सोमवार, 28 फ़रवरी 2022

*२२. बेसास कौ अंग ~ ६१/६४*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२२. बेसास कौ अंग ~ ६१/६४*
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जांनराइ जगदीस की, मैं बलिहारी जाऊँ ।
कहि जगजीवन बड़ै दर७, चाहूँ सो पाउँ ॥६१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मैं उन सबके अधिपति परमात्मा जगदीश की बलिहारी जाऊँ । उनके घर का ही सबसे बड़ा दर है जहां से जो चाहे पा सकते हैं ।
(७. बड़ै दर=सम्पत्तिशाली घर का द्वार)
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नांम मिलावै रांम कूं, जे गहि द्रिढ़ वेसास ।
हरि भजि सब जन ऊधरैं, सु कहि जगजीवनदास ॥६२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि नाम स्मरण ही प्रभु दर्शन के योग्य बनाता है । बस दृढ विश्वास होना चाहिए । संत कहते हैं कि हरि स्मरण से सब तिर जाते हैं ।
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कहि जगजीवन रांमजी, पारस नांम निवास ।
पारस लौह कंचन करै, प्रेम भगति वेसास ॥६३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु का नाम पारस जैसा है । वह.नाम रुपी पारस प्रेम भक्ति और विश्वास होने पर हर जीवात्मा को कंचन कर देता है श्रेष्ठ बना देता है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, कामधेनु करतार ।
अखंड धुनि अमित स्त्रवै, बछड़ा जीवै लार ॥६४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सबका कर्ता जो प्रभु हैं वे कामधेनु सदृश सब प्रकार से पूरणहार हैं उनसे सभी जीवों के लिये को अमृत स्त्रतवित होता रहता है । और जीव रुपी बछड़ा तृप्त होता रहता है ।
(क्रमशः)

*पृथ्वीराज की पद्य टीका*

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*दीन गरीबी गहि रह्या, गरवा गुरु गम्भीर ।*
*सूक्ष्म शीतल सुरति मति, सहज दया गुरु धीर ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*पृथ्वीराज की पद्य टीका*
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*इन्दव –*
*संग चल्यो गुरु के पृथ्वीराज जु,*
*प्रीति घणी रण छोड़ हि पाऊं ।*
*बात सुनि सु दिवान गयो निशि,*
*भक्ति हुई गुरु संतन गांऊं ॥*
*लेहु विचार करो तव भाव सु,*
*संग न लेवत बात दुराऊं ।*
*प्रात भये नृप आवत चाहत,*
*आप कही रहिये सुख पाऊं ॥२०४॥*
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आँमेर नरेश पृथ्वीराज अपने गुरु कृष्णदास जी पयहारी के साथ द्वारिका जाने को तैयार हो रहे थे । उनके मन में रणछोड़ जी के दर्शन करने का अति प्रेम था ।
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जब प्रधान मन्त्री ने यह सुना कि राजा गुरुजी के साथ द्वारिका जाने को तैयार हो रहे हैं, तब वह रात्रि को कृष्णदास पयहारी के पास आया और प्रार्थना की कि भगवन् ! बड़ी कठिनता से गाँव में गुरु और सन्तों की भक्ति उत्पन्न हुई है । यदि राजा आपके साथ चले जायेंगे तो, लोगों में उत्पन्न हुई भक्ति स्थिर नहीं रहेगी कारण – अभी दृढ़ नहीं हुई है ।
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आप स्वयं इस का विचार करलें फिर आपकी इच्छा हो वैसा ही करना । कृष्णदासजी पयहारी ने कहा – तुम ठीक कहते हो, मैं राजा को साथ नहीं ले जाऊंगा और तुम्हारी बात को भी छिपाऊंगा । राजा को नहीं कहूंगा कि मंत्री आपका मेरे साथ द्वारिका जाना अच्छा नहीं मानता ।
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प्रातःकाल होते ही राजा द्वारिका जाने की इच्छा से गुरुजी के पास आये किन्तु गुरुजी ने कहा – “तुम यहां ही रहो, इसी से मुझे सुख प्राप्त होगा ।”
(क्रमशः)

रविवार, 27 फ़रवरी 2022

= ८८ =

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*दादू भुरकी राम है, शब्द कहैं गुरु ज्ञान ।*
*तिन शब्दों मन मोहिया, उनमन लागा ध्यान ॥*
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साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- *॥गुरु भक्ति॥*
###########
*॥ गुरु भक्त गुरु वचनों को गुरु सामान ही मानते हैं ॥*
सुगुरु भक्त गुरु वचन को, मानत गुरुहि समान ।
दादूपंथी सिख तथा, करते अति सन्मान ॥२३७॥
दृष्टांत कथा - दादूपंथी और सिख आदि बहुत से सम्प्रदाय अपने आचार्यों की बाणी को गुरु रूप मान कर पूजा करते हैं, यह अति प्रसिद्ध है । इससे सूचित होता है कि गुरु भक्त गुरु के बचनों को गुरु रूप ही मानते हैं ।

= ८७ =

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*दादू तो पीव पाइये, कर मंझे विलाप ।*
*सुनि है कबहुँ चित्त धरि, परगट होवै आप ॥*
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साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- *॥गुरु भक्ति॥*
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*॥ गुरु भक्त गुरु के दर्शन करे बिना वैकुण्ठ भी न जाय ॥*
सुगुरु भक्त गुरु दर्श बिन, भगवत् धाम न जाय । 
दर्शन दरिया का किया, मनसाराम ने आय ॥२३६॥
दृष्टांत कथा - मारवाड़ के सांजू ग्राम के भक्त मनसाराम को लेजाने के लिये वैकुण्ठ से विमान आया । मनसाराम गुरु भक्त थे इसलिये उन्होंने कहा - 'रेण नगर में मेरे गुरु दरियावजी हैं, उनके दर्शन करा कर ले चलो तो चलूं ।' भगवत् दूतों ने स्वीकार किया और विमान रेण ग्राम पर आया । उस समय सत्संग हो रहा था । 
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आकाश से ही दर्शन करके मनसाराम ने कहा - 'राम महाराज ।' फिर विमान चल पड़ा । सत्संगियों ने दरियावजी से पूछा - 'यह आकाश से राम महाराज किसने किया ।' दरियावजी ने सब कथा सुना दी । इससे ज्ञात होता है कि गुरु भक्त गुरु दर्शन करे बिना वैकुण्ठ भी नहीं जाना चाहता ।  

