रविवार, 30 जून 2013

= सारग्राही का अंग १७ =(१९/२१)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*सारग्राही का अंग १७*
*दादू साध सबै कर देखना, असाध न दीसै कोइ ।*
*जिहिं के हिरदै हरि नहीं, तिहिं तन टोटा होइ ॥१९॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अपने अन्तःकरण में विचाररूपी नेत्रों से हम तो सबको साधु ही करके देखते हैं, कोई भी असाधु नहीं दिखाई देता है । जिसके अन्तःकरण में परमेश्‍वर का नाम - स्मरण नहीं है, उसके घाटा रहेगा । हमारे तो घाटा रहेगा नहीं, क्योंकि हम तो अपने भाव से साधु ही करके देखते हैं ॥१९॥ 
कबीर साकत को नहीं, सबै वैष्णव जान । 
जा तन राम न उच्चरै, ताही तन को हान ॥ 
कांगो पूज्यो साध कर, परचा तैं भई मान । 
नृप सुनी लारे लग्यो, करक सूंघ भयो ग्यान ॥ 
दृष्टान्त - एक राजा के बाग में एक कांगा आ गया । माली उसे साधु जानकर पुत्र की इच्छा से सेवा करने लगा । माली के पुत्र हो गया । माली खुशी में पुष्प - गुच्छ लेकर राजा के पास गया । राजा - "यह कैसी पुष्प - गुच्छ है ? माली - "एक संत की सेवा से लड़का हुआहै ।" राजा - "हमारे भी लड़का नहीं है, हम भी उनसे लड़का मांगने आते हैं ।" माली - "ठीक है हुजूर ।" माली आकर कांगा से बोला, "आपके पास राजा पुत्र लेने आता है ।" कांगा ने सोचा, "मेरे पास पुत्र कहाँ है ?" राजा आया । कांगा उठ करके दौड़ चला डर से । राजा ने समझा, यह ऐसे कहता है कि मेरे पीछे आ जा । कांगा ने पीछे देखा तो राजा दौड़ा आ रहा है । जंगल में एक जगह मरे ऊंट का पिंजर पड़ा था । कांगा ने उसको सूंघा और राजा की तरफ देख कर दौड़ गया । राजा ने सोचा कि यह सैन में बता गये कि इसे सूंघ कर चला जा, तेरे लड़का हो जाएगा । राजा सूंघ कर राज महलों में आ गया । कांगा ने तो मन में सोचा था कि मुझे गन्दा जान कर लौट जाएगा, परन्तु राजा के अपने भाव से लड़का हो गया । कांगा की मान प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गई । 
कबीर सब घट आत्मा, सिरजी सिरजनहार । 
राम भजै सो राम सम, रहिता ब्रह्म विचार ॥ 
*साधू संगति पाइये, तब द्वन्द्वर दूर नशाइ ।* 
*दादू बोहिथ बैस करि, डूँडे निकट न जाइ ॥२०॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जब सच्चे निष्पक्ष संतों का सत्संग जिसे प्राप्त होता है, वह अपने सम्पूर्ण राग - द्वेष आदि विकारों को त्याग देता है और परमानन्द को प्राप्त करने रूप जहाज में बैठ जाता है । जैसे समुद्र से पार जाने वाले यात्री जहाज में सवार होने के बाद छोटी नौका की इच्छा त्याग देते हैं । इसी प्रकार परमानन्द को प्राप्त होने के बाद तत्त्ववेत्ता सांसारिक सुखों की परवाह नहीं करते हैं ॥२०॥ 
*जब परम पदार्थ पाइये, तब कंकर दिया डार ।* 
*दादू साचा सो मिले, तब कूड़ा काज निवार ॥२१॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जब जौहरी असली हीरा रूपी पदार्थ प्राप्त कर लेता है, तो फिर नकली चमकीले पत्थर के टुकड़ों को छोड़ देता है । इसी प्रकार सच्चे अधिकारी, जब परमानन्द रूपी हीरे को प्राप्त कर लेते हैं, तब फिर खोटा काँच रूप सांसारिक मायावी पदार्थों से प्रीति त्याग देते हैं, अर्थात् सत्य ब्रह्मस्वरूप से वृत्ति मिल गइ तब झूठे काँच की भांति, दुःख रूप मायावी धर्म त्याग देते हैं ॥२१॥
(क्रमशः)

= सारग्राही का अंग १७ =(१६/१८)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*सारग्राही का अंग १७*
*दादू काम गाय के दूध सौं, हाड़ चाम सौं नांहि ।*
*इहिं विधि अमृत पीजिये, साधु के मुख मांहि ॥१६॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! बच्छे को गाय को दूध से मतलब है, गाय के हाड़ - चाम से कोई मतलब नहीं है । इसी प्रकार संसार में माया प्रपंच का पसारा है, परन्तु उत्तम जिज्ञासु को सारग्राही बुद्धि से, माया - प्रपंच से उदास होकर ब्रह्मवेत्ता संतों के मुखारबिन्द से ज्ञानामृत रूप दूध को ही पान करना चाहिये ॥१६॥ 
सार गह जगन्नाथ जन, ले असार संसार । 
भाव भक्ति पै बच्छ ज्यौं, चींचर रुधिर विकार ॥ 
*स्मरण नाम* 
*दादू काम धणी के नाम सौं, लोगन सौं कुछ नांहि ।* 
*लोगन सौं मन ऊपली, मन की मन ही मांहि ॥१७॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अनन्य भक्तों के अन्तःकरण में केवल राम - नाम की ही अखण्ड लय लगी रहती है । बहिर्मुख लोगों से कुछ मतलब नहीं रखते । और यदि बहिर्मुख लोग आ भी जावें संतों के पास, तो उनसे ऊपरी मन से वार्ता कर लेते हैं, परन्तु मन की प्रीति एक परमेश्‍वर के नाम में ही लगी रहती है ॥१७॥ 
*जाके हिरदै जैसी होइगी, सो तैसी ले जाइ ।* 
*दादू तू निर्दोष रह, नाम निरंतर गाइ ॥१८॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिनके अन्तःकरण में जैसी भावना होती है, उन्हीं भावों को लोग संतों के शरीर में अध्यारोपित करते हैं, अर्थात् देखते हैं । परन्तु वे संत तो सर्वथा निर्दोष रहते हैं और राम - नाम का स्मरण करते हैं । इसलिये अन्तःकरण में शुभ संकल्प रखिये, क्योंकि जीवन काल में जीव के जैसे संस्कार होते हैं, मृत्यु के बाद भी वही संस्कार जीव को भ्रमाते हैं ॥१८॥
इक कोली इक बाणियों, साधु सेइ दे गाल । 
बणिक तिर्यो कोली मर्यो, द्वै भुज सिर लख बाल ॥ 
दृष्टान्त - एक गाँव में एक बनिया और दूसरा कोली रहता था । बनिया एक सिद्ध योगी महात्मा की सेवा करता था और कोली उसी महात्मा को जाकर गालियाँ दिया करता था । बनिया संत सेवा करके परम पद को प्राप्त हो गया और कोली को एक रोज महात्मा बोला - "मांग वर !" कोली ने मन में सोचा कि एक रेजी बुनता हूँ दिन भर में, सो दो रेजी बुन लूं, ऐसा वर मागूं । तब बोला - "मेरे दो सिर और चार हाथ बना दो ।" महात्मा ने कहा, "तेरे दो सिर और चार हाथ हो जाओ ।" कोली राजी होकर गाँव की तरफ आया । गाँव के बालकों ने देखा कि यह भूत गाँव को नष्ट करेगा, इसलिये इसको यहीं मार दो । पत्थर मार - मार कर कोली को खत्म कर दिया ।
(क्रमशः)

