शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

= ९८ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
"सुन्दर" सद्गुरु यों कहें,
भम ते भासे और ।
सीपि मांहि रूपौ द्रसे,
सर्प रज्जु की ठौर ॥
रज्जु मांहि जैसे सर्प भासे,
सीपि में रूपौ यथा ।
मृग तृष्णा का जल बुद्धि देखे,
विश्व मिथ्या है तथा ॥
जिनि लह्यो बमह्म अखंड पद,
अद्वैत सब ही ठाम हैं ।
दादूदयालु प्रसिद्ध सद्गुरु,
ताहि मोर प्रणाम हैं ॥
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साभार : Rp Tripathi ~
**चैन की स्वांश कैसे लें ? :: पिछले आलेख से आगे :**
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चैन की स्वांश में स्थित होने के लिए हमें, दो शब्दों को समझना परम-आवश्यक है !! एक है सत, दूसरा है असत !! और जो सत में स्थित है, उसकी स्वांश चैन की स्वांश है, और जो असत में, उसकी बेचैन की !! सत वह है जो तीनों कालों में एक समान विद्यमान है; और असत वह है, जिसका किसी भी काल में अस्तित्व नहीं है; उसकी प्रतीति, मात्र भ्र्म है !!
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उदाहरणार्थ :
मृग को रेगिस्तान में, गर्मी के दिनों में दोपहर में, सिर्फ उस स्थान को छोड़, जहाँ वह खड़ा है; अन्य सभी स्थानों पर, पानी दिखाई देता है !! और वह सोचता है, यदि मैं वहाँ, उस दूर स्थान तक पहुँचने का पुरुषार्थ करूँ, तो मुझे पानी मिल जाएगा !! और वह इस भ्रम-युक्त धारणा के साथ, पूरे रेगिस्तान का चक्कर लगाता है, परन्तु उसकी स्थिति में, कभी कोई परिवर्तन नहीं होता !!
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अर्थात, उसे कभी वहां, जहाँ खड़ा है, पानी दिखाई नहीं देता !! हमेशा दूर ही दिखाई देता रहता है !! और वह अतृप्त अवस्था में ही प्राण छोड़ देता है !! क्योंकि सत्य तो यह है कि -- जब भी उसकी प्यास बुझेगी, हमेशा पास में दिखने वाले पानी से ही बुझेगी !! इस असत को, मृग-मरीचका भी कहते हैं !! और जिस तरह मृग के लिए, मृग-मरीचका होती है, उसी तरह, माया-बद्ध जीव के लिए, माया-मरीचका होती है !!
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अर्थात उस व्यक्ति को भी, वर्तमान में जो उसके पास उपलब्ध है, उसमें तृप्ति नहीं दिखाई देती !! उसे भी, वर्तमान क्षण से दूर, भूत-काल या भविष्काळ में(ये था तब में सुखी था, ये हो जायेगा तब में सुखी हो जाऊंगा,) में ही, तृप्ति दिखाई देती है !! और वह मृग की भांति, जीवन-भर, असफल प्रयास करता हुआ, अतृप्त ही मर जाता है !!
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क्योंकि, सत्य तो यही है कि जब भी किसी भी व्यक्ति को तृप्ति मिलेगी, वर्तमान में ही मिलेगी !! और वर्तमान तो उपलब्ध है ही !! वर्तमान को ही आध्यात्मिक भाषा में, सत अर्थात परमात्मा(आत्मा-राम) कहते हैं !! PRESENT IS PRESENCE ...!!
********ॐ कृष्णम वन्दे जगत गुरुम********

= ९७ =


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
हमारो मन माई ! राम नाम रंग रातो ।
पिव पिव करै पीव को जानै, मगन रहै रस मातो ॥टेक॥
सदा सील संतोष सुहावत, चरण कँवल मन बाँधो ।
हिरदा माँही जतन कर राखूँ, मानों रंक धन लाधो ॥१॥
प्रेम भक्ति प्रीति हरि जानूं, हरि सेवा सुखदाई ।
ज्ञान ध्यान मोहन को मेरे, कंप न लागे काई ॥२॥
संगि सदा हेत हरि लागो, अंगि और नहिं आवे ।
दादू दीन दयाल दमोदर, सार सुधा रस भावे ॥३॥
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साभार : Krishna Akarshini ~
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जिस महामंत्र को स्वयं शिव जी भी जपा करते है भगवान शबरी जी से पांचवी भक्ति के बारे में कह रहे है -
"मंत्र जाप मम दृढ बिस्वासा, पंचम भजन सो बेद प्रकासा"
अर्थात - मेरे मंत्र का जाप और मुझमे दृढ विश्वास यह पांचवी भक्ति है.जो वेदों में प्रसिद्ध है.यहाँ "दृढ विश्वास" विशेषता लगा दी। यदि हम पहली ४ भक्ति और पीछे की चार भक्ति दोनों को तराजू में रखे, तो बीच में ये पांचवी भक्ति अपने आप प्रकट हो जाती है।
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अर्थात संतो का संग, भगवान की कथा प्रसंग, गुरु चरणों की सेवा, और भगवान का गुणगान। ये चारों भक्ति आते ही, भगवान के मंत्र जाप में(हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे) अपने आप दृढ विश्वास हो जाता है, अर्थात पांचवी भक्ति अपने आप प्रकट हो जाती है, और पिछली चार भक्ति करने की भी आवश्यकता नहीं होती।
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तुम्ह पुनि राम राम दिन राती।
सादर जपहु अनँग आराती॥
अर्थात - पार्वती जी शिव जी से कह रही है -
आप भी दिन-रात आदरपूर्वक राम-राम जपा करते हैं -
'महामंत्र सोई जपत महेसू,
काशी मुक्ति हेतु उपदेसू'
अर्थात - जो महामंत्र है, जिसे महेश्वर श्री शिवजी जपते हैं और उनके द्वारा जिसका उपदेश काशी में मुक्ति का कारण है तथा जिसकी महिमा को गणेशजी जानते हैं, जो इस 'राम' नाम के प्रभाव से ही सबसे पहले पूजे जाते हैं .
"जान आदि कबि नाम प्रतापू,
भयउ सुद्ध करि उलटा जापू
सहस नाम सम सुनि सिव बानी,
जपि जेईं पिय संग भवानी"
अर्थात - आदिकवि श्री वाल्मीकिजी रामनाम के प्रताप को जानते हैं, जो उल्टा नाम('मरा', 'मरा') जपकर पवित्र हो गए। श्री शिवजी के इस वचन को सुनकर कि एक राम-नाम सहस्र नाम के समान है, पार्वतीजी सदा अपने पति(श्री शिवजी) के साथ राम-नाम का जप करती रहती हैं।
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जिस घर में कोई नहीं रहता, उस घर की घंटी नहीं बजायी जाती, और यदि घर में कोई रहता है तो शायद सो रहा हो, बाथरूम में हो। इसी तरह हम भजन कर रहे है, नाम जप कर रहे है, इसका अर्थ ही ये है की भगवान सुन रहा है, यदि सुन नहीं रहा होता तो हम भजन ही ना कर रहे होते।

२८ . आत्म अनुभव को अंग ~ ५

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२८. आत्म अनुभव को अंग*
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*= प्रश्नोत्तर =* 
*एक कि दोइ न एक न दोइ,* 
*उहीं कि इहीं न उहीं न इहीं है ।* 
*शून्य कि थूल न शून्य न थूल,* 
*जहीं कि तहीं न जहीं न तहीं है ॥* 
*मूल कि डाल न मूल न डाल,* 
*वहीं की महीं न वहीं न महीं है ।* 
*जीव कि ब्रह्म न जीव न ब्रह्म,* 
*तौ है कि नहीं कछु है न नहीं है ॥५॥* 
प्रश्न : वह साक्षात्करणीय तत्व एक है कि दो ? 
उत्तर : वह तत्त्व वस्तुतः न एक कहा जा सकता है न दो । 
प्रश्न : वह तत्त्व यहाँ है कि वहाँ है ? 
उत्तर : वस्तुतः वह न यहाँ है, न वहाँ है । 
प्रश्न : उस तत्त्व को स्थूल कहें या सूक्ष्म ? 
उत्तर : वह तत्त्व वस्तुतः न स्थूल कहा जा सकता है, सूक्ष्म ।
प्रश्न : वह जैसा है कि तैसा ? 
उत्तर : वह न जैसा है न तैसा, अर्थात् उसकी कोई उपमा नहीं है । 
प्रश्न : उस तत्त्व को मूल कहें कि शाखा ? 
उत्तर : न उसको मूल कहा जा सकता है, न शाखा । 
प्रश्न : वह बृहत्(महान्) है ? या अणु(लघु) ?(अणोरणीयान्महतो महीयान् ?) 
उत्तर : न वह महान् है न अणु । 
प्रश्न : उसे जीव कहें या ब्रह्म ? 
उत्तर : न वह वस्तुतः जीव है न ब्रह्म । 
प्रश्न : वह है कि नहीं ?(इस तरह तो उसके अस्तित्व में भी सन्देह हो रहा है ?) 
उत्तर : न ‘वह है’, ऐसा कहा जा सकता है, न ‘नहीं है’ ऐसा कहा जा सकता है । 
(उसका तो ‘नेति नेति’ से ही वर्णन किया जा सकता है) ॥५॥
(क्रमशः)