ईश्वर का मातृभाव । आद्याशक्ति

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*दादू मैं नाहीं तब एक है, मैं आई तब दोइ ।*
*मैं तैं पड़दा मिट गया, तब ज्यूं था त्यूं ही होइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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(९)पूर्ण ज्ञान के बाद अभेद । ईश्वर का मातृभाव । आद्याशक्ति
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भोजन के बाद पान खाते हुए सब लोग घर लौट रहे हैं । श्रीरामकृष्ण लौटने के पहले विजय से एकान्त में बैठकर बातचीत कर रहे हैं । वहाँ मास्टर भी हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - तुमने उनसे 'माँ माँ' कहकर प्रार्थना की थी । यह बहुत अच्छा है । कहावत है, माँ की चाह बाप से अधिक होती है । माँ पर अपना बस है, बाप पर नहीं । त्रैलोक्य की माँ की जमींदारी से गाड़ियों में रुपया लदकर आता था । हाथ में लाठियाँ लिये कितने ही लाल पगड़ीवाले सिपाही साथ रहते थे । त्रैलोक्य रास्ते में आदमियों को लिये हुए खड़ा रहता था, जबरन सब रुपया ले लेता था । माँ के धन पर अपना पूरा जोर है । कहते हैं, लड़के के नाम पर माँ का दावा भी नहीं होता ।
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विजय - ब्रह्म अगर माँ हैं, तो वे साकार हैं या निराकार ?
श्रीरामकृष्ण - जो ब्रह्म है, वही काली भी हैं । जब निष्क्रिय हैं, तब उन्हें ब्रह्म कहते हैं । जब सृष्टि, स्थिति, प्रलय, यह सब काम करते हैं, तब उन्हें शक्ति कहते हैं । स्थिर जल से ब्रह्म की उपमा हो सकती है । पानी जब हिलता-डुलता है, तब वह शक्ति की - काली की उपमा है ।
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काली वे हैं, जो महाकाल के साथ रमण करती हैं । काली साकार भी हैं और निराकार भी । तुम लोग अगर निराकार पर विश्वास करते हो, तो काली का उसी रूप में ध्यान करो । एक को मजबूती से पकड़कर उनकी चिन्ता करने से वे ही समझा देती हैं कि वे कैसी हैं ।
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श्यामपुकुर पहुँचने पर तेलीपाड़ा भी जान लोगे । तब तुम समझ जाओगे कि ईश्वर है (अस्तिमात्रम्) । यही नहीं, बल्कि वे तुम्हारे पास आकर तुमसे बोलेंगे, बातचीत करेंगे - जैसे मैं तुमसे बोल रहा हूँ । विश्वास करो, सब हो जायगा ।
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एक बात और है, तुम्हें अगर निराकार पर विश्वास हो, तो उसी विश्वास को दृढ़ करो । परन्तु कट्टर मत बनो । उनके सम्बन्ध में जोर देकर ऐसा न कहना कि वे यह हो सकते हैं और यह नहीं । कहो - 'मेरा विश्वास है, वे निराकार हैं, वे और क्या क्या हो सकते हैं, यह तो वे ही जानें ।
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मैं नहीं जानता, न मेरी समझ में यह बात आती है ।’ आदमी की छटाक भर बुद्धि से क्या ईश्वर की बात समझी जा सकती है ? सेर भर के लोटे में क्या चार सेर दूध समाता है ? वे अगर कृपा करके कभी दर्शन दें और समझायें तो समझ में आता है, नहीं तो नहीं ।
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"जो ब्रह्म है, वही शक्ति है, वही माँ हैं । रामप्रसाद कहते हैं, मैं जिस सत्य की तलाश कर रहा हूँ वे ब्रह्म है, उन्हें ही मैं माँ कहकर पुकारता हूँ । इसी बात को रामप्रसाद ने एक जगह और दुहराया है, काली को ब्रह्म जानकर मैंने धर्म और अधर्म दोनों का त्याग कर दिया है ।
"अधर्म है असत् कर्म । धर्म है वैधी कर्म - इतना दान करना होगा इतने ब्राह्मणों को खिलाना है, यह सब धर्म है ।”
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विजय - धर्म और अधर्म का त्याग करने पर बाकी क्या रहता है ?
श्रीरामकृष्ण - शुद्धा भक्ति । मैंने माँ से कहा था, 'माँ यह लो अपना धर्म, यह लो अपना अधर्म, मुझे शुद्धा भक्ति दो । यह लो अपना पुण्य और यह लो अपना पाप, मुझे शुद्धा भक्ति दो । यह लो अपना ज्ञान और यह लो अपना अज्ञान, मुझे शुद्धा भक्ति दो ।' देखो, ज्ञान भी मैंने नहीं चाहा । मैंने लोकसम्मान भी नहीं चाहा । धर्माधर्म का त्याग करने पर शुद्धा भक्ति - अमला, निष्काम, अहेतुकी भक्ति - बाकी रहती है ।
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ब्राह्म भक्त - उनमें और उनकी शक्ति में क्या भेद है ?
श्रीरामकृष्ण - पूर्ण ज्ञान के बाद दोनों अभेद हैं । जैसे मणि की ज्योति और मणि अभेद हैं, मणि की ज्योति की चिन्ता करने से ही मणि की चिन्ता की जाती है । दूध और दूध की धवलता जैसे अभेद है, एक को सोचिये तो दूसरे को भी सोचना पड़ता है; परन्तु यह अभेद-ज्ञान पूर्ण ज्ञान के बिना हुए नहीं होता ।
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पूर्ण ज्ञान से समाधि होती है । तब मनुष्य चौबीस तत्वों को पार कर जाता है इसलिए अहंतत्त्व नहीं रह जाता । समाधि में कैसा अनुभव होता है, यह कहा नहीं जा सकता । उतरकर कुछ आभास मिलता है, वही कहा जा सकता है । समाधि छूटने के बाद जब मैं ‘ॐ ॐ’ कहता हूँ, तब समझो कि मैं कम से कम सौ हाथ नीचे उतर आया हूँ । ब्रह्म वेद और विधियों से परे हैं, वे वाणी में नहीं आते । वहाँ ‘मैं तुम’ नहीं हैं ।
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"जब तक 'मैं' और 'तुम' ये भाव हैं, तब 'मैं प्रार्थना कर रहा हूँ या ध्यान कर रहा हूँ’ यह भी ज्ञान है और 'तुम(ईश्वर) प्रार्थना सुनते हो यह भी ज्ञान है; और उस समय ईश्वर के व्यक्तित्व का भी बोध है । तुम प्रभु हो, मैं दास, तुम पूर्ण हो, मैं अंश; तुम माँ हो, मैं पुत्र, यह बोध भी रहेगा । यह भेद-बोध है - मैं एक अलग हूँ और तुम अलग ।
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यह बोध वे ही कराते हैं; इसीलिए 'स्त्री' और 'पुरुष', 'उजाले' और 'अँधेरे' का ज्ञान है । जब तक यह भेद-बोध है, तब तक शक्ति को मानना पड़ेगा । उन्होंने हमारे भीतर, 'मैं' रख दिया है । चाहे हजार विचार करो, परन्तु 'मैं' नहीं दूर होता । जब तक 'मैं' है तब तक ईश्वर साकार रूप में ही मिलते हैं ।
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“इसलिए जब तक 'मैं' है, भेद-बुद्धि है, तब तक ब्रह्म निर्गुण है, यह कहने का अधिकार नहीं; तब तक सगुण ब्रह्म ही मानना होगा । इसी सगुण ब्रह्म को वेदों, पुराणों और तन्त्रों में काली या आद्याशक्ति कहा गया है ।”
(क्रमशः)

*खेल का अंग १८२/मुर प्रसंगी का अंग १८३*

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*अरस परस मिल खेलिये, तब सुख आनंद होइ ।*
*तन मन मंगल चहुँ दिशि भये, दादू देखे सोइ ॥*
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टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*खेल का अंग १८२/मुर प्रसंगी का अंग १८३*
इस अंग में संसार रूप खेल का परिचय दे रहे हैं ~
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रज्जब अरवाह्यों१ रमण रुचि, जोय२ जुगल३ जग मेल ।
प्राण४ पिंड ब्रह्माण्ड मधि, खलक५ सु खालिक६ खेल ॥१॥
जगत के प्राणियों४ के शरीर में और ब्रह्माण्ड में जीवात्माओं१ की दो३ मिलकर रमण की जो२ रुचि है, वही इस संसार५ में सृष्टिकर्त्ता प्रभु६ का खेल है ।
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खेल हि मेला खलक१ सौ, खेल हि खलिक२ मेल ।
रज्जब रीझ्या३ देख कर, विविध भांति का खेल ॥२॥
जगत१ के प्राणियों से मिलने भी खेल है और प्रभु२ से मिलना भी खेल है अत: नाना प्रकार का खेल देखकर उस खेल रचने वाले प्रभु के हम अनुरक्त३ हुये हैं ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित खेल का अंग १८२ समाप्तः ॥सा. ५२६१॥
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*पारब्रह्म कह्या प्राण सौं, प्राण कह्या घट सोइ ।*
*दादू घट सब सौं कह्या, विष अमृत गुण दोइ ॥*
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टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*मुर प्रसंगी का अंग १८३*
इस अंग में मुर(तीन) प्रसंग एक पद्य में बता रहे हैं ~
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रज्जब द्वे द्वन्द्वर१ मिलत, उपजै विघ्न रु वाद ।
नर नारी संयोग सुख, वक्ता श्रौतै२ स्वाद३ ॥१॥
जब दो झगड़ालु१ मिलते हैं तब विवाद द्वारा उत्पन्न होता है । नर नारी का संयोग होता है तब विषय सुख मिलता है । वक्ता श्रोता२ मिलते हैं तब हरि कथा का आनन्द३ मिलता है ।
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रज्जब राज हुं ॠद्धि१ बल, सिद्धों के बल सिद्धि ।
साधू के बल सांइयाँ, ये ही तेज त्रिविद्धि२ ॥२॥
राजाओं का बल ऐश्वर्य१ है । सिद्धों का बल सिद्धि है । संतों का बल परमात्मा है । ये ही तीन-प्रकार२ का तेज रूप बल है ।
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रज्जब जत में जोग बस, धर्म दया अस्थान ।
नाम ठाम निर्गुण रहे, मन बच कर्म करि मान ॥३॥
ब्रह्मचर्य सब योग का स्थान है । दया सब धर्म का स्थान है । नाम रूप स्थान निर्गुण ब्रह्म का है यह बात मन वचन कर्म से सत्य ही मानो ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित मुर प्रसंगी का अंग १८३ समाप्तः ॥सा. ५२६४॥
(क्रमशः)

