रविवार, 26 अगस्त 2012

= विरह का अँग ३ =(४९-५१)


॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= विरह का अंग - ३ =* 
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*ताला बेली पीड़ सौं, विरहा प्रेम पियास ।*
*दर्शन सेती दीजिये, बिलसै दादू दास ॥४९॥* 
हे स्वामिन ! मैं विरहीजन आपकी विरहजन्य पीड़ा और प्रेम-पिपासा से अत्यन्त व्याकुल हूँ । इसलिये आप दर्शन दीजिये । जिससे यह दास सदैव ब्रह्म-विचार में ही मग्न रहे । पूर्व प्रसंग में यह स्पष्ट कर चुके हैं कि व्यावहारिक जनों को उपदेश देने के निमित्त, प्रभु के अनन्य भक्त स्वयं अपने आप को पत्नी का उपलक्षण करके पति स्वरूप भगवत् के प्रति विनय करते हैं । क्योंकि सर्वत्र व्यवहार में दूसरा कोई ऐसा उदाहरण मिलना दुर्लभ है, इसलिए सतगुरु ने पूर्व प्रसंग में सर्वत्र प्रकरण में "विरहणी" का उल्लेख करके भी, पुन: प्रस्तुत साखी में दास को पुलिंग लिखा है । इससे "विरहणी" भक्त का स्वरूप स्पष्ट ही है ॥४९॥ 
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*दादू कहै, हमको अपणां आप दे, इश्क मुहब्बत दर्द ।*
*सेज सुहाग सुख प्रेम रस, मिल खेलैं लापर्द ॥५०॥* 
हे प्रभु ! हम विरहीजनों को अपना स्वरूप ज्ञान कराके आपमें प्रेम, विरह, व्याकुलता, स्नेह और भगवद् दर्शनों की उत्कण्ठा की प्रवृत्ति उत्पन्न कराइये और बुद्धि रूप स्त्री का, जो आत्म-ज्ञान है, वह सुहाग है । श्री दयाल जी महाराज भगवत् से विनय करते हैं कि हे प्रभु ! हमारी अन्त:करण रूपी सेज पर आत्मनिष्ठ बुद्धि आपका प्रत्यक्ष साक्षात्कार करे ॥५०॥
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*प्रेम भगति माता रहै, ताला बेली अंग ।* 
*सदा सपीड़ा मन रहै, राम रमै उन संग ॥५१॥* 
हे जिज्ञासुओं ! जो विरहीजन प्रेमाभक्ति में मस्त होकर देह, वाणी द्वारा भगवत् का विरह विलाप करते हैं और जिनका मन परमेश्वर के वियोग में अत्यन्त व्याकुल है, ऐसे विरहीजनों के साथ सदैव राम रमता है अथवा पूर्व लक्षणयुक्त विरहीजन भी राम में रमते हैं अर्थात् एकाकार होते हैं ॥५१॥
(क्रमशः)

शनिवार, 25 अगस्त 2012

= विरह का अँग ३ =(३४-६)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= विरह का अंग - ३ =* 
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*दादू दर्शन की रली, हम को बहुत अपार ।*
*क्या जाणूं कबही मिले, मेरा प्राण आधार ॥४६॥* 
सतगुरु देव कहते हैं कि हमें आपके दर्शनों की "रली" नाम, भारी इच्छा लगी हुई है । हे मेरे प्राणाधार ! न मालूम, हमें आपका कब दर्शन होगा ? आपके वियोग में अत्यन्त व्याकुल हैं । आपसे हम कब मिलेंगे ॥४६॥ 
कागा सब तन खाइयो, चुनि चुनि खाइयो मांस । 
दो नैना मत खाइयो, मोहि पिया मिलन की आस ॥ 
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*दादू कारण कंत के, खरा दुखी बेहाल ।*
*मीरां मेरा महर कर, दे दर्शन दरहाल ॥४७॥*
श्री दयालु महाप्रभु भगवत् के प्रति विलाप करते हैं कि मैं विरहिनी, अपने पति परमेश्वर के दर्शनों के लिये, अत्यन्त व्याकुल हो रही हूँ । हे हमारे "मीरां" नाम, प्यारे परमेश्वर ! हम पर दया करो और इस मनुष्य देह में ही अपना दर्शन देकर "दरहाल" कहिए, कृतार्थ करो ॥४७॥ 
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*ताला बेली प्यास बिन, क्यों रस पीया जाइ ।*
*विरहा दर्शन दर्द सौं, हमको देहु खुदाइ ॥४८॥* 
हे जिज्ञासुओं ! "ताला" = तलप और "बेली" = विलाप के सहित अत्यन्त मिलने की इच्छा, इन साधनों के बिना प्रभु का प्रेम-भक्ति रूप रस कैसे पीया जावे ? हे स्वामिन ! आप अपने विरहीजन भक्तों को आप स्वयं कृपा करके पूर्वोक्त साधन सम्पन्न बनाइये । हे खुद खामिंद कहिए, हमारे मालिक, आप स्वयं प्रकट होइये ॥४८॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

= विरह का अँग ३ =(४३-५)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= विरह का अंग - ३ =*
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*दूजा कुछ मांगै नहीं, हमको दे दीदार ।* 
*तूं है तब लग एक टग, दादू के दिलदार ॥४३॥* 
हे प्रभु ! हम आपसे और किसी पदार्थ की भी इच्छा नहीं करते हैं । हमें तो केवल आपका दर्शन ही चाहिए । हे प्यारे ! दिल की जानने वाले दिलदार ! जब तक इस पंच भौतिक शरीर पर आपकी कृपा है, तब तक यह जीवात्मा आपकी भक्ति में ही लयलीन रहे ॥४३॥ 
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*दादू कहै, तूं है तैसी भक्ति दे, तूं है तैसा प्रेम ।* 
*तूं है तैसी सुरति दे, तूं है तैसा खेम ॥४४॥* 
हे भगवन् ! जैसे आप स्वयं निर्मल और एकरस हैं, ऐसी ही निर्मल और अखण्ड भक्ति हमें दीजिए । और आपका जैसा शान्त अनन्त प्रकाश स्वरूप है, वैसा ही हम विरहीजनों को आपके प्रति निश्चल, निर्मल दिव्य प्रकाश दीजिए । हे प्रभो ! आपका जैसा सूक्ष्म व्यापक स्वरूप है, ऐसी आपके भक्तों की भी आप में सुरति हो । हे नाथ ! आपके भक्त सम्पूर्ण बाह्य विषयों से विमुख होकर सर्वत्र आप परमेश्वर का ही स्वरूप हम अन्दर अनुभव करें । इस रीति से भवगत् भक्तों का मनुष्य-जीवन आपके समान ही सत्य स्वरूप और कल्याणमय होवे । ऐसी आप कृपा करिये ॥४४॥
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*दादू कहै, सदिके करूँ शरीर को, बेर बेर बहु भंत ।*
*भाव भक्ति हित प्रेम ल्यौ, खरा पियारा कंत ॥४५॥* 
हे प्यारे प्रियतम ! हम विरहीजन अपने इस पंच भौतिक शरीर को बारम्बार कहिए तप, जप, व्रत आदि बहुत कष्ट साधनों के द्वारा आपके अर्पण करते हैं । हे परमेश्वर ! आप हमारे को भाव, भक्ति, हित, प्रेम और लय रूप साधनों के द्वारा निश्चय ही प्रिय लगते हो । हमारी प्रार्थना है कि हमारी सुरति आप में ही संग्न रहे ॥४५॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 23 अगस्त 2012