*शिष्य तेजानन्द(२)*

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ १६ वां विन्दु ~*
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*शिष्य तेजानन्द(२) -*
तेजानन्दजी अपने परिवार के सहित गुजरात से राजस्थान में जोधपुर होकर आये । जोधपुर के पास गोहा की पहाड़ी को देखकर के इनके मन में संकल्प हुआ था - "यह पहाडी अच्छी है, यहाँ ही बैठ कर भजन करना चाहिये ।" फिर ये सब आमेर दादूजी के पास पहुँचे ।
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इनकी पत्नी, एक पुत्री, दो पुत्र और एक आप, ये पांच व्यक्ति परिवार में थे । सब दादूजी के आश्रम में गये । दादूजी का दर्शन करके सबने प्रणाम किया और हाथ जोड़ कर सब सामने बैठ गये । दादूजी के दर्शन से इस परिवार को महान् आनन्द प्राप्त हुआ । दादूजी ने पूछा आप लोग कहाँ से आये हैं और क्यों आये हैं ?
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तेजानन्दजी ने कहा - गुजरात के काठियावाड़ प्रदेश से हम आये हैं और आपके पद - "इनमें क्या लीजे क्या दीजे ।" बणजारोंसे सुनकर आपसे दीक्षा लेने आये हैं । आप कृपा करके हम सबको अपने शिष्य बनाकर अपनी साधन पद्धति बताकर हमारा जन्मादि संसार दुःखों से उद्धार करिये । इसलिये हम लोग आपकी शरण में आये हैं । उनकी उक्त प्रार्थना सुनकर दादूजी ने उनको इस पद से उपदेश किया -
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"भाई रे तेन्हौं रुड़ो थाये, जे गुरु मुख मारग जाये ॥टेक॥
कुसंगति परिहरिये, सत्संगति अणसरिये ॥१॥
काम क्रोध नहिं आणैं, वाणी ब्रह्म बखाणैं ॥२॥
विषया थैं मन बारे, ते आपणपो तारे ॥३॥
विष मूकी१ अमृत लीधो, दादू रुड़ौ२ कीधो ॥४॥
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हे भाई ! जो गुरु-आज्ञानुसार साधन करता है, उसी का कल्याण होता है । अतः कुसंगति को त्यागकर सत्संग में रहते हुये काम क्रोधादि को हृदय में स्थान न देकर, ब्रह्म सम्बंन्धी वाणी बोलते हैं और विषयों से मन को दूर रखते हैं, वे अपने को संसार में तार लेते हैं । तुमने विषय-विष को त्याग१ कर के भगवद् नामामृत का पान किया है, यह बहुत अच्छा२ किया है ।
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उक्त पद से उपदेश देकर दादूजी ने उनको दीक्षा दे दी । ये परिवार के पाँचों ही भक्त थे और सदा प्रभु के गुण गाते रहते थे । एक वर्ष आमेर में रहकर इस परिवार ने दादूजी से सत्संग किया । फिर अपने पुत्र सहजानन्द को गरीबदासजी का शिष्य बना दिया । पश्चात् दादूजी की आज्ञा लेकर जोधपुर के पास गोहा की पहाड़ी पर जाकर भजन करने लगे और उच्च कोटि के संत हो गये ।
(क्रमशः)
#‎daduji‬
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२९६. मंगलाचरण । राज विद्याधर ताल ~ 
नमो नमो हरि ! नमो नमो ।
ताहि गुसाँई नमो नमो, अकल निरंजन नमो नमो ।
सकल वियापी जिहिं जग कीन्हा, नारायण निज नमो नमो ॥ टेक ॥ 
जिन सिरजे जल शीश चरण कर, अविगत जीव दियो ।
श्रवण सँवारि नैन रसना मुख, ऐसो चित्र कियो ॥ १ ॥ 
आप उपाइ किये जगजीवन, सुर नर शंकर साजे ।
पीर पैगम्बर सिद्ध अरु साधक, अपने नाम निवाजे ॥ २ ॥ 
धरती अम्बर चंद सूर जिन, पाणी पवन किये ।
भानण घड़न पलक में केते, सकल सँवार लिये ॥ ३ ॥ 
आप अखंडित खंडित नाहीं, सब सम पूर रहे ।
दादू दीन ताहि नइ वंदित, अगम अगाध कहे ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें नमस्कार आत्मक मंगल कर रहे हैं कि हे हरि ! पाप और पाप के फल दुःख का नाश करने वाले आप सत्त् चित् आनन्द स्वरूप को हमारा पुनः नमस्कार होवे । हे सकलव्यापी ! आपने इस जगत की रचना की है । हे नारायण ! निज आत्म - स्वरूप आपको हमारी नमो नमो । हे संतों ! जिस प्रभु ने जल की बूँद से उत्पन्न किये और नख से शिखा पर्यन्त सारे शरीर में सब अंग उपांग रचकर फिर इसमें चेतन रूप जीव दिया है । जिससे सारा शरीर चैतन्य हो रहा है । श्रवण नेत्र, मुख में रसना, वक्तृत्व शक्ति, ऐसा शरीर रूप एक अजब चित्राम, गर्भवास में बनाया है । ऐसे प्रभु को हम बारम्बार नमस्कार करते हैं । वे आप स्वयं अपने आप से, सारे जगत् को उत्पन्न करके, सबके जीव जीवनरूप हो रहे हैं । उन्होंने ही ‘सुर’ - देवता, नर - नारद आदि, शंकर शिवजी, इन सबको रचकर सृष्टि के पूज्य बनाये हैं । पीर, पैगम्बर, सिद्ध, साधक, इन सबका आपने नाम - स्मरण द्वारा उद्धार किया है । धरती और अम्बर रचकर इनमें चन्द्रमा, सूर्य प्रकाश करने वाले बनाए हैं । पानी और पवन की रचना की है । एक पलक में प्रलय करके दूसरी पलक में कितने ही ब्रह्माण्डों की रचना रचते हैं । वे अपने भक्तों की इस संसार में रक्षा करके अपनी शरण में लेते हैं और आप स्वयं अखण्ड हैं । कभी नाश को प्राप्त नहीं होते । सबमें समान भाव से व्याप्त हो रहे हैं । हे अगम अगाध ! हम आपके दीन, गरीब, भक्त आपको बारम्बार नमस्कार करते हैं ।