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१६४

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१६४)*
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*१६४. साधु लक्षण । दीपचन्दी*
*सद्गति साधवा रे, सन्मुख सिरजनहार ।*
*भौजल आप तिरैं ते तारैं, प्राण उधारनहार ॥टेक॥*
*पूरण ब्रह्म राम रंग राते, निर्मल नाम अधार ।*
*सुख संतोष सदा सत संजम, मति गति वार न पार ॥१॥*
*जुग जुग राते, जुग जुग माते, जुग जुग संगति सार ।*
*जुग जुग मेला, जुग जुग जीवन, जुग जुग ज्ञान विचार ॥२॥*
*सकल शिरोमणि सब सुख दाता, दुर्लभ इहि संसार ।*
*दादू हंस रहैं सुख सागर, आये पर उपकार ॥३॥*
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भा०दी०- सल्लक्षणमाह श्री दादूदेवः ।
सद्भिरेव सद्गतिर्भवति । यतो हि तेषां मनो ब्रह्मनिष्ठं भवति । सदा प्रभुं स्मरन्तस्तमेव सर्वत्र पश्यन्ति । संसारविषयवारिधे: पारं गत्वाऽन्यानपि तारयन्ति । संसारोद्धारार्थमेव तेषामागमनं भवति । पूर्णे ब्रह्मणि समाहिता: सततं प्रभुमेव ध्यायन्तस्तमेवाश्रयन्ति । सदैव संयमधना: संतुष्टचेता: सुखिनो भवन्ति । तेषां बुद्धेर्न कश्चिदवधिर्वर्तते । अतस्तेषां बुद्धि प्रभुसपर्यासंलग्ना भवति । तेषां संगेनान्येषां परब्रह्म- परमात्मनोज्ञानमुपलभ्यते । ते महात्मानः प्रभुप्रेमासक्ताः सर्वेषां जीवनाधारभूता भवन्ति । सर्वसुखदा: सर्वप्राणिनां हितप्रदा: सर्वशिरोमणयो भवन्ति । एतादृशाः सन्त: संसारेऽस्मिन् सुदुर्लभा भवन्ति, ते तु हंसायमानाः सुखसरोवरे ब्रह्मण्येव विहरन्ति । कदाचिदेव परोपकाराय संसारेऽवतरन्ति ।
उक्तं हि श्रीमद्भागवते-
कृपालुरकृतद्रोहस्तितिक्षुः सर्वदेहिनां ।
सत्यसारोऽनवद्यात्मा समः सर्वोपकारकः॥
कामैरहतधीर्दान्तो मिर्दु शुचिरकिञ्चनः ।
अनीहो मितभुक् शान्त: स्थिरो मच्छरणो मुनिः ॥
महाभारतेऽप्युक्तम्-
मोहजालस्य योनिर्हि मूढेरेव समागमः ।
अहन्यहनि धर्मस्य योनिः साधुसमागमः ॥
येषां त्रीण्यवदातानि विद्या योनिश्च कर्म च ।
तान् सेवेत्तै: समास्या हि शास्त्रेभ्योऽपि गरीयसी ॥
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सन्तों से ही सद्गति प्राप्त होती है क्योंकि उनका मन सदा ब्रह्मनिष्ठ रहता है और वे प्रभु को भजते हुए प्रभु को ही सर्वत्र देखते हैं । संसार-समुद्र के विषय-जल को स्वयं पार करके दूसरों को भी पार कर देते हैं, क्योंकि उनका संसार में परोपकार के लिये ही आगमन होता है । पूर्णब्रह्म में अनुरक्त होकर उनके नाम का ही आश्रय लेते हैं । वे सदा संयमी, संतोषी और सुखी रहते हैं ।
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उनकी बुद्धि का कोई अन्त नहीं है, क्योंकि वह अपार और अनन्त हैं । उनकी संगति करने से परब्रह्म परमात्मा का ज्ञान भी साधक को प्राप्त हो जाता है । वे सदा प्रभु-प्रेम में मस्त रहते हुए सबके जीवन-स्वरूप बन जाते हैं । सब को सुख देने वाले, सबके शिरोमणि, सन्त इस संसार में दुर्लभ ही मिलते हैं । क्योंकि वे तो सुख सागर जो ब्रह्म है, उसमें हंसों की तरह निवास करते रहते हैं । कभी-कभी संसार में परोपकार के लिये अवतरित होते हैं ।
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श्रीभागवत में –
हे प्यारे उद्धव ! मेरा भक्त कृपालु होता है । किसी भी प्राणी से बैर-भाव नहीं रखता । घोर से घोर दुःख में भी प्रसन्नता से रहता है । सत्य ही उसके जीवन का सार है । उनके मन में पाप-वासना नहीं आती । वह समदर्शी सबका भला करने वाला होता है । उसकी बुद्धि वासनाओं से दूषित नहीं होती । वह संयमी, मधुर स्वभाव वाला और पवित्र होता है । वह संग्रह से दूर रहता है । किसी वस्तु की प्राप्ति के लिये चेष्टा नहीं करता । परिमित भोजन करता है और शान्त रहता है । उसकी बुद्धि शान्त स्थिर रहती है तथा मेरा ही भरोसा करता है और सदा आत्मचिन्तन में लगा रहा है ।
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महाभारत में –
मूर्खों का संग मोहजाल को पैदा करता है और साधु का संग सदा धर्म में प्रवृत्ति कराने वाला होता है । जिनकी विद्या, कुल और कर्म ये तीनों शुद्ध हों, ऐसे साधु पुरुषों की सेवा में लगा रहना उनके साथ उठना-बैठना शास्त्रों के स्वाध्याय से भी श्रेष्ठ है ।
(क्रमशः)

शनिवार, 26 फ़रवरी 2022

*२२. बेसास कौ अंग ~ ५७/६०*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*२२. बेसास कौ अंग ~ ५७/६०*
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कहि जगजीवन नाउँ रत, सात द्वीप४ नौ खण्ड५ ।
पिव परचै पावन भया, इकईसौं ब्रह्मांड६ ॥५७॥
{४.सात द्वीप=१. जम्बू द्वीप, २. शाक द्वीप, ३. सूक्ष्म द्वीप, ४. क्रौच्च द्वीप, ५. गोमय द्वीप, ६. श्वेत द्वीप, एवं ७. प्लक्ष द्वीप । (द्र०=सि० सि० प०, पृ० ४८)}
{५.नौ खण्ड=१. भारतखण्ड, २.कर्परखण्ड, ३. काश्मीरखण्ड, ४. श्रीखण्ड, ५. शंखखण्ड, ६. एकपादखण्ड, ७. गान्धारखण्ड, ८.कैवर्तखण्ड, एवं ९. महामेरुखण्ड ( द्र०=सि० सि० प०, पृ० ४८)}
{६.इक्कीस ब्रह्माण्ड=१. भूलोक, २. भुवर्लोक, ४. महर्लोक, ६. जनलोक, ७. तपोलोक, ८. सत्यलोक, ९. विष्णुलोक, १०. रुद्रलोक, ११. ईश्वरलोक, १२. नीलकण्ठलोक, १३. शिवलोक, १४. भैरवलोक, १५. अनादिलोक, १६. कुललोक, १७. अकुलेशलोक, १८. परब्रह्मलोक, १९. परापरलोक, २०. शक्ति=लोक एवं सप्त पातालों का सम्मिलित २१वाँ पाताल लोक होता है । (द्र०=सि० सि० प०, पृ० ४४)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो स्मरण में रत है उन्हें कुछ भी कठिन नहीं हैं । सात द्वीप नो खण्ड व इक्कीस लोक जो सभी उपर्युक्त वर्णित है में वें परमात्मा से व परमात्मा स्वयं वायु सदृश सदा उनसे परिचित रहते है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, माँगण मरण समांन ।
मरण भलो माँगण बुरो, रतन गमावै ग्यांन ॥५८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि याचना मृत्यु तुल्य है । मांगने से तो मृत्यु भली है मांगने से आत्म रुपी हीरा हत होता है । हमारी याचना प्रभु से हो भक्ति की हो संसार से संसारिक भोगों की नहीं हो ।
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कहि जगजीवन रांमजी, एक तुम्हारी आस ।
जगजीवन की जीव थैं, दूरि करौ भ्रम पास ॥५९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि है प्रभु सिर्फ आपसे ही आशा है और आप ही इस जीव से भ्रम रुपी बंधन दूर कर सकते हैं ।
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जाग्रित कौं ग्यांन जस्यां, तस्य नांद निरंजनं ।
जगजीवन हरि रतं, रांम अंजन नित मंजनं ॥६०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो जाग्रत है प्रभु के प्रति सचेत है उन्हें अनहद सुनाई देता है । वे प्रभु में मग्न राम नाम का काजल लगा नित्य राम नाम के स्नान से सरोबार रहते हैं ।
(क्रमशः)

*पृथ्वीराज कछवाहा*

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*दादू धरती ह्वै रहै, तज कूड़ कपट अहंकार ।*
*सांई कारण सिर सहै, ताको प्रत्यक्ष सिरजनहार ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ जीवित मृतक का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
.
*पृथ्वीराज कछवाहा*
.
*मूल छप्पय –*
*कूर्म कुल दुती वलि विक्रम,*
*निबह्यो पन पृथ्वीराज को ॥*
*दया द्वारिकानाथ, करै तो दर्शन जा जे ।*
*परे कुदरती चक्र, आय आँमेर निवाजे ॥*
*घर घरनी बाईस, आप राजा ऋतु गामी ।*
*सुत उपजे षट् दोय,*
*भये नव-खंड मधि नामी ॥*
*हरि भक्तन को भक्त हो,*
*राघव बड़ कुल काज को ।*
*कूर्म कुल दुती वलि विक्रम,*
*निबह्यो पन पृथ्वीराज को ॥२१८॥*
.
आँमेर नरेश पृथ्वीराज जी कछवाहा भक्ति रूप बल में दूसरे बलि के समान थे ।
.
आपके मन में था कि द्वारिकानाथ दया करें तो उनका दर्शन करने द्वारिका जाऊं किन्तु स्वाभाविक ही उनकी भुजाओं में चक्रादिक की छाप आ लगी और द्वारिकानाथजी ने आँमेर में आकर ही पृथ्वीराज को दर्शन देने की कृपा की ।
.
आपके घर में बाईस रानियाँ थीं किन्तु राजा स्वयं ऋतु गामी थे, विषयी नहीं थे । आपके छः और दो आठ अथवा षट् दोय-बारह पुत्र उत्पन्न हुये थे । वे नव-खंड में प्रसिद्ध थे ।
.
आप हरि भक्तों के भक्त हुए हैं । आपका कुल भी बड़ा था और काम भी बड़े थे । यहां पृथ्वीराज को कूर्म वंशी कहा है । कुछ लोग कहते हैं – रामजी के पुत्र कुश के वंश के क्षत्रिय कछवाहा कहलाते हैं ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2022