शनिवार, 29 जून 2013

= सारग्राही का अंग १७ =(१३/१५)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*सारग्राही का अंग १७*
*दादू करणी ऊपर जाति है, दूजा सोच निवार ।*
*मैली मध्यम ह्वै गये, उज्ज्वल ऊँच विचार ॥१३॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जाति कर्मों के आधार पर है, जन्म पर नहीं है । इसलिये जन्म - जाति के विचार को त्यागकर मैली करनी करने वाले जन्म - जाति से ब्राह्मण भी मध्यम नीचे पद को प्राप्त हो जाते हैं और उज्वल सात्विक कर्म करने वाले शूद्र भी ब्राह्मण आदि उच्च पद को प्राप्त हो जाते हैं ॥१३॥ 
न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्रह्ममिदं जगत् । 
ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ॥(शान्तिपर्व) 
मनुष्यों में वर्णकृत सहज भेद नहीं है । 
ब्रह्मा ने आदि में सबको समान जन्म दिया । 
अपने कर्मों के भेद से वे अलग - अलग वर्ण को प्राप्त हो गये हैं । 
धर्मचर्यया जघन्यो वर्णः पूर्वं वर्णमापद्यते जाति - परिवृत्तौ । 
अधर्मचर्यया पूर्वो वर्णो जघन्यं वर्णमापद्यते जाति - परिवृत्तौ ॥ 
जिस कुल में जन्म हुआ हो, उस कुलवाला व्यक्ति यदि धर्म का आचरण करता है तो निचले कुल में उत्पन्न व्यक्ति क्र मशः ऊँचे वर्ण का बन जाता है । इसके विपरीत उत्तम कुल में जन्म लेकर भी जो अधर्म का आचरण करता है, वह निम्न से निम्नतर वर्ण का होता है । 
शूद्रोऽपि शील सम्पन्नो, गुणी ब्राह्मणो ह्युच्यते । 
ब्राह्मणोऽपि क्रि याभ्रष्टः, शूद्रात्परिभ्रष्टो भवेत् ॥ 
न शूद्रा भगवद्भक्ता विप्रा भागवता स्मृताः । 
सर्ववर्णेषु ते शूद्रा ये ह्यभक्ता जनार्दन ॥ 
एक नृप के कर में उग्यो, नाम चांडाल जु बाल । 
मिटिये खाये तासकन, ब्राह्मण हो चांडाल ॥ 
दृष्टान्त - एक राजा की हथेली पर चांडाल बाल उत्पन्न हुआ । बड़ी भारी पीड़ा होने लगी । एक संत बोले - हे राजन् ! किसी चांडाल ब्राह्मण की जूठन आप खाओ, तो यह बाल पीड़ा के सहित नष्ट हो जायेगा । तब राजा भेष बदलकर देहात में गया और वहाँ एक खेत में जन्म - जाति से ब्राह्मण को, जो बड़ा तामसिक था, हल जोतता देखा । हाथ में रोटी ले रखी है और खाता जाता है । बैलों के डंडे मारता है । कभी - कभी बैलों की पीठ में बुटकियाँ मारने लगता है । गालियाँ देता है । संत ने राजा को जो चांडाल के लक्षण बताये थे, वे सब उसमें राजा ने देख लिए और उसके पास जाकर बोला - "भाई ! एक टुकड़ा रोटी का मुझे भी दे दे, मैं भूखा हूँ ।" यह सुनकर उसने राजा के ऊपर डंडा उठाया और टुकड़ा नहीं दिया । खाते - खाते के हाथ से जरा सा टुकड़ा जमीन पर गिर गया । राजा ने दौड़कर उस टुकड़े को उठाया और खा लिया । उस चांडाल रूप ब्राह्मण ने राजा के तीन डंडे मारे, परन्तु राजा कुछ न बोला । राजा का चांडाल - बाल उसी समय नष्ट हो गया । 
*उज्वल करणी राम है, दादू दूजा धंध ।* 
*का कहिये समझै नहीं, चारों लोचन अंध ॥१४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! भगवान् सम्बन्धी जो कर्म करते हैं, वे संतभक्त राम रूप ही हैं और सब बात निरर्थक हैं । अर्थात् व्यावहारिक प्रपंच सब मिथ्या हैं । परन्तु सांसारिक अज्ञानी जीवों को किस तरह समझावें ? वे तो चतुष्टय अन्तःकरण रूपी वृत्ति नेत्रों से विचारहीन हैं । उनको परमेश्‍वर पर भरोसा नहीं है ॥१४॥ 
*दादू गऊ बच्छ का ज्ञान गहि, दूध रहै ल्यौ लाइ ।*
*सींग पूंछ पग परिहरै, स्तन हि लागै धाइ ॥१५॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! गऊ और बच्छा वाले ज्ञान को ग्रहण कर । जैसे गऊ का छोटा बच्चा दौड़कर गऊ के पास आता है और इधर - उधर गाय के अवयवों में मुँह लगाता है, जब तक स्तन नहीं मिलते । जब स्तन मिल जाते हैं, तो फिर बड़े प्रेम से दूध पीकर पेट भर लेता है । इसी प्रकार यह संसार ही मानो गऊ का रूप है और व्यापक चैतन्य ही मानो दूध है और ब्रह्मनिष्ठ संतों के सत्संग में आकर उनके मुखारविन्द रूप स्तन से ज्ञानामृत पान करके साधक बच्छा पूर्ण तृप्त हो जाता है ॥१५॥ 
सार ग्रहै जगन्नाथ जन ले असार संसार । 
भाव भजन पै बच्छ ज्यूं, चींचर रुधिर विकार ॥ 
(क्रमशः)

शुक्रवार, 28 जून 2013

= सारग्राही का अंग १७ =(१०/१२)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*सारग्राही का अंग १७*
*दादू हंस परखिये, उत्तम करणी चाल ।*
*बगुला बैसे ध्यान धर, प्रत्यक्ष कहिये काल ॥१०॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! हंस के तद्वत् उत्तम परम विवेकी संतजन हैं । उनकी रहनी - करनी हंसों की भाँति उत्तम है । बगुलारूपी अज्ञानी, विषय आसक्त, संसारीजन, कपट - पूर्वक ध्यान करते हैं अर्थात् सकाम कर्मों के द्वारा स्मरण करते हैं । यह उनके लिये प्रत्यक्ष ही काल है और वे जन्म - मरण के चक्र में भ्रमते हैं ॥१०॥ 
*उज्ज्वल करणी हंस है, मैली करणी काग ।* 
*मध्यम करणी छाड़ि सब, दादू उत्तम भाग ॥११॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! परम विवेकी संतों की करनी, कहिये कर्त्तव्य हंस की भांति आदर्शरूप होते हैं और सांसारिक अज्ञान जनों की करनी कर्त्तव्य, कौवे की भांति मैली है । अर्थात् सच्चे संतजन संसार की मैली करनी को छोड़कर अनन्य - भक्ति रूप उत्तम करनी करते हैं और परोपकार आदि में प्रवृत्त रहते हैं ॥११॥ 
*दादू निर्मल करणी साधु की, मैली सब संसार ।* 
*मैली मध्यम ह्वै गये, निर्मल सिरजनहार ॥१२॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! संतों की करनी = कर्त्तव्य पाप रहित होते हैं और संसारीजनों के करनी = कर्त्तव्य में कुछ न कुछ पाप अवश्य रहते हैं । मैली करनी करने वाले संसारीजन अधोगति में जाते हैं और उज्ज्वल करनी करने वाले संतजन परमेश्‍वर स्वरूप होते हैं ॥१२॥ 
(क्रमशः)

गुरुवार, 27 जून 2013

= सारग्राही का अंग १७ =(७/९)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*सारग्राही का अंग १७*
*दादू मन हंसा मोती चुणै, कंकर दिया डार ।*
*सतगुरु कह समझाइया, पाया भेद विचार ॥७॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! हंस रूपी उत्तम संत, कंकर रूप सांसारिक वैभव, माया की आसक्ति त्यागकर मोती ब्रह्मतत्त्व अथवा निष्काम नामरूप का विचार करते हैं । जब से सतगुरु ने कृपा करके आत्म - उपदेश दिया है, तभी से साधक ने ब्रह्म का भेद प्राप्त किया है ॥७॥ 
*दादू हंस मोती चुणै, मानसरोवर जाइ ।* 
*बगुला छीलर बापुड़ा, चुण चुण मछली खाइ ॥८॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे हंस तो मोती चुगता है और बगुला मछली खाता और थोड़े जल में रहता है । इसी प्रकार हंस रूप संत, मानसरोवर रूपी सत्संग में, ब्रह्म तत्त्व का निश्‍चय रूप मोती चुगाकर, आत्मा आनन्द में तृप्त रहते हैं । और देह अध्यासी अज्ञानी संसारीजन कुसंग के प्रभाव से विषय - विकारों को भोगने में ही अमूल्य मनुष्य शऱीर को व्यर्थ ही गमाते हैं ॥८॥ 
*दादू हंस मोती चुगैं, मानसरोवर न्हाइ ।* 
*फिर फिर बैसैं बापुड़ा, काग करंकां आइ ॥९॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिस प्रकार हंस मानसरोवर में स्नान करके मोती चुगता है, वैसे ही उत्तम संतजन ब्रह्मसरोवर में ब्रह्म विचार द्वारा मन को स्थिर करके अभेद निश्‍चयरूप मोती चुगते हैं । और कौवा रूपी संसारी अज्ञानीजन, शरीर अध्यास और स्त्री आदि शरीर में ही आसक्त रहकर पुनः पुनः संसार के जन्म - मरण में भटकते हैं ॥९॥ 
हंस काग के संग लगि, थलियां आयो भूल । 
त्रिसंक देख्यौ करंक जव, दुखित भयो गयो डूल ॥ 
दृष्टान्त - यह दृष्टान्त पहले आ चुका है । 
इन्दव छन्द 
हंस गयो चल काग के संग में, 
मानसरोवर चाल बतायो । 
छीलर ले चलियो थलियां अरु, 
सांख सु तीन की खेजरि पायो ॥ 
देखि करंक कुबुद्धि कह्यो जु मराल, 
विहाल कि साल सवायो । 
नारि संवारि गंवार कही भलि, 
देखि हरी कहि पेखि भुलायो ॥ 
(क्रमशः)