कौन भाँति करतार कियो है शरीर यह, 
पावक के माहिं देखो पानी को जमावनो ।
नासिका श्रवण नैन वदन रसन बैन, 
हाथ पाँव अंग नखशिख को बनावनो ॥ 
अजब अनूप रूप चमक दमक ऊप, 
सुन्दर शोभित अति लागत सुहावनो ।
जाहि छिन चेतना शकति यह लीन भई, 
ताहि छिन लागत सबनि को अभावनो ॥
(सुन्दर विलास)
卐 सत्यराम सा 卐
३७३. सतगुरु तथा नाम महिमा । त्रिताल
सतगुरु चरणां मस्तक धरणां, राम नाम कहि दुस्तर तिरणां ॥ टेक ॥ 
अठ सिधि नव निधि सहजैं पावै, अमर अभै पद सुख में आवै ॥ १ ॥ 
भक्ति मुक्ति बैकुंठा जाइ, अमर लोक फल लेवै आइ ॥ २ ॥ 
परम पदारथ मंगल चार, साहिब के सब भरे भंडार ॥ ३ ॥ 
नूर तेज है ज्योति अपार, दादू राता सिरजनहार ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें, सतगुरु और नाम की महिमा दिखा रहे हैं कि हे जिज्ञासु ! सत्य उपदेश के देने वाले सतगुरु के पवित्र चरणारविन्दों में अपना मस्तक हमेशा रखिये अथवा अपने मन के आपा अभिमान रूपी सिर को चढ़ाइये और राम - नाम का स्मरण करते हुए, इस दुस्तर कठिन संसार - समुद्र से पार हो जाइये । इस प्रकार उस उत्तम जिज्ञासु को अष्ट सिद्धि और नौ निधि स्वभाव से ही प्राप्त होती रहती हैं, परन्तु वह उन में लोलुप नहीं होता है । भक्ति ग्यारह प्रकार की, मुक्ति चार प्रकार की, और बैकुंठ के अभिमानी देव, ये सब ही शरीर रूप से आकर उनका स्वागत करते हैं और कहते हैं कि आप हमको अपना लो और अमर लोक का मोक्षरूपी फल आप चलकर लीजिये । चार पदार्थ - अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष रूप साहिब के नाम में उपरोक्त सभी वस्तुओं के भंडार भरे हैं । परन्तु जो ब्रह्मतेज शुद्ध स्वरूप अपार है । उसी के अभेद निश्चय रूप नाम स्मरण में राते = रत्त और माते = मतवाले रहने वाले किसी प्रकार भी अपने हृदय में वासना नहीं रखते ।
Place your head on the holy feet of the true Guru
And cross the impassable
with the repetition of God’s Name.
With ease shall you find the eight perfections
and the nine treasures,*
And shall come to the eternal abode of bliss,
a home without fear.
Devotion and freedom shall you attain
And to paradise shall you go to.
Also shall you obtain the fruit of the eternal world.
The Lord’s treasure is full of auspiciousness
and the greatest goods of life,
And the unsurpassable Flame
of lustrous light abides there.
To such a Creator is Dadu dedicated.
*The eight perfection are the traditionally mentioned paranormal powers e.g. the power to assume extreme subtlety(anima), extreme lightness(laghima), extreme heaviness(garima), extensive magnitude(mahim) etc. The nine traditionally mentioned treasures of Kuber, the god of wealth, are the great divine lotus(maha-padma), the holy conch(sankha), etc.
(English translation from
"Dadu~The Compassionate Mystic" 
by K. N. Upadhyaya~Radha Soami Satsang Beas)
卐 सत्यराम सा 卐
२४२. राज विद्याधर ताल ~
मेरा गुरु आप अकेला खेलै ।
आपै देवै आपै लेवै, आपै द्वै कर मेलै ॥ टेक ॥ 
आपै आप उपावै माया, पंच तत्व कर काया ।
जीव जन्म ले जग में आया, आया काया माया ॥ १ ॥ 
धरती अंबर महल उपाया, सब जग धंधै लाया ।
आपै अलख निरंजन राया, राया लाया उपाया ॥ २ ॥ 
चन्द सूर दोइ दीपक कीन्हा, रात दिवस कर लीन्हा ।
राजिक रिजक सबन को दीन्हा, दीन्हा लीन्हा कीन्हा ॥ ३ ॥ 
परम गुरु सो प्राण हमारा, सब सुख देवै सारा ।
दादू खेलै अनन्त अपारा, अपारा सारा हमारा ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें गुरु उपदेश का परिचय दे रहे हैं कि हे जिज्ञासुओं ! हमारे परब्रह्म रूप गुरुदेव ही आप स्वयं अकेले संसार में व्यापक रूप से खेल रहे हैं । आप स्वयं ही भक्तों को दर्शन देते हैं और आप ही भक्तों का अर्पण किया हुआ पत्र, पुष्प, फल, जल आदि को ग्रहण करते हैं और आप ही भक्तों की भाव भक्ति के द्वारा निज रूप भक्तों से मिलते हैं और वे समर्थ परमेश्वर, अपने आपसे ही आप माया उत्पन्न करते हैं और फिर माया के पांच तत्व और फिर पांच तत्त्वों से काया की रचना करते हैं । फिर शरीरधारी जीव जन्म लेकर संसार में आता है यह काया रूप माया लेकर । उस समर्थ प्रभु ने धरती रूप आंगन और आकाशरूपी छत वाला, यह ब्रह्माण्ड रूप महल उत्पन्न किया है और इसमें सम्पूर्ण जगत् के जीवों को कर्म रूपी धंधों में लगाये हैं । वह आप स्वयं मन - वाणी का अविषय, अलख, निरंजनरूप राजा, जीव को उत्पन्न करके, कर्मों में लगाया है । उपरोक्त ब्रह्माण्ड रूपी महल के उसने चन्द्रमा - सूर्य रूप दो दीपक रचे हैं और फिर रात - दिन बनाकर कर्मानुसार सबको फिर आप ही राजिक रूप होकर रिजक दे रहे हैं । और जीव ले रहे हैं । ऐसा काम वह समर्थ आप करता है । वह ही हमारे परम गुरुदेव, प्राणों से भी अधिक हमें प्रिय हैं । वही हमको सम्पूर्ण सुखों में सार सुख के देने वाले हैं । इस प्रकार मुक्त पुरुष, उस अनन्त अपार, सबके सार स्वरूप सुख को, अपना स्वरूप जानकर उस विश्व के सार रूप को अपना निज रूप करके ही निश्चय किया है ।
यं न प्रकाशयति किंचिद्दिनोऽपिचन्द्रः, 
नो विद्युतः किमुत विेरयं मिताभः ॥ २४२ ॥ 
यः भान्तमेतमनुभाति जगत्समस्तं, 
सोऽयं स्वयं स्फुरति सर्वदशासु चात्मा ॥ २४२

गुरुवार, 30 जुलाई 2015

= ९६ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू लाइक हम नहीं, हरि के दर्शन जोग ।
बिन देखे मर जाहिंगे, पीव के विरह वियोग ॥९२॥
जैसे किसी भाग्यवान् पुरुष के पास पारस होवे तो कोई संसारीजन उसको मूल्य से नहीं खरीद सकते, कदाचित् स्वामी ही स्वयं कृपा करे तो भले ही प्राप्त होवे । इसी प्रकार श्री सतगुरु भगवान् ईश्वर के प्रति अपना विनय भाव दर्शाते हैं कि हे प्रभु ! हम विरहीजन आपके दर्शनों के योग्य नहीं है । हमारे में भक्ति, विरह आदि साधनों में अपूर्णता और मनुष्य जन्मरूपी यह अमूल्य अवसर प्राप्त करके भी आपके दर्शनों बिना विरह व्याकुलता में ही हम प्राणों का विसर्जन करेंगे । हे प्रभु ! आप ही कृपा करें तो हम विरहीजनों का उद्धार हो सकता है । अर्थात् आत्म-साक्षात्कार या ईश्वर-दर्शन रूप पूर्ण प्राप्ति बिना जिज्ञासुओं को अपनी साधना में ही अपूर्णता माननी चाहिये । परमेश्वर की भक्त-वत्सलता आदि में संशय करना उपयुक्त नहीं हैं ॥९२॥
प्रेम बनिज कीन्हों नहीं, नेह नफो नहिं जान ।
ऊधौ अब उलटी भई, प्राण पूँजी मेहमान ॥
दरद नहीं दीदार का, तालिब नांहि जीव ।
रज्जब विरह वियोग बिन, कहां मिले सो पीव ॥
(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग)
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साभार : मुक्ता अरोड़ा स्वरुप निश्चय ~
जिसे ये समझ आये कि उसकी झोली कंकरों से भरी है वही सद्गुरु से दर्शन की याचना करता है, जिसे अपनी झोली रत्नों से भरी दिखे वह ऐसी अनुपम याचना के आनन्द से वंचित ही रह जाता है ।

२८ . आत्म अनुभव को अंग ~ ४

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२८. आत्म अनुभव को अंग*
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*व्योम सौ सोम्य अनंत अखंडित,*
*आदि न अंत सु मध्य कहां है ।*
*को परिमान करै परिपूरन,*
*द्वैत अद्वैत कछू न जहां है ॥*
*कारन कारज भेद नहीं कछु,*
*आपु मैं आपु ही आपु तहां है ।*
*सुन्दर दीसत सुन्दर मांहिं सु,*
*सुन्दरता कहि कौंन उहां है ॥४॥*
आकाश व्यापक है, अखण्ड है । उसका न आदि है, न अन्त है न मध्य । 
इसी तरह उस परिपूर्ण परमात्मा का परिमाण कौन जान सकता है, जहाँ द्वैत या अद्वैत कुछ भी नहीं है । 
वहाँ कारण एवं कार्य का भेद नहीं है, क्योंकि वह स्वयं अपने आप में वहाँ है ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - वह वाह्य एवं आभ्यन्तर सर्वत्र सुन्दर है; परन्तु उसकी वह सुन्दरता कैसी है - इसका यथातथ रूप से वर्णन नहीं किया जा सकता ॥४॥
(क्रमशः)