= विरह का अँग ३ =(४०-२)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= विरह का अंग - ३ =
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*विरह पतिव्रत*
*दीन दुनी सदके करूँ, टुक देखण दे दीदार ।* 
*तन मन भी छिन छिन करूँ, भिस्त दोजग भी वार ॥४०॥*
सतगुरुदेव कहते हैं कि प्रभु ! संसार के समस्त मत और समस्त धर्म और हम विरहीजनों का पतिव्रत धर्म, समस्त संसार के इष्ट अनिष्ट पदार्थ, आपके भेंट हैं । और(भिस्त-दोज़ख) स्वर्ग-नरक आदि भी आपके वारणैं(न्यौछावर) करते हैं । हे स्वामिन् ! हमें तो केवल आपके दर्शनों की ही प्रबल इच्छा है, आप दर्शन दीजिए । और तन मन का यह अभिप्राय है कि सम्पूर्ण इन्द्रियां अपने-अपने विषयों के व्यापार को त्यागकर केवल आपके ही ध्यान में एकरस हो जावें ॥४०॥ 
इस साखी से परम गुरुदेव ने निष्काम कर्म योग का उपदेश किया है । "दिन दुनी" को न्यौछावर, यह कहने से यहाँ सकाम कर्मों का उल्लेख है । इसलिए जब तक जिज्ञासु सकाम कर्मों में व्यस्त रहता है, तब तक स्वर्ग और नरक आदि का भी उसके लिए बन्धन है । किन्तु निष्काम कर्म का आश्रय लेता है, तो वह जिज्ञासुजन, फिर जीवन-मुक्त होकर परम पद को प्राप्त कर लेता है ।
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*दादू हम दुखिया दीदार के, तूं दिल थैं दूरि न होइ ।*
*भावै हमको जाल दे, होना है सो होइ ॥४१॥* 
हे प्रभु ! आपके दर्शनों के लिये हम अति दुखी हैं । आप हमारे हृदय से दूर नहीं होइये । हमारा मन आपकी भक्ति में लीन रहे । हे दयानिधे ! भले ही आप हमें विरह अग्रि में जलाइये एवं शरीर आदि का जो होना है सो होवे, किन्तु हम विरहीजनों का मन आपके नाम में ही निश्चल रहे, ऐसी अनुकम्पा करिये ॥४१॥ 
बालम बस्यो विदेश, भया वह मौन है । 
सोवै पाँव पसार, सु ऐसा कौन है ॥ 
अति ही कठिन यह रैन, बीतती जीव सौं । 
हरि हाँ बाजींद, है कोई चतुर सुजान, कहै जाय पीव सौं ॥ 
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*विरह पतिव्रत*
*दादू कहै, जे कुछ दिया हमको, सो सब तुम ही लेहु ।* 
*तुम बिन मन मानै नहीं, दरस आपणां देहु ॥४२॥*
हे कृपामय प्रभु ! आपने जो कुछ लौकिक विभूति कहिए, ऐश्वर्य हमें दे रखा है, उसको वापिस ही ले लीजिए, क्योंकि आपके वियोग में सांसारिक पदार्थ हमको दु:खरूप प्रतीत होते हैं । इसलिए हम विरहीजनों को तो केवल आपका दर्शन ही चाहिए ॥४२॥ 
(क्रमशः)

बुधवार, 22 अगस्त 2012

= विरह का अँग ३ =(३७-९)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)" 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= विरह का अंग - ३ =*
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*तूँ है तैसा प्रकाश कर, अपना आप दिखाइ ।*
*दादू को दीदार दे, बलि जाऊँ विलंब न लाइ ॥३७॥*
सतगुरुदेव कहते हैं कि हे दयानिधि ! जैसे आप शान्त एकरस प्रकाश स्वरूप हैं, वैसा ही प्रकाश हमारे हृदय में भी कीजिये । जिससे आपके सत्चित् आनन्द ब्रह्म स्वरूप का हम विरहीजन साक्षात्कार करें । हे प्रभु ! आपकी मैं बारम्बार वंदना करता हूँ, अब आप देरी नहीं करिए ॥३७॥
कहिये सुणिये राम और नहीं चित्त रे ।
हरि चरणन को ध्यान, सुमरिये नित्य रे ॥
जीव विलंब्या पीव दुहाई राम की ।
हरि हाँ, सुख सम्पति बाजींद, कहो किस काम की ॥
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*दादू पिव जी देखै मुझ को, हौं भी देखूँ पीव ।*
*हौं देखूँ देखत मिलै, तो सुख पावै जीव ॥३८॥*
ब्रह्मर्षि दादू दयाल जी महाराज कहते हैं कि हे सर्वव्यापक प्रभु ! आप हम विरहीजनों को साकार रूप में देखें और हम विरहीजन भी ध्यान-धारणा द्वारा भगवत् की मोहिनी मूर्ति का अनुभव करें । किन्तु जैसे हम विरहीजनों को भगवत साकार रूप में देखते हैं, उसी प्रकार हम विरहीजन भी स्थूल चक्षुओं से भगवत का दर्शन करें, तो हमारा विरह दु:ख दूर होवे । और हम परमानन्द का अनुभव करें और परमेश्वर हम सब को देखता है । हम विरहीजन भी व्यष्टिभाव से ईश्वर के दर्शनों के लिए व्याकुल हैं । किन्तु जब हम समष्टिभाव से सर्व प्राणियों में ईश्वर बुद्धि करें तो तत्काल ही सुख-दु:ख आदि द्वन्दों से विमुक्त होवें और द्वैतभाव को विसार कर जीवन-मुक्ति रूप परमानन्द का अनुभव करें ॥३८॥
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*विरह कसौटी*
*दादू कहै, तन मन तुम पर वारणैं, कर दीजे कै बार ।*
*जे ऐसी विधि पाइये, तो लीजे सिरजनहार ॥३९॥*
गुरुदेव कहते हैं कि हे प्रभु ! यदि आप तन-मन आदि को भेंट करने से ही दर्शन देओ तो यह तन-मन आदि भी आप को बारम्बार भेंट करते हैं । हे सिरजनहार ! हम विरहीजनों का सर्वस्व आपके चरणों में है । अब इस माया-बन्धन को दूर करके अपना दर्शन दीजिए और चितावणी पक्ष में जानो कि हे जिज्ञासुजनों ! यदि तन-मन देने से ही हरि मिलते हैं, तो यह तन-मन आदि तो प्रभु के ही दिए हुए हैं । इसलिए अब इनको भेंट करके सिरजनहार को लीजिए ॥३९॥ 
रोम रोम वजूद करि, सूली दीजे मोहि ।
गुनह घणा थोड़ी सजा, साहिब मालूम तोहि ॥
(क्रमशः)

मंगलवार, 21 अगस्त 2012

= विरह का अँग ३ =(३४-६)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= विरह का अंग - ३ =*
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*विरह विनती*
*दादू कहु दीदार की, सांई सेती बात ।*
*कब हरि दरशन देहुगे, यहु औसर चलि जात ॥३४॥*
ब्रह्मर्षि कहते हैं कि हे पापों के हरने वाले हरि ! विरहीजनों का मनुष्य-जन्म रूप यह अवसर आपके विरह दु:ख में व्यतीत हो रहा है । अब आप कब दर्शन देओगे? विरहीजनों को सत्य-सत्य कहिए ॥३४॥
उमड़ चले दोऊ नैन, चैन नहीं चित्त जी ।
हरि जी तुमरो पंथ, निहारूं नित्त जी ।
अब जानि करहु अधीन, आप मिल मोहि सूं ।
हरि हां बाजींद, तन मन जोबन प्राण, समर्प्यो तोहि कूं ॥
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*बिथा तुम्हारे दर्श की, मोहि व्यापे दिन रात ।*
*दुखी न कीजे दीन को, दर्शन दीजे तात ॥३५॥*
महाराज ब्रह्मर्षि कहते हैं कि प्यारे प्रीतम ! आपके दर्शनों का विरह दुख मुझे रात-दिन व्यापता है अर्थात् पीड़ित करता है । अब हम दीनों को अपना दर्शन देकर दु:ख से उबारिए ॥ ३५ ॥ 
देहु मौज दीदार की, लेहु, न याको अंत ।
चातक बोले चहुँ दिशा, निशा अंधेरी कंत ॥
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*दादू इस हियड़े ये साल, पीव बिन क्योंहि न जाइसी ।*
*जब देखूँ मेरा लाल, तब रोम रोम सुख आइसी ॥३६॥*
श्री दयालु महाप्रभु कहते हैं कि हमारे हृदय में तो एक भगवत विरह का ही "साल" कहिए, भारी दु:ख है । सो भगवद् दर्शनों के बिना और किसी भी तरह दूर नहीं हो सकता है । हे हमारे प्रीतम प्यारे ! जब हम तेरा दर्शन कर लेंगे तब ही हमारा रोम-रोम प्रफुल्लित होएगा ॥३६॥ 
तन्त्र न मन्त्र न औषधी, कछू न लगहि ताहि ।
जात न वेदन विरह की, मरै कराहि कराहि ॥ 
निशि नहीं आवै नींद, अन्न नहिं खात है ।
पल पल परै न चैन, जीव यह जात है ।
तुम तरवर हम छाँह, फेर क्यूं कीजिए ।
हरि हाँ बाजींद, घट पट अन्दर खोल के दर्शन दीजिए ॥
(क्रमशः)

