卐 सत्यराम सा 卐
मन का आसन जे जीव जानै, तौ ठौर ठौर सब सूझै ।
पंचों आनि एक घर राखै, तब अगम निगम सब बूझै ॥
बैठे सदा एक रस पीवै, निर्वैरी कत झूझै ।
आत्मराम मिलै जब दादू, तब अंग न लागै दूजै ॥
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*मन ही बंधन मन ही मुक्ति*
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आनंद सबकी इच्छा है। सुख, स्वस्ति और आनंद का प्रत्यक्ष क्षेत्र यही प्रकृति है। यहां शब्द हैं, रूप, रस, गंध और स्पर्श आनंद के उपकरण हैं, लेकिन आनंद की अनुभूति का केन्द्र भीतर है।
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भौतिकवादी भाषा में कहें तो सारा मजा "मन" का है, लेकिन मन है कि भागा-भागा फिरता है। मन की ताकत शरीर की ताकत से बड़ी है। मन हुआ तो एक पल में ही हम यहां से वहां। शरीर की यात्रा के लिए साधन चाहिए, समय चाहिए, लेकिन मन बंजारा है। निहायत घुमन्तू, न पासपोर्ट, न वीसा, लेकिन दुनिया के सभी देशों की यात्रा। मन विषयी भी है, सो बंधनकारी भी है।
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मन बुद्धि को भी हांक लेता है तब बुद्धि की युक्ति काम नहीं आती। बुद्धि और मन का मेल विरल है, दोनों मिल जाते हैं तो "मनीषा" कहलाते हैं और मनीषा वाले लोग कहे जाते हैं मनीषी। मनीषा का अर्थ है मन का शासक। मन और ईशा(शासक) मिलकर ही मनीषा है। कृष्ण ने अर्जुन को स्थिर प्रज्ञा के लिए यही उपाय बताया था, लेकिन अर्जुन ने मन का चरित्र बताया, "हे कृष्ण! मन बड़ा चंचल है, इसे नियंत्रित करना वायु पकड़ने से भी कठिन है।" गीता बाद की है, महाभारत वैदिककाल के बाद की घटना है।
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ऋग्वेद के ऋषि "मन" की ताकत, प्रवृत्ति और प्रकृति से बखूबी परिचित थे। मन की क्षमता का खूबसूरत प्रयोग ही सांसारिक सफलता है।
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मन एक देवता
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प्रकृति की ऊर्जा बहुआयामी है। वैदिक ऋषि विराट को देखकर भाव विभोर होते हैं, स्तुति करते हैं। इसलिए ऋग्वेद के देवताओं की नामावली लम्बी है। ऋग्वेद में "मन" भी एक देवता है, "आ तु एतु मन: पुन: क्रत्वे दक्षाय जीवसे, ज्योक च सूर्य दृशे" सतत् दक्ष-कर्म के लिए और दीर्घकाल तक सूर्य दर्शन के लिए श्रेष्ठ मन का आवाहन है। (10.57.4)
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पूर्वजों-पितरों से यही स्तुति है-"पुनर्न: पितरो मनोददातु दैत्यो जन: - पूर्वज-पितर हमारे मन को सत्कर्मों में प्रेरित करें। (वही, 5) सुख आनंद का क्षेत्र यही संसार और प्रत्यक्ष कर्म हैं, लेकिन मन देव यहां-वहां भागते हैं। ऋग्वेद की स्तुतियों में गजब का इहलोकवाद, भौतिकवाद है, दिव्यलोक, भूलोक तक चले गए मन को वापस लाते हैं, अस्थिर मन को दूरवर्ती प्रदेशों से वापस लाते हैं। जो मन समुद्र या अंतरिक्ष लोक या सूर्य देव तक चला गया है, उसे वापस लाते हैं। दूर से दूरस्थ, पर्वत, वन या अखिल विश्व में भ्रमणशील मन अथवा भूत या भविष्यत् में गए मन को भी वापस लाते हैं।" (10.58.1-12)
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सभी 12 मंत्रों के अंत में एक वाक्य समान रूप से जुड़ा हुआ है- "क्योंकि संसार में ही आपका जीवन है - तत्त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे।" यहां संसार माया नहीं, यथार्थ है।
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यजुर्वेद ऋग्वेद का परवर्ती है। लेकिन ऋग्वेद के 663 मंत्र ज्यों के त्यों यजुर्वेद में भी हैं। यजुर्वेद के रचनाकाल तक भारतीय दर्शन का समुचित विकास हो चुका था। ऋग्वेद के अनेक सूक्त दार्शनिक हैं। ऋग्वेद में विश्व दर्शन का झरोखा है। यजुर्वेद यज्ञ प्रधान है, लेकिन इसी का आखिरी अध्याय(40वां) ही विश्व का प्रथम उपनिषद् ईशावास्योपनिषद् बना। ईशावास्योपनिषद् दुनिया के तमाम विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में है। कम लोग जानते हैं कि यजुर्वेद के 34वें अध्याय के प्रथम 6 मंत्रों को भी उपनिषद् की मान्यता मिली। 6 मंत्रों वाले इस छोटे से उपनिषद् का नाम शिव संकल्प उपनिषद् पड़ा।
