सोमवार, 27 सितंबर 2021

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*साचा सहजैं ले मिलै, शब्द गुरु का ज्ञान ।*
*दादू हमको ले चल्या, जहँ प्रीतम का स्थान ॥*
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साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- *॥ ६ प्रार्थना भक्ति ॥*
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*॥ प्रार्थना से ज्ञान प्राप्ति ॥*
करे प्रार्थना ज्ञान भी, प्राप्त होत सत बात ।
मिला पार्थ को विनय से, परम बोध प्रख्यात ॥१६०॥ दृष्टांत कथा – पार्थ(अर्जुन) को इस प्रार्थना पर कि - 'मैं आपका शिष्य हूं, आपकी शरण आये हुये मुझको शिक्षा दीजिये ।' भगवान् श्री कृष्ण ने गीता रूप परम ज्ञान का उपदेश किया था । यह प्रसिद्ध है । इससे सूचित होता है कि प्रार्थना से मुक्ति प्रदाता उपदेश भी प्राप्त होता है ।

= २१ =

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*दादू चिन्ता राम को, समर्थ सब जाणै ।*
*दादू राम संभाल ले, चिंता जनि आणै ॥*
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साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- *॥ ६ प्रार्थना भक्ति ॥*
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*॥ प्रार्थना से कार्य रक्षा ॥*
करे प्रार्थना कार्य की, सहज हि रक्षा होय ।
बाँध अधूरा वृष्टि से, टूट सका नहिं कोय ॥१५९॥
दृष्टांत कथा – एक अँग्रेज अफसर एक बाँध बँधवाने आया था । बाँध पूरा होने में एक ही दिन बच रहा था । उसी दिन रात को भारी वर्षा हुई । अफसर ने देखा कि बाँध अवश्य टूट जायगा । अधीर होकर उसने अपने एक हिन्दू नौकर से बाँध की रक्षा का उपाय पूछा । नौकर – 'सरकार एक उपाय तो है ।' अफसर – 'बताओ फिर जल्दी ।' नौकर –'आप सच्चे मन से सामने वाले मन्दिर में जाकर प्रार्थना करें ।' बाँध की रक्षा हो जायगी ।'
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अफसर वैसा ही किया । आधी रात तक वर्षा होती रही । अफसर का धैर्य छूटने लगा । वह उसी समय बाँध को देखने गया । बाँध पर विचित्र प्रकाश था । जहां से बाँध टूटने का भय था, वहां अति मनोहर दो युवक और एक युवती खड़े हुये मानो बाँध की रक्षा कर रहे हैं ।
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भारी वर्षा होने पर भी पानी बाँध से दो अंगुल कम था । अफसर ने ने आदर से उन्हें प्रणाम किया । जहां प्रार्थना की थी वह मन्दिर सीता – राम – लक्ष्मण का था, जीर्ण हो चला था । अफसर ने उसका जीर्णोद्धार करा दिया । इससे सूचित होता है कि प्रार्थना से बड़े २ कार्यों की भी रक्षा हो जाती है ।

*नाम विवेक का अंग १६५(१/४)*

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*संगहि लागा सब फिरै, राम नाम के साथ ।*
*चिंतामणि हिरदै बसै, तो सकल पदार्थ हाथ ॥*
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श्री रज्जबवाणी टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*नाम विवेक का अंग १६५*
इस अंग में नाम और विवेक संबंधी विचार कर रहे हैं ~
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नाम हिं भजे विचार सौं, सो भूलै नहि संत ।
रज्जब नाम निरूप रटि१, पहुँचे प्राणि अनन्त ॥१॥
जो संत विचार पूर्वक नाम चिन्तन करता है, वह मायिक चमत्कारों से प्रभु को नहीं भूलता । रूप रहित नाम का चिंतन१ करके अनन्त प्राणी सांसारिक भावनाओं से पार होकर प्रभु के पास पहुंचे हैं ।
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राम नाम निज नाव गति, केवट ज्ञान विचार ।
जन रज्जब दोन्यों मिलै, तबै पहुंचे पार ॥२॥
राम का निज नाम नौका के समान है और ज्ञान विचार उसे चलाने वाले केवट के समान है । जैसे नौका और केवट दोनों मिलते हैं तब ही महानद के पार पहुंचा जाता है । वैसे ही नाम और ज्ञान दोनों मिलते हैं तब ही संसार के पार प्रभु के पास पहुँचा जाता है ।
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औषधी हरि का नाम ले, पछ१ पंचों वश राखि ।
रज्जब जीव निरोग ह्वै, सदगुरु साधू साखि ॥३॥
जैसे पथ्य१ रखते हुये औषधि सेवन करता है वह रोग रहित हो जाता है । वैसे ही हरि नाम चिंतन करते हुये पांचों ज्ञानेन्द्रियों को वश में रखता है वह जीव संसार से मुक्त हो जाता है । यह सदगुरु और संतों की साक्षी है ।
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औषधि अविगत१ नाम ले, पछ२ पंचों वश जोग३ ।
रज्जब रहतों इहि जुगति, आतम होय निरोग ॥४॥
जो जीवात्मा परब्रह्म१ के नाम चिंतन रूप औषधि सेवन के साथ, पंच ज्ञानेन्द्रियों को वश में रखना रूप यथा योग्य३ पथ्य२ सेवन करते हुये रहता है, तब वह इस युक्ति द्वारा जन्मादि संसार रोग से रहित हो जाता है ।
(क्रमशः)

*विभिन्न भक्ति भाव*

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*दादू दरिया प्रेम का, तामें झूलैं दोइ ।*
*इक आतम परआत्मा, एकमेक रस होइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ विरह का अंग)*
===============
साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*विभिन्न भक्ति भाव*
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श्रीरामकृष्ण - (भक्तों से) - कितने ही प्रकार से उनकी सेवा की जा सकती है ।
"प्रेमी भक्त उन्हें लेकर कितनी ही तरह से सम्भोग करता है ।
"कभी तो वह सोचता है, ईश्वर पद्म हैं और वह भौंरा, और कभी ईश्वर सच्चिदानन्द सागर हैं और वह मीन ।
"प्रेमी भक्त कभी सोचता है कि वह ईश्वर की नर्तकी है । यह सोचकर वह उनके सामने नृत्य करता है - गाने सुनाता है । कभी सखीभाव या दासीभाव में रहता है ।
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कभी उन पर उसका वात्सल्यभाव होता है - जैसा यशोदा का था । कभी पतिभाव - मधुरभाव होता है जैसा गोपियों का था । “बलराम का भी तो सखीभाव रहता था और कभी वे सोचते थे, मैं कृष्ण का छाता या लाठी बना हुआ हूँ । सब तरह से वे कृष्ण की सेवा करते थे । "चैतन्यदेव की तीन अवस्थाएँ थीं । जब अन्तर्दशा होती थी, तब वे समाधिलीन हो जाते थे । उस समय बाहर का ज्ञान बिलकुल न रह जाता था ।
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जब अर्धबाह्य दशा होती थी, तब नृत्य तो कर सकते थे, पर बोल नहीं सकते थे । बाह्यदशा में संकीर्तन करते थे ।
(भक्तों से) “तुम लोग ये सब बातें सुन रहे हो, धारणा करने की चेष्टा करो । विषयी जब साधु के पास आते हैं, तब विषय की चर्चा और विषय की चिन्ता को बिलकुल छिपा कर आते हैं । जब चले जाते हैं, तब उन्हें निकालते हैं । कबूतर मटर खाता है, तो जान पड़ता है, निगल कर हजम कर गया, परन्तु नहीं, गले के भीतर रखता जाता है । गले में मटर भरे रहते हैं ।
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"सब काम छोड़कर तुम्हे चाहिए कि सन्ध्या समय उनका नाम लो ।
"अंधेरे में ईश्वर की याद आती है । यह भाव आता है कि अभी तो सब दीख पड़ रहा था, किसने ऐसा किया । मुसलमानों को देखो, सब काम छोड़कर ठीक समय पर जरूर नमाज पढ़ेंगे ।"
मुखर्जी - अच्छा महाराज, जप करना अच्छा है ?
श्रीरामकृष्ण - हाँ, जप से ईश्वर मिलते हैं । एकान्त में उनका नाम जपते रहने से उनकी कृपा होती है, इसके पश्चात् है दर्शन ।
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"जैसे पानी में काठ डुबाया हुआ है - लोहे की जंजीर से बाँधा हुआ है, उसी जंजीर को पकड़कर जाओ तो वह लकड़ी अवश्य छू सकोगे ।
"पूजा की अपेक्षा जप बड़ा है, जप की अपेक्षा ध्यान बड़ा है, ध्यान से बढ़कर है भाव और भाव से बढ़कर महाभाव या प्रेम । प्रेम चैतन्यदेव को हुआ था । प्रेम यदि हुआ तो ईश्वर को बाँधने की मानो रस्सी मिल गयी । (हाजरा आकर बैठे ।)
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(हाजरा से) "उन पर जब प्यार होता है, तब उसे रागभक्ति कहते हैं । वैधी-भक्ति जितनी शीघ्र आती है जाती भी उतनी ही शीघ्र हैं; राग-भक्ति स्वयम्भू लिंग-सी है । उसकी जड़ नहीं मिलती । स्वयम्भू लिंग की जड़ काशी तक है । राग-भक्ति अवतार और उनके सांगोपांग अंशों को होती है ।"
हाजरा – अहा !
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श्रीरामकृष्ण - तुम जब एक दिन जप कर रहे थे, तब मैं जंगल से होकर आ रहा था । मैंने कहा - माँ, इसकी बुद्धि तो बड़ी हीन है, यह यहाँ आकर भी माला जप रहा है । जो कोई यहाँ आयेगा, उसे तत्काल ही चैतन्य होगा । उसे माला जपना, यह सब इतना न करना होगा । तुम कलकत्ता जाओ, देखोगे, वहाँ हजारों आदमी माला जपते हैं - वेश्याएँ तक ।
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श्रीरामकृष्ण मास्टर से कह रहे हैं –
"तुम नारायण को किराये की गाड़ी पर ले आना ।
"इनसे (मुखर्जी से) भी नारायण की बात कह रखता हूँ । उसके आने पर उसे कुछ खिलाऊँगा ! उसको खिलाने के बहुत से अर्थ हैं ।"
(क्रमशः)