बुधवार, 26 जून 2013

= सारग्राही का अंग १७ =(४/६)


॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*सारग्राही का अंग १७*
*पहली न्यारा मन करै, पीछै सहज शरीर ।*
*दादू हंस विचार सौं, न्यारा किया नीर ॥४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! सच्चे संत जब मन को संसार और देहअध्यास से उदास करके, फिर शरीर से निष्काम भाव से प्रारब्ध अनुसार स्वतः ही व्यवहार करते हैं और हर्ष, शोक, तृष्णा, राग - द्वेष, ये सब तमोगुण के कार्य - विकार उन संतों को नहीं व्यापते हैं । इस प्रकार वे संत सारग्राही दृष्टि से आत्म - स्वरूप को, संसारभाव से न्यारा, निर्विकार स्वरूप से निश्‍चय करते हैं ॥४॥ 
*आपै आप प्रकाशिया, निर्मल ज्ञान अनन्त ।* 
*क्षीर नीर न्यारा किया, दादू भज भगवंत ॥५॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! मुक्त - पुरुषों पर आप स्वयं परमेश्‍वर ने कृपा करके, उनके अन्तःकरण में आप अनन्तस्वरूप होकर प्रकाशते हैं अथवा संत, परमेश्‍वर का नाम - स्मरण करके शुद्ध रूप का ज्ञान हृदय में प्राप्त करते हैं, जिससे जल - दूध की भांति सार - असारक का निश्‍चय करके, ब्रह्म - तत्त्व में ही मग्न रहते हैं ॥५॥ 
‘कबीर’ खीर रूप हरि नाम है, नीर आन व्यौहार । 
हंस रूप कोइ साध है, त्तत का जाणनहार ॥ 
*क्षीर नीर का संत जन, न्याव नबेरैं आइ ।* 
*दादू साधु हंस बिन, भेल सभेले जाइ ॥६॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! सच्चे संतजन ही सार असार का निर्णय करके, केवल सार चैतन्य ब्रह्मतत्त्व को ही ग्रहण करते हैं अर्थात् धारण करते हैं और हंस के बिना दूसरे जीव, दूध और जल को मिला हुआ ही पान करते हैं । इसी तरह संसारीजन जगत में आसक्ति द्वारा ही सकाम भक्ति करते हैं । केवल निष्काम तो संतजन ही ब्रह्म - चिन्तन करते हैं ॥६॥ 
(क्रमशः)

= सारग्राही का अंग १७ =(१/३)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*अथ सारग्राही का अंग १७*
"दादू तज संसार सब, रहै निराला होइ ।" इस सूत्र के व्याख्यान स्वरूप मध्य के अंग के बाद अब सारग्राही के अंग का निरूपण करेंगे ।
*मंगलाचरण* 
*दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवतः ।* 
*वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः ॥१॥* 
टीका - हरि, गुरु, सन्तों के चरणों में हमारी बारम्बार बन्दना है । जिनकी कृपा से जिज्ञासु सर्व पक्षपात को त्यागकर निष्पक्ष भाव से सार ब्रह्म को प्राप्त होते हैं ॥१॥ 
*दादू साधु गुण गहै, औगुण तजै विकार ।* 
*मानसरोवर हंस ज्यूं, छाड़ि नीर, गहि सार ॥२॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे मान सरोवर के हंस जल को त्यागकर दूध और मोती चुगते हैं, वैसे ही ब्रह्मरूप मानसरोवर के संतजन सर्व जीवों के अवगुण विषय - विकारों को त्यागकर उत्तम गुण ग्रहण करते हैं और नाम रूपी मोती चुगते हैं ॥२॥ 
हंस चंच तुलसी बसै, भिन्न करै पय नीर । 
पंषी ओर अभेदकर, रुचि रुचि पीवै नीर ॥ 
*हंस गियानी सो भला, अन्तर राखे एक ।* 
*विष में अमृत काढ ले, दादू बड़ा विवेक ॥३॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! वे आत्मज्ञानी श्रेष्ठ हैं, जो हृदय में एक निर्गुण राम में ही अखंड वृत्ति लगाते हैं और संसार - विष रूप में से, विवेक द्वारा व्यापक - स्वरूप अमृत निकालते हैं एवं विषरूप अनात्म - शरीर में आत्मारूप अमृत का निश्‍चय करते हैं ॥३॥ 
सारग्राही संतजन, खीर नीर ज्यों हंस । 
जगन्नाथ निरवारले, विष में अमृत अंस ॥ 
(क्रमशः)

मंगलवार, 25 जून 2013

= मध्य का अंग १६ =(७२/७३)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*दादू पंथों पड़ गये, बपुरे बारह बाट ।*
*इनके संग न जाइये, उलटा अविगत घाट ॥७२॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सांसारिक अज्ञानीजन, बपु आरामी, देह अध्यासी, वासनाओं के वश होकर, नाना सम्प्रदाय, मत - मतान्तरों में उलझ रहे हैं । वे बहिरंग साधनों में ही पच - पच कर मर जाते हैं । हे साधक ! उनका संग नहीं करना, बल्कि उनके संग से अपने मन इन्द्रियों को लौटा कर अव्यक्त परमेश्‍वर में लगाना ॥७२॥
*आशय विश्राम*
*दादू जागे को आया कहैं, सूते को कहैं जाइ ।*
*आवन जाना झूठ है, जहॉं का तहॉं समाइ ॥७३॥*
इति मध्य का अंग सम्पूर्ण ॥अंग १६॥साखी ७३॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सांसारिक अज्ञानीजन, चैतन्य आत्मा के द्वारा प्राणों में जागृति आवे तो साधारण मनुष्य उसको ‘जाग आया’ कहते हैं अर्थात् जन्म मानते हैं और सूते कहिए, प्राण और स्थूल शरीर का वियोग होने पर, जीव को ‘सो गया’ कहिए, मृत्यु मानते हैं । परन्तु तत्ववेत्ता पुरुषों की दृष्टि में यह बात मिथ्या है । किन्तु यह जीव गुरु आज्ञा बिना, अविद्या से अविद्या में ही समा कर रहता है । अथवा जब यह प्राणधारी, सतगुरु के ज्ञान उपदेश से जागकर आत्मा में स्थिर होवे तो, इस मनुष्य शरीर में आना इसका सार्थक है । सूते कहिए, अज्ञानी लोग जो माया में मोहित हैं, उनका मनुष्य शरीर वृथा ही जाता है । इस प्रकार से संसार का आवागमन मिथ्या है, क्योंकि ब्रह्मवेत्ता संत तो मुक्त होते हैं और अज्ञानीजन संसार - बन्धन में समाते हैं । जब ब्रह्मवेत्ता संतों का समाधि से उत्थान होता है तो उस समय संतों का आगमन कहलाता है और जब ब्रह्माकार समाधि लगती है तो जाना मानते हैं । परन्तु ब्रह्मवेत्ता संतों का संसार की तरह आना - जाना मिथ्या है । वे तो अखंड वृत्ति से ब्रह्म में ही समाये रहते हैं ॥७३॥
इति मध्य का अंग टीका सहित सम्पूर्ण ॥अंग १६॥साखी ७३॥ 
(क्रमशः)

= मध्य का अंग १६ =(७०/७१)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*न जाणूं, हाँजी, चुप गहि, मेट अग्नि की झाल ।*
*सदा सजीवन सुमिरिये, दादू बंचै काल ॥७०॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! पक्षपाती संसारी लोग यह कहें कि तुम इस बात को नहीं जानते, तो कहो - "हाँ, नहीं जानता हूँ ।" योग्य, अयोग्य बात में, "हाँ में हाँ" मिलाकर या व्यवहार में सर्वथा "मौन धारण" करके, पक्षपात रूपी अग्नि की झाल को मेटकर, फिर एक रस परमेश्‍वर में अखंड लय लगावे । इस रीति से कोई उत्तम जिज्ञासु ही आवागमन रूप काल के चक्र से बचते हैं ॥७०॥ 
जया नगारे चोट सुन हिमगिरि करै उपाधि । 
जन रज्जब यो जानिये, तहाँ मौन व्रत साधि ॥ 
चंचल बानी श्रवण सुनि, मुनि जन पकरी मौन । 
साधु छांह सुमेर की, रज्जब डिगै न पौन ॥ 
दृष्टान्त - एक मुनि बैठे हुए थे । एक चंचल स्त्री आई और मुनि से नाना प्रकार की छेड़ - छाड़ करने लगी । स्त्री की चंचल बातें सुनकर मुनि मौन हो गये । 
*पंथा - पंथी*
*पंथ चलैं ते प्राणिया, तेता कुल व्यवहार ।* 
*निर्पख साधु सो सही, जिनके एक अधार ॥७१॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जो सांसारिक पंथा - पंथी वाले पक्षपाती लोग हैं, नाना प्रकार के ग्रन्थों में आसक्ति रखने वाले सामान्य प्राणी, वे सब अनेकों मजहबी फांसियों में बंधे हुए हैं । जितने मत - मतान्तर हैं, उतने ही उनके व्यवहार भी भिन्न - भिन्न हैं । निष्पक्ष तो सच्चे मध्यमार्गी संत हैं, जिनके केवल एक परमेश्‍वर के नाम का ही आधार है ॥७१॥ 
(क्रमशः)