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॥शिवसङ्कल्प सूक्त॥
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यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदुसुप्तस्य तथैवैति।
दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥१॥
जो तीव्र गति से सर्वत्रगामी, जाग्रत् अवस्था या स्वप्नमय हो।
है ज्योतिवानों में स्व प्रकाशित, वह मन सदा शिव सङ्कल्पमय हो॥१॥
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येन कर्मार्ण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः।
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥२॥
जिसके सहारे सब कर्मयोगी, यज्ञादि-सत्कर्म करते सदय हों।
सब प्राणियों में, प्रकृति में सुशोभित, वह मन सदा शिव सङ्कल्पमय हो॥२॥
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यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु।
यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥३॥
जो बुद्धि में, चित्त-अन्तःकरण में, रहता अमर ज्योति के साथ लय हो।
जिसके बिना कर्म रहते असम्भव, वह मन सदा शिव सङ्कल्पमय हो॥३॥
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येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम्।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥४॥
जो भूत-भावी सहित हर समय को, धारण किये रहता बोधमय हो।
करते यजन जिससे सप्त होता, वह मन सदा शिव सङ्कल्पमय हो॥४॥
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यस्मिन्नृचः साम यजूँषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः।
यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥५॥
ऋक्-साम-यजु वेद जिस पर टिके हैं, धुरे पर ‘अरे’ ज्यों टिके शक्तिमय हो।
टिके हैं उसी पर सभी हित प्रजा के, वह मन सदा शिव सङ्कल्पमय हो॥५॥
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सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्ने नीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥६॥
अश्वादि को सारथी ज्यों चलाता, मन हाँकता इन्द्रियों को अभय हो।
जो है सहज ही अजर शक्तिशाली, वह मन सदा शिव सङ्कल्पमय हो॥६॥
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छहों मंत्र बड़े प्यारे हैं और मनोविज्ञान में रुचि रखने वाले विद्वानों के दुलारे भी हैं। यजुर्वेद का यही हिस्सा मनोविज्ञान या मन: शास्त्र का सम्यक् विवेचन है। यहां मन की शक्तियों को जीवन की सफलता के लिए जोड़ने का संकल्प है। उपनिषद् प्रेमियों ने ठीक ही इसका नाम शिवसंकल्पोपनिषद् रखा है। पहले मंत्र में मन का खूबसूरत विश्लेषण है - जैसे जाग्रत अवस्था में यह मन दूर-दूर तक जाता है, वैसे ही सोए हुए व्यक्ति का मन भी दूर-दूर तक भ्रमण करता है। गतिशील यह मन इन्द्रियों की ज्योति का संचालक है। यह जीवन ज्योति का माध्यम है। स्तुति है कि यह हमारा मन कल्याणकारी संकल्पों वाला हो।
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मन का सबसे बड़ा गुण है विकल्प। यहां-वहां, इधर-उधर, जिधर-किधर, लेकिन, किन्तु-परन्तु और यथा-तथा, सब मन के विकल्प हैं। सदा असंतुष्ट रहना उसकी प्रकृति है सो मन विकल्पों का रसिया है। उसकी क्षमता बड़ी है। वही शोक, हताशा, निराशा और विषाद का कारण है, सो वही बंधन है, वही हर्ष, उत्साह, प्रसाद का सोपान भी है, सो वही मुक्ति का द्वार भी है।
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बंधन और मोक्ष ~
तमाम शास्त्रों व उपनिषदों में एक साथ दोहराया गया मन सम्बंधी एक श्लोक स्मरणीय है- मन एव मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयो: - मन ही मनुष्यों के बंधन और मोक्ष का कारण है। फिर बंधन और मोक्ष के बारे में कहते हैं- "विषयों में आसक्ति बंधन है। विषयों से मुक्त मन-मुक्ति है - बन्धय विषयासक्तं, मुक्तये निर्विषयं।
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यजुर्वेद के ऋषि इसी मन को "शिव संकल्प" से जोड़ना चाहते हैं। ऋषि मोक्षकामी नहीं हैं। वे संसार का लोकमंगल चाहते हैं। उनके सपने लौकिक हैं। सभी 6 मंत्रों के अन्त में ऋषियों की एक ही लोकमंगल-अभीप्सा है- "तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु" - वह हमारा मन कल्याणकारी संकल्पों वाला हो। दूसरे मंत्र में कहते हैं- "सत्कर्मी मनीषी जिस मन से यज्ञ-शुभ कर्म करते हैं, जो मन सभी जीवों के शरीर के भीतर उपस्थित है, वह हमारा मन कल्याणकारी संकल्पों वाला हो।