शब्दस्कन्ध ~ पद #.११७

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.११७)*
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*अथ राग केदार ६*
*(गायन समय संध्या ६ से ९ बजे) *
*११७. विनती (गुजराती भाषा) । दीप चन्दी ताल*
*मारा नाथ जी, तारो नाम लेवाड़ रे ।*
*राम रतन हृदया मा राखे, मारा वाहला जी, विषया थी वारे ॥टेक॥*
*वाहला वाणी ने मन मांहे मारे, चितवन तारो चित राखे ।*
*श्रवण नेत्र आ इन्द्री ना गुण, मारा मांहेला मल ते नाखे ॥१॥*
*वाहला जीवाड़े तो राम रमाड़े, मनें जीव्यानो फल ये आपे ।*
*तारा नाम बिना हौं ज्यां ज्यां बंध्यो, जन दादू ना बंधन कापे ॥२॥*
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भा० दी०-हे स्वामिन् ! ईदृशीं कृपां विस्तारय, ययाऽहं स्वहृदय एव भवन्नामस्मरणं कुर्याम् । यतश्च तव नाम मम रत्नवत्प्रियमस्ति । विषयेभ्यो मां दूरीकुरु त्वम् । हे प्रिय परमात्मन् ! मम वाचा तवैव कीर्तनं मनसा तवैव स्मरणं चित्तेन तव चरणारविन्दचिन्तनं भवेत् । ममेन्द्रियाणां या विषयासक्ति: सा त्वयाऽपसार्यताम् । तव कृपया मम मन आसुरभावं परित्यज्यतु । यदि त्वं मां जीवन्तं दिदृक्षसे तर्हि हे राम! मम मनस्तव स्वरूपे निवेशय । अन्यथा मम जीवनं व्यर्थमेव स्यात् । हे राम! यत्र कुत्राऽपि में विषयानुबन्धनं तत्सर्वं विमोचय !
उक्तंहि शङ्कराचार्येण विष्णुषट्पद्याम्-
अविनयमपनय दमय मन: शमय विषयमृगतृष्णाम् ।
भूतदयां विस्तारय तारय संसारसागरतः ।
गीतायाम्-
तेषामेवानुकम्पार्थ महमज्ञानजं तमः ।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥
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हे नाथ ! ऐसी कृपा कीजिये, जिससे मेरे हृदय में सतत आपका नाम चिन्तन होता रहे, क्योंकि मेरे को आप का नाम रत्न की तरह प्रिय है । विषयों से आप मेरे को बचाइये । हे परमात्मन् ! मेरी वाणी आपके गुणानुवाद गावे, मन आपके स्वरूप का मनन करे, चित्त आपके चरण-कमलों का चिन्तन करे, ऐसी कृपा करें ।
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आप अपनी कृपा से मेरी इन्द्रियों की विषयासक्ति को दूर करें । आपकी कृपा से मैं आसुरी भाव को छोड़ दूं । यदि आप मेरे को जीता हुआ देखना चाहते हैं तो आपके स्वरूप में मेरा मन रमण करे, ऐसी कृपा कीजिये अन्यथा मेरा जीवन व्यर्थ की चला जायगा । हे राम ! जिस जिस विषय से मेरा जहां जहां बन्धन है, उसको आप अपनी कृपा से काट डालें ।
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विष्णुषट्पदी में –
हे करुणामय नारायण ! हमारे अपराधों को क्षमा करो । इन्द्रियाँ और मन का दमन करो । संसार की मृग-तृष्णा का शमन करो । प्राणी मात्र में दया का विस्तार करो । इस संसार-सागर से हमें पार करो ।
गीता में – हे अर्जुन ! भक्तों के अन्तःकरण में एकीभाव से स्थित हुआ मैं, उन भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये, उत्पन्न हुए अज्ञान रूपी अन्धकार को तत्तद् ज्ञानरुपी प्रकाशमय दीपक द्वारा नष्ट कर देता हूं ।
(क्रमशः)

*१८. साध को अंग ~ २१३/२१६*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१८. साध को अंग ~ २१३/२१६*
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कहि जगजीवन आरती, रांम नांम जिहिं ठांम ।
रवि ससि अनंत उजास१ जहँ, नवणि निरंजन रांम ॥२१३॥
(१. उजास=प्रकाश)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जहाँ राम नाम है वहां ही प्रभु की आरती है । जहां चन्द्र सूर्य का प्रकाश है वहां ही राम जी का निवास है ।
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बड़ा विवेकी बसत का, पारख प्रांणी कूंण ।
जगजीवन ते गलि रहै, जैसैं पांणी लूंण ॥२१४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि श्रेष्ठ की परख करनेवाले कौन है वे ऐसे प्रभु में लीन है जैसे पानी में नमक लीन है एकाकार है ।
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मोह मार मैदान करि, तहां विवेक पधराइ ।
जगजीवन सैन्यां२ सकल, रांम रमत तिर जाइ ॥२१५॥
(२. सैन्यां=समस्त सेना)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जहाँ मोह को त्याग करते हैं वहाँ ही विवेक आता है मोह के रहते विवेक नहीं आता है । संत कहते हैं कि राम राम कहते सारे भक्त अनुयायी पार हो जाते हैं ।
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जगजीवन गुण लीजिये, गहिये ग्यांन विवेक ।
पुरिष पुरातन परसिये, सोई गहिये टेक३ ॥२१६॥
(३=टेक=दृढ संकल्प)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि भक्ति का गुण ग्रहण करने से ज्ञान व विवेक मिलता है । और आदि पुरुष परमात्मा का सान्निध्य मिलता है अतः हमें सदा प्रभु के प्रति दृढ संकल्प का भाव रखना चाहिये ।
(क्रमशः)

*संतन को सर्वस्व दियो जिन*

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*सतगुरु संतों की यह रीत,*
*आत्म भाव सौं राखैं प्रीत ।*
*ना को बैरी ना को मीत,*
*दादू राम मिलन की चिंत ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ दया निर्वैरता का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*काट शरीर दियो भव्य सिंह को,*
*पैज१ रही कृष्णदास की भारी ।*
*पिंड ब्रह्माण्ड सु स्थावर जंगम,*
*है सब में विश्व रूप विहारी ॥*
*संतन को सर्वस्व दियो जिन,*
*ज्यों तन सौंपत नाह२ को नारी ।*
*राघो रह्यो गलतै गलताँन३ हो,*
*राम अखंड रट्यो इक-तारी४ ॥१७९॥*
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अपने शरीर को काट कर सिंह को भोजन देने से पयहारी कृष्णदास जी की अतिथि सत्कार की महान् प्रतिज्ञा१ रह गई थी अर्थात् पूर्ण हो गई थी । अपने सिंह को भी निराश नहीं लौटने दिया था ।
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उनका विचार था - ब्रह्माण्ड के स्थावर जंगम सभी शरीरों में विश्वरूप परमात्मा का विहार होता है अर्थात् सब में ही आत्म रूप से परमात्मा निवास करते हैं । इसी विचार से उन्होंने सिंह को अपना शरीर काट कर भोजन दिया था । उसी समय उनको भगवान् ने दर्शन भी दिया था ।
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जैसे पत्नी पति२ को अपना शरीर समर्पण करती है वैसे ही कृष्णदासजी पयहारी ने अपना सर्वस्व संतों की सेवा में दिया था ।
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गलते में निवास के समय अखंड राम के नाम का निरन्तर४ जप करते हुये भजनानन्द में निमग्न३ रहते थे ।
(क्रमशः)