सोमवार, 24 जून 2013

= मध्य का अंग १६ =(६७/६९)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*संसार का त्याग*
*काला मुँह संसार का, नीले कीये पाँव ।* 
*दादू तीन तलाक दे, भावै तीधर जाव ॥६७॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! इस संसार को काला मुँह और नीले पाँव वाले की तरह त्यागिये, क्योंकि ऐसा रूप तो मुर्दे का होता है, जो अस्पृश्य है । इसी प्रकार इस संसार से भी प्रीति नहीं करना, क्योंकि यह परमेश्‍वर की आराधना में अन्तराय डालने वाले संसारिक प्राणी हैं । इसलिए हरि गुरु संतों को शपथ - पूर्वक संसार के मोह को त्यागना चाहिये ॥६७॥ 
आंधी चोमासे रहे, गुरु बरसायो नीर । 
ताहि समय साखी कही, दुनियां पूज्यो पीर ॥ 
दृष्टान्त - ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज आंधी ग्राम में चातुर्मास ठहरे हुए थे । उस साल वर्षा नहीं होने से जनता ने महाराज से प्रार्थना की । तब ब्रह्मऋषि ने पानी बरसाने के लिए भगवान से तीन साखियों से प्रार्थना की ।(विरह के अंग में १५७ से १५९ तक) । तब परमेश्‍वर ने भारी वर्षा बरसाई । दूसरे रोज गाँववासी सभी लोग गुलगुले पुड़ी बनाकर ढोल बजाते हुए पीर को पूजने गये और पाखंडियों ने गाँव में शोर मचा दिया कि पीर जी ने वर्ष बरसाई है । उसी समय परम गुरुदेव ने उपरोक्त साखी कही । 
*दादू भावहीन जे पृथ्वी, दया विहूणा देश ।*
*भक्ति नहीं भगवंत की, तहँ कैसा प्रवेश ॥६८॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिस जगह परमेश्‍वर की भक्ति का भाव नहीं, संतों की सेवा का प्रेम नहीं और जिस देश में जीवों पर दया नहीं, उस देश में संतों को क्या जाना है ॥६८॥
‘डूंगर’ हरि की भक्ति का, जहाँ नहीं लवलेश । 
पाणी तहाँ न पीजिये, परिहरिये वो देश ॥ 
भाव भक्ति सेवा नहीं, नहीं सन्त जिहिं ठाँव ।
‘जगन्नाथ’ सो छाड़िये, दिसा देस पुर गाँव ॥ 
प्रसंग - महाराज ने यह साखी लोहरवाड़ा ग्राम के लोगों के लिये कही थी कि जिस मनुष्य के शरीर में संत वचनों के प्रति श्रद्धाभाव नहीं और अन्तःकरण में दया नहीं, ऐसे तामसिक पुरुषों के हृदय में आत्म-उपदेश को कहाँ स्थान है ? 
*मध्य* 
*जे बोलैं तो चुप कहैं, चुप तो कहैं पुकार ।* 
*दादू क्यों कर छूटिये, ऐसा है संसार ॥६९॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! सच्चे संत पक्षपात रहित, जब परमेश्‍वर की निष्काम भक्ति का उपदेश करते हैं, तो अज्ञानीजन उस उपदेश के सुनने में उदासीनता लाते हैं और कहते हैं कि निष्काम भक्ति में क्या पड़ा है ? हमें तो स्त्री, धन, पुत्र आदि चाहिये । और जब संत समाधि में मग्न होकर संसार की वार्ता से मौन रहते हैं, तो अज्ञानीजन संतों को कपटी कहकर पुकारते हैं । इसलिये संसार - सागर से छुटकारा पाने का सहज भाव के अतिरिक्त और कोई भी साधन नहीं है ॥६९॥ 
व्यास बड़ाई जगत की, कूकर की पहिचान । 
प्रेम कियां मुख चाटसी, बैर कियां भी हान ॥ 
(क्रमशः)

रविवार, 23 जून 2013

= मध्य का अंग १६ =(६४/६६)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*दादू द्वै पख दूर कर, निर्पख निर्मल नांव ।*
*आपा मेटै हरि भजै, ताकी मैं बलि जांव ॥६४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिन्होंने पक्षपात को अपने अन्तःकरण से दूर करके निष्पक्ष होकर, मध्य मार्ग से परमेश्‍वर का अन्तःकरण में निष्काम नाम - स्मरण करते हैं और अपने अनात्म, आपा अहंकार को जिन्होंने नष्ट कर दिया है, ऐसे संत, भक्तों की हम बलिहारी जाते हैं ॥६४॥ 
*संजीवन* 
*दादू तज संसार सब, रहै निराला होइ ।* 
*अविनाशी के आसरे, काल न लागै कोइ ॥६५॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! संसार में आसक्ति का त्याग करके तटस्थ रहें और अविनाशी परमेश्‍वर के नाम - स्मरण का आश्रय धारण करके जो रहते हैं, उनको कोई भी काल स्पर्श नहीं करता है अर्थात् काल उनसे अलग रहता है ॥६५॥ 
राम - रामेति ये नित्यं, जपन्ति मनुजा भुवि । 
तेषां मृत्यु - भया हानिः, न भवन्ति कदाचन ॥ 
जग जगन्नाथ अचूक है, जम जालिम की चोट । 
उबरै हरि के आसरै, कै निज सत की ओट ॥ 
*मत्सर ईर्ष्या* 
*कलियुग कूकर कलमुँहा, उठ - उठ लागै धाइ ।* 
*दादू क्यों करि छूटिये, कलियुग बड़ी बलाइ ॥६६॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! कलियुगी सांसारिक प्राणी पक्षपाती, भेदवादी, पामर, निष्पक्ष मध्यमार्गी संतों के पीछे पड़कर काले मुँह के कुत्ते की तरह कठोर बचन और शारीरिक पीड़ा आदि द्वारा, उन संतों को नाना प्रकार के संताप देते हैं । इसलिये संतों को ऐसे पुरुषों से परम सावधान रहना चाहिये अर्थात् उनका संग त्यागकर परमेश्‍वर का निष्काम नाम - स्मरण करना चाहिये ॥६६॥ 
कलियुग साधु रूप धर, किये उपद्रव तीन । 
जन राघो ता नगर को, धर्म ले गयो छीन ॥ 
वेश्या, कलाली, वधिक पुनि, कीन्हे चरित ही तीन । 
‘राधो’ राती नृप सूं कही, भाव न भूंडो कीन ॥ 
दृष्टान्त - एक सच्चे निष्पक्ष संत थे । वे नगर में परमेश्‍वर की कथा करने लगे । राजा रानी के सहित सारा नगर कथा श्रवण करने आया करता था । संत बड़े विवेकी थे, परन्तु वे कलियुग का बहुत खंडन किया करते थे । तब कलियुग ने एक रोज विचार किया कि यह मेरे राज्य मे रहकर मेरा खंडन करता है । अतः कलियुग ने अपने तीन रूप बनाये । एक वेश्या का, दूसरा कसाई का, तीसरा कलाल(मदिरा बेचने वाले) का । कथा के समय वेश्या आयी और बोली - महाराज संत जी ! यह आपने मेरे साथ जो कुकर्म किया, उसका फल मेरे गर्भ रह गया, अब मेरे बच्चा होने वाला है, मेरे जापे में खान - पान आदि का इन्तजाम करो । 
महात्मा ने उसकी तरफ देखा और बोले - "ठीक है भाई ! यह जो कथा पर चढावा आयेगा, वह तेरे ही को देंगे ।" कुछ देर में कसाई आया और बोला - "इसकी आप लोग क्या कथा सुनते हो ? यह तो मेरे यहाँ से इतना मांस लाया है और खाया है, जिसके इसने आज तक पैसे नहीं दिये । मैं पैसे लेने आया हूँ ।" साथ ही मदिरा बेचने वाला आया । वह भी बोला - "इतनी शराब की बोतलें तुमने पी हैं, उनके आज मुझे रुपये देओ ।" संत उन दोनों को बोले - "हाँ भई ! तुम्हें भी देंगे ।" इस लीला को देखकर सर्व श्रोता उठ चले, परन्तु राजा और रानी निश्‍चल बैठे रहे । संत जी कथा निश्‍चल मन से करते रहे, किंचित् भी उदास नहीं हुए । 
कथा समय राधो कहै, श्रोता सारो गाँव । 
इतनी सुनकर उठि चले, फेर न लीनों नांव ॥ 
कलिजुग माया देख करि, भक्ति ही में लीन । 
रानी राजा से कहै, भाव न झूठो कीन ॥
साधु कथा निश्‍चल करै, मैलो कीयो न मन । 
फिर कलिजुग पांवां पङ्यो, राधो वे जन धन ॥ 
राधोदास जी महाराज कहते हैं कि फिर कलियुग ने संत के चरणों में आकर नमस्कार किया और बोला - "मेरा अपराध क्षमा करें, जो मैंने आपकी श्रोताओं के सामने मिथ्या आलोचना की है, उनके लिए मैं क्षमा चाहता हूँ । आप राम के सच्चे भक्त हो ।" 
(क्रमशः)