सोमवार, 20 अगस्त 2012

= विरह का अँग ३ =(३१-३)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"॥ श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
*= विरह का अंग - ३ =* 
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*दादू मैं भिखारी मंगता, दर्शन देहु दयाल ।*
*तुम दाता दुःख भंजता, मेरी करहु संभाल ॥३१॥*
सतगुरु भगवान् कहते हैं कि हम तो आपके भिखारी अर्थात् मंगते हैं,(मंगते चार प्रकार के होते हैं – रिंगारी, टिंगारी, भिखारी और श्रृंगारी), दर्शनों की भीख माँगने वाले । हे दयालु ! दर्शन देओ । आप तो सब दुखों का नाश करके आनन्द के दाता हो । अब हम विरहीजनों की संभाल करो ॥३१॥ 
दर्शन चार प्रकार के, हमहिं होत हैं तीन । 
श्रवण, स्वप्न अरु चित्र में, प्रकट न होत प्रवीन ॥ 
*छिन बिछोह*
*क्या जीये में जीवना, बिन दर्शन बेहाल ।*
*दादू सोई जीवना, प्रकट परसन लाल ॥३२॥*
सतगुरु भगवान् कहते हैं कि हे जिज्ञासुओं ! वह जीवन भी क्या जीवन है? जिसमें परमात्मा के दर्शन नहीं हुए हैं, ऐसा जीवन वृथा है । इसलिए वही जीवन सार्थक है, जिसमें प्यारे प्रीतम प्रसन्न होकर प्रकट होते हैं और दर्शन देते हैं ॥३२॥ 
बिरही जन को कौन सुख, कहि धौं इहि कलिकाल । 
नैनां गंग तरंग लौं, बिन दर्शन बेहाल ॥ 
चाह आहि दीदार की, सो हरि लिया लुकाय । 
जगन्नाथ कैसी करी, देत कहा घट जाय ॥ 
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*इहि जग जीवन सो भला, जब लग हिरदै राम ।*
*राम बिना जे जीवना, सो दादू बेकाम ॥३३॥*
ब्रह्मर्षि दादू दयाल महाराज कहते हैं कि संसार में वही जीवन श्रेष्ठ है जो कि परमेश्वर प्रकट होकर दर्शन देवें और वही जीवन धन्य है । इसलिए हे जिज्ञासुओं ! जब लग हृदय राम-नाम में संलग्न है, तभी तक जीवन सफल है और भगवत विमुख होकर जीना तो निरर्थक है ॥३३॥ 
जगजीवन फाटे नहीं, छतियां पिव के नेह ।
ध्रक यो जीवन ध्रक जनम, ध्रक यो गन्दी देह ॥ 
जैसे जिये बिना काया सूनी, वारी मथे क्यूं निकसे लूनी ।
लोण बिना भोजन नहीं नीका, मोहन हरि बिन सब धर्म फीका ॥
(क्रमशः)

रविवार, 19 अगस्त 2012

= विरह का अँग ३ =(२८-३०)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= विरह का अंग - ३ =*
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*दादू हरदम मांहि दिवान, कहूँ दरुने दर्द सौं ।*
*दर्द दरुने जाइ, जब देखूँ दीदार कों ॥२८॥*
सतगुरुदेव प्रार्थना करते हैं कि प्रतिक्षण अपने पीव के प्रेम में ही विरहीजन, अपने शरीर आदि की सुध-बुध भूल कर मस्त हो रहे हैं और मानसिक व्यथा सहित परमेश्वर का विलाप करते हैं । इसी से हम विरहीजन अपने प्राणनाथ के दर्शन देखें, तो हमारी अन्तर्वेदना दूर होवे । हे प्रभु ! विरहीजनों को अपना दर्शन दीजिए ॥२८॥ 
पीवजी तुम बिन जीव, तपै दिन रात है ।
कहैं कौन पतियाय, दुखी बिललात है ।
भर भादव की रैंन, दमकै दामिनी ।
अरे हां बाजींद, जाको पीव परदेश, भरै क्यों भामिनी ॥
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*विरह विनती*
*दादू दरूने दर्दबंद, यहु दिल दर्द न जाइ ।*
*हम दुखिया दीदार के, महरबान दिखलाइ ॥२९॥*
सतगुरुदेव कहते हैं कि उत्तम भक्तों के हृदय में ऐसी विरह वेदना है, जो दिल से दूर नहीं हो सकती है । हम तो भगवत्-दर्शनों के ही विरही हैं । इसलिए हे दयामय ! हमको अपना दर्शन देओ ॥२९॥ 
देहु मौज दीदार की, लेहु न याको अंत ।
चातक बोलहि चहुँ दिशा, निशा अंधेरी, न कंत ॥ 
(चहुं दिसा = चारों अवस्थाओं में)
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*मूये पीड़ पुकारतां, बैद न मिलिया आइ ।*
*दादू थोड़ी बात थी, जे टुक दर्श दिखाइ ॥३०॥*
सतगुरुदेव कहते हैं कि हे नाथ ! हम विरहीजन तो विरह विलाप करते-करते आपके विरह के वियोग में मर रहे हैं, किन्तु हम विरहीजनों के भगवद् विरह रूप या जन्म-मरण दु:ख को दूर करने वाला कोई वैद्य नहीं मिला है ।(कोई वैद्य रूप गुरु नहीं मिला) । हे प्राणाधार ! आपके लिये तो यह साधारण सी बात है कि आप प्रकट होकर हम विरहीजनों को दर्शन देवें । किन्तु हे स्वामिन् ! हम विरहीजनों को तो अति ही कठिन है ॥३०॥ 
जैसे नारी नाह बिन, भूली सकल श्रृंगार ।
त्यूं रज्जब भूला सकल, सुन स्नेही दिलदार ॥ 
(नाह = पति, भूली सकल = सर्व सांसारिक बातें ।)
(क्रमशः)

शनिवार, 18 अगस्त 2012

= विरह का अँग ३ =(२५-७)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी

साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= विरह का अंग - ३ =*
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*विरह उपदेश*
*देह पियारी जीव को, निशदिन सेवा मांहि ।* 
*दादू जीवन मरण लौं, कबहूँ छाड़ी नांहि ॥२५॥* 
*देह पियारी जीव को, जीव पियारा देह ।*
*दादू हरि रस पाइये, जे ऐसा होइ स्नेह ॥२६॥* 
सतगुरुदेव कहते हैं कि संसारी प्राणियों को भौतिक देह अत्यन्त ही प्यारी है । इसलिए यह देहाध्यासी जीवात्मा प्रतिक्षण देह के सजने सँवारने(श्रृंगार) में ही व्यस्त रहता है और जब से सुरति संभाली है, तब से मरण पर्यन्त देह प्रपंच में ही लगा हुआ है । श्री सतगुरु महाप्रभु उपदेश करते हैं कि जैसे जीवात्मा को देह प्यारी है और देह को जीवात्मा प्यारा है अर्थात् शरीर पर कोई कï आवे तो जीवात्मा भाग छूटता है और प्राणों पर कोई प्रहार करे तो हाथ-पैर आदिक शरीर प्राणों की रक्षा करते हैं । इसी प्रकार विरहीजन भी भगवत् से अनन्यभाव होकर रहें, तो हरि-रस, भगवद्-दर्शन व मोक्षरूप परम-तत्व सहज सुलभ हैं ॥२५/२६॥ 
जिकर फिकर फोकट सबै, ना कछु ज्ञान अरु ध्यान । 
"टोडर" जप तप आदि सब, प्रेम प्रीति कछु आन ॥
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*दादू हरदम मांहि दिवान, सेज हमारी पीव है ।* 
*देखूँ सो सुबहान, ये इश्क हमारा जीव है ॥२७॥* 
दादूजी कहते हैं, पीव कहिए, प्रीतम पालन करने वाला, दीवान कहिए, परमेश्वर न्यायकारी, हरदम नाम हर समय प्रति श्वास में, हम विरहीजनों के अन्त:करण रूपी सेज में ही विद्यमान कहिए, प्रकट है । और समस्त सुन्दरताओं का सुन्दर रूप सुहावन कहिए, अनुपम सुन्दर है, जिससे पीव के प्रेम में ही विरहीजन जीवित हैं ॥२७॥ 
(क्रमशः)

शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

= विरह का अँग ३ =(२२-४)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
.
*= विरह का अंग - ३ =*
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*ज्यूं कुंजर के मन वन बसै, अनल पंखी आकास ।* 
*यूं दादू का मन राम सौं, ज्यूं वैरागी वनखंड वास ॥२२॥* 
जैसे हाथी के मन में वन की प्रीति बसती है और शार्दूल पक्षी के मन में आकाश की प्रीति बसती है । इसी प्रकार सतगुरु महाराज कहते हैं कि हम विरहीजनों का मन तो एक राम में बसता है, जैसे वैराग्यवान् पुरुष के मन में वन बसता है ॥२२॥
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*भँवरा लुब्धी बास का, मोह्या नाद कुरंग ।* 
*यों दादू का मन राम सौं, ज्यों दीपक ज्योति पंतग ॥२३॥* 
जैसे भँवरा पुष्प की सुगन्धि का लोभी होता है और मृग जैसे सारंग राग का प्रेमी होता है और जैसे पतंग दीपक-ज्योति का प्रेमी होता है । ऐसे ही हम विरहीजनों का मन तो केवल राम से ही स्नेह करता है ॥२३॥ 
ज्यों मृग मोह्या नाद सौं, दादूर ज्यों जल संग । 
त्यों साधु की रुचि राम सौ, ज्यों दीपक पड़त पतंग ॥ 
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*श्रवणा राते नाद सौं, नैनां राते रूप ।* 
*जिभ्या राती स्वाद सौं, त्यों दादू एक अनूप ॥२४॥* 
जैसे संसारीजन भिन्न-भिन्न इन्द्रियों की रुचि के अनुसार भिन्न-भिन्न विषयों में प्रवृत्त होते हैं, वैसे ही विरहीजनों को भी समस्त माया पदार्थों से सुरति समेट कर केवल भगवद्-भजन में ही एकाग्र रहना चाहिए ॥२४॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 16 अगस्त 2012

= विरह का अँग ३ =(१९-२१)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी

विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
.
*= विरह का अंग - ३ =*
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*दादू जब लग सुरति सिमटै नहीं, मन निश्चल नहीं होहि ।*
*तब लग पीव परसै नहीं, बड़ी विपति यहु मोहि ॥१९॥* 
सतगुरुदेव कहते हैं कि जब तक विरहीजनों की अन्त:करण की वृत्ति सब ओर से एकाग्र होकर, विरही मन केवल भगवत् से तद्रूप नहीं हो जावे, तब तक भगवत् दर्शनों के बिना दु:ख दूर नहीं होवेगा । तात्पर्य यह है कि विरहीजनों को जब तक देहादि की ओर रुदन की कहिए, रोने की अवस्था का किंचित् भी ज्ञान है, तब तक द्वैतभाव विद्यमान है । अत: जब प्रीतम और विरहनी का भिन्न-भिन्न भाव विलुप्त हो जावे, तब जानो कि विरहनी भक्त अपने प्रीतम में अभेद भाव से स्थित हो रही है ॥१९॥ 
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*ज्यूं अमली के चित अमल है, सूरे के संग्राम ।* 
*निर्धन के चित धन बसै, यों दादू के राम ॥२०॥* 
हे जिज्ञासुओ ! जैसे अफीमची के चित्त में अफीम का नशा करने की इच्छा रहती है और शूरवीर के मन में वीरता दिखाने की इच्छा रहती है और निर्धन कहिए, तृष्णायुक्त पुरुष के मन में धन की वासना रहती है । ऐसे ही सतगुरु महाराज कहते हैं कि विरहीजनों के मन में राम के मिलने की इच्छा बनी रहती है ॥२०॥ 
विवेच्यानि विचार्याणि, विचिन्त्यानि पुन: पुन: । 
कृपणस्य धनानीव, त्वन्नामानि भवन्तु मे ॥ 
कोउ अमली मग जात है, अमल बख्त भई आय । 
कोउ जन से ये पूछिया, मूंज नीर पी जाय ॥ 
दृष्टांत - एक अफीम खाने वाला मार्ग-मार्ग जा रहा था । अफीम खाने का समय हो गया । अफीम की डिब्बी घर भूल गया, तो उसके सारे अंग शिथिल पड़ गए, चाल कम हो गई । मुश्किल से एक गाँव में पहुँचा । विचार किया कि यहाँ कहीं से अफीम लेकर नशा करूँगा । गाँव में जब पहुँचा तब देखा कि एक पत्थर के ऊपर पीला-पीला पानी भरा है । वह देखकर बड़ा राजी हुआ और वहाँ चौपाल पर बैठे पुरुषों से पूछा भाई ! यह तिजोरा है(तिजोरा का अर्थ है पोस्त के डोडे)? वे लोग जान गए कि यह अफीम खाने वाला है । इसके पास अफीम नहीं है । हम यह कहेंगे कि यह मूंज का पानी है तो यह उदास हो जाएगा । ऐसा विचार कर वे लोग बोले :- हाँ, तिजोरा बना है । "आप लोग पी लिया ?" हाँ, हम सबने पी लिया । यह बचा हुआ है । वह बोला "मैं पीलूं क्या?" "पीलो ।" उसने सब पानी पी लिया पत्थर के गड्ढों में से और तीन खखारे किए । इतने में नशा चढ़ गया । ऐसे ही दृष्टांत में राम के भक्त, राम के स्मरण से ही तृप्त होते हैं ।
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*ज्यूं चातक के चित जल बसैं, ज्यूं पानी बिन मीन ।* 
*जैसे चंद चकोर है, अैसे दादू हरि सौं कीन ॥२१॥* 


हे जिज्ञासुओं ! जैसे चातक कहिए पपैया के मन में स्वाति बून्द का प्रेम है और जैसे मछली जल के बिना नहीं जी सकती है क्योंकि मुख्य प्रीति मछली की जल से होती है और जैसे चकोर पक्षी के मन में चन्द्रमा की प्रीति बसती है, वैसे ही सतगुरु महाराज कहते हैं कि विरहीजन भक्त की राम से प्रीति रहती है ॥२१॥ 
(क्रमशः)

बुधवार, 15 अगस्त 2012

दादू माहैं मीठा हेत करि

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू माहैं मीठा हेत करि, ऊपर कड़वा राख ।
सतगुरु सिष कौं सीख दे, सब साधों की साख ॥

 

