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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.११५)*
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*११५. चेतावनी । पंचम ताल*
*भाई रे यूं विनशै संसारा,*
*काम क्रोध अहंकारा ॥टेक॥*
*लोभ मोह मैं मेरा, मद मत्सर बहुतेरा ॥१॥*
*आपा पर अभिमाना, केता गर्व गुमाना ॥२॥*
*तीन तिमिर नहिं जाहीं, पंचों के गुण माहीं ॥३॥*
*आतमराम न जाना, दादू जगत दीवाना ॥४॥*
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उक्तंहि आनन्दरामायणे-
मनोदुर्वृत्तिघातश्च मनोवेगस्य खण्डनम् ।
मायायोगस्ततस्तस्य पूर्वसंस्कारनिग्रहः ।
तत: कुबुद्धेहेंतोर्हि भवारण्येऽटनं चिरम् ।
दम्भस्य निग्रहस्तत्राशाकृन्तनं स्मृतम् ॥
मोहस्य निग्रहस्तत्र शुद्धमायाश्रयस्ततः ।
रजोरूपा तु या माया जठराग्नौ तथा स्मृता ।
तामस्याश्चैव मायाया वियोग्य सदा स्मृतः ॥
सुखालाभोमहाक्लेश: शोकभङ्गस्तत: परम् ।
विवेकस्याश्रयस्तत्र भवत्युद्रेकसमागमः ।
अविवेकवचाऽपि ह्यत्साहेन समागमः ॥
अज्ञानतरणोपाय स्विगुणाश्रयसद्मनि ॥
लिङ्गाख्यनिग्रहस्तत्र मदस्य संप्रकीर्तितः ।
निग्रहो मत्सरस्यापि ततोऽहंकारनिग्रहः ॥
वियोगो लिङ्गदेहस्य मायानामैक्यता तत: ।
हृदयाकाशगमनमानन्दैकसुखं तत: ॥
मायात्यागस्ततश्चैव सात्विक्या ग्रहणं स्मृतम् ।
सात्विक्या मायया सार्थ हृदयाकाशमुत्तमम्॥
महाकाशे प्रणयनं सच्चिदानन्दसंज्ञके ।
प्रवेशनं सागरे हि मुक्तिभैंयाऽऽत्मनः शुभा ॥
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संसारी पुरुष इन करणों से स्वयं ही नष्ट हो जाता है । वे कारण हैं – काम, क्रोध, मोह, अहंकार, पदार्थों में तेरा, मेरा भाव अर्थात् ये तेरे हैं, ये मेरे हैं, ऐसी भेद बुद्धि, ईर्ष्या तेरे मेरेपन का अभिमान, गुण और (विद्याओं) का अभिमान, शरीराभिमान, पाचों इन्द्रियों के पाचों विषय में अनुराग, ये सब दोष मनुष्यों के विनाश के कारण हैं ।
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अतः बुद्धिमान मनुष्यों को इनका त्याग कर देना चाहिये । इन दोनों के रहते हुए तूलामूलालेशा अविद्या का नाश नहीं हो सकता किन्तु प्रतिदिन इनका अभिमान बढता ही जाता है । इन्हीं करणों से संसारी-पुरुष राम को न जानकर सांसारिक सुखों में रमण करते रहते हैं और बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं । अतः साधक को चाहिये कि इन दोषों को जीतने का प्रयत्न करे ।
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आनन्दरामायण में लिखा है कि-
इन दोषों को जीतने के लिये मन की दुर्वृत्ति का खण्डन, मन के आवेग को रोकना, माया के योग से जो पूर्व संस्कार हैं, उनका दमन करना । यदि किसी कारण से बुद्धि दूषित हुई तो इस संसार रूपी घोर जंगल में भटकना पड़ता है । उस समय दम्भ का निग्रह करना पड़ता है ।
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केवल आत्मा ही ऐसी पर्णकुटी है जहां शान्ति मिलती है । अन्यत्र तप क्लेश ही क्लेश है । इस आत्म-कुटी में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि शत्रु प्रवेश भी नहीं कर सकते । आशा, तृष्णा की भी वहां गति नहीं, मोह भी नहीं जा सकता । वहीँ पर शुद्ध सात्विक माया का आश्रय प्राप्त होता है, उस समय जब कि रजोगुणी माया का विलय हो जाता है ।
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इससे सुख का नाम भी नहीं रहता, सर्वत्र दुःख ही दुःख नजर आता है । उससे आगे शोकभंग का दर्जा आता है । उस समय हृदय में विवेक उत्पन्न होता है, साथ ही भक्ति का उद्रेक भी होता है ।
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उस समय अज्ञान नष्ट हो जाता है । उत्साह से हृदय भर जाता है । तीन गुण वाले इस शरीर का सबसे पहले यह काम है कि जैसे भी बन सके, इस जीव को अज्ञान से छुड़ाना चाहिये । जब प्राणी मद का निग्रह कर लेता है, तब वह लिंग-सूक्ष्म-निग्रही कहलाता है ।
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मद के निग्रह के बाद मात्सर्य और अहंकार का निग्रह करना चाहिये । जिस समय प्राणी लिंगनिग्रही हो जाता है, उस समय माया के परास्त होने का समय आता है । क्योंकि वास्तव में माया और है भी क्या, इन्हीं काम, क्रोध आदि दुष्टों के संग से माया का निर्माण होता है, इनके नष्ट हो जाने पर प्राणी को आनन्द ही आनन्द है ।
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माया के त्याग से सात्विकी माया का प्रादुर्भाव होता है । उस सात्विकी माया के साथ प्राणी उत्तम हृदयाकाश का सुख अनुभव करने लगता है । उसका उत्कर्ष होने पर महाकाश का निर्माण होता है । सत्-चित्, आनन्द, यह तीनों वहां पर विद्यमान रहते हैं । इसी महान् समुद्र में कूद जाने को ही आत्मा की कल्याणदायिनी मुक्ति कहते हैं ।
(क्रमशः)