= मध्य का अंग १६ =(६१/६३)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*हरि भरोसा*
*दादू पख काहू के ना मिलैं, निष्कामी निर्पख साध ।* 
*एक भरोसे राम के, खेलैं खेल अगाध ॥६१॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे निर्पक्ष मध्यमार्गी संत, एक राम के भरोसे पर सर्व व्यवहार करते हैं और प्रभु से ज्ञान - भक्ति द्वारा खेलते हैं तथा संसारी जनों में भगवान् की महिमा प्रकट करते हैं ॥६१॥ 
*मध्य* 
*दादू पखा पखी संसार सब, निर्पख विरला कोइ ।* 
*सोई निर्पख होइगा, जाके नाम निरंजन होइ ॥६२॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सारे संसार के अज्ञानी प्राणी पक्षा - पक्षी में बँध रहे है और ईश्‍वर की भक्ति भी पक्षपात से ही करते हैं । अल्लाह का नाम लेने वाले राम - नाम में भेद समझते हैं और राम - कृष्ण का स्मरण करने वाले, अल्लाह आदि में भेद समझते हैं । संसार में निष्पक्ष मध्यमार्गी कोई विरला ही पुरुष है । वही निष्पक्ष होगा, जिसके अन्तःकरण में निरंजन, निराकार, शुद्ध ब्रह्म का नाम - स्मरण है ॥६२॥ 
*अपने अपने पंथ की, सब को कहै बढाइ ।* 
*तातैं दादू एक सौं, अन्तरगति ल्यौ लाइ ॥६३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! पक्षपाती संसार के प्राणी, अपने - अपने सम्प्रदाय, मत आदि की बड़ाई चढा - बढा कर बताते हैं । इसलिये इन पक्षपातियों के मत - मतान्तरों के झगड़ों में फँसे हुए लोगों से अलग होकर, अन्तःकरण में वह जो सबका उपास्यदेव कारण ब्रह्म है, उसी के नाम - स्मरण में लय लगाओ ॥६३॥ 
षट् दर्शन खोजे सबै, बांदी जिमावन काज । 
सबहि कही आप आपनी, बांदा जिमाऊं आज ॥ 
दृष्टान्त ~ एक समय हरिद्वार के कुम्भ पर षट् दर्शन साधु समाज तीर्थ स्नान को आये हुए थे । बहुत से गृहस्थी यात्री भी आए थे । एक राजा की बांदी(दरोगन) भी आई और गंगा - स्नान करके विचार किया कि साधुओं को भंडारा दे दूं । यह सोचकर सभी षट् दर्शनी संतों के स्थानों में गई और भंडारे के लिये पूछने लगी । 
प्रत्येक ने अपनी - अपनी पक्ष की बात कही और दूसरों को अपने से छोटे और कुमार्गी बताने लगे । तब बांदी ने विचार किया कि ये राग - द्वेष में भरे हुए हैं, इनको जिमाने का क्या फल होगा ? अब तो मैं अपनी जाति वाले बांदे - बांदी, दरोगा - दरोगनियों को ही जिमाऊँगी । इनसे तो वही ठीक हैं, क्यों कि वे मेरी जाति के तो हैं । यह राम के भक्त कहला कर भी ऊँच - नीच के भेद मे पड़े हुए हैं । ब्रह्मऋषि कहते हैं कि “अपने अपने पंथ की, सब को कहै बढाइ ।” 
(क्रमशः)

शनिवार, 22 जून 2013

= मध्य का अंग १६ =(५८/६०)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*दादू पख काहू के ना मिले, निर्पख निर्मल नांव ।*
*सांई सौं सन्मुख सदा, मुक्ता सब ही ठांव ॥५८॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे ब्रह्मवेत्ता संत, हिन्दू - मुसलमान आदि किसी भी साम्प्रदायिक धर्म में नहीं मिलते हैं, वे सर्व मतों से निष्पक्ष समताभाव को धारण करके भगवान् के निष्काम नामों का स्मरण अखंड भाव से करते हुए केवल प्रभु में ही वृत्ति लगाकर रहते हैं और लोक - कल्याण के लिये सारी वसुधा पर विचरते और उपदेश करते रहते हैं ॥५८॥ 
*दादू जब तैं हम निर्पख भये, सबै रिसाने लोक ।* 
*सतगुरु के परसाद तैं, मेरे हर्ष न शोक ॥५९॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जब से ब्रह्मवेत्ता मुक्तजन संत निष्पक्ष हुए हैं अर्थात् मध्य - मार्ग पर चलते हैं, तब से कर्म - काण्डी संसारीजन उनसे द्वैतभाव करते हैं । परन्तु वे व्यवहार में भी परमेश्‍वर की कृपा मानकर हर्ष - शोक से रहित होकर रहते हैं, किन्तु ऐसी अवस्था सतगुरु की कृपा से ही प्राप्त होती है ॥५९॥ 
*निर्पख ह्वै कर पख गहै, नरक पड़ैगा सोइ ।* 
*हम निर्पख लागे नाम सौं, कर्त्ता करै सो होइ ॥६०॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो उत्तम पुरुष, अद्वैत ब्रह्म की उपासना धारण करके फिर मत - मतान्तरों के पक्ष में बँध जायेंगे,तो वे आवागमन के चक्र में अवश्य भ्रमते रहेंगे । इसीलिए संतजन निष्पक्ष नाम के स्मरण में रत्त रहते हैं और सर्व व्यवहार प्रभु की कृपा पर छोड़ देते हैं ॥६०॥ 
अद्वैतभावमाश्रित्य द्वैताचारेण वर्तते । 
रुदन्ति पितरस्तस्य, हा ! कष्टे पतितः पुनः ॥ 
(क्रमशः)

शुक्रवार, 21 जून 2013

= मध्य का अंग १६ =(५५/५७)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*दोनों हाथी ह्वै रहे, मिल रस पिया न जाइ ।* 
*दादू आपा मेट कर, दोनों रहें समाइ ॥५५॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जैसे दो मदोन्मत हाथी एक साथ सरोवर में जल नहीं पी सकते हैं, वैसे ही धर्मोन्मत अपनी - अपनी पक्ष में बंधे हुए हिन्दू - मुसलमान, ब्रह्मानन्द रूप एकता को भूलकर, धार्मिक वाद - विवाद में उलझ रहे हैं । ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज उपदेश करते हैं कि यदि दोनों ही अपना मिथ्या अभिमान त्यागकर निष्पक्ष भाव से अपनी - अपनी धारणा के अनुसार परमेश्‍वर कारण ब्रह्म का स्मरण करें तो दोनों ही व्यावहारिक विषमता को त्यागकर जन - समुदाय से प्यार करते हुए परमेश्‍वर में समा जाते हैं ॥५५॥ 
*भयभीत भयानक ह्वै रहे, देख्या निर्पख अंग ।* 
*दादू एकै ले रह्या, दूजा चढै न रंग ॥५६॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! निर्गुण ब्रह्म का स्वरूप सुनकर अज्ञानीजन चकित हो रहे हैं क्योंकि उनसे निष्काम निर्गुण ब्रह्म की भक्ति नहीं की जाती है और फिर ब्रह्मवेत्ता संतों के निष्पक्ष व्यवहार को देखकर हिन्दू - मुसलमान भयानक भयभीत हो रहे हैं कि जिन संतों ने एक ब्रह्मतत्त्व का निश्‍चय किया है, उनको द्वैतभाव अच्छा नहीं लगता है ॥५६॥ 
*जानै बूझै साच है, सबको देखन धाइ ।* 
*चाल नहीं संसार की, दादू गह्या न जाइ ॥५७॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! संसारीजन सत्यस्वरूप ब्रह्म का सभी साक्षात्कार करना चाहते हैं, किन्तु लोकाचार के बन्धनों से साधारण जन सत्य - स्वरूप का निश्‍चय नहीं कर सकते हैं । और फिर संसारीजन निष्पक्ष ब्रह्मवेत्ता संतों को धन्य मानते हैं । उनके दर्शनों के लिये देश - देशान्तर में जाते हैं । परन्तु संसार की चाल, कहिए मत - मतान्तरों के बाह्य - चिन्ह नहीं होने से संतों का मध्य मार्ग, संसारीजनों से नहीं धारण किया जाता है ॥५७॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 20 जून 2013

