रविवार, 31 मई 2015

= १९२ =

#daduji
॥ दादूराम सत्यराम ॥
दादू अनुभव काटै रोग को, अनहद उपजै आइ ।
सेझे का जल निर्मला, पीवै रुचि ल्यौ लाइ ॥
सोई अनुभव सोई ऊपजी, सोई शब्द तत सार ।
सुनतां ही साहिब मिलै, मन के जाहिं विकार ॥
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साभार : Ramjibhai Jotaniya ~

एक बाग है, अनुभव का,
उसमें खिले हैं भाव पुष्प ये पुष्प
बरसों का निदाघ झेल कर
बड़े हुए ये पुष्प समय के शेष नाम हैं,
अनुभव का अपना एक पूरा आकाश है
उस आकाश में उगा है एक चाँद,
चाँद की एक जिद है
अनवरत वह रोज-ब-रोज
मुझे समझाना चाहता है,
मैं उस चाँद के डूब जानेकी 
प्रतीक्षा करती हूँ,
अनुभव एक कौतुक है
अपने होने का और खुद को
खोने के बीच के सफर का,
जहाँ जाता है रास्ता सिफर का.... ॐ

= १९१ =


#daduji
॥ दादूराम सत्यराम ॥
भाई रे घर ही में घर पाया ।
सहज समाइ रह्यो ता मांही, सतगुरु खोज बताया ॥टेक॥
ता घर काज सबै फिर आया, आपै आप लखाया ।
खोल कपाट महल के दीन्हें, स्थिर सुस्थान दिखाया ॥१॥
भय औ भेद भरम सब भागा, साच सोई मन लाया ।
पिंड परे जहाँ जिव जावै, ता में सहज समाया ॥२॥
निश्चल सदा चलै नहिं कबहूँ , देख्या सब में सोई ।
ताही सौं मेरा मन लागा, और न दूजा कोई ॥३॥
आदि अनन्त सोई घर पाया, अब मन अनत न जाई ।
दादू एक रंगै रंग लागा, तामें रह्या समाई ॥४॥
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साभार : राधा शरण दास ~
किसी ने मिलने पर पूछा कि कहाँ से आ रहे हो? दास ने उत्तर दिया-"धर्मशाला से"। उन्होंने परिहास-व्यंग से बुद्धि का प्रयोग कर कहा-"अच्छा ! बहुत दूर से ! धर्मशाला तो हिमाचल प्रदेश में है !"
दास ने उत्तर दिया कि दास के लिये "धर्मशाला" का अर्थ यह भौतिक संसार है; यहाँ दास का "घर" नहीं है; न ही दास यहाँ का है, न ही होना चाहता है। यहाँ तो कुछ दिनों का ठहराव है किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति हेतु ! किन्तु यहाँ "घर" नहीं बनाना है; मुझे तो लौटना है, जहाँ से आया हूँ, वापस अपने "घर" ! अपने "प्रियजन" के समीप ! 
यही तो स्मरण रखना है कि हम कहाँ से आये हैं; और यहाँ कब तक और क्यूँ हैं। यहाँ "घर" मत बना लेना। यात्रा में कम से कम वस्तुओं का भार ताकि असुविधा न हो। कुछ दिन ठहरना है फ़िर छोड़कर चल देना है। यहाँ "घर" बना लिया तो लौट न सकोगे क्यूँकि दास ने अनुभव किया है कि जिसने भी घर बना लिया, वह बँधन में आ गया। कहीं जाने की कहो तो उत्तर मिलता है कि "घर" को खाली छोड़कर कैसे जावें ! किन्तु "घर" तो छूटेगा ही ! राजी-राजी, गैर-राजी ! आये थे हरि-भजन को, ओटन लगे कपास !
जय जय श्री राधे !
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॥ दादूराम ~ श्री दादूदयालवे नम: ~ सत्यराम ॥
"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =

अथ अध्याय ४ ~ 
६ आचार्य कृष्णदेव जी ~ 
छत्री पर शिला लेख ~
छत्री की चरण चौकी में अंकित लेख इस प्रकार है - “श्रीराम जी सत्य श्री दयाल जी सहाय । अथ शुभ संवतसरे संवत १८२१ वर्षे शाके १६८६ प्रवर्तमाने, मासोत्तम माने फाल्गुन मासे शुक्ल पक्षे प्रतिपत्तिथी १ बुधवारे प्रतिष्ठा । शुभं भवतु ।। राम ।। नीचे दो दोहे हैं - 
दोहा - संवत अठार दशोतरा, त्रयोदशी सुदि पोह । 
श्री कृष्णदास जन हरि मिले, पर हरि माया मोह ।। १ ।। 
करि देवल चा़ढे कलश, सीलवन्त निज संत । 
पधराये गुरु पादिका, श्री चैनराम महन्त ।। २ ।। 
उक्त शिला लेख में पहले दोहे का चतुर्थ पाद - “त्रयो दशी सुदि पोह ।” विवाद खडा करता है । कारण - अन्य ग्रथों में और परंपरा की मान्याताओं में माघ कृष्ण १३ ही मिलता है । इससे इसका कारण यही ज्ञात होता है कि दोहा रचने वाले महानुभाव ने मोह के साथ अन्त्यानुप्रास मिलाने के लिये ही लिख दिया हो, अन्य तो कोई विशेष कारण ज्ञात नहीं हो रहा है और कोई कारण हो तो विज्ञ लोग विचार कर निर्णय करलें और उचित हो वही मानें । मैंने तो यह भेद दिखा दिया है । कृष्णदेवजी का व्यक्तित्व - 
मनहर 
सौम्य सम शीतल स्वभाव क्षमावान अति, 
परम दयालु मीठे वचन सदा कहे । 
 राज कोप से भी शील तजा नहीं प्रकट है, 
धाम तजा क्षण ही में मोह में नहीं बहे ।। 
महात्याग देख भूप चकित व्यथित भया, 
रोग हरा भूप का न सुख भूप के चहे । 
‘नारायण’ ब्रह्म का भजन मन से न तजा, 
कृष्णदेव कृष्णता से सदा दूर ही रहे ।। १ ।। 

दोहा - कृष्णदेव के तुल्य तो, कृष्णदेव ही होय । 
परम शांत संतत रहे, चहा न विग्रह कोय ।। २ ।।
कृष्णदेव सम जगत में, आचारज कम होय । 
उनका चरित्र देखकर, ज्ञात होत है सोय ।। ३ ।। 
भाव भजन वैभव सभी, उनमें पाये जाँय । 
तदपि रहे सम सर्व में, राव रंक पद आँय ।। ४ ।। 
मूर्ति ज्ञान संतोष की, कृष्णदेव थे आप । 
छू नहिं पाया लेश भी, काम लोभ मय ताप ।। ५ ।। 
कृष्णदेव की आज भी, पूजा होती देख । 
क्यों न होय वे हो गये, निर्गुण ब्रह्म अलेख ।। ६ ।। 

इति श्री चतुर्थ अध्याय समाप्त:

(क्रमशः)

२५ . सांख्य ज्ञांन को अंग ~ १७



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|| श्री दादूदयालवे नमः ||
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
.
*= २५ . सांख्य ज्ञांन को अंग =*
.
*भूमि तौ विलीन गंध गंध हू बिलीन आप,* 
*आप हू बिलीन रस रस तेज खातु है ।* 
*तेज रूप रूप वायु वायु हू स्पर्श लीन,* 
*सौ सपर्श व्यौम शब्द तम हि बिलातु है ॥* 
*इन्द्री दस रज मन देवता बिलीन सत्व,* 
*तीनि गुन अहं महत्तत्त गलि जातु है ।* 
*महत्तत्त प्रकृति प्रकृति हू पुरुष लीन,* 
*सुन्दर पुरुष जाइ ब्रह्म मैं समातु है ॥१७॥* 
*तत्त्वों का लय* : भूमि गन्ध में विलीन हो जाती है, गन्ध जल में विलीन हो जाता है । जल रस में, रस तेज में; 
तेज रुप में, रूप वायु में; वातु स्पर्श में, स्पर्श आकाश में, आकाश शब्द में तथा शब्द तमोगुण में विलीन हो जाता है । 
दशों इन्द्रियाँ रजोगुण में विलीन हो जाती है, मन सत्त्वगुण में विलीन हो जाता है । तीनों गुण एवं अहंकार महत्तत्व में विलीन हो जाता है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - महत्तत्व प्रकृति में, प्रकृति पुरुष मर तथा अन्त में यह पुरुष ब्रह्म में लीन हो जाता है ॥१७॥ 
(क्रमशः)

