सोमवार, 30 जून 2014

= ७ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
दादू इस संसार में, मुझसा दुखी न कोइ ।
पीव मिलन के कारणै, मैं जल भरिया रोइ ॥
ना वह मिलै, न हम सुखी, कहो क्यों जीवन होइ ।
जिन मुझको घायल किया, मेरी दारु सोइ ॥ 
दर्शन कारण विरहनी, वैरागिन होवै ।
दादू विरह बियोगिनी, हरि मारग जोवै ॥ 
अति गति आतुर मिलन को, जैसे जल बिन मीन ।
सो देखे दीदार को, दादू आतम लीन ॥ 
राम बिछोही विरहनी, फिरि मिलन न पावै ।
दादू तलपै मीन ज्यूं, तुझ दया न आवै ॥ 
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James Bean ~ 

A quote from the 16th century Indian Master Dadu, who outlined the Sant Mat vision of the spiritual life to be pursued during our time here on planet Earth:

"Recognize the Path to your Beloved, O travelers and take the route of the anguished lover in separation. Keep the Master's grace in your thoughts, and reflect upon his pure teachings. Develop love and devotion with endearment, and keep the thought of the Creator always before you. 

Try to merge yourself into God like water and water. Fix your mind within by following the Path of the Sound Current. A yearning will arise; make then an intense and anguished call. Repeat the Name of your Beloved, day and night, again and again. With care in thought, word and deed, you will cross to the other shore." (Sant Dadu Dayal)

= ६ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू जब लग जीविये, सुमिरण संगति साध । 
दादू साधू राम बिन, दूजा सब अपराध ॥ 
समाचार सत पीव का, कोइ साधु कहेगा आइ । 
दादू शीतल आत्मा, सुख में रहे समाइ ॥ 
साधु शब्द सुख वर्षहि, शीतल होइ शरीर । 
दादू अन्तर आत्मा, पीवे हरि जल नीर ॥ 
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साभार : Vipin Tyagi
बेमुख या मनमुख ऐसे आदमी को कहा जाता है जो परमात्मा को भुला चुका हो । उसे अभागे जीव की स्थिति ऐसे बन्दर के समान होती है जिसके गले में बहुमूल्य रत्नों का हार पहना दिया जाए और वह उसे बेकार का बोझ समझकर गवाँ दे । वह उस कलछी की तरह है जो स्वादिष्ट भोजन में घूमती रहती भी, उसके स्वाद से वंचित रह जाती है । यही दशा उस मेंढक की होती है जो जो कीचड़ में अपनी आँखों के सामने खिले कमल की सुंदरता को सम्मान नहीं दे सकता है, या फिर मृग की, जिसकी नाभि की सुगन्धित कस्तूरी उसे भटकाती रहती है । गूजर की पाली हुई गायें उसके लिए दूध जैसा पदार्थ हाज़िर करती हैं, पर वह उसका आदर न कर उसे बेचकर पशुओं के खाने के लिए पशुओं के खाने के लिए खली और भूस खरीद लाता है । परमात्मा और उसके सन्तों से विमुख जीव अपनी आयु के बहुमूल्य वर्ष व्यर्थ के धन्धों में बिता देता है और अन्त में यमों के वश में पड़कर सज़ा भोगता है । 

रतन मणी गलि बांदरै किहु कीम न जाणै । 
कड़छी साउ न संम्हलै भोजन रसु खाणै । 
डडू चिकड़ि वासु है कवले न सिाणै । 
नाभि कथूरी मिरग दै फिरदा हैराणै । 
गुजरु गोरसु वेचि कै खलि सूड़ी आणै । 
बेमुख मूलहु घुथिआ दुख सहै जमाणै ॥४॥
(Vaar 13)

The monkey knows no worth of the jewellary tied to its neck. Even being in the food, the ladle does not know the taste of the dishes. The frog always lives in mire but still knows not the lotus. Having musk in its navel the deer runs around confused. The cattle breeder puts the milk on sale but fetches home, the oil cakes and husk. The apostate (Atheist) is a person basically gone astray and he undergoes the sufferings given by the Yama (Lord of Death). 

आवागमन से छूटने के लिए मनमुख अपनी मर्ज़ी और अक्ल के अनुसार कितने यत्न करते हैं पर अगम मण्डल की कुंजी परमात्मा ने सन्तों के हाथ सौंपी हूई है और उसने उनका पल्ला पकड़ा नहीं तो कैसे मुक्ति हो ? ऐसे साधकों को भाई गुरदास जी ने सच्चे सन्तों की शरण ढूँढने को प्रेरित किया है । आप लिखते हैं: 

यदि पेड़ों पर उलटे लटकने या सिर नीचा करके खड़े होने से कल्याण हो सकता तो चमगादड़ तो दिन-रात उसी प्रकार का वो तप करते रहते हैं । यदि श्मशान-भूमि जैसे सुनसान स्थान में डेरा डालने से (जैसे अघोरी तामसिक उपासना करते हैं) उद्धार हो जाता तो चूहें अवश्य बाज़ी मार लेते, क्योंकि वो अपने बिल ऐसे ही सुनसान जगह में बनाते हैं । योग-अभ्यास से चाहे सिद्धियाँ हासिल हो जाएँ जैसे आयु में वृद्धि होना आदि, पर अधिक वर्ष जीवित रहने से मोक्ष का अधिकारी नहीं बना जा सकता है । साँप बहुत लम्बी आयु भोगते हैं और अपने अन्दर के ज़हर में ही गलते या तपते रहते हैं । यदि शरीर पर पानी न डालकर, कपडे न धोकर, केवल गंदे रहने से ही छुटकारा सम्भव हो तो कीचड या मिट्टी में लेटने वाले सूअरों और गधों को अपनी योनि की अधम-गति में अधिक समय न जीना पड़े । कई लोगों का विचार है कि जंगलों में रहने से, वृक्षों और पौधों के फलों या जड़ों से पेट भरने से निर्वाण प्राप्त होता है, पर वे यह नहीं सोचते कि भेड़ों और बकरियों के झुण्ड यही कुछ खाकर निर्वाह करते हैं । सच तो या है कि जिस प्रकार दरवाज़े के बिना किसी घर में प्रवेश नहीं किया जा सकता है, उसी प्रकार बिना पूर्ण गुरु की सहायता के बिना मुक्ति का द्वार नहीं मिलता है । 

सिर तलवाए पाईऐ चमगिदड़ जूहै । 
मड़ी मसाणी जे मिलै विचि खुडां चूहै । 
मिलै न वडी आरजा बिसीअरु विहु लूहै । 
होइ कुचीलु वरतीऐ खर सूर भसूहे । 
कंद मूल लाईऐ अईअड़ वणु धूहे । 
विणु गुर मुकति न होवई जिउं घरु विणु बूहे ॥१३॥
(Vaar 34) 

If bowing only could grant liberation then the bats in the forests hang from trees upside down. Longevity also does not bring it because snake during its whole long life goes on smouldering in its own poison. If dirt could make it attainable, asses and swines always remain dirty and muddy. If relishing over tubers and roots could provide it (liberation), then herd of animals go on hauling and eating them (they should also have attained liberation). As a house (in fact) is useless without door, one cannot attain liberation without Guru. 