= ८६ =

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*दादू औगुण गुण कर माने गुरु के,*
*सोई शिष्य सुजाण ।*
*सतगुरु औगुण क्यों करै, समझै सोई सयाण ॥*
==================
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
.
श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- *॥गुरु भक्ति॥*
###########
*॥ गुरु भक्त शिष्य पर गुरु कृपा ॥*
भक्त शिष्य पर सुगुरु की, कृपासु देखि जाय ।
विरजानंद ने प्रेम से लीना हृदय लगाय ॥२३४॥
दृष्टांत कथा - आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्दजी अपने गुरु विरजानन्दजी की सप्रेम सेवा करते थे । विरजानन्दजी सदा यमुना जल से स्नान किया करते थे । उनके लिये दयानन्दजी प्रति दिन प्रात: ही बारह घड़े यमुना जल के ले आते थे । फिर आश्रम में झाडू अदि सेवा भी करते थे । एक दिन झाडू देते समय कहीं पर थोड़ा-सा कूड़ा रह गया और उस पर विरजानन्दजी का पैर जा पड़ा ।
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इस पर उन्होंने दयानंदजी को डंडे से पीटना आरम्भ किया । स्वामी दयानन्दजी पहले तो कुछ भी न बोले फिर बहुत पीटने पर बोले - 'गुरुदेव ! अब आप मुझे मत मारिये, आपके हाथ दुखने लग जांएँगे ।' यह कह कर गुरु के हाथ सहलाने लगे । शिष्य की ऐसी भक्ति देख कर गुरु प्रसन्न हो गये और स्वामी दयानन्दजी को गले लगा लिया । इससे सूचित होता है कि गुरु भक्त शिष्य पर ही गुरु कृपा होती है ।

= ८५ =

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*तन मन धन करूँ वारनैं, प्रदक्षिणा दीजे ।*
*शीश हमारा जीव ले, नौछावर कीजे ॥*
*भाव भक्ति कर प्रीति सौं, प्रेम रस पीजे ।*
*सेवा वंदन आरती, यहु लाहा लीजे ॥*
==================
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- *॥गुरु भक्ति॥*
###########
*॥ गुरु भक्त गुरु सेवा में प्राण भी देते हैं ॥*
सुगुरु भक्त गुरु सेव में, निजी प्राण भी देय ।
पिता मरा सुत शीघ्र तर, आया गुरु शव लेय ॥२३५॥
दृष्टांत कथा - बादशाह ने गुरु तेगबहादुर के शव का अन्त्येष्ठी सत्कार करने से रोक दिया । चौराहे पर जहां वध किया था वहां ही वह पड़ा २ सड़ेगा । उसो जो उठायेगा उसे प्राणान्त दण्ड दिया जायगा । गुरु गोविन्दसिंह उस समय सोलह वर्ष के थे । पिता के शरीर का संस्कार जैसे भी हो करना है । यह निश्चय करके वे देहली जा रहे थे ।
.
मार्ग में एक निर्धन गाड़ी वाले सिख ने उनको कहा - 'आप देहली न जाँय । हम पिता पुत्र दोनों जाते हैं । गुरु गोविन्दसिंह को नगर से कई मील दूर छोड़ करके वे दोनों गुरु के शव के पास पहुँचे । शव में दुर्गन्ध आने से वहां के नियुक्त सैनिक दूर हट गये थे । पिता ने पुत्र से कहा - 'हम दोनों में से एक को प्राण त्यागने होंगे क्योंकि शव के स्थान पर दूसरा शव नहीं होने से सैनिकों की दृष्टि पड़ते ही वे सावधान होकर गुरु गोविक्द्सिंह की खोज में निकल पड़ेंगे । तुम सबल हो, गुरु के देह को ले जा सकते हो ।'
.
यह कहकर पिता ने अपनी छाती में कटार मार ली और गिर पड़ा । पिता के शव को गुरु के शव के स्थान पर रखकर, गुरु के शव को लेकर चल दिया । इससे सूचित होता है कि गुरु भक्त सेवा में प्राण तक भी दे देते हैं ।

*ब्राह्मसमाज में व्याख्यान । ईश्वर ही गुरु हैं ।*

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*मुझ ही मैं मेरा धणी, पड़दा खोलि दिखाइ ।*
*आत्म सौं परमात्मा, प्रकट आण मिलाइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)*
===============
साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(८)ब्राह्मसमाज में व्याख्यान । ईश्वर ही गुरु हैं ।*
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विजय - आप कृपा कीजिये, तभी मैं वेदी पर से कुछ कह सकूँगा ।
श्रीरामकृष्ण - अभिमान के जाने से ही हुआ । मैं लेक्चर दे रहा हूँ, तुम सुनो, इस अभिमान के न रहने से ही हुआ । अहंकार ज्ञान से होता है या अज्ञान से ? जो निरहंकार है, ज्ञान उसे ही होता है । नीची जमीन में ही वर्षा का पानी ठहरता है, ऊँची जमीन से बह जाता है ।
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"जब तक अहंकार रहता है, तब तक ज्ञान नहीं होता और न मुक्ति ही होती है । इस संसार में बार बार आना पड़ता है । बछड़ा 'हम्बा हम्बा'(हम-हम) करता है इसलिए उसे इतना कष्ट भोगना पड़ता है । कसाई काटते हैं ।
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चमड़े से जूते बनाते हैं, और जंगी ढोल मढ़े जाते हैं, वह ढोल भी न जाने कितना पीटा जाता है, तकलीफ की हद हो जाती है । अन्त में आँतों से ताँत बनायी जाती है । उस ताँत से जब धुनिये का धनुहा बनता है और उसके हाथ में धुनकते समय जब ताँत 'तूँ-तूँ' करती है तब कहीं निस्तार होता है, तब वह 'हम्बा-हम्बा' (हम-हम) नहीं बोलती, 'तूँ-तूँ' करती है; अर्थात् 'हे ईश्वर, तुम कर्ता हो, मैं अकर्ता; तुम यन्त्री हो, मैं यन्त्र; तुम्हीं सब कुछ हो ।'
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"गुरु, बाबा और मालिक, इन तीन बातों से मेरी देह में काँटे चुभते हैं । मैं उनका बच्चा हूँ, सदा ही बालक हूँ, मैं क्यों 'बाबा' होने लगा ? ईश्वर ही मालिक हैं, वे यन्त्री हैं; मैं यन्त्र हूँ ।
.
"और कोई मुझे गुरु कहता है, तो मैं कहता हूँ 'चल साला, गुरु क्या है रे ?' एक सच्चिदानन्द को छोड़ और गुरु कोई नहीं है, उनके बिना कोई उपाय नहीं है । एकमात्र वे ही भवपार ले जानेवाले हैं । (विजय से) आचार्यगिरी बहुत मुश्किल बात है । उससे अपनी हानि होती है ।
.
दस आदमियों को आप ही आप मानते हुए देखकर वह पैर के ऊपर पैर रखकर कहता है, 'मैं बोलता हूँ, तुम सुनो ।' ऐसा भाव बड़ा बुरा है । उसके लिए बस वही हद है । वही जरासा मान; अधिक से अधिक लोग कहेंगे - 'अहा, विजय बाबू बहुत अच्छा बोले, वे बड़े ज्ञानी आदमी हैं ।'
.
'मैं कह रहा हूँ,' ऐसा विचार न लाना । मैं माँ से कहता हूँ - माँ, तुम यन्त्री हो, मैं यन्त्र हूँ; जैसा कराती हो, वैसा ही करता हूँ, जैसा कहलाती हो, वैसा ही कहता हूँ ।'”
विजय - (विनयपूर्वक) - आप कहें तो मैं वेदी पर बैठ सकता हूँ ।
श्रीरामकृष्ण - (हँसते हुए) - मैं क्या कहूँ ? तुम्हीं ईश्वर से प्रार्थना करो । जैसे चन्दामामा सभी के मामा हैं वैसे वे भी सभी के हैं । अगर आन्तरिकता होगी तो भय की बात नहीं है ।
.
विजय के फिर विनय करने पर श्रीरामकृष्ण ने कहा, जाओ, जैसे पद्धति है, वैसा ही करो । उन पर आन्तरिक भक्ति के रहने ही से काम हो जायेगा ।' वेदी पर बैठकर विजय ब्राह्मसमाज की पद्धति के अनुसार उपासना करने लगे । प्रार्थना के समय विजय 'माँ-माँ’ कहकर पुकार रहे हैं । सुनकर सब लोग द्रवीभूत हो गये ।
.
उपासना के पश्चात् भक्तों की सेवा के लिए भोजन का आयोजन हो रहा है । दरियाँ, गलीचे, सब उठा लिये गये । वहाँ पत्तलें पड़ने लगीं । प्रबन्ध हो जाने पर भक्तों ने भोजन करने के लिए आसन ग्रहण किया । श्रीरामकृष्ण का भी आसन लगाया गया । वे भी बैठे और वेणीपाल की परोसी हुई पूड़ियाँ, कचौड़ियाँ, पापड़ और अनेक प्रकार की मिठाइयाँ, दही-खीर आदि ईश्वर को भोग लगाकर आनन्दपूर्वक भोजन करने लगे ।
(क्रमशः)