रविवार, 26 सितंबर 2021

= २० =

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*करणहार कर्त्ता पुरुष, हमको कैसी चिंत ।*
*सब काहू की करत है, सो दादू का दादू मिंत ॥*
==================
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- *॥ ६ प्रार्थना भक्ति ॥*
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*॥ प्रार्थन से भले कार्य क्रम भी पूर्ण हों ॥*
करे प्रार्थना होत है, भले कार्यक्रम पूर्ण ।
मूलर के विनती करत, हटा कोहरा तूर्ण ॥१५८॥
द्रिस्तांतकथा - जार्ज मूलर जहाज से कनाडा जा रहे थे । अचानक चारों ओर घना कोहरा छा गया । उससे जहाज को रोकना पड़ा । चौबीस घन्टे बीत गये किन्तु आकाश साफ़ नहीं हुआ । मूलर ने जहाज के कप्तान को अपना कार्य क्रम सुनाते हुये कहा – 'मुझे शनिवार को तीसरे पहर क्यूबेक अवश्य पहुंचना है ।' कप्तान – 'यह असम्भव है ।' 
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मूलर – 'मैनें पिछले सत्तावन वर्षों में अपना कार्यक्रम नहीं तोड़ा है, यदि तुम्हारा जहाज नहीं पहुंचा सकता तो ईश्वर कोई दूसरा रास्ता निकालेंगे ।' यह कहकर मूलर ने भगवान् से प्रार्थना की । फिर तो शीघ्र ही कोहरा हट गया और मूलर ठीक समय पर क्यूबेक पहुँच गये । इससे सूचित होता है कि प्रार्थना से भले कार्य क्रम में आने वाले विघ्न भी नष्ट हो जाते हैं ।

= १९ =

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*माया विषय विकार तैं, मेरा मन भागे ।*
*सोई कीजे साँईयाँ, तूँ मीठा लागे ॥*
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साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- *॥ ६ प्रार्थना भक्ति ॥*
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*॥ प्रार्थना से दुर्व्यसनों का भी नाश ॥*
करे प्रार्थना छूटता, दुष्ट व्यसन सत जान ।
तम्बाकू छूटी सहज, लूसा की दुख दान ॥१५७॥
दृष्टांत कथा – लूसा को तम्बाकू पीने का बड़ा व्यसन था । उसने तम्बाकू छोडने के लिये बहुत यत्न भी किया किन्तु सफल नहीं होसकी । चालीस वर्ष की अवस्था में पहुँचने पर तो उसे तम्बाकू को छोड कर और कोई भी वस्तु अच्छी नहीं लगती थी । 
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अन्त में तम्बाकू से छुटकारा पाने के लिये उसने निरन्तर भगवान् से प्रार्थना करना आरम्भ कर दिया । कुछ समय के बाद वह एक दिन अग्नि से ताप रही थी कि आवाज सुनाई दी – 'तम्बाकू पीना बन्द करो ।' बस उसी क्षण से उसे तम्बाकू से इतनी घृणा होगई कि तम्बाकू की गन्ध से भी वह घबराने लगती थी । इससे सूचित होता है कि प्रार्थना से दुर्व्यसन भी छूट जाते हैं ।

*ज्ञान बिना करणी का अंग १६४(५/७)*

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*औषध खाइ न पथ्य रहै, विषम व्याधि क्यों जाइ ।*
*दादू रोगी बावरा, दोष बैद को लाइ ॥*
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श्री रज्जबवाणी टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*ज्ञान बिना करणी का अंग १६४*
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करणी१ आँधी जोर वर२, ज्ञान पांगुलै नैन ।
जन रज्जब दोन्यों जुरहि३, जुदे न पावै चैन ॥५॥
कर्त्तव्य१ में बल तो श्रेष्ठ२ है किंतु अंधा है । ज्ञान पंगु है किंतु उसके नेत्र हैं, ये दोनों जिस साधक में आ मिलते३ हैं तब तो वह ब्रह्मानन्द को प्राप्त होता है और अलग अलग रहते हैं अर्थात कर्त्तव्य है और ज्ञान नहीं है तथा परोक्ष ज्ञान है और धारणा रूप कर्त्तव्य नहीं है तब ऐसे साधक को ब्रह्मानन्द नहीं प्राप्त होता ।
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करणी१ कण चावल सही२, ज्ञान छौंत३ के माँहि ।
रज्जब ऊगै एकठै४, जुदे जुदे सो नांहि ॥६॥
जैसे चावल निश्चय२ ही उसके छिलके३ के भीतर ही रहता है और वे दोनों इकट्ठे-ही४ उगते हैं अलग अलग नहीं उगते । वैसे ही ज्ञान साधन रूप कर्त्तव्य१ करने से ही उत्पन्न होता है और समतादि उसके साथ ही उत्पन्न होते हैं अलग अलग नहीं होते ।
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राम बिना रीति१ रहति२, रहति बिना त्यों राम ।
पछ३ औषधी संयोग सुख, वियोग वे४ हु बेकाम५ ॥७॥
राम के स्वरूप ज्ञान के बिना ब्रह्मचर्य२ पालन रूप कर्त्तव्य महत्व शून्य१ है और वैसे ही ब्रह्मचर्य बिना विषयी का राम स्वरूप संबंधी ज्ञान भी महत्व शून्य है । जैसे पथ्य३ पालन और औषधि सेवन रूप संयोग सुखद होता है और उनका वियोग अर्थात पथ्य पालन बिना वे४ औषधियां खाने पर भी आरोग्यता देने में व्यर्थ५ हो जाती है, निरोग नहीं बना सकती । वैसे ही ज्ञान बिना कर्तव्य कर्म मुक्ति देने में व्यर्थ हो जाते हैं, मुक्ति नहीं दे सकते ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित ज्ञान बिना करणी का अंग १६४ समाप्तः ॥सा. ५०८६॥
(क्रमशः)

*कर्मत्याग कब*

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*जहँ विरहा तहँ और क्या, सुधि, बुधि नाठे ज्ञान ।*
*लोक वेद मारग तजे, दादू एकै ध्यान ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ विरह का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(८)कर्मत्याग कब ?*
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शाम हो गयी । दक्षिण के बरामदे में और पश्चिमवाले गोल बरामदे में दीपक जलाये जा चुके हैं । श्रीरामकृष्ण के कमरे का प्रदीप जला दिया गया, कमरे में धूप दी गयी ।
श्रीरामकृष्ण अपने आसन पर बैठे हुए माता का नाम ले रहे हैं । कमरे में मास्टर, श्रीयुत प्रिय मुखर्जी और उनके आत्मीय हरि बैठे हैं । कुछ देर तक ध्यान और चिन्तन कर लेने पर श्रीरामकृष्ण भक्तों से वार्तालाप करने लगे । अब श्रीठाकुरमन्दिर में आरती ही की देर है ।.
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - जो दिन-रात उनकी चिन्ता कर रहा है उसके लिए सन्ध्या की क्या जरूरत है ?
“सन्ध्या गायत्री में लीन हो जाती है और गायत्री ओंकार में ।
"एक बार ॐ कहने के साथ ही जब समाधि हो जाय तब समझना चाहिए कि अब साधु साधन-भजन में पक्का हो गया ।
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"हृषीकेश में एक साधु सुबह उठकर, जहाँ एक बहुत बड़ा झरना है, वहाँ जाकर खड़ा होता है । दिन भर वही झरना देखता है और ईश्वर से कहता है, 'वाह, खूब बनाया है तुमने ! कितने आश्चर्य की बात है !' उसके लिए जप-तप कुछ नहीं है । रात होने पर वह अपनी कुटी पर लौट जाता है ।
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“निराकार या साकार इन सब बातों के सोचने की ऐसी क्या आवश्यकता है ! निर्जन में व्याकुल हो रो-रोकर उनसे कहने से ही काम बन जायगा । कहो – 'हे ईश्वर, तुम कैसे हो, यह मुझे समझा दो, मुझे दर्शन दो ।'
"वे अन्दर भी हैं और बाहर भी ।
“अन्दर भी वे ही हैं । इसीलिए वेद कहते हैं – तत्त्वमसी । और बाहर भी वे ही हैं । माया से अनेक रूप दिखायी पड़ते हैं । परन्तु वस्तुतः हैं वे ही ।
.
"इसीलिए सब नामों और रूपों का वर्णन करने के पहले कहा जाता है – ॐ तत् सत् ।
"दर्शन करने पर एक तरह का ज्ञान होता है और शास्त्रों से एक दूसरी तरह का । शास्त्रों में उसका आभास मात्र मिलता है, इसलिए कई शास्त्रों के पढ़ने की कोई जरूरत नहीं । इससे निर्जन में उन्हें पुकारना अच्छा है ।
"गीता सब न पढ़ने से भी काम चलता है । दस बार गीता गीता कहने से जो कुछ होता है, वही गीता का सार है । अर्थात् त्यागी । हे जीव, सब त्याग करके ईश्वर की आराधना करो । यही गीता का सार है ।”
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श्रीरामकृष्ण को भक्तों के साथ काली की आरती देखते देखते भावावेश हो रहा है । अब देवी-प्रतिमा के सामने भूमिष्ठ होकर प्रणाम नहीं कर सकते । भावावेश अब भी है । भावावस्था में वार्तालाप कर रहे हैं ।
मुखर्जी के आत्मीय हरि की उम्र अठारह-बीस साल की होगी । उनका विवाह हो गया है । इस समय मुखर्जी के ही घर पर रहते हैं । कोई काम करनेवाले हैं । श्रीरामकृष्ण पर बड़ी भक्ति है ।
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श्रीरामकृष्ण - (भावावेश में हरि से) - तुम अपनी माँ से पूछकर मन्त्र लेना । (श्रीयुत प्रिय से) मैं इनसे (हरि से) कह भी न सका, मन्त्र तो मैं देता ही नहीं हूँ ।
"तुम जैसा ध्यान-जप करते हो; वैसा ही करते रहो ।"
प्रिय - जो आज्ञा ।
श्रीरामकृष्ण - और मैं इस अवस्था में कह रहा हूँ; बात पर विश्वास करना । देखो, यहाँ ढोंग इत्यादि नहीं है ।
"मैंने भावावेश में कहा - माँ, जो लोग यहाँ अन्तर की प्रेरणा से आते हैं, वे सिद्ध हों ।"
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सींती के महेन्द्र वैद्य बरामदे में आकर बैठे । वे श्रीयुत रामलाल, हाजरा आदि के साथ बातचीत कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण अपने आसन से उन्हें पुकार रहे हैं - 'महेन्द्र, महेन्द्र !’
मास्टर जल्दी से वैद्यराज को बुला लाये ।
श्रीरामकृष्ण - (कविराज से) – बैठो - जरा सुनो तो सही ।
वैद्यराज कुछ लज्जित से हो गये । बैठकर श्रीरामकृष्ण के उपदेश सुनने लगे ।
(क्रमशः)