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"तीसरे मंत्र में मन को ही ज्ञान, धैर्य और चेतना का धारक बताते हैं, "प्रज्ञान युक्त, धीर और चेतन मन समस्त प्राणियों के अन्त:करण में दिव्य ज्योति स्वरूप है, इसके अभाव में कोई भी कार्य नहीं हो सकता। वह हमारा मन कल्याणकारी संकल्पों वाला हो।" मन अविनाशी है, उसकी सामथ्र्य अपरम्पार है, कहते हैं, "जिसमें भूत, वर्तमान और भविष्य है, जिससे सत्कर्मों को विस्तार मिलता है, वह हमारा मन श्रेष्ठ संकल्पों वाला बने।"
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प्रार्थना की क्षमता बड़ी है। प्रार्थना का केन्द्र ह्मदय है। प्रार्थना का कर्म भौतिक है, मर्म आदिभौतिक है, प्रभाव रासायनिक है। चंचल मन को लोककल्याण से जोड़ना आसान नहीं है। विकल्पों में ही रमने वाले गतिशील, परिवर्तनशील घुमन्तू मन को संकल्प के खूंटे से बांधना सामान्य काम नहीं है।
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यजुर्वेद के रचनाकाल में बेशक यज्ञ है, लेकिन यज्ञ की प्रक्रिया भी विकल्प-प्रेमी मन को संकल्पों से नहीं जोड़ पाती। सो प्रार्थना ही एकमात्र उपाय है। ऋग्वेद के ऋषि मन को नमस्कार करते हैं। यजुर्वेद के ऋषि सीधे उसी से प्रार्थना करते हैं। मुक्त स्वेच्छाचारी और स्वच्छन्द से ही एक जगह, एक केन्द्र में रुकने की प्रार्थना दिलचस्प है। आगे कहते हैं, "जिस मन में ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के गान हैं, जिस मन में सम्पूर्ण प्रज्ञाओं का ज्ञान है वह हमारा मन कल्याणकारी संकल्पों वाला हो।
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"आगे मन का स्वभाव और निवास स्थान भी बताते हैं, "जो कभी बूढ़ा नहीं होता, अतिवेगशाली है, ह्मदय में रहता है, कुशल सारथी की तरह अश्वों को नियंत्रित कर ठीक जगह पहुंचाता है, वह हमारा मन कल्याणकारी संकल्पों वाला हो।" मन वास्तव में कभी बूढ़ा नहीं होता। बूढ़े-थके लोगों का मन भी तेज रफ्तार भागता है। मन इन्द्रियों का सारथी है। इन्द्रियां उसी के कहे विषय-भोग मांगती हैं। इसी मन को लोक कल्याण में लगाने की स्तुतियों में गजब की जिजीविषा है। ऐसी जिजीविषा विश्व साहित्य में अन्यत्र कहीं नहीं मिलती।
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विराट ऊर्जा ~
वैदिककालीन समाज हर्षोल्लास पूर्ण था। दर्शन और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भरपूर था। मनोविज्ञान के रहस्यों से अवगत था। वह मन: शक्ति की विराट ऊर्जा से सुपरिचित था। आधुनिक मनोविज्ञानी मनोविकारों के लिए औषधियां बताते हैं। वैदिक समाज भी तमाम औषधियों से परिचित था, लेकिन प्रार्थना शक्ति की खोज विश्व समुदाय को भारत की अद्भुत देन है। वैदिक साहित्य में प्रकृति की शक्तियों के प्रति प्रार्थी भाव है।
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पश्चिमी साहित्य और समाज में प्रकृति की शक्तियों के प्रति भोगवादी आक्रामकता है। मन को सरल रेखा में लाने का उपाय शिव संकल्प की प्रार्थना के अलावा और हो ही क्या सकता था? प्रार्थना का कोई विकल्प नहीं। यजुर्वेद की तमाम प्रार्थनाएं और नमस्कार के विषय चकित करते हैं। ऋषि कहते हैं, "नमो ह्मस्वाय च वामनाय च नमो वृहते"- अति छोटे कद वाले को नमस्कार, और भी ज्यादा लघु कद वाले को नमस्कार और बड़े शरीर वाले को भी नमस्कार है। (16.30)
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फिर कहते हैं, "प्रौढ़ को नमस्कार, वृद्ध को नमस्कार, अतिवृद्ध को नमस्कार, तरुण को नमस्कार, अग्रणी और प्रथमा को भी नमस्कार है।" यही परम्परा ऋग्वेद की भी है, "इदं नम: ऋषिभ्य:, पूर्वजेभ्य:, पूर्वेभ्य: पथिकद्भ्य:" - ऋषियों को नमस्कार, पूर्वजों को नमस्कार, बड़ों को नमस्कार, मार्गदृष्टाओं को भी नमस्कार है। (10.14.15)
प्रार्थना और नमस्कार दरअसल मन: शक्ति संवर्धन के ही अजब-गजब उपकरण हैं।