*प्रस्ताविक का अंग १८१(६.१०)*

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*पहली प्राण विचार कर, पीछे पग दीजे ।*
*आदि अंत गुण देख कर, दादू कुछ कीजे ॥*
===================
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*प्रस्ताविक का अंग १८१*
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नारायण निर्जर१ सहित, गुरु नराधिपति२ जोय७ ।
नुकतै३ रीझै रज्जबा, भृत४ कृत५ परि दत्त६ होय ॥६॥
देखो७ देवताओं१ के सहित भगवान नारायण गुरु, राजा२, समय पर दास४ के किंचित३ कार्य५ पर ही प्रसन्न होकर वर दाता६ हो जाता है ।
.
परवती पूछन नहीं, महादेव मुख मौन ।
आरति१ बिन उघड्या२ नहीं, आदम३ अहर४ सु भौन५ ॥७॥
पार्वती ने पहले अमर मन्त्र सम्बन्धी प्रश्न किया नहीं । अत: इस विषय में महादेव मुख से मौन ही रहे । व्याकुलता१ के बिना महादेव३ का होठ४ रूप भवन५ खुला२ ही नहीं । शुकदेव को प्राप्त होने का समय आया तब अमरनाथ में अमरमंत्र कहा गया । अत: समय पर ही सब होता है ।
.
रज्जब हँसना रोवना, चुप बोलना विचार ।
चार्यों नग समय भले, बिन अवसर सु निवार ॥८॥
हँसना, रोना, मौन, बोलना ये चारों नग विचार पूर्वक समय पर ही अच्छे लगते हैं । बिना समय इनका व्यवहार करना छोड़ दो ।
.
समय मीठा१ बोलना, समय सु मीठा चुप्प२ ।
उन्हालै३ छाया भली, ज्यों ब४ सियालै५ धूप्प६ ॥९॥
जैसे ग्रीष्म३ ॠतु में छाया अच्छी लगती है और शीत५ ॠतु में धूप६ अच्छी लगती है, वैसे४ ही समय पर बोलना प्रिय१ लगता है और समय पर मौन२ प्रिय लगता है ।
.
तरुवर पर त्यागी नहीं, त्रिविधि भाँति सो होय ।
कब हूं छाया कब हूं फल, कब हूं पतझड़ जोय१ ॥१०॥
वृक्ष के समान त्यागी कोई नहीं है । वह तीन प्रकार के समय में तीन भांति का त्याग करता है । देखो१, कभी छाया देता है, कभी फल देता है, और कभी पतझड़ द्वारा सब पत्ते दे देता है । अत: उक्त सब काम समय पर ही होते हैं ।
.
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित प्रस्ताविक का अंग १८१ समाप्तः ॥सा. ५२५९॥
(क्रमशः)

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१६३

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१६३)*
===============
*१६३. साधु साँई  हेरे । त्रिताल*
*कोई राम का राता रे, कोई प्रेम का माता रे ॥टेक॥*
*कोई मन को मारे रे, कोई तन को तारे रे, कोई आप उबारे रे ॥१॥*
*कोई जोग जुगंता रे, कोई मोक्ष मुकंता रे, कोई है भगवंता रे ॥२॥*
*कोई सद्गति सारा रे, कोई तारणहारा रे, कोई पीव का प्यारा रे ॥३॥*
*कोई पार को पाया रे, कोई मिलकर आया रे, कोई मन को भाया रे ॥४॥*
*कोई है बड़भागी रे, कोई सेज सुहागी रे, कोई है अनुरागी रे ॥५॥*
*कोई सब सुख दाता रे, कोई रूप विधाता रे, कोई अमृत खाता रे ॥६॥*
*कोई नूर पिछाणैं रे, कोई तेज कों जाणैं रे, कोई ज्योति बखाणैं रे ॥७॥*
*कोई साहिब जैसा रे, कोई सांई तैसा रे, कोई दादू ऐसा रे ॥८॥*
.
भा०दी०- कश्चित्साधको रामस्वरूपेऽनुरज्यति । कश्चित् रामप्रेमसागरे मज्जति । कश्चन योगसाधनैर्मनो निरुणद्धि । कश्चन संयमेनेन्द्रियाणां निरोधे यतते, कश्चितापञ्चनिवृत्तिं वाञ्छति । कश्चिद् योगयुक्तिभिरात्मानं द्रष्टुं चेष्टते । कश्चित्स्वयं मुक्तः सन् अन्यान् विमोचयितुं प्रवर्तते । कश्चन सत्य एव परमात्येति वदन् सत्यमेव बूते । कश्चन सद्गति-प्राप्तये चेष्टते । कश्चित्पारमार्थिकोपदेशेनान्यान् संसारसागरात्तारयितुं प्रयतते । कश्चन प्रभुप्रेमानुरक्तो भवति । कश्चन ज्ञानेन संसारान्तं गन्तुमीहते । कश्चन समाधौ भगवन्तं दृष्ट्वाऽभ्युतिष्ठति । कश्चित्साधको मन: प्रियाणि कर्माणि करोति । कश्चिद् भाग्यशाली हृदयशय्यायां परमात्मना सह रममाण: सौभाग्यसुखमनुभवति । कश्चित्प्रभुप्रेमासक्तस्तमेव चैकाग्रदृष्ट्या निर्निमेषं पश्यति । कश्चन समत्वेन सेवया सर्वान् सुखयति । कश्चन विधातुर्विलक्षणं कर्मदृष्ट्वाऽऽश्चर्यमनुभवति । कश्चन ज्ञानं लब्बा ज्ञानामृतं पिबति । कश्चिज्ञानमेव परामृशति । कश्चनेश्वरं साधनैः परिचेतुमिच्छति । कश्चित्तु ज्योतिरूपं प्रभुं वर्णयति । कश्चनात्मानं परमात्माऽभिन्नं जानाति । अहन्त्वीदृशोऽस्मि यत्किमपि साधनं नावलम्बे । कृतकृत्यत्वात् । स्वात्मन्येव सर्वात्मना कृतार्थत्वादितिभावः ।
उक्तं हि योगवासिष्ठे- 
अरमत तदनुस्वां प्राप्य सत्तां महात्मा
हापगतभयशोको भोगभूमावनीषु ।
सततमुदितजीवन्मुक्तरूपः प्रशान्तः
सकल इव शशाङ्को धूर्णिता पूर्णचेताः ।
.
कोई राम के स्वरूप में अनुरक्त है । कोई उसके प्रेम में मग्न है । कोई राम की प्राप्ति के लिये साधनों से मन को रोक रहे हैं । कोई इन्द्रिय संयम में लगा हुआ है । कोई राम के लिये प्रपंच से उपरत हो रहा है । कोई योग की युक्तियों से आत्मा को प्राप्त करने के लिये यत्न कर रहा है । 
.
कोई-कोई स्वयं मुक्त होकर दूसरों को मुक्त करने में लगे हैं । कोई कहता है कि सत्य ही परमात्मा है, अतः सत्य का पालन करना चाहिये । कोई अपनी सद्गति के लिये चेष्टा कर रहा है । कोई पारमार्थिक उपदेश के द्वारा दूसरों को तारने में लगे हुए हैं । कोई प्रभुप्रेमी बना है । कोई ज्ञान से संसार का अन्त जानना चाहता है । कोई समाधि में भगवान् को जानकर समाधि त्याग कर बैठा है । कोई तो अपने मन को प्रिय लगने वाले कर्म ही कर रहे हैं । 
.
कोई-कोई भाग्यशाली अपनी हृदय शय्या पर स्थित प्रभु के साथ सौभाग्य सुख का अनुभव कर रहे हैं । कोई प्रभु प्रेम में मस्त होकर उसी को देख रहे हैं । कितने ही समत्वभाव को प्राप्त होकर दूसरों की सेवा करके उनको सुखी बना रहे हैं । कोई विधाता के कार्यों को देखकर चकित हो रहा है अथवा स्वयं अपने को विधाता समझ रहा है । कोई ज्ञान प्राप्त करके उसके रस को पी रहा है । 
.
कोई-कोई ज्ञान के विचार में मग्न हो रहे हैं । कितने ही भोगभूमिरुपवन में विहार कर रहे हैं । साधनों द्वारा ईश्वर का परिचय प्राप्त करने में लगे हैं । कितने ही तेजःस्वरूप परमात्मा को भज रहे हैं । कोई-कोई उस तेजोमय ब्रह्म का वर्णन कर रहे हैं । कितने ही अपने को प्रभु स्वरूप मानते हैं । मैं तो ऐसा हूँ कि कोई भी साधन नहीं करता क्योंकि कृतकृत्य हूँ ।
.
योगवासिष्ठ में लिखा है कि –
भक्त आत्मज्ञान प्राप्त करने के बाद अपनी पारमार्थिक सत्ता को प्राप्त करके भयशोक से रहित हो जीवन्मुक्त दशा को प्राप्त हो गया और अपरिमित अपरिछिन्न अपने आनन्द के मद से उसका चित्त मस्त हो रहा है । जैसे संपूर्ण कलाओं से युक्त चन्द्रमा अपरिछिन्न आकाश में विहार करता हो । ऐसी ही स्थिति श्री दादूजी महाराज की होने से वे जीवन्मुक्त हैं ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2022