शिष्य रामदास और राणी बाई

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ त्रयोदश बिंदु ~*
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बगरू के भक्तों ने संत मंडली सहित दादूजी की अच्छी सेवा की । दादूजी ने भी उनको सत्संग का अच्छा लाभ दिया । फिर वहां से विचरते हुये क्रांजल्याँ ग्राम पधारे । क्रांजल्याँ में डगायच गोत्र के खंडेलवाल वैश्य महाजन रहते थे ।
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शिष्य रामदास और राणी बाई - उन का नाम रामदास और उनकी धर्म पत्नी का नाम राणी बाई था । वे दोनों ही चाहते थे कि दादूजी महाराज हमारे ग्राम पधारें । अतः उनकी श्रद्धा भक्ति पहचान कर दादूजी महाराज शिष्य मंडली सहित क्रांजल्यां पधारे । तब रामदास और राणी बाई को महान् हर्ष हुआ, वे फूले न समाये ।
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दादूजी ने रामदास को उपदेश दिया -
"कैसे जीवियेरे, सांई संग न पास,
चंचल मन निश्चल नहीं, निशि दिन फिरे उदास ॥टेक॥
नेह नहीं रे राम का, प्रीति नहीं परकाश ।
साहिब का सुमिरण नहीं, करे मिलन की आश ॥१॥
जिस देखे तू फूलिया रे, पाणी पिंड बँधाणा मांस ।
सो भी जल-बल जाइगा, झूठा भोग विलास ॥२॥
तो जीबी जे जीवणा, सुमरे श्वासैं श्वास ।
दादू परकट पिव मिले, तो अंतर होय उजास ॥३॥"
यही पद रामदासजी ने राणी को सुनाया ।
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वे दोनों ही क्रांजल्यां ग्राम में दादूजी के अनन्य भक्त हो गये । फिर राणीबाई को भी इस निम्न पद से उपदेश किया -
"एसो खेल बन्यो मेरी माई, 
कैसे कहूँ कछु न जान्यो न जाई ॥टेक॥
सुर नर मुनि जन अचरज आई, 
राम चरण को भेद न पाई ॥१॥
मंदिर मांहीं सुरति समाई, 
कोऊ है सो देहु दिखाई ॥२॥
मन हि विचार करहु ल्यौ लाई, 
दिवा समान कहँ ज्योति छीपाई ॥३॥
देह निरंतर शून्य ल्यौ लाई, 
तहँ कौण रमे कौण सोता रे भाई॥४॥
दादू न जाणे ये चतुराई, 
सोई गुरु मेरा जिन सुधि पाई ॥५॥"
- उक्त पद का आशय समझकर राणीबाई अति प्रसन्न हुई । रामदास व राणी बाई दादू जी के १५२ शिष्यों में माने जाते हैं दोनों ही अच्छे संत हुये हैं । राणी का एक 'प्रेम पत्रिका' लघु ग्रंथ भी है ।
(क्रमशः)
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॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२३५. समर्थाई । झपताल
हरे ! हरे !! सकल भुवन भरे, जुग जुग सब करे ।
जुग जुग सब धरे, अकल सकल जरे, हरे हरे ॥ टेक ॥ 
सकल भुवन छाजै, सकल भुवन राजै, सकल कहै ।
धरती अम्बर गहै, चंद सूर सुधि लहै, पवन प्रकट बहै ॥ १ ॥ 
घट घट आप देवै, घट घट आप लेवै, मंडित माया ।
जहाँ तहाँ आप राया, जहाँ तहाँ आप छाया, अगम निगम पाया ॥ २ ॥ 
रस मांही रस राता, रस मांहीं रस माता, अमृत पीया ।
नूर मांही नूर लीया, तेज मांही तेज कीया, दादू दर्श दीया ॥ ३ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें, ईश्‍वर समर्थाई दिखा रहे हैं कि हे समर्थ परमेश्‍वर हरि ! आप ही सब भवनों में व्याप्त हो रहे हो और युग - युगान्तरों में सम्पूर्ण सृष्टि की रचना आप ही करते हो । युग - युग में आप ही सबको धारण किये हैं । हे अकल ! कला अवयव रहित, आप ही फिर सबकी जरणा करते हैं । हे हरे ! हे हरे ! हे सर्व लोकों के राजा ! आप ही सर्व लोकों में शोभा पा रहे हो । आपके सर्व संतभक्त ऐसा कहते हैं कि वह प्रभु, धरती और आकाश को धारण किये हैं और चन्द्रमा, सूर्य उन्हीं की आज्ञा से गमन - आगमन रूप क्रिया करते हैं और उन्हीं की समर्थाई से पवन चल रहा है । घट - घट में आपही दाता रूप बन कर दे रहे हैं और घट - घट में आप ही ले रहे हैं । हे समर्थ ! यह मायावी मंडान सब आपने ही रचा है । हे राजाओं के राजा ! लोक परलोक में आप ही विराजते हो । स्थावर जंगम सृष्टि में, आप ही व्याप रहे हो । आप वेदों से भी अगम हैं । इस प्रकार आपके भक्तों ने ही आपको प्राप्त किया है । आप ही रस रूप हैं । भक्ति - रस द्वारा हम आपमें रत्त होकर मस्त हो रहे हैं । आपका भक्ति - ज्ञानामृत रस पीकर शुद्ध हृदय में ही आपका शुद्ध स्वरूप प्राप्त किया है । आपके ब्रह्म तेज में, व्यष्टि जीवरूप तेज को, हमने अभेद किया है । ऐसे आपने अपने जीवनमुक्त भक्तों को अपना स्वरूप साक्षात्कार कराया है ।

शनिवार, 30 मई 2015

= १९० =

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॥ दादूराम सत्यराम ॥
आदि शब्द ओंकार है, बोलै सब घट माँहि ।
दादू माया विस्तरी, परम तत्त यहु नांहि ॥ 
दादू ओंकार तैं ऊपजै, अरस परस संजोग ।
अंकुर बीज द्वै पाप पुण्य, इहि विधि जोग रु भोग ॥ 
ओंकार तैं ऊपजै, विनशै बहुत विकार ।
भाव भक्ति लै थिर रहै, दादू आतम सार ॥
पहली किया आप तैं, उत्पत्ति ओंकार ।
ओंकार तैं ऊपजै, पंच तत्त्व आकार ॥ 
पंच तत्त्व तैं घट भया, बहु विधि सब विस्तार ।
दादू घट तैं ऊपजै, मैं तैं वर्ण विकार ॥ 
एक शब्द सब कुछ किया, ऐसा समर्थ सोइ ।
आगै पीछे तो करै, जे बलहीना होइ ॥ 
निरंजन निराकार है, ओंकार आकार ।
दादू सब रंग रूप सब, सब विधि सब विस्तार ॥ 
=================
साभार ~ Ramjibhai Jotaniya ~
ॐ में सारा ब्रह्माण्ड सम्मिलित है, हमारे जीवन, विचार व बुद्धि का यह प्रतीक है और आधार है, इस विश्व का आदि व अन्त ॐ में ही है, हमारी चेतन या सुषुप्तावस्था में जो कुछ हम देखते हैं या अनुभव करते हैं उससे भी परे जहाँ बुद्धि का प्रवेश भी नहीं है, वह भी ॐ ही है, यह समस्त ब्रह्माण्ड ॐ का ही प्रसार है.... 
ॐ ही शान्ति, आनन्द, ज्ञान, शक्ति तथा परमं अस्तित्व स्वरूप है, ॐ ही सत्य, शिवं तथा सुन्दरं का उद्घोष है, अत: मानव-जीवन का शाश्वत आध्यात्मिक कल्याणकारी लक्ष्य ॐ का ध्यान कर आत्मसाक्षात्कार द्वारा जीवन को ओममय बना कर ॐ में ही विलीन हो जाना है, इस संदर्भ में जो प्रयास हैं वे ही साधना, तपस्या तथा भक्ति के नाम से जाने जाते हैं ॐ में विलीन होना ही मोक्ष है, कल्याण है, मंगल है, आवागमन से मुक्ति है ! ॐ

