वस्वरूप ब्रह्म स्थिति को प्राप्त करो ।(चार आसन- १. गर्भ, २. ब्रह्म, ३.उपजन, ४. सत्संग ।)
इक बणियो दीवान ह्वै, धर राखी पोशाक । 
ताहि देख गब्र्यो नहीं, रीझ कियो नृप नाक ॥ 
दृष्टान्त - एक निर्धन बनिया राजा का दीवान बना । वह अपनी पूर्व स्थिति को कभी नहीं भूला । अपने कटे - फटे वस्त्रों के दर्शन करके कचहरी में जाया करता था, ताकि मन अहंकार को प्राप्त नहीं होता था । प्रजा के साथ बहुत अच्छा न्याय का व्यवहार करता रहा । राजा उसके न्याय को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और उसको अपना निज मन्त्री बना लिया । देखिये, सत्यता के व्यवहार से मनुष्य की उन्नति होती है और वह ईश्वर प्राप्ति के मार्ग पर पहुँच जाता है । "जिहि आसन", कहिए मानवता के आसन के लक्ष्य को पूरा करने से कल्याण को प्राप्त होता है ।
.
*तन मन अपणा हाथ कर, ताहि सौं ल्यौ लाइ ।*
*दादू निर्गुण राम सौं, ज्यों जल जलहि समाइ ॥३९॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे जल, जल में मिलकर एक स्वरूप हो जाता है, उसी प्रकार तन - मन का निग्रह करके, निर्गुण ब्रह्म में अखंड लय लगाकर, तद्रूप हो जाइये । आत्मा को परमात्मा में विचार द्वारा अभेद करिये ॥३९॥ 
(क्रमशः)

सोमवार, 21 जनवरी 2013

= लै का अंग =(७/३४-६)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*लय*
*परआत्म सो आत्मा, ज्यों जल उदक समान ।*
*तन मन पाणी लौंण ज्यों, पावै पद निर्वाण ॥३४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! शब्द का भेद होने पर भी जैसे जल और उदक एक ही अर्थ के वाचक हैं, तैसे ही जीवात्मा और परमात्मा भी एकार्थ हैं अर्थात् अभिन्न हैं । जैसे नमक जल में मिलकर तद्रूप होता है, वैसे ही तन - मन को आत्मस्वरूप में लयलीन करके निर्वाण परम पद को प्राप्त करो ॥३४॥ 
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*मन ही सौं मन सेविये, ज्यौं जल जलहि समाइ ।*
*आत्म चेतन प्रेम रस, दादू रहु ल्यौ लाइ ॥३५॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे जल में जल मिलकर अभेद हो जाता है, वैसे ही व्यष्टि मन को समष्टि मन में अभेद करो । यही मानसिक पूजा का परम फल है कि जैसे जल जल में मिलता है, वैसे ही भक्तजन भी परमेश्वर का स्वरूप हो जाते हैं । इसलिए जीवात्मा को चैतन्य स्वरूप में अभेद कीजिए और परम प्रेमपूर्वक परमेश्वर के स्वरूप में अखण्ड लय लगाइये ॥३५॥ 
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*छाड़ै सुरति शरीर को, तेज पुंज में आइ ।*
*दादू ऐसे मिल रहै, ज्यों जल जलहि समाइ ॥३६॥ *
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जब सुरति शरीर के अध्यास को छोड़कर और "तेज पुंज" कहिए, ब्रह्माकार सुरति होवे, तब फिर ऐसे जीवात्मा ब्रह्म में अभेद हो जाता है, जैसे कि जल में जल समा जाता है ॥३६॥ 
(क्रमशः)