= विरह का अँग ३ =(१६-८)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी

विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 

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*= विरह का अंग - ३ =*
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*दर्शन कारण विरहनी, वैरागिन होवै ।*
*दादू विरह बियोगिनी, हरि मारग जोवै ॥१६॥* 
सतगुरुदेव कहते हैं कि विरहीजन, भगवत् दर्शनों के लिये संसार से वैराग्य लेते हैं और भगवत् दर्शनों के बिना विरह से अति व्याकुल होकर, ईश्वर से मिलने की प्रतीक्षा करते हैं ॥१६॥ 
क्या करुँ बैकुन्ठ का, कल्प-वृक्ष की छाँह । 
"हेतम" ढाक सुहावणां, जहाँ सज्जन गहि बाँह ॥
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*विरह उपदेश*
*अति गति आतुर मिलन को, जैसे जल बिन मीन ।*
*सो देखे दीदार को, दादू आतम लीन ॥१७॥* 
हे जिज्ञासुओं ! जैसे जल के बिना मछली व्याकुल हो जाती है, उसी प्रकार भक्तजन, भगवत् के वियोग में व्याकुल रहते हैं । जो विरहीजन माया की तृष्णा को विसार कर अपनी आत्मा को परमेश्वर में लीन करते हैं, वही भक्तजन प्रभु का साक्षात्कार करेंगे ॥१७॥ 
नीर बिन मीनी दुखी, क्षीर बिनु शिशु जैसे । 
पीर की औषधि बिन, कैसे रह्यो जात है ॥ 
चातग ज्यूं स्वाति बूंद, चन्द को चकोर जैसे । 
चन्दन की चाह कर, सर्प अकुलात है ।
निर्धन ज्यूं धन चाहे, कामनी को कन्त जैसे । 
ऐसी जाके चाह ताहि, कछु न सुहात है ।
प्रेम को प्रवाह ऐसा, प्रेम तहाँ नेम कैसो । 
सुन्दर कहत यह, प्रेम ही की बात है ॥ 
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*राम बिछोही विरहनी, फिरि मिलन न पावै ।* 
*दादू तलपै मीन ज्यूं, तुझ दया न आवै ॥१८॥* 
सतगुरुदेव कहते हैं कि विरहीजन परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं कि हे राम ! जो आपने विरहजन भक्तों को भुला दिया तो फिर विरहीजन अपने बल के द्वारा आपसे मिल नहीं सकेंगे । इसलिए विरहीजन तो आपके दर्शनों के वियोग में मछली की भाँति तड़फते रहते हैं(जैसे जल के बिना मछली) । हे भक्त-वत्सल ! हे दीनों पर दया करने वाले ! क्या आपको अपने विरहीजनों पर इतनी भी दया नहीं आती कि उन्हें अपना दर्शन देकर विरह का दु:ख दूर करें ॥१८॥ 
बिछुडियाँ विग्रह घणा, भू अंतरा पराइ । 
नदी बिछुटा बाहुलण, औसर कहीं मिलाइ ॥ 
कर्ता कृपणता गही, दर्शन बिन दुख दीन्ह । 
माता पिता यों ना करै, ज्यूं हरि हम सूं कीन्ह ॥ 
कहियो जाइ सलाम हमारी राम को, 
नैन रहे झर लाइ तुम्हारे नाम को ।
कमल गया कुमलाय कली भी जायसी, 
अरे हां बाजींद, इस बाड़ी में भँवरा फेर न आइसी 
(क्रमशः)

मंगलवार, 14 अगस्त 2012

= विरह का अँग ३ =(१३-१५)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= विरह का अंग - ३ =*
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*पीव बिन पल पल जुग भया, कठिन दिवस क्यों जाइ ।* 
*दादू दुखिया राम बिन, काल रूप सब खाइ ॥१३॥* 
सतगुरूदेव कहते हैं कि अपने प्रीतम, प्यारे, परमेश्वर के दर्शनों के बिना विरहीजनों को एक-एक पल युगों के समान बीतता है । इसलिए विरहीजनों को यह बड़ा दु:ख है कि ये कठिन दिवस प्रभु के वियोग में किस तरह काटेंगे ? क्योंकि संसार के विषय-भोग कालरूप होकर विरहीजनों को संतप्त कर रहे हैं ॥१३॥ 
रज्जब रुचै न राम बिन, सकल भाँति के सुख । 
भगवत सत भावैं सबै, नाना विधि के दु:ख ॥ 
मित्र तिहारे दरस को, अधर रहै जिय आय । 
कहो क्या आज्ञा होत है, यह तन रहे कि जाय ॥ 
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*दादू इस संसार में, मुझसा दुखी न कोइ ।*
*पीव मिलन के कारणै, मैं जल भरिया रोइ ॥१४॥*
विरहीजन कहते हैं कि इस संसार में हमारे समान और कोई भी दु:खी नहीं है, क्योंकि अपने प्रीतम के दर्शनों के बिना अति दु:खी होकर हम रात-दिन रो रहे हैं ॥१४॥ 
पानां ज्यूं पीली भई, लोग कहैं पिण्ड रोग । 
छाने लंघण नित करुं, राम तिहारे जोग ॥ - मीरा
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*ना वह मिलै, न हम सुखी, कहो क्यों जीवन होइ ।*
*जिन मुझको घायल किया, मेरी दारु सोइ ॥१५॥* 
विरहीजन कहते हैं कि जब तक हमें प्यारे प्रीतम नहीं मिलते, तब तक हम सुखी कैसे रहें ? क्योंकि बिना परमेश्वर-दर्शन पाए तो हमारा जीवन ही वृथा है अर्थात् विरहीजनों को परमेश्वर के वियोग का ही दु:ख है और परमेश्वर के दर्शनों का संयोग ही परम आनन्द है ॥१५॥ 
जो मोहि वेदन वैद्य सुनि, लिखी न कागद माँही । 
क्या ढंढारे पोथियां, पचे तो पावे नाहिं ॥ 
जाहु बैद घर आपणे, जाणी जाइ न कोइ । 
जिन दुखलाया "नानका", भला करेगा सोइ ॥ 
कांई ढीलै पोथियां, पचै तो पावै नाहिं । 
मौत न वेदन विरह दी, लिखी न पुस्तक माहिं ॥ 
विरह विथा जाके लगी, ताही पै जु बुझन्त । 
ज्यूं धवल ध्वज पवन वश, उरझ उरझ सुरझंत ॥ 
(क्रमशः)

सोमवार, 13 अगस्त 2012

= विरह का अँग ३ =(१०-१२)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= विरह का अंग - ३ =*
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*पासैं बैठा सब सुणै, हमकों जवाब न देइ ।* 
*दादू तेरे सिर चढै, जीव हमारा लेइ ॥१०॥* 
सतगुरु महाराज कहते हैं कि हे प्रभु ! हमारे प्रीतम प्यारे परमेश्वर पास में ही बैठे हैं और हमारी दु:ख भरी आवाज भी सुनते हैं, परन्तु हमको कुछ भी उत्तर नहीं देते । इसलिए हम विरहीजनों को भारी दु:ख है । विरहीजन कहते हैं कि हे स्वामिन् ! यदि आप हमें दर्शन नहीं देवेंगे तो हमारे प्राण-पिण्ड के वियोग का जो दोष(पाप) है, वह आपके सिर पर चढ़ेगा ॥१०॥ 
किं सुप्तोSसि किमाकुलड़ोSसि जगत: सृष्टस्य रक्षाविधौ, 
किं वा निष्करूणोSसि नूनमथवा क्षीव: स्वतन्त्रतोSसि किम् ।
किं वा मादृशनि:शरण्यकृपणों भाग्यैर्जड़ोSवागसि ? 
स्वामिन् ! यन्न श्रुणोति में विलपितं यन्नोत्तरं नेच्छसि ॥
(हे स्वामिन् ! क्या तुम सो रहे हो या जगत् की रचना में व्याकुल हो रहे हो ? या मेरे प्रति निर्दयी हो गये हो, पागल या स्वतन्त्र हो गये हो ? या मेरी तरह तुम भी दीन-हीनों पर दया नहीं दिखाना चाहते अथवा मेरे दुर्भाग्य से तुम गूंगे-बहरे बन गये जो कि तुम मुझे कुछ भी उत्तर नहीं देना चाहते हो?)
सज्जन तुमसे क्या कहूँ, तूं ही कपट के भेष । 
बसने को मेरा हृदय, मिलने को परदेस ॥ 
"ईश्वर: सर्वभूतानां हृददेशेSर्जुन ! तिष्ठति ।"- गीता 
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*सबको सुखिया देखिये, दुखिया नाहीं कोइ ।* 
*दुखिया दादू दास है, अैन परस नहीं होइ ॥११॥*
हे स्वामिन् ! आपके विरहीजन भक्तों के अतिरिक्त समस्त संसारीजन, पुत्र-धन आदि संसारी वैभवों से अपने को सुखी जानते हैं । परन्तु हे प्रभु ! आपके वियोग का दु:ख वे कोई भी नहीं मानते हैं, केवल सच्चे भक्तजन ही आपके प्रत्यक्ष दर्शनों के लिए अति आतुर हैं । हे भक्त-वत्सल ! आप अपने भक्तों का आपकी अप्राप्ति रूप जो दु:ख है, उसको दर्शन देकर दूर करिए ॥११॥ 
नरसिंह कही प्रह्लाद से, वर देऊँ मैं तोहि । 
जगत सुखी करि ल्याउ अब, दुखी मिल्यो नहीं मोहि ॥ 
दृष्टांत - भक्त प्रह्लाद की भक्ति को देखकर भगवान् नरसिंह प्रकट हुए और बोले, "वर मांग" । प्रह्लाद बोले :- हे नाथ ! सारे संसार को सुखी बना दो और उन सबका दु:ख मुझे दे दो । भगवान् बोले :- आपके नगर में जो दु:खी हैं, उन सबको ले आओ ! उनको सुखी बनाकर उनका दु:ख आपको दे देंगे । इसी प्रकार सारे संसार के दु:ख दूर करेंगे । प्रह्लाद नगर में गए और एक बूढा और बुढिया को बोले :- आओ, मैं आपको भगवान् के पास ले चलूं, ताकि तुम सुखी हो जाओगे । वे प्रह्लाद को डांट कर बोले :- चल चल, तूं ही जा भगवान् के पास सुखी होने । इसी प्रकार प्रह्लाद ने नगर में कई दु:खियों को कहा, परन्तु एक भी नहीं आया । भगवान् को आकर प्रह्लाद बोला :- महाराज ! कोई भी नहीं आता है । भगवान बोले :- कोई इस संसार में दुखी नहीं है । केवल मेरे दास ही दुखी हैं, जिनको मेरा दर्शन नहीं होता । कबीर ने कहा है :-
सुखिया सब संसार है, खावै और सोवै । 
दुखिया दास कबीर है, जागै और रोवै ॥ 
बिरही जन को कौन सुख, कहाँ धौ इहि कलि काल । 
नैना गंग तरंग लै, बिन दरशन बेहाल ॥
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*विरहीजनों के दु:ख का कारण*
*साहिब मुख बोलै नहीं, सेवक फिरै उदास ।* 
*यहु बेदन जिय में रहै, दुखिया दादू दास ॥१२॥* 
दादूजी कहते हैं हे जिज्ञासुओं ! परमेश्वर अपने भक्तों से प्रगट होकर जब तक नहीं बोलते हैं, तब तक परमेश्वर के भक्त अति दुखी रहते हैं और उदास हुए घूमते हैं । क्योंकि परमेश्वर के भक्तों के हृदय में यह भारी दुख बना ही रहता है कि हमारे स्वामी परमेश्वर हमसे प्रेम नहीं करते हैं । इस प्रकार परमेश्वर के भक्त विरहरूपी दर्द से सदा ही व्याकुल रहते हैं ॥१२॥ 
उर ग्रीष्म पावस नयन, अरु जिय में हिम काल । 
पीव बिन को तीन ऋतु, कबहुँ न मिटै जमाल ॥ 
विरहीजनों के हृदय में ग्रीष्म कहिए गर्म ऋतु, नेत्रों में वर्षा ऋतु और अन्त:करण में सर्द ऋतु, शरीर में तीनों ऋतुएँ व्याप्त रहती हैं ।
(क्रमशः)