= १८९ =

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॥ दादूराम सत्यराम ॥
दादू कोई काहू जीव की, करै आत्माघात |
साच कहूँ संशय नहीं, सो प्राणी दोज़ख जात ||४||
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! कोई भी मनुष्य किसी भी जीव की जो हिंसा करेगा अर्थात् मारेगा, वह मनुष्य अवश्य नरक की त्रास भोगेगा | हम सत्य कहते हैं, इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं है ||४||
If anyone takes the life of any other creature, That person goes to hell; I tell you the truth, there is no doubt about it, says Dadu.
शुक्रशोणितसंभूतं ये नरा भुंजते फलम् |
नरकात् नातिवर्तन्ते यात चन्द्रदिवाकरौ ||
असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः |
तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ||
(आत्मा की हत्या करने वाले मनुष्य मरणोपरान्त अंधकारपूर्ण भयंकर आसुरी लोकों में अत्यन्त कष्ट भोगते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है |) - महाभारत
मद पीवै मूरति हतै, रसन स्वाद कर खांय |
जगन्नाथ ते अवसि कर, दोजग ही को जाय ||
.
ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज के उपर्युक्त अहिंसा उपदेश को सुनकर, सांभर शहर में काजी मुल्लाओं ने अपने धर्म की महानता का वर्णन करते हुए कहा कि हमारे यहाँ तो कुर्बानी करते हैं और मांस खाते हैं | तब महाराज ने कहा ~
दादू नाहर सिंह सियाल सब, केते मुसलमान |
मांस खाइ मोमिन भये, बड़े मियां का ज्ञान ||५||
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जैसे पशुओं में नाहर, सिंह, गीदड़, वे सब मांस खाने वाले जानवर हैं | ऐसे ही हे काजियों ! हे मुल्लाओं ! कितने ही मुसलमान मांस खाते हैं, जीव - हिंसा करते हैं और फिर अपने को मोमिन कहलाते हैं, परन्तु यह ज्ञान तो बड़े मियां मोहम्मद साहब का नहीं है | वे तो प्राणी मात्र से प्यार करते थे || ५ ||
पश्‍चात भवन्ति जात्यन्धाः काणाः कुब्जाश्र्य पंगवः |
दरिद्रा अंगहीनश्र्य पुरुषाः प्राणि - हिंसका ||
(प्राणियों की हिंसा करने वाले अन्धे, काणे, कूबड़े, दरिद्र और विकलांग पैदा होते हैं |)
.
दादू मांस अहारी जे नरा, ते नर सिंह सियाल |
बक १, मंजार २, सुनहाँ ३, सही, एता प्रत्यक्ष काल ||६||
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यह हम सत्य कहते हैं कि जो प्राणी मांस आहार करने वाले हैं, वे इस मनुष्य शरीर में ही सिंह, श्याल, बगुला१, मार्जार२(बिलाव), कुत्ता३ रूप हैं और ऐसा समझो कि मानो काल ही जीवों का नाश करने के लिये यह शरीर धर कर प्रकट हो रहा है ||६||
जैसे आतम आपनी, कांटा तैं कसकात |
‘जगन’ जीव में जोइये, ना कर काहू घात ||
(श्री दादू वाणी~साँच का अंग)


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॥ दादूराम ~ श्री दादूदयालवे नम: ~ सत्यराम ॥
"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =

अथ अध्याय ४ ~ 
६ आचार्य कृष्णदेव जी ~ 
कुछ समय के पश्‍चात् दादू पंथ के संतों ने तथा भक्तों ने भी मिलकर आचार्य कृष्णदेवजी से प्रार्थना की कि आप अब नारायणा दादूधाम पर पधारें । अब राजा आप के अनुकूल है किन्तु आचार्य कृष्णदेवजी ने नारायणा जाना स्वीकार नहीं किया । उक्त प्रकार आप मेडता में ब्रह्म भजन करते हुये २१ वर्ष १ मास १७ दिन गद्दी पर विराज कर जनता को सदुपदेश किया फिर वि.सं. १८१० की माघ कृष्णा १३ को शरीर त्याग कर ब्रह्म लीन हो गये । मेडता में बेबचा सरोवर के पास ही आप की समाधि रुप विशाल छत्री बनी हुई है । वह छत्री जोधपुर नरेश ने बनवाई थी और जोधपुर नरेश ने ही आप का महोत्सव मेला किया था । आप की समाधि पर आसपास की जनता की बहुत श्रद्धा है । आसपास की जनता तथा दूर - दूर से भी भक्त लोग छत्री पर श्रद्धा से आते हैं, प्रसाद चढाते हैं, दंडवत करते हैं, परिक्रमा करते हैं और कामनानुसार फल भी प्राप्त करते हैं । आपके शिष्यों में चैनरामजी महाराज अच्छे भजनानन्दी तथा आपकी सेवा में तत्पर रहते थे । अत: कृष्णदेवजी महाराज ने अपने जीवनकाल में ही सब को कह दिया था कि - मेरे ब्रह्मलीन होने के पश्‍चात् चैनरामजी को ही गद्दी पर बैठाना, ये गद्दी के योग्य ही हैं अत: मेडता में चैनरामजी महाराज को ही गद्दी पर विराजमान कर दिया गया । 

(क्रमशः)

२५ . सांख्य ज्ञांन को अंग ~ १६



‪#‎daduji‬
|| श्री दादूदयालवे नमः ||
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*= २५ . सांख्य ज्ञांन को अंग =*
*भूमि परै अप, अप हू कै परै पावक है,*
*पावक कै परै पुनि वायु हू बहुत है ।*
*वायु परै व्यौम व्यौम हू के परै इन्द्रिय दस,*
*इन्द्रिनि कै परै अन्तःकरन रहतु है ॥*
*अन्तहकरन परै तीनौं गुन अहंकार,*
*अहंकार परै महत्तत्त कौं लहतु है ।*
*महत्तत्त परै मूल माया, माया परै ब्रह्म,*
*ताहि तैं परातपर सुन्दर कहतु है ॥१६॥*
*तत्त्वों की अपेक्षाकृत उत्तमता* : भूमि से सूक्ष्म जल, जल से सूक्ष्म अग्नि(तेज), अग्नि से सूक्ष्म वायु एवं वायु से सूक्ष्म आकाश है ।
आकाश से पर दश इन्द्रियाँ, इन इन्द्रियों से पर अन्तःकरण है । 
अन्तःकरण से पर तीनों गुण एवं अहंकार तथा अहंकार से परे महत्तत्व है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इस महत् तत्व से परे मूल माया(प्रकृति) है । प्रकृति से परे ब्रह्म है जो परात् पर अर्थात् सबसे ऊपर(उत्तम) है ॥१६॥ 
(क्रमशः)

*बिचूण पधारना*

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ त्रयोदश बिंदु ~*
*बिचूण पधारना -* 
भैराणा से अति आग्रह पूर्वक बिचूण का भक्त मोहन बागड़ा अपने ग्राम बिचूण में दादूजी महाराज को शिष्य मंडली के सहित ले गया । वहां ही पुन्याणा ग्राम का तोला बागड़ा भी आ गया था । मोहन ने अति श्रद्धा भक्ति से सब संतों की अच्छी सेवा की । 
.
दादूजी महाराज ने मोहन और तोला को उपदेश दिया -
"खालिक जागे जियरा सोवे, क्यों कर मेला होवे ॥टेक॥ 
सेज एक नहिं मेला, तातैं प्रेम न खेला ॥१॥ 
सांई संग न पावा, सोवत जन्म गमावा ॥२॥ 
गाफिल नींद न कीजे, आयु घटे तन छीजे ॥३॥ 
दादू जीव अयाना, झूठे भरम भुलाना ॥४॥" 
.
ईश्वर तो निरंतर जागते हुये सब की रक्षा करते हैं और जीव मोह नींद में सो रहे हैं । तब सोने वालों का मिलन जागने वाले से कैसे हो ? अतः अरे जीव ! जाग, इन विषयों में लेना देना कुछ नहीं है, ये तो सब नाशवान् हैं - 
.
"इन में क्या लीजे क्या दीजे, जन्म अमोलक छीजे ॥टेक॥ 
सोवत स्वप्ना होई, जागे तैं नहिं कोई । 
मृग-तृष्णा जल जैसा, चेत देख जग ऐसा ॥१॥ 
बाजी भरम दिखावा, बाजीगर डहकावा । 
दादू संगी तेरा, कोई नहीं किस केरा ॥२॥" 
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मोहन बागड़ा दादूजी की बताई हुई साधन पद्धति से साधन करके अच्छे भक्त हो गये थे और तोला बागड़ा ने तो दादूजी को  दिये हुये नाम का ऐसी विलक्षण रीति से चिन्तन किया कि प्रतिदिन भगवान् उनके साथ जीमते थे । भगवान् के साथ जीमने की तोला बागड़ा की कथा दादू चरित्रों में प्रसिद्ध है । फिर बिचूण से बगरू के भक्तों के आग्रह से विचरते हुये बगरू पधारे । 
(क्रमशः)
#‎daduji‬ 
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२३४. प्रश्‍न । रंग ताल ~
क्यों कर यह जग रच्यो, गुसांई ? 
तेरे कौन विनोद बन्यो मन मांहीं ? टेक ॥ 
कै तुम आपा प्रकट करना, कै यहु रचले जीव उधरना ॥ १ ॥ 
कै यहु तुम को सेवक जानैं, कै यहु रचले मन के मानैं ॥ २ ॥ 
कै यहु तुम को सेवक भावै, कै यहु रचले खेल दिखावै ॥ ३ ॥ 
कै यहु तुम को खेल पियारा, कै यहु भावै कीन्ह पसारा ॥ ४ ॥ 
यहु सब दादू अकथ कहानी, कहि समझावो सारंग - पाणी ॥ ५ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें परमेश्‍वर से प्रश्‍न कर रहे हैं कि हे गुसांई ! हमारे स्वामी ! आपने यह संसार किस लिये रचा है ? आपके मन में यह क्या विनोद आया ? क्या आप अपने को प्रगट करने के लिये रचा है ? या जीवों का उद्धार करने को रचा है ? क्या इसलिये रचा है कि आपके सेवक आपको पहचान लें ? क्या आपके इस रचना को रचने की मन में ही आ गई ? या आपको सेवा करने वाले सेवक भाते हैं ? या इस जगत् रुप रचना को अपना खेल दिखाने के लिये रचा है ? अथवा आपको यह जगत् रूपी खेल प्रिय लगता है ? या यह मायारूपी पसारा आपको भाता है, इसीलिए किया है ? हे नाथ ! यह आप समर्थ की अकथ कहानी है । हे सारंग - पाणि !(सारंग = काल चक्र जिनकी आज्ञा रूप, पाणी = हाथ में घूम रहा है ।) आप ही हमको कहकर के समझाइये ।
“एकोऽहं बहुस्यामः ।”
“उपज्यो प्रपंच अनादि कोऊ, महामाया विस्तरी, 
नानात्व होकर जगत भासै, बुद्धि सबहिन की हरी ।”
सुन्दर स्वामी