*२२. बेसास कौ अंग ~ ५३/५६*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२२. बेसास कौ अंग ~ ५३/५६*
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कहि जगजीवन प्रेम सौं, जिनकी भीगी देह ।
तिन कै नवनिधि नींपजै, दूधां बूडा७ मेह ॥५३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिनकी प्रभु प्रेम से देह आद्र हो उनके सभी प्रकार की समृद्धि रहती है । और वे अभाव विहीन रहते है आनंद आशीर्वाद मिलता है उन्हें ।
.
कहि जगजीवन प्रेम सौं, तिरषा भागै भाइ ।
सात साख१ घर नींपजै, सतगुरु सींचै आइ ॥५४॥
{१. साख=पीढी(वंश=परम्परा)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रेम से तृष्णा का अंत होता है तुष्टि आती है । और ये सत्गुरु महाराज की कृपा से सात पीढी तक चलता है ।
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परमेसुर के जीव सब, रांम करैं प्रतिपाल ।
कहि जगजीवन सुखी रहौ, बूढै तरणै, बाल२ ॥५५॥
(२. बूढै, तरणै, बाल=वृद्ध, युवा एवं बालक)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सभी जीव परमात्मा के हैं प्रभु उनकी पालना भी करते हैं । सब सुखी रहें । आनंद सरोवर में हिलोरें लें ।
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कहि जगजीवन प्रेम स्यूं, अस्त३ तुचा तहां धोइ ।
हरि भजि अम्रित पीजिये, दिल मंहि दरसन होइ ॥५६॥
{३. अस्त=अस्थि(हड्डी)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अपनी अस्थि व त्वचा सब प्रभु समर्पित हो उनका मार्जन हो । हरि नाम का स्मरण रुपी अमृत पीते रहें । और अंतर में प्रभु दर्शन ही करें ।
(क्रमशः)

*परस जी खाती*

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*दादू सेवक सांई वश किया, सौंप्या सब परिवार ।*
*तब साहिब सेवा करै, सेवक के दरबार ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
===========
*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
.
*मूल मनहर –*
*परस को पारस मिले हैं गुरु पीपा आय,*
*आप सो कियो बनाय बारंबार कसि के ।*
*खोयो है कन्या को कोढ़ धोवती दिई है ओट, *
*शकति की सेवा मेटी ताके घर वसि के ॥*
*खाती को खलास करि रीझे हैं परस परि,*
*माथे हाथ धर्यो स्वामी हेत सेती हँसि के ।*
*राघो कहै परस प्रसिद्ध भये तीनों लोक,*
*संतन की सेवा कीन्ही पूठी हरि असि के ॥२१७॥*
.
परस जी खाती को पारस रूप पीपाजी आकर गुरु रूप में प्राप्त हुये थे । पीपा जी ने बारंबार साधना रूप कसौटी से कसकर अर्थात् पूर्ण रूप से परीक्षा करके परस जी को अपने समान ही कर लिया था ।
.
परसजी की कन्या के कोढ़ रोग हो गया था । पीपाजी ने अपनी धोती उसे उढ़ाकर उसके शरीर का कोढ़ रोग हटा दिया था । परसजी प्रथम देवी की सेवा करते थे । पीपाजी ने उनके घर पर निवास करके देवी की सेवा छुड़ा कर उनको भगवान् का भक्त बना दिया था ।
.
फिर उनकी सेवा भक्ति से प्रसन्न होकर उनके स्वामी पीपा जी ने हँसते हुये अति स्नेह से उनके शिर पर अपना वरद् हस्त धरकर उन परस जी खाती को संसार बन्धन से मुक्त कर दिया था ।
.
राघवदास जी कहते हैं – गुरुदेव पीपाजी की कृपा से भक्त परसजी खाती तीनों लोकों में प्रसिद्ध हो गये हैं । परसजी अति प्रेम से संतों की सेवा में लग रहे थे । उसी समय कलरू में राजा के रथ के पैड़े की पूठी टूट गई । राजा ने परसजी को बुलाया किन्तु वे संतों की सेवा छोड़कर नहीं जा सके । तब स्वयं हरि ने ही परसजी का रूप धारण करके ऐसी एक ही पूठी लगा दी थी जिसके कहीं जोड़ भी नहीं था । 
.
इससे राजा आदि सबको बड़ा आश्चर्य हुआ था । संत सेवा से निवृत्त होकर परसजी राजा के पास गये और देर होने के लिये क्षमा याचना की । राजा ने कहा – अभी तो तुम बनाकर गये हो । परसजी ने कहा – मैं सन्तों की सेवा में लगा था इससे नहीं आ सका था । यह भगवान् ने ही कृपा की है । इस प्रकार परसजी के लिये हरि ने पूठी लगाई थी ।
(क्रमशः)

बुधवार, 23 फ़रवरी 2022

*श्रीरामकृष्ण कीर्तनानन्द में*

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🌷 *#श्रीरामकृष्ण०वचनामृत* 🌷
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*इक टग ध्यान रहैं ल्यौ लागे,*
*छाकि परे हरि रस पीवैं ।*
*दादू मगन रहैं रस माते, ऐसे हरि के जन जीवैं ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ पद्यांश. २७२)*
===============
साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)

साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(७) श्रीरामकृष्ण कीर्तनानन्द में*
.
त्रैलोक्य फिर गा रहे हैं । साथ में खोल करताल बज रहे हैं । श्रीरामकृष्ण प्रेमोन्मत्त होकर नृत्य करते करते कितनी ही बार समाधिमग्न हो रहे हैं । समाधिमग्न अवस्था में खड़े हैं । देह नि:स्पन्द है । नेत्र स्थिर, मुख हँसता हुआ, किसी प्रिय भक्त के कन्धे पर हाथ रखे हुए हैं; भाव के अन्त में फिर वही प्रेमोन्मत्त नृत्य । बाह्य दशा को प्राप्त होकर गाने के पद स्वयं भी गाते हैं । यह अपूर्व दृश्य है ! मातृगतप्राण, प्रेमोन्मत्त बालक का स्वर्गीय नृत्य !
.
ब्राह्मभक्त उन्हें घेरकर नृत्य कर रहे हैं । जैसे लोह को चुम्बक ने खींच लिया हो । सब के सब उन्मत्तवत् होकर ब्रह्म के गुणानुवाद गा रहे हैं । कभी कभी ब्रह्म के उस मधुर नाम का - माँ नाम का – उच्चारण कर रहे हैं - कोई कोई बालक की तरह 'माँ-माँ' करते हुए रो रहे हैं ।
.
कीर्तन समाप्त हो जाने पर सब ने आसन ग्रहण किया । अभी तक समाज की सन्ध्यावाली उपासना नहीं हुई है । इस कीर्तनानन्द में सब नियम न जाने कहाँ बह गये । श्रीयुत विजयकृष्ण गोस्वामी रात को वेदी पर बैठेंगे, ऐसा बन्दोबस्त किया गया है । इस समय रात के आठ बजे होंगे ।
.
सब ने आसन ग्रहण किया । श्रीरामकृष्ण भी बैठे हुए हैं । सामने विजय है । विजय की सास और दूसरी स्त्रियाँ श्रीरामकृष्ण के दर्शन करना चाहती हैं और उनसे बातचीत भी करेंगी । यह संवाद पाकर श्रीरामकृष्ण कमरे के भीतर जाकर उनसे मिले ।
.
कुछ देर बाद वहाँ से आकर वे विजय से कह रहे हैं, "देखो, तुम्हारी सास बड़ी भक्तिमती है । उसने कहा, 'संसार की बात अब न कहिये, एक तरंग जाती है और दूसरी आती है ।' मैंने कहा 'इससे तुम्हारा क्या बिगड़ सकता है ? तुम्हें ज्ञान तो है ।’ तुम्हारी सास ने इस पर कहा, 'मुझे कहाँ का ज्ञान है ! अब भी मैं विद्या माया और अविद्या माया के पार नहीं जा सकी । सिर्फ अविद्या माया के पार जाने से तो कुछ होता नहीं, विद्या माया को भी पार करना है, ज्ञान तो तभी होगा । आप ही तो यह बात कहते हैं ।"
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यह बात हो रही थी कि श्रीयुत वेणीपाल आ गये ।
वेणीपाल - महाराज, तो अब उठिये, बड़ी देर हो गयी, चलकर उपासना का श्रीगणेश कीजिये ।
विजय – महाराज ! अब और उपासना की क्या जरूरत है ? आप लोगों के यहाँ पहले खीर-मलाई खिलाने की व्यवस्था है और पीछे से मटर की दाल तथा और और चीजें ।
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श्रीरामकृष्ण - (हँसकर) - जो जैसा भक्त है, वह वैसी ही भेंट चढ़ाता है । सतोगुणी भक्त खीर चढ़ाता है, रजोगुणी पचास तरह की चीजें पकाकर भोग लगाता है । तमोगुणी भक्त भेड़ और बकरे की बलि देता है ।
विजय उपासना करने के लिए वेदी पर बैठें या नहीं, यह सोच रहे हैं ।
(क्रमशः)