यही दलील तीर्थों पर स्नान करने(मेंढक), जटा रखने(बड़ का वृक्ष), नंगे घूमने(मृग), शरीर पर भभूत मलने(गधा), मौन धारण करने(पशु) पर भी बरबस लागू होती है । 

मिलै जि तीरथि नातिआं डडां जल वासी । 
वाल वधाइआं पाईऐ बड़ जटां पलासी । 
नगे रहिआं जे मिलै वणि मिरग उदासी । 
भसम लाइ जे पाईऐ खरु खेह निवासी । 
जे पाईऐ चुप कीतिआं पसूआं जड़ हासी । 
विणु गुर मुकति न होवणी गुर मिलै खलासी ॥१४॥ 
(Vaar 34) 

If one could attain liberation by taking bath at pilgrimage centres then (we know that) the frogs always live in water. If growing long hair could make it available then the banyan has long roots hanging from it. If going naked gets it, all the deer in the forest can be called detached ones. If it is attained by smearing ashes on body, the ass always rolls in dust. If muteness could bring it, the animals and inert objects are certainly speechless. No liberation is attained without Guru and bondages are shattered only after meeting the Guru.

३. काल चितावनी को अंग ~ १४

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*३. काल चितावनी को अंग* 
मनहर छन्द - 
*करत करत धंध कछुक न जांनै अंध,*
*आवत निकट दिन आगिलौ चपाकि दै ।* 
*जैसैं वाज तीतर कौं दाबत अचांनचक,* 
*जैसैं बक मछरी कौं लीलत लापाकि दै ॥* 
*जैसैं मक्षिका की घात मकरी करत आइ,* 
*जैसैं सांप मूषक कौं ग्रसत गपाकि दै ।* 
*चेति रे अचेत नर सुन्दर संभारि रांम,* 
*ऐसैं तोहि काल आइ लेइगौ टपाकि दै ॥१४॥* 
*ममत्व त्याग कर हरिस्मरण* : अरे अन्धे अज्ञानी पुरुष ! तूँ ये जगत् के धन्धे(कुकृत्य) करते हुए इतना भी नहीं समझ पा रहा है कि तेरा आगामी(मृत्यु का) दिन चटपट सामने आ जायगा । 
उस समय, जैसे बाज पक्षी तीतर पर झपटता है, या कोई बगुला मछली को तत्काल चोँच में लपक लेता है; 
या जैसे कोई मकड़ी किसी मक्खी को पकड़ने के लिये जाल फैलाये रहती है, या कोई साँप किसी चूहे को तत्काल गटक लेता है(खा जाता है); 
उसी प्रकार तेरी मृत्यु भी तत्काल तुझे अपने वश में कर लेगी । *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इसलिये तूँ सब कुछ छोड़ कर हरिस्मरण में तत्पर हो जा ॥१४॥
(क्रमशः) 

*पद ३३०. निन्दक बाबा वीर हमारा,*

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🌷 *#श्रीदादूवाणी०प्रवचनपद्धति* 🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*पद ३३०*
*निन्दक बाबा वीर हमारा,*
*बिन ही कौडे वहै विचारा ॥*
प्रसंग कथा -
सांभर में गाली दीई, गुरु दादू की आय ।
तब हि शब्द यह उच्चरा, धरी मिठाई पाय ॥१॥
एक दिन सांभर में एक व्यक्ति ने दादूजी के पास आकर दादूजी को गालियाँ देना आरम्भ किया । किसी अन्य संत ने दादूजी को कहा - यह व्यक्ति व्यर्थ ही आपको गालियाँ देता है । यह सुनकर दादूजी ने यह ३३० का पद बोलकर उससे भाई के समान प्रेम किया था । इस ३३० के पद को सुनकर वह बहुत लज्जित हुआ और मिठाई की छाव लाकर दादूजी की भेंट धरी थी । महान् संतों के स्वभाव ऐसे ही होते हैं ।
इतिश्री राग गुंड २० समाप्तः

= षो. त./२१-२२ =

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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“षोडशी तरंग” २१/२२)*
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*इन्दव छन्द*
*राजा ने प्रार्थना की*
आप चले कर धारि कमण्डलु, 
संत सभा मडली सब सारी ।
भूपति मान डरे गुरु चालत, 
संत दुखाय लियो दुख भारी ।
मैं न कह्यो गुरु आप चले उठि, 
विप्रन्ह बात बुरी सुविचारी ।
औगुण मोर क्षमा करि हो गुरु, 
मैं अपराध कियो मतिहारी ॥२१॥
श्री दादूजी हाथ में कमण्डलु उठाकर आमेर से प्रस्थान करने लगे, सभी साधु मंडली भी संग में चल पड़ी । आमेर नरेश मानसिंह को जब मालूम हुआ तो वह संभावित हरिकोप से डरने लगा । दौड़कर स्वामीजी के चरणों में गिर पड़ा और बोला - हे गुरुदेव ! मैंने तो आप से कुछ भी नहीं कहा, फिर आप यह नगरी छोड़कर क्यों चल दिये ? मूर्ख ब्राह्मणों की बात का बुरा मानकर यदि पधार रहे हो, तो मैं उन सबकी ओर से क्षमा मांगता हूँ । मैं अपराधी हूं, मैने उन विद्वेषी निन्दकों को रोका नहीं, राजदण्ड नहीं दिया - इस अवगुण को क्षमा कर दो । संतों को दु:ख देने वाले सभी दु:ख पायेंगे, वे मतिहीन है ॥२१॥
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संत कहे - नहिं मान ! डरो तुम, 
संग सदा हरि तोर सहाई ।
एकहिं भाव भले जु बुरे हम, 
नाहिं विचार सुसाधु कराई ।
भूप कहे - तुम संत बड़े गुनि, 
निन्दक बात कही नहिं जाई ।
संत उठे तब आप दुखी हरि, 
कोपत व्योम आवाज सुनाई ॥२२॥ 
स्वामीजी ने कहा - हे मानसिंह ! डरो मत । श्री हरि सदा तुम्हारे सहायक है । हम संतों के लिये तो भले, बुरे, प्रेमी, विद्वेषी सब समान हैं, हम साधु इसका विचार भी नहीं करते । राजा ने कहा - आप महान्, उदार और गुणी संत हैं, इन तुच्छ निन्दकों की बात का क्या विचार करेंगे । इनका तो स्वभाव ही निन्दा करना है, इनकी तुच्छता तो वाणी से कहने योग्य भी नहीं है । संतों की भक्ति - साधना में विघ्न होता देखकर, संत - पीडा से श्रीहरि भी दु:खी होकर कुपित हो गये । संतों को आसन छोड़कर उठते देखा, तो आकाशवाणी से गर्जना पूर्ण तर्जना प्रकट हुई ॥२२॥
(क्रमशः)