*शिष्य तेजानन्द*

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ १६ वां विन्दु ~*
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*शिष्य तेजानन्द -*
तेजानन्दजी गुजरात देश के नृसिंहपुरा ग्राम के रहने वाले वैश्य थे । इन्होंने बणजारों से दादूजी का यह पद सुना -
"इनमे क्या लीजे क्या दीजे,
जन्म अमोलक छीजे ॥टेक॥
सोवत स्वप्ना होई, जागे तैं नहिं कोई ।
मृग तृष्णा जल जैसा, चेत देख जग ऐसा ॥१॥
बाजी भरम दिखावा, बाजीगर डहकावा१ ।
दादू संगी तेरा, कोई नहीं किस केरा ॥२॥
अर्थ - अरे ! इन विषयों में क्या लेना देना है ? व्यर्थ ही अमूल्य मानव जन्म क्षीण होता है । ये तो प्राणी अज्ञान निद्रा में सोया हुआ है तब तक ही स्वप्नवत भास रहे हैं, ज्ञान जाग्रत में आते ही, कोई भी नहीं रहेगा । सचेत होकर देख, यह संसार मृग तृष्णा के जल वत प्रतीति मात्र ही है । जैसे बाजीगर बाजी दिखाकर बहकाता१ है वैसे ही भ्रम से सत्य भास रहा है । वास्तव में इस संसार में न तेरा कोई है और न तू ही किसी का है ।
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उक्त शब्द से तेजानन्दजी अति प्रभावित हुये और बणजारों से पूछा - यह वाणी किनकी है ? बणजारों ने कहा - दादूजी की है । तेजानन्दजी ने पूछा - वे आज कल कहाँ हैं । बणजारों ने कहा - राजस्थान के आमेर नगर में हैं । यह सुनकर तेजानन्दजी ने कहा - मैं उनके दर्शन करने जाऊंगा ।
.
तब बणजारों ने कहा हम आपको दादूजी महाराज के लिये एक चोला देंगे, वह भी आप लेते जाना और दादूजी महाराज के चरणों में रखकर हमारी ओर से उनको प्रार्थना करना कि यह बणजारों ने आपके पहनने के लिये भेजा है, इसे आप ही पहनें । तेजानन्दजी ने बणजारों की उक्त बात मानली । फिर बणजारों ने अपनी इच्छा के अनुसार सुन्दर चोला बनवाकर तेजानन्दजी को दिया ।
(क्रमशः)
#‎daduji‬
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२९५. परमेश्‍वर महिमा । राज विद्याधर ताल ~ 
तुम बिन ऐसैं कौन करै !
गरीब निवाज गुसांई मेरो, माथै मुकुट धरै ॥ टेक ॥ 
नीच ऊँच ले करै गुसांई, टार्यो हूँ न टरै ।
हस्त कमल की छाया राखै, काहू तैं न डरै ॥ १ ॥ 
जाकी छोत जगत को लागै, तापर तूँ हीं ढ़रै ।
अमर आप ले करे गुसांई, मार्यो हूँ न मरै ॥ २ ॥ 
नामदेव कबीर जुलाहो, जन रैदास तिरै ।
दादू बेगि बार नहीं लागै, हरि सौं सबै सरै ॥ ३ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव परमेश्‍वर की महिमा दिखा रहे हैं कि हे हमारे स्वामी दयालु परमेश्‍वर ! गरीबों को निवाजने वाले ! आपके बिना ऐसी दया हम अधम पापी जीवों पर कौन कर सकता है ? मैं स्त्री, धर्म सम्पन्न वेश्या जाति में मुझसे ब्राह्मण वगैरा नफरत करते हैं, परन्तु आप मुझ अभक्त पर दया करके मेरे हाथों से अपने सिर पर मुकट धारण कर रहे हो । हे गुसांई ! मेरे जैसी नीच स्त्री को भी आपने अपनी शरण में लेकर उच्च राम - भक्तों में मुझे शामिल कर दिया है । फिर ऐसे भक्त को आपकी भक्ति से कोई हटावे तो वह हट नहीं सकता क्योंकि आप अपने कमाल रूप हाथों की छाया में, कहिए शरण में रखते हो फिर वह भक्त, राजा से रंक पर्यन्त और यमराज आदि के किसी भी भय से नहीं डरते । हे दयालु ! जिस रजस्वला स्त्री की छोत जगत मानता है, उस पर आप दया करके अपनी शरण में अमर कर लेते हो, वह फिर किसी के मारने से भी मृत्यु को प्राप्त नहीं होती । हे नाथ ! नामदेव छीपा, कबीर जुलाहा, रैदास चमार कुल में सब ही जन आपकी शरण में आकर, आपके नाम - स्मरण द्वारा संसार - समुद्र से तैर गये हैं । हे हरि ! आपके भक्तों के सम्पूर्ण काम शीघ्रतापूर्वक आप ही सब सिद्ध करते हो ।

भक्तमाल से ~ दक्षिण भारत पंडलपुर नगर में रंगनाथ भगवान ने रजस्वला वेश्या स्त्री के भाव - भक्ति और प्रेम भरे हाथों से अर्पण किए हुए सोने के मुकट को भगवान् ने सिर झुकाकर धारण किया है । यह कथा भक्तमाल जी में समदाई छप्यय ८८ पृष्ठ ९६ टीका में आती हैं ।
राधो रंगनाथ जी को सीस आयो सनमुख, 
बार मुखी बार - बार लेत नित वारणा ।
मैं हूँ महा मध्यम अछोप मतिहीन मेरी, 
तुम प्रभु ! प्राणनाथ पतित उधारणा ॥ 
मुकुट चढ़ावत मगन भई मातंग ज्यों, 
जग मध्य जै जै कार गेह गेह वारणा ।
गनिका मुकति भई चारों जुग माहीं चार, 
जीत लियो जनम बिना ही जोग धारणा ॥ 

भजन
हरि बिन को पत राखै मेरी । 
दुःसह दुःशासन अंध अंध को, आन समा में घेरी ॥ टेक ॥ 
भीषम कर्ण द्रोण से ठाडे, किनहुँ न पाछी फेरी । 
यों मति भ्रष्ट भई सबहिन की पकर लई जिमि चेरी ॥ १ ॥ 
भई अनाथ रक्षक को नाहीं, दृष्टि चहुँ दिशि फेरी । 
अब के सहाइ करो करुणानिधि, डूबत राखो बेरी ॥ २ ॥ 
दृढ़ विश्‍वास भयो जिय मेरे, हरि हिरदा में टेरी । 
हा हा ! कृष्ण द्वारका वासी, जनम जनम की चेरी ॥ ३ ॥
तज खगराज आतुर हो ध्याये, ताप हरी जन केरी । 
‘सूर’ रमापति चीर बधायो, बई नाम लग ढ़ेरी ॥ ४ ॥ 



बुधवार, 29 जुलाई 2015

= ९५ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
साहिब जी की आत्मा, दीजे सुख संतोंष ।
दादू दूजा को नहीं, चौदह तीनों लोक ॥
दादू जब प्राण पिछाणै आपको, आत्म सब भाई ।
सिरजनहारा सबनि का, तासौं ल्यौ लाई ॥
=================
साभार ~ NP Pathak
~ दीन दुखियो की सेवा....
एक बार गुरु नानक देव जी जगत का उद्धार करते हुए एक गाँव के बाहर पहुँचे; देखा वहाँ एक झोपड़ी बनी हुई थी ! उस झोपड़ी में एक आदमी रहता था जिसे कुष्ठ - रोग था ! गाँव के सारे लोग उससे नफरत करते; कोई उसके पास नहीं आता था ! कभी किसी को दया आ जाती तो उसे खाने के लिये कुछ दे देते अन्यथा भूखा ही पड़ा रहता !
.
नानक देव जी उस कोढ़ी के पास गये और कहा - भाई हम आज रात तेरी झोपड़ी में रहना चाहते हैं अगर तुम्हें कोई परेशानी ना हो तो ? कोढ़ी हैरान हो गया क्योंकि उसके तो पास भी कोई आना नहीं चाहता था फिर उसके घर में रहने के लिये कोई राजी कैसे हो गया ? कोढ़ी अपने रोग से इतना दुखी था कि चाह कर भी कुछ ना बोल सका; सिर्फ नानक देव जी को देखता ही रहा ! लगातार देखते - देखते ही उसके शरीर में कुछ बदलाव आने लगा, पर कुछ कह नहीं पा रहा था !
.
नानक देव जी ने मरदाना को कहा - रबाब बजाओ ! नानक देव जी ने उस झोपड़ी में बैठ कर कीर्तन करना आरम्भ कर दिया ! कोढ़ी ध्यान से कीर्तन सुनता रहा ! कीर्तन समाप्त होने पर कोढ़ी के हाथ जुड़ गये जो ठीक से हिलते भी नहीं थे ! उसने नानक देव जी के चरणों में अपना माथा टेका !
.
नानक देव जी ने कहा - और भाई ठीक हो; यहाँ गाँव के बाहर झोपड़ी क्यों बनाई है ? कोढ़ी ने कहा - मैं बहुत बदकिस्मत हूँ, मुझे कुष्ठ रोग हो गया है ! मुझसे कोई बात तक नहीं करता, यहाँ तक कि मेरे घर वालों ने भी मुझे घर से निकाल दिया है ! मैं नीच हूँ इसलिये कोई मेरे पास नहीं आता !
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उसकी बात सुन कर नानक देव जी ने कहा - नीच तो वो लोग है जिन्होंने तुम जैसे रोगी पर दया नहीं की और अकेला छोड़ दिया ! आ मेरे पास, मैं भी तो देखूँ कहाँ है तुझे कोढ़ ? जैसे ही कोढ़ी नानक देव जी के नजदीक आया तो प्रभु की ऐसी कृपा हुई कि कोढ़ी बिल्कुल ठीक हो गया ! यह देख वह नानक देव जी के चरणों में गिर गया !
.
गुरु नानक देव जी ने उसे उठाया और गले से लगा कर कहा - प्रभु का स्मरण करो और लोगों की सेवा करो; यही मनुष्य के जीवन का मुख्य कार्य है !