*प्रस्ताविक का अंग १८१(१-५)*

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*ज्यों रचिया त्यों होइगा, काहे को सिर लेह ।*
*साहिब ऊपरि राखिये, देख तमाशा येह ॥*
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टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*प्रस्ताविक का अंग १८१*
इस अंग में यह बता रहे हैं कि - समयानुसार ही सब शोभा देते हैं ~
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रज्जब समय विष अमी१, कुसमय अमृत विष्ष२ ।
यथा मधुरै३ मक्षिका, मिश्री मरता पिष्ष४ ॥१॥
समय पर तो विष भी अमृत१ हो जाता है और कुसमय अमृत भी विष२ बन जाता है । जैसे मक्खी का जीवन भी मधुर३ मिश्री है और देखो४ मिश्री बनाते वही मीठा मृत्यु हो जाता है । चासनी में पड़कर मक्खी मर जाती है ।
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रज्जब शोभै१ समय सब, क्षमा क्रोध कहु२ मौन ।
अवसर हाँसी रोवणा, अवसर बैठक गौन३ ॥२॥
क्षमा के समय क्षमा, क्रोध के समय क्रोध, कथन के समय कथन२, मौन के समय मौन, हँसने के समय हँसना, रोने के समय रोना, बैठने के समय बेठना चलने के समय चलना३, इस प्रकार समय पर सभी शोभा१ पाते हैं, असमय नहीं ।
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दरजी कवि बागा१ विरुद२, वपु बणता३ सु बणाब४ ।
रज्जब घट५ बध६ ना करहि, चिहरा७ ह्वै न चवाव८ ॥३॥
जैसे दरजी वस्त्र१ शरीर पर बैठता३ हुआ ही बनाता४ है, अधिक व कम नहीं बनाता । वैसे ही कवि जिस शरीर को जैसा शोभा देता है वैसा ही यश२ कथन करता है, कम५ तथा अधिक६ नहीं कहता । मिथ्या बात कहने वाला निंदक८ कवि अच्छा७ नहीं होता ।
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तरु नर छाया महरि१ निज, ये ह्वै सहन स्वभाव ।
पै रज्जब फल दल२ वसन३, सो लहिये ॠतु पाव४ ॥४॥
वृक्ष की निजी छाया और नर की निजी दया१ ये दो तो सहज स्वभाव से ही वृक्ष और नर से प्राप्त हो जाती है किंतु वृक्ष के फल और नवीन पत्ते२ ये ॠतु आने४ पर ही प्राप्त होते हैं, वैसे ही मनुष्य से वस्त्र३ समय पर ही मिलते हैं ।
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समय समुद्र रत्न दिये, समय सु इन्द्र उदार ।
समय शुक्ति मुक्त१ हु फलै, समय सु भार अठार ॥५॥
समय पर समुद्र ने चौहह रत्न दिये थे । समय पर इन्द्र उदार होकर वर्षा करते हैं । समय पर ही सीप को मोती१ रूप फल प्राप्त होता है । समय पर वनस्पति फूलती फलती है ।
(क्रमशः)

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१६२

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१६२)*
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*१६२. निज वचन । महिमा चौताल ध्रुपद में*
*ऐन बैन चैन होवै, सुणतां सुख लागै रे ।*
*तीन गुण त्रिविधि तिमिर, भरम करम भागै रे ॥टेक॥*
*होइ प्रकास अति उजास, परम तत्व सूझै ।*
*परम सार निर्विकार, विरला कोई बूझै ॥१॥*
*परम थान सुख निधान, परम शून्य खेलै ।*
*सहज भाइ सुख समाइ, जीव ब्रह्म मेलै ॥२॥*
*अगम निगम होइ सुगम, दुस्तर तिर आवै ।*
*आदि पुरुष दरस परस, दादू सो पावै ॥३॥*
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भा०दी०- भगवद्वाक्यस्य सत्पुरुषवाक्यानाञ्च माहात्म्यं प्रतिपाद्यते । तयोर्वाक्यानि परमानन्दप्रदानि भवन्ति । तेषां श्रवणमात्रेणैव परमसुखानुभूतिर्जायते । सद्वचनश्रवणेन त्रिगुणजन्यदोषा नश्यन्ति । मूलातूलालेशादिभेदेन त्रिविधाऽप्यविद्याऽपगच्छति । पंचविधो भ्रमः सकाम- कर्मवासना च हृदयान्निवर्तेते । हृदयञ्च ज्ञानेन प्रकाशते । सद्वचनैः परमतत्वमपि स्वयमेव साधकहृदये स्फुरति । केचन ज्ञानिन एव संसारातीतं निर्विकारं ब्रह्म विदन्ति ।
ब्रह्मैव सर्वोत्कृष्टं परमानन्दनिधानमितिवदन्तः सन्तो ब्रह्मण्येवाद्वैतानन्दरूपां वृत्तिमनुभवन्ति । जीवब्रह्मणोरैक्यज्ञाने सति साधकोऽनायासेनैव ब्रह्मानन्दसागरे निमज्जति वेदादिभिरष्यनिर्वचनीयं ब्रह्म सद्वचनैः सुलभं भवति । दुस्तरं संसारसागरं तीा साधकोऽद्वैतभावं प्राप्नोति । य: साधक: सद्वचनं भगवद्वाक्यञ्च विर्मशति स ब्रह्मसाक्षात्कार विधाय तस्मिन्नेव ब्रह्मणि लीयते ।
उक्तं हि श्रीबल्लभाचार्य -
ब्रह्मसंबन्धकरणात् सर्वेषां देहजीवयोः ।
सर्वदोषनिवृत्तिर्हि दोषाः पञ्चविधाः स्मृताः ॥
सहजा देशकालोत्था लोकवेदनिरूपिताः ।
संयोगजा: स्पर्शजाश्च न मन्तव्या कथञ्चन ।
अन्यथा सर्वदोषाणां न निवृत्तिः कथञ्चन ॥
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श्री भगवान् तथा सन्तों के वचनों की महिमा बतला रहे हैं । भगवद्वाक्य तथा सन्तवचन परमानन्द के देने वाले होते हैं । उनके वचनों को सुनने मात्र से ही परम सुख की अनुभूति होने लगती है । उनके वचनों से त्रिगुण-जन्य दोषों की तथा तूला मूला लेशा रूप त्रिविध अविद्या की निवृत्ति हो जाती हैं ।
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पांच प्रकार का भ्रम, सकाम कर्मों के करने की वासना, हृदय से निकल जाती है, सद्वचनों से परमतत्व जो अपना स्वरूप है, वह भी स्वयं ही प्रकशित होने लगता है । उस ब्रह्म को, जो निर्विकार तथा संसार का सारभूत है, कुछ ही ज्ञानी लोग जानते हैं । उस ब्रह्म के प्राप्ति का स्थान सर्वोत्कृष्ट तथा परमानन्द का देने वाला है, ऐसा कहते हुए ब्रह्म में अभेद बुद्धि से अद्वैतानन्द का खेल खेलते रहते हैं ।
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जीव ब्रह्म का ऐक्य ज्ञान होने पर साधक ब्रह्मानन्द में डूब जाता है । सन्त वचनों से ब्रह्म, जो वेदों से भी अगम्य माना जाता है, वह सुगम हो जाता है । सन्त वचनों से जो दुस्तर संसार सागर है, उसको पार करके अद्वैत भाव में प्रविष्ट हो जाता है । जो कोई भी साधक संत वचनों को तथा भगवद् वाक्यों का विचार करता है वह ब्रह्म का साक्षात्कार करके निर्दोष होता हुआ ब्रह्म में लीन हो जाता है ।
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श्रीवल्लभाचार्यजी लिख रहे हैं कि –
ब्रह्म से जीव का सम्बन्ध होने पर जीव और देह सम्बन्धी सब दोष दूर हो जाते हैं । दोष पांच प्रकार के होते हैं । सहज, देशज, कालज, संयोगज, और स्पर्शज । सहज दोष वे हैं जो जीव के साथ पैदा होते हैं । देशज, देश से, कालज काल के अनुसार पैदा होते हैं । संयोगज संयोग से और स्पर्शज दोष स्पर्श से प्रकट होते हैं । ब्रह्म से सम्बन्ध हुए बिना इन सब दोषों की निवृत्ति नहीं होती ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2022

*२२. बेसास कौ अंग ~ ४९/५२*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२२. बेसास कौ अंग ~ ४९/५२*
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वैद धनंतर४ महागुनी, महापात्र महा ग्यांन ।
कहि जगजीवन देव गति, बरिया५ चल्यां न पान ॥४९॥
{४. धनंतर=धन्वन्तर(देवताओं के वैद्य)} (५. बरियाँ=अवसर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि वैद्य धन्वंतरि बहुत चतुर गुणवान, यौग्य व महाज्ञानी है । किन्तु परमात्मा की गति के आगे उनकी भी एक नहीं चलती वे पत्ता भी नहीं चला सकते हैं ।
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कोटि सक्ति अरु कोटि गुण, कोटि बुद्धि किंहि कांम ।
कहि जगजीवन राखि चित, जे रसनां रट्या न रांम ॥५०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि करोड़ों की शक्ति करोड़ गुणों का वास ये सब व्यर्थ है चाहे करोड़ों की बुद्धि ही क्यों न हो । अगर मन चित से स्मरण नहीं किया तो सब बेकार है ।
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कहि जगजीवन अमर हरि, अमर रांम का नांम ।
अमर साध अबिगति सरण, निरभै निहचल ठांम ॥५१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हरि और हरिनाम ही अमर है । और उन अविगत परमात्मा की शरण से सभी साधु जन निर्भय निश्चल हैं ।
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भ्रम-मत६ तजि, हरि माँहि रहि, देख तमासा एह ।
कहि जगजीवन रांम घर, मांग्यां बरषै मेह ॥५२॥
(६. भ्रम=मत=भ्रान्ति कारक सिद्धान्त)
संतजगजीवन अति आनंद अवस्था का वर्णन कह रहे हैं कि सारे भ्रम संशय दूर कर हरि जी की आज्ञा में रहें तो फिर आनंद का पार ही नहीं है । जो चाहो मिलता है यहां तक की वर्षा की कामना करें तो वह भी आती है ।
(क्रमशः)