पद ३०६. *जागत जागै सोवत जागे*

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🌷 *#श्रीदादूवाणी०प्रवचनपद्धति* 🌷
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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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पद ३०६ पाद एक पर -
*जागत जागै सोवत जागे, जब राम नाम मन माना ।*
दृष्टांत - नृपति दर्श गया संत के, सुते संत रु दास ।
नृपति जगाये दोउन को, राम राम कह त्रास ॥१॥
एक राजा एक संत के दर्शन करने रात में गया था । सत्संग करते - करते रात्रि अधिक चली गई । अतः उक्त संतजी के शिष्य संत और राजा के सेवक दोनों को ही निद्रा आ गई ।
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तब राजा ने कहा - मेरे दासों को ते निद्रा आ गई तो कोई बात नहीं किन्तु आपके शिष्य संत भी सब सो गये हैं । संत ने कहा - संतों का मन राम नाम में लगा हैं, अतः ये तो सोते हुये भी जागते ही हैं । राजा - यह क्या पता है कि संतों का मन राम नाम में ही लगा है ? संत ने कहा - तुम उच्चस्वर से कोई शब्द बोलो फिर पता लग जायेगा । उठते ही जिनके मन में जो होगा वही बोलेंगे ।
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राजा ने उच्च स्वर से सावधान शब्द बोला - तब संत और राजा के सेवक दोनों ही जग गये । संत तो राम - राम बोलते हुये उठे और राजा के सेवक पकड़ो, मारो कौन आगया है, इत्यादि त्रास जनक शब्द बोलते हुये उठे । तब राजा ने मान लिया । सोई उक्त ३०६ के पद के एक पाद में कहा है कि - जिनका मन राम राम में रहता है, वे संत तो जागते और सोते दोनों अवस्थाओं में ही मोह नींद से जागे हुये ही रहते हैं । 
इतिश्री राग सोरठ १९ समाप्तः

= बिनती का अंग ३४ =(२६)

#daduji
॥ दादूराम सत्यराम ॥
*#श्रीदादूदयालवाणी०आत्मदर्शन*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*बिनती का अंग ३४*
*दया करै तब अंग लगावै, भक्ति अखंडित देवै ।*
*दादू दर्शन आप अकेला, दूजा हरि सब लेवै ॥२६॥* 
टीका ~ ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज कहते हैं कि परमेश्वर अपने निष्काम अनन्य भक्तों पर दया करके, अखंड लय रूप भक्ति के द्वारा, अपने स्वरूप में लगाते हैं । और फिर अपना साक्षात्कार कराके, सब प्रकार के भेदभाव की वृत्तियों का निवारण करते हैं ॥२६॥
(क्रमशः)

रविवार, 29 जून 2014

पूरक पूरा पास है

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
पूरक पूरा पास है, नाहीं दूर, गँवार ।
सब जानत हैं, बावरे ! देबे को हुसियार ॥
दादू चिन्ता राम को, समर्थ सब जाणै ।
दादू राम संभाल ले, चिंता जनि आणै ॥
दादू चिन्ता कियां कुछ नहीं, चिंता जीव को खाइ ।
होना था सो ह्वै रह्या, जाना है सो जाइ ॥

= ५ =

卐 सत्यराम सा 卐
मन चंचल मेरो कह्यो न मानै, 
दसों दिशा दौरावै रे । 
आवत जात बार नहि लागै, 
बहुत भॉंति बौरावै रे ॥टेक॥ 
बेर बेर बरजत या मन को, 
किंचित सीख न मानै रे । 
ऐसे निकस जाइ या तन तैं, 
जैसे जीव न जानै रे ॥१॥ 
कोटिक जतन करत या मन को, 
निश्चल निमष न होई रे । 
चंचल चपल चहुँ दिशि भरमै, 
कहा करै जन कोई रे ॥२॥ 
सदा सोच रहत घट भीतर, 
मन थिर कैसे कीजे रे । 
सहजैं सहज साधु की संगति, 
दादू हरि भजि लीजे रे ॥३॥ 
------------------------------ 
सभी दुःखों का मूल है- मन की चंचलता और मलिनता तथा सभी सुखों का मूल है- मन की निश्चलता एवं निर्मलता। मन निश्चल एवं निर्मल तभी होता है, जब मनुष्य परमेश्वर के नाम में अपनी आस्था को जोड़ता है।

३. काल चितावनी को अंग ~ १३


॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*३. काल चितावनी को अंग* 
*मात पिता जुवती सुत बंधव,*
*आइ मिल्यौ इनसौं सनबंधा ।*
*स्वारथ के अपने अपने सब,*
*सो यह नांहि न जानत अंधा ॥*
*कर्म विकर्म करै तिनकै हित,*
*भार धरै नित आपने कंधा ।*
*अंत बिछौह भयौ सब सौं पुनि,*
*याहि तैं सुन्दर है जग धंधा ॥१३॥*
*अज्ञानवश जगत् अन्धा है !* : *श्रीसुंदरदासजी* कहते हैं - यह प्राणी पूर्णतः अन्धा(अज्ञानी) दिखायी देता है । यहाँ माता, पिता, भाई, बन्धु, स्त्री - सभी ने अपने स्वार्थ के कारण ही अपना सम्बन्ध बना रखा है - इतना भी यह नहीं जानता ।
यह इन के लिये सुकृत करता हुआ अपने कन्धों पर व्यर्थ भार बढ़ाता जा रहा है । 
अन्त में एक दिन इनसे वियोग(इन का साथ छूटना) भी हो जायगा । इसीलिए यह जगत् लेन देन का व्यापार मात्र है ॥१३॥ 
(क्रमशः)
#daduji 

३०६. ज्ञान उपदेश । त्रिताल 
भाई रे, ऐसा एक विचारा, यूं हरि गुरु कहै हमारा ॥ टेक ॥ 
जागत सूते, सोवत सूते, जब लग राम न जाना । 
जागत जागे, सोवत जागे, जब राम नाम मन माना ॥ १ ॥ 
देखत अंधे, अंध भी अंधे, जब लग सत्य न सूझै । 
देखत देखे, अंध भी देखे, जब राम सनेही बूझै ॥ २ ॥ 
बोलत गूंगे, गूंगे भी गूंगे, जब लग सत्य न चीन्हा । 
बोलत बोले, गूंगे भी बोले, जब राम नाम कह दीन्हा ॥ ३ ॥ 
जीवत मूये, मूये भी मूये, जब लग नहीं प्रकासा । 
जीवत जीये, मुये भी जीये, दादू राम निवासा ॥ ४ ॥