= ९४ =


卐 सत्यराम सा 卐
सारों के सिर देखिये, उस पर कोई नांहि ।
दादू ज्ञान विचार कर, सो राख्या मन मांहि ॥
सब लालों सिर लाल है, सब खूबों सिर खूब ।
सब पाकों सिर पाक है, दादू का महबूब ॥
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साभार : Gauri Mahadev ~
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भगवान् श्रीकृष्ण के षड - ऐश्वैर्य :::
धन -- बल-- यश-- सौन्दर्य-- ज्ञान -- वैराग्य हैं ।
धन - भगवान् श्री कृष्ण जब प्रकट हुए तब उनके दिव्य शरीर पर उच्चतम गुणवत्ता के सोने और हीरे के नाना प्रकार के आभूषण थे ।
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बल - भगवान् श्रीकृष्ण प्रागट्य के समय बिना कुछ करे वासुदेव के हाथों और पैरों की बेड़ियाँ तथा कारागार के सभी द्वार-ताले अपने आप खुल गए थे ।
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यश - भगवान् श्री कृष्ण प्रागट्य के समय ब्रम्ह-लोक में निवास करने वाले ब्रम्हा जी, सभी लोकों के देवगण और देवर्षि नारद मुनि स्वयं श्रीभगवान् की स्तुति करने हेतु प्रागट्य स्थान पर पहुंचे ।
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सौन्दर्य - भगवान् श्री कृष्ण के सौन्दर्य की तो बात ही क्या कहनी । काला रंग प्रकाश को सोख लेता है । लेकिन श्रीभगवान् का रूप मेघवर्ण है अर्थात अर्ध-काला और अर्ध-नीला है (अंग्रेज़ी में bluish-black) । उनके शरीर से दिव्य तेज निकल रहा था जो कि उच्च कोटि के सौन्दर्य को दर्शा रहा था ।
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ज्ञान - श्रीभगवान् ने प्रकट होते ही अपने माता-पिता को ज्ञान देना शुरू कर दिया और यह बतलाया कि तीन जन्म पहले उन्होंने श्री भगवान् को तीन जन्मों तक उनके जैसे पुत्र की कामना की । श्रीभगवान् के अलावा और कोई दूसरा नहीं है अर्थात वे अद्वितीय हैं ।
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वैराग्य - श्रीभगवान् को जब नन्द बाबा के घर मैया यशोदा के पास ले जाया जा रहा था तब उन्हें एक बार भी मैया देवकी का मोह न सताया । परम-वैराग्य की साक्षात मूरत हैं श्री कृष्ण ।
_/\_ हरे कृष्ण _/\_

२८ . आत्म अनुभव को अंग ~ ३

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
.
*२८. आत्म अनुभव को अंग*
.
*होत विनोद जु तौ अभिअंतरि,* 
*सो सुख आपु मैं आपु हि पइये ।* 
*बाहिर कौ उमग्यौ पुनि आवत,* 
*कंठ तैं सुन्दर फेरि पठइये ॥* 
*स्वाद निबेरैं निबेर्यौ न जात,* 
*मनौं गुर गूंगे हि ज्यौं नित खइये ।* 
*क्या कहिये कह तैं न बनैं कछु,* 
*जौ कहिये कहतैं ही लजइये ॥३॥* 
आत्मसाक्षात्कार के बाद जो हृदय में आनन्दानुभूति होती है, उस ब्रह्म का स्वयं ही अनुभव किया जा सकता है । 
परन्तु जब उसको दूसरों के लिये कहना आरम्भ करते हैं तो बात कण्ठ तक आकर रह जाती है । 
उस आनन्दरस जब हम विश्लेषण करना चाहते हैं तो हम वैसे ही उसे नहीं कर पाते जैसे गूँगा गुड़ खा कर भी उस के स्वाद का वर्णन नहीं कर पाता । 
अतः *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं – उसके विषय में क्या कहा जाय; क्योंकि जब हम उसका यथातथ रूप से वर्णन ही नहीं कर पाते तो हमें स्वयं संकोच होने लगता है ॥३॥ 
(क्रमशः)

*शिष्य गरीबदास*

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ १६ वां विन्दु ~*
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*शिष्य गरीबदास* - सांभर में गरीबदासजी जब सात वर्ष के हो गये तब उनकी माता नान्हीबाईजी ने तथा दादूजी की बहिन हीरा(हवा) बाईजी ने विचार किया अब गरीबदास को दादूजी महाराज के पास आमेर भेज देना ही अच्छा है ।
.
फिर किसी एक भक्त के साथ जो दादूजी के दर्शनार्थ आमेर जा रहा था, उसके साथ गरीबदासजी को भेजने की व्यवस्था की और एक पत्र लिखकर भक्त को दे दिया । उसमें लिखा था - प्रभो ! अब गरीबदास आपकी सेवा में रहने योग्य हो गया है अतः अब आप इसको अपना शिष्य बनाकर अपनी साधन पद्धति से निर्गुण ब्रह्म की उपासना में लगाइये ।
.
यही हम दोनों की करबद्ध प्रार्थना है । गरीबदास उक्त भक्त के साथ आमेर गये और दादूजी का दर्शन करके उनके चरणों में साष्टांग दंडवत किया । फिर हाथ जोड़ कर सामने बैठ गये । साथ के भक्त ने उक्त पत्र दिया । दादूजी ने उसे पढ़कर स्वीकार कर लिया । फिर गरीबदासजी को दादूजी ने इस शब्द से उपदेश दिया -
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"आप आपण में खोजो रे भाई,
वस्तु अगोचर गुरु लखाई ॥टेक॥
ज्यों मही बिलोये माखण आवे,
त्यों मन मथियाँ तैं तत पावे ॥१॥
काष्ट हुताशन रह्या समाई,
त्यों मन मांहीं निरंजन राई ॥२॥
ज्यों अवनी में नीर समाना,
त्यों मन मांहीं साँच सयाना ॥३॥
ज्यों दर्पण के नहिं लागे काई,
त्यों मूरति मांहीं निरख लखाई ॥४॥
सहजैं मन मथिया तैं तत पाया,
दादू उनतो आप लखाया ॥५॥"
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फिर गरीबदासजी दादूजी के पास रहकर प्रभु प्राप्ति का साधन रूप भजन करने लगे तथा संगीत का भी अभ्यास करने लगे । आगे चलकर राजस्थान के वे प्रधान संगीतज्ञ कहलाये थे ।
(क्रमशः)
#‎daduji‬
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२९४. राज मृगांक ताल ~
नीके मोहन सौं प्रीति लाई ।
तन मन प्राण देत बजाई, रंग रस के बनाई ॥ टेक ॥ 
ये ही जीयरे वे ही पीवरे, छोड्यो न जाई, माई ।
बाण भेद के देत लगाई, देखत ही मुरझाई ॥ १ ॥ 
निर्मल नेह पिया सौं लागो, रती न राखी काई ।
दादू रे तिल में तन जावे, संग न छाडूं , माई ॥ २ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव विरह का स्वरूप कह रहे हैं कि हे संतों ! अब तो हमने माया से प्रीति हटाकर मोहन के साथ अच्छी प्रकार अपनी प्रीति लगाई है । हृदय में अखंड प्रेम रूपी बाजे बजाते हुए हम अपना तन - मन - प्राण मोहन को समर्पण कर रहे हैं । उसके निष्कामी भक्ति रूपी रंग में अपनी इन्द्रियों को भी रंगकर रस पीने वाली बना ली हैं । वही हमारे पीव हमारे जीवरूप हैं । हे संतों ! अब हम उनको छोड़ नहीं सकते । क्योंकि वे फिर अपना वियोग रूपी विरह के बाण लगा देते हैं, जिससे हमारा हृदय कमल कुम्हला जाता है । अब तो हमारा निर्मल निर्वासनिक स्नेह, प्रीतम प्यारे परमेश्‍वर से लगा है । अब हम उनसे एक रत्ती भी ‘कालिमा’, कहिए अन्तर नहीं रखते हैं, क्योंकि हे संतों ! यह हमारा तन एक क्षण में जाने वाला है, न मालूम कब चला जाय ? इसलिए अब हम अपने स्वामी अधिष्ठान चेतन परमेश्‍वर का संग नहीं छोड़ेंगे ।
अब मेरी मोहन सूं बन आई । 
सब गुण आगर जगत उजागर, ब्रह्मादिक गुण गाई ॥ टेक ॥ 
आठ पहर में चितवत रहि हूँ, निर्धन ज्यों धन पाई ॥ १ ॥ 
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, अंग में अंग समाई ॥ २

मंगलवार, 28 जुलाई 2015

= ९३ =

दादूराम सत्यराम
फल कारण सेवा करै, जाचै त्रिभुवन राव ।
दादू सो सेवक नहीं, खेले अपना दाव ॥९१॥
Those who serve and beg the Lord of the three worlds for worldly fruit, They are not true servants; they are playing their game, O Dadu.
सहकामी सेवा करैं, मागैं मुग्ध गँवार ।
दादू ऐसे बहुत हैं, फल के भूँचनहार ॥९२॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! संसारीजन अन्तर्यामी त्रिभुवनपति परमेश्वर से भोग्य पदार्थ एवं स्वर्ग आदि लोकों की याचना करते हैं, परन्तु ऐसे पुरुष प्रभु के पतिव्रत - धर्म धारण करने वाले सेवक नहीं हैं । वे स्वार्थपूर्ति हेतु भक्ति का ढोंग करते हैं । ऐसे माया में आसक्ति रखने वाले मूर्ख संसारीजन कहिए, निषिद्ध भोगों में फँसे हुए नाना प्रकार के सकाम कर्म करते रहते हैं । अतः वे सब मोक्ष रूपी फल से निष्फल ही रहते हैं ॥९१/२॥
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स्मरण नाम महात्म
तन मन लै लागा रहै, राता सिरजनहार।
दादू कुछ मांगैं नहीं, ते बिरला संसार॥९३॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सिरजनहार परमेश्वर के नाम - स्मरण में अपने तन को निर्दोष(चोरी, जारी, हिंसा से रहित) बनाकर और मन को संकल्प, विकल्प, तृष्णा से हटाकर, लगे रहें और फिर परमेश्वर से इस लोक और परलोक के तुच्छ पदार्थों की याचना न करें, ऐसे निष्कामी पतिव्रत - धर्म धारण करनेवाले बिरले पुरुष होते हैं ॥९३॥
(श्री दादूवाणी~निष्काम पतिव्रता का अंग)