उत्तर की साखी `
दादू परमारथ को सब किया, आप स्वारथ नांहिं ।( १५ - ५०)
परमेश्‍वर परमारथी, कै साधू कलि मांहिं ॥ १ ॥ 
खालिक खेलै खेल कर, बूझै विरला कोइ ।(२१ - ३७)
लेकर सुखिया ना भया, देकर सुखिया होइ ॥ २ ॥

शुक्रवार, 29 मई 2015

= १८८ =

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॥ दादूराम सत्यराम ॥
दादू बिन रसना जहँ बोलिये, तहँ अंतरयामी आप ।
बिन श्रवणहुँ सांई सुनै, जे कुछ कीजे जाप ॥
ज्ञान लहर जहाँ थैं उठै, वाणी का परकास ।
अनुभव जहाँ थैं उपजे, शब्दैं किया निवास ॥
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Ramjibhai Jotaniya ~ अलौकिक शक्तियां ईश्वर का संकेत है अंतरात्मा की आवाज
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दैनिक जीवन में अक्सर देखते हैं कि दरवाजे की घंटी बजते ही मन में ख्याल आता है कि इस समय दरवाजे पर अमुक व्यक्ति ही होगा और दरवादा खोलने पर जिसका ख्याल आया था वही व्यक्ति होता है। इस प्रकार कभी-कभी अपने किसी मित्र से मिलने के लिए उसके घर पर जा रहे होते हैं कि अचानक दिमाग में विचार कौंधता है कि इस समय दोस्त के यहां जाना व्यर्थ होगा। वह नहीं मिलेगा।
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परंतु नहीं मानते और चल पड़ते हैं तथा वाकई में दोस्त नहीं मिलता हैं। ऐसा भी होता है कि किसी रिश्तेदार या अभिन्न मित्र का ख्याल बार-बार आता है और यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि ऐसा क्यों हो रहा है ? तभी उस दोस्त या रिश्तेदार के साथ कोई हादसा होने की खबर मिलती है। क्या यह सब संयोग है ? नहीं, यह संयोग नहीं है।
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आम भाषा में इसे अंतरात्मा की आवाज कहा जाता है। अनुभवियों का मानना है कि यह आवाज सभी के लिए कार्य करती है। सवाल सिर्फ इसको समझने और पहचानने का है तथा इसपर अटूट विश्वास करने पर ही और अभ्यास से इसे समझा तथा पहचाना जा सकता है। यह आंतरिक शक्ति अच्छाई और बुराई का भी ज्ञान कराती है।
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उदाहरण के लिए रास्ते में एक सौ का नोट पड़ा मिलता है, तो उसे तुरंत रख लेते हैं, परंतु आंतरिक शक्ति बताती है कि यह ठीक नहीं है। परंतु उस पर ध्यान नहीं देते हैं। बात वहीं विश्वास की है। यदि इसपर विश्वास करेंगे, तो अंतरात्मा की आवाज भी उतनी ही विकसित होगी और उसका अनुसरण कर बहुत लाभ ले सकते हैं।
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ध्यान रहे, अंतरात्मा की आवाज ईश्वरप्रदत्त संकेत है जिसमें आत्मा माध्यम है। इसको पूर्णतया जागृत करने के लिए विश्वास के अतिरिक्त, मस्तिष्क में जब भी किसी भी प्रकार का विचार आये, तो गंभीरता से यह जानने का प्रयत्न करें कि यह विचर अचानक जागृत करने में आसानी होगी। जैसे अमुक कार्य करने जा रहे हैं, तो ख्याल आता है कि इसे अभी न करें।
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चार दिन बाद कीजिए और देखेंगे की वह कार्य सफलतापूर्वक संपन्न हो जाता है। यदि ईश्वर में विश्वास रखते हैं यानी आस्तिक है, तो यह तय है कि अंतरात्मा की आवाज शीघ्र जागृत हो जाएगी। ज्यों-ज्यों विश्वास बढ़ेगा, त्यों -त्यों अंतरात्मा की आवाज जागृत होगी। आज विशेषज्ञ और मनोवैज्ञानिक इसे छठी इंद्रिय और सुपर चेतना के नाम से भी पुकारते हैं।
.............हर-हर महादेव

= १८७ =

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॥ दादूराम सत्यराम ॥
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दादू राम मिलन के कारणे, जे तूँ खरा उदास ।
साधु संगति शोध ले, राम उन्हीं के पास ॥
ब्रह्मा शंकर सेष मुनि, नारद ध्रुव शुकदेव ।
सकल साधु दादू सही, जे लागे हरि सेव ॥
साधु कंवल हरि वासना, संत भ्रमर संग आइ ।
दादू परिमल ले चले, मिले राम को जाइ ॥
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साभार ~ Ramjibhai Jotaniya ~
प्रेम का दीप शाश्वत जगमगाता है, हृदय के कोटर में बाहर कितना ही अन्धकार फैला हो निराशा का विषम परिस्थितियों में प्रेम निःशब्द छुपा रहता है, हृदय के "भाव-संसार" में किसी अनकही कविता की उद्विग्न पंक्तियों की भांति, सच्चा प्रेम समेटे रहता है, अपनी सम्पूर्ण मोहकता व सृजनात्मकता भीतर ही खिलने को बेताब किसी फूल की कोमल कली की तरह, प्रेम को जरुरत नहीं होती प्रस्फुटन की प्रतीक्षा के पूर्ण होने की, वह संतुष्ट रहता है, कमल के पुष्पों की भांति ह्रदय में खिलकर भी, सच्चा प्रेमी वही होता है, जो अपने सारे विषाद को भीतर ही भीतर पचाकर नीलकंठ की भाँति इस संसार में सबके लिए एक कतरा मुस्कान बाँटता है !
‪#‎daduji‬
॥ दादूराम ~ श्री दादूदयालवे नम: ~ सत्यराम ॥
"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =

अथ अध्याय ४ ~ 
६ आचार्य कृष्णदेव जी ~ 
मध्यदिन के पश्‍चात् का साधन क्रम ~ 
मध्यदिन में विश्राम करते समय भी संत लोग अपने मन की वृति को ब्रह्म - भजन में ही लगाते थे । संत लोग दिन में शयन तो करते ही नहीं थे । उक्त प्रकार ब्रह्म - भजन करते - करते दिन के दो बज जाते थे । फिर सत्संग का समय आ जाता था । सत्संग का क्रम प्रात: सत्संग के समान ही होता था किन्तु इस समय दादूवाणी की कथा न होकर किसी उपनिषेद्, गीता आदि ज्ञानमय ग्रंथ का प्रवचन एक घंटा होता था फिर अन्य विद्वान संतों के प्रवचन होते थे । अंत में गायक संतों के द्वारा ज्ञान भक्तिमय संतों के भजन सुनाये जाते थे । फिर चार बजे सत्संग सभा विसर्जन हो जाती थी । सब संत तथा भक्त अपने - २ आसनों पर जाकर अपने - २ अभीष्ट कार्य कर के शौचादि जाने वाले शौच स्नानादि से निवृत्त होकर अपने - २ आसनों पर आ जाते थे । आश्रम वासियों को किसी से व्यर्थ बातें करने का निषैध था । फिर सायंकाल के भोजन की सत्यराम हो जाती थी । सायंकाल सब संत भोजन नहीं करते थे, जिन को करना होता था वे भंडार में जाकर अपनी इच्छानुसार भोजन कर आते थे । जो भोजन नहीं करते थे उनको भंडार से आरती के पश्‍चात् आधा सेर दूध मिल जाता था । वे भंडार में जाकर पी आते थे । सायंकाल आरती के समय सब संत तथा भक्त वाणी मंदिर में पहुँच जाते थे । धूप दीपादि हो जाने के पश्‍चात् आरती में आचार्य कृष्णदेवजी महाराज पधारते थे । तब आगे मंदिर में बैठे हुये सब संत तथा भक्त खडे हो जाते थे । फिर आरती आरंभ हो जाती थी । आरती एक दादूजी की और एक अन्य संत की गाई जाती थी । आरती के पश्‍चात् सुन्दरदासजी के रचित अष्टक बोले जाते थे, तथा अन्य संतों के रचित स्तोत्रों का भी गायन होता था । फिर सब आचार्य जी को साष्टांग दंडवत करके तथा अन्य उच्चकोटि के वृद्ध संतों को सत्यराम प्रणाम करके एक घंटा तक ‘दादूराम’ मंत्र की ध्वनि करते थे । पश्‍चात् अपने - २ आसनों पर जाकर ब्रह्म - भजन करते थे । फिर भजन करते - २ ही शयन का समय हो जाने पर शयन करते थे । इस प्रकार सब संतों की ही प्रतिदिन की दिनरात्रि चर्या तथा साधना चलती थी । दिन रात भजनानन्द में निमग्न रहते थे । 
(क्रमशः)