पद ३०६ पाद एक- जागत जागै सोवत जागे, जब राम नाम मन माना । 

इस पर दृष्टांत - 
नृपति दर्श गया संत के, सुते संत रु दास ।
नृपति जगाये दोउन को, राम राम कह त्रास ॥ १ ॥
एक राजा एक संत के दर्शन करने रात में गया था । सत्संग करते-करते रात्रि अधिक चली गई । अतः उक्त संतजी के शिष्य संत और राजा के सेवक दोनोंओं को ही निद्रा आ गई । तब राजा ने कहा - मेरे दासों को ते निद्रा आ गई तो कोई बात नहीं किन्तु आपके शिष्य संत भी सब सो गये हैं । संत ने कहा - संतों का मन राम नाम में लगा हैं, अतः ये तो सोते हुये भी जागते ही हैं । राजा - यह क्या पता है कि संतों का मन राम नाम में ही लगा है ? संत ने कहा - तुम उच्चस्वर से कोई शब्द बोलो फिर पता लग जायेगा । उठते ही जिनके मन में जो होगा वही बोलेंगे । राजा ने उच्चस्वर से सावधान शब्द बोला - तब संत और राजा के सेवक दोनों ही जग गये । संत तो राम-राम बोलते हुये उठे और राजा के सेवक पकड़ो, मारो कौन आगया है, इत्यादि त्रास जनक शब्द बोलते हुये उठे । तब राजा ने मान लिया । सोई उक्त ३०६ के पद के एक पाद में कहा है कि- जिनका मन राम राम में रहता है, वे संत तो जागते और सोते दोनों अवस्थाओं में ही मोह नींद से जागे हुये ही रहते हैं ।

= षो. त./१९-२० =

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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“षोडशी तरंग” १९/२०)*
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*पंडितों ने राजा को बहकाया* 
अम्बापति जाय कही, दादू सिद्ध साधु सही,
ऐसी सुनि बात द्विज, मन में उदास जू । 
द्विज मिलि द्वेष करी, दाह को विचार धरी, 
संत को भगायें तब कटे सब पाश जू । 
लोग उकसाय नित, भूप ढिंग भेजे द्विज,
कहे संत रीति - नीति करत विनाश जू । 
बिगरे न कछु तोहि, जग में कुजस होइ, 
वेद धर्म भ्रष्ट किये नरक निवास जू ॥१९॥ 
राजा ने साधु - निन्दक ब्राह्मणों को धिक्कारा और कहा कि - श्री दादूजी सच्चे साधु हैं, तुम वृथा ही दुराग्रह ग्रसित होकर विद्वेष और निन्दा करते हो, यह सर्वथा अनुचित है । यह सुनकर विद्वेषी ब्राह्मण उदास हो गये । उन्होंने मिलकर ईर्ष्या डाह जनित षड्यन्त्र रचने का विचार किया - जिससे ये साधु किसी प्रकार भगाये जा सके, तभी सारी समस्या का जालपाश हो सकेगा । विद्वेषी ब्राह्मण, साधुओं के विरूद्ध जन - समुदाय को उकसाने लगे, उन्हें भरमाकर नित्य राजा के सामने भेजते, संत विरोधी नारे लगवाते, दुष्प्रचार करके, संतों को वैदिक रीति नीति, सनातनधर्म का विनाशक बताते । वे ब्राह्मण बार - बार राजा से कहते - ‘‘आपका तो कुछ बिगड़ने वाला नहीं, धर्म और जन समाज भ्रष्ट हो जाने से केवल कुयश ही फैलेगा, किन्तु वेद - मर्यादा और धर्म - व्यवस्था भ्रष्ट होने पर सभी नरक में जावेंगे ॥१९॥ 
*श्री दादूजी का विचार रमने का* 
भूप मन गुरु भाव, पूजे दादूदेव पाँव, 
विप्र - विरोध सोच कहे समुझाइ जू । 
साधुन्ह दुखावे जाकी, कोई न सहाय वाकी, 
महा अपराध होय, हरि रूठ जाइ जू । 
माने नहिं द्वेष भरे, निन्दक उठाय शिर, 
करें उतपात नित संत को भगाइ जू । 
संत सोचें मेरे काज, विघन हो राजकाज, 
छाँड़ि चलो अम्बपुरी, रमो जग जाइजू ॥२०॥ 
राजा के मन में श्री दादूजी के प्रति गुरुभाव सुदृढ़ था । विद्रोही ब्राह्मणों के भ्रमित जन समुदाय को समझाया - ‘‘सच्चे साधुओं को दु:ख देने से उन्हें सताने से महा अपराध हो जायेगा, श्री हरि रुष्ट हो जायेंगे । साधु - उत्पीड़न से, संत - विद्वेष से हरि का कोप भी हो सकता है ।’’ किन्तु भ्रमित विद्वेषी और निन्दक नहीं माने । संत को भगाने हेतु नित्य उत्पात करने लगे । तब संतों ने सोचा कि - हमारे कारण राज - काज में विघ्न हो रहा है, अत: अम्बापुरी छोड़कर कहीं अन्यत्र चलना चाहिये ॥२०॥ 
(क्रमशः)

= बिनती का अंग ३४ =(२५)


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॥ दादूराम सत्यराम ॥
*#श्रीदादूदयालवाणी०आत्मदर्शन*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*बिनती का अंग ३४*
*दादू माया प्रकट ह्वै रही, यों जे होता राम ।* 
*अरस परस मिल खेलते, सब जीव सब ही ठाम ॥२५॥* 
टीका ~ ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज कहते हैं कि जैसे यह माया और माया का कार्य, अन्तःकरण में प्रगट हो रहा है । इस प्रकार यदि हे राम ! आप प्रगट होते तो, सभी जीव, अन्तःकरण रूपी स्थान में आपसे ओत - प्रोत हो करके ‘खेलते’, अर्थात् आपका स्मरण करते ॥२५॥
(क्रमशः)

२९३ .*तो शोभा पिव तेरे ताँई*

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🌷 *#श्रीदादूवाणी०प्रवचनपद्धति* 🌷
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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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पद २९३ के पाद दो के - 
*तो शोभा पिव तेरे ताँई* इस अंश पर
दृष्टांत - 
नृपति हरेक हि साधु के, जाता दर्शन चाय ।
जो सिध तो धनि भाग मम, न तो बडाई पाय ॥१॥
एक राजा अपनी राजधानी में जो संत आते थे उन सबके दर्शन करने जाया करते थे । जब उनके मंत्री आदि कहते कि - आप कोई सिद्ध संत पधारें, उनके पास ही पधारा करें ।
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तब राजा कहता था - सिद्ध हों तब तो मेरा धन्य भाग है और सिद्ध नहीं हों तो भी यह बड़ाई तो मिल ही जाती है कि राजा अति श्रद्धालु भक्त हैं, सभी संतों के दर्शन करने जाते हैं । यह भी मेरे लिये अच्छी ही बात है । सोई उक्त पद २९३ के पाद दो में कहा है - मेरे हृदय घर में पधारें तब ही आपके लिये शोभा की बात रहेगी । सोई उक्त राजा ने कहा था - मेरे लिये शोभा की बात तब ही है जब मैं संतों के दर्शन सत्संग के लिये जाता रहूं ।
इतिश्री राग नट नारायण १८ समाप्तः

शनिवार, 28 जून 2014

सब कुछ व्यापै राम जी

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 

सब कुछ व्यापै राम जी, कुछ छूटा नांही ।
तुम तैं कहाँ छिपाइये, सब देखो मांही ॥ 
सबल साल मन में रहै, राम बिसर क्यों जाइ ।
यहु दुख दादू क्यों सहै, साँई करो सहाइ ॥
राखणहारा राख तूँ, यहु मन मेरा राखि ।
तुम बिन दूजा को नहीं, साधू बोलैं साखि ॥ 
माया विषय विकार तैं, मेरा मन भागे ।
सोई कीजे साँईयाँ, तूँ मीठा लागे ॥