*परस जी खाती*

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*जहँ सेवक तहँ साहिब बैठा, सेवक सेवा मांहि ।*
*दादू सांई सब करै, कोई जानै नांहि ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*परस जी खाती*
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*मूल छप्पय –*
*मरुधर कलरू गांव, परस जहँ प्रभु को प्यारो ।*
*सतवादी सुतार, कर्म कलियुग तैं न्यारो ॥*
*ता बदलै तन धारि, राम रथ-चक्र सुधारयो् ।*
*इकलग पूठी एक, बिना शल तबै विचारयो्॥*
*परस गयो जहँ भूपति,*
*चित सु चकित चरणों नयो ।*
*राघव समर्थ रामजी,*
*भक्ति करत यूं वश भयो ॥२१६॥*
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मारवाड़ में जहां कलरू ग्राम है, वहां ही भक्त परसजी खाती हुये हैं । आप सत्यवादी थे, कलियुग के कर्मों से अलग ही रहते थे ।
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उस देश(मेड़ता) के राजा जैमल जोधपुर जा रहे थे । रथ का पैड़ा खराब हो गया था । राजा ने सुधारने के लिये आपको बुलाया था । किन्तु आप को संत सेवादि में लगे रहने से देर हो गई । तब परसजी का शरीर धारण करके राजा के रथ का पैड़ा रामजी ने सुधारा था । आपने पैड़े के इकसार कील पत्तीरहित एक ही पूठी ऐसी लगाईं थी कि उसमें जोड़ कहीं भी नहीं था । उसे देखकर विचार होता था कि यह कैसे बैठाई गई है ।
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साधु-सेवा, भगवद् सेवादि से निवृत्त होकर परसजी जहां राजा थे वहां गये और देर होने के लिये क्षमा याचना करने लगे । राजा ने कहा – अभी तो तुम काम करके गये ही थे फिर क्षमा किस बात की । परसजी ने कहा – मैं तो अभी आया हूं, संत भगवान् की सेवा में था ।
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तब रथ चक्र सुधारना भगवान् की लीला जानकर राजा ने चकित चित्त हो परसजी के चरणों में शिर नमाया और परसजी ने चकित चित्त हो रामजी के चरणों में शिर नमाया । परसजी ने भगवद् भक्ति की थी । इस कारण से ही समर्थ रामजी इस प्रकार परसजी के वश में हो गये थे ।
(क्रमशः)

सोमवार, 21 फ़रवरी 2022

= ८४ =

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*कहै लखै सो मानवी, सैन लखै सो साध ।*
*मन लखै सो देवता, दादू अगम अगाध ॥*
==================
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- *॥गुरु भक्ति॥*
###########
*॥ गुरु भक्त ही गुरु के भाव को समझ सके ॥*
सुगुरु भक्त गुरु भाव को, समझ सके भल रीति ।
भेजी भक्ति रत्नावली, विष्णु पुरी सह रीति ॥२३१॥
श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु के शिष्य विष्णुपुरीजी काशी रहा करते थे । कुछ साधुओं ने महाप्रभु से कहा - 'विष्णुपुरी मुक्ति के लिये काशी में ठहर रहे हैं ।' महाप्रभु बोले - 'नहीं, उन्हें न मुक्ति से, न किसी देवता से और न काशी से ही कुछ प्रयोजन है । श्री कृष्ण चिन्तन को छोड़ कर उनकी चित्त वृति कहीं भी नहीं जाती । केवल सतसंग के लिये ही काशी में ठहरे हुये हैं । 
.
फिर भी जब लोगों ने नहीं माना तो महाप्रभु ने विष्णुपुरीजी को एक रत्नमाला भेजने के लिये लिखा । वे गुरु भक्त थे महा प्रभु के हृदय की बात जान गये और भागवत् रूप समुद्र से पांच सौ श्लोक रूप रत्न चुन कर के तथा 'भक्ति रत्नावलि' नाम रख करके भेज दिया । उसे जब देखा तो सबको निश्चय होगया कि वे अनन्य भक्त तथा गुरु निष्ठ हैं । इससे सूचित होता है कि गुरुभक्त ही गुरु के भाव को भलि भांति जान सकता है ।

= ८३ =

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*सतगुरु पसु मानस करै, मानस थैं सिध सोइ ।*
*दादू सिध थैं देवता, देव निरंजन होइ ॥*
==================
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
.
श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- *॥गुरु भक्ति॥*
###########
*॥ गुरु भक्ति बिना प्रभु ज्ञान नहीं होता ॥*
*ब्रम्ह रूप गुरु को समझ, करता जो अनुरक्ति ।*
*श्रेष्ठ संत जन कहत हैं, उसको ही गुरु भक्ति ॥२२९॥*
सुगुरु भक्ति बिन हो नहीं, साक्षात प्रभु ज्ञान ।
मिली सुई गुरु भक्त को, फिरे अन्य अनजान ॥२३०॥
दृष्टांत कथा - एक गुरु के कई शिष्य थे । उनमें एक की बुद्धि तो तीव्र न थी किन्तु गुरु भक्त था । दूसरे सब बुद्धिमान होने से उसकी हँसी किया करते थे । एक दिन परीक्षा के निमित गुरु ने अपने सब शिष्यों से क्रम-क्रम से कहा - 'इस घर में सूई रक्खी है ले आओ । एक-एक करके सभी शिष्य खोज आये किन्तु सूई नहीं मिली । 
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अन्त में अल्प बुद्धि गुरु भक्त को आज्ञा दी । गुरु भक्ति के प्रताप से जहां सूई गडी थी उस स्थान का उसे ठीक ठीक ज्ञान हो गया और वह सूई निकाल लाया । इसी प्रकार गुरु भक्त को ही अन्त: स्थित परमात्मा का साक्षात होता है और जो गुरु भक्त नहीं होते उन्हें वास्तव ज्ञान तथा परमात्मा का साक्षात नहीं होता ।

*मैं यन्त्र हूँ*

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*दादू डोरी हरि के हाथ है, गल मांही मेरे ।*
*बाजीगर का बांदरा, भावै तहाँ फेरे ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ समर्थता का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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ब्राह्मभक्त – महाराज ! किसी ने दूसरे समय में ईश्वर की चिन्ता की है, परन्तु मृत्यु के समय नहीं कर सका, तो क्या फिर उसे इस दुःखमय संसार में आना होगा ? पहले तो उसने ईश्वर की चिन्ता की थी ।
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श्रीरामकृष्ण - जीव ईश्वर की चिन्ता तो करता है, परन्तु ईश्वर पर उसका विश्वास नहीं है, इसलिए फिर भूलकर संसार में फँस जाता है । जैसे हाथी को बार बार नहलाने पर भी, वह फिर देह पर धूल फेंक लेता है, उसी तरह मन भी मतवाला है; परन्तु हाथी को नहलाकर ही अगर उसके स्थान में बाँध रखो तो फिर वह अपने ऊपर धूल नहीं डाल सकेगा ।
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अगर मृत्यु के समय जीव ईश्वर की चिन्ता करता है तो उसका मन शुद्ध हो जाता है, वह मन फिर कामिनी-कांचन में फँसने का अवसर नहीं पाता ।
"ईश्वर पर विश्वास नहीं है, इसीलिए इतने कर्मों का भोग करना पड़ता है ।
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लोग कहते हैं, जब तुम गंगा नहाने जाते हो तब तुम्हारे शरीर के पाप किनारे के पेड पर बैठ जाते हैं, तुम गंगा नहाकर निकले नहीं कि वे पाप फिर तुम्हारे सिर पर सवार हो जाते हैं । (सब हँसते हैं ।) देहत्याग के समय जिससे ईश्वर की चिन्ता हो, उसी के लिए पहले से उपाय किया जाता है । उपाय है – अभ्यासयोग । ईश्वर-चिन्तन का अभ्यास करने पर अन्तिम दिन भी उनकी याद आयेगी ।"
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ब्राह्मभक्त - बड़ी अच्छी बातें हुई, बड़ी सुन्दर बातें हैं ।
श्रीरामकृष्ण - कैसी बेसिर-पैर की बातें मैं बक गया । परन्तु मेरा भाव क्या है, जानते हो ? मैं यन्त्र हूँ, वे यन्त्री हैं, मैं गृह हूँ, वे गृही हैं, मैं गाड़ी हूँ, वे इंजीनियर हैं, मैं रथ हूँ, वे रथी हैं, जैसा चलाते हैं, वैसा ही चलता हूँ, जैसा कराते हैं, वैसा ही करता हूँ ।
(क्रमशः)