२८ . आत्म अनुभव को अंग ~ २

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२८. आत्म अनुभव को अंग*
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*जासौं कहूं सबमैं वह एक सौ,*
*तौ कहैं कैसौ है आंखि दिखइये ।*
*जौ कहूं रूप न रेख तिसै कछु,*
*तौ सब झूठ कै मांनि कहइये ॥*
*जौ कहूं सुन्दर नैंननि मांझि,*
*तौ नैंनहूं बैंन गये पुनि हइये ।*
*क्या कहिये कहतैं न बनै कछु,*
*जौ कहिये कहतैं ही लजइये ॥२॥*
*वह निरुप है निराकार है* : मैं जब किसी से कहता हूँ कि वह प्रभु सर्वत्र समान है । तब वे पूछते हैं - वह कैसा है ? इसे हमें आंखों से दिखाओ ।
जब मैं कहता हूँ - उसका कोई रूप या आकार कुछ भी नहीं हाई, तो वो मेरा यह कथन असत्य मानते हैं ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - वह मेरे नेत्रों में विराजमान है - ऐसा यदि मैं कहता हूँ तो इन नेत्रों को वाणी(कहने की शक्ति) कहाँ है कि वे कुछ कह सकें ।
अतः उसके विषय में क्या क्या कहा जाय । उसका जब हम यथातथ रूप से(जैसा है वैसा) वर्णन नहीं कर पाते तो हमें अपने ज्ञान के विषय में संकोच होने लगता है ॥२॥
(क्रमशः)

*ठग को उपदेश*

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ १६ वां विन्दु ~*
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*ठग को उपदेश -*
दादूजी ने उसको यह पद सुनाया -
"हम पाया हम पाया रे भाई, भेष बनाय ऐसी मन आई ॥टेक॥
भीतर का यहु भेद न जाने, कहै सुहागिनि क्यों मन माने ॥१॥
अंतर पीव सौं परिचय नांहीं, भई सुहागिनि लोकन मांहीं ॥२॥
सांई स्वप्ने कबहुँ न आवे, कहबा ऐसे मह्ल बुलावे ॥३॥
इन बातन मोहि अचरज आवे, पटम१ किये कैसे पिव पावे ॥४॥
दादू सुहागिनि ऐसे कोई, आपा मेट राम रत होई ॥५॥
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अर्थ :- दंभी प्राणी संत के समान भेष बनाकर कहता है - भाइयो ! हमने प्रभु को प्राप्त कर लिया है, असंशय प्राप्त कर लिया है । प्रतिष्ठा के लिये उसके मन में यह दंभपूर्ण भावना आती है । वह अपने अन्तःकरण के भोग-राग रूप व भीतर स्थित आत्मा राम रूप रहस्य को नहीं जनता और अपने को प्रभु प्राप्ति रूप सुहाग से युक्त कहता है, परन्तु इस प्रकार करने से प्रभु तथा हमारा मन कैसे माने ?
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भीतर तो प्रभु से परिचय नही हुआ है, केवल दंभ से सांसारिक लोकों में अपने को प्रभु संयोगरूप सुहाग से युक्त कहता है । प्रभु तो कभी स्वप्न में भी हृदय में नहीं आते और कहता ऐसा है - मेरे हृदय-महल में प्रभु को प्रतिदिन बुलाता हूँ । ऐसी बातों से हमें बड़ा आश्चर्य होता है । पाखंड१ करने से प्रभु कैसे मिलेंगे ? जो सब प्रकार का अहंकार नष्ट करके राम में अनुरक्त होता है, ऐसा कोई महानुभाव ही प्रभु प्राप्ति रूप सुहाग से युक्त होता है ।
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फिर दूसरा पद भी सुनाया -
नाम रे हरि नाम रे, सकल शिरोमणि नाम रे,
मैं बलिहारी जाउं रे ॥टेक॥
दुस्तर तारे पार उतारे, नरक निवारे नाम रे ॥१॥
तारणहारा भव जल पारा, निर्मल सारा नाम रे ॥२॥
नूर दिखावे तेज मिलावे, ज्योति जगावे नाम रे ॥३॥
सब सुखदाता अमृतराता, दादू माता नाम रे ॥४॥
उक्त पद सुनाकर परम दयालु दादूजी ने कहा - जो हो गया सो तो हो गया अब भविष्य में ऐसा नहीं करना । सत्यता पूर्वक भगवान् का भजन करो, वैसे ही तुम्हारी इच्छा परमात्मा पूर्ण कर देंगे । पाखंड करना कभी अच्छा नहीं है । दंभ से प्राणी का भला नहीं होता है ।
(क्रमशः)

#‎daduji‬
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२९३. राज मृगांक ताल ~
कब देखूं नैनहुँ रेख रति, प्राण मिलन को भई मति ।
हरि सौं खेलूं हरि गति, कब मिल हैं मोहि प्राणपति ॥ टेक ॥ 
बल कीती क्यों देखूंगी रे, मुझ मांही अति बात अनेरी ।
सुन साहिब इक विनती मेरी, जनम - जनम हूँ दासी तेरी ॥ १ ॥ 
कहै दादू सो सुनसी सांई, हौं अबला बल मुझ में नांही ।
करम करी घर मेरे आई, तो शोभा पीव तेरे तांई ॥ २ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव विरह का स्वरूप कह रहे हैं कि हे संतों ! हमारे जीवात्मा में परमेश्‍वर प्राप्ति के लिये विरह का दर्द हो रहा है । हे नाथ ! आपको चाहे हम अपने ज्ञान रूप नेत्रों से एक क्षण भर ही देखें तो । हमारे प्राण और बुद्धि, जो आपके मिलने के लिये व्याकुल हो रहे हैं, वे शान्त होवें और फिर हे हरि ! आप अभेद चिन्तनरूप खेल खेलकर हमारी वृत्ति आपमें अनुरक्त रखें । हे हमारे प्राणपति परमेश्‍वर ! आप हमसे कब मिलेंगे ? मैं अपनी शक्ति करके तो आपको कैसे देख सकूँगी । क्योंकि मुझमें बहुत सी ऐसी गलत बाते हैं, जिनसे कि मैं आपको नहीं देख पाऊँगी । परन्तु हे हमारे साहिब ! एक हमारी प्रार्थना आप सुनिये कि मैं आपकी जन्म - जन्मान्तरों से दासी हूँ और आपसे विनती कर रही हूँ कि मेरी विनती को आप अवश्य सुनेंगे तथा दर्शन देंगे, ऐसी आशा है । हे प्रभु ! ऐसा दया रूपी कर्म करके आप हमारे हृदय रूपी घर में आइये, तो आप ही की इसमें शोभा है ।
“भक्ति - मुक्ति - स्पृहा यावत्, पिशाची हृदये स्थिते । 
तावद् भक्ति - सुखस्यात्र, कथमभ्युदयो भवेत् ?”
जब तक भक्ति - मुक्ति की तृष्णा पिशाचिनी हृदय में है, तब तक भक्ति का आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता ।
नृपति हरषहि साध के, जातो दरस चलाइ । 
जो सिध तो धन भाग मो, नहिं तो बड़ाई पाइ ॥ २६३ ॥ 
दृष्टान्त ~ एक राजा सत्संगी थे । उन्होंने सुना कि अमुक स्थान में सन्त आये हैं । तब विचार किया कि मैं सन्त के दर्शन करने चलूं । अगर महात्मा भक्ति ज्ञान रूपी सिद्धि सम्पन्न हैं, तो मेरा अहो भाग्य है और नहीं तो साधु के लिये बड़ाई तो मिलेगी, दुनियां में मान - प्रतिष्ठा होगी कि राजा उनके पास दर्शन करने जाता है