= ४ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू बुरा न बांछै जीव का, सदा सजीवन सोइ । 
परलै विषय विकार सब, भाव भक्ति रत होइ ॥ 
सतगुरु संतों की यह रीत, आत्म भाव सौं राखैं प्रीत । 
ना को बैरी ना को मीत, दादू राम मिलन की चीत ॥ 
------------------------------------------------------- 
साभार : Savita Savi Lumb

परोपकार करने से पहले अपना ही भला होता है ! जिस तरह यह बात सत्य है उसी तरह यह सत्य है कि दूसरे का बुरा सोचने मात्र से, पहले अपना बुरा हो जाता है ! अगर परमात्मा करुणानिधि है, सुख रूप है, आनन्द रूप है तो क्रूर(रुद्र) रूप भी है ! जाकर हस्पतालों में, पागलखानों में, वृद्धाश्रमों में जाकर देखो लोग कैसे दुख से कराह रहे हैं ! जिसने दुख दिया है उसे परमात्मा दुख देने में संकोच नहीं करता ! उसे हमारे कर्मों के अनुसार फल देना ही पड़ता है ! इसलिये भले बनो और भला करो !

३. काल चितावनी को अंग ~ १२

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*३. काल चितावनी को अंग* 
*तूं अति गाफिल होइ रह्यो सठ,*
*कुंजर ज्यौं कछु शंक न आंनै ।* 
*माइ नहीं तन मैं अपने बल,*
*मत्त भयौ बिषया सुख ठांनै ॥* 
*खोसत खोसत बै दिन बीतत,*
*नीति अनीति कछू नहिं जांनै ।* 
*सुन्दर के हरि काल महारिपु,*
*दंत उपारि कुंभस्थल भांनै ॥१२॥* 
तूँ मन्दोमत्त हाथी की तरह उन्मत पड़ा है, तुझे अपने पर आती हुई विपत्ति की कोई चिन्ता ही नहीं है । 
तुझे अपने बल पर इतना गर्व है कि तूँ अपने सामने किसी को कुछ न समझ कर विषयसुखों के भोग के भोग में ही मस्त हो रहा है । 
तूँने संसार में दुर्बलों को छीना झपटी करते करते इतने दिन बिता लिये ! तूँ अपने इस कुकृत्य में किसी न्याय अन्याय का भी कोई विचार नहीं करता ।
श्री सुन्दरदास जी कहते हैं - सिंह के सामान तेरा महान् शत्रु बना हुआ यह काल(मृत्यु) तेरे दाँत उखाड़ कर तेरा कुम्भस्थल(मस्तक) चीर डालेगा ! ॥१२॥ 
(क्रमशः)

२८२. अंतर पीव सौं परिचय नाहीं

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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२८२. भेष बिडंबन । ललित ताल
हम पाया, हम पाया रे भाई । भेष बनाय ऐसी मन आई ॥ टेक ॥
भीतर का यहु भेद न जानै, कहै सुहागिनी क्यों मन मानै ॥१॥
*अंतर पीव सौं परिचय नाँहीं, भई सुहागिनी लोगन मांहीं ॥२॥*
सांई स्वप्नै कबहुँ न आवै, कहबा ऐसे महल बुलावै ॥३॥
इन बातन मोहि अचरज आवै, पटम किये कैसे पीव पावै ॥४॥
दादू सुहागिनी ऐसे कोई, आपा मेट राम रत होई ॥५॥
पद २८२ के पाद २ -
*“अंतर पीव सौं परिचय नाहीं,*
*भई सुहागिनि लोकन मांही ॥२॥”*
पर दृष्टांत -
कुम्भ गाड आसन तले, दीपक धर ढँक मांहिं ।
लोगन को कह रात को, ब्रह्मज्योति दर्शाहिं ॥४॥
एक ग्राम में एक साधु ने अपनी भजन करने की कुटिया में आसन के नीचे की भूमि खोद कर उसमें एक घड़ा गाड दिया और उसमें एक तेल का दीपक रख दिया । रात्रि के समय जितनी देर भजन करने का ढोंग करे तब उस दीपक को जलाकर उसके उपर उसका मुख खुला रख कर बैठ जाय ।
.
दीपक का प्रकाश घड़े के मुख से निकल कर कुटिया में फैल जाय । दिन को उस पर ढँकन लगा कर उसके ऊपर गद्दा बिछादे । ग्राम में प्रचार करे दिया कि मैं जब भजन में बैठता हूं तब कुटिया में ब्रह्मज्योति प्रकट हो जाती है । जिसको दर्शन करना हो वह जंगला खुला रहाता है उसमें से कर सकता है । फिर लोग दर्शन करने लगे ।
.
एक विचरते हुये विद्वान् संत ग्राम में पधार गये थे । ग्राम के लोगों ने उनको भी कहा - हमारे संत रात्रि को भजन में बैठते हैं तब उनकी भजन करने की कुटिया ब्रह्मज्योति से भर जाती है । संत ने पू़छा - प्रकाश कैसा होता है ? लोगों ने कहा - दीपक जैसा । संत ने कहा - तब ब्रह्मज्योति नहीं है, दीपक ज्योति ही है । ग्राम वालों ने कहा - तुम कैसे जान सकते हो । तुमने तो रोटी माँग कर खाई है ।
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उसके पश्चात् उन विचारशील व्यक्तियों ने कहा - दीपक तो कुटिया में नहीं दिखाई देता है । संत ने कहा - आसन के नीचे होगा । आसन को उठा कर देखो । तब उन लोगों ने दो चार युवकों को कहा - संत की भजन शाल का आसन उठा कर देखो । वे लोग उस कुटिया में घुसने लगे तब संत ने कहा - इस कुटिया में मत जाओ । यह तो भजन करने की ही है । फिर भी वे घुसकर आसन उठाने लगे तब साधु ने तमक कर कहा - आसन को नहीं उठाना यदि नहीं मानोगे तो मैं अभी भस्म कर दूंगा ।
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इतने में तो उन लोगों ने घड़े पर बिछे हुये गद्दे को उठाकर देखा तो भूमि के बराबर एक ढँकन पड़ा है । उसको उठाया तो भूमि में गड़े हुये घड़े में तेल से भरा दीपक है, उसमें बत्ती जुती हुई बुझी पड़ी है । इतना देखकर वे लोग चुपचाप बाहर आ गये । सोई उक्त पद २८२ के पाद २ में कहा है कि परमात्मा का तो कु़छ भी ज्ञान नहीं है फिर भी लोगों को उक्त साधु के समान कहते है । हमने तो ब्रह्म प्राप्त कर लिया है । वे दंभी ही होते हैं ।
इतिश्री राग टोडी १६ समाप्तः