शब्दस्कन्ध ~ पद #.११६

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*११६. ज्ञान । रूपक ताल*
*भाई रे, तब क्या कथसि गियाना,*
*जब दूसर नाहीं आना ॥टेक॥*
*जब तत्त्वहिं तत्त्व समाना,*
*जहँ का तहँ ले साना ॥१॥*
*जहाँ का तहाँ मिलावा,*
*ज्यों था त्यों होइ आवा ॥२॥*
*संधे संधि मिलाई, जहाँ तहाँ थिति पाई ॥३॥*
*सब अंग सबही ठांहीं, दादू दूसर नांहीं ॥४॥*
*इति राग अडाणा समाप्त ॥५॥पद ६॥*
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भा० दी०-हे भ्रात: ! ब्रह्मज्ञाने सत्यज्ञाननाशाद् द्वैतभावानुत्पत्तेरद्वैतावस्थायां कः कमुपदिशेत् । यदा सांसारिकभावनामुत्सृज्य ब्रह्मणोंऽशो जीवो ब्रह्मणा सहैक्यमश्नुते तदा जले जलमिव तत्त्वे तत्त्वमिव परस्परतया समावेशात्क: कमुपदिशेत् । तदाऽशांशिभावस्यापि विलीनत्वेन पूर्ववत् ब्रह्माभावापन्नत्वे भेदरूपा सन्धिरपि न प्रतीयतेऽद्वैते संगमात् । तस्मादद्वैतावस्थायां किमपि कथनं न संभवति, कुतो द्वैतस्थितिः । अतोऽज्ञानदशायामेव सर्वोऽप्युपदेशादिव्यवहारः ।
उक्तं हि विवेक चूडामणौ-
आकाशवन्निर्मलनिर्विकल्प नि:सीम निष्पंदननिर्विकारम् ।
अन्तर्बहिः शून्यमनन्यमद्वयं स्वयं किमस्ति बोध्यम् ॥
वक्तव्यं किमु विद्यतेऽत्र बहुधा ब्रह्मैव जीव स्वयम्
ब्रह्मेतज्जगदाततं नु सकलं ब्रह्माऽद्वितीयं श्रुतेः ।
ब्रह्मैवाहमिति प्रबुद्धमतय: संत्यक्तबाह्याः स्फुटं
ब्रह्मीभूय वसन्ति संततचिदानन्दात्मनैव ध्रुवम् ॥
.
हे भाई ! ब्रह्म-ज्ञान होने पर अज्ञान के नाश हो जाने से द्वैतबुद्धि पैदा ही नहीं होती तो फिर उस अद्वैत अवस्था में कौन किस को उपदेश दे सकता है । जब कि सांसारिक भावना को त्याग कर ब्रह्म का अंश जीव ब्रह्म के साथ ऐक्य भाव का अनुभव करता है, तब जल में जल की तरह से, तत्त्व में तत्त्व की तरह, परस्पर में एक दूसरे का समावेश होने से कौन किस को उपदेश दे ?
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उस समय तो अंशाशी भाव भी विलिन हो जाता है और पहले की तरह ब्रह्म भावापन्न होने से भेद रूप सन्धि भी प्रतीत नहीं होती क्योंकि अद्वैत में मिल जाती है । अतः अद्वैत अवस्था में कुछ भी कथन नहीं बन सकता तो फिर द्वैत की स्थिति तो हो ही नहीं सकती । अतः अज्ञान दशा में ही उपदेश देने आदि का व्यवहार होता है ।
.
विवेकचूड़ामणि –
जो परब्रह्म स्वयं आकाश के समान निर्मल, निर्विकल्प, निःसीम, निश्चल, निर्विकार, बाहर-भीतर सब ओर शून्य, अनन्य, अद्वितीय है, वह क्या ज्ञान का विषय हो सकता हैं ? इस विषय में और अधिक क्या कहना है ?
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जीव तो स्वयं ब्रह्म ही है और ब्रह्म ही यह संपूर्ण जगत् रूप से फैला हुआ है, क्योंकि श्रुति भी कहती है कि ब्रह्म अद्वितीय है और यह निश्चय है कि जिनको यह बोध हुआ है कि ‘मैं ब्रह्म ही हूं’, वे बाह्य विषयों को सर्वथा त्याग कर ब्रह्म-भाव से सदा सच्चिदानन्द रूप से ही स्थित रहते हैं ।
(क्रमशः)

*१८. साध को अंग ~ २०९/२१२*

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*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१८. साध को अंग ~ २०९/२१२*
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लौह गुण इंद्री जगत सब, दार८ नांउ दिढ नांव ।
कहि जगजीवन दरिया९ लंघै, सत संगति में भाव ॥२०९॥
{८. दार=दारु(काष्ठ)} (९. दरिया=भवसागर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सारा संसार लौह जाति का( है जो जंग से क्षय होता है । किंतु प्रभु का नाम काठ है जो जंगरोधी है तो भव सागर से वह ही पार कर सकता है ।
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कहि जगजीवन देहुरे१०, आप विराजै रांम ।
सेवा पूजा आरती, साध करैं सब ठांम ॥२१०॥
(१०. देहुरे=देवमन्दिर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि देवमन्दिर में स्वयं प्रभु विराजते हैं और सभी साधुजन उनकी सेवा पूजा आरती करते हैं । हमारा मन भी मंदिर है हमें इसमें विराजे प्रभु का भी वैसे ही ध्यान रखना चाहिये ।
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कहि जगजीवन रांमजी, हरिजन आरतिवंत ।
भाव भगति सौं आरती११, सकल उतारैं संत ॥२११॥
(आरती=विरहमयी भगवत्साधना)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम जी आपके भक्त आर्त या व्याकुल हैं वे सब भी भक्ति अनुसार भगवत्साधना करते हैं ।
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कहि जगजीवन आरती, देह निरंतर होइ ।
सकल साध सिध देव मुनि, ताहि नवैं सब कोइ ॥२१२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इस देह से विरह सहित भक्ति निरंतर होती रहे सब साधु सिद्ध देव व मुनि जन सब ही उन परमात्मा को नमन करते हैं ।
(क्रमशः)

*ज्ञान अनन्त दियो अनन्तानन्द*

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*दादू भीतर पैसि कर, घट के जड़े कपाट ।*
*सांई की सेवा करै, दादू अविगत घाट ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
===========
*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
.
*मू. इ.- ज्ञान अनन्त दियो अनन्तानन्द,*
*यूं प्रकट्यो कृष्णदास पैहारी ।*
*योग उपासि जुगत्ति से तेजसि,*
*अन्तर वृत्ति अकिंचन धारी ॥*
*जाके घर्यो कर शीश कृपा करि,*
*तासु की भेंट भिटी न निहारी ।*
*राघो बड़ी रहणी मिल्यो राम को,*
*मोक्ष को पंथ निकाय के भारी ॥१७८॥*
.
स्वामी अनन्तानन्द जी ने अनन्त ब्रह्म सम्बन्धी ज्ञान प्रदान किया था, तब ही तो इस प्रकार पयहारी कृष्णदास जी प्रकट हुए थे ।
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तेजस्वी कृष्णदास जी पयहारी ने योग की युक्ति द्वारा भगवान् की उपासना करके अपने मन की वृत्ति को तीव्र वैराग्य धारण द्वारा अन्तर्मुख किया था..
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और कृपा करके जिसके शिर पर अपना वरदहस्त धरा था अर्थात् जिसको शिष्य किया था उसकी भेंट को न तो छुआ ही था और न उसकी ओर देखा ही था ।
.
आप के रहने का ढंग महान् था । उसके द्वारा आपने मोक्ष मार्ग के ज्ञानादि भारी साधन संग्रह कर राम को प्राप्त किया था ।
(क्रमशः)