२५ . सांख्य ज्ञांन को अंग ~ १५



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|| श्री दादूदयालवे नमः ||
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*= २५ . सांख्य ज्ञांन को अंग =*
*एक घट मांहिं तौ सुगंध जल भरि राख्यौ,* 
*एक घट मांहिं तौ दुर्गन्ध जल भर्यौ है ।* 
*एक घट मांहि पुनि गंगोदक राख्यौ आंन,* 
*एक घट मांहिं आंनि मदिराऊ कर्यौ है ॥* 
*एक घृत एक तेल एक मांहिं लघुनीति,* 
*सबही मैं सविता कौ प्रतिबिम्ब पर्यौ है ।* 
*तैसैं हौ सुन्दर ऊँच नीच मध्य एक ब्रह्म,* 
*देह भेद देखि भिन्न भिन्न नांम धर्यौ है ॥१५॥* 
जैसे कहीं अनेक घटे रखे हुए हों; उनमें किसी में सुगन्धमय जल हो, किसी में दुर्गन्धमय; 
एक घट में गंगाजल भरा हो, दूसरा में मद्य, 
एक में घी, एक में तैल तथा एक में मूत्र(लधुनीति) भरा हो । इन सब में सूर्य का प्रकाश समान रूप से ही पड़ता है; सूर्य का कहीं पक्षपात नहीं होता । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - ऊँच, नीच, मध्यम शरीरों में ब्रह्म एक ही है; परन्तु की भिन्नता के कारण, उनको विविध नामों से व्यवहार में बुलाया जाता है ॥१५॥ 
(क्रमशः)

*भैराणेगिरि पर भैरूं को उपदेश. २ -*

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
.
*~ द्वादश विन्दु ~*
.
*भैराणेगिरि पर भैरूं को उपदेश -*
ऐसे ही मनुष्य तन को व्यर्थ खो देते हैं -
"मोह्यो मृग देख वन अंधा,
सूझत नहीं काल के फँधा ॥टेक॥
फूल्यो फिरत सकल बन मांहीं,
शिर सांधे शर सूझत नाँहीं ॥१॥
उदमद मानो बन के ठाठ,
छाड चल्यो सब बारह बाट ॥२॥
फँध्यो न जाने बन के चाइ,
दादू स्वाद बँधानो आइ ॥३॥"
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उक्त उपदेश सुनकर भैरूं ने कहा - स्वामिन् ! आप तो प्रभु के प्यारे संत हैं, अतः आपके आगे मेरी शक्ति तो कुछ भी काम नहीं कर सकती है । इससे मैं आपसे प्रार्थना करता हूं, आप मेरे स्थान के पास विराजेंगे तो मैं कहां जाऊं ? मैं यहां चिरकाल से रहता हूँ । यहां मुझे मेरा भक्त दासा-नरुका लाया था । मेरे यहां आने पर ही इस स्थान का नाम भैराणा पड़ा था । तब से ही इस बस्ती को भैराणा कहने लगे थे । भैराणा ग्राम की सीमा में जितना पर्वत है वह भी भैराणा ही कहलाता है । इससे पर्वत भी उक्त कारण से ही भैराणा कहलाने लगा था ।
.
दादूजी ने कहा - अब इस पर्वत पर परमात्मा के भक्त संत निवास करते हुये प्रभु का भजन करेंगे । इसलिए अब तुम यहाँ मत रहो । भैरूं ने पूछा - तो आप ही बताइयें कहां जाऊं ? दादूजी ने कहा - अब तुम बिचूण ग्राम की सीमा में रहो । भैराणा ग्राम की सीमा छोड़ दो । यहां जो संत भजन करें, उनकी सेवा भी किया करो, तब ही तुम्हारा कल्याण होगा । । भैरूं ने दादूजी की आज्ञा मान ली और प्रणाम करके क्षमा याचना की और बिचूण की सीमा में चला गया । फिर वहां ही उसका मंदिर बन गया ।
इति श्री दादूचरितामृत द्वादस बिंदु समाप्तः ।
(क्रमशः)
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॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२३३. समर्थाई । रंग ताल ~ 
जीवत मारे मुये जिलाये, बोलत गूंगे गूंग बुलाये ॥ टेक ॥ 
जागत निशि भर सोई सुलाये, सोवत रैनि सोई जगाये ॥ १ ॥ 
सूझत नैनहुँ लोइन लीये, अंध विचारे ता मुख दीये ॥ २ ॥ 
चलते भारी ते बिठलाये, अपंग विचारे सोई चलाये ॥ ३ ॥ 
ऐसा अद्भुत हम कुछ पाया, दादू सतगुरु कहि समझाया ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव ईश्‍वर समर्थाई दिखा रहे हैं कि हे समर्थ परमेश्‍वर ! आपकी समर्थाई को हम बारम्बार नमस्कार करते हैं । विषय - वासना में जिनके मन इन्द्रियाँ सजीव रहते थे, उनके मन इन्द्रियों को मारकर आपके नाम - स्मरण में, आपकी समर्थाई ने तुलसीदास जैसों को जिला दिया अथवा जो सदा जीते थे, उनको आपने मार दिया और मरते थे, उनको जिला दिया । ज्यादा बोलते थे, उनको गूंगे बना दिया और गूंगे थे, उनको ज्यादा बोलने वाला बना दिया, ऐसे आप समर्थ हो । सारी रात जागते थे, उनको आप सुला देते हो और सोते हैं, उनको आप जगा देते हो । जिनको नेत्रों से दिखता था, उनकी आप दृष्टि को ले लेते हो और बिचारे अंधों को नेत्र देकर आप मुख दिखला देते हो, जैसे बिल्वमंगल आदि को । भारी चलते थे हनुमान जी जैसे, उनको आपने राम - चरणों में स्थिर कर दिया । और बिचारे अपंग थे, उनको पाँव देकर चला दिया । हे साहिब ! ऐसी आपकी अद्भुत समर्थाई आप में देखी है । यह आपकी समर्थाई का ज्ञान, सत्य उपदेश के देने वाले सतगुरु ने हमको कहकर समझाया है ।
मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम् । 
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम् ॥ २३३ ॥

गुरुवार, 28 मई 2015

= १८६ =

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॥ दादूराम सत्यराम ॥
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*मार्कंडेय की शिव भक्ति*
पुत्र प्राप्ति की कामना से मृकंडु ऋषि ने घोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें पुत्र होने का वरदान दिया। किंतु उसकी आयु मात्र सोलह वर्ष निर्धारित कर दी। शिव की कृपा से प्राप्त पुत्र का नाम मार्कंडेय रखा गया। |
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वह बड़ा ही मेधावी था और सोलह वर्ष के पहले ही वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। कम आयु की बात से माता बहुत चिंतित रहती थी। उदास माता से जब अल्पायु की बात मार्कंडेय को ज्ञात हुई तब वह शिव की भक्ति और स्तोत्र पाठ में संलग्न हो गया।
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आयु पूरी होने पर उसका प्राण हरण करने के लिए जब यमराज पहुंचे तब उसने यमराज को अपनी शिव पूजा की समाप्ति तक रुकने के लिए कहा। क्रोधित यमराज जब उसे मारने दौड़े तब उसने यमराज से अनुरोध किया कि कृपया मेरी पूजा बाधा न डालें, इसे पूरा हो जाने दें। मैं स्वत: आपके साथ जाने के लिए तैयार हो जाऊंगा।
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उसकी धृष्टता देख यमराज क्रोधित हो उस पर काल पाश फेंकने के लिए तत्पर हो गए। लेकिन बिना देर किए भोले शंकर अपने भक्त के बचाव में प्रकट हो गये। मृत्यु के स्वामी भोले शंकर को मार्कंडेय के बचाव में खड़े देख यमराज रुक गये। मार्कंडेय भोले शंकर के चरणों में समर्पित हो गये। मार्कंडेय को अमरत्व का वरदान देते हुए यमराज को भी उन्होंने चेतावनी दी कि जो मेरी भक्मेंति लगा हो उसे प्रताड़ित करने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है।
=============
रोम रोम लै लाइ धुनि, ऐसे सदा अखंड ।
दादू अविनाशी मिले, तो जम को दीजे दंड ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! जब यह मन भक्ति - परायण होकर ब्रह्म में लीन होता है और फिर रोम - रोम से ब्रह्म - ध्वनि होने लगे, उस अवस्था में यह जीव यम रूप काल से निर्भय हो जाता है ॥
अष्ट चक्र पवना फिरै, छह सहस्र इक्कीस ।
जोग अमर जम को गिलै, दादू बिसवा बीस ॥
छह सहस्र इक्कीस का, अजपा जाप विचार ।
यों दादू निज नांव ले, काल पुरुष को मार ॥
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दादू जरा काल जामण मरण, जहाँ जहाँ जीव जाइ ।
भक्ति परायण लीन मन, ताको काल न खाइ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! जर्जर अवस्था, काल, जन्मना - मरना, यह जीव कर्मानुसार जहाँ भी जाता है, ये सब इसके साथ ही रहते हैं । परन्तु जब निष्काम परमेश्वर की भक्ति में मन लीन होता है, उसको फिर काल नहीं खाता । वह फिर काल से मुक्त हो जाता है ॥