= षो. त./१७-१८ =

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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“षोडशी तरंग” १७/१८)*
.
*श्री दादूजी ने परमात्मा की समर्थता बताई* 
भूप कहे - तुम नाहिं कुमावत, 
छाजन भोजन का विधि होई । 
भेंट न लेवत, ना धन संचित, 
नौतम अम्बर धारत सोई । 
आप कही जग आस तजी जन, 
और सबे मन को मद खोई । 
तो हरि आप संभाल करे नित, 
दास कभी दुख होय न कोई ॥१७॥
राजा ने निवेदन किया - आप साधु संत न तो कमाते हैं, न भेंट लेते हैं और न कोई धन का संचय ही रखते हैं, फिर यह छाजन - भोजन की व्यवस्था किस प्रकार होती है ? सभी संत नौतम अम्बर धारण किये हुये हैं, इन सबकी पूर्ति कहां से होती है ? तब स्वामीजी ने शंका का निवारण किया - साधु संतों ने जग की आशा त्यागकर अपने मद मान को भी जीत लिया है, केवल श्री हरि के अनन्य शरण होकर रहते हैं, अत: वे श्रीहरि ही सबकी सँभाल करते है । इन संतों को कभी कोई दु:ख नहीं होता ॥१७॥ 
*मनोहर छन्द* 
*राजा को टीला जी ज्ञान सीखाना*
टीला शिष्य स्वामी साथ, मानसिंह पूछी बात,
टीला सब कही तात, भूप सों बखानिये । 
टीला समाधान करी, भूप सनमान धरी, 
मानसिंह चुप होय, गुरु उर मानिये । 
टीला जी सुं सत्य सुनि, मान मान्यो गुरु गुनी, 
बार - बार शीश नाय, गुरु सनमानिये । 
दादूपंथी संत जन, एक हि अद्वैत मन, 
नरपति गुरुपद - रज शीश आनिये ॥१८॥ 
इस संक्षिप्त उत्तर से राजा को सन्तुष्टि नहीं हुई । उसने स्वामीजी के हजूरी शिष्य टीलाजी से साधुओं की व्यवस्थावृत्ति के बारे में पूछा । टीला जी ने संत प्रभाव, सेवकों का श्रद्धाभाव, सेवावृत्ति, त्यागनीति का विस्तार से व्याख्यान किया । राजा की शंका का समाधान किया । सन्तुष्ट होकर राजा ने भी स्वामीजी के प्रति गुरुभावना धारण कर ली, शीश निवाकर चरणरज शिर पर लगाई और महल में लौट गया । दादूपंथी संतों को एक अद्वैत के उपासक, भेदभाव जातिवर्ण पक्षपात से रहित निर्मल साधु मानने लगा ॥१८॥ 
(क्रमशः)

= बिनती का अंग ३४ =(२४)

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॥ दादूराम सत्यराम ॥
*#श्रीदादूदयालवाणी०आत्मदर्शन*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*बिनती का अंग ३४*
*दया विनती*
*नांही प्रकट ह्वै रह्या, है सो रह्या लुकाइ ।* 
*संइयाँ पड़दा दूर कर, तूँ ह्वै प्रकट आइ ॥२४॥* 
टीका ~ माया और माया का कार्य संसार, स्वरूप से सत्य नहीं है, वह तो प्रतीत हो रहा है । और सत् चित् आनन्द स्वरूप जो आत्मा है, वह छुप रहा है । हे परमेश्वर ! इस अविद्या रूप पड़दे को दूर करके, आप आत्मा रूप से प्रकट होइये ॥२४॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 27 जून 2014

= ३ =

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卐 सत्यराम सा 卐
सांई दीया दत घणां, तिसका वार न पार । 
दादू पाया राम धन, भाव भक्ति दीदार ॥ 
------------------------------------- 
साभार : Kripa Shankar B
Every day should be a day of thanksgiving for the gifts of life: sunshine, water, and the luscious fruits and greens that are indirect gifts of the Great Giver. 
God makes us work so that we may deserve to receive His gifts.
The All-Sufficient One does not need our thanks, however heartfelt, but when we are grateful to Him our attention is concentrated, for our highest benefit, upon the Great Source of all supply. 
- Paramahansa Yogananda

आपा मेटै हरि भजै

卐 सत्यराम सा 卐 
आपा मेटै हरि भजै, तन मन तजै विकार ।
निर्वैरी सब जीव सौं, दादू यहु मत सार ॥
दादू निर्वैरी निज आत्मा, साधन का मत सार ।
दादू दूजा राम बिन, बैरी मंझ विकार ॥
निर्वैरी सब जीव सौं, संतजन सोई ।
दादू एकै आत्मा, बैरी नहिं कोई ॥

३. काल चितावनी को अंग ~ ११

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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
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*३. काल चितावनी को अंग* 
*चेतन क्यौं न अचेतन ! ऊंघ न,* 
*काल सदा सिर उपरि गाजै ।* 
*रोकि रहै गढ़ कै सब द्वारनि,* 
*तूं तब कौंन गली होइ भाजै ॥*
*आइ अचानक केश गहै जब,* 
*पाकरि कै पुनि तोहि झुलाजै ।* 
*सुन्दर कौन सहाइ करै जब,* 
*मूंडहि मूंड भराभरि बाजै ॥११॥*
रे अविवेकिन ! तूँ क्यों निन्द्रा में पड़ा हुआ है ? सावधान क्यों नहीं होता ! तेरे सिर पर तेरी मौत मँडरा रही है ! 
उस ने तेरे गढ़(रक्षास्थान = शरीर) पर सब ओर से नियंत्रण कर लिया है, अब तूँ उससे बच कर किस मार्ग से निकल पायगा ? 
वह अकस्मात् आ कर तेरे बाल पकड़ लेगी, और तुझे झकझोर देगी । 
श्री सुंदरदास जी कहते हैं - ऐसी भयानक स्थिति में तेरी सहायता करने कौन आयगा, जब कि यहाँ उपस्थित भीड़ के ही शिर एक दूसरे से टकरा कर भड़ाभड़ फूट रहे हैं ॥११॥ 
(क्रमशः)