शनिवार, 25 सितंबर 2021

= १८ =

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*दादू सिरजनहारा सबन का, ऐसा है समरत्थ ।*
*सोई सेवक ह्वै रह्या, जहँ सकल पसारैं हत्थ ॥*
==================
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
.
श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- *॥ ६ प्रार्थना भक्ति ॥*
#############
*॥ प्रार्थना से अभाव की पूर्ति ॥*
पूरा होत अभाव झट, विनय करत मन लाय ।
मूलर ले भोजन गया, जीमे सब सुख पाय ॥१५५॥
दृष्टांत कथा – मूलर साहिब के एक अनाथलय था, जिसमें बहुत से अनाथ लड़के थे । एक दिन रसोईयों ने आकर कहा – 'आज भोजन का कुछ भी सामान नहीं है । हम लोग क्या बनावें ।' मूलर – 'तुम अपना काम करो ।' रसोईयों ने भोजन बनाने के प्रथम के सब काम कर लिये ।
.
उधर मूलर साहिब ने भगवान् से प्रार्थना की – 'भगवन् ! ये बच्चे आपके ही हैं' आपने इन्हें आज तक भोजन दिया है, आज भी आप ही देंगे, दूसरे की क्या शक्ति है । रसोईयों ने फिर आकर कहा – 'साहिब !समय बहुत कम रह गया है, कुछ प्रबन्ध कीजिये ।' मूलर – 'हमने अपना काम कर दिया है, अब शेष जिनका है वे करेंगे । तुम अपना काम करो ।' पंक्ति का समय होगया साहिब ने कहा – 'घन्टी लगादो ।'
.
घन्टी लगाते ही द्वार पर से आवाज आई – 'माल के छकड़े खाली कराओ ।' एक मनुष्य ने मूलर के पास जाकर कहा – 'अमुक साहिब के आज एक पार्टी थी किन्तु कुछ विघ्न होजाने से वह नहीं हो सकी । उसके लिये बना हुआ भोजन आपके यहां के बच्चों के लिये भेजा है ।' समय पर पंक्ति लग गई और सब आनन्द से जीम लिये । इससे सूचित होता है कि अभाव की पूर्ती भी प्रार्थना से दूर होजाती है ।

= १७ =

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*काला मुंह कर काल का, सांई सदा सुकाल ।*
*मेघ तुम्हारे घर घने, बरसहु दीन दयाल ॥*
==================
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- *॥ ६ प्रार्थना भक्ति ॥*
#############
*काला मुंह कर काल का, सांई सदा सुकाल ।*
*मेघ तुम्हारे घर घने, बरसहु दीन दयाल ॥*
*॥ प्रार्थना से लोकोपकार ॥*
होत प्रार्थना से भले, लोकन का उपकार ।
दादू ने वर्षा करा, कीन्हा क्लेश संहार ॥१५६॥
दृष्टांत कथा – जयपुर राज्य के आँधी ग्राम की जनता को वर्षा के अभाव से महान् दुखी देख कर, सन्तवर दादूजी ने भगवान् से नीचे लिखी प्रार्थना करके वर्षा करा कर, वहां की जनता का दुःख दूर किया था ।
.
प्रार्थना: -
'आज्ञा अपरम्पार की, बसि अम्बर भरतार ।
हरे पटम्बर पहरि कर, धरती करे सिंगार ॥
वसुधा सब फूले फले, पृथ्वी अनन्त अपार ।
गगन गरजि जल थल भरे, दादू जय जय कार ॥
काला मुंह कर काल का, सांई सदा सुकाल ।
मेघ तुम्हारे घर घने, बरसहु दीन दयाल ॥'
(दादू वाणी विरह अंग १५७ - १५९) इससे ज्ञात होता है कि प्रार्थाना के द्वारा लोकोपकार भी होता है ।

*ज्ञान बिना करणी का अंग १६४(१/४)*

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*सतगुरु शब्द विवेक बिन, संयम रह्या न जाइ ।*
*दादू ज्ञान विचार बिन, विषय हलाहल खाइ ॥*
==============
श्री रज्जबवाणी टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*ज्ञान बिना करणी का अंग १६४*
इस अंग में ज्ञान रहित कर्तव्य कर्म का विचार कर रहे हैं ~
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करणी करै विचार बिन, तबै बंधै ता माँहिं ।
रज्जब उलझ१ अज्ञान में, कबहूं सुलझै२ नाँहिं ॥१॥
बिना ज्ञान जब कर्म करता है तब ही उनमें करने वाला बंधता है और अज्ञानावस्था में बंधा हुआ ज्ञान बिना कभी भी नहीं खुलता२ ।
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भक्ति भेद१ बिन कछु नहीं, ज्यों स्वप्ने बरड़ाय२ ।
रज्जब रस नहिं पाइये, पड्या रैनि दिन गाय ॥२॥
भक्ति का रहस्य१ जाने बिना भक्ति कुछ नहीं होती । जैसे स्वप्न में पड़ा हुआ मनुष्य बोलता२ है, वैसे ही रात्रि दिन पद गाता रहता है किंतु भक्ति रस नहीं मिलता ।
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नाम हिं भजै विचार बिन, यथा अकलि१ बिन राज ।
रज्जब रहै न एक पल, तब ही होय अकाज२ ॥३॥
ज्ञान विचार के बिना नाम भजन, बिना बुद्धि१ के राज्य शासन के समान है । बिना बुद्धि से राज्य शासन नहीं हो सकता शीघ्र ही कार्य की हानि२ होती है, वैसे ही बिना विचार एक क्षण भी नाम पर मन नहीं ठहरता, उसी क्षण विषयों में भाग जाता है ।
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गज गुमान१ बहुते करैं, जोर२ न जाया३ जिय ।
रज्जब बुद्धि विचार बिन, बेड़ी खुलै न पाय४ ॥४॥
जैसे हाथी अपने बल का गर्व१ करता है किंतु बुद्धि बिना उसके बल२ से पैर४ की बेड़ी नहीं खुलती । वैसे ही बहुत से नर अपने तपादि का अभिमान करते हैं किंतु ज्ञान विचार बिना तपादि बल से उसके हृदय से नारी३ का राग नहीं जाता ।
(क्रमशः)