= १८५ =

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॥ दादूराम सत्यराम ॥
साध कहैं उपदेश विरहणी !
तन भूले तब पाइये, 
निकट भया परदेश, विरहणी ॥टेक॥
तुम ही माहैं ते बसैं, 
तहाँ रहे कर वास ।
तहँ ढ़ूँढ़े पीव पाइये, 
जीवन जीव के पास, विरहणी ॥१॥
परम देश तहँ जाइये, 
आतम लीन उपाइ ।
एक अंग ऐसे रहै, 
ज्यों जल जलहि समाइ, विरहणी ॥२॥
सदा संगाती आपणा, 
कबहूँ दूर न जाइ ।
प्राण सनेही पाइये, 
तन मन लेहु लगाइ, विरहणी ॥३॥
जागै जगपति देखिये, 
प्रकट मिल है आइ ।
दादू सन्मुख ह्वै रहै, 
आनन्द अंग न माइ, विरहणी ॥४॥
=================
साभार ~ Ramjibhai Jotaniya
Prakriti Rai ~
प्रातः का यह आस-पंछी सांझ होते खो न जाये,
किलकता जीवन कहीं फिर रैन- शैया सो न जाये,
घेर लेती जब निराशा हृदय व्याकुल ठाँव माँगे है,
मन का एक कोना शांत मधुवन- छाँव मांगे है"
सरल मन की देहरी पर आए पाहुन, लिए सजल सपने,
प्रीति सुंदर रूप धरती, सभी दुश्मन - दोस्त अपने,
भ्रमित है मन, झूठे जग में सहज पथ के गाँव माँगे है'
नयनो ने कई मौसम- रंग देखे घटा सावन,धूप-छाया,
कड़ी दुपहर, कृष्ण-रातें, दुख-घनेरे, भोग, माया'
क्लांत है जीवन-पथिक यह, राह तरुवर-छाँव मांगे है" ! ॐ
‪#‎daduji‬
॥ दादूराम ~ श्री दादूदयालवे नम: ~ सत्यराम ॥
"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =

अथ अध्याय ४ ~ 
६ आचार्य कृष्णदेव जी ~ 
प्रात: सब संत ब्रह्म - मुहुर्त में उठ जाते थे और शौच स्नानादि शारीरिक क्रियाओं से निवृत होकर ब्रह्म - भजन करते थे । फिर प्रकाश होने पर श्रीदादूवाणी का पाठ करते थे । इतने में सत्संग का समय हो जाता था अत: सब संत सत्संग सभा में आकर आचार्य जी को साष्टांग दंडवत सत्यराम करके यथा प्राप्त स्थानों में बैठ जाते थे । फिर वक्ता प्रवचन आरंभ करते थे । 
प्रवचन करने वाले विद्वान संत का प्रवचन सुनकर सर्व प्रथम आये हुये विज्ञ श्रोता तो समझते थे कि उपनिषदों का प्रवचन चल रहा है । कारण उपनिषदों और दादूवाणी की विचार धारा में अन्तर नहीं है । दादूवाणी के बहुत से वचन तो श्रुति स्वरुप ही हैं । श्रुति वचनों से उन दादूवाणी के वचनों का केवल भाषा का ही अन्तर है, अर्थ का अन्तर लेश मात्र भी नहीं है । अत: परमानन्द प्रदायिनी दादूवाणी की कथा से विज्ञ श्रोताओं को उपनिषदों के श्रवण के समान आनन्द का लाभ होता था । 
कथा के पश्‍चात् आगत नगर के श्रोता नगर को चले जाते थे और बाहर से अतिथि रुप में आये हुये श्रोता संत सेवा के कार्य में लग जाते थे । संत लोग सुनी हुई कथा के मनन में लग जाते थे फिर कथा मनन के द्वारा ही कुछ समय ब्रह्मविचार में लग जाते थे । इतने में ११ बजे भोजन की सत्यराम हो जाती थी । अत: सब संत तथा भक्त भोजनार्थ पंक्ति में यथा योग्य स्थानों पर बैठ जाते थे फिर आचार्य पंक्ति में आते तब सब संत तथा सब भक्त उठकर खडे हो जाते थे । आचार्य जी के बैठ जाने पर सब बैठ जाते थे । फिर क्रम से भोजन परोसा जाता था । प्रथम आचार्य जी की चौकी पर से परोसना आरंभ करते थे । पंक्ति में सब वस्तु आ जाने पर यदि बाहर के भक्त की रसोई होती तब तो वह आचार्य जी को भेंट देकर जीमने की प्रार्थना करता और भंडार की ओर से होती तब बिना भेंट ही आचार्य जी जीमने की आज्ञा देते थे । फिर सब संत तथा भक्त जो पंक्ति में बैठे होते सो सब जीमने लग जाते थे । जितना जीम सकते थे उतना ही लेते थे । संत लोग जूंठा नहीं छोडते थे ।भोजन हो जाने पर निरंजन निराकार वृद्ध(ब्रह्म) की जय, दादूजी महाराज की जय, इस प्रकार गरीबदासजी, मसकीनदासजी, फकीरदासजी और जैतरामजी की जय बोल कर पंक्ति उठ जाती थी । फिर संत तथा भक्त अपने - २ आसनों पर जाकर विश्राम करते थे । 
(क्रमशः)

२५ . सांख्य ज्ञांन को अंग ~ १४



‪#‎daduji‬
|| श्री दादूदयालवे नमः ||
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
.
*= २५ . सांख्य ज्ञांन को अंग =*
*= प्रश्नोत्तर =* 
*देह यह किनकौ है ? देह पंच भूतन कौ,* 
*पंच भूत कौंन तैं हैं ? तामसाहंकार तैं ।* 
*अहंकार कौंन तैं हैं ? जाकौं महत्तत्त कहैं,* 
*महत्तत्त कौन तैं हैं ? प्रकृति मंझार तै ॥* 
*प्रकृति हू कौंन तैं है ? पुरुष है जाकौ नांम,* 
*पुरुष सु कौन तैं है ? ब्रह्म निराधार तैं ।* 
*ब्रह्म अब जांन्यौ हम, जान्यौ है तौ निश्चै कर,* 
*निश्चै हम कियौ है तो चुप मुख द्वार तैं ॥१४॥* 
*प्रश्नोत्तर* : यह देह किन से उत्पन्न है ? यह देह पाँच महाभूतों से उत्पन्न है ।
ये पञ्च महाभूत किन से उत्पन्न होते हैं ? तामस अहंकार से । 
यह अहंकार किससे उत्पन्न होता है ? जिसे महत् तत्त्व कहते हैं, उसी से उत्पन्न होता है । 
यह महत् तत्त्व किससे होता है ? प्रकृति से । 
यह प्रकृति किससे उत्पन्न होती है ? पुरुष से । 
यह पुरुष किस से उत्पन्न होता है ? निराश्रय ब्रह्म से । 
शि० - हे गुरुदेव ! आप का उपदेश सुनकर अब मैं ब्रह्म को जान पाया हूँ । 
गु० - यदि जान लिया है तो निश्चय कर मन में धारण कर । 
शि० - मैंने निश्चय कर के मन में धारण कर किया है । 
गु० - यदि धारण कर लिया है तो मौन धारण कर । मुख से इस विषय में कुछ भी न बोल ॥१४॥ (विस्तार के लिये इसी अंग का सप्त छन्द भी पुनः पढ़े ।) 
(क्रमशः)