२८०. हुशियार हाकिम न्याव है

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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२८०.(फारसी) त्रिताल
हुशियार हाकिम न्याव है, सांई के दीवान ।
कुल का हिसाब होगा, समझ मुसलमान ॥टेक॥
नीयत नेकी सालिकां, रास्ता ईमान ।
इखलास अंदर आपणे, रखणां सुबहान ॥१॥
हुक्म हाजिर होइ बाबा, मुसल्लम महरबान ।
अक्ल सेती आपमां, शोध लेहु सुजान ॥२॥
हक सौं हजूरी हूँणां, देखणां कर ज्ञान ।
दोस्त दाना दीन का, मनणां फरमान ॥३॥
गुस्सा हैवानी दूर कर, छाड़ दे अभिमान ।
दुई दरोगां नांहिं खुशियाँ, दादू लेहु पिछान ॥४॥
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पद २८० *“हुसियार हाकिम न्याय है, सांई के दीवान”*
इस पद की प्रसंग कथा -
सांभर हाकिम से कहा, पद यह दादू देव ।
मान वचन गह नीति को, करी गुरां की सेव ॥३॥
.
उक्त २८० के पद की प्रसंग कथा इस प्रकार है - एक दिन ब्राह्ममुहूर्त में उच्चस्वर से दादूवाणी में ३३६ की संख्या का भजन दादूजी बोल रहे थे । जागहु जियरा काहे सोवे । उसे सुनकर ईर्ष्यावश काजी, मुल्ला आदि को क्रोध आ गया । वे दादूजी को पकड़ कर सांभर के हाकिम बिलंदखान खोजा के पास ले गये । बिलंदखान ने उक्त लोगों के कहने से दादूजी को कैद की कोठड़ी में बन्द कर दिया ।
.
फिर दादूजी ने प्रभु से प्रार्थना करते हुये 
विषम बार हरि अधार, करुणा बहु नामी । 
दादूवाणी का ४२६ का पद बोला ~
आगे पीछे संग रहे, आप उठावे भार ।
साधु दुखी तब हरि दुखी, ऐसा सिरजनहार ॥
सेवक की रक्षा करे, सेवक की प्रतिपाल ।
सेवक की बाहर चढे, दादू दीनदयाल ॥
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उक्त पद और साखियों के उच्चारण करते ही ईश्वर कैद के बाहर दादूजी के रूप में प्रकट हो गये । कैद के भीतर और बाहर दादूजी को देखकर बिलंदखांन ने दादूजी को कैद से निकलवाकर क्षमायाचना की, तब दादूजी ने बिलंदखांन को उक्त २८० के पद से उपदेश किया था । फिर वह दादूजी का उपदेश मान कर दादूजी की सेवा भी करने लगा था ।

= षो. त./१५-१६ =

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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“षोडशी तरंग” १५/१६)*
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*राजा के संका श्री दादूजी से पूछना* 
भूप कहे - तुम सत्य कहो गुरु, 
सिद्ध रू शूर हिं एक विचार । 
ज्ञानहिं खड्ग लिये अपने कर, 
होत निशंक हिं झूझन हारा । 
स्वामिजु! कौन किये इन शिष्यन्ह, 
कौन विधी अधिकार उदारा । 
स्वामि कही - किनहू न किये शिष, 
आपुन भावहिं होत हमारा ॥१५॥ 
राजा ने प्रार्थना की - गुरुदेव ! आप सत्य फरमाते हैं, साधु और शूरवीर की एक ही रीति - नीति और समान कार्यशैली होती है । साधु संत ज्ञानरूपी खड्ग धारण करके, नि:शंक होकर सांसारिक दोषों से जूझते रहते हैं । अब आप यह बताइये कि - इतने जन आपके शिष्य कैसे हो गये ? इनकी मनोवृत्ति इतनी उदार, इतनी निर्मल कैसे हो गई ? कौनसी विधि से उन्हें साधुता का अधिकार मिला ? तथा स्वामीजी ने बताया - कोई किसी को शिष्य नहीं बनाता, अपितु अपनी श्रद्धा - भावना से प्रेरित होकर ही ये शिष्य बने हैं । भक्ति - साधना से मन निर्मल होता है, साधु - वृत्ति उजागर होती है ॥१५॥ 
*श्री दादूजी का ज्ञान देना राजा को* 
ज्यों शशि देखि कुमोद लुभावत, 
ज्यों अहि चन्दन जात खरे हैं । 
ज्यों रवि देखत अम्बुज फूलत, 
दीपक देखि पतंग परे हैं । 
जैसहुं कौन कुं जहाज बुलावत, 
बैठन कों, जन पार करे हैं । 
त्यों निज संत चहूं दिशि आवत, 
राम रजा सब काज सरे हैं ॥१६॥ 
जिस प्रकार शशी को देखकर कुमोदिनी लुभाती है, चन्दन की शीतल सुगन्ध से आकर्षित होकर सर्प उससे लिपट जाते हैं, दीपक की तरफ पतंगे दौड़ पड़ते हैं, सूर्य को देखकर कमल खिल जाते हैं, जहाज में बैठने व पार उतरने के लिये यात्रीजन स्वेच्छा से आते हैं, उसी प्रकार संतों के तप: प्रभाव से, दयालुता - साधुता से प्रभावित होकर भक्तजन उनके समीप आते हैं, सांसारिक तापों से मुक्ति पाकर श्रद्धालु बन जाते हैं, रामजी की कृपा से उनके सब मनोरथ पूरे होने लगते हैं ॥१६॥ 
(क्रमशः)

= बिनती का अंग ३४ =(२३)


#daduji
॥ दादूराम सत्यराम ॥
*#श्रीदादूदयालवाणी०आत्मदर्शन*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*बिनती का अंग ३४*
*साँई संशय दूर कर, कर शंका का नाश ।* 
*भान भ्रम दुविध्या दुख दारुण, समता सहज प्रकाश ॥२३॥* 
टीका ~ हे साँई परमेश्वर ! हमारे अन्तःकरण से संशय, अज्ञान और अश्रद्धा, इनको दूर कर । भ्रम पांच प्रकार का, द्वैतभाव और सम्पूर्ण बड़े - बड़े दुःख, जन्म - मरण आदि नाश करके, समता कहिए समदृष्टि अर्थात् आत्म - दृष्टि का प्रकाश करो । यही आपसे हमारी विनती है ॥२३॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 26 जून 2014

२७९. काहे रे बक मूल गँवावै

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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२७९. त्रिताल
काहे रे बक मूल गँवावै, 
राम के नाम भलें सचु पावै ॥टेक॥
वाद विवाद न कीजे लोई, 
वाद विवाद न हरि रस होई ।
मैं मैं तेरी मांनै नाँहीं हीं, 
मैं तैं मेट मिलै हरि मांहीं ॥१॥
हार जीत सौं हरि रस जाई, 
समझि देख मेरे मन भाई !
मूल न छाड़ी दादू बौरे, 
जनि भूलै तूँ बकबे औरे ॥२॥
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पद २७९ के पाद १ के - वाद विवाद न कीजे लोई ।
इस अंश पर दृष्टांत -
पंडित वादा पाठ में, दूजा बोला डाट ।
पाठ करत संचर पड़ा, रसना डारी काट ॥२॥
दो पंडित पाठ कर रहे थे । एक ने दूसरे को कहा - पाठ अशुद्ध करते हो । दूसरे ने कहा नहीं । फिर दोनों पंडितों में पाठ अशुद्ध व शुद्ध पर शास्त्रार्थ आरंभ हो गया । अन्त में दोनों में निर्णय हुआ कि - जो सब अशुद्ध बोलेगा वह अपनी जिह्वा को काट कर फैंक देगा ।
जब एक ने अशुद्ध बोला तब दूसरे ने डांट कर कहा - पाठ अशुद्ध बोला है । फिर अशुद्ध सिद्ध होने पर उसने अपनी रसना अपने हाथ से काट कर पृथ्वी पर डाल दी थी । सोई उक्त २७९ के पद के पाद १ में कहा है कि - वाद - विवाद नहीं करना चाहिये । करने से उक्त रसना कटाने वाले पंडित की सी दशा हो जाती है ।