*शुभ संस्कार तथा ईश्वर के लिए व्याकुलता*

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*देखा देखी सब चले, पार न पहुँच्या जाइ ।*
*दादू आसन पहल के, फिर फिर बैठे आइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ मन का अंग)*
===============
साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*शुभ संस्कार तथा ईश्वर के लिए व्याकुलता*
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दक्षिणेश्वर मौजे से कुछ लड़के आये । उन्होंने श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया । वे लोग आसन ग्रहण करके श्रीरामकृष्ण से प्रश्न कर रहे हैं । दिन के चार बजे होंगे ।
एक लड़का - महाराज, ज्ञान किसे कहते हैं ?
श्रीरामकृष्ण - ईश्वर सत् हैं और सब असत्, इसके जानने का नाम ज्ञान है ।
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"जो सत् हैं उनका एक और नाम ब्रह्म है, एक दूसरा नाम है काल । इसीलिए लोग कहा करते हैं - अरे भाई, काल में कितने आये और कितने चले गये ।
"काली वे हैं जो काल के साथ रमण करती हैं । आद्याशक्ति वे ही हैं । काल और काली, ब्रह्म और शक्ति अभेद हैं ।
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"संसार अनित्य है, वे नित्य हैं । संसार इन्द्रजाल है, बाजीगर ही सत्य है, उसका खेल अनित्य है ।"
लड़का - संसार अगर माया है, इन्द्रजाल है, तो यह दूर क्यों नहीं होता ?
श्रीरामकृष्ण – संस्कार-दोषों के कारण यह माया नहीं जाती । कितने ही जन्मों तक इस माया के संसार रहने के कारण यह सच जान पड़ती है ।
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"संस्कार में कितनी शक्ति है, सुनो । एक राजा का लड़का पिछले जन्म में धोबी के घर पैदा हुआ था । राजा का लड़का होकर जब वह खेल रहा था, तब अपने साथियों से उसने कहा, ये सब खेल रहने दो, मैं पेट के बल लेटता हूँ, तुम लोग मेरी पीठ पर कपड़े पटको !
"यहाँ बहुत से लड़के आते हैं, परन्तु कोई कोई ईश्वर के लिए व्याकुल हैं । वे अवश्य ही संस्कार लेकर आये हैं ।
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"वे सब लड़के विवाह की बात पर रो देते हैं । स्वयं विवाह की बात तो सोचते नहीं । निरंजन बचपन से ही कहता है मैं विवाह न करूँगा ।
"बहुत दिन हो गये (बीस वर्ष से अधिक) यहाँ वराहनगर से दो लड़के आते थे, एक का नाम था गोविन्द पाल, दूसरे का गोपाल सेन । उनका मन बचपन से ही ईश्वर पर था । विवाह की बात होने पर डर से सिकुड़ जाते थे । गोपाल को भावसमाधि होती थी । विषयी-मनुष्यों को देखकर वह दब जाता था जैसे बिल्ली को देखकर चूहे । जब ठाकुरों(Tagore) के लड़के उस बगीचे में घूमने के लिए गये हुए थे, तब उसने अपने घर का दरवाजा बन्द कर लिया था, इसलिए कि कहीं उनसे बातचीत न करनी पड़े ।
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“पञ्चवटी के नीचे गोपाल को भावावेश हो गया था । उसी अवस्था में मेरे पैरों पर हाथ रखकर उसने कहा, 'अब मुझे जाने दीजिये । अब इस संसार में मुझ से रहा नहीं जाता - आपको अभी बहुत देर हैं - मुझे जाने दीजिये ।' मैंने भी भावावस्था में कहा – ‘तुम्हें फिर आना होगा ।’ उसने कहा - 'अच्छा, फिर आऊँगा ।
"कुछ दिन बाद गोविन्द आकर मिला । मैंने पूछा, गोपाल कहाँ है ? उसने कहा, गोपाल चला गया(उसका निधन हो गया) ।
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“दूसरे लड़के देखो, किस चिन्ता में घूम रहे हैं ! - किस तरह धन हो – गाड़ी हो - मकान हो - वस्त्राभूषण हो - फिर विवाह हो - इसी के लिए घूम रहे हैं । विवाह करना है, तो लड़की कैसी है, इसकी पहले खोज करते हैं और सुन्दर है या नहीं, इसकी जाँच करने के लिए स्वयं जाते हैं ।
"एक आदमी मेरी बड़ी निन्दा करता है । बस यही कहता है कि ये लड़कों को प्यार करते हैं । जिनके अच्छे संस्कार हैं, जो शुद्धात्मा हैं, ईश्वर के लिए व्याकुल होते हैं, रुपया, शरीर-सुख इन सब वस्तुओं की ओर जिनका मन नहीं है, मैं उन्हीं को प्यार करता हूँ ।
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"जिन्होंने विवाह कर लिया है, उनकी अगर ईश्वर पर भक्ति हो, तो वे संसार में लिप्त न हो जायेंगे । हीरानन्द ने विवाह किया है तो इससे क्या हुआ ? वह संसार में अधिक लिप्त न होगा ।"
हीरानन्द सिन्ध का रहनेवाला, बी. ए. पास एक ब्राह्मसमाजी है । मणिलाल, शिवपुर के ब्राह्मभक्त, मारवाड़ी भक्त, श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके बिदा हुए ।
(क्रमशः)

शब्दस्कन्ध ~ पद #.११५

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.११५)*
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*११५. चेतावनी । पंचम ताल*
*भाई रे यूं विनशै संसारा,*
*काम क्रोध अहंकारा ॥टेक॥*
*लोभ मोह मैं मेरा, मद मत्सर बहुतेरा ॥१॥*
*आपा पर अभिमाना, केता गर्व गुमाना ॥२॥*
*तीन तिमिर नहिं जाहीं, पंचों के गुण माहीं ॥३॥*
*आतमराम न जाना, दादू जगत दीवाना ॥४॥*
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उक्तंहि आनन्दरामायणे-
मनोदुर्वृत्तिघातश्च मनोवेगस्य खण्डनम् ।
मायायोगस्ततस्तस्य पूर्वसंस्कारनिग्रहः ।
तत: कुबुद्धेहेंतोर्हि भवारण्येऽटनं चिरम् ।
दम्भस्य निग्रहस्तत्राशाकृन्तनं स्मृतम् ॥
मोहस्य निग्रहस्तत्र शुद्धमायाश्रयस्ततः ।
रजोरूपा तु या माया जठराग्नौ तथा स्मृता ।
तामस्याश्चैव मायाया वियोग्य सदा स्मृतः ॥
सुखालाभोमहाक्लेश: शोकभङ्गस्तत: परम् ।
विवेकस्याश्रयस्तत्र भवत्युद्रेकसमागमः ।
अविवेकवचाऽपि ह्यत्साहेन समागमः ॥
अज्ञानतरणोपाय स्विगुणाश्रयसद्मनि ॥
लिङ्गाख्यनिग्रहस्तत्र मदस्य संप्रकीर्तितः ।
निग्रहो मत्सरस्यापि ततोऽहंकारनिग्रहः ॥
वियोगो लिङ्गदेहस्य मायानामैक्यता तत: ।
हृदयाकाशगमनमानन्दैकसुखं तत: ॥
मायात्यागस्ततश्चैव सात्विक्या ग्रहणं स्मृतम् ।
सात्विक्या मायया सार्थ हृदयाकाशमुत्तमम्॥
महाकाशे प्रणयनं सच्चिदानन्दसंज्ञके ।
प्रवेशनं सागरे हि मुक्तिभैंयाऽऽत्मनः शुभा ॥
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संसारी पुरुष इन करणों से स्वयं ही नष्ट हो जाता है । वे कारण हैं – काम, क्रोध, मोह, अहंकार, पदार्थों में तेरा, मेरा भाव अर्थात् ये तेरे हैं, ये मेरे हैं, ऐसी भेद बुद्धि, ईर्ष्या तेरे मेरेपन का अभिमान, गुण और (विद्याओं) का अभिमान, शरीराभिमान, पाचों इन्द्रियों के पाचों विषय में अनुराग, ये सब दोष मनुष्यों के विनाश के कारण हैं । 
.
अतः बुद्धिमान मनुष्यों को इनका त्याग कर देना चाहिये । इन दोनों के रहते हुए तूलामूलालेशा अविद्या का नाश नहीं हो सकता किन्तु प्रतिदिन इनका अभिमान बढता ही जाता है । इन्हीं करणों से संसारी-पुरुष राम को न जानकर सांसारिक सुखों में रमण करते रहते हैं और बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं । अतः साधक को चाहिये कि इन दोषों को जीतने का प्रयत्न करे । 
.
आनन्दरामायण में लिखा है कि-
इन दोषों को जीतने के लिये मन की दुर्वृत्ति का खण्डन, मन के आवेग को रोकना, माया के योग से जो पूर्व संस्कार हैं, उनका दमन करना । यदि किसी कारण से बुद्धि दूषित हुई तो इस संसार रूपी घोर जंगल में भटकना पड़ता है । उस समय दम्भ का निग्रह करना पड़ता है । 
.
केवल आत्मा ही ऐसी पर्णकुटी है जहां शान्ति मिलती है । अन्यत्र तप क्लेश ही क्लेश है । इस आत्म-कुटी में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि शत्रु प्रवेश भी नहीं कर सकते । आशा, तृष्णा की भी वहां गति नहीं, मोह भी नहीं जा सकता । वहीँ पर शुद्ध सात्विक माया का आश्रय प्राप्त होता है, उस समय जब कि रजोगुणी माया का विलय हो जाता है । 
.
इससे सुख का नाम भी नहीं रहता, सर्वत्र दुःख ही दुःख नजर आता है । उससे आगे शोकभंग का दर्जा आता है । उस समय हृदय में विवेक उत्पन्न होता है, साथ ही भक्ति का उद्रेक भी होता है । 
.
उस समय अज्ञान नष्ट हो जाता है । उत्साह से हृदय भर जाता है । तीन गुण वाले इस शरीर का सबसे पहले यह काम है कि जैसे भी बन सके, इस जीव को अज्ञान से छुड़ाना चाहिये । जब प्राणी मद का निग्रह कर लेता है, तब वह लिंग-सूक्ष्म-निग्रही कहलाता है । 
.
मद के निग्रह के बाद मात्सर्य और अहंकार का निग्रह करना चाहिये । जिस समय प्राणी लिंगनिग्रही हो जाता है, उस समय माया के परास्त होने का समय आता है । क्योंकि वास्तव में माया और है भी क्या, इन्हीं काम, क्रोध आदि दुष्टों के संग से माया का निर्माण होता है, इनके नष्ट हो जाने पर प्राणी को आनन्द ही आनन्द है । 
.
माया के त्याग से सात्विकी माया का प्रादुर्भाव होता है । उस सात्विकी माया के साथ प्राणी उत्तम हृदयाकाश का सुख अनुभव करने लगता है । उसका उत्कर्ष होने पर महाकाश का निर्माण होता है । सत्-चित्, आनन्द, यह तीनों वहां पर विद्यमान रहते हैं । इसी महान् समुद्र में कूद जाने को ही आत्मा की कल्याणदायिनी मुक्ति कहते हैं । 
(क्रमशः)