*भैराणेगिरि पर भैरूं को उपदेश. १ -*

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ द्वादश विन्दु ~*
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*भैराणेगिरि पर भैरूं को उपदेश -* 
"जब यहु मैं मैं मेरी जाइ । 
तब देखत वेगि मिलैं राम राइ ॥टेक॥ 
मैं मैं मेरी तब लग दूर, 
मैं मैं मेटि मिले भरपूर ॥ 
मैं मैं मेरी तब लग नांहिं, 
मैं मैं मेटि मिलें मन मांहिं ॥२॥
मैं मैं मेरी न पावे कोई, 
मैं मैं मेटि मिले जन सोई ॥३॥ 
दादू मैं मैं मेरी मेटि, 
तब तू जान राम सौं भेटि ॥४॥"
हे प्रिय भैरूं देवता ! मैं और मेरापन भगवत् प्राप्ति में बाधक हैं । अतः इनको तो हटाना ही चाहिये । 
.
परम प्रेम के स्वरूप प्रभु को प्राप्त करने के लिये अपना कुछ भी नहीं समझना चाहिये - 
"नाँहीं रे हम नाँ हींरे, 
सत्यराम सब माँहींरे ॥टेक॥
नाँहीं धरणि आकाशा रे, 
नाँहीं पवन प्रकाशा रे । 
नाँहीं रवि शशि तारा रे, 
नहिं पावक प्रजारा रे ॥१॥ 
नाँहीं पंच पसारा रे, 
नाँहीं सब संसारा रे ।
नहिं काया जीव हमारा रे, 
नहिं बाजी कौतुक हारा रे ॥२॥ 
नाँहीं तरुवर छाया रे, 
नहिं पंखी नहिं माया रे । 
नाँहीं गिरिवर वासारे, 
नाँहिं समुद्र निवासा रे ॥३॥ 
नाँहीं जल थल खंडारे, 
नाँहीं सब ब्रह्मांडा रे । 
नाँहीं आदि अनंता  रे, 
दादूराम रहन्ता रे ॥४॥ 
उक्त पदों को सुनकर भैरूं प्रसन्न हुआ और अन्य भी कुछ सुनना चाहा । 
.
तब दादूजी ने स्वार्थी प्राणियों की स्थिति का परिचय देते हुये कहा - 
"कागारे करंक पर बोले, 
खाइ मांस अरु लग ही डोले ॥टेक॥
जा तन को रच अधिक सँवारा, 
सो तन ले माटी में डारा ॥१॥ 
जा तन देख अधिक नर फूले, 
सो तन छाड़ चलारे भूले ॥२॥
जा तन देख मन में गर्वाना, 
मिल गया माटी तज अभिमाना ॥३॥ 
दादू तन की कहा बड़ाई, 
निमष माँहि माटी मिल जाई ॥४॥
भैरूं ! ये स्वार्थी प्राणी ही तुम्हारे पास आकर तुम्हारे को निमित्त बनाकर हिंसा करते हैं और तुम्हारे को पिलाने का निमित्त बनाकर मदिरा पान करके अपनी बुद्धि नष्ट करते हैं । मदमस्त होकर भ्रमण करते हुये अपने को नाना फँदों में फँसा कर संसार में नाना कष्ट भोगते हैं ।  
(क्रमशः)
#‎daduji‬ 
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२३२. ललित ताल ~ 
बाबा, नांहीं दूजा कोई ।
एक अनेक नाम तुम्हारे, मोपै और न होई ॥ टेक ॥ 
अलख इलाही एक तूँ, तूँ ही राम रहीम ।
तूँ ही मालिक मोहना, केशव नाम करीम ॥ १ ॥ 
सांई सिरजनहार तूँ, तूँ पावन तूँ पाक ।
तूँ कायम करतार तूँ, तूँ हरि हाजिर आप ॥ २ ॥ 
रमता राजिक एक तूँ, तूँ सारंग सुबहान ।
कादिर करता एक तूँ, तूँ साहिब सुलतान ॥ ३ ॥ 
अविगत अल्लह एक तूँ, गनी गुसांई एक ।
अजब अनुपम आप है, दादू नाम अनेक ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें समता ज्ञान का स्वरूप बता रहे हैं कि हे परमेश्‍वर बाबा ! आपके सिवाय दूजा माया और माया का कार्य सब मिथ्या है । आप ही एक सत्य हो और आप ही के अनेकों नाम हैं । हमारे से तो अब आपके सिवाय और किसी की सिद्धि होती ही नहीं । आप ही अलख और इलाही स्वरूप हैं । आप ही राम और रहीम स्वरूप हैं । आप ही मालिक और मोहन रूप हैं । आप ही करीम और केशव रूप हैं । आप ही साँई और सिरजनहार स्वरूप हैं । यह सब आपके ही नाम हैं । आप ही पवित्रों में पवित्र और पाक रूप हैं । हे करतार ! आप ही सदा स्थिर रहने वाले कायम रूप हैं । हे हरि ! जो आपके भक्त आपके नाम - स्मरण में सदा हाजिर रहते हैं, उनको आप अपने समता स्वरूप का ज्ञान प्रदान करते हो । आप ही रमता - राम, सबको रिजक देने वाले राजिक स्वरूप हैं और आप ही सुबहान सारंग रूप हैं । आपकी आज्ञा में काल - चक्र घूमता है । आप ही सृष्टि के कर्ता, कादिर रूप हैं और हे साहिब ! आप ही सुलतान रूप हैं । आप ही अल्लह अविगत स्वरूप हैं । आप ही गनी गुसांई रूप हैं । आप ही अजब अनूप स्वरूप हैं । हे नाथ ! ये सब आप के, साधकों का कल्याण करने वाले के, अनेकों नाम हैं ।
“बहूनि सन्ति नामानि रूपाणि च सुतस्य ते । 
गुण - कर्माणि रूपाणि तान्यं वेद नो जनाः ॥(भागवत)
नाम निनामे के धरे, संतों शोध स्वभाय । 
‘रज्जब’ माने रामजी, सुमर्यां करी सहाय ॥ २३२ ॥

बुधवार, 27 मई 2015

= १८४ =

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॥ दादूराम सत्यराम ॥
एक कहूँ तो दोइ हैं, दोइ कहूँ तो एक ।
यों दादू हैरान है, ज्यों है त्यों ही देख ॥
देख दीवाने ह्वै गए, दादू खरे सयान ।
वार पार कोई ना लहै, दादू है हैरान ॥
दादू करणहार जे कुछ किया, सोई हौं कर जाण ।
जे तूं चतुर सयाना जानराइ, तो याही परमाण ॥
दादू जिन मोहनि बाजी रची, सो तुम्ह पूछो जाइ ।
अनेक एक तैं क्यों किये, साहिब कहि समझाइ ॥
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साभार ~ Ramjibhai Jotaniya ~

आप सभी मेरे प्रिय आत्मीय मित्रों से मेरा हार्दिक निवेदन है की मेरे प्रश्न का उत्तर दे कर हमें संतुष्ट करें, दो शब्द में आपका सटीक उत्तर चाहिए ! परन्तु मित्रों आप सभी अपनी अभिव्यक्ति दें अवश्य ~:
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तुम हो अम्बर, मैं दिगंबर, भेद कैसा नाथ ?
मोक्ष हो तुम मुक्ति हूँ मैं ऐसा अपना साथ !
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है कौन सा वो तत्व जो सारे भुवन में व्याप्त है ?
ब्रह्माण्ड पूरा भी नहीं जिसके लिये पर्याप्त है ?
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है कौन सी वह शक्ति, मित्रों है कौन सा वह भेद ?
बस ध्यान ही जिसका मिटाता आपका सब खेद ?
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बिछुड़े हुओं का हृदय कैसे एक रहता है, अहो !
ये कौन से आधार के बल कष्ट सहते हैं, कहो ?
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क्या हेतु, जो मकरंद पर हैं भ्रमर मोहित हो रहे ?
क्यों भूल अपने को सभी सुधि-बुधि अपनी खो रहे ?
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आकाश में, जल में, हवा में, विपिन में क्या बाग में,
घर में, हृदय में, गाँव में, तरु में तथैव तड़ाग में,
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है कौन सी यह शक्ति जो है एक सी रहती सदा,
जो है जुदा करके मिलाती, मिलाकर करती है जुदा ?
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यह देखिए, अरविन्द से शिशुवृंद कैसे सो रहे,
है नेत्र माता के इन्हें लख तृप्त कैसे हो रहे,
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क्यों खेलना, सोना, रुदन करना विहँसना आदि सब,
देता अपरिमित हर्ष उसको देखती वह इन्हें जब ?
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यह वायु चलती वेग से, ये देखिए तरुवर झुके,
हैं आज अपनी पत्तियों में हर्ष से जाते लुके,
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क्यों शोर करती है नदी, हो भीत पारावर से,
वह जा रही उस ओर क्यों ? एकान्त सारी धार से ?
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चैतन्य को जड़ कर दिया, जड़ को किया चैतन्य है,
बस प्रेम की अद्भुत, अलौकिक उस प्रभा को धन्य है,
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क्यों, कौन सा है वह नियम, जिससे कि चालित है मही ?
वह तो वही है, जो सदा ही दीखता है सब कहीं। ॐ