रविवार, 12 अगस्त 2012

= विरह का अँग ३ =(७-९)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥ 

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= विरह का अंग - ३ =* 
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*शब्द तुम्हारा ऊजला, चिरिया क्यों कारी ?* 
*तूँही, तूँही निशदिन करूँ, विरहा की जारी ॥७॥ 
हे प्रभु ! हम विरहीजन आपके वियोग-जन्य दु:ख से अति निर्बल होकर प्रतिक्षण पुकार करते हैं कि हे स्वामिन् "तूं ही है", "तूं ही है" । हमारे विरह के दु:ख को दूर करने वाला एक तूं ही है । पुन: विरहीजन विनय करते हैं कि हे नाथ ! आपके दीनोद्धारक, भक्त वच्छल, अशरण-शरण, ये विशेषण तो आपके अति उत्तम हैं, किन्तु हमारी बारम्बार विनय सुनकर के भी आप दर्शन नहीं देते हैं ? आपके यह चिरिया चरित्र, कारी नाम कठोरता क्यों है ? अथवा चिरिया कहिए, हे कोयल ! तेरा शब्द तो उज्जवल है, किन्तु तेरा शरीर कारी = काला क्यों है ॥७॥ 
कोयल तूं सुभ लक्षणी, उज्जल तेरे बैन । 
किसी विधि तूं कारी भई, किस विधि राते नैन ॥
(राते = लाल)
जब विधाता मोहे रची, कबहुँ न पायो चैन । 
कूक-कूक कारी भई, रो-रो राते नैन ॥ 
चिरिया से मतलब चोले का है । हे विरहीजनों ! तुम्हारी वाणी तो अत्यन्त मधुर है, किन्तु शरीर अति कृश(कमजोर), काला क्यों है? विरही कहते हैं कि प्रभु ! प्रतिक्षण तेरी टेर लगाते हुए हम विरहीजन, विरह-अग्नि में जलकर कोयला हो गये हैं अर्थात् देहाध्यास से मुक्त हुए हैं ।
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*विरह विलाप*
*विरहनी रौवे रात दिन, झूरै मन ही मांहिं ।*
*दादू औसर चल गया, प्रीतम पाये नाहिं ॥८॥* 
सतगुरु महाराज कहते हैं कि हे प्रभु ! विरहीजन रात-दिन रोते हैं और मन ही मन क्षीण होते जा रहे हैं । क्योंकि मनुष्य का जीवनरूप या यौवन रूपी यह अवसर खत्म होता जा रहा है, किन्तु अभी तक प्रीतम प्यारे का संयोग प्राप्त नहीं हुआ है ॥८॥ 
चित्त चहूँटया मिंत सौं, कछु न सुहावै ताहि ।
नैनहुँ नींद न जीव जक, मिंत मिलन की चाहि ॥ 
विरह पावक उर बसै, नख सिख जारै देह ।
रज्जब ऊपरि रहम करि, बरसहु मोहन मेह ॥ 
पावक = अग्नि । मेह = दर्शनरूपी वर्षा ।
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*दादू विरहनी कुरलै कुंज ज्यूं, निशदिन तलफत जाइ ।* 
*राम सनेही कारणै, रोवत रैन विहाइ ॥९॥*
जैसे कुंज पक्षी कतार बाँध कर आकाश में उड़ते हुए अपने बच्चों के पालन करने के लिए अत्यन्त करूणा से विलाप करते हैं, सतगुरुदेव इसी भाव को स्पष्ट करते हैं कि जिस प्रकार कुँज पक्षी, अपने बच्चों के निमित्त आठों पहर कुरलाते हैं, उसी प्रकार परमेश्वर के दर्शनों के लिए विरहीजनों के भी रात-दिन तड़फते हुए बीतते हैं ॥९॥ 
शोके क्षोभे च हृदयं प्रालपैखधार्यते । 
पूरोत्पीडतड़ागस्य परीवाह: प्रतिक्रिया ॥ 
(शोक और दु:ख में रोने से हृदय हल्का हो जाता है, जैसे पूरे भरे हुए तालाब में से पानी ऊपर कर निकल जाता है ।)
प्रेम समुद्र उलटिया, ताका वार न पार । 
विरह वियोगी डूबते, हाय न होत उबार ॥
(क्रमशः)

शनिवार, 11 अगस्त 2012

= विरह का अँग ३ =(३-६)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी

साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= विरह का अंग - ३ =*
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*विरहीजनों की अनन्यता*
*मन चित चातक ज्यों रटै, पीव पीव लागी प्यास ।* 
*दादू दर्शन कारणै, पुरवहु मेरी आस ॥४॥* 
सतगुरुदेव कहते हैं कि विरहीजनों का चित्त चेतनायुक्त अर्थात् ईश्वर-परायण मन, आतुरता सहित प्रभु दर्शनों के लिए चातक पक्षी की तरह "हे पीव ! हे पीव ! आपके दर्शनों की मेरी इस उत्कण्ठा को पूर्ण करो ।" इस प्रकार पुकार करते हैं ॥४॥ 
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दादू विरहनी दुख कासनि कहै, कासनि देइ संदेश ।
पंथ निहारत पीव का, विरहनी पलटे केश ॥५॥ 
सतगुरुदेव कहते हैं कि हम विरहीजन अपने संदेश(समाचार) किस से कहें और किस के द्वारा अपने समाचार प्रीतम के पास पहुँचावें । पीव के आगमन की प्रतीक्षा करते-करते चिंतातुर विरहीजनों के सिर के केश भी बदल(सफेद हो) गए हैं और मन निष्पाप हो गया है । अभी तक प्रभु के दर्शन नहीं हुए हैं । इसी से विरहीजनों का मन ही अति व्याकुल है ॥५॥ 
"सजन" फेर न बाहुड़े, प्रीतम रहे विदेश । 
पंथ निहारत हे सखी ! विरहनी पलटे केश ॥ 
बालम बिछुरत हे सखी, कालम लागी येह । 