*१८. साध को अंग ~ २०५/२०८*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१८. साध को अंग ~ २०५/२०८*
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निस सपनौं रस रांम बिन, दिनकर किरण प्रकास ।
सिरि सोभा सिरिपति अगम, सु कहि जगजीवनदास ॥२०५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि रात जैसे स्वप्न से बीतती है यदि उसमें स्मरण न हो तो वह व्यर्थ है ऐसे ही दिन बिना प्रकास से प्रारम्भ हो बीत जाये तो सब व्यर्थ है इन्हें प्रभु समर्पित हो कर बीतना चाहिए ।
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दिन सूरज निसि चंद्रमा, ग्रह दीपक प्रकास ।
इनके नैंननि जग फिरै, सु कहि जगजीवनदास ॥२०६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि दिवस तो सूर्य व रात्रि चंद्र व ग्रह जो है वे दीपक हैं इन्हीं के बल से जो इन नैत्रों द्वारा हम संसार देखते हैं वह ही धन्य है ।
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जन नैंना३ अनभै बयन४, सहज सुन्नि५ अजुवास६ ।
रैन दिवस इक नांम है, सु कहि जगजीवनदास ॥२०७॥
(३. जन नैना=साधक की सम्यग्दृष्टि) (४. अनभै वयन=गुरु का अनुभव उपदेश) (५. सहज सुन्नि=सहज समाधि द्वारा आराधित शून्य तत्त्व)
(६. अजुवास=उजवास=उपर्युक्त तीनों साधनों के माध्यम से कृत प्रयत्न)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि लोग हमें दिखाते हैं तो वे हमारे नैत्र है अनुभव जो होता है वह वचन है । फिर उसमें सहज शून्य समाधि में जो आराधना है वह नैत्र अनुभव व समाधि के प्रयासों का परिणाम है रात दिवस तो एक मापक है ।
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रांम चश्म७ सूझै सकल, ज्यूं दिन सूर प्रकास ।
दीपक मंदिर रैण ससि, सु कहि जगजीवनदास ॥२०८॥
(७. राम चश्म=राममयी दृष्टि)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राममय दृष्टि हो तो सब सूझता है जैसै दिन में सूर्य के प्रकाश से सब सूझता है । जैसे मंदिर में दीपक रात्रि में चंद्र प्रकाश से दिखता है ऐसे ही राममयी दृष्टि से ही राम दिख सकते हैं ।
(क्रमशः)

*कृष्णदास कलि-काल में*

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*परमारथ को सब किया, आप स्वार्थ नांहि ।*
*परमेश्‍वर परमार्थी, कै साधु कलि मांहि ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*कृष्णदास कलि-काल में,*
*दधीचि ज्यूं दूजैं करी ॥*
*सिंह शरण यूं जान,*
*काट तन मांस खुवायो ।*
*भई पहुँन गति भली,*
*जगत यश भयो सवायो ॥*
*महा अपर१ वैराग्य,*
*वाम२ कंचन तैं न्यारे ।*
*हरि अंध्री३ सुठ४ गंध,*
*लेत अह निशि मतवारे ॥*
*गालव ऋषि आश्रम विदित,*
*रीति सनातन उर धरी ।*
*कृष्णदास कलि-काल में,*
*दधीचि ज्यूं दूजैं करी ॥१७७॥*
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कृष्णदास जी पयहारी ने कलि-काल में भी महर्षि दधीचि के समान दधीचि वंश में दूसरी बार परहित की क्रिया करी थी ।
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सो बता रहे हैं - एक समय आपके पास एक भूखा सिंह आ गया था । उसको शरण में आया हुआ तथा भूखा जानकर आपने अपनी जंघा का मांस काटकर उसे खिलाया था ।
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इस क्रिया से सिंह रूप अतिथि के सत्कार की रीति भली प्रकार संपन्न हुई और कृष्णदास जी पयहारी का यश जगत में पहले से सवाया हुआ ।
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आपका वैराग्य इतना महान था कि उस समय दूसरे१ में तो ऐसा देखा भी नहीं जाता था । आप नारी२ और स्वर्णादि धन से तो सर्वथा अलग ही रहते थे । रात्रि दिन भगवान् के चरण३-कमलों की भक्ति रूप सुन्दर४ सुगन्ध को लेते हुए अर्थात् भक्ति करते हुए मस्त रहते थे ।
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गालव ऋषि के प्रसिद्ध आश्रम गलता में निवास करके आपने भागवत् धर्म को सनातन रीति को हृदय में धारण करके ही भगवद् भक्ति करी थी ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 24 सितंबर 2021

= १६ =

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*भक्त भेख धरि मिथ्या बोलै, निंदा पर अपवाद ।*
*साचे को झूठा कहै, लागै बहु अपराध ॥*
==================
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- *॥ ६ प्रार्थना भक्ति ॥*
#############
*॥ प्रार्थना से अन्य दोष भी क्षमा ॥*
करे प्रार्थना अन्य का, दोष क्षमा हो जाय ।
दादु विनय से मान पर, दुख न उसी क्षण आय ॥ १५२ ॥
दृष्टांत कथा – आँमेर नरेश मानसिंहजी ने दुर्जनों के बहकाने से सन्तवर दादूजी से तर्क दृष्टि से कु प्रश्न किये थे । उनका उचित उत्तर मिलने पर राजा ने कहा – 'आप यहां कितने समय से रहते हैं ?' दादूजी – 'चौदह वर्ष से ।' मानसिंह – 'सन्त तो इतने समय तक एक स्थान पर नहीं रहा करते हैं फिर आप कैसे रहे ?' दादूजी ने राजा के मन का भाव जान कर कहा – 'हरि इच्छा ऐसी ही थी ।'
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फिर दूसरे दिन वहां से जाने का विचार कर लिया । प्रात: ही अपने शिष्यों के सहित चल दिये । उधर रात्रि में राजा को स्वप्न में आवाज सुनाई दी – 'तूने बैठे भजन करते हुये सन्तों को छेड़ा है, इसलिये राज्य सहित नष्ट हो जायगा ।' भयभीत होकर राजा ने प्रार्थना करी – 'मेरा अपराध क्षमा कीजिये ।' पुन: आवाज आई – 'तू सन्तों की ही शरण जा, वे ही क्षमा कर सकते हैं ।' वे क्षमा करा सकते हैं ।'
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प्रातः ही राजा आश्रम पर आया तो ज्ञात हुआ कि वे तो चले गये । राजा शीघ्र गति से चल कर जयपुर आँमेर की घाटी के बीच में सन्तों के पास जा पहँचे और अपना स्वप्न सुना कर क्षमा याचना की । परम दयालु दादूजी ने राजा का दोष क्षमा कराने के लिये भगवान् से प्रार्थना की । भगवान् ने कहा – 'तुम्हारी प्रार्थना से इस समय तो क्षमा किया जाता है किन्तु सौ वर्ष के बाद यह नगर खण्डहर होजायेगा ।
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वैसा ही हुआ आगे चल कर जयपुर बस गया और आँमेर खण्डहर होगया । राजा ने पुन: आँमेर में निवास करने की बहुत प्रार्थना की किन्तु कुछ दिन राजा को संतुष्ट करके तथा राजा के विशेष आग्रह पर अपने शिष्य जगन्नाथजी को वहां छोड़कर दादूजी चले गये । इससे सूचित होता है कि प्रार्थना से दूसरे के दोष भी क्षमा कराये जा सकते हैं ।

= १५ =

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*जे पहुँचे ते कह गए, तिनकी एकै बात ।*
*सबै सयाने एक मत, उनकी एकै जात ॥*
==================
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- *॥ ६ प्रार्थना भक्ति ॥*
#############
*॥ प्रार्थना से जड़ में भी गति ॥*
जड़ में भी गति होत है, करत विनय सह प्रीति ।
रथ नारायणदास का, चलासु अद्भुत रीति ॥१५१॥
दृष्टांत कथा – सन्तवर दादूजी के शिष्य घडसीजी कड़ेलवालों के शिष्य सन्त नारायणदासजी को जोधपुर के राजा जशवन्तसिंहजी ने जोधपुर बुलवाया था । वे एक रथ में बैठ कर आ रहे थे । किसी के बहकावे से परीक्षा के लिये राजा ने रात्रि में उनके रथ के बैल चुरवा लिये थे । और जहां वे ठहरे थे उस ग्राम वालों से भी कह दिया था कि उन्हें कोई भी बैल नहीं दे ।
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जब प्रात:काल बैल नहीं मिले तो नारायणदासजी ने ध्यान धर करके देखा और सब बात जान ली । रथ पर बैठ कर के भगवान् से प्रार्थना की – 'हे निरंजन देव ! आप सर्व समर्थ हैं इस रथ को बिना बैलों के ही चला दीजिये ।'
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उनकी प्रार्थना स्वीकृत होगई रथ बिना बैलों के ही शीघ्र गति से चलने लगा । यह देख कर राजा चरणों में आ पड़े और क्षमा माँगी । इससे सूचित होता है कि प्रार्थना जड़ में भी गति होने लगती है ।