= मध्य का अंग १६ =(५२/५४)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*दादू हिन्दू लागे देहुरे, मुसलमान मसीति ।*
*हम लागे एक अलेख सौं, सदा निरंतर प्रीति ॥५२॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! हिन्दू तो मन्दिर में मूर्ति - स्थापना, सेवा, पूजा, प्रार्थना आदि के कारोबार में लगे हैं, और मुसलमान मस्जिद में कलमा, नमाज, रोजा आदि के कारोबार में स्थित हैं । परन्तु सच्चे ब्रह्म - वेत्ता संत निष्काम भाव से निरन्जन राम में ही अखंड़ लय लगाते हैं ॥५२॥ 
*न तहाँ हिन्दू देवरा, न तहाँ तुरक मसीति ।* 
*दादू आपै आप है, नहीं तहाँ रह रीति ॥५३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! उस शुद्ध ब्रह्म में सत्, चित्, आनन्द, अखंड, एक रस, चेतन तत्त्व है । वहाँ माया के गुण - कर्मों का अत्यन्त अभाव होने से न तो वहाँ हिन्दुओं का मन्दिर है और न मुसलमानों की मस्जिद है । अखंड ब्रह्मतत्त्व में मंदिर - मस्जिद की परिछिन्नता असम्भव है ॥५३॥ 
*यहु मसीत यहु देहुरा, सतगुरु दिया दिखाइ ।* 
*भीतर सेवा बन्दगी, बाहिर काहे जाइ ॥५४॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यह मनुष्य का शरीर ही मानो मंदिर और मस्जिद है अर्थात् दोनों हाथों को ऊपर करने से यह मस्जिद है और उन्हीं दोनों हाथों को सिद्ध आसन लगाकर दोनों घुटनों पर रखने से मन्दिर बन जाता है । इसके अन्दर ही इसको रचने वाला परमेश्‍वर निवास करता है । उसका नाम - स्मरण रूप सेवा और बन्दगी को त्यागकर बहिरंग साधनों में क्यों भ्रमते हो ॥५४॥ 
केई लेइ मसीत पष, केई मूरत लागे । 
कहै पृथ्वीनाथ ये सोवत देखे, दोउ बिच रहे सो जागे ॥ 
(क्रमशः)

= मध्य का अंग १६ =(४९/५१)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*उभय असमाव*
*दादू मेरा तेरा बावरे, मैं तैं की तज बान ।* 
*जिन यहु सब कुछ सिरजिया, करता ही का जान ॥४९॥* 
टीका ~ हे अज्ञानी जिज्ञासु ! जिस दयालु प्रभु ने सम्पूर्ण सृष्टि रची है, यह सब उसी की करके मान और सब रूप में परमेश्‍वर की ही सत्ता जानकर मेरे तेरे का द्वैतभाव छोड़ दे ॥४९॥ 
जाके उर तैं उठि गई, ‘मैं’ ‘तैं’ बड़ी बलाइ । 
तुलसी ताके भाग की, मोपै कही न जाइ ॥ 
*दादू करणी हिन्दू तुरक की, अपनी अपनी ठौर ।* 
*दुहुं बिच मारग साधु का, यहु संतों की रह और ॥५०॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! हिन्दूओं की करणी राम को मंदिर में मानते हैं और प्राणी मात्र पर दया करते हैं । मुसलमान मस्जिद में अल्लाह को मानकर कुर्बानी आदि में विश्‍वास करते हैं । परन्तु सच्चे निष्पक्ष संतों का मार्ग, मध्य मार्ग है, अर्थात् वे ब्रह्म की सर्व व्यापकता को मानकर सर्व रूपों में परमेश्‍वर को देखते हैं । यही मुक्त - पुरुषों का सत्य मार्ग है ॥५०॥ 
हिन्दू हर्षत हरि कहैं, तुर्क खुदाइ संभाल । 
जगन्नाथ उलटी बुरी, लागत दुहुँ को काल ॥ 
*दादू हिन्दू तुरक का, द्वै पख पंथ निवार ।* 
*संगति साचे साधु की, सांई को संभार ॥५१॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! हिन्दू और मुसलमान, इन दोनों के पक्षपातों के सिद्धान्त का त्याग कर और सच्चे निष्पक्ष संतों के सत्संग द्वारा परमेश्‍वर का स्मरण कर ॥५१॥ 
रज्जब हिन्दू तुरक तजि, सुमिरहु सिरजनहार । 
पखा - पखी सों प्रीत कर, कौन पहुंच्या पार ॥ 
(क्रमशः)

बुधवार, 19 जून 2013

= मध्य का अंग १६ =(४६/४८)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*दादू ना हम हिन्दू होहिंगे, ना हम मुसलमान ।*
*षट् दर्शन में हम नहीं, हम राते रहमान ॥४६॥* 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरु महाराज कहते हैं कि न तो हम हिन्दुओं के मन्दिर मार्गी पक्ष में बँधेंगे और मुसलमान हम हैं नहीं । और छः दर्शनों के धर्म - पक्ष में भी हम नहीं हैं । हम तो केवल एक रहमान, परमात्मा में ही रत्त हैं ॥४६॥ 
ना हम हिन्दू ना तुरक, ना हम इत्त न उत्त । 
हम निर्पष निर्मल भगत, जगजीवन ये सत्त ॥ 
*जोगी जंगम सेवड़े, बौद्ध सन्यासी शेख ।* 
*षट् दर्शन दादू राम बिन, सबै कपट के भेख ॥४७॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जोगी हैं, जंगम हैं, बौद्ध हैं, सेवड़े हैं, सन्यासी हैं, शेख हैं, ये छः दर्शन निष्काम राम की भक्ति के बिना सभी कपट के चिन्ह हैं । अर्थात् आत्म - ज्ञानी सभी संतों का उपास्य देव एक ब्रह्म तत्त्व ही है । वे उसी में मस्त रहते हैं । 
*दादू अल्लाह राम का, द्वै पख तैं न्यारा ।* 
*रहिता गुण आकार का, सो गुरु हमारा ॥४८॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अल्लाह और राम, इन दोनों पक्षों के मत से अलग और मायावी आकार के गुणों से रहित ‘अद्वैत’ ब्रह्म है । उसकी ज्ञान रूप प्रेरणा ही हमारा गुरु है और शरीर अध्यास से रहित, गुणातीत हुये जो संत हैं, वे ही हमारे परम पूज्य हैं ॥४८॥ 
राम राम हिन्दू कहैं, तुर्क रहीम रहीम । 
जगन्नाथ दोऊ नाम का, पावै मरम फहीम ॥ 
(क्रमशः)

सोमवार, 17 जून 2013

= मध्य का अंग १६ =(४३/४५)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*स्वर्ग नरक सुख दुख तजे, जीवन मरण नशाइ ।*
*दादू लोभी राम का, को आवै को जाइ ॥४३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! विरही भक्तजन कहते हैं कि हे परमेश्‍वर ! हमारे जीव पर प्रारब्ध - वश स्वर्ग के सुख - दुःख आओ चाहे जाओ, परन्तु विरही भक्तजन उनसे उदास रहते हैं, और सुख - दुःख मानने वाले अज्ञानी संसार - बन्धन में जन्मते - मरते हैं । और हे राम ! आपके सच्चे विरही भक्तजन आपके अद्वैत स्वरूप में मग्न रहते हैं ॥४३॥ 
नारायणपरा सर्वे, न कुतश्‍चिद् विभ्यति । 
स्वर्गापवर्गनरकेष्वपि तुल्यार्थ – दर्शिनः ॥ 
*मध्य निष्पक्ष* 
*दादू हिन्दू तुरक न होइबा, साहिब सेती काम ।* 
*षट् दर्शन के संग न जाइबा, निर्पख कहबा राम ॥४४॥* 
टीका ~ ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज से सीकरी में बादशाह अकबर ने प्रश्‍न किया कि हिन्दू मुसलमानों में आप कौनसा मत उत्तम मानते हो ? और हिन्दू धर्म में भी षट् दर्शनों में कौन - सा दर्शन श्रेष्ठ है ? 
उत्तर ~ हे बादशाह ! निष्पक्ष सच्चे परमेश्‍वर के भक्तों को एक परमेश्‍वर से ही प्रयोजन है । हिन्दू - मुसलमान और छह दर्शन से हम उदासीन भाव होकर प्रभु - स्मरण में सहजावृत्ति द्वारा लीन रहते हैं । यही मत उत्तम है । 
*षट् दर्शन दोन्यों नहीं, निरालंब निज बाट ।*
*दादू एकै आसरे, लंघे औघट घाट ॥४५॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मवेत्ता मुक्तपुरुष, छः दर्शनों और दोनों धर्मो से उदासीन होकर सहज भाव से जीवन - मुक्त रूप रास्ते को प्राप्त करके एक अद्वैत की उपासना द्वारा देह - अध्यास और संसार - बन्धन रूप घाट से पार होते हैं ॥४५॥ 
(क्रमशः)