= १८३ =

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॥ दादूराम सत्यराम ॥
आज्ञा अपरंपार की, बसि अंबर भरतार ।
हरे पटंबर पहरि करि, धरती करै सिंगार ॥ 
वसुधा सब फूलै फलै, पृथ्वी अनंत अपार ।
गगन गर्ज जल थल भरै, दादू जै जै कार ॥ 
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साभार ~ Ramjibhai Jotaniya 
~ Prakriti Rai
हरित पल्लवित नववृक्षों के दृश्य मनोहर,
होते मुझको विश्व बीच हैं जैसे सुखकर, 
सुखकर वैसे अन्य दृश्य होते न कभी हैं, 
उनके आगे तुच्छ लगते मुझे सभी हैं, 
छोटे- छोटे झरने जो बहते सुखदाई, 
जिनकी अद्भुत शोभा सुखमय होती भाई, 
पथरीले पर्वत विशाल वृक्षों से सज्जित, 
बड़े-बड़े बागों को जो करते हैं लज्जित, 
लता विटप की ओट जहाँ गाते हैं द्विजगण 
शुक, मैना हारील जहाँ करते हैं विचरण, 
ऐसे सुंदर दृश्य देख सुख होता जैसा 
और वस्तुओं से मुझे न कभी होता सुख वैसा, 
छोटे-छोटे ताल पद्म से पूरित सुंदर, 
बड़े- बड़े मैदान दूब छाई श्यामलतर ! 
भाँति-भाँति की लता वल्लरी हैं जो सारी 
ये सब मुझको सदा हृदय से लगती न्यारी, 
इन्हें देखकर मन मेरा प्रसन्न होता है,
सांसारिक दुःख ताप तभी छिन में खोता है,
पर्वत के नीचे अथवा सरिता के तट पर
होती हूँ मैं सुखी बहुत स्वच्छंद विचरकर,
नदी तथा समुद्र, बन बाग घनेरे, 
जग में नाना दृश्य प्रकृति ने चहुँ दिशि घेरे, 
तरुओं पर बैठे ये द्विजगण चहक रहे हैं, 
खिले फूल सानंद हास मुख महक रहे हैं, 
वन में त्रिविध बयार सुगंधित फैल रही है,
कुसुम व्याज से अहा चित्रमय हुई मही है, 
इन दृश्यों को देख हृदय मेरा भर जाता 
बारबार अवलोकन कर लगे इनसे है चिरनाता, 
देखूँ नित नव विविध प्राकृतिक दृश्य गुणाकर, 
यही विनय मैं करती तुझसे हे करुणाकर ! ॐ
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॥ दादूराम ~ श्री दादूदयालवे नम: ~ सत्यराम ॥
"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =

अथ अध्याय ४ ~ 
६ आचार्य कृष्णदेव जी ~ 
मंत्री भी पुन: प्रणाम करके जयपुर के लिये चल पडे । जयपुर पहुँच कर राजा सवाई जयसिंह के पास गये । राजा को प्रणाम करके बैठ गये, फिर अवकाश देख करके कहा - मैं मेडता जाकर नारायणा दादूधाम के आचार्य कृष्णदेवजी से मिला और आपका पत्र भी दिया तथा आपकी ओर से प्रार्थना भी की । उन्होंने आप का पत्र पढकर कहा - ठीक है राजा अपनी भूल तो स्वीकार करते हैं, किन्तु अब हमारा विचार तो यहां ही रहने का है । यहां निर्विध्न भजन - साधन चला रहा है । वहां जाने पर और कोई द्वन्द्व खडा हो जायगा । फिर मैंने कहा - अब कोई द्वन्द्व खडा नहीं होने दिया जायगा । अब तो स्वयं राजा भी आपके भजन में विध्न नहीं हो ऐसी ही आपके लिये व्यवस्था करेंगे । किन्तु फिर भी नारायणा दादूधाम पर आना उन्होंने स्वीकार नहीं किया । आपका रोग नष्ट करने के लिये अपनी झारी का जल दिया है और कहा है - इसके पान करने पर राजा का रोग मिट जायगा । राजा ने कहा - ठीक है, मैं अवश्य पान करुंगा । फिर कृष्णदेवजी की झारी का जल पीने पर राजा का रोग मिट गया था । फिर तो कृष्णदेवजी पर राजा की श्रद्धा और बढ गई थी । 
मेडता धाम का साधना क्रम ~
आचार्य कृष्णदेवजी महाराज परम विरक्त भजनानन्दी संत थे । उनके पास मारवाड के सत्संगियों का आना जाना बहुत ही रहता था और अन्य प्रदेशों के संत तथा सत्संगी भी आते ही रहते थे । जोधपुर नरेश भी कभी - २ आते थे । स्थान पर सत्संग प्रतिदिन होता था । दादू पंथ के आचार्य जहां हों वहां दादूवाणी की कथा प्रतिदिन होती है । यह तो नियम ही है । अत: प्रात: प्रतिदिन ‘दादूवाणी’ की कथा आचार्य जी के विद्वान शिष्य संत करते थे । फिर गायक संत संतों के भजन सुनाते थे । वे भजन भी श्रोताओं के आनन्द को बढाते थे । कथा कीर्तन के पश्‍चात् आगत साधकों की जिज्ञासा पूर्ति के लिये आचार्य कृष्णदेवजी महाराज भी अपनी अमृतमयी वाणी कुछ समय सुनाकर साधकों को तृप्त करते थे । जो नारायणा दादूधाम में साधना का क्रम था, वही मेडता धाम में होता था । 

(क्रमशः)

२५ . सांख्य ज्ञांन को अंग ~ १३



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|| श्री दादूदयालवे नमः ||
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*= २५ . सांख्य ज्ञांन को अंग =*
*देह कौ न देह कछु देह कौ ममत्त छाड़ि,* 
*देह तौ दमामौ दीये देह देह जात है ।* 
*घट तौ घटत घरी घरी घट नाश होत,* 
*घट के गये तैं घट की न फेरि बात है ॥* 
*पिंड पिंड मांहिं पिंड पिंड कौ उपावत है,* 
*पिंड पिंड खात पुनि पिंड ही को पात है ।* 
*सुन्दर न होइ जासौं सुन्दर कहत जग,* 
*सुन्दर चेतनरूप सुन्दर बिख्यात है ॥१३॥* 
इस देह का अपने कहने योग्य कुछ नहीं है, अतः तूँ इस देह का ममत्व त्याग दे । यह देह तो एक नगाड़ा की ध्वनि है जो नगाड़े के साथ ही चली जाती है । 
जिस घट का कभी निर्माण होता है तो कभी उसका नाश भी हो जाता है । घट के फूट जाने पर उसकी कोई चर्चा भी नहीं करता । 
इसी तरह इस देह से ही अपर देह उत्पन्न होता रहता है, इसी देह से दूसरा(सूक्ष्म) देह खाता है, पीता है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - जिसमें जगत् की जन्ममरण परम्परा नहीं चलती वह चेतन तो पृथक् रूप से सुप्रसिद्ध है ॥१३॥ (यह छन्द चित्रकाय में परिगणित है ।) 
(क्रमशः)

*नोरंगपुरे पधारना*

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ द्वादश विन्दु ~*
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*नोरंगपुरे पधारना -*
फिर टीकम ने कहा - "प्रभो ! राम - राम तो ठग, ठाकुर चोर आदि सब ही कहते हैं, किंतु जैसे राम जी प्रसन्न हों वैसी ही विधि मुझे नाम चिन्तन की बताइये ? तब दादूजी ने यह पद कहा -
"इन बातन मेरा मन माने,
द्वितिया दोइ नहीं उर अंतर, एक एक कर पीव को जाने ॥टेक॥
पूर्ण ब्रह्म देखे सबहिन में, भ्रम न जीव काहो तैं आने ।
होय दयालु दीनता सब सौं; अरि पांचन को करे किसाने ॥१॥
आपा पर सम सब तत चीन्हैं, हरी भजे केवल यश गाने ।
दादू सोइ सहज घर आने, संकट सबै जीव के भाने ॥२॥
इस प्रकार टीकम को उपदेश दिया तथा नाम देकर नाम साधना का क्रम बताया - 
*"पहले श्रवण द्वितीय रसना, तृतीय हृदय गाय ।*
*चतुर्थी चिन्तन भया, तब रोम रोम ल्यों लाय ॥"*
फिर वह अपने शिल्प कर्म को त्यागकर दादूजी का शिष्य होकर भगवद् भजन में अनुरक्त हो गया ।
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धाणक्या से भैराणा का उद्धव भक्त भैराणे ले गया और पर्वत पर आसन कराया । वहां कपिल नामक भैरूं रहता था । वह रात्रि को आया और दादूजी को बोला - स्वामिन् ! यह तो मेरा स्थान है, आप यहां कैसे रह सकेंगे ? मेरे भक्त तो तामस प्रकृति के होते हैं । वे यहां बकरा चढायेंगे, मदिरा पान करेंगे । दादूजी ने कहा - राम भक्तों में मेरा तेरा नहीं होता है । फिर भैरूं को दादूजी ने उपदेश दिया ।
(क्रमशः)