दादू झूठा राता झूठ सौं ~ २

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू बाहर का सब देखिये, भीतर लख्या न जाइ । 
बाहर दिखावा लोक का, भीतर राम दिखाइ ॥ 
दादू यह परिख सराफी ऊपली, भीतर की यहु नाहिं । 
अन्तर की जानैं नहीं, तातैं खोटा खाहिं ॥ 
दादू झूठा राता झूठ सौं, सॉंचा राता सॉंच । 
एता अंध न जानहिं, कहँ कंचन, कहँ कॉंच ॥ 
दादू सच बिन सांई ना मिलै, भावै भेष बनाइ । 
भावै करवत उर्ध्वमुख, भावै तीरथ जाइ ॥ 
दादू साचा हरि का नाम है, सो ले हिरदै राखि । 
पाखंड प्रपंच दूर कर, सब साधों की साखि ॥ 
---------------------------------------------- 
साभार : बिष्णु देव चंद्रवंशी ~ 

बाहरी पवित्रता की अपेक्षा हृदय की पवित्रता मनुष्य के चरित्र को उज्जवल बनाने में बहुत अधिक सहायक होती है ! मनुष्य को काम, क्रोध, हिंसा, वैर, दम्भ आदि दुर्गन्ध भरे कूड़े को बाहर फेंक कर हृदय को सदा साफ रखना चाहिये ! बाहर से निर्दोष कहलाने का प्रयत्न न कर मनसे निर्दोष बनना चाहिये ! मन से निर्दोष मनुष्य को दुनिया दोषी बतलावे तो भी कोई हानि नहीं; परन्तु मन में दोष रखकर बाहर से निर्दोष कहलाना हानिकारक है !

दादू जीव जंजालों ~ १

卐 सत्यराम सा 卐 
दादू जीव जंजालों पड़ गया, उलझ्या नौ मण सूत । 
कोई इक सुलझे सावधान, गुरु बाइक अवधूत ॥ 
दादू मन भुजंग यहु विष भर्या, निर्विष क्योंही न होइ । 
दादू मिल्या गुरु गारड़ी, निर्विष कीया सोइ ॥ 
------------------------------------------------- 
साभार : बिष्णु देव चंद्रवंशी ~ 

बड़े से बड़े शक्तिशाली मनुष्य हुए परन्तु उनकी भी सम्पूर्ण वासनायें पूर्ण न हो सकीं। इसलिये शरीर यात्रा के लिये आवश्यक कर्मों को करते हुए मुख्य ध्यान परमात्मा की प्राप्ति में लगाओ। विषयों को भोगकर इन्द्रियों को तृप्त करने की बात सोचना ऐसा ही है जैसे खुजलाकर खाज को अच्छा करने की आशा करना। संसार के व्यवहार उलझे हुए कच्चे सूत के समान हैं, जितना सुलझाने की चेष्टा करोगे उतने ही ये उलझेगें। इसलिये बुद्धिमानी पूर्वक संसार का व्यवहार चलाते हुए मुख्य बुद्धि परमार्थ में ही रखना चाहिये। 
________ श्री कृष्ण हरी

३. काल चितावनी को अंग ~ १०

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
.
*३. काल चितावनी को अंग* 
*सोई रह्यौ कहां गाफिल व्है करि,* 
*तो सिर ऊपर काल दहारै ।* 
*धामस धूमस लागि रह्यौ सठ,* 
*आइ अचानक तोहि पछारै ॥*
*ज्यौं बन मैं मृग कूदत फांदत,* 
*चित्रक लै नख सौं उर फारै ।* 
*सुन्दर काल डरै जिहिं के डर,* 
*ता प्रभुकौं कहि क्यों न संभारै ॥१०॥*
अरे मूर्ख ! तूँ असावधान क्यों पड़ा है । तेरे सिर पर, कालरूप सिंह दहाड़ता हुआ, आ चढ़ा है । 
और तूँ अभी अपने शरीर की निरर्थक साज सज्जा में धूम धाम से लगा हुआ है । उधर वह मृत्युराज, पता नहीं कब आकर तुझको पछाड़(गिरा) दे ।
जैसे वन में कोई हरिण अपनी मौज मस्ती से कूद फाँद रहा हो, और इसी बीच कोई चीता(व्याघ्र जाति का हिंसक पशु) आकर उसके शरीर को अपने तीक्ष्ण नखों से विदीर्ण कर देता है(उसी तरह मृत्यु तुम पर भी आक्रमण कर सकती है) ।
श्रीसुंदरदासजी कहते हैं - रे मानव ! वह मृत्यु भी जिस से भय मानता है, तूँ उस प्रभु का निरन्तर स्मरण क्यों नहीं करता१॥१०॥
(१ - भगवान् श्रीदादूदयाल भी कहते हैं - 
दादू सब जग कंपै काल तैं, ब्रह्मा विष्णु महेश ।
सुर नर मुनिजन लोक सब, स्वर्ग रसातल शेष ॥८६॥
चंद, सूर, धर, पवन, जल, ब्रह्मांड खंड प्रवेश ।
सो काल डरै करतार तैं, जै जै तुम आदेश ॥८७॥
श्री दादूवाणी काल का अंग)
(क्रमशः)

२७३. ते मैं कीधेला राम ! जे तैं वार्या ते

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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राग टोडी(तोडी) १६
२७३.(गुजराती) केवल विनती । सवारी ताल
ते मैं कीधेला राम ! जे तैं वार्या ते ।
मारग मेल्हि, अमारग अणसरि, अकरम, करम हरे ॥टेक॥
साधू को संग छाड़ी नें, असंगति अणसरियो ।
सुकृत मूकी, अविद्या साधी, बिषिया विस्तरियो ॥१॥
आन कह्युं आन सांभल्युं, नैणें आन दीठो ।
अमृत कड़वो, विष अमी लागो, खातां अति मीठो ॥२॥
राम हृदाथी विसारी नें, माया मन दीधो ।
पाँचे प्राण गुरुमुख वरज्या, ते दादू कीधो ॥३॥
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पद २७३ की टेक - ते मैं कीधेला राम ! जे तैं वार्या ते ।
इस पर - दृष्टांत -
जहँ बरजे तहँ जाय मन, ज्यों नृप काला बैल ।
वैद्य बताई रोग मैं, आप छुड़ाई गैल ॥१॥
एक राजा के एक असाध्य रोग हो गया था । राजा ने अपने मुख्य वैद्य से कहा - मेरा रोग नहीं मिटाओगे तो आपकी जीविका छीन ली जायगी । तब वैद्य ने कहा - आपके रोग मिटने में आपका प्रिय काला बैल प्रतिबन्धक है । आप अपने काले बैल को भूल जाओ तो आपका रोग मिट जायगा । ऐसा कहकर वैद्य ने अपना पीछा छुड़ा लिया । तब राजा काले बैल को भूलने का प्रयत्न करने लगा किन्तु वह भूलने के यत्न से औेर अधिक याद आता था ।
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सोई उक्त २७३ पद की टेक में कहा है कि - हे राम जी ! जो आपने निषेध किये है, वे ही कार्य मैंने किये हैं फिर उक्त राजा के समान मेरा जन्मादि रोग कैसे मिटेगा ? अतः आपकी कृपा से ही भवरोग मिटेगा, मेरे साधना से नहीं । यह मन तो निषैधों में ही जाता है ।