= मध्य का अंग १६ =(४०/४२)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*दीन दुनी सदिकै करूं, टुक देखण दे दीदार ।*
*तन मन भी छिन छिन करूं, भिश्त दोजग भी वार ॥४०॥* 
टीका ~ ब्रह्मऋषि दादू दयाल महाराज कहते हैं कि हे परमेश्‍वर ! दुनिया के दोनों दीन कहिए, हिन्दू - मुसलमान व मत - मतान्तरों की पक्ष - विपक्ष आपके अर्पण करते हैं । पलकमात्र आपका दर्शन देखने दो ! हमारा तन और मन भी हम निष्काम स्मरण द्वारा, क्षण - क्षण में आपके अर्पण करते हैं । भिश्त(स्वर्ग) और दोजख(नरक) के सुख - दुःख भी आपके ऊपर न्यौछावर करते हैं ॥४०॥ 
*दादू जीवन मरण का, मुझ पछतावा नांहि ।* 
*मुझ पछतावा पीव का, रह्या न नैनहुँ मांहि ॥४१॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! मध्यमार्गी विरहीजन भक्त कहते हैं कि हे प्रभु ! हमें जीने - मरने का कोई हर्ष - शोक नहीं है । केवल हमारे तो एक ही पश्‍चात्ताप है कि आपके दर्शन, सर्वगुण या निर्गुण रूप से, हमें नेत्रों के सामने नहीं हो रहे हैं ॥४१॥ 
राम संग मरणो भलो, बिना नाथ बेकाम । 
नारायण नैना बसै, ता मन लाइ सुधाम ॥ 
*स्वर्ग नरक संशय नहीं, जीवन मरण भय नांहि ।* 
*राम विमुख जे दिन गये, सो सालैं मन मांहि ॥४२॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! मध्यमार्गी विरही भक्तजन कहते हैं कि परमेश्‍वर ! हमारे मन में स्वर्ग - नरक के सुख - दुःखों का कोई संशय नहीं है और जीने - मरने से भी निर्भय हैं । परन्तु राम - भजन के बिना जो मनुष्य - जन्म के दिन प्रमाद में गये, उनका हमें भारी पश्‍चात्ताप हो रहा है ॥४२॥ 
एवमेव स्वर्गं गच्छामि नरकं वा, 
इत्यत्रादि न कश्‍चित्संशयोऽस्ति, 
अद्यैव मरणमस्तु दिनान्तरे वा, 
मम मनसि तु एतदेव दुःखं यद्यानि । 
दिनानि हरिविमुखानि गतानि, 
तानि शल्यतुल्यानि पीडयन्ति मे मनः ॥ 
- कठोपनिषद् 
(क्रमशः)

रविवार, 16 जून 2013

= मध्य का अंग १६ =(३७/३९)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*घर वन मांही सुख नहीं, सुख है सांई पास ।*
*दादू तासौं मन मिल्या, इनतैं भया उदास ॥३७॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! घर कहिए, प्रवृत्ति मार्ग और वन कहिए निवृत्ति मार्ग, इन दोनों में ही सुख नहीं है । सुख तो केवल परमेश्‍वर के नाम - स्मरण में ही है । इसीलिए विरहीजन भक्त घर - वन में अहंकार को छोड़कर परमेश्‍वर के नाम स्मरण में अपने मन को लगाते हैं ॥३७॥ 
*ना घर भला न वन भला, जहाँ नहीं निज नांव ।* 
*दादू उनमन मन रहै, भला तो सोई ठांव ॥३८॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासु ! न तो प्रवृत्ति - मार्ग ही श्रेष्ठ है और निवृत्ति - मार्ग ही श्रेष्ठ है । प्रवृत्ति कहिए ग्रहस्थ आश्रम में रहकर जिनके हृदय में परमेश्‍वर का नाम - स्मरण नहीं है, और निवृत्ति कहिए वन में रहकर जिसने परमेश्‍वर का नाम - स्मरण नहीं किया, तो वह दोनों ही जगह किस काम की हैं ? वही स्थान ठीक है, चाहे निवृत्ति हो या प्रवृत्ति हो, उनमन कहिए जिनका मन नाम - स्मरण रूप ऊँची दशा में स्थिर है ॥३८॥ 
*बैरागी वन में बसै, घरबारी घर मांहि ।* 
*राम निराला रह गया, दादू इनमें नांहि ॥३९॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! वैराग्यमान तो वन में बसकर वन के अहंकार में बंधा है । हमें क्या लेना है दुनिया से ? हम तो कंदमूल, फल - पत्ती खाते हैं । और घरबारी गृहस्थी घर में अध्यास को लिये बैठे हैं और कहते हैं, हम तो कबीर साहब की तरह हैं । ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज फरमाते हैं कि राम के सच्चे निष्पक्ष भक्त तो इन दोनों से ही अलग हैं । वे राम में ही रत्त रहते हैं ॥३९॥ 
(क्रमशः)

= मध्य का अंग १६ =(३४/३६)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*काहे दादू घर रहै, काहे वन - खंड जाइ ।*
*घर वन रहिता राम है, ताही सौं ल्यौ लाइ ॥३४॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मवेत्ता संत घऱ और वन, इन दोनों के अहंकार से रहित होकर ब्रह्मस्वरूप राम में लय लगाते हैं । इसी प्रकार उत्तम जिज्ञासु पुरुष, घर और वन का, या प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों के अहंकार से रहित होकर आत्मस्वरूप राम में लय लगावें ॥३४॥ 
*दादू जिन प्राणी कर जानिया, घर वन एक समान ।* 
*घर मांही वन ज्यों रहै, सोई साधु सुजान ॥३५॥* 
टीका ~ सतगुरु महाराज कहते हैं कि जिन जिज्ञासुओं ने घर और वन इन दोनों को विचार द्वारा बराबर जानकर, अर्थात् घर कहिए प्रवृत्ति मार्ग और वन कहिए निवृत्ति मार्ग, इन दोनों के अहंकार को त्यागकर घर में ही, कहिए प्रवृत्ति मार्ग में ही, ज्ञान द्वारा निवृत्ति कहिये अनासक्त होकर, राम से लय लगाते हैं, वही पुरुष सुजान नाम चतुर हैं ॥३५॥ 
*सब जग मांही एकला, देह निरंतर वास ।* 
*दादू कारण राम के, घर वन मांहि उदास ॥३६॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सम्पूर्ण संसार की भोग - वासनाओं से रहित होकर, शुद्ध अन्तःकरण में विरही जन, राम के कारणै, घर प्रवृत्ति मार्ग और वन निवृत्ति मार्ग, इन दोनों के अहंकार से रहित होकर नाम - स्मरण में लय लगाते हैं ॥३६॥ 
आदि अन्त जाको नहिं पावै । सोही पूरण देस कहावै ॥ 
सोही पूरण सबमें लहिये । सोही देव सकल सुख पइये ॥ 
(क्रमशः)

शनिवार, 15 जून 2013

= मध्य का अंग १६ =(३१/३३)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*बारहमासी नीपजै, तहाँ किया परवेश ।*
*दादू सूखा ना पड़ै, हम आये उस देश ॥३१॥* 
टीका ~ सतगुरु महाराज कहते हैं कि हे जिज्ञासु ! ब्रह्मनिष्ठ संत अर्न्तंमुख होकर स्वस्वरूप में अखंड वृत्ति लगावें, तो फिर स्वस्वरूप ब्रह्म के ‘सूखा’ कहिए, वियोग नहीं होता है । हम मुक्तजन उसी देश से अर्थात् ब्रह्म - देश से जन - समुदाय का कल्याण करने के लिए बहिरंग द्वारा वृत्ति द्वारा उपदेश करते हैं ॥३१॥ 
*जहँ वेद कुरान की गम नहीं, तहाँ किया परवेश ।* 
*तहँ कछु अचरज देखिया, यहु कुछ औरै देश ॥३२॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सतगुरु महाराज कहते हैं कि जिस ब्रह्म में वेद और कुरान की, शक्ति वृत्ति की, गति नहीं पहुँचती है, वहाँ मुक्तपुरुष स्वस्वरूप में स्थिर होकर जब ब्रह्मानन्द का अनुभव किया तो फिर मायावी कार्य की विचित्रता को विचार करके अति चकित होते हैं ॥३२॥ 
वेद कुरान त्रिगुण को गावै । 
भाग त्याग बिन ब्रह्म न पावै ॥ 
दादू वाणी निर्गुण वेदा । 
निर्गुण पाइ करै भव छेदा ॥ 
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन । 
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥ 
- गीता २ - ४५ 
(वेद तीनों गुणों के विषय की बातें करते हैं । हे अर्जुन ! योगक्षेम की इच्छा न रखते हुए तीनों गुणों से रहित होगा । रागद्वेष के द्वन्द्वों से रहित होकर निरन्तर परमात्मा में ही स्थित होगा ।) 
*भ्रम विध्वंस* 
*ना घर रह्या न वन गया, ना कुछ किया क्लेश ।* 
*दादू मन ही मन मिल्या, सतगुरु के उपदेश ॥३३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! वे मुक्त - पुरुष, घर कहिए प्रवृत्ति मार्ग और वन कहिए निवृत्ति मार्ग, इन दोनों के अहंकार से रहित होकर और न किसी प्रकार का बहिरंग तप - जप आदि का क्लेश ही उठाया । किन्तु केवल सतगुरु के ज्ञान उपदेश के द्वारा ही व्यष्टि - चैतन्य रूप मन, समष्टि - चैतन्य रूप ब्रह्म से अभेद हो गया ॥३३॥ 
(क्रमशः)