जालम जम के बस भई, सालम रही न देह ॥
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*दादू विरहनी दुख कासनि कहै, जानत है जगदीश ।*
*दादू निशदिन बिरही है, विरहा करवत शीश ॥६॥*
सतगुरु महाराज कहते हैं कि हे प्रभु ! हम विरहीजन अपना दु:ख किससे कहें, क्योंकि कोई इस दु:ख को दूर कर सके तो उससे अपना दु:ख कहें भी, किन्तु संसारीजनों में तो ऐसा कोई समर्थ है नहीं । और हे जगदीश ! आप समर्थ हो, सर्वज्ञ हो, आप स्वयं विरहीजनों के दु:ख को जानते हो, फिर भी आप प्रकट होकर दर्शन नहीं देते हो । इसलिए आपके प्रेम में हम परम आतुर हो रहे हैं ॥६॥
कौन सुने, कासौं कहूँ, जो जिय उपजत बात ।
मेरे उर अंतर सखी, करवत आवत जात ॥
दोऊ कर करतव चले, विरह भयो सूँतबार ।
सबै हियो यह कंठलो, बिहरत बारंबार ॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

= विरह का अँग ३ =(१-३)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी

साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= अथ विरह का अंग - ३ =*
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*दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवत: ।* 
*वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगत: ॥१॥ 
ब्रह्मर्षि दादू दयाल महाराज कहते हैं कि हरि, गुरु, संतों को नमो, नमस्कार, वंदना स्वीकार होवे कि जिनकी कृपा से जिज्ञासुजन स्मरणरूप साधन द्वारा अन्त:करण की विषय-वासनाओं से "पारं" कहिए, निर्मल होकर परमेश्वर के विरह में व्याकुलता सहित "गत:" कहिए, अखंड लय द्वारा लीन हो रहे हैं ॥१॥ 
"जैमल" विरह न ऊपजै, पीव सौं प्रीति न होय । 
सो घट मुर्दा मध्य में, जे सब तीरथ धोय ॥"
जा घट विरहा उपजै, ता सर पूरे भाग । 
विरह विहूणां प्राणिया, जैसा कारा काग ॥ 
शास्त्रों में विरह की दस अवस्थाएँ बताई गई हैं - शरीर का गर्म रहना, कृशता, अनिद्रा, अधैर्य, जड़ता, निरालम्बता, उन्मादता, मूच्र्छा, विराग और मरण ।
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*अब विरहीजनों की अवस्था का वर्णन कर रहे हैं*
*रतिवंती आरति करै, राम सनेही आव ।* 
*दादू औसर अब मिलै, यहु विरहनी का भाव ॥२॥* 
हे जिज्ञासुओं ! विरहीजनों की "रतिवंती" कहिए बुद्धि, परमेश्वर से "आरती" कहिए आतुरता(व्याकुलता) सहित विलाप करती है कि मेरे राम ! हे मेरे स्नेही ! हे मेरे हितकारी ! "आव" कहिए प्रकट होकर, दर्शन देओ । ब्रह्मर्षि दादू दयाल कहते हैं कि विरहिनी का यह प्रयोजन है कि इस मनुष्य शरीर रूपी अवसर मिलने पर प्रियतम परमेश्वर के विरह के दु:ख के समय, परम स्नेही प्रभु का साक्षात्कार करके विरहीजन स्वस्वरूप आनन्द का अनुभव करै ॥२॥ 
आव पियारे साजना, आवै न येही बार । 

नांतर नैन गमाइ हैं, पंथ निहार निहार ॥
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*विरहिनी की विरह दशा और उसका विलाप*
*पीव पुकारै विरहनी, निशदिन रहे उदास ।* 
*राम राम दादू कहै, ताला-बेली प्यास ॥३॥* 
सतगुरुदेव कहते हैं कि विरहिनी इस प्रकार विलाप करती है कि हे मेरे पीव ! पालन करने वाले परमेश्वर ! मुझे आपका दर्शन दो । कदाचित् विरहनी को प्रभु के दर्शन नहीं होवें, तो विरहीजन रात और दिन संसार विषयों से उदासीन होकर तड़पते हैं और अति व्याकुलता सहित "हे राम ! हे राम !" इस प्रकार आतुर स्वर में प्रभु को पुकारते हैं । 'ताला बेली प्यास' इन तीनों पदों से विरहीजनों की मन, वाणी और शरीर द्वारा प्रभु में अनन्यता दर्शाई है ॥ ३ ॥ 
पीव पुकारै विरहनी, निसदिन करै पुकार । 
मिलि हो प्यारे साजनां, जन हरि दास विचार ॥ 
प्राण पिंड रग रोम सब, हरि दिशि रहे निहारि । 
ज्यों बसुधा बनराय सौं, विरही चाहे वारि ॥ 
(वसुधा = पृथ्वी । वारि = जल)
(क्रमशः)

गुरुवार, 9 अगस्त 2012

= स्मरण का अँग २ =(१३१-२)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =*
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*साहिब जी के नांव में, सब कुछ भरे भंडार ।* 
*नूर तेज अनन्त है, दादू सिरजनहार ॥१३१॥* 
हे जिज्ञासुओं ! साहिब जी कहिए जगत के रचने वाले दयालु परमेश्वर का अनन्त कहिए, देशकाल-प्रच्छेद रहित तेजोमय दिव्य स्वरूप हैं । इसलिए ऐसे पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर के नाम के अन्तर्गत ही सम्पूर्ण दैवी-सम्पत्ति और ज्ञान, ध्यान, ऋद्धि-सिद्धि आदि के अनन्त भंडार भरे हैं । उस नाम को हृदय में धारण करो ॥१३१॥ 
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*जिसमें सब कुछ सो लिया, निरंजन का नांउँ ।*
*दादू हिरदै राखिए, मैं बलिहारी जांउँ ॥१३२॥* 
हे जिज्ञासुओं ! जिस निरंजन, निराकार प्रभु के नाम में समस्त माया और माया के कार्य-प्रपंच और त्रिलोकी के सम्पूर्ण सुख विद्यमान हैं, उस परमेश्वर के ऐसे नाम को हृदय में धारण करके जो स्मरण करते हैं, वे भक्त और संत, सब कुछ प्राप्त कर लेते हैं, उनके लिए कोई भी वस्तु अप्राप्य नहीं रहती, क्योंकि यह नाम कल्प-वृक्षवत् है, सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करता है, ऐसे प्रभु का नाम स्मरण करने वाले भक्त एवं संतों की हम बार-बार बलिहारी जाते हैं ॥१३२॥ 
इति स्मरण का अंग सजीवनी टीका सहित सम्पूर्ण ॥अंग २ ॥ साखी १३२॥

बुधवार, 8 अगस्त 2012

= स्मरण का अँग २ =(१२८-३०)


॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =*
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*नाम सम्पूर्णता*
*साहिब जी के नांव में, बिरहा पीड़ पुकार ।* 
*ताला बेली रोवणा, दादू है दीदार ॥१२८॥* 
सतगुरु उपदेश करते हैं कि हे जिज्ञासुओं ! जिस प्रकार बिरहणी विरह की पीड़ा से, अपने प्रियतम का चिन्तन करती है और जैसे पतिव्रता स्त्री विरह की पीड़ा से अपने प्रियतम कहिए, पति की आराधना करती है, वैसे ही अति प्रीति से प्रभु का नाम-स्मरण करने से परमेश्वर का साक्षात्कार दर्शन होगा ॥१२८॥ 
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*विरह जागृति स्मरण विधि*
*साहिब जी के नांव में, भाव भगति विश्‍वास ।* 
*लै समाधि लागा रहै, दादू सांई पास ॥१२९॥* 
हे जिज्ञासुओं ! "साहिब जी" कहिए परमेश्वर के नाम में भाव, भक्ति, "विश्वास" कहिए श्रद्धा और "लय" कहिए अभ्यास से तदाकार वृत्ति और इन्द्रियों की विविध वृत्ति रूप प्रवृत्ति तथा सहजावस्था रूप समाधि में जो परमेश्वर का भक्त एकाग्र होकर रहता है, उसके समीप ही कहिए अन्त:करण में ही परमेश्वर निवास करते हैं॥१२९॥ 
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*साहिब जी के नांव में, मति बुधि ज्ञान विचार ।*
*प्रेम प्रीति स्नेह सुख, दादू ज्योति अपार ॥१३०॥* 
हे जिज्ञासुओं ! परमेश्वर के नाम के स्मरण से निश्चय रूप मति कहिए निश्चयात्मक बुद्धि और नित्य अनित्य के विचार स्वरूप ज्ञान का उदय होता है । जिससे अपार ज्योतिरूप जो परमेश्वर है, उससे प्रभु के प्रति प्रेम, प्रीति, स्नेह कहिए, संलग्नता सुख कहिए परमानन्द का अनुभव होता है ॥१३०॥
(क्रमशः)

मंगलवार, 7 अगस्त 2012

= स्मरण का अँग २ =(१२५-७)


॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =*
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*दादू जबही राम बिसारिये, तब ही झंपै काल ।*
*सिर ऊपर करवत बहै, आइ पड़ै जम जाल ॥१२५॥* 
The moment thou forsakest God, 
the Negative Power pounces upon thee, O Dadu.
a sword hangs over thy head, 
and thou art caught in the snare of Death.
*दादू जब ही राम बिसारिये, तब ही कंध बिनाश ।*
*पग पग परलै पिंड पडै, प्राणीजाइ निराश ॥१२६॥* 
हे जिज्ञासुओं ! जिस समय यह मानव राम के स्मरण को भूल जाता है तब ही यह काम, क्रोध, लोभ, मोह, आदि काल का ग्रास बन जाता है और इसके शरीर रूपी कंधे पर काल का फरसा पड़ता है, जिससे इस मानव का विनाश कहिए, राम-विमुख मृत्यु होती है और मनुष्य देह को यह नष्ट करके, विषय विकार आदिकों में बह जाता है ॥१२५-१२६॥ 
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*दादू जब ही राम बिसारिये, तब ही हाना होइ ।*
*प्राण पिंड सर्वस गया, सुखी न देख्या कोइ ॥१२७॥* 
सतगुरु देव कहते हैं कि हे जिज्ञासुजनों ! जो संसारीजन राम-नाम को भूलकर विषयों में प्रवृत्त रहते हैं, उनका शरीर, प्राण, इन्द्रियाँ और जितना सुकृत कर्म, पुण्य आदि, उन सब का नाश हो जाता है । इसलिए हे जिज्ञासुओं ! मनुष्य-जन्म को प्राप्त करके परमेश्वर के भजन को कभी भी मत भूलो । क्योंकि ईश्वर-विमुख प्राणी को जन्म-जन्मान्तरों में भी सुख प्राप्त होना असम्भव है ॥१२७॥
(क्रमशः)


सोमवार, 6 अगस्त 2012

= स्मरण का अँग २ =(१२३-४)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =*
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*नाम चिंतन के फलाफल का विवेचन*
*जेता पाप सब जग करै, तैता नाम बिसारे होइ ।* 
*दादू राम संभालिये, तो येता डारे धोइ ॥१२३॥* 
*दादू जब ही राम बिसारिये, तब ही मोटी मार ।* 
*खंड खंड कर नाखिये, बीज पड़ै तिहिं बार ॥१२४॥* 
हे जिज्ञासुओं ! राम-नाम के भूलने से अत्यन्त दु:ख है, क्योंकि राम-नाम बिसारने से "बीज" कहिए, दुर्वासना आदि संस्कार संसारीजनों में व्याप्त हो जाते हैं । जिससे फिर यह जीवात्मा "खंड-खंड" कहिए, जन्म-मृत्यु के चक्र में भटकता रहता है । हे जिज्ञासुओं ! राम नाम को भूलने से ही अत्यन्त दु:ख होता है, जैसे:- "विद्युत" कहिए वज्रपात होने से मनुष्य के शरीर का टुकड़ा-टुकड़ा होकर भस्म हो जाता है वैसे ही राम-नाम का स्मरण भूल जाने से भी जीव की एकरस जो सुरति है, वह "खंड-खंड" कहिए नाना शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि विकारों के मोह में पड़कर छिन्न-भिन्न हो जाती है । इसलिए अपनी सुरति को राम-नाम में लगाकर रखना चाहिए ॥१२३-१२४॥ 
नाम्नोSस्य यावती शक्ति: पापनिर्हरणे हरे: । 
तावत्कर्तुं न शक्नोति पातकं पातकी जन: ॥ 
(भगवन्नाम में जितनी पाप हरने की शक्ति है, उससे अधिक पाप कोई कर ही नहीं सकता ।) 
हरि सन्मुख सम पुण्य को, नाहिं विमुख सम पाप । 
शांति नहिं संतोष सम, तृष्णा सम नहिं ताप ॥
(क्रमशः)

रविवार, 5 अगस्त 2012

= स्मरण का अँग २ =(१२१-२२)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =*
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*दादू सिर करवत बहै, अंग परस नहीं होइ ।* 
*मांहि कलेजा काटिये, यहु बिथा न जाणै कोइ ॥१२१॥* 
*दादू सिर करवत बहै, नैनहूँ निरखै नांहि ।*
*मांहि कलेजा काटिये, साल रह्या मन मांहि ॥१२२॥* 
सतगुरु देव कहते हैं कि हे जिज्ञासुजनों ! जब तक तुम्हारा "अंग" कहिए, मन, नाम-स्मरण के द्वारा परमात्मा में लीन नहीं होता है, तब तक तुम्हें नाना प्रकार के संसार के कष्ट व्याप्त होंगे । किन्तु यह "बिथा" कहिए, परमेश्वर का वियोगरूपी दु:ख भक्तों के अतिरिक्त और दूसरा कोई नहीं जानता है । क्योंकि संसारीजन जब तक विवेक-विचार रूपी नेत्रों ने "निरखै" कहिए, आत्मा और अनात्मा का ज्ञान प्राप्त नहीं करते हैं, तब तक उनको यथार्थ "कष्ट" कहिए, दु:ख प्रतीत नहीं होता है । क्योंकि सांसारिक दु:खों को ही वे सुख मान बैठे है और उन्होंने अमूल्य मनुष्य-जन्म प्राप्त करके भी आत्मा का साक्षात्कार नहीं किया है । इसलिए उत्तम जिज्ञासुओं के हृदय में यह भारी दु:ख रहता है ॥१२१-१२२॥
(क्रमशः)

शनिवार, 4 अगस्त 2012

= स्मरण का अँग २ =(११९-२०)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =*
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*स्मरण नाम चितावणी*
*दादू सिर करवत बहै, बिसरे आत्म राम ।*
*मांहि कलेजा काटिये, जीव नहीं विश्राम ॥११९॥* 
*दादू सिर करवत बहै, राम हिरदै थैं जाइ ।* 
*माँहि कलेजा काटिये, काल दसों दिसी खाइ ॥१२०॥* 
हे जिज्ञासुओं ! जिस प्रकार सिर पर करवत चलने से अनन्त पीड़ा होती है और कलेजा कटने से तो अत्यन्त बेचैनी होती है । उसी प्रकार राम नाम को बिसार कर संसारीजन अशान्त और दु:खी हैं । अत्यन्त व्यथित एवं अशान्त क्यों है ? इसका हेतु कहते हैं कि "काल दसों दिसि खाइ" - अर्थात् दशों इन्द्रियाँ, शब्द, स्पर्श इत्यादिक काल रूप विषय हैं, उनमें इन्द्रियों की आसक्ति हो रही है । अथवा जब संसारीजन राम-नाम से विमुख होते हैं, तब उनको वह चौरासी की योनी वृक्ष आदि मिलती है । जिनके मस्तिष्क पर काल करवत चलाई जाती है, तब वे अति दुखी होते हैं ॥११९-१२०॥
(क्रमशः)