॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
.
*= विरह का अंग - ३ =*
.
*ताला बेली पीड़ सौं, विरहा प्रेम पियास ।*
*दर्शन सेती दीजिये, बिलसै दादू दास ॥४९॥*
हे स्वामिन ! मैं विरहीजन आपकी विरहजन्य पीड़ा और प्रेम-पिपासा से अत्यन्त व्याकुल हूँ । इसलिये आप दर्शन दीजिये । जिससे यह दास सदैव ब्रह्म-विचार में ही मग्न रहे । पूर्व प्रसंग में यह स्पष्ट कर चुके हैं कि व्यावहारिक जनों को उपदेश देने के निमित्त, प्रभु के अनन्य भक्त स्वयं अपने आप को पत्नी का उपलक्षण करके पति स्वरूप भगवत् के प्रति विनय करते हैं । क्योंकि सर्वत्र व्यवहार में दूसरा कोई ऐसा उदाहरण मिलना दुर्लभ है, इसलिए सतगुरु ने पूर्व प्रसंग में सर्वत्र प्रकरण में "विरहणी" का उल्लेख करके भी, पुन: प्रस्तुत साखी में दास को पुलिंग लिखा है । इससे "विरहणी" भक्त का स्वरूप स्पष्ट ही है ॥४९॥
.
*दादू कहै, हमको अपणां आप दे, इश्क मुहब्बत दर्द ।*
*सेज सुहाग सुख प्रेम रस, मिल खेलैं लापर्द ॥५०॥*
हे प्रभु ! हम विरहीजनों को अपना स्वरूप ज्ञान कराके आपमें प्रेम, विरह, व्याकुलता, स्नेह और भगवद् दर्शनों की उत्कण्ठा की प्रवृत्ति उत्पन्न कराइये और बुद्धि रूप स्त्री का, जो आत्म-ज्ञान है, वह सुहाग है । श्री दयाल जी महाराज भगवत् से विनय करते हैं कि हे प्रभु ! हमारी अन्त:करण रूपी सेज पर आत्मनिष्ठ बुद्धि आपका प्रत्यक्ष साक्षात्कार करे ॥५०॥
.
*प्रेम भगति माता रहै, ताला बेली अंग ।*
*सदा सपीड़ा मन रहै, राम रमै उन संग ॥५१॥*
हे जिज्ञासुओं ! जो विरहीजन प्रेमाभक्ति में मस्त होकर देह, वाणी द्वारा भगवत् का विरह विलाप करते हैं और जिनका मन परमेश्वर के वियोग में अत्यन्त व्याकुल है, ऐसे विरहीजनों के साथ सदैव राम रमता है अथवा पूर्व लक्षणयुक्त विरहीजन भी राम में रमते हैं अर्थात् एकाकार होते हैं ॥५१॥
(क्रमशः)