सोमवार, 27 जुलाई 2015

= ९२ =

卐 सत्यराम सा 卐
मन का आसन जे जीव जानै, तौ ठौर ठौर सब सूझै ।
पंचों आनि एक घर राखै, तब अगम निगम सब बूझै ॥
बैठे सदा एक रस पीवै, निर्वैरी कत झूझै ।
आत्मराम मिलै जब दादू, तब अंग न लागै दूजै ॥
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साभार ~ Pannalal Ranga
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*मन ही बंधन मन ही मुक्ति*
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आनंद सबकी इच्छा है। सुख, स्वस्ति और आनंद का प्रत्यक्ष क्षेत्र यही प्रकृति है। यहां शब्द हैं, रूप, रस, गंध और स्पर्श आनंद के उपकरण हैं, लेकिन आनंद की अनुभूति का केन्द्र भीतर है।
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भौतिकवादी भाषा में कहें तो सारा मजा "मन" का है, लेकिन मन है कि भागा-भागा फिरता है। मन की ताकत शरीर की ताकत से बड़ी है। मन हुआ तो एक पल में ही हम यहां से वहां। शरीर की यात्रा के लिए साधन चाहिए, समय चाहिए, लेकिन मन बंजारा है। निहायत घुमन्तू, न पासपोर्ट, न वीसा, लेकिन दुनिया के सभी देशों की यात्रा। मन विषयी भी है, सो बंधनकारी भी है।
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मन बुद्धि को भी हांक लेता है तब बुद्धि की युक्ति काम नहीं आती। बुद्धि और मन का मेल विरल है, दोनों मिल जाते हैं तो "मनीषा" कहलाते हैं और मनीषा वाले लोग कहे जाते हैं मनीषी। मनीषा का अर्थ है मन का शासक। मन और ईशा(शासक) मिलकर ही मनीषा है। कृष्ण ने अर्जुन को स्थिर प्रज्ञा के लिए यही उपाय बताया था, लेकिन अर्जुन ने मन का चरित्र बताया, "हे कृष्ण! मन बड़ा चंचल है, इसे नियंत्रित करना वायु पकड़ने से भी कठिन है।" गीता बाद की है, महाभारत वैदिककाल के बाद की घटना है।
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ऋग्वेद के ऋषि "मन" की ताकत, प्रवृत्ति और प्रकृति से बखूबी परिचित थे। मन की क्षमता का खूबसूरत प्रयोग ही सांसारिक सफलता है।
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मन एक देवता
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प्रकृति की ऊर्जा बहुआयामी है। वैदिक ऋषि विराट को देखकर भाव विभोर होते हैं, स्तुति करते हैं। इसलिए ऋग्वेद के देवताओं की नामावली लम्बी है। ऋग्वेद में "मन" भी एक देवता है, "आ तु एतु मन: पुन: क्रत्वे दक्षाय जीवसे, ज्योक च सूर्य दृशे" सतत् दक्ष-कर्म के लिए और दीर्घकाल तक सूर्य दर्शन के लिए श्रेष्ठ मन का आवाहन है। (10.57.4)
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पूर्वजों-पितरों से यही स्तुति है-"पुनर्न: पितरो मनोददातु दैत्यो जन: - पूर्वज-पितर हमारे मन को सत्कर्मों में प्रेरित करें। (वही, 5) सुख आनंद का क्षेत्र यही संसार और प्रत्यक्ष कर्म हैं, लेकिन मन देव यहां-वहां भागते हैं। ऋग्वेद की स्तुतियों में गजब का इहलोकवाद, भौतिकवाद है, दिव्यलोक, भूलोक तक चले गए मन को वापस लाते हैं, अस्थिर मन को दूरवर्ती प्रदेशों से वापस लाते हैं। जो मन समुद्र या अंतरिक्ष लोक या सूर्य देव तक चला गया है, उसे वापस लाते हैं। दूर से दूरस्थ, पर्वत, वन या अखिल विश्व में भ्रमणशील मन अथवा भूत या भविष्यत् में गए मन को भी वापस लाते हैं।" (10.58.1-12)
.
सभी 12 मंत्रों के अंत में एक वाक्य समान रूप से जुड़ा हुआ है- "क्योंकि संसार में ही आपका जीवन है - तत्त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे।" यहां संसार माया नहीं, यथार्थ है।
.
यजुर्वेद ऋग्वेद का परवर्ती है। लेकिन ऋग्वेद के 663 मंत्र ज्यों के त्यों यजुर्वेद में भी हैं। यजुर्वेद के रचनाकाल तक भारतीय दर्शन का समुचित विकास हो चुका था। ऋग्वेद के अनेक सूक्त दार्शनिक हैं। ऋग्वेद में विश्व दर्शन का झरोखा है। यजुर्वेद यज्ञ प्रधान है, लेकिन इसी का आखिरी अध्याय(40वां) ही विश्व का प्रथम उपनिषद् ईशावास्योपनिषद् बना। ईशावास्योपनिषद् दुनिया के तमाम विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में है। कम लोग जानते हैं कि यजुर्वेद के 34वें अध्याय के प्रथम 6 मंत्रों को भी उपनिषद् की मान्यता मिली। 6 मंत्रों वाले इस छोटे से उपनिषद् का नाम शिव संकल्प उपनिषद् पड़ा।
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॥शिवसङ्कल्प सूक्त॥
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यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदुसुप्तस्य तथैवैति।
दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥१॥
जो तीव्र गति से सर्वत्रगामी, जाग्रत् अवस्था या स्वप्नमय हो।
है ज्योतिवानों में स्व प्रकाशित, वह मन सदा शिव सङ्कल्पमय हो॥१॥
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येन कर्मार्ण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः।
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥२॥
जिसके सहारे सब कर्मयोगी, यज्ञादि-सत्कर्म करते सदय हों।
सब प्राणियों में, प्रकृति में सुशोभित, वह मन सदा शिव सङ्कल्पमय हो॥२॥
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यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु।
यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥३॥
जो बुद्धि में, चित्त-अन्तःकरण में, रहता अमर ज्योति के साथ लय हो।
जिसके बिना कर्म रहते असम्भव, वह मन सदा शिव सङ्कल्पमय हो॥३॥
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येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम्।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥४॥
जो भूत-भावी सहित हर समय को, धारण किये रहता बोधमय हो।
करते यजन जिससे सप्त होता, वह मन सदा शिव सङ्कल्पमय हो॥४॥
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यस्मिन्नृचः साम यजूँषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः।
यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥५॥
ऋक्-साम-यजु वेद जिस पर टिके हैं, धुरे पर ‘अरे’ ज्यों टिके शक्तिमय हो।
टिके हैं उसी पर सभी हित प्रजा के, वह मन सदा शिव सङ्कल्पमय हो॥५॥
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सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्ने नीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥६॥
अश्वादि को सारथी ज्यों चलाता, मन हाँकता इन्द्रियों को अभय हो।
जो है सहज ही अजर शक्तिशाली, वह मन सदा शिव सङ्कल्पमय हो॥६॥
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छहों मंत्र बड़े प्यारे हैं और मनोविज्ञान में रुचि रखने वाले विद्वानों के दुलारे भी हैं। यजुर्वेद का यही हिस्सा मनोविज्ञान या मन: शास्त्र का सम्यक् विवेचन है। यहां मन की शक्तियों को जीवन की सफलता के लिए जोड़ने का संकल्प है। उपनिषद् प्रेमियों ने ठीक ही इसका नाम शिवसंकल्पोपनिषद् रखा है। पहले मंत्र में मन का खूबसूरत विश्लेषण है - जैसे जाग्रत अवस्था में यह मन दूर-दूर तक जाता है, वैसे ही सोए हुए व्यक्ति का मन भी दूर-दूर तक भ्रमण करता है। गतिशील यह मन इन्द्रियों की ज्योति का संचालक है। यह जीवन ज्योति का माध्यम है। स्तुति है कि यह हमारा मन कल्याणकारी संकल्पों वाला हो।
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मन का सबसे बड़ा गुण है विकल्प। यहां-वहां, इधर-उधर, जिधर-किधर, लेकिन, किन्तु-परन्तु और यथा-तथा, सब मन के विकल्प हैं। सदा असंतुष्ट रहना उसकी प्रकृति है सो मन विकल्पों का रसिया है। उसकी क्षमता बड़ी है। वही शोक, हताशा, निराशा और विषाद का कारण है, सो वही बंधन है, वही हर्ष, उत्साह, प्रसाद का सोपान भी है, सो वही मुक्ति का द्वार भी है।
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बंधन और मोक्ष ~
तमाम शास्त्रों व उपनिषदों में एक साथ दोहराया गया मन सम्बंधी एक श्लोक स्मरणीय है- मन एव मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयो: - मन ही मनुष्यों के बंधन और मोक्ष का कारण है। फिर बंधन और मोक्ष के बारे में कहते हैं- "विषयों में आसक्ति बंधन है। विषयों से मुक्त मन-मुक्ति है - बन्धय विषयासक्तं, मुक्तये निर्विषयं।
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यजुर्वेद के ऋषि इसी मन को "शिव संकल्प" से जोड़ना चाहते हैं। ऋषि मोक्षकामी नहीं हैं। वे संसार का लोकमंगल चाहते हैं। उनके सपने लौकिक हैं। सभी 6 मंत्रों के अन्त में ऋषियों की एक ही लोकमंगल-अभीप्सा है- "तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु" - वह हमारा मन कल्याणकारी संकल्पों वाला हो। दूसरे मंत्र में कहते हैं- "सत्कर्मी मनीषी जिस मन से यज्ञ-शुभ कर्म करते हैं, जो मन सभी जीवों के शरीर के भीतर उपस्थित है, वह हमारा मन कल्याणकारी संकल्पों वाला हो।
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"तीसरे मंत्र में मन को ही ज्ञान, धैर्य और चेतना का धारक बताते हैं, "प्रज्ञान युक्त, धीर और चेतन मन समस्त प्राणियों के अन्त:करण में दिव्य ज्योति स्वरूप है, इसके अभाव में कोई भी कार्य नहीं हो सकता। वह हमारा मन कल्याणकारी संकल्पों वाला हो।" मन अविनाशी है, उसकी सामथ्र्य अपरम्पार है, कहते हैं, "जिसमें भूत, वर्तमान और भविष्य है, जिससे सत्कर्मों को विस्तार मिलता है, वह हमारा मन श्रेष्ठ संकल्पों वाला बने।"
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प्रार्थना की क्षमता बड़ी है। प्रार्थना का केन्द्र ह्मदय है। प्रार्थना का कर्म भौतिक है, मर्म आदिभौतिक है, प्रभाव रासायनिक है। चंचल मन को लोककल्याण से जोड़ना आसान नहीं है। विकल्पों में ही रमने वाले गतिशील, परिवर्तनशील घुमन्तू मन को संकल्प के खूंटे से बांधना सामान्य काम नहीं है।
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यजुर्वेद के रचनाकाल में बेशक यज्ञ है, लेकिन यज्ञ की प्रक्रिया भी विकल्प-प्रेमी मन को संकल्पों से नहीं जोड़ पाती। सो प्रार्थना ही एकमात्र उपाय है। ऋग्वेद के ऋषि मन को नमस्कार करते हैं। यजुर्वेद के ऋषि सीधे उसी से प्रार्थना करते हैं। मुक्त स्वेच्छाचारी और स्वच्छन्द से ही एक जगह, एक केन्द्र में रुकने की प्रार्थना दिलचस्प है। आगे कहते हैं, "जिस मन में ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के गान हैं, जिस मन में सम्पूर्ण प्रज्ञाओं का ज्ञान है वह हमारा मन कल्याणकारी संकल्पों वाला हो।
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"आगे मन का स्वभाव और निवास स्थान भी बताते हैं, "जो कभी बूढ़ा नहीं होता, अतिवेगशाली है, ह्मदय में रहता है, कुशल सारथी की तरह अश्वों को नियंत्रित कर ठीक जगह पहुंचाता है, वह हमारा मन कल्याणकारी संकल्पों वाला हो।" मन वास्तव में कभी बूढ़ा नहीं होता। बूढ़े-थके लोगों का मन भी तेज रफ्तार भागता है। मन इन्द्रियों का सारथी है। इन्द्रियां उसी के कहे विषय-भोग मांगती हैं। इसी मन को लोक कल्याण में लगाने की स्तुतियों में गजब की जिजीविषा है। ऐसी जिजीविषा विश्व साहित्य में अन्यत्र कहीं नहीं मिलती।
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विराट ऊर्जा ~
वैदिककालीन समाज हर्षोल्लास पूर्ण था। दर्शन और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भरपूर था। मनोविज्ञान के रहस्यों से अवगत था। वह मन: शक्ति की विराट ऊर्जा से सुपरिचित था। आधुनिक मनोविज्ञानी मनोविकारों के लिए औषधियां बताते हैं। वैदिक समाज भी तमाम औषधियों से परिचित था, लेकिन प्रार्थना शक्ति की खोज विश्व समुदाय को भारत की अद्भुत देन है। वैदिक साहित्य में प्रकृति की शक्तियों के प्रति प्रार्थी भाव है।
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पश्चिमी साहित्य और समाज में प्रकृति की शक्तियों के प्रति भोगवादी आक्रामकता है। मन को सरल रेखा में लाने का उपाय शिव संकल्प की प्रार्थना के अलावा और हो ही क्या सकता था? प्रार्थना का कोई विकल्प नहीं। यजुर्वेद की तमाम प्रार्थनाएं और नमस्कार के विषय चकित करते हैं। ऋषि कहते हैं, "नमो ह्मस्वाय च वामनाय च नमो वृहते"- अति छोटे कद वाले को नमस्कार, और भी ज्यादा लघु कद वाले को नमस्कार और बड़े शरीर वाले को भी नमस्कार है। (16.30)
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फिर कहते हैं, "प्रौढ़ को नमस्कार, वृद्ध को नमस्कार, अतिवृद्ध को नमस्कार, तरुण को नमस्कार, अग्रणी और प्रथमा को भी नमस्कार है।" यही परम्परा ऋग्वेद की भी है, "इदं नम: ऋषिभ्य:, पूर्वजेभ्य:, पूर्वेभ्य: पथिकद्भ्य:" - ऋषियों को नमस्कार, पूर्वजों को नमस्कार, बड़ों को नमस्कार, मार्गदृष्टाओं को भी नमस्कार है। (10.14.15)
प्रार्थना और नमस्कार दरअसल मन: शक्ति संवर्धन के ही अजब-गजब उपकरण हैं।