*करणी बिना ज्ञान का अंग १६३(९/१२)*

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*करणी किरका को नहिं, कथनी अनंत अपार ।*
*दादू यों क्यों पाइये, रे मन मूढ गँवार ॥*
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श्री रज्जबवाणी टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*करणी बिना ज्ञान का अंग १६३*
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रज्जब जोबन भादवा, इन्द्री आभे१ माँहिं ।
विषय वारि२ वर्षा विपुल३, ज्ञान भानु४ दुरि५ जाँहिं ॥९॥
जैसे भादवे के महिने में बादल१ भारी३ जल२ की वर्षा करते हैं तब सूर्य४ बादलों से छिप जाते हैं । वैसे ही युवावस्था में इन्द्रियों की चंचलता बढ जाती है और विषय भोग का अत्यधिक अवसर आता है तब भक्ति आदि साधनों से रहित परोक्ष ज्ञान छिप५ जाता है अर्थात हृदय में नहीं रहता ।
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रज्जब रैन१ अचेत२ मत३, वन मन जरि नहिं जाय ।
भानु ज्ञान उगत हि दहै४, उतर इन्द्रियाँ वाय५ ॥१०॥
ग्रीष्म ॠतु की रात्रि१ में वन के तृण, वृक्षादि नहीं जलते अर्थात सूखते तथा तपते नहीं किन्तु सूर्य उदय होने पर जब वायु५ भी उतर जाती है अर्थात बंद हो जाती है तब सूर्य की तीक्ष्ण किरणों से वन जलता४ है । वैसे ही अज्ञानावस्था में मूर्ख२ प्राणी के विचारों३ से मन के विकार नहीं जलते किंतु अपरोक्ष ज्ञान होते ही इन्द्रियों की चंचलता कम होकर मन के विकार जल जाते है ।
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इन्द्रिय आभा१ ऊनवण२, ज्ञान उन्हालू३ होय ।
तो रामा४ रोली५ चढै, रज्जब साख६ न कोय ॥११॥
ग्रीष्म३ ॠतु की खेती जो, गेहूँ होने के समय आदि बादल१ चढे२ रहते हैं और वर्षते नहीं तब खेती खेती में रोली नामक रोग५ लग जाता है । उससे खेती६ नहीं हो पाती । वैसे ही ज्ञान के समय भी इन्द्रियों की चंचलता बढी रहे तो उसके हृदय पर नारी४ का राग चढ जायगा और मुक्ति नहीं मिल सकेगी ।
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आभे१ इन्द्री रैनी अचेत२, सूझै नांहि सबन के नेत३ ।
भानु ज्ञान आये न अंधार, आंखि मूंदि किया अंधियार ॥१२॥
अधेरी रात्रि में गहरे बादल१ छाये हों तब तो सबके नेत्र३ होने पर भी नहीं दीखता परन्तु सूर्य आने पर तो अंधेरा नहीं रहता, किंतु कोई अपनी आँखे बंद करके अंधेरा कर ले तो दूसरी बात है । वैसे ही अज्ञान२ के समय इन्द्रियों की चंचलता बढी रहती है तब तो किसी को भी ब्रह्म दर्शन नहीं होता किंतु ज्ञान होने पर तो अज्ञान चला जाता है, फिर तो अपने प्रमाद वश निदिध्यासन नहीं करे तो दूसरी बात है ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित करणी बिना ज्ञान का अंग १६३ समाप्तः ॥सा. ५०७९॥
(क्रमशः)

*श्रीरामकृष्ण का कांचन-त्याग*

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🌷 *#श्रीरामकृष्ण०वचनामृत* 🌷
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*मति मोटी उस साधु की, द्वै पख रहित समान ।*
*दादू आपा मेट कर, सेवा करै सुजान ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ मध्य का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(७)श्रीरामकृष्ण का कांचन-त्याग*
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श्रीरामकृष्ण - (मारवाड़ी से) - त्यागियों के नियम बड़े कठिन हैं । कामिनी और कांचन का संसर्ग लेशमात्र भी न रहना चाहिए । रुपया अपने हाथ से तो छूना ही न चाहिए; परन्तु दूसरे के पास रखने की भी कोई व्यवस्था न रहनी चाहिए ।
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"लक्ष्मीनारायण मारवाड़ी था, वेदान्तवादी भी था, प्रायः यहाँ आया करता था । मेरा बिस्तरा मैला देखकर उसने कहा, मैं आपके नाम दस हजार रुपया लिख दूँगा, उसके व्याज से आपकी सेवा होती रहेगी ।
"उसने यह बात कही नहीं कि मैं जैसे लाठी की चोट खाकर बेहोश हो गया ।
"होश आने पर उससे कहा, तुम्हें अगर ऐसी बातें करनी हों, तो यहाँ फिर कभी न आना । मुझमें रुपया छूने की शक्ति ही नहीं है, और न मैं रुपया पास ही रख सकता हूँ ।
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"उसकी बुद्धि बड़ी सूक्ष्म थी । उसने कहा, 'तो अब भी आपके लिए त्याज्य और ग्राहा है ! तो आपको अभी ज्ञान नहीं हुआ ।
"मैंने कहा, नहीं भाई, इतना ज्ञान मुझे नहीं हुआ । (सब हँसते हैं ।)
"लक्ष्मीनारायण ने तब वह धन हृदय के हाथ में देना चाहा । मैंने कहा - 'तो मुझे कहना होगा, इसे दे, उसे दे'; अगर उसने न दिया तो क्रोध का आना अनिवार्य होगा । रुपयों का पास रहना ही बुरा है । ये सब बातें न होंगी ।
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"आईने के पास अगर कोई वस्तु रखी हुई हो, तो क्या उसका प्रतिबिम्ब न पड़ेगा ?"
मारवाड़ी भक्त - महाराज, क्या गंगा में शरीर-त्याग होने पर मुक्ति होती है ?
श्रीरामकृष्ण - ज्ञान होने ही से मुक्ति होती है । चाहे जहाँ रहो - चाहे महा कलुषित स्थान में प्राण निकलें, और चाहे गंगातट ही हो; ज्ञानी की मुक्ति अवश्य होगी ।
"परन्तु हाँ, अज्ञानी के लिए गंगातट ठीक है ।"
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मारवाड़ी भक्त - महाराज, काशी में मुक्ति कैसे होती हैं ?
श्रीरामकृष्ण - काशी में मृत्यु होने पर शिव के दर्शन होते हैं । शिव प्रकट होकर कहते हैं - 'मेरा यह साकार रूप मायिक है, मैं भक्तों के लिए वह रूप धारण करता हूँ - यह देख, मैं अखण्ड सच्चिदानन्द में लीन होता हूँ ।' यह कहकर वह रूप अन्तर्धान हो जाता है ।
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"पुराण के मत से चाण्डाल को भी अगर भक्ति हो, तो उसकी भी मुक्ति होगी । इस मत के अनुसार नाम लेने से ही काम होता है । योग, तन्त्र, मन्त्र, इनकी कोई आवश्यकता नहीं है ।
“वेद का मत अलग है । ब्राह्मण हुए बिना मुक्ति नहीं होती । और मन्त्रों का यथार्थ उच्चारण अगर नहीं होता तो पूजा का ग्रहण ही नहीं होता । याग, यज्ञ, मन्त्र, तन्त्र, इन सब का अनुष्ठान यथाविधि करना चाहिए ।
"कलिकाल में वेदोक्त कर्मों के करने का समय कहाँ है ? इसीलिए कलि में नारदीय भक्ति चाहिए ।
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"कर्मयोग बड़ा कठिन है । निष्काम कर्म अगर न कर सके तो वह बन्धन का ही कारण होता है । इस पर आजकल प्राण अन्नगत हो रहे हैं । अतएव विधिवत् सब कर्मों के करने का समय नहीं रहा । दशमूल-पाचन अगर रोगी को खिलाया जाता है तो इधर उसके प्राण ही नहीं रहते, अतएव चाहिए फीवर-मिक्श्चर ।
"नारदीय भक्ति है - उनके नाम और गुणों का कीर्तन करना ।
"कालिकाल के लिए कर्मयोग ठीक नहीं, भक्तियोग ही ठीक है ।
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“संसार में कर्मों का भोग जितने दिनों के लिए है, उतने दिन तक भोग करो, परन्तु भक्ति और अनुराग चाहिए । उनके नाम और गुणों का कीर्तन करने पर कर्मों का क्षय हो जाता है ।
"सदा ही कर्म नहीं करते रहना पड़ता । उन पर जितनी ही शुद्धा भक्ति और प्रीति होगी, कर्म उतने ही घटते जायेंगे । उन्हें प्राप्त करने पर कर्मों का त्याग हो जाता है । गृहस्थ की स्त्री को जब गर्भ होता है तो उसकी सास उसका काम घटा देती है । लड़का होने पर उसे काम नहीं करना पड़ता ।"
(क्रमशः)