= मध्य का अंग १६ =(२८/३०)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*एक देश हम देखिया, जहँ बस्ती ऊजड़ नांहि ।*
*हम दादू उस देश के, सहज रूप ता मांहि ॥२८॥* 
टीका ~ सतगुरु महाराज कहते हैं कि हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मदेश हमने अनुभव द्वारा देखा है, वहाँ वासना - विकार रूप बस्ती नहीं है । हम कहिए, मुक्तजन उस ब्रह्मदेश के हैं और सहजावस्था द्वारा उसी में समा रहे हैं । अथवा वहीं चैतन्य ब्रह्म सहज कहिए, निर्द्वन्द्व रूप से सब में समाया हुआ है । मुक्तजन अनुभव द्वारा उसका साक्षात्कार करते हैं ॥२८॥ 
*एक देश हम देखिया, नहिं नेड़े नहिं दूर ।* 
*हम दादू उस देश के, रहे निरंतर पूर ॥२९॥* 
टीका ~ सतगुरु महाराज कहते हैं कि हे जिज्ञासुओं ! हमने एक देश कहिए, ब्रह्म - देश अनुभव द्वारा निजरूप करके देखा है । परन्तु वह न तो नजदीक है और न दूर है । कारण, नजदीक और दूर वह वस्तु होती है, जो अपने से अलग हो । इसलिये ब्रह्म को नजदीक या दूर नहीं कह सकते । क्योंकि वह तो सबका आत्म - स्वरूप ही है, उसी में अन्तराय रहित होकर अपने मन को पूर्णतया लगाना चाहिये । अथवा ज्ञान से वह समीप है और अज्ञान से दूर है ॥२९॥ 
*एक देश हम देखिया, जहँ निशदिन नांहीं घाम ।* 
*हम दादू उस देश के, जहँ निकट निरंजन राम ॥३०॥* 
टीका ~ सतगुरु महाराज कहते हैं कि हे जिज्ञासुओं ! हमने अनुभव द्वारा एक ऐसा देश देखा है, जहाँ न तो लौकिक रात होती है और न दिन ही उगता है । और तमोगुण रूप घाम, सतोगुण रूप शीतलता भी वहाँ नहीं है अर्थात् ब्रह्मरूप होने पर मुक्तजनों की अज्ञान और ज्ञान वृत्तियों का विलय हो जाता है । फिर तीन प्रकार के दुःखों से मुक्त होकर निर्द्वन्द्व भाव से संतजन स्वरूप निरंजन ब्रह्म में मग्न रहते हैं ॥३०॥ 
(क्रमशः)

शुक्रवार, 14 जून 2013

= मध्य का अंग १६ =(२५/२७)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*चलु दादू तहँ जाइये, माया मोह तैं दूर ।*
*सुख दुख को व्यापै नहीं, अविनासी घर पूर ॥२५॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो ब्रह्म माया प्रपंच से रहित है और निर्मल है और सुख - दुःख से रहित है, उसी में नित्य अनित्य के विचार द्वारा निश्‍चय करना ॥२५॥ 
*चलु दादू तहँ जाइये, जहँ जम जोरा को नांहि ।* 
*काल मीच लागै नहीं, मिल रहिये ता मांहि ॥२६॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जिस ब्रह्म - स्वरूप में किसी भी काल - कर्म की गति नहीं है, उस ब्रह्म में विचार द्वारा लय लगाकर अभेद होइये ॥२६॥ 
*एक देश हम देखिया, जहँ ऋतु नहीं पलटै कोइ ।* 
*हम दादू उस देश के, जहँ सदा एक रस होइ ॥२७॥* 
टीका ~ सतगुरु महाराज कहते हैं कि हे जिज्ञासुओं ! हम ब्रह्मवेत्ता संतों ने एक देश, कहिए बह्मदेश अनुभव द्वारा देखा है, वहाँ प्रकृति की ऋतुएँ नहीं वर्तती हैं । वहाँ एक रस है । समय, अवस्था, दिशा इन सबसे रहित होकर सभी संत उस अद्वैत अखंड ब्रह्म में लय लगाते हैं ॥२७॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 13 जून 2013

= मध्य का अंग १६ =(२२/२४)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*माया* 
*दुहुँ बिच राम अकेला आपै, आवण जाण न देहि ।* 
*जहँ के तहँ सब राखै दादू, पार पहुँचे तेहि ॥२२॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! माया और सच्चे मुक्त - पुरुषों के बीच में राम स्वयं प्रकट होकर रहते हैं, और संतों के मन को माया - विकारों में नहीं जाने देते और मायावी धर्म - संतों में नहीं आने देते । संतों की सुरति को अपने में लगाये रहते हैं । जिन पर ऐसी प्रभु की दया होती है, वे ही ब्रह्मभाव को प्राप्त होकर संसार - बन्धन से मुक्त होते हैं ॥२२॥ 
माया जन के मध्य हरि, भिन्न भिन्न गुन चीन्ह । 
जगजीवन सोई ऊबरैं, जिन पर कृपा कीन्ह ॥ 
गुरु दादू गये सीकरी, परचा लिया न दीन्ह । 
राम बीच दोऊ के रहे, चरचा ही में चीन्ह ॥ 
प्रसंग ~ ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज को बादशाह अकबर ने आमेर के राजा भगवन्तदास के द्वारा सीकरी बुलवा कर ब्रह्मऋषि से प्रश्‍न उत्तर किये । उनसे ही बादशाह अकबर और बीरबल आदि सब सन्तुष्ट हो गये । यद्यपि ब्रह्मऋषि को परचा की इच्छा से सीकरी बुलाया थातथापि उनका ज्ञान सुनने के बाद परचा मांगने का साहस नहीं रहा । ब्रह्मऋषि ने भी परचे नहीं दिये । दोनों के बीच में राम प्रकट थे, चर्चा में ही बादशाह अकबर समझ गया । 
*मध्य निर्पक्ष* 
*चलु दादू तहँ जाइये, जहँ मरै न जीवै कोइ ।* 
*आवागमन भय को नहीं, सदा एक रस होइ ॥२३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! विचार द्वारा सहजावस्था रूप समाधि में, स्वस्वरू प ब्रह्म में स्थिर होकर, लय लगाइये । फिर वहाँ न कोई जन्मता है और न कोई मरता ही है, क्योंकि उसमें जन्म और मरण के भय का अभाव है ॥२३॥ 
*चलु दादू तहँ जाइये, जहँ चंद सूर नहिं जाइ ।* 
*रात दिवस की गम नहीं, सहजैं रह्या समाइ ॥२४॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! विचार द्वारा वहाँ जाओ, जहाँ प्रकृति से उत्पन्न चन्द्रमा, सूर्य, रात - दिन की गति कहिए, पहुँच नहीं है । वह चैतन्य ब्रह्मस्वरूप आत्मा सहजभाव से ही सम्पूर्ण संसार में समाया हुआ है, उसी में लय लगाओ ॥२४॥
(क्रमशः)

बुधवार, 12 जून 2013

= मध्य का अंग १६ =(१९/२१)


॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
*निराधार निज भक्ति कर, निराधार निज सार ।*
*निराधार निज नाम ले, निराधार निराकार ॥१९॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! गुणातीत होकर आत्म - स्वरूप का विचार करिये, क्योंकि निराधार मन ही आत्मा आनन्द में स्थिर रहता है । इस प्रकार निष्काम भाव से ज्ञानामृत पीने वाले संत कोई विरले ही हैं ॥१९॥ 
*निराधार निज राम रस, को साधु पीवनहार ।*
*निराधार निर्मल रहै, दादू ज्ञान विचार ॥२०॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! निराधार, कहिए निर्गुण ब्रह्म की ही उपासना करिये, क्योंकि निर्गुण ब्रह्म के निष्काम भक्त ही आत्मा का निश्‍चय करके निर्विकार रहते हैं ॥२०॥ 
*जब निराधार मन रह गया, आत्म के आनन्द ।*
*दादू पीवे रामरस, भेटे परमानन्द ॥२१॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जब मन गुणातीत होकर निराधार ब्रह्म में अभेद हो जाता है, तब स्व - स्वरूप आनन्द की प्राप्ति होती है । इस संसार से मुक्त - पुरुष परमानन्द की प्राप्ति करके अतृप्त भाव से राम - रस पीते हैं और ब्रह्मस्वरूप में मग्न रहते हैं ॥२१॥
(क्रमशः)