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卐 सत्यराम सा 卐
दादू माला सब आकार की, कोई साधु सुमिरै राम ।
करणी कर तैं क्या किया, ऐसा तेरा नाम ॥ 
सब घट मुख रसना करै, रटै राम का नाम ।
दादू पीवै रामरस, अगम अगोचर ठाम ॥ 
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साभार ~ Durgesh Tripathi 
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*108 अंक का रहस्य*
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वेदान्त में एक मात्रकविहीन सार्वभौमिक ध्रुवांक 108 का उल्लेख मिलता है जिसका हजारों वर्षों पूर्व हमारे ऋषियों(वैज्ञानिकों) ने अविष्कार किया था । मेरी सुविधा के लिए मैं मान लेता हूँ कि, 108 = ॐ(जो पूर्णता का द्योतक है) प्रकृति में 108 की विविध अभिव्यंजना :
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1. सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी/सूर्य का व्यास = 108 = 1ॐ 149,600,000 km/1,391,000 km = लगभग108 (पृथ्वी और सूर्य के बीच लगभग 108 सूर्य सजाये जा सकते हैं)
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2. सूर्य का व्यास/ पृथ्वी का व्यास = 108 = 1ॐ 1,391,000 km/12,742 km = 108 = 1 ॐसूर्य के व्यास पर 108 पृथ्वियां सजाई सा सकती हैं ।
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3. पृथ्वी और चन्द्र के बीच की दूरी/चन्द्र का व्यास = 108 = 1ॐ 384400 km/3474.20 km = 108 = 1 ॐ पृथ्वी और चन्द्र के बीच 108 चन्द्रमा आ सकते हैं ।
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4. मनुष्य की उम्र 108 वर्षों(1ॐ वर्ष) में पूर्णता प्राप्त करती है । वैदिक ज्योतिष के अनुसार मनुष्य को अपने जीवन काल में विभिन्न ग्रहों की 108 वर्षों की अष्टोत्तरी महादशा से गुजरना पड़ता है । 
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5. एक शांत, स्वस्थ और प्रसन्न वयस्क व्यक्ति 200 ॐ श्वास लेकर एक दिन पूरा करता है । 1 मिनट में 15 श्वास >> 12 घंटों में 10800 श्वास >> दिनभर में 100 ॐ श्वास, वैसे ही रातभर में 100 ॐ श्वास
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6. एक शांत, स्वस्थ और प्रसन्न वयस्क व्यक्ति एक मुहुर्त में 4 ॐ ह्रदय की धड़कन पूरी करता है । 1 मिनट में 72 धड़कन >> 6 मिनट में 432 धडकनें >> 1 मुहूर्त में 4 ॐ धडकनें (6 मिनट = 1 मुहूर्त)
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7. सभी 9 ग्रह(वैदिक ज्योतिष में परिभाषित) सभी चक्र एक चक्र पूरा करते समय 12 राशियों से होकर गुजरते हैं और 12 x 9 = 108 = 1 ॐ
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8. सभी 9 ग्रह भचक्र का एक चक्कर पूरा करते समय 27 नक्षत्रों को पार करते हैं और प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं और 27 x 4 = 108 = 1 ॐ
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9. एक सौर दिन 200 ॐ विपल समय में पूरा होता है(1 विपल = 2.5 सेकेण्ड) 1 सौर दिन (24 घंटे) = 1 अहोरात्र = 60 घटी = 3600 पल = 21600 विपल = 200 x 108 = 200 ॐ विपल
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***108 का आध्यात्मिक अर्थ***
1 सूचित करता है ब्रह्म की अद्वितीयता/एकत्व/पूर्णता को
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0 सूचित करता है वह शून्य की अवस्था को जो विश्व की अनुपस्थिति में उत्पन्न हुई होती
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8 सूचित करता है उस विश्व की अनंतता को जिसका अविर्भाव उस शून्य में ब्रह्म की अनंत अभिव्यक्तियों से हुआ है । अतः ब्रह्म, शून्यता और अनंत विश्व के संयोग को ही 108 द्वारा सूचित किया गया है ।
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जिस प्रकार ब्रह्म की शाब्दिक अभिव्यंजना प्रणव(अ + उ+ म्) है और नादीय अभिव्यंजना ॐ की ध्वनि है उसी प्रकार ब्रह्म की गाणितिक अभिव्यंजना 108 है !!