= लै का अंग =(७/३१-३३)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*सूक्ष्म सौंज*
*दादू सेवा सुरति सौं, प्रेम प्रीति सौं लाइ ।*
*जहँ अविनाशी देव है, तहँ सुरति बिना को जाइ ॥३१॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! प्रेमरूपी पुष्प और प्रीतिरूपी पाती सहित उस अखंड ज्योति में अपनी सुरति लगाकर परब्रह्म की यहीं सेवा पूजा कीजिए । क्यों कि वह अविनाशी निरंजनदेव, ब्रह्माकार सुरति के बिना और कोई बहिरंग साधनों से नहीं जाने जा सकते हैं ॥३१॥ 
जड़ भेदै पाषाण में, कालू तर गिर हंड । 
साध श्रुति हरि सौं मिलै, तोड़ फोड़ ब्रह्मंड ॥ 
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*विनती*
*दादू ज्यों वै बरत गगन तैं टूटै, कहाँ धरणी कहँ ठाम ।*
*लागी सुरति अंग तैं छूटै, सो कत जीवै राम ॥ ३२ ॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे लय लगाकर रस्सी पर आकाश में नाचती हुई नटणी की यदि लय टूट जावे तो फिर उसका जीवन कैसे हो सकता है ? उसी प्रकार भगवान् के स्वरूप में एकाग्र हुई भक्तों की लय वृत्ति टूट जाये तो फिर वह परमेश्वर के भक्त कैसे जीवित रह सकते हैं ?।३२॥ 
चोपाईः-
जैसे बरत बांस चढि नटनी, 
बारम्बार करै तहाँ अटनी । 
इत उत कहुं नेकहु न हेरै, 
ऐसी लय जन हरि तन फेरै ॥ 
.
*अध्यात्म*
*सहज योग सुख में रहै, दादू निर्गुण जाण ।*
*गंगा उलटी फेरि कर, जमुना मांहि आण ॥३३॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! सम्पूर्ण योगों में एक लय योग ही निष्कलेश योग है और निर्गुण ब्रह्म को जानना रूप इसमें अपूर्व सुख है । इस लय योग में तन्मयता होने पर जिज्ञासुजन, सर्व गुण विकारों से निर्गुण होकर परम सुख प्राप्त करते हैं । और "गंगा उलटी फेरि कर" से ब्रह्मवेत्ताओं की ब्रह्मज्ञानाकार और ब्रह्मध्यानाकार वृत्ति का संकेत है । जब ब्रह्म - ध्यान में अखंड लय लग जाय, तो जिज्ञासुजन उसका गंगा - यमुना की भाँति धारा प्रवाह रूप से वेग का वर्णन करते हैं । उठते - बैठते, चलते - फिरते, खाते - पीते, सोते - जागते, श्वास वृत्ति द्वारा प्रवाह बना रहता है, तहाँ उठते श्वास ब्रह्माकार वृत्ति को गंगा रूप और बैठते श्वास वृत्ति को यमुना रूप प्रतिपादन किया है । गंगा को फेर कर, यमुना में लाने का भाव यह है कि हर समय श्वासों - श्वास ब्रह्मवृत्ति अखंड ही बनी रहे ॥३३॥
(क्रमशः)

रविवार, 20 जनवरी 2013

= लै का अंग =(७/२८-३०)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*दादू सहजैं सुरति समाइ ले, पारब्रह्म के अंग ।*
*अरस परस मिल एक ह्वै, सन्मुख रहबा संग ॥२८॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अपनी सुरति को "सहजैं" कहिए, निद्र्वन्द्वता पूर्वक आत्म - स्वरूप परब्रह्म में लगाओ । तो उस परमात्मा से हृदय रूपी आकाश में ही ओत - प्रोत भाव को प्राप्त होंगे । वहीं पर परमात्मा के सन्मुख रहो ॥२८॥ 
*सुरति सदा सन्मुख रहै, जहाँ तहाँ लै लीन ।*
*सहज रूप सुमिरण करै, निष्कामी दादू दीन ॥२९॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मवेत्ता पुरुषों की वृत्ति सदैव स्वस्वरूप में ही स्थिर रहती है और फिर घर प्रवृत्ति - मार्ग और वन निवृत्ति - मार्ग तथा जागृत - स्वप्न, कहीं भी सी भी अवस्था में रहें, वे उसी जगह ब्रह्म के अखण्ड स्वरूप में लय लगाये रहते हैं । इस प्रकार निर्द्वंद कहिए, सम्पूर्ण विकारों से रहित होकर, निष्काम भाव से भक्तजन प्रभु का स्मरण करते हैं ॥२९॥ 
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*सुरति सदा साबति रहै, तिनके मोटे भाग ।*
*दादू पीवैं राम रस, रहैं निरंजन लाग ॥३०॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिन ब्रह्मवेत्ताओं की सुरति कहिए, वृत्ति स्वस्वरूप में सदैव पूर्णतया लगी रहती है, उन पुरुषों का अक्षय पुण्य है । वे ही राम के साक्षात्कार रूप अमृत रस को पान करते हैं और निरंजन देव में ही समाये रहते हैं ॥३०॥ 
अहो पुण्यमहो पुण्यं फलि फलितं दृढम् । 
अस्य पुण्यस्य सम्पत्ते रहो वयमहो वयम् ॥ 
कुलं पवित्रं जननी कृतार्था विश्वम्भरा पुण्यवती च तेन । 
अपार - संवित्सुखसागरेSस्मिल्लीनं पर ब्रह्मणि यस्य चेत: ॥ 